मनाल अल-शरीफ
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छोटी बच्ची से किशोरी बनने की दहलीज पर थी वो, जब उसने अपने छोटे भाई के पसंदीदा कैसेट को जला दिया क्योंकि उसकी नजर में संगीत सुनना गैर इस्लामी और हराम था. स्कूल में मिलने वाली नियमित धार्मिक शिक्षा और आस पास के माहौल का असर उस पर इतना ज्यादा था कि यदि गलती से भी उसके कान में संगीत पड़ जाता तो वो दोजख के ख्याल से डर जाती और कब्र में अपने कान में गरम तेल या शीशा पिघला कर डाले जाने की कल्पना कर तड़प उठती. हिजाब सरकने मात्र से वह अपने अनैतिक होने के अपराधबोध से भर जाती और परवरदिगार से माफी मानने लगती. उसे गैर इस्लामी बातों और लोगों से नफरत थी. काफिरों से नफरत करना चाहिए यह उसकी स्कूली शिक्षा का हिस्सा थे. लड़की की ऐसी सोच अकेली नहीं थी, उसके साथ पढ़ने वाली उसकी सहपाठिनें भी उसकी हमख्याल थीं. वह उस समूचे दौर का असर था जो पूरे मध्य पूर्व को अपनी गिरफ्त में ले रहा था.
स्कूल सबसे आसान जगह थी जहाँ कम उम्र और कोमल मस्तिष्क के बच्चों को एक सुनिश्चित दिशा में मोड़ा जा सकता था. दुनिया भर के मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र माने जाने वाले शहर मक्का में रहने वाली तमाम लड़कियाँ जो धार्मिक तो पहले से ही थीं अचानक से कट्टरपंथी इस्लाम की अनुगामिनी होने लगीं. ये लड़कियाँ अपनी माँओं को हर समय हिजाब पहनने और प्रार्थना करने पर मजबूर करने लगीं. इसी धार्मिक चरमपंथ के अनुभवों और उससे अपनी मुक्ति की कहानी सुनाने वाली मनाल अल-शरीफ आज अपनी किताब ‘DARING TO DRIVE : A SAUDI WOMEN’S AWAKENING’ के मार्फत समालोचन के पाठकों से मुखातिब हैं.
मक्का में एक मामूली टैक्सी ड्राइवर के घर पैदा हुई मनाल अल-शरीफ पूरी दुनिया में चर्चित हुए जून 2011 के ‘डेयरिंग टू ड्राइव’ आंदोलन के कारण जानी जाती हैं. मनाल अल-शरीफ सऊदी अरब की पहली महिला नहीं हैं जिसने वहाँ की सड़क पर स्टीयरिंग व्हील पकड़ी उनसे पहले भी सन् 1990 में 47 महिलाओं ने फीमेल ड्राइविंग पर लगे प्रतिबंध के विरोध स्वरूप सऊदी अरब की राजधानी रियाद में कार चलायी और राजसत्ता के दमन की शिकार हुईं. इनमें से कइयों की नौकरी चली गयी, पति और परिवार की विदेश यात्राओं पर रोक लगा दी गयी और बहुतों को हवालात में डाला गया. मुफ्तियों ने इन महिलाओं को बदचलन कहा और अमरीकी प्रभाव में सऊदी अरब की संस्कृति को प्रदूषित करने का आरोप भी लगाया.
बीस सालों बाद मनाल अल-शरीफ ने जब फिर से औरतों के ड्राइविंग अधिकारों की बात की तो मुख्य अंतर ये रहा कि मनाल ने अपने कार चलाने की जरूरत,इच्छा और अधिकार को सोशल मीडिया के माध्यम से एक संगठित मुहिम का रूप दे दिया जो मध्य पूर्व और अफ्रीका में चल रहे अरब स्प्रिंग आंदोलन से जा जुड़ी. हालाँकि अरब स्प्रिंग आंदोलन का जैसा असर मिस्र, ट्यूनेशिया, लीबिया,सीरिया और यमन में हुआ वैसा सऊदी अरब में तो नहीं हुआ फिर भी वह इन हलचलों से अछूता नहीं रहा. बाद के दिनों में विशेषकर 2019 में राजशाही ने सऊदी अरब में महिलाओं को ड्राइविंग,विदेश यात्रा ,बच्चों के जन्म का रजिस्ट्रेशन कराने जैसे जो अधिकार दिए उसकी जड़ मनाल अल-शरीफ के ‘डेयर टू ड्राइव’ आंदोलन और उसको मिले अपार समर्थन में छिपी है.
मनाल अल-शरीफ की आपबीती की खास बात ये है कि वो उस सफर को बयान करती है जिसमें शिक्षा की रोशनी जिंदगी और शख्सियत को बदल देती है और इंसान जुल्म और नाइंसाफी के खिलाफ उठ खड़ा होता है. अफसोस की बात ये है कि अक्सर औरतों के साथ होने अन्याय को अन्याय माना ही नहीं जाता, पितृसत्ता और धर्म के घेरे इतने गहन होते हैं कि अपने हालात को जरा सा भी बदलने की कोशिश कुफ्र मान ली जाती है. एक गरीब परिवार की लड़की जिसे अपने मामूली घर में राहत सिर्फ किताबों के बीच मिलती है जब कंप्यूटर साइंस पढ़ कर सऊदी अरब की सबसे बड़ी तेल कंपनी अरामको में नौकरी पाती है तो वह पहली सऊदी महिला होती है जिसे साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में नौकरी मिलती है.
अरामको में नौकरी पाना हर सऊदी का सपना होता है. मनाल इस कंपनी में संविदा की नौकरी पाना चाहती हैं पर जब उनकी काबिलीयत के कारण उनको वहां स्थायी नौकरी मिल जाती है तो यह उनके साथ-साथ कंपनी के लोगों के लिए भी अचरज की बात लगती है. अरामको मूल रूप से अमरीकी कंपनी थी जो सऊदी अरब में तेल की तलाश हेतु आयी थी और जिसने सऊदी अरब में जहाँ-जहाँ तेल खोजने का काम किया वहाँ अपना परिसर बना उसके अंदर एक छोटा अमरीका बसा लिया. कंपनी ने ना सिर्फ अमरीकन शैली के खुले घर बनाये बल्कि अमरीकन शैली में ही शापिंग माल, रेस्तरां,पार्क और थियेटर और स्वीमिंग पूल भी बनाये जिसका उपयोग स्त्रियां भी आराम से करती थीं. कुलमिलाकर यह एक ऐसी दुनिया है जो सऊदी अरब में रहते हुए भी उससे बिलकुल अलग है. मलाल अल-शरीफ ने अरामको के परिसर में महिलाओं को कार चलाते और सड़क पर बेफिक्री से टहलते हुए देखा जो उसके जीवन की बहुत बड़ी घटना थी. मलाल को अरामको के परिसर में उन तमाम लोगों से मिलने का मौका मिला जिनकी राष्ट्रीयताएं, धर्म और संस्कृतियां भिन्न थीं. हालाँकि मनाल को यह एहसास बहुत पहले हो गया था कि स्कूल में वह जिस धार्मिक शिक्षा को ग्रहण कर रही थी उसने उसे अपने धर्म की संकुचित व्याख्या कर अतिवादी तो बनाया ही था उसके मन में दूसरे धर्मों के अनुयायियों के लिए गहरी नफरत भी भरी थी. एक छोटे चाल नुमा घर में बंद खिड़कियों के बीच बिताये बचपन की स्मृतियाँ मनाल के लिए रंज और गम से भरी हुई हैं जहाँ घर का मतलब कैद ,घुटन और पिटाई है. मनाल याद करती हैं कि बच्चों की पिटाई उनके माता पिता का रोजमर्रा का काम था. कई बार तो यह पिटाई इस हद तक की थी कि मनाल के शरीर पर हमेशा के लिए दाग बन गये, यही वजह है कि परिवारों में बच्चों के प्रति बरते जाने वाली क्रूरता को लेकर मनाल अल-शरीफ के मन में गहरी घृणा का भाव है. किताब पढ़ते समय मनाल और उसकी बहन के सुन्नत(खतना) का प्रसंग आते ही तबीयत सिहर जाती है.
