रात्रादिन आम्हा
मराठी दलित स्त्री आत्मकथा लेखक के रूप में सबसे पहले शांताबाई धानाजी दानी (1919-2001 ) का आख्यान ‘रात्रादिन आम्हा’ (ये दिन और रात) देखा जा सकता है जो 1990 में छपा. जिसका हिंदी अनुवाद ‘धूप छाँव’ शीर्षक से रजनी तिलक ने 2000 में किया. शान्ताबाई का पूरा जीवन अम्बेडकर आन्दोलन के उद्भव और विकास के इर्द–गिर्द केन्द्रित रहा. दलित शिक्षा के लिए उन्होंने विशेष कार्य किये. राजनैतिक दृष्टि से अम्बेडकरवादी विचारधारा की पैरोकार रहीं. उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट का विरोध किया और यरवदा जेल में बंदी रहीं. वह ‘शेड्यूल कास्ट फेडेरशन’ की नासिक शाखा की सचिव रहीं और 1947 से बाबासाहेब अम्बेडकर की इंडिपेंडेट लेबर पार्टी के कार्यक्रमों के प्रचार–प्रसार के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में बहुत से दौरे किये. 1968 -1974 के दौरान शांताबाई महाराष्ट्र राज्य विधानसभा की सदस्य रहीं. भावना भार्गव ने शान्ताबाई का मौखिक आख्यान लिखा. डॉ वी. वी. शिरवाडकर ने उनकी जीवन यात्रा को ‘संघर्ष यात्रा’ की संज्ञा दी. महार जाति में पैदा हुई शांताबाई के कई भाई–बहन थे और उनका जन्म नासिक के बाहरी हिस्से में हुआ. छह वर्ष की अवस्था में मां ने शांता को स्कूल भेजा,स्कूल का खर्च और भोजन की व्यवस्था में शांताबाई की मां दिन-रात लगी रहती थी. बचपन में भूख के अनुभव की स्मृति उनके मन पर अमिट हैं–
“निर्धनों को भूख ज्यादा लगती है. शायद वे ज्यादा स्वस्थ होते हैं इसलिए उन्हें ज्यादा भूख लगती है. उन दिनों बच्चों को घर से स्कूल ले जाने के लिए टिफिन नहीं मिलता था. सुबह जो बन गया वही खाकर हमें स्कूल चले जाना होता था. शाम को जब मैं स्कूल से आती थी तो टोकरी में रखी भाखरी मेरी आँखों के आगे नाचती रहती थी. भाखरी,मिर्च,प्याज़ और नमक ही गरीबों के लिए विशिष्ट होते थे. एक दिन घर लौटकर मैंने अपना बस्ता उतारा, खूँटी पर टांगा और टोकरी खोल कर देखी,वह खाली थी. पतीले का ढक्कन उतार कर देखा वह भी खाली था. सब्जी की एक बूँद भी नहीं थी. मैं बहुत भूखी थी. बच्ची होने के कारण भूख नियंत्रित करना बहुत मुश्किल था. पूरे दिन में कम से कम एक बार भरपेट भोजन ज़रूरी था. पेट में कुछ डाले हुए आठ–नौ घंटे बीत गए थे. मेरी आंतें पेट को भीतर से मरोड़ रही थीं. मैं रो रही थी. हमेशा की तरह, घर पर कोई नहीं था. पड़ोसन ने बस यूँ ही पूछ लिया– क्या बात है, क्यों रो रही हो ? लेकिन उन्हें ये समझ नहीं आया कि स्कूल से छोटी बच्ची जो अभी घर आई है वह भूखी होगी. उन्होंने बस यही कहा– क्या बात है ? “क्या मुझे भाखरी का एक टुकड़ा दे सकती हो? बस एक टुकड़ा !मैं सच में बहुत भूखी हूँ. “
आई तभी काम से वापस आ रही थी जब उसने मुझे पड़ोसी से खाना मांगते सुना. आई गरीब ज़रूर थी पर बहुत स्वाभिमानी थी. मेरी पढ़ी- लिखी बेटी खाने के लिए भीख मांग रही है! वह क्रोधित हो गयी. अन्दर गयी और एक छड़ी उठा कर मुझे पीटना शुरू कर दिया. मैं रोई और रोते–रोते भूखे पेट ही झोपड़ी के दरवाज़े पर ही सो गयी. आई देर शाम को काम पर से लौटी थी उसे मालूम था कि घर में खाने को कुछ नहीं है. वह मेरे लिए बाहर से खाने के लिए कुछ ले आई थी. उसने रात गए मुझे जगाया, उसका क्रोध शांत हो चुका था उसने गोद में बिठा कर मुझे खिलाया,जब मैं खा रही थी तो मेरे उलझे बालों में उंगली फिरा कर बोली– मैं एक दुष्ट औरत हूँ मैंने अपनी बेटी को पीटा! बेचारी लड़की भूखी थी. . आओ अब खा लो !जबतक तुम्हारा पेट भर न जाए. हम दोनों रो रही थीं. मैं, अपनी मां को अपने नन्हें हाथों से खिला रही थी”.
शान्ताबाई की मां अपनी बेटी को पढ़ाने और घर का खर्च चलाने के लिए घास काटकर बेचती थी. शांता की पढ़ाई के लिए वह बहुत व्यग्र रहा करती क्योंकि शांता से बड़ी सोनू को विवाह के बाद ढेर सारे कष्टों का सामना करना पड़ा था. वह बार–बार कहा करती कि– सुनो लड़की गरीबों के लिए जीवन में शिक्षा ही एकमात्र आशा की किरण है.
शांताबाई अपने बचपन के दिनों को याद करती हुई कहती है कि मां को जब भी दो आने मिलते तो वह हमारे लिए फल,मिठाई, अमरुद, चीकू ले आती. आम महंगे मिलते लेकिन वह गले हुए फल खरीद लेती और ख़राब हिस्सा काट कर अच्छा वाला हमें खिला दिया करती. घास के गट्ठर बेच कर वह किसी तरह घर का गुज़ारा चलाया करती, उसने अपने आप को समझा लिया था कि पति अब भैंसों का दूध बेचने का काम नहीं कर पायेगा इसलिए उसे खुद ही गृहस्थी की गाड़ी चलानी है और शान्ता को पढ़ाना है. आई अपने पल्लू में रोज़ की कमाई बाँध कर रखती,वह बहुत स्वाभिमानी थी और किसी से भी उधार नहीं लेती. थोड़ी बड़ी होने पर शांताबाई ने अपनी आई का हाथ बंटाना शुरू कर दिया, वह अपनी दादी के साथ बोझा ढोने का काम भी किया करती. आत्माख्यान में शांताबाई बचपन में श्रम, गरीबी और अपने अभिभावकों के संघर्ष का चित्रण विस्तार से करती हैं. जब वह पाँचवीं कक्षा में थी उसने छुआछूत को बहुत निकट से अनुभव किया. वह एक प्रसंग का जिक्र करती है जहाँ पिता को सपरिवार किसी सवर्ण ने होली के भोज में शामिल होने के लिए बुलाया था. वहां जाने पर पर बाकी लोगों से अलग शांता के परिवार को गुहाल में बिठा कर भोजन दिया गया जहाँ गोबर और गन्दगी का साम्राज्य था. शांताबाई को पिता की बातचीत अभी तक याद है– पिता ने कहा–
“हम महार हैं. उनके साथ बैठकर हम कैसे खा सकते हैं? हमारी उपस्थिति से वे भ्रष्ट हो जायेंगे.”
“भ्रष्ट होना क्या होता है? मैंने पूछा
“हम उन्हें छू नहीं सकते”
“हमारे छूने से क्या हो जाएगा”
“होगा क्या– जो छूएगा उसे पाप चढ़ेगा”
“पाप क्या है? “
“वह अच्छा काम नहीं है”
“अच्छा काम क्या है?”
“अच्छा काम अच्छा है और पाप बुरा है”- पिता ने संक्षेप में बात समझा दी.
“क्या हम मनुष्य नहीं हैं?”
“हैं क्यों नहीं, जरुर हैं.”
“तो फिर ये लोग कुत्ता बिल्ली तो छूते हैं हमें क्यों नहीं”
“इतने सारे सवाल मत पूछो, जल्दी खाना खाओ”
सातवीं कक्षा पास करने के बाद शांताबाई सरकारी ट्रेनिंग कालेज में गयी, जहाँ उसने जाति के आधार पर भेदभाव की उम्मीद नहीं की थी. लेकिन वहां वह अकेली महार लड़की थी. उसे मेस-हाल में घुसने नहीं दिया जाता और बरामदे में अलग खाना दिया जाता. उसकी थाली में खाना ऊपर से डाल दिया जाता और वह बरामदे में अकेली बैठ कर खाती –
“भाखरी ऊपर से फेंक दी जाती, सब्जी भी दूरी बनाकर कड़छुल से बिना मेरी थाली को छुवाये हुए डाल दी जाती” सब्जी आधी कटोरी में आधी ज़मीन पर गिर जाया करती. रोटी या भाखरी सब्जी के रसे में डूब जाती. सब्जी प्लेट में रखी सूखी चटनी के ऊपर गिरी रहती. मुझे बहुत गुस्सा आता”
शांताबाई ने स्कूल में कभी जाति के आधार पर भेदभाव नहीं सहा लेकिन कालेज में उसे लड़कियों के स्नानागार में स्नान की अनुमति नहीं थी. बांस की खपच्चियों से घेरकर उसके लिए अलग से कच्चा स्नानघर बना दिया गया था. वह जाति दंश के अनुभवों को बहुत कड़वाहट के साथ स्मरण करती है और विन्चुर के देवी मंदिर में पुजारी द्वारा किये अपमान को नहीं भूल पाती जहाँ वह अनजाने में दूसरे लोगों के साथ ही भीतर चली गयी थी. महार जाति की होने कारण उसका देवी मंदिर में जाना दरबार की चिंता का विषय बन गया था. उसपर लगाये आरोप के जवाब में उसने कहा था – “मैं जान बूझकर मंदिर में नहीं गयी थी. दूसरे सब लोगों के साथ मैं भी भीतर चली गयी,बिना जाने समझे कि मैं क्या कर रही हूँ. मैंने जान बूझकर कुछ नहीं किया”-शांताबाई बताती है कि विन्चुर के युवराज प्रगतिशील थे, इसलिए शान्ता को इस कृत्य की कोई सजा नहीं मिली. समय के साथ वह भी इस घटना को भूल गयी. शांताबाई अपने आख्यान में बार-बार मां को याद करती है जिसने अपने जीवन के अभावों और अनुभवों से सीखा था कि शिक्षित होना सबसे ज्यादा ज़रूरी है वह शांताबाई के अध्यापक से कहा करती –
“मास्टर, मेरी बेटी को पढ़ाना ज़रूर. पढ़ कर ही वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकेगी. आप स्कूल में इस बात का ध्यान रखें कि उसे कोई दिक्कत न हो. जितना मुझसे हो पायेगा उतना तो मैं ज़रूर करूँगी. लेकिन आप इसकी पढ़ाई पर खूब ध्यान दीजियेगा”
शान्ता बताती हैं कि मां अनपढ़ थी पर अनुभवों ने उसे सिखाया था. पुणे में शांताबाई के जीवन में डाक्टर लोंढे जैसी नेक ईसाई आयीं जिन्होंने शांता को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. कालेज में बाबासाहब अम्बेडकर के उपदेश और शिक्षा के बारे में सुनने और पढ़ने को मिला. वह आख्यान में इस बात को विस्तार से बताती हैं कि किस तरह अम्बेडकर ने उन्हें राजनीतिक शिक्षा दी,वे निजी तौर पर भी अम्बेडकर से मिलीं थीं और उनके विचारों और जीवन शैली से बहुत प्रभावित भी हुई थीं. वे बाबासाहेब के धर्मपरिवर्तन और उनके महापरिनिर्वाण की घटना का चित्रण विस्तार से करती हैं. शांताबाई ने दलित जन उत्थान,जल और स्वच्छता की सुविधाओं के लिए निरंतर प्रयास किया और सन 1987 में उन्हें सावित्रीबाई फुले पुरस्कार से नवाज़ा गया.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी