मिटलेली कवाडे
मुक्ता सर्वगोंड (1922 -2004) की आत्मकथा ‘मिटलेली कवाडे’ (बंद थे दरवाज़े) का प्रकाशन सन 1983 में हुआ. वर्धा जिले के आनंदवन में रहने वाली मुक्ता सर्वगोंड ने जीवन भर दलित समाज के हित में कार्य किये. समाजवादी नेता यदुनाथ थाटे की प्रेरणा से मुक्ता ने अपना जीवनाख्यान लिखा. पूरा जीवन समाज सेवा को समर्पित कर देने वाली मुक्ता ने आत्मकथा की भूमिका में बताया है कि अपने बारे में उन्हें ऐसा कुछ भी विशिष्ट नहीं लगता जिसे लिखना ज़रूरी लगे. उन्होंने भूमिका में ही यह स्पष्ट कर दिया कि वह आत्मकथा अपने जीवन और अनुभव के बारे में बताने के लिए नहीं लिख रही हैं बल्कि वे शेष समाज को वे दलित समुदाय के जीवन के बारे में बताने के उद्देश्य से लिख रही हैं. वह सही ढंग से किये समाज कार्य और आडम्बर में, समाज-कार्य और लोगों की ज़रूरत के अनुरूप किये कार्य के अंतराल को भी रेखांकित करती हैं. कुछ दलित आलोचकों ने जब उनपर यह आरोप लगाया कि वे तो दलित समुदाय में रही ही नहीं तो वे कैसे उनके जीवन को समझ सकती हैं ?इसपर मुक्ता की प्रतिक्रिया थी–
“मैंने सिर्फ़ दलित समुदाय के लिए कार्य किया है– और मैं इसे ही याद रखना चाहती हूँ. बाबासाहेब अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले के कार्यों, दलितों में चेतना जागृत करने के प्रयासों से मुक्ताबाई ने प्रेरणा ग्रहण की. बाबा आम्टे के मानवता के पक्ष में किये कार्यों से वे प्रभावित हुईं विशेषकर जब उन्होंने आनंदवन में देखा कि “वहां भर्ती लगभग आधे रोगी वे थे, समाज ने जाति के नाम पर जिनके लिए दरवाज़े बंद कर रखे थे” ’मिटलेली कवाडे’ के प्रारंभ में ही मुक्ता ने बचपन के दिनों में स्कूल में होने वाले भेदभाव के बारे में लिखा है. दलित होने के कारण मुक्ता को अध्यापिका से एक निश्चित दूरी बनाकर बैठने को कहा जाता. कमरे के किनारे एक घड़ा रखा रहता जिसका पानी बच्चों की स्लेट पोंछने के काम में आता लेकिन उसे छूने की मनाही सिर्फ़ मुक्ता को थी. अन्य विद्यार्थी मुक्ता की स्लेट पर पानी छिड़क देते लेकिन मुक्ता उस घड़े को छू नहीं सकती थी. सन 1930 के आसपास एक नयी हेडमास्टर आयीं जिन्होंने अध्यापकों को ऐसे भेदभाव पूर्ण व्यहार के लिए फटकारा,तब जाकर मुक्ता जैसे दलित बच्चे स्कूल में पानी का घड़ा छू पाए. महार और मांग जाति के बच्चों को अध्यापिकाएं छूती तक नहीं थीं,उन्हें दूर से लकड़ी फेंककर मारती. स्कूल से लौटते हुए वह गरीब दलित औरतों को घास के गट्ठर और लकड़ी बेचते देखतीं.”
ऐसे दृश्य उन्हें अपना अभावग्रस्त बचपन याद दिला देते. स्कूल जाते हुए रास्ते में कई लोगों की बातें सुनने को मिलतीं– “तुम अब बच्ची नहीं हो. अगर अब तक तुम्हारी शादी हो गयी होती तो दो बच्चों की मां बन गयी होती. तुम्हें स्कूल जाने में शर्म नहीं आती.”
मुक्ता ने स्कूल और अपने समाज में जाति के दंश झेले. विवाह के बाद पटन आकर ‘हरिजन–सप्ताह’ में भूख, श्रम और भोजन सम्बन्धी मुद्दों पर अपने अनुभव साझा करने के दौरान पिता के अनुभव सुनाये जो उन्होंने आषाढ़ माह और बारिश के दिनों में झेले थे. अपने समुदाय के लोगों द्वारा झेले जा रहे और अतीत के कष्टों की चर्चा,महार जाति के लिए गाँव से अलग बाहर रहने की व्यवस्था और सवर्णों द्वारा उनके सस्ते श्रम के दोहन का चित्रण वे करती हैं.
गाँव के पटेल की बेटी के विवाह के प्रसंग में लिखती हैं- “शादी से कई दिन पहले सभी दलित काम में जोत दिए गए. कोली (मछुआरा जाति) लोग घर को ढोने और पखाल में पानी भरने के काम में लगा दिए गए. सलगड़ी(ठेके के मजदूर)अपनी भूख प्यास भूल कर लकड़ी के बड़े–बड़े लट्ठों को चीरकर जलावन के योग्य बना रहे थे. जानवरों को खिलाने के लिए घास के गट्ठर के गट्ठर संभाल कर रख दिए गए. शादी में दोनों पक्षों से मेहमान अपनी –अपनी बैलगाड़ियों में आने वाले थे इसलिए इतने बैलों को बाँधने और चारा खिलाने का इंतज़ाम पहले से ही कर दिया गया था. पटेल के बड़े से दरवाज़े की सारी गन्दगी, आसपास के कूड़े के ढेर को हटाया जा रहा था. राख़ के बड़े–बड़े ढेर, कूड़ा, मिट्टी, गोबर सबकुछ उन्होंने अपने हाथों से साफ़ किया और जगह साफ़–सुथरी कर दी. वे लगातार सफाई करते रहे. झाड़ू लगाना, कूड़ा फेंकना. उनके किये काम की कोई सीमा ही नहीं थी. अहाता, आँगन, बगीचा, गुहाल सब कुछ साफ़ कर दिया. इसके साथ ही काम करने वालों को एक जगह से दूसरी जगह संदेसा पहुंचाने के लिए भी दौड़ना पड़ता. बैलों को सानी–पानी देना, झाड़ू बुहारू करने का हर काम मांग और महारों ने किया अंततः शादी का दिन आ ही गया, पूरे दिन मजदूर लकड़ी काटते रहे, शाम में उन्हें थोड़ा बहुत खाने को मिला, लेकिन उन्होंने नहीं खाया क्योंकि वे उसे अपने बच्चों के लिए बचा कर रखना चाहते थे जो झोपड़ी में भूखे बैठे थे.
उनकी औरतें सुबह का बचा–खुचा खाना लेकर घरों को जा चुकी थीं. ऐसी ही सोच में गुम होकर वे यहाँ मिला भोजन बाँध रहे थे और घर लौटने की तैयारी कर रहे थे. उनके पेट खाली थे लेकिन कोई बात नहीं उन्होंने भरपेट पानी पी लिया था. एक मजदूर बचे खाने के कुछ टुकड़े निगलकर कमर सीधी करने के लिए लेटा ही था कि बड़े घर से एक आदमी आकर बोला कि अभी बहुत काम बाकी है– जैसे मेहमानों के बैलों को खिलाना,पानी पिलाना, उनका गोबर साफ़ करना, गंदे फर्श को धोना और पोंछना, जलावन की लकड़ियों को सुबह के लिए रखा जाना भी अभी बाकी था. कोली अभी भी पखाल में मशक से पानी भर रहा था. अभी भी बाजेवाला अपना बाजा लगातार बजा रहा था. पिपनी बजाकर वह अपनी कला दिखा रहा था. चारों ओर बच्चे ही बच्चे खेल रहे थे, कहीं एक इंच की जगह भी नहीं थी कि आप खड़े रह सकें.