अफ्रीका के कुछ देशों और इंडोंनेशिया आदि में बच्चियों के खतने को लेकर विरोध में आवाजें उठती रही हैं,संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस कुरीति के खिलाफ प्रतिबंध लगा चुका है और इसके लिए जीरो टालरेंस की बात करता है. सऊदी अरब में बच्चियों का खतना कोई प्रचलित अनिवार्य प्रथा नहीं थी यही वजह है कि आठ वर्षीय मनाल के खतने के बाद जब लगातार रक्तस्राव से उसकी तबीयत बिगड़ती जाती है तब भी उसके माता पिता उसे अस्पताल नहीं ले जाते हैं कि कहीं उनके खिलाफ कोई कारवाई ना हो जाये, बुखार से तपती मनाल का खून बंद ना होने पर उसके पिता उसका खतना करने वाले नाई को ही बुलाते हैं जो सुई धागे से उसके निजी अंगों पर सिलाई चलाता है. बच्ची के दिमाग पर इस घटना का असर इतना गहरा हुआ कि वह लंबे समय तक इससे मुक्त नहीं हो पायी. इस बात को लेकर उसके मन में कहीं ना कहीं अपने पिता के लिए इतनी नाराजगी रही कि जब कालांतर में उसके लिए रिश्ते की बात आती है तो वह अपने पिता से बचपन में हुई सुन्नत का हवाला देकर विवाह से साफ इनकार करती है ये अलग बात कि जब वो खुद से लड़का पसंद करती है तो अपनी सर्जरी करा खुद को विवाह के लिए तैयार कर लेती है. डेयर टू ड्राइव को पढ़ना सऊदी अरब की महिलाओं के उन हालातों को जानना है कि वे कैसे किसी पुरुष अभिभावक के बिना ना तो कहीं आ जा सकती थीं ना ही कोई पहचान पत्र रख सकती थीं और ना ही अकेले की जाने वाली कोई विदेश यात्रा उनके लिए मुमकिन थी. शौहर ने यदि तलाक दे दिया तो महरम (अभिभावक जिसके साथ उसकी शादी की गुंजाइश ना हो)के बिना सऊदी औरत का अपना कोई वजूद नहीं.
सऊदी अरब की या फिर मध्य पूर्व के देशों की महिलाओं की जिंदगी ऐसी नहीं कि कोई भारतीय महिला पढ़कर किसी अमरीकी या यूरोपीय महिला की तरह अचंभित हो जाय, कुछ बातों को छोड़ दें तो भारतीय महिलाओं को भी लंबे समय तक मनुस्मृति जैसे विधान के अंतर्गत बचपन और यौवन से लेकर वृद्धावस्था तक पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में रहने की व्यवस्था थी. कुल की मर्यादा और पवित्रता बचाये रखने के लिए ही बाल विवाह,सती प्रथा और विधवा विवाह पर रोक जैसी कुरीतियाँ प्रचलन में थीं,फर्क ये है कि भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कारण जहां लोकतंत्र और संसदीय परंपरा से परिचित होकर अपने राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी और उनकी सक्रिय भूमिका के लिए खुद को तैयार करता है.
आजादी के आंदोलन ने प्राचीन भारत की उस दार्शनिक और बौद्धिक परंपरा से भी प्रेरणा ग्रहण की थी जहाँ चेतना संपन्न स्त्रियां विमर्श करती नजर आती हैं. देश में चले विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलनों के समवेत असर और आजादी के बाद की लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देते हुए सदियों के असंतुलन को ठीक करने का प्रयास किया. मध्य पूर्व के बहुत सारे देशों में जहाँ अब भी राजशाही के तहत वंशानुगत व्यवस्था चली आ रही है वहाँ लोकतांत्रिक अधिकारों की माँग और सरकार का विरोध अरब स्प्रिंग से पहले अजनबी से लगते थे. बहुत सारे देश और समाज लगता है अभी भी मध्ययुगीन दौर में ही अटके पड़े हैं. देखा जाये तो अरब स्प्रिंग जिसे हिंदी में अरब क्रांति या अरब विद्रोह के रूप में जाना गया वे तानाशाही के दमन, नागरिक अधिकारों के पक्ष में,बेरोजगारी और असमानता के खिलाफ जनता के असंतोष की अभिव्यक्ति थे जिसने मिस्र समेत कई देशों की सरकार बदल दी.
सऊदी अरब में हालाँकि अरब वसंत का सीधे कोई राजनीतिक असर भले ना पहुँचा हो वह इससे एकदम अछूता नहीं रहा. यदि मनाल अल-शरीफ जैसी स्त्री फेसबुक और टिवटर के माध्यम से महिलाओं से कार चलाने की अपील करें और उसे लाखों लोग पसंद करें तो इसका मतलब है कि महिलाओं पर लगी इस पाबंदी के खिलाफ लाखों लोग उनके कार चलाने के पक्ष में हैं. यहाँ फिर से याद दिलाना होगा कि कार चलाने के मसले पर सऊदी अरब में जहाँ महिलाओं को जेल हुई है, नौकरियां गयीं हैं,फतवे जारी हुए हैं और उन्हें बदचलन और वेश्या तक कहा गया है, वैसे राज्य में महिलाओं की समाज में क्या स्थिति है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. कार की स्टीयरिंग पकड़ना सिर्फ सड़क पर कार चलाने तक महदूद नहीं है, इसके गहरे मायने हैं. यह गतिशील होने और खुदमुख्तारी का भी बयान है कि औरत अपनी जिंदगी को खुद चला सकती है और शायद यही सबसे बड़ी समस्या है. मनाल अल-शरीफ को भी कार चलाना जरूरी अपने निजी अनुभवों से लगा जब शाम को आफिस के काम के बाद वे दंत चिकित्सक के पास गयीं और लौटने में देर हो गयी.
टैक्सी ना मिलने के कारण उन्हें रास्ते में शोहदों का सामना करना पड़ा और दौड़ कर छिपछिपा कर अपने को बचाना पड़ा. मनाल की त्रासदी ये थी कि कार रहते हुए भी अरामको के परिसर के बाहर उसे चला नहीं सकती थीं. मनाल का भाई उनकी मुहिम में बराबर साथ खड़ा है क्योंकि वो अपनी पत्नी और बच्चे से दूर नौकरी करता है, उसके शहर से बाहर होने पर उसकी पत्नी लाचार हो जाती है और वो भी कार होने के बावजूद कुछ नहीं कर पाती. लंबे फील्डवर्क के बाद जब वो वापस घर आता है तो आराम की बजाय उसे अपनी पत्नी को साथ ले बाहर के सारे काम निपटाने पड़ते हैं और उसका सारा समय ड्राइविंग में जाया हो जाता है. भाड़े की टैक्सी से काम चलाने वाली महिलाओं के अनुभवों का जिक्र करते हुए मनाल लिखती हैं कि सऊदी अरब में आये दिन महिलाएं टैक्सी चालकों द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार का शिकार बनती हैं. महिलाओं का अकेले आना जाना चलन में ना होने के कारण ही टैक्सी ड्राइवर अकेली महिला सवारी के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं.
यदि ये सारी महिलाएं कार चलाने लगें तो संभवतः ऐसे अनुभवों से बच जांय. मरहम (अभिभावक) के बिना सऊदी की औरत कितनी लाचार है इसका उल्लेख किताब कई बार करती है कि कैसे एक बच्ची घर में आग लगने से जल गयी पर उसे बचाने के लिए अग्निशमन दल घर के अंदर नहीं गया क्योंकि वहां कोई मर्द नहीं था या फिर कैसे कोई औरत अभिभावक के बिना अस्पताल नहीं जा पायी और दम तोड़ दिया. मनाल की सोच को कंप्यूटर साइंस के अध्ययन ने बदला था, शुरू से ही पढ़ाई में अव्वल रहने वाली मनाल अरामको तेल कंपनी के सूचना सुरक्षा और आंकड़ों के विश्लेषण से जुड़ी थी जो किसी भी सऊदी महिला या पुरूष के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. महिलाओं के लिए तो यह खासतौर पर स्वप्न सरीखा था.
मनाल बताती हैं कि कैसे उनके पुरूष सहकर्मी कभी भी अपनी पत्नियों का जिक्र नहीं करते थे और कैसे कामन कैफेटेरिया में जाकर लंच करना भी अपने लिए ऊट-पटांग बातों को फैलने के लिए आमंत्रण देने जैसा था. इसी ऑफिस में जब मनाल एक पुरूष की तरफ आकर्षित होती है और दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं तो वह बार-बार यह कहने से नहीं चूकता कि यदि शादी करनी है तो मनाल को काम छोड़ना होगा और चेहरा ढंकना होगा. मनाल इस शर्त से बहुत असहज है पर उसके साथ नाम जुड़ जाने के बाद जो बदनामी है उससे बचाव के लिए वह हर हाल में उससे शादी चाहती है. जाहिर है इस शादी को नहीं टिकना था. तलाक के बाद मनाल खुद को काम में डूबोती है और तरक्की की सीढ़ियां चढ़ती जाती है.
यूरोप की यात्रा और अमरीका प्रवास उसके नजरिये का और विस्तार करते हैं,अमरीका में वह अपने लिए ड्राइविंग लाइसेंस भी हासिल करती है. सऊदी अरब लौटने पर वह तय करती है कि उसे सऊदी की सड़कों पर कार लेकर उतरना चाहिए. मनाल पूरे ट्रैफिक नियम निकाल कर जब पढ़ती है तो पाती है कि ट्रैफिक कोड में कहीं भी जेंडर का जिक्र नहीं है. मनाल अल-शरीफ इस नतीजे पर पहुँचती है कि कार चलाना गैर कानूनी नहीं बस प्रचलित मान्यता के खिलाफ है. औरतों की ड्राइविंग के खिलाफ फतवा जारी करने वाले बिन बाज जैसे मुफ्ती के बरक्स वह अल अल्बानी जैसे विद्वान का कथन इंटरनेट के जरिए खोज निकालती है जो कहते हैं कि मोहम्मद साहब के समय जब महिलाएं खच्चर पर बैठ सकती थीं तो आज के जमाने में कार भी चला सकती हैं. मनाल कार चलाती हैं और इस जुर्म में जेल भी जाती हैं जहाँ वो सऊदी अरब में नौकरानी का काम कर रही फिलीपीनी, इंडोनेशियाई और अफ्रीकी महिलाओं के संपर्क में आती है और मामूली बातों के लिए जेल में यातना पा रही इन औरतों के जीवन से द्रवित हो जाती है. जेल से छूटने के बाद वह कई कैदी महिलाओं की मदद करने की कोशिश भी करती है. जिनमें एक के लिए वतन वापसी का टिकट खरीदना भी शामिल है.
‘डेयर टू ड्राइव ‘आंदोलन ने निश्चित रूप से मनाल अल-शरीफ को बहुत शोहरत दी, पश्चिमी मीडिया ने उन्हें हाथों हाथ लिया. मनाल को बोलने के लिए बड़े बड़े मंच हासिल हुए. सऊदी अरब की एक महिला द्वारा अपना जीवन चुनने का अधिकार और उससे जुड़ा संघर्ष बेशक पश्चिम के पाठकों के लिए बहुत दिलचस्प होगा और शायद यही वजह है कि किताब पड़ते समय कई बार ऐसा लगता है कि यह किताब उसी पाठक वर्ग को ध्यान में रख लिखी भी गयी है. भारत जैसे देश में जहां संवैधानिक बराबरी के बावजूद महिलाएं अभी भी तमाम तरह के शोषण और गैरबराबरी से जूझ रही हैं, पितृसत्ता की बुनियाद में पैठे स्त्री विद्वेष का सामना कर रही हैं वहाँ कार चलाने के अधिकार के लिए चंद दिन जेल में गुजारने की कहानी भले बहुत प्रभावित ना करे पर ये कहानी इतना जरूर कहती है कि सारी समस्याओं के बावजूद भारत का लोकतंत्र महिलाओं को खुली हवा में सांस लेने का हक देता है, चाहे वे किसी भी धर्म की क्यों ना हों.
मध्य पूर्व के बहुत सारे देशों में महिलाएं धर्म के नाम पर मानवाधिकारों से वंचित हैं, ये धर्म की ऐसी संकुचित व्याख्या है जो शरीया के अलावा कुछ मानता ही नहीं, जो धर्म के खतरे में होने की बात कर धार्मिक कट्टरता और अतिवाद को बढ़ावा दे गैर इस्लामी लोगों के विरूद्ध जिहाद छेड़ने की बात कर इंसानियत की मुखालिफत करता है. खतरा इस बात का है कि ऐसी कहानियों और किताबों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की बजाय इस्लामोफोबिया के संदर्भ में खूब प्रचारित किया जाता है.
प्रीति चौधरी ने उच्च शिक्षा जेएनयू से प्राप्त की है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, राजनय, भारतीय विदेश नीति, लोक नीति और महिला अध्ययन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. लोकसभा की फेलोशिप के तहत विदेश नीति पर काम कर चुकी हैं. साहित्य में गहरी रुचि और गति है. कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.बुंदेलखंड में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है.बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं. preetychoudhari2009@gmail.com |
मनाल जैसी शानदार सख्स से मिलाने के लिए प्रीति मैंम का सुक्रिया। इन अंधेरों में मनाल निश्चित तौर पर एक किरण की तरह है।
दुनिया कितनी बड़ी है और हवा का रख हर जगह समान नहीं! इस दास्तान ने फिर याद दिलाया कि हर आदमी का संघर्ष अलग है। और कैसे वो मानवता का संघर्ष बन जाता है।
इस बात मे कोई शक नहीं सघर्ष के बिना आज भी अधिकार नहीं औंर नजारा नहीं बदलता । शुक्रिया प्रीति जी ।
मैं जब-जब कोई ऐसी सच पढ़ती हूं या किसी भी स्त्री के साथ कहीं भी अनर्थ होता देखती हूं, मेरे ज़हन और दिमाग को कुछ सेकंड को लकवा मार जाता है…
बहुत अच्छा लिखा, बधाई
मनाल का संघर्ष एवम भारतीय समाज में इसका तुलनात्मक अध्ययन कर एक सुंदर स्वरूप प्रस्तुत किया ।बधाई !
This writer is really remarkable sosan karna is absolutely wrong for any living things .I nust ppreciate this write up .I am sure this writer to make stronger everyone . God bless u.
हम बहुत खुशनसीब हैं कि हम ऐसे देश में उत्पन्न हुए जहां पर महिलाओं को बराबरी का अधिकार है। दुनिया में अभी भी ऐसे स्थान हैं जहां महिलाएं अपने बुनियादी अधिकारों तक के लिए संघर्षरत हैं । आज के आधुनिक चिकित्सा जगत में जेनिटल मुटिलेशन जो कि प्रतिबंधित प्रथा है,उस प्रथा को कायम रखना और घाव अधिक हो जाने पर साधारण से सुई धागे से उसको सिल देना कितनी तकलीफ देह स्थिति रही होगी ,सोचकर भी मन कांप जाता है ।
प्रीति मैम आपने धर्म के नाम पर किस प्रकार महिलाओं को कुंठित और प्रताड़ित किया जाता है , आगे बढ़ने से रोका जाता है इसका बहुत ही अच्छा तुलनात्मक अध्ययन किया है और बहुत-बहुत धन्यवाद मनाल अल शरीफ से परिचय कराने के लिए ।
बहुत बढ़िया आलेख…
बहुत बढ़िया लेख