सारा बेथ ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि बीसवीं शताब्दी के मध्य में दलित साहित्य के मुद्रण और प्रकाशन में आश्चर्यजनक तेज़ी देखी गयी विशेषकर उत्तर भारत में मराठी और तमिल के साथ अन्य भारतीय भाषाओं का दलित साहित्य बड़े पैमाने पर अनूदित होना शुरू हुआ. सारा बेथ इसे एक तरह से ‘प्रतिसंस्कृति’की शुरुआत मानती हैं. ये इस बात की ओर संकेत करता था कि उत्तर भारत में एक सबालटर्न काउंटर पब्लिक ‘तैयार हो चुकी है. लेकिन 1940 -50 के दशक में अम्बेडकर के प्रभाव से महाराष्ट्र के दलित लेखन में जैसा उछाल देखा गया वैसा उछाल संयुक्त प्रांत में नहीं देखा गया. इसकी तरफ आलोचकों ने भी कम ध्यान दिया. इसके कारणों में हम दलितों को ज़बरन शिक्षा से दूर रखा जाना, जातिविरोधी चेतना का कमज़ोर प्रसार, पढ़–लिख गए दलितों को भी लिखने और आत्माभिव्यक्ति के लिए अवकाश मुहैय्या न करवाने को देख सकते हैं.
दलितों को जिस तरह के रोज़गार दिए गए उनकी प्रकृति ही ऐसी नहीं थी कि वे किसी तरह का सशक्त सांस्कृतिक स्पेस तैयार कर सकें. उनके पास आत्माभिव्यक्ति के लिए एक ही माध्यम था– अपनी बात को मौखिक ढंग से कहना. दलित स्त्रियों के लेखन में एक तरह की हड़बड़ाहट, कई बार अपनी बात को दोहराना लक्षित होती है जिसे उनपर पड़ी दोहरी ज़िम्मेदारी के तौर पर देखा जा सकता है,जहाँ वे लिखकर इतिहास के रिक्त स्थान को भरती हैं. इससे पहले तो उच्च जाति के समूहों ने ही दलितों के बदले भी बोलने का जिम्मा उठाया हुआ था. अम्बेडकरवाद के प्रभाव,शिक्षा के लिए संघर्ष और अस्मितामूलक चेतना के विकास के फलस्वरूप दलितों ने अपने बारे में कहने और लिखने का उत्तरदायित्व स्वयं उठा लिया जिसमें मुद्रण और प्रकाशन संस्थानों ने एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी.
अर्जुन डांगले ने 1978-1986 के बीच के समय को मराठी में दलित आत्मकथाओं के लिए स्वर्णिम युग माना. इसी समय दया पवार(बलूत), सोन काम्बले (यादों के पंछी), लक्षमण माने (उपरा) के साथ–साथ शांताबाई काम्बले, कुमुद पांवड़े सरीखी स्त्रियों की आत्मकथाओं के आने से अन्य कई दलितों को आत्मकथा लेखन की प्रेरणा मिली. फोर्ड फाउंडेशन द्वारा दया पवार और लक्ष्मण माने की आत्मकथाओं को पुरस्कार मिले जिससे मराठी साहित्य को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली. इसकी तुलना में हिंदी में लिखी आत्मकथाओं को ठीक वैसा पुरस्कार और सम्मान नहीं मिल पाया.