मांग और महार लोगों ने सारा काम फिर से करना शुरू कर दिया. किसी तरह आधी रात को जाकर शादी संपन्न हुई. इसके बाद मेहमानों के नखरे, उन्हें मिले उपहार, उन उपहारों की आलोचना, मान–मनुहार, इसके बाद मेहमानों के भोज की बारी आई फिर वे सोने गए. शायद रात के दो बज रहे होंगे जब शिव महार को किसीने नींद से जगाया, वह लगातार काम करके बहुत थक गया था. वह आधी नींद में उठा अपनी परात उठाई और गोबर के ढेर के पास ही बैठ गया, उसे नींद और थकन के मारे दुर्गन्ध भी नहीं आ रही थी. दरअसल वह खाना भी नहीं चाहता था, वह तो बस सोना चाहता था. वह परात में परोसी खीर गिराना नहीं चाहता था. खीर भरी परात को उठाकर किसी तरह हाथ बदलते, टपकती हुई खीर को हाथों से काछकर फिर परात में डालते-पोंछते वह घर पहुंचा और खीर को, एक छींके में रखे मिट्टी के बर्तन में डाल कर ढक्कन बंद कर दिया. इसके बाद वह अपने बिस्तर पर लेटकर गहरी नींद सो गया. सुबह उसकी पत्नी उठी और बच्चों को प्यार से खीर परोसने लगी,लेकिन वह तो अब खीर थी ही नहीं. किसीने परात को मनुष्य के पाखाने के ढेर पर रख दिया था. लेकिन अँधेरे और गहरी नींद के कारण शिव महार ने देखा नहीं कि उसकी परात पाखाने के ऊपर रखी हुई है, उसने सूंघा भी नहीं. चार महीने के जी-तोड़ परिश्रम के बदले उसे ये पारिश्रमिक मिला था.
इसलिए दोस्तों, जेजुरी मंदिर की नौ लाख सीढ़ियाँ चढ़ने की बजाय मनुष्यता के द्वार खोलो. वहीं ईश्वर तुम्हें मिलेंगे, मंदिर में नहीं. संतों ने भी तो यही उपदेश दिया है .
इन आख्यानों में भूख,गरीबी और ग़ुरबत के प्रसंग ‘लज्जास्पद’ लग सकते हैं, इसी प्रसंग में. गोपाल गुरु का कहना है कि दलित मध्यवर्ग और राजनीतिज्ञों को इस तरह के यथार्थ आख्यान ‘अप्रिय’ लग सकते हैं क्योंकि वे अपने सांस्कृतिक वर्तमान में अनिच्छित अतीत के प्रमाण नहीं चाहते. उनका यह भी मानना है कि आम दलितों के लिए ये आख्यान अभी भी अनुपलब्ध हैं क्योंकि उन्हें अपने जीवन-संसार का विश्लेषण करने की आवश्यकता ही नहीं है. जिन्हें जाति के दंश से अपने रोज़मर्रा के जीवन में जूझना ही पड़ता है, और जिन्हें अपने प्रतिनिधित्व के बारे में चेतना ही नहीं है, उनके लिए ये आख्यान मायने नहीं रखते. इन आख्यानों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे वे अपरिचित हों. मुक्ता सर्वगोंड़ का आख्यान हो या बेबी हालदार का– इन्हें पीड़ा और दुःख की दास्तान मात्र,या अतीत की दुखद स्मृतियों का चर्वण समझना नहीं चाहिए,वास्तव में ये आत्मकथा के तयशुदा मानकों का परिविस्तार करने वाले आख्यान हैं. जो जाति और पेशे पर आधारित दमन,जाति विरोधी संघर्ष और प्रतिरोधी चेतना का निर्माण करने के लिए लिखे और पढ़े जाने ज़रूरी हैं.
बहुत ही विस्तृत आलेख। दलित जीवन का खण्ड-खण्ड सच-एक आत्मकथात्मक साक्ष्य । तीन तरफा मार झेलती स्त्री- एक तो स्त्री, वह भी दलित और उस पर से पितृसत्ता के अधीन।अभी समयाभाव से इसे आद्योपांत नहीं पढ़ पाया। लेकिन अत्यंत पठनीय एक जरूरी आलेख।
साहित्य का भूगोल हो या इतिहास इन दलित महिला कथाकारों की आत्मकथाओं की उपस्थिति को दर्ज किए बिना कभी मुक्कमल आकार ग्रहण नहीं कर सकता। बेबी हालदार की आत्मकथा पढ़ते हुए अविस्मरणीय कहानी आखेट के कथाकार प्रबोध कुमार और विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी स्वर्गीय अशोक सेकसरिया का स्मरण न आना असंभव है। हमेशा की तरह इस बार भी अपने गंभीर और सुचिंतित आलेख को पढ़वाने के लिए गरिमा श्रीवास्तव जी का और अरुण देव जी का अभिवादन।
गरिमा श्रीवास्तव का यह भी एक सुचिंतित आलेख है। भारत में दो तरह के स्त्री लेखन होते रहे हैं। एक खाए-अघाए या सवर्ण स्त्रियों का लेखन, और दूसरा दलित-बहुजन स्त्रियों का लेखन। सवर्ण स्त्रियों के यहां दलित-बहुजन स्त्रियां उसी तरह से गायब हैं जिस तरह से सवर्ण पुरुषों के लेखन से जाति समस्या या दलित-बहुजन समाज। इतना ही नहीं सवर्ण लेखिकाएं दलित-बहुजन स्त्रियों से अकूत घृणा भी करती हैं। लेकिन दलित स्त्री लेखन की यह खासियत है कि एक तरफ यदि वह द्विजवाद से लड़ता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने ही समाज की मर्दवादी सोच और विचार से। दलित-बहुजन स्त्रियों के लेखन में हम कई-कई मोर्चों पर संघर्ष और अभिशापों को पाते हैं। इसीलिए उसे भारत के प्रमुख स्वर के रूप में पहचान मिल रही है। ईमानदारी, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और स्वाभाविकता उसकी विशेषता है। तभी मल्लिका अमरशेख जैसी महान दलित लेखिका अपने पति नामदेव ढसाल की कलई को खोलकर रख पाती हैं। तहमीना दुर्रानी और तसलीमा जैसी लेखिकाओं ने भी ऐसा साहस दिखाया है। लेकिन हिंदी की सवर्ण लेखिकाओं के पास ऐसा साहस कहां? वह तो फैशन में लिखते चलती हैं। वे भारत की पहली शिक्षिका सावित्री बाई फुले का नाम नहीं लेंगी लेकिन वर्जीनिया वुल्फ और जर्मन ग्रीयर का नाम लेते नहीं अघाएंगी।
अच्छा आलेख है। कई महत्वपूर्ण संदर्भों से संपन्न।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी घटिया-सी आत्मकथा लिख दी थी। वहीं दूसरी ओर तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की पीड़ाएँ और कष्ट तो वयक्त किए, लेकिन अपनी पत्नी के बारे में बिल्कुल भूल ही गए। स्त्री दलितों में भी सबसे दलित है। पितृसत्तात्मक समाज की बन्दिशें दलित स्त्रियों को भी झेलनी पड़ती हैं। उनका दोहरा शोषण होता है। ऊँची जातियों के द्वारा और ख़ुद अपने ही समाज के मर्दों के द्वारा।
सही है
सशक्त भाषा के साथ गंम्भीर विश्लेषण करते हुए गरिमा जी ने दलित स्त्रियों के आत्मकथ्यों से दिखाई देने वाले गहरे दंश को साहित्य जगत के सामने लाकर अन्याय के खिलाफ दस्तावेज प्रस्तुत करने का श्लाघनीय कार्य किया है। उन्हें और अरुण देव को अभिवादन।
शुक्रिया शुभा जी