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Home » दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव » Page 6

दलित स्त्री आत्मकथाएं: गरिमा श्रीवास्तव

धर्म, जाति, समाज, परिवार और लैंगिगता के कारण पीड़ित दलित स्त्रियों की इन आत्मकथाओं से संभव है आप परिचित हों- हर आत्मकथा दर्द की जैसे कोई नदी हो- लाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबल (वीरम्मा), करक्कू (बामा फ्युस्टीना मेरी), आलो आंधारि (बेबी हालदार), आमि केनो चांडाल लिखी (कल्याणी ठाकुर), रात्रादिन आम्हा (शांताबाई धानाजी दानी), मिटलेली कवाडे (मुक्ता सर्वगोंड), माझ्या जल्मांची चित्तरकथा (शांताबाई कृष्णाजी काम्बले ), जिण आमुच्या (बेबी कोंडिबा काम्बले), अन्तःस्फोट (कुमुद पावड़े), आयदान (उर्मिला पवार), मलाउद्ध्वस्त व्यायंचय (मल्लिका अमर शेख), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसंत्री), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे), एक अनपढ़ कहानी (सुशीला राय), अपनी ज़मीं, अपना आसमां (रजनी तिलक), छूटे पन्नों की उड़ान (अनिता भारती), टुकड़ा–टुकड़ा जीवन (कावेरी), बवंडरों के बीच (कौशल पंवार) टूटे पंखों से परवाज़ तक (सुमित्रा महरोल). आलोचक गरिमा श्रीवास्तव ने अपने इस विशद आलेख में इन सभी आत्मकथाओं की अंतर-कथाओं का समावेश किया है. ये आत्मकथाएं अखिल भारतीय हैं. इस आलेख को पढ़ते हुए उस प्रतिनिधि दलित स्त्री का चेहरा सामने आता है जिसकी पीड़ा क्षेत्रीयता की सीमा लांघकर लगभग हर जगह एक जैसी है. गरिमा श्रीवास्तव ने बड़े श्रम, शोध और स्त्री-दृष्टि से इसे लिखा है. ज़ाहिर है यह विचार के साथ-साथ हस्तक्षेप भी है. इसकी प्रस्तुति भी समालोचन के लिए चुनौती थी, प्रत्येक आत्मकथा को अलग पृष्ठ दिया गया है, जिससे कि पढ़ने में सुविधा हो.

by arun dev
November 7, 2021
in आलेख, विशेष
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Credit: Amita Ghose by scroll.in

आमि केनो चांडाल लिखी

बंगाल में, दलित लेखन की प्रेरणा और परंपरा के स्रोत मराठी, गुजराती तेलुगु और तमिल दलित साहित्य से अलग हैं वहां अम्बेडकर के साहित्य ने प्रेरणा का कार्य किया जबकि बंगाल के दलित लेखन की प्रेरणा के स्रोत के रूप में हरिचंद ठाकुर (1812-1878)  को देखा जाना चाहिए. हरिचंद ठाकुर ने मटुआ संप्रदाय की स्थापना की और बंगाल में अस्पृश्य कहे जाने वाली जातियों के नैतिक आर्थिक और शैक्षिक उत्थान के लिए कार्य किया. मटुआ संप्रदाय के अंतर्गत नामशूद्रों को शामिल किया जाता है. हरिचंद ठाकुर ने उन्नीसवीं शती के बंगाल ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की आलोचना की और अपना अलग संप्रदाय स्थापित किया. जातिमुक्त समाज की स्थापना के उद्देश्य से निर्मित किये गए मटुआ संप्रदाय में आगे चलकर विकास देखे गए. इसी सम्प्रदाय की कल्याणी ठाकुर की आत्मकथा सन 2016 में प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक है ‘आमि केनो चांडाल लिखी’ कल्याणी ठाकुर का कहना है कि लिखना एक तरह से उनके लिए प्रतिरोध का औज़ार है. दलित होने के कारण उन्होंने जिस तरह का भेदभाव समाज में झेला है उसे वह लोगों के सामने लाना चाहती हैं. काव्य लेखन से अपना रचनात्मक जीवन शुरू करने वाली कल्याणी ठाकुर के पिता मटुआ सम्प्रदाय के गोसाईं थे जिनसे बहुत से लोग मिलने–जुलने आया करते. गुरुचंद ठाकुर ने जो दलितों के लिए शिक्षा अभियान चलाये, उसके प्रभाव से बहुत से दलितों ने उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ाये. जिन्होंने जाति-दंश को झेलते हुए आर्थिक अभाव को शिक्षा के रास्ते में आने नहीं दिया, उन्हीं में से एक कल्याणी ठाकुर(जन्म 1965) ने सन 1993-94 से ‘नीर’ पत्रिका में लिखना शुरू किया. नीर में शरणार्थी समस्या, पर्यावरण से जुड़े मुद्दे, दलित समाज की आन्तरिक अवस्था जैसे विषयों पर लेख और कवितायेँ प्रकाशित होती थीं.

कल्याणी ठाकुर का कहना है कि उनकी आत्मकथा किसी भी दलित बच्चे की आत्मकथा हो सकती है जो जाति व्यवस्था की पैदाईश है इसलिए यह कथा सिर्फ़ उनकी अपनी कथा नहीं है बल्कि उनके समुदाय की कथा है. कल्याणी ठाकुर के लेखन में धार है और वह अपनी बात बिलकुल सीधे–सीधे कहती हैं– मेरे माता पिता अशिक्षित थे लेकिन शिक्षा का महत्व समझते थे. उन्होंने मुझे पुत्र की तरह पाला. एक समय ऐसा भी था जब दलितों को शिक्षण संस्थानों में घुसने की मनाही थी, हम बैठने की टाट –पट्टी घर से लेकर जाते थे और कक्षा के बाहर बरामदे में बैठते थे. स्कूल में अक्सर सवर्ण शिक्षक ही होते थे उनके व्यवहार से ही हमें अपने दलित होने का अहसास हो जाता था. पहली बार जो भेदभाव मैंने महसूस किया वह था कि  स्कूल में ऊँची जातियों के बच्चे तो वर्दी पहनकर आया करते जबकि हमारी कोई वर्दी नहीं थी. बड़े होने तक यह अन्तराल मुझे मथता रहा, लेकिन मेरा मन कभी छोटा नहीं हुआ क्योंकि हर कक्षा में मैं प्रथम आती थी.

बेगुला में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह कलकत्ते के रामकृष्ण आनंद आश्रम में भर्ती हो गयीं. नाकतल्ला के रामकृष्ण आश्रम से इंटर करने के बाद उन्हें  मां की देखरेख के लिए फिर से बेगुला जाना पड़ा, जहाँ  बी. कॉम.  की पढ़ाई की. कलकत्ता विश्विद्यालय के सांध्यकालीन प्रखंड से ही  आगे चलकर एम. कॉम भी किया. वे लिखती हैं-

“सन1987 से 1990 के बीच मैंने बहुत सी नौकरियों के लिए आवेदन दिए. मुझे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए रुपये की आवश्यकता थी. नौकरी करने के साथ–साथ मैंने शाम की कक्षाओं में अपनी पढ़ाई जारी रखी. छात्रावास में रहते हुए बहुत सी पत्र–पत्रिकाओं में लिखा और दलित एवं स्त्री केन्द्रित पत्रिकाओं में मेरे लेख निरंतर छपे. वह आत्मकथा में सरकारी दफ्तर में नौकरी करने के अनुभव को ‘सीता की अग्नि परीक्षा’ कहती है.”

पहले–पहल तो मुझे बैठने के लिए कोई कुर्सी नहीं दी गयी. एक कोने में पड़ी बेंच पर ही मैं बैठ सकती थी. बाद में चलकर मुझे एक कुर्सी और छोटी मेज़ दी गयी, लेकिन कार्यालय के एक कोने में बैठने के लिए कहा गया, जहाँ पंखा तक नहीं था. कलकत्ते की आर्द्र जलवायु मेरे ऊपर कोई असर नहीं डालती थी जितने मेरे सहयोगी क्योंकि वे मेरे अस्तित्व से ही त्रस्त थे. जल्द ही ऑफिस के बाद रात में मुझे सोने के लिए दवा की ज़रूरत पड़ने लगी. एक दिन किसी ने कहा तुम संतरी साड़ी मत पहना करो. दूसरे ने कहा तुम पर यह रंग अच्छा नहीं लगता. मुझे लगता है मेरा रंग इतना काला था कि संतरी रंग की  साड़ी मुझपर अच्छी नहीं लगती थी.

इन सबके बावजूद कल्याणी ने लिखना–पढ़ना नहीं छोड़ा और नीर पत्रिका के शरणार्थी विशेषांक में अपने उपनाम में पहले बार ‘चांडाल’ जोड़ा यह 2003 का साल था जब उन्होंने  अपनी जाति को उपनाम के तौर पर सार्वजनिक कर दिया. आत्मकथा लिखने के मुद्दे पर वह कहती हैं–

‘कुछ वर्ष पहले मुझसे एक साहित्योत्सव में कहा गया कि इन्टरनेट पर बंगाल की दलित लेखिकाओं पर कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है. मुझसे आग्रह किया गया कि वर्तमान बंगाल में दलित स्त्री के दस्तावेज़  के तौर पर मैं आत्मकथा लिखूं.’

बेबी हालदार, कल्याणी ठाकुर, बामा या ऐसे ही कई आख्यानकर्ताओं के लिखे को ‘जीवन साक्ष्य’ के रूप में देखा जाना चाहिए. यह दृष्टि ही जाति–विरोधी समाज के निर्माण की दिशा में सहयोगी हो सकती है. ये आख्यान आत्मकथ्य मात्र नहीं हैं और इनकी भूमिका बहुस्तरीय है. सवर्ण समूह– जिन्हें दलित जीवन,विशेषकर दलित स्त्रियों के बारे में बहुत कम जानकारी है –ये आख्यान उनके मन में एक तरह की हीनभावना ले आते हैं. मसलन कल्याणी ठाकुर के साथ इक्कीसवीं सदी में हो रहे कार्यस्थल पर हुए भेदभाव से सहानुभूति और ग्लानि के साथ ही दलित उत्साह और आत्माभिव्यक्ति की बोल्डनेस उन्हें सावधान भी करती है. गोपाल गुरु इसीलिए कहते हैं कि-

“दलित आख्यान भेदभाव की मानसिकता रखने वालों, अपमानसूचक भाषा प्रयोग करने वालों के मन में शर्म और ग्लानि की भावना भी उत्पन्न करने में सफल हो जाते हैं. ये आत्मकथाएं अन्य भाषा-भाषी और गैर–दलितों के पास अनुवाद के माध्यम से पहुँचती हैं जिससे अन्य भाषिक समुदाय के पाठक को स्रोत भाषा के समाज  में प्रचलित जाति आधारित दलन, उसके प्रतिरोध और संगठित रूप से जाति-विरोधी संघर्ष के बारे में नए सिरे से प्रामाणिक जानकारी मिलती है. सवर्ण प्रतिनिधित्व वाले अधिकांश शैक्षिक- संस्थानों में, जहाँ पूर्वग्रहपूर्ण दृष्टि से पाठयक्रमों का निर्माण किया जाता है,वहां ये आख्यान अनिवार्य हस्तक्षेप करते हैं.”

अमूमन दलित स्त्री का शरीर एक दलित समाज में जाति आधारित उच्चता बोध और सत्ता के प्रयोग के लिए उपयुक्त साईट होता है. अक्सर उसे पुरुषसत्तात्मक समाज में पुरुषों की उच्चता के समक्ष ‘मूक ग्रहणकर्ता के रूप  समझा जाता है. उनके शरीर को सस्ते श्रम की साईट समझा जाता है. लेकिन जब स्त्री की देह शोषण की साईट बनती है,जब उसे अधीनस्थ,विखंडित स्थिति में पहुँचाया जाता है– वहीं से उसमें प्रतिरोध की आवाजें फूटती हैं और समाज की परंपरागत मान्यताओं,सोच–विचार में दरार पड़नी शुरू होती है. स्मृति को जबरन मस्तिष्क से अलग रखने की जब कोशिश की जाती है,तब स्मृतियाँ और भी ठोस हो जाती हैं. दलित स्त्रियों की स्मृति,भावनाओं को कठिन शोषण,दमन की स्मृतियों से इतना दमित करके रख दिया जाता है कि वे किसी रचनात्मक कार्य के लिए उत्साह भविष्य में भी कभी नहीं जुटा पातीं. लेकिन जहाँ भी दमन होगा वहां प्रतिरोध भी अवश्य ही जन्म लेगा. जब ‘अन्य’ को ज़बरदस्ती हाशिये पर धकेल दिया जाता है,उसे समर्पण के लिए विवश कर दिया जाता है,इस थोपी हुई चुप्पी से प्रतिरोध की शुरुआत होती है. यद्यपि दलित स्त्री के पास ऐसे बहुत कम अवसर आते हैं जब वह खुद को सत्ता संरचनाओं से जोड़ सके.

जो समाज उसे मनुष्य की गरिमा से वंचित रखता है,अपने बचने के लिए जिन औजारों को अपनाती है, अपने लिए संघर्ष के औजारों को जब तलाशती है,तब उसका समुदाय, उसकी जाति, उसका परिवार भी बहुत बार उसके विरोध में खड़े दीखते हैं. दलित स्त्रियों का संघर्ष इसलिए बहुस्तरीय हो जाता है क्योंकि उन्हें सवर्ण मानसिकता और सत्ताधारी समाज से भी समानांतर संघर्ष करना पड़ता है. ये मानसिकताएं उसे चुनौती देती हैं और संघर्ष के उसके हथियारों को भोथरा करने का प्रयास करती हैं. इनके आत्मकथ्यों को पढ़कर जाना जा सकता है कि कि वे किस प्रकार अपने भीतर से विपरीत स्थितियों  से लड़ने की ताक़त पैदा कर लेती हैं. ये आत्मकथ्य दलित स्त्रियों के संघर्ष के औजारों को कैसे अधिकारों की लड़ाई के लिए इस्तेमाल करती हैं.

दलित स्त्रियाँ जो भाषा इस्तेमाल करती हैं उनमें भी उनकी सामुदायिक संस्कृति से निकले हुए शब्दों की प्रधानता होती है. इनके शब्द गहरे जीवनानुभवों से निकले हुए शब्द होते हैं जो स्वयं में प्रतिरोध का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. इन शब्दों के बल पर वे साबित कर देती हैं कि साहित्य के क्षेत्र में हठधर्मिता और सैद्धांतिक आग्रह उनकी अभिव्यक्ति को रोक नहीं सकते. ये लेखक अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए सभी तरह की औपचारिकताएं एक तरफ रख देती  हैं. ये आत्मकथाएं अपनी उपस्थिति में अपने समुदाय को जागृत करने का काम करती हैं. दूसरे उत्तर औपनिवेशिक लेखकों की तरह वे अपनी तरफ से न सिर्फ़ आत्मकथा विधा को समृद्ध करने का प्रयास करती हैं,बल्कि समाज की सत्ता –संरचनाओं को बदलने का भी प्रयास करती हैं. उन्हें लगता है कि इस विधा के द्वारा वे वैश्विक पाठक के पास ज्यादा बेहतर धन से पहुँच सकती हैं.

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Tags: अनिता भारतीअन्तःस्फोटअपनी ज़मीं अपना  आसमांआयदानआलो आंधारिउर्मिला पवारएक अनपढ़ कहानीकरक्कूकल्याणी ठाकुरकावेरीकुमुद पावड़ेकौशल पंवारकौशल्या बैसंत्रीगरिमा श्रीवास्तवछूटे पन्नों की उड़ानजिण आमुच्याटुकड़ा–टुकड़ा जीवनटूटे पंखों से परवाज़ तकदलित स्त्री आत्मकथाएंदोहरा अभिशापबवंडरों के बीचबामा फ्युस्टीना मेरीबेबी कोंडिबा काम्बलेबेबी हालदारमलाउद्ध्वस्त व्यायंचयमल्लिकाअमर शेखमाझ्या जल्मांची चित्तरकथामिटलेली कवाडेमुक्ता सर्वगोंडरजनी तिलकरात्रादिन आम्हालाइफ़ ऑफ़ एन अनटचेबलवीरम्माशांताबाई कृष्णाजी काम्बलेशांताबाई धानाजी दानीशिकंजे का दर्दसुमित्रा महरोलसुशीला टाकभौरेसुशीला राय
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Comments 8

  1. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।

    Reply
  2. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।

    Reply
  3. पंकज चौधरी says:
    4 years ago

    गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।

    Reply
  5. अनिल जनविजय says:
    4 years ago

    ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      सही है

      Reply
  6. शुभा माहेश्वरी says:
    4 years ago

    सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      शुक्रिया शुभा जी

      Reply

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