अम्बेडकर द्वारा प्रसारित चेतना, शिक्षा के प्रति आग्रहों ने इन्हें जातिवादी,पितृसत्तात्मक जकड़न से निकलने का मार्ग दिखाया. अब इन स्त्रियों ने लेखन को युद्ध-स्थल के रूप में देखना शुरू किया और आश्चर्य नहीं कि अकेले महाराष्ट्र में कई आत्मकथात्मक साक्ष्य लिखे गए जिनमें बाबा साहेब अम्बेडकर के समय से लेकर हमारे समकाल तक की अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं. अस्सी और नब्बे के दशक में महाराष्ट्र में दलित स्त्री-आत्मकथाओं के लेखन और प्रकाशन के साथ उनके हिंदी अनुवाद में तेज़ी देखी गयी. शर्मिला रेगे, जिन्होंने स्त्री के दृष्टिकोण से दलित आन्दोलन का विश्लेषण किया है उनका कहना है कि
“दलित पैंथर्स ने 1970 की सांस्कृतिक क्रान्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन उनके कार्यक्रमों में दलित स्त्रियाँ या तो मां के रूप में या दमित यौन सत्ता के रूप में ही रहीं. समूचे दलित साहित्य का अवलोकन करने से यह पता चलता है कि दलित स्त्रियाँ परिवार और समाज में कभी नेतृत्वकारी भूमिकाओं में रही ही नहीं. स्त्रियाँ अपनी जाति और लिंग के कारण दमित भूमिकाओं तक ही महदूद रहीं. लेकिन जब से दलित स्त्रियाँ अपने आख्यानों के साथ भारतीय भाषाओं विशेषकर मराठी में रेखांकित करने योग्य संख्या में सामने आयीं, तबसे दलित साहित्य के प्रसंग और संदर्भों को समझने की नयी दृष्टि मिली. दलित जीवन की जो अभिव्यक्ति मराठी की स्त्री-आत्मकथाओं में हुई उनमें दो बिंदु महत्वपूर्ण हैं– पहला, तो यह कि दलित स्त्रियाँ इसलिए लिखती हैं कि वे अपना प्रतिरोध दर्ज करा सकें. इसके लिए वे विभिन्न रणनीतियां अपनाती हैं. दूसरे वे शोषक वर्ग की भाषा को ख़ारिज करके उनके विपक्ष में बोलने के लिए अपनी अभिव्यक्ति शैली तैयार करती हैं. कहीं पर तो वे सवर्णों की साहित्यिक परंपरा का अनुसरण करती हैं तो कहीं उन्हें चुनौती देकर शोषक की रणनीतियों का खुलासा करती हैं. जिस जीवन की अभिव्यक्ति ये स्त्रियाँ आत्मकथ्यों में करती हैं उनमें दलित जीवन की पुनर्रचना के प्रयास दिखाई देते हैं चाहे वह शान्ताबाई धानाजी दानी का बोलकर लिखवाया गया आत्मकथ्य हो या मुक्ता सर्वगोंड़ का या मल्लिका अमरशेख का आख्यान हो– इन सबमें अपने अस्तित्व के प्रति चेतना, सवर्ण और दलित पुरुषों के शोषण से स्वयं को बचाने का प्रयास, शिक्षा और नौकरी द्वारा अपना स्तर ऊँचा करने का प्रयास अभिव्यक्त है. इन आख्यानों के माध्यम से वे पिछली पीढ़ी के दलितों से अपनी अलग पहचान पुनर्स्थापित करती हैं. अपने दलित होने के कारण कहीं वे कुंठित हैं, कहीं दुखी और कहीं अपनी पहचान छिपाने के लिए विवश भी.”
सन अस्सी के बाद लिखे गए ये आत्मकथ्य शुरूआती दौर के आत्मकथ्यों से अलग हैं जिनमें बतौर दलित एक स्त्री को ‘मिथ्या पहचान’ ओढ़ने के लिए विवश कर दिया जाता था. जिसके उदाहरण के तौर पर बेबी काम्बले की आत्मकथा को देखा जा सकता है. दलित लेखन का केंद्र अमूमन प्रतिरोध और विद्रोह की आवाज़ बुलंद करना तथा वर्ग और जाति व्यवस्था का विरोध करना रहा है. स्वभावतः ही प्रतिरोध के बीज पीड़ा के अतिरेक और शोषण की पराकाष्ठा तथा सहनशक्ति की परीक्षा के मध्य छिपे रहते हैं. ऐसे अनुभवों की जड़ में व्यवस्था के प्रति क्रोध,घृणा और अविश्वास की सक्रिय भूमिका होती है–जो मुख्यधारा बनाम हाशिया और केंद्र बनाम परिधि के पारस्परिक संबंधों पर आधारित हैं. बाबा साहब अम्बेडकर की शिक्षा और भाषणों ने महाराष्ट्र के क्षेत्र में सबसे पहले और गहरा असर डाला. दलितों को हीनत्वबोध त्यागने में भी बाबासाहब ने मदद की. अन्याय के खिलाफ़ आत्मकथात्मक आवाजें जो दया पवार के ‘बलूत’ से शुरू हुईं उनकी प्रतिध्वनि दलित स्त्रियों के विपुल आत्मकथात्मक लेखन में अस्सी–नब्बे के दशक तक सब ओर सुनाई देने लगी. बहुस्तरीय अन्याय के प्रतिरोध की आवाजें और दबाई नहीं जा सकीं क्योंकि अब दलितों और दलित स्त्रियों के लिए संघर्ष के अलावा कोई रास्ता बच नहीं रहा था.
अमूमन दलित स्त्री का शरीर एक दलित समाज में जाति-आधारित उच्चता बोध और सत्ता के प्रयोग के लिए उपयुक्त साईट होता है. अक्सर उसे पुरुषसत्तात्मक समाज में पुरुषों की उच्चता के समक्ष ‘मूक ग्रहणकर्ता के रूप समझा जाता है. उनके शरीर को सस्ते श्रम की साईट समझा जाता है. लेकिन जब स्त्री की देह शोषण की साईट बनती है, जब उसे अधीनस्थ, विखंडित स्थिति में पहुँचाया जाता है– वहीं से उसमें प्रतिरोध की आवाजें फूटती हैं और समाज की परंपरागत मान्यताओं,सोच–विचार में दरार पड़नी शुरू होती है. स्मृति को जबरन मस्तिष्क से अलग रखने की जब कोशिश की जाती है, तब स्मृतियाँ और भी ठोस हो जाती हैं. दलित स्त्रियों की स्मृति, भावनाओं को कठिन शोषण, उत्पीड़न की स्मृतियों से इतना दमित करके रख दिया जाता है कि वे किसी रचनात्मक कार्य के लिए भविष्य में भी उत्साह कभी नहीं जुटा पातीं. लेकिन जहाँ भी दमन होगा वहां प्रतिरोध भी अवश्य ही जन्म लेगा. ‘अन्य’को ज़बरदस्ती हाशिये पर धकेल कर समर्पण के लिए विवश कर दिया जाता है तब इस थोपी हुई चुप्पी से प्रतिरोध की शुरुआत होती है. यद्यपि दलित स्त्री के पास ऐसे बहुत कम अवसर आते हैं जब वह खुद को सत्ता संरचनाओं से जोड़ सके. जो समाज उसे मनुष्य की गरिमा से वंचित रखता है, उससे लड़ने के लिए जिन औजारों को वह तलाशती और अपनाती है,तब उसका समुदाय, जाति, परिवार भी बहुत बार उसके विरोध में खड़े दीखते हैं. दलित स्त्रियों का संघर्ष इसलिए बहुस्तरीय हो जाता है क्योंकि उन्हें सवर्ण मानसिकता और सत्ताधारी समाज से भी समानांतर संघर्ष करना पड़ता है. ये मानसिकताएं उसे चुनौती देती हैं और संघर्ष के औजारों को भोथरा करने का प्रयास करती हैं. आत्मकथ्यों को पढ़कर जाना जा सकता है कि वे किस प्रकार अपने भीतर से विपरीत स्थितियों से लड़ने की ताक़त पैदा कर लेती हैं.
दलित स्त्रियाँ जो भाषा इस्तेमाल करती हैं उनके निर्माण में सामुदायिक संस्कृति का शब्द–भंडार प्रमुख भूमिका निभाता है. वे जीवनानुभवों से निकले हुए शब्द होते हैं जो स्वयं में प्रतिरोध का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. इन शब्दों के बल पर वे साबित कर देती हैं कि साहित्य के क्षेत्र में हठधर्मिता और सैद्धांतिक आग्रह उनकी अभिव्यक्ति को रोक नहीं सकते. ये लेखक अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए सभी तरह की औपचारिकताएं एक तरफ रख देती हैं. ये आत्मकथाएं अपनी उपस्थिति में अपने समुदाय को जागृत करने का काम करती हैं. दूसरे उत्तर औपनिवेशिक लेखकों की तरह वे अपनी तरफ से न सिर्फ़ आत्मकथा विधा को समृद्ध करने का प्रयास करती हैं,बल्कि समाज की सत्ता–संरचनाओं को बदलने की दिशा में भी कदम उठाती हैं. इस विधा के द्वारा वे वैश्विक पाठक के पास ज्यादा बेहतर ढंग से पहुँचने का प्रयास करती हैं.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी