औपनिवेशिक शासन के दौरान देश के अन्य भागों के साथ बंगाल में भी दलित चेतना का विकास हुआ. औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रभाव स्वरूप हाशिये के लोग केंद्र में आने की जद्दोजहद करने लगे जिसके दो परिणाम हुए- इसने दलितों के लिए अंतहीन संभावनाओं के रास्ते खोल दिए और दूसरा यह कि उन्हें यह अहसास करवाया कि उनकी प्रगति की ये संभावनाएं दूर का स्वप्न हैं, जिसे यथार्थ में पाना असंभव तो नहीं पर कठिन अवश्य है. बंगाल में ज़मींदारी–प्रथा के कारण एक ओर जहाँ सवर्ण जातियां आर्थिक और सामाजिक तौर पर सबल थीं वहीं बड़ी संख्या में दमित–दलित जन भूमिहीन, अधिकारहीन, जाति और वर्ग के नाम पर उत्पीड़ित थे. जमींदारों के साथ-साथ ब्रिटिश शासन भी भूमिहीनों का आर्थिक शोषण कर रहा था.
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में दलितों का आन्दोलन सामाजिक–धार्मिक मुद्दों को लेकर सामने आया. वे स्वयं को हिन्दू सवर्णों से अलगाना चाहते थे और उन्हें लगता था कि उनकी दुर्दशा के मूल में हिन्दू धर्म के नियम–कानूनों की प्रमुख भूमिका है. ’कर्ताबाज़’ एक ऐसा ही आन्दोलन था जो 18 शताब्दी में उभरा था. कर्ताबाज़ आन्दोलन ने दलितों के समक्ष हिन्दू धर्म के विकल्प के रूप में तांत्रिक और बुद्ध धर्म के पंथ को प्रस्तुत किया. कर्ताबाज़ आन्दोलन को सहजिया आन्दोलन और चैतन्य महाप्रभु से भी जोड़ा गया और इसमें जाति-व्यवस्था वेदों और कर्मकांडों का विरोध कर प्रेम और आस्था पर बल दिया गया. आगे चलकर बीसवीं शताब्दी में आधुनिक राजनीति और राजनीतिक चेतना के विकास के साथ–साथ दलित आंदोलनों विशेषकर नामशूद्र और राजबन्सियों ने आर्थिक और राजनैतिक प्रतिनिधित्व के सवाल पर अपना स्वरूप अलग कर लिया.
‘नामशूद्र’ जिन्हें पहले ‘चांडाल’ के रूप में जाना जाता था, वे पूर्वी बंगाल के– बाकरगंज, फरीदपुर, ढाका, मेमनसिंह, जैसोर और खुलना में फैले हुए थे. जबकि राजबंसी रंगपुर, दिनाजपुर, जलपाईगुड़ी और कूचबिहार की तरफ ज्यादा संख्या में रहते थे. सन 1873 में फरीदपुर–बाकरगंज में नामशूद्रों द्वारा आयोजित भोज में सवर्णों द्वारा शामिल होने से मना करने के कारण एक बड़ा आन्दोलन हुआ जिसके फलस्वरूप नामशूद्रों ने सवर्ण जातियों का पूर्ण रूप से बहिष्कार कर दिया. आगे चलकर नामशूद्रों ने शिक्षा व्यवस्था में भी दखल दिया क्योंकि सवर्ण जातियां दलित बच्चों की शिक्षा में रोड़े अटका रही थीं. उधर ‘मटुआ महासंघ’ जिसे हरिचंद ठाकुर ने स्थापित किया था, वह धर्म-सुधार आन्दोलन से आगे बढ़कर समाजसुधार के एजेंडे से जुड़ रहा था. मटुआ संप्रदाय ने परब्रम्ह की जगह अन्नब्रम्ह की उपासना पर बल दिया और भौतिक उपलब्धियां अर्जित करने का सन्देश दिया. इसके समानांतर दलित जातियों को समाज में सम्मान देने की मांग लेकर राजबन्सियों द्वारा भी ‘रंगपुर क्षत्रिय जातिर उन्नति बिधायिनी सभा’ जैसे संगठनों की स्थापना होने लगी.
ब्रिटिश राज के खिलाफ आन्दोलन में भी दलितों को मुख्यधारा में शामिल किये जाने के मुद्दे पर सवर्ण जातियों के लोग बंटे हुए थे. उधर राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल न होने का मतलब ब्रिटिश राज के प्रति वफ़ादारी थी. सन 1911,1923 और 1938 में बंगाल में मुसलमानों के साथ दलितों के टकराव के साक्ष्य मिलते हैं. दरअसल दलितों ने, मुसलमानों और सवर्णों के बीच खुद को फंसा हुआ पाया क्योंकि अभी तक दोनों ही समुदाय दलितों को प्रतिनिधित्व और उन्हें अपेक्षित स्पेस देने के लिए तैयार नहीं थे. हालाँकि ‘पूना पैक्ट ‘के बाद गांधीजी की पहल पर कांग्रेस में जाति सम्बन्धी पूर्वग्रहों में कुछ ढिलाई आई थी.
1937 के चुनावों के बाद मुस्लिम साम्प्रदायिकता को हवा देने के लिए दलितों को दोषी ठहराया गया जिसके फलस्वरूप उनमें से कइयों ने हिन्दू महासभा का रुख कर लिया. सवर्ण हिन्दुओं और दलितों में परस्पर सौमनस्य के अभाव और घृणा ने बंगाल के राष्ट्रीय आन्दोलन को कमज़ोर ही किया. बंगाल में वामपंथी दलों के उभार के साथ समता, समानता, बंधुत्व का समावेश हुआ और भूमंडलीकरण के आगमन,शिक्षा के प्रचार-प्रसार से दलित कामगार यूनियन, मजदूर यूनियन, स्त्री उद्धार समितियां बड़े पैमाने पर अस्तित्व में आयीं. इसके बावजूद दलित स्त्रियाँ बहुत कम संख्या में शिक्षित हो पायीं और जहाँ तक आत्मकथा लेखन का प्रश्न है उनकी संख्या नगण्य ही रही.
आलो आंधारि
बेबी हालदार और कल्याणी ठाकुर सरीखी कुछेक स्त्रियाँ ही अपनी समुदाय कथा लेकर पाठकों के सामने आ पायीं. बेबी हालदार बंगाली हैं पर दिल्ली में रहीं. उनकी आत्मकथा ‘आलो आंधारि’ को बंगाली दलित स्त्री की प्रतिनिधि आत्मकथा के रूप में देखा जा सकता है. यह आत्मकथा लाखों करोड़ों स्त्रियों की कहानी बन गयी है क्योंकि इसमें उन शोषित वंचित और सताई गयी औरतों का दर्द प्रतिबिंबित होता है, जो देशकाल का अतिक्रमण करके साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र बनाता है. बेबी हालदार की आत्मकथा उसके जीवन के विभिन्न उतार–चढ़ावों से होकर गुज़रती है. उसका बचपन अभावग्रस्त रहा, 12 वर्ष की उम्र में विवाह और 13 वर्ष में संतानवती हो गयी. उसने सातवीं कक्षा तक ही पढ़ाई की. बच्चों की ज़िम्मेदारी और गैर-ज़िम्मेदार पति के साथ उसने एक दुखमय जीवन जीते हुए बच्चों के साथ दिल्ली आने का निर्णय ले लिया. दिल्ली जैसे बड़े महानगर में घरेलू नौकरानी का काम करती रही इस दौरान उसने मालिकों द्वारा तरह –तरह की प्रताड़ना झेली. वह लिखती है–
“अगले दिन काम का बोझ इतना बढ़ गया कि करते करते मैं बेहाल हो जाती. पता नहीं क्यों, काम को लेकर सभी पूरे समय मेरे पीछे पड़े रहते, हरदम काम–काम, यह करो, वह करो !उन्होंने मुझे रहने की जगह दी थी इसलिए मैं उनसे कुछ नहीं कह सकती थी. मुझे बच्चों को ठीक से खिलाने–पिलाने का समय भी नहीं मिलता और काम करते-करते रात के ग्यारह भी बज जाते तब भी कोई यह नहीं कहता कि जाओ देखो बच्चे क्या कर रहे हैं, उन्होंने कुछ खाया–पिया कि नहीं ! मुझे दिन में अपना खाना बनाने का समय भी नहीं मिलता. . . सबेरे छह बजे के पहले ही मुझे फिर बुला लिया जाता. मैं बिना मुंह–आँख धोये ही नीचे आ जाती. फिर भी जब तक मेमसाहब मुझे देख नहीं लेतीं तब तक पुकारती ही रहतीं.”
बेबी ने अपमान और दुःख के कारण कोठी की नौकरी छोड़ दी और किराये की कोठरी में दिल्ली में अपने बच्चों को लेकर रहने लगी– अब मैं अपने किराये के घर में थी. सब समय सोचती रहती कि काम न मिला तो बच्चों को क्या खिलाऊँगी, कैसे उन्हें पालूंगी–पोसूंगी! मैं स्वयं एक घर से दूसरे घर काम खोजने जाती और दूसरों से भी काम जुटाने के लिए कहती. मैं काम के साथ कम किराये का कोई घर ढूंढ रही थी. मुझे बच्चों के साथ उस घर में अकेले रहते देख आस-पास के सभी लोग पूछते, तुम यहाँ अकेली रहती हो? तुम्हारा स्वामी कहाँ रहता है? तुम कितने दिनों से यहाँ हो? तुम्हारा स्वामी वहां क्या करता है? तुम क्या यहाँ अकेली रह सकोगी? तुम्हारा स्वामी क्यों नहीं आता है? ऐसी बातें सुन मेरी किसी के पास खड़े होने की इच्छा नहीं होती, किसी से बात करने की इच्छा नहीं होती. बच्चों को साथ ले मैं उसी समय काम खोजने निकल पड़ती. कुछ घंटों बाद जब मैं घर लौटती तब फिर पड़ोस की औरतें आकर पूछतीं,क्यों काम मिला? मेरे चेहरे का भाव देख कोई–कोई मुंह से चुक–चुक आवाज़ निकाल कहती, मिल जायेगा. इधर-उधर ढूँढने–ढांडने से मिल ही जायेगा. मैं उनकी बातें अनसुनी कर अपने बच्चों की बातें करने लगती.
मूर्धन्य साहित्यकार प्रेमचंद के दौहित्र प्रबोध कुमार के घर जब काम करना शुरू किया तो पहली बार प्रोफ़ेसर प्रबोध कुमार की मदद से उसने अपने ‘आत्म’ को पहचाना. प्रबोध कुमार के घर सिर छुपाने की जगह से लेकर सम्मान मिला, उन्होंने बेबी को लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित किया. मूल बंगला में लिखी आत्मकथा पहले हिंदी में सन 2004 ही प्रकाशित हुई. वह लिखती है-
“तातुश की बातें सुनकर मुझे बहुत माया होती. मैं सोचती इस तरह से तो कभी मेरे माँ–बाबा ने भी मुझे नहीं समझाया. लगता है पिछले जनम में वह सचमुच मेरे बाबा ही थे, नहीं तो मेरे अच्छे–बुरे की इतनी चिंता क्यों करते! थोड़ी देर बाद तातुश ने फिर कहा, तुम्हें मैंने पढ़ने–लिखने का जो काम दिया है तुम वही करती रहो. तुम जितना समय यहाँ–वहां के काम में लगाओगी उतना पढ़ने –लिखने में लगाओ. तुम देखोगी एक दिन वही तुम्हारे काम आएगा और कुछ करने की क्या ज़रूरत? इसी से काम चलाओ न, बेबी! और फिर यह भी तो सोचो कि तुम्हारे लिखने को लेकर मेरे बंधु तुम्हारा कितना उत्साह बंधा रहे हैं. हमेशा कहते रहते हैं कि लिखती जाओ,लिखना बंद मत करना !”
जो बेबी शुरुआत में लिखने में संकोच करती थी वह अब टुकड़ों में लिखने लगी. लिखकर उसने खुद को खोजने की प्रक्रिया शुरू की. बेबी हालदार की दूसरी किताब ‘ईषत रूपान्तर ‘बंगला में 2010 में छपी,जिसमें उसने ‘आलो आंधारि’ के बाद की जीवन यात्रा के बारे में लिखा. अपने पहले के जीवन से वर्तमान की तुलना करते हुए वह लिखती हैं-
“आज मुझे लोग मैडम बोल रहे हैं, सॉरी कहकर क्षमा माँग रहे हैं. तीन-तीन सीटें बुक कर जा रही हूँ और कोई सीट छोड़ने को नहीं कहता, कोई टी. टी. यह नहीं पूछता कि इस बोगी में कैसे चढ़ गई, अब इतना पैसा भरना होगा.अब टिकट चेक करने टी. टी. आता है तो बेखटके बैग से निकाल दिखा देती हूँ. किसी को कुछ कहने का साहस नहीं होता है. तब कोई अपनी सीट पर बैठ जाने को नहीं कहता था और आज अपने पास किसी को खड़े देख मुझे ही बुरा लगता है. . . . अब पुलिस देख भय नहीं लगता बल्कि कुछ हिम्मत ही बढ़ती है जबकि दिल्ली जाते समय रात में पुलिस देख मेरा दिल धड़कने लगा था. मैंने सोचा था कि अभी-अभी तो टी. टी. बोलकर गया है कि इस बोगी में तुमलोग कैसे बैठे, अब पैसे दो, यह करो, वह करो और अब यह पुलिस! मैंने सोचा था कि पुलिस यदि मुझे पकड़ ले जाती है तो मेरे बच्चे कहाँ जाएँगे, उन्हें कौन देखेगा?”
‘ईषत रूपांतर’ के बाद भी बेबी की तीसरी पुस्तक ‘घरेर फेरार पथे’ बंगला में 2014 में प्रकाशित हुई, लेकिन इन तीनों में साहित्यिकता और अभिव्यक्ति की दृष्टि से ‘आलो–आंधारि’ ही ज्यादा महत्वपूर्ण है.
कोई रचनाकार जब आत्म के बारे में लिखने के लिए स्वयं से संवाद की शैली अपनाती है तो वह सत्य के ज्यादा से ज्यादा निकट रहती है. अपने अतीत को पीछे मुड़कर याद करना आत्मकथा लेखन की सर्वाधिक प्रचलित शैली है जिसका प्रयोग बेबी हालदार करती है. प्रबोध कुमार की निरंतर प्रेरणा से वह अपने बीते हुए जीवन के अभाव,यातना और कष्ट की दास्तान बेहद सरल–सहज भाषा में लिखती हैं. लिखकर उसे अपनी यातना, बचपन के शोषण, अकेलेपन और पिता के व्यवहार सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का समाधान मिल जाता है. जब हम अपने अस्तित्व और जीवनानुभवों का अंत:सम्बन्ध समझ लेते हैं तो आत्मकथा की रचना करते हैं. जो जीवन को अर्थ प्रदान करती है. बेबी हालदार ने अपने दुखद बचपन और अभावग्रस्त जीवन के बारे में तब लिखा जब वह तीस वर्षीया युवती थी. वह लिखने की प्रक्रिया में ही सामान्य तौर पर समाज में स्त्री के शोषण और दमन की रणनीति को समझती चलती है.
वह अपने पिता के समक्ष मां की विवशता और दमन के बारे में लिखती है
“मां परेशानी में अपना गुस्सा हम पर निकालती. हमारे जेठा से मां ने कुछ मदद मांगी लेकिन उनके लिए अपना ही परिवार चलाना कठिन था. इस बीच मेरी दीदी बड़ी हो चली थी और उसकी चिंता मां को अलग से थी. मां ने बाबा के बन्धु-बांधवों से मदद मांगी लेकिन उनका भी हाल ऐसा नहीं था कि एक और परिवार का भार कुछ दिन से अधिक उठा सकते. मां ने तब काम करने की सोची लेकिन उसके लिए घर से बाहर निकलना होगा जो उसने कभी किया नहीं और फिर करेगी भी तो कौन सा काम? वह यह भी सोचती कि लोग क्या कहेंगे. लेकिन लोगों की चिंता करने से तो पेट चलेगा नहीं.”
बेबी का आत्मकथ्य उसके विनाशकारी विवाह से उत्पन्न समस्याओं, पति की बेशर्मी और गैर-जिम्मेदाराना हरकतों की स्मृतियों से भरा हुआ है. बारह वर्ष की उम्र में हुआ विवाह ही जीवन भर की समस्या बना रहा. सबसे पहले स्त्री दैहिक पीड़ा के माध्यम से ही अपनी हाशियाकृत स्थिति के बारे में समझती है. बेबी विवाह में रोज़ बलात्कार की शिकार हुई. कच्ची उम्र में मां बनी. यह सब तब हुआ जब वह अपने अस्तित्व के बारे में विद्रोही ढंग से नहीं सोचती थी. वह खेलने खाने की उम्र में स्वयं को गर्भवती देखकर कुछ समझ नहीं पाती. अस्पताल और घर का खर्च पति देता नहीं या देता भी है तो आवश्यकता से कम देता है. वह अपनी मां और बहन की दुर्दशा देखती है. अभाव के कारण मां अपने बच्चों को छोड़कर चल देती है.
अस्तित्वरक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी बेबी पर आ जाती है. लड़की होने के कारण पिता अपने पास ज्यादा दिनों तक नहीं रखना चाहता और बिना सोचे–समझे एक वयस्क के साथ बेबी का विवाह कर देता है. तीन बच्चों के साथ पति को छोड़कर दिल्ली निकल आना बेबी के लिए कितना कठिन रहा होगा जिसके बारे में वह आत्मकथा में लिखती है. दिल्ली आकर वह आत्मनिर्भरता का रास्ता चुनती है, परिश्रम करती है और तीनों बच्चों को पालती है. असंगठित क्षेत्र की कामगार घरेलू नौकरानियों को देखने का समाज का नज़रिया क्या है– यह बेबी की आत्मकथा पढ़ कर हम जान पाते हैं. हाशिये पर खड़ी स्त्री लैंगिक शोषण के साथ जातिगत भेदभाव का शिकार होती है. बेबी हालदार जैसी स्त्रियाँ लिखकर अपने साथ हुए भेदभाव, अन्याय और शोषण के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं की ओर हमारा ध्यान दिलाती हैं. उनकी दास्तानें हमें सिहरा देती हैं उनके कथ्य का दोहराव हमें उबाऊ भी लग सकता है लेकिन दरअसल वे अपनी कथा के माध्यम से अपने समुदाय की कथा कह डालती हैं.
बेबी और बेबी जैसी न जाने कितनी स्त्रियाँ हाशिये पर खड़ी रह जाती हैं. उनमें से कुछ को ही ‘तातुश’जैसा कोई व्यक्ति मिलता है जो निस्वार्थ भाव से अब तक अनसुनी आवाजों को शब्दों का जामा पहनाने की प्रेरणा और अनुकूल माहौल देता है. बेबी ने भी गृहस्थी में सुख का स्वप्न देखा होगा. पिता,पति और बच्चों का चुनाव उसका अपना नहीं था,उस जैसी स्त्रियाँ इसे भाग्य मानकर रो–धोकर जीवन काट लेती हैं कभी घरेलू नौकरानियां बनकर कभी तरह -तरह से शोषण और उत्पीड़न से समझौता करके. लेकिन बेबी हालदार प्रतिरोध करती है, यही नहीं अपने पति का उपनाम लगाने से भी मना कर देती है,लिखती है–
“ट्रेन के तमाम यात्री एक बिना किसी अभिभावक के एक अकेली महिला को प्रश्नांकित मुद्रा से देखते हैं. ट्रेन का एक सहयात्री सुखेन्दु कुन्डू जब बेबी की आत्मकथा पर हालदार टाइटिल देखता है तो वह चौंकते हुए पूछता है– सुखेन्दु बोला, “अच्छा, समझा, लेकिन आपकी लड़की ने अपने बाबा की जो टाइटिल बताई उससे तो आपकी अलग लगती है.”
इसका कोई जबाव न दे मैं उसकी ओर देख बस थोड़ा हँस दी.मैंने सोचा लड़कों की टाइटिल तो विवाह के बाद भी वही रहती है जो उनके बाप की है लेकिन लड़कियों की टाइटिल उनके बाप की जगह उनके पति की हो जाती है पर क्यों? पति से अलग रहकर अब मेरा सोच वह नहीं था जो पहले था. अब मैं सोचने लगी थी कि मैं अपने मन मुताबिक रहना चाहती हूँ, अकेली हूँ तो भी ठीक से ही हूँ. फिर मुझे अपने पति की टाइटिल की जरूरत क्यों हो? यह सोच मैंने अपनी टाइटिल नहीं बदली और आज जितने लोग मुझे मेरी टाइटिल से जानते हैं उतने मेरे पति के टाइटिल से नहीं.”
यही बेबी की उपलब्धि है, यहीं वह उन सभी दलित,उत्पीड़ित स्त्रियों के लिए आदर्श बन जाती है जिनके शरीर और आत्मा का शोषण परिवार और समाज में इतना आम है कि इसकी तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता. आत्मकथा के दूसरे भाग में अपने पिता से मिलने दुर्गापुर जाती है. अपने पिता के यहाँ जाकर बेबी देखती है उसके पिता और माता अपनी जिंदगी किसी तरह काट रहे हैं. इतने दिनों में उन्होंने कई घर बदले, जहाँ-जहाँ रहे लगभग हरेक से लड़ने के बाद जगह बदली. पेंशन पर पलने वाले बेबी के माता-पिता पेंशन का अधिकांश शराब पीने में ही खर्च देते. कई आत्मीयों से झगड़ने के बाद निरुदा नामक एक निर्धन फेरीवाले के पड़ोस में आसरा मिला. दोनों परिवारों के बीच अच्छा तालमेल बैठ गया है. घर का सारा काम निरुदा की स्त्री और लड़कियाँ करती हैं.
घर में बाबा से मिलने एक बार एक मास्टर जी आते हैं. बेबी को इस मास्टर जी को देख अपने स्कूल के बांग्ला के मास्टर की याद आई. वह अब बचपन के दिनों को याद करती है.
“मन हुआ छोटी सी बेबी बन किताब हाथ में, इनके पास पढ़ने स्कूल जाऊं. बचपन के वे दिन जैसे मेरे आँखों के सामने तैरने लगे. मैं जैसे सचमुच अभी भी देख रही हूँ कि मास्टर महाशय लोग कितने प्यार से बेबी को पढ़ा रहे हैं, दिदिमनियाँ कितने प्यार से उसे बुला रही हैं, बेबी रुआँसी सी दिदिमनियों, मास्टरों के सामने खड़ी है और गणित के किसी गुस्सैल मास्टर ने किसी भूल पर कितने जोर से उसे डांटा.”
स्कूल जाने वाली छोटी लड़की से लोकप्रिय लेखिका बनने की यात्रा बेबी के लिए बहुत कष्टदायी रही लेकिन इस यात्रा की कुछ उपलब्धियां थीं जिनके बारे में वह दर्ज करती है– कोलकाता में बेबी को बहुत प्यार मिला.
“मैं बहुत खुश हुई और सोचा किस वजह से मुझे इतना प्यार सभी जगह मिल रहा है! क्या इसीलिए कि मैंने एक किताब लिखी है? लेकिन किताबें तो बहुत से लोग लिखते हैं और फिर यह किताब क्या बिना तातुश के मदद के मैं लिख पाती! उनके और उनके बंधुओं के लगातार हिम्मत बढ़ाते रहने से ही तो मेरे लिए यह संभव हो सका! इसके अलावा मेरी किताब में अच्छा लगने का ऐसा है भी क्या? बस उस एक लड़की की जीवनी ही तो है जिसका खेलने कूदने की उमर में विवाह हुआ बच्चे हुए और जिसे पारिवारिक सुख-शांति नसीब नहीं हुई. इस तरह की कहानियों की क्या कोई कमी है! फिर भी मेरी किताब प्रशंसित हुई है तो शायद इसीलिए कि अपने बारे में मैं खुलकर कह सकी हूँ जो बहुधा लोग नहीं करते या नहीं कर पाते. खैर.”
अपने बारे में खुलकर कहना भारत जैसे समाज में किसी स्त्री के लिए इतना सहज भी नहीं है, विशेषकर उस स्त्री के लिए जो समाज के दलित वर्ग से ही नहीं आती कदम-कदम पर प्रश्नों का सामना भी करती है कि वह पति के होते हुए सुहाग चिन्ह धारण क्यों नहीं करती. पड़ोस की स्त्रियाँ अक्सर इस तरह के सवालों से उसे बेध देती हैं-
“दादा ने तो कहा था कि तुम्हारा वर है फिर हाथ में शाँखा और माँग में सिंदूर कहाँ है?”
उन्हें कोई जबाव न दे मैंने सोचा कि लड़कियाँ तो अपने स्वामी के मंगल के लिए शाँखा-सिंदूर का व्यवहार करती हैं पर पुरुष क्या करते हैं अपनी स्त्री के मंगल के लिए?” किताबों ने बेबी को प्रश्नाकुल बनाया है अब वह विवाह संस्था पर प्रश्न करती है जो अपने–आप में बहुत गंभीर हैं. ज्यों-ज्यों पाठक इन प्रश्नों को उठाने वाली स्त्री की नियति से साक्षात् करता है वह और भी पुरज़ोर ढंग से बेबी हालदार का मुरीद होता जाता है. अपने बारे में सच लिखकर, किताबें पढ़कर वह वास्तव में राससुंदरी देवी (1872 )की तरह ‘जिताक्षरा’ हो गयी है. अध्ययन ने उसे अपनी स्थिति को बदलने के लिए आस्था और धैर्य के साथ प्रतिरोध के औजारों से लैस किया है. ये वही औज़ार हैं जिनके बल पर कभी अपना पीछा करने वाले अजित से डरने वाली बेबी निरुदा की साइकिल लेकर मार्केट निकल पड़ती है. वहाँ वह अजित को देखती है. अजित अपने बीबी-बच्चे के साथ है. वह इस बार अजित के सामने खड़ी हो जाती है और उससे अपने पुराने दिनों का हिसाब चुकाने के लिहाज से उसका रास्ता रोकती है, हाथ पकड़ लेती है और अजित पत्नी के सामने पोल खुलने के डर से बचने की कोशिश करता है.
अब तुम मुझसे बचना चाह रहे हो लेकिन चार-पाँच बरस पहले की बात क्यों भूल रहे हो जब तुम मेरे पीछे पड़े रहते थे! मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती थी तो तुम मेरा आँचल खींचने लगते थे और मैं तुम्हें कितनी गालियाँ देती थी, याद है! मेरे पीछे पाड़े के लोगों से तुम कितनी मार खाते थे, भूल गए! याद है, मैं घर से निकलती थी तो तुम मेरा रास्ता रोक खड़े हो जाते थे और मैं, लोग तुम्हारी पिटाई न करें इस डर से दूसरा रास्ता पकड़ लेती पर फिर भी तुम नहीं मानते और मुझसे पहले पहुँच वहां भी मुझे तंग करने लगते! तब तो तुम ऐसे पड़े थे मेरे पीछे कि जिस-तिस से कहते फिरते थे कि मैं बेबी को छोड़ किसी से ब्याह नहीं करूँगा, और तुमने ब्याह कर भी लिया और बेबी को बताया तक नहीं! बड़े मजे की बात है! चलो ठीक है पर मुझसे ऐसे भाग क्यों रहे हो? चलो न, कहीं बैठ बातें करें. तुम्हारी स्त्री है तो क्या हुआ, तब तुम कहते थे कि मुझसे बहुत प्रेम करते हो, अब क्या नहीं करते कि मुझसे पीछा छुड़ा रहे हो. बेबी अपने कामकाज के दौरान कितने पुरुषों की कुदृष्टि का शिकार बनी पर उसने समझौता नहीं किया, उसे अक्सर किराये के घर बदलने पड़ते.
लेखिका के रूप में पहचान पाकर आत्मविश्वास अर्जित कर लिया है जिसके बल पर वह अजित जैसे पुरुषों का हाथ पकड़कर सरेआम शर्मिंदा कर देती है. समाज में अपने बल पर जीने का जो निर्णय बेबी ने लिया, उसमें किसी पिता, भाई, पति की कोई भूमिका नहीं थी. वह एक साधारण स्त्री थी और हो सकता है समूचा जीवन अपनी साधारणता के साथ ही जीती रहती, यदि वह अपने बारे में लिखती नहीं. वह अपने जीवन के दुर्दम क्षणों का लेखा–जोखा करती है, जीवन की दिशा को बदलने वाले निर्णय लेती है. लिखने और पढ़ने की इच्छा पूर्ण करना और लिखकर अपने जैसी तमाम स्त्रियों के लिए आदर्श स्थापित कर पाने में ही उसकी विजय है. वह अपने उत्तरदायित्वों से मुंह नहीं मोड़ती, कठिनतम स्थितियों में भी बच्चों के पालन–पोषण का ख्याल रखती है,यहाँ तक कि अपने बड़े बेटे को भी अपने साथ ही रखने का प्रयास करती है,उसके पढ़ने–लिखने की व्यवस्था करती है– इस अर्थ में वह स्त्रीवादी है. इसके साथ वह असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले घरेलू नौकर–नौकरानियों के बारे में प्रामाणिक साक्ष्य प्रदान कर एक अर्थ में टेस्टीमोनियो लिख डालती है.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी