आत्म की बेचैन आवारगीप्रीति चौधरी |
“ओ रे बिस्मिल काश आते आज तुम हिन्दोस्ताँ
देखते कि मुल्क़ सारा क्या टशन में, चिल में है
आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गए
अपनी आज़ादी तो भइया लौंडिया के दिल में है.”
जब पहली बार ‘गुलाल’ फिल्म में बजती ये पंक्तियां कान में पड़ीं थीं तो हंसी के साथ ही दिल में हूक सी उठी थी. बाद में कई बार गौर से सुनने पर निहितार्थ सोच रोना आने लगे, ऐसा गाना लगा यह. 2009 में रिलीज हुई अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गुलाल’ ने हम जैसे तमाम लोगों के मन में हलचल मचा दी थी. इस फिल्म में देश के हालात और युवाओं की जिंदगी के बारे में कुछ ऐसा था जो कहीं और नहीं था बस यहीं गुलाल में था.
छात्र राजनीति और छात्रसंघ चुनावों के संघात के परिदृश्य में आया वह संवाद कि ‘आखिर क्या चेंज करना चाहता है तू?’ कॉमिक ट्रेजेडी की मिसाल था. राजनीति बदलाव का माध्यम तो है पर वह क्या बदल रही है इसे समझने के लिए बारीक नज़र की दरकार होती है, यह बारीक नज़र नाटक, गीत, उपन्यास और फिल्में मुहैया कराती हैं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मंच से निकले पीयूष मिश्रा, पृथ्वी की भूमिका में हारमोनियम के साथ गुलाल में अपने गानों के साथ दिखते हैं,चलिए इस फिल्म के एक और गीत को याद करते हैं-
“इस मुल्क ने हर शख्स को जो काम था सौंपा
उस शख्स ने उस काम की माचिस जला के छोड़ दी”
ऐसा लगता है मानो श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी के दशकों बाद कोई और भी भारतीय लोकतंत्र की गहरी समीक्षा कर रहा है. व्यंग्य की वही गहरी मारक धार.
पीयूष मिश्रा अपरिचित नहीं थे. वही एनएसडी वाले पीयूष मिश्रा! जिनके नाटक देखने हम जेएनयू से मंडी हाउस जाया करते थे.1997 का साल और तीन घंटे का पीयूष मिश्रा का एकल अभिनय. सब तरफ वाह, अद्भुत, अप्रतिम की ध्वनि. रंगमंच प्रेमी वरिष्ठों के बखान, हैमलेट किया था इसने. जेएनयू छूटा हमसे और मंडी हाउस भी. रंगमंच की यादें धुंधलाने लगी थीं कि पीयूष मिश्रा को नये अवतार में देखा. बंबई, कोक स्टूडियो, रेख्ता और भी बहुत जगह. इंटरनेट से धूम मच गयी. गैंग ऑफ वासेपुर 2012 में आयी और “इक बगल में चांद होगा इक बगल में रोटियां” और पीयूष मिश्रा की आवाज़ और हुनर दोनों ने हिमालय चढ़ लिया.
शिखर पर आरूढ़ व्यक्ति की कहानी सब सुनना चाहते हैं, कामयाब लोगों के संघर्ष की कहानी बाजार के नजरिये से भी मुनाफे का सौदा होती है. हम सब जानते हैं दुःख बिकता है बस उसे कलात्मक ढंग से कहा तो जाये. पीयूष मिश्रा की आत्मकथा जिसे वह उपन्यास कह रहे हैं उसे एक विलक्षण रचनात्मक संवेदना के साथ लिखा गया है पर पूरी आत्मकथा में अनावश्यक भावुकता किसी एक पंक्ति में भी नहीं है. इस उपन्यास में अभिनय के सिलसिले में एक टिप्पणी है कि अभिनय जमकर करो बह के नहीं.
पीयूष मिश्रा के अभिनय की ही तरह उनके शब्द भी सधे हुए और भाषा की कलाबाजी के पचड़े से दूर हैं. कला है पर ऊपर से थोपी नहीं गयी है, बरसों के रियाज़, तपन और तड़प से हासिल की गयी है. शब्दों को साधने की अलग शैली ही उनकी भाषा में ताज़गी लाती है. पीयूष मिश्रा की कलम का कमाल है कि आत्मकथा के छपने के महज़ चार दिनों के भीतर ही राजकमल पेपर बैक्स को इसका दूसरा संस्करण लाना पड़ गया. पहला 10 फरवरी 2023 को तो दूसरा 14फरवरी को.
आत्मकथा का नाम भी अंदाजे बयां पीयूष मिश्रा का हलफ उठाता हुआ “तुम्हारी औक़ात क्या है पीयूष मिश्रा” है. हमारे देश के सामूहिक मानस में सामंतवाद इस कदर पैठा है कि व्यक्तियों के आकलन में औक़ात और हैसियत शब्द ही शायद अब तक सबसे ज्यादा इस्तेमाल हुए हों. छोटे शहरों के अधिकांश निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में बच्चों को अपने मां बाप की कुंठाएं और नाकामियां विरासत में मिलती हैं. संवेदनशील और कलाकार किस्म के बच्चों के लिए पारिवारिक महत्वाकांक्षाएं ज्यादा दमघोंटू साबित होती हैं.
संताप त्रिवेदी यानी पीयूष मिश्रा की कथा में भी हम एक ऐसे बच्चे से रूबरू होते हैं जो परिवार के बीच खुद के बेगाने होने की छटपटाहट से भरा हुआ है. मां-बाप हैं लेकिन उसे गोद लिया है तानाशाह प्रवृत्ति की जिद्दा (बुआ) ने जिनकी बात-बात पर गुर्राने की आदत से घर में स्थायी स्यापा छाया रहता है. घर में मां है जो रसोई से बाहर शायद ही कभी दिखती हैं, रोज की नौकरी में खट पूरे परिवार का बोझ उठाये पिता प्रभाष शर्मा हैं जो बेटे की कई बार बेरहम पिटाई करने के बाद उससे पिता की बजाय ‘सर’ का संबोधन पा जाते हैं. घर में रह कर रोडवेज की नौकरी के साथ घरेलू कामकाज कर रहे भोले और सतवीर चाचा हैं. संताप यानी प्रियांश यानी हैमलेट रेबेल है, ऐसा रेबेल जो बहादुर होने की बजाय खुद को तमाम तरह के डर से घिरा पाता है.
बच्चे प्रियांश का सबसे बड़ा रिबेल है मां बाप का दिया नाम बदल लेना, प्रभाष पुत्र प्रियांश ने अपने दुख और क्षोभ की अभिव्यक्ति के लिए अपना नाम संताप रख लिया है. कान्वेंट स्कूल में सब उसे प्रिया कह कर चिढ़ाते हैं इसलिए नाम बदल लिया यह बहाना घर पर बताने के लिए काफी मुफीद है.
संताप त्रिवेदी उर्फ पीयूष मिश्रा के घर में खाने पीने और बढ़िया स्कूल की फीस जमा करने जैसी कोई दिक्कत नहीं हैं, दिक्कत उसको डाक्टर, इंजीनियर के खांचे में ढालने वाली कोशिशों में हैं. अपनी क्लास के टॉपर अनिल गुप्ता का जिक्र यह कहते हुए करना कि “टीचर्स उससे खुश रहते और दूसरों के घरवाले परेशान” औसत अभिभावकों के रैट रेस वाले मनोभाव की तसदीक करते हैं. वैसे भी देश के लोगों ने तब थ्री इडियट्स नहीं देखी थी और टॉपर बच्चे से तुलना कर उसके जैसा बनने की बात लगभग हर घर का प्रिय शगल था.
आत्मकथा में एक जगह कर्ज़ चुकाने का तक़ाज़ा करता व्यापारी नजर आता है, यहां पिता की लाचारी (सुंदर सधे पिता जब झुक जाते हैं) और मां के आंसू संताप के अंदर कुछ करते हैं पर यह उसके अंदर बड़े होकर जिम्मेदारियों को उठा लेने वाले किसी स्टीरियोटाइप भाव को कतई नहीं पनपाते. पढ़ लिख कुछ बनकर परिवार को तारने की मध्यवर्गीय अभिलाषा की बजाय यह एक किशोर की सड़क पर भटकते हुए स्व को तलाशती बेचैन आवारगी है.
संताप को हिंदी पढ़ना अच्छा लगता है, मैथ, फिजिक्स, कैमिस्ट्री उसके पल्ले नहीं पड़ते. संताप अक्सर स्कूल में कुछ सोचता पाया जाता है, इस आदत के कारण उसे खोया-खोया चाँद का खिताब अता हो जाता है. वह एकांत की ध्वनियों को पकड़ लेता है, आकाश के तारों से बतिया सकता है पर पिता की आँखों में भरे कुछ बनने के सपने से (डॉक्टर) उसका दम घुटता है.
संताप बहुत अच्छा गाना गाता है, स्कूल के नाटक में शानदार अभिनय कर अपनी छाप छोड़ता है, पर घर पर कई बार थप्पड़ खा चुका है. पिटाई से वह जिद्दी और परिवार में सबसे दूर होता गया है. पिटाई की वजह नाले से पत्थर (पटिया) उठा घर में लाना भी हो सकता है जिसे तराश कर उसे भिंची मुट्ठियां बनाकर अपने आक्रोश और इरादों को आकार देना है. बचपन में पिता के साथ साइकिल पर बैठ कर घूमना जिस बच्चे का सबसे बड़ा सुख हो वह किशोर होते-होते पिता का सामना करने से कतराने लगे और हाईस्कूल में दो विषय में जिसके कंपार्टमेंट लग जाये उस बच्चे को घर कितनी राहत दे सकता है इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
संताप के जीवन में तीन महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं जिससे उसकी भीतरी संरचना गहरे प्रभावित होती है. छोटी बहन पिन्नी की मृत्यु, रिश्ते की संतो मौसी द्वारा संताप से किया गया यौन दुराचार और एक्ट वन थियेटर समूह के कर्ता धर्ता पंडित से बिगाड़.
पिन्नी जब गयी तो संताप बहुत छोटा था, मृत्यु उसे समझ में नहीं आयी लेकिन अंदर गहरा घाव दे गयी. संतो मौसी का साथ पा खिल जाता था संताप, पर इसी मौसी ने संताप का मुँह दाब उसके पाजामे का नाड़ा खोल उसे रक्त से भिगो दिया. संताप इस दुराचार से बिलकुल चुप और पहले से ज्यादा अकेला हो गया. पर बरसों बाद जब संताप इस यौन उत्पीड़न को पलट कर देखता है तो बहुत डीटैच्ड होकर, संतो के लिए उसके शब्दों में कहीं कोई घृणा या प्रतिशोध नहीं है.
मेरे बिना एक्टिंग करके दिखाओ कहके ‘अंक एक’ जैसे प्रभावशाली थियेटर समूह से निकाले गये संताप त्रिवेदी ने नये सिरे से संघर्ष और जिंदगी शुरू की. पंडित रूपी स्टालिन का वर्णन करते समय पीयूष यह बतलाने की कोशिश करते हैं कि उन्होंने अपने स्तर से इस संबंध को निबाहने की पूरी कोशिश की थी पर यह निभ नहीं पाया. शराब में डूबा यह अभिनेता हर बार उतरा कर ऊपर आता तो रहा पर उसकी सनक बढ़ती जाती थी.
लड़कियां जिंदगी में कई आयी गयीं पर प्रेम मुकम्मल दो से हुआ, तीसरी लड़की जिया से उसने प्रेम के बाद ब्याह कर लिया. संताप के जीवन में सेक्स शायद शराब की बोतलों की तरह अनगिनत आया पर जिन स्त्रियों से उसने सच में प्रेम किया, जिनके लिए उसकी आँखों की कोर गीली हुई, मन हिलकता रहा उनसे सेक्स नहीं हुआ. जिनके लिए संताप पूरे ग्वालियर में बदनाम हुआ वह संगिनी किसी और के प्रेम में थी और संताप से गहरा सखा भाव रखती थी. संगिनी के प्रेमी ने किसी और से विवाह कर लिया तो संगिनी संताप से भी दूर चली गयी.
संगिनी से पहले संताप अपने कान्वेंट स्कूल के जूनियर सेक्शन की टीचर मिस जिंजर से जुड़ा और बदनाम हुआ. संताप के अभिभावक स्कूल बुलाये गये और जिंजर को केरल वापस जाना पड़ा. जिंजर रोती हुई गयी और संताप भी सिसका. संताप त्रिवेदी यानी पीयूष मिश्रा के जीवन में बे-तरह बेतरतीबी रही है, ऊपरी तौर से बिखरी सी जिंदगी पर इस बेतरतीबी और बिखराव में एक तरतीबी है, संधान और कला के प्रति गहरी प्रतिबद्धता है.
किताब में कई जगह एक कथन का जिक्र है कि हर इनडिसीप्लीन में एक डिसीप्लीन होता है बस देखने का नजरिया होना चाहिए. सरदारनी के बुलावे पर अपने पहले रति अनुभव के लिए उसके साथ जाता लेखक चरित्र से दुर्बल मालूम पड़ता है. महान कलाकार पर हल्का आदमी. महान फ्रेंच विचारक रूसो के बारे में लिखते समय एक बार मेरे एक विद्यार्थी ने लिखा था कि विचारक तो वह महान था पर बहुत लंपट और लोफर था. तुम्हारी औक़ात क्या है पढ़ते समय यह बात अनायास याद आ गयी.
संताप शराबी है, औरतबाज है पर इन सबसे बढ़ कर वह उत्कृष्टता की सीमा को छूता हुआ अभिनेता है, गीतकार है, गायक, संगीतकार और लेखक है. एक हफ्ते के अंदर सात-सात गीत लिखकर, उनका संगीत तैयार कर देने वाला कंपोजर है.
तुम्हारी औक़ात क्या है को पढ़ना एक कलाकार के बनने की यात्रा को जानने से ज्यादा उसके कलाकार बनने की यंत्रणा को समझना है. कितना अच्छा हुआ कि संताप को ग्वालियर में विश्नोई मिल गये, वरना इस बच्चे की बेचैनी का क्या होता?
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दिनों में वहाँ के सहपाठी, सीनियरों और जूनियरों का रोचक वर्णन, रॉबर्ट डी नीरों से लेखक का परिचय, बहावलपुर हाउस, अलका चाय वाला, बंगाली मार्केट का नत्थू स्वीट्स, बिरजू महाराज के कथक केंद्र की लड़कियां, प्रसिद्ध निर्देशकों- इब्राहिम अल्काजी, बी वी कांरत, राम गोपाल बजाज, देवेंद्र राज अंकुर, कीर्ति जैन और मोहन महर्षि का काम करने का तरीका सब कुछ इस आत्मकथात्मक उपन्यास में बहुत दिलचस्प तरीके से मौजूद है.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में रुचि रखने वालों के लिए यह उपन्यास बहुत कुछ उपलब्ध कराता है. नाटकों की कास्टिंग को लेकर विद्यार्थियों की तड़प और आपसी प्रतिस्पर्धा, एनसीडी के हर कोने से आती रिहर्सलों की आवाज़ें हमें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पहुँचा देती हैं. मेरी एक मित्र भी एनएसडी जाना चाहती थीं पर किसी वजह से वह एनएसडी नहीं जा पायीं पर साहित्य जगत में आज वह नीलाक्षी सिंह के नाम से जगमगा रहीं हैं. अभी हाल ही में चर्चित उनके उपन्यास में नाटक के टिकटों के नम्बरों के माध्यम से कथा के सूत्र बहुत खूबसूरती से पिरोये गये हैं.
पीयूष मिश्रा का मुंबई के साथ रिश्ता भी उबड़ खाबड़ और सनसनीखेज रहा है. कभी स्क्रीप्ट लिखने के लिए उसे बा इज्जत बुलाया गया तो कभी हालात ऐसे हो गये कि मुंबई में फुटपाथ पर स्मैकिये सींकिया की गुदड़ी साझी करनी पड़ी. एक पूरी रात उसकी लाश के साथ लेटा रहा हैमलेट!
मुंबई की सड़क पर सोने का पांच रुपया प्रति रात और फुटपाथ पर सोने का दस रुपया देने वालों की जमात में भी शामिल रहा यह अभिनेता. मुंबई में हर साल हजारों लोग जाते हैं किस्मत आज़माने, कभी पीयूष मिश्रा ने सोचा था कि वह मुंबई नहीं जायेगा, थियेटर को ही समर्पित रहेगा आजीवन. उसने ‘मैंने प्यार किया’ जैसी फिल्म का हीरो बनने का अवसर छोड़ दिया था. पर अब उसका शरीर थकने लगा था और थियेटर से रोटी का जुगाड़ भी नहीं हो पा रहा था.
हैमलेट का थियेटर वाला रुतबा खत्म था. काबिलीयत अब भी थी पर शोहरत अतीत की बात हो चुकी थी. मीडिया के दुलारे संताप ने जब दिल्ली छोड़ी तब अखबारों ने लिखा “थियेटर के लास्ट लॉयलिस्ट ने बंबई के लिए सामान बांधा.” जेट एअरवेज की टिकट लेकर मुंबई पहुँचा संताप, लोखंडवाला के गेस्टहाउस में ठहर बड़े मन से स्क्रीप्ट लिखता रहा, यह स्क्रीप्ट उसने उसके अपने शब्दों में किसी “हैल्दी डायरेक्टर “की प्री इंडिपेडेंस एरा की मूवी के लिए लिखी थी पर यहां वह धोखा खा गया. पर अपनी मेहनत का क्रेडिट पाने के लिए उसने डायरेक्टर के कार्यालय में आग लगा दी और साबित कर दिया कि अपने खून पसीने को वह जाया नहीं होने देगा.
पीयूष मिश्रा ने आत्मकथा में शराब को लेकर अपनी कमजोरियों और पीने के बाद बदतमीज होकर की जाने वाली अपनी जाहिल हरकतों का भरपूर जिक्र किया है. यह भी कि नदीम शाह (नसीरूद्दीन शाह) ने उसकी हरकतों और तेवर को देखते हुए उसे एब्सूल्योट बास्टर्ड कहा था. निराशा और असफलता के गर्त में डूबने और उससे बाहर आने की जद्दोजहद में उसका साथ उसका आत्मन कलाकार ही देता है. शराब की लत से बाहर आने और ब्रेन स्ट्रोक के बाद की प्राणिक हीलिंग और उसका अपने ऊपर पड़े सकारात्मक असर का भी पीयूष मिश्रा ने विस्तार से उल्लेख किया है.
पीयूष मिश्रा ये बखूबी जानते हैं कि उनकी आत्मकथा पढ़ी जाने वाली है तो वे कहीं-कहीं सीख भी देते हैं.
वामपंथ के प्रति झुकाव से विपश्यना और अध्यात्म तक का सफर बेशक रोमांचक है. पीयूष ने अपने जीवन में हुए चमत्कारों और पारलौकिक अनुभवों को भी अपने पाठकों से साझा किया है. वैसे तो कोई भी आत्मकथा और खासकर उपन्यास की शक्ल अख्तियार कर सामने आती आत्मकथाएं यथार्थ और कल्पना का अनूठा संगम होती हैं, चयनित स्मृतियों का वितान. यह चयन ही इंसान की शख्सियत का बयान होती है.
पीयूष मिश्रा ने खुद को बेपर्दा करना चुना, अपने भय और वासनाओं को पन्ने पर उतारा. तुम्हारी औक़ात क्या है में निरवैक्तिकता मिलती है, अभिनय की तरह ही यहाँ शब्दों को सध के इस्तेमाल में लाया गया है बह के नहीं. पीयूष मिश्रा किताब की शुरू वात में ही उद्घोषित करते हैं, आत्मकथा लिखने की औक़ात नहीं. न ही मिजाज है. और न ही मूड. तो पीयूष मिश्रा साहब आपने जो भी ये लिखा है ये, आप चाहते हैं हम उसे उपन्यास समझ कर पढ़ें तो पढ़ लिया और सच में दरबदर की ठोकरों का लुत्फ पूछो क्या सनम ने सच में ऐसा बांधा कि हमें हैमलेट की जिंदगी की पूरी दरयाफ्त पाकर ही चैन आया. प्रारूपों और कथानकों की पुनरावृतियों के दौर में कुछ अलग पढ़ने का सुख हासिल हुआ.
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प्रीति चौधरी ने उच्च शिक्षा जेएनयू से प्राप्त की है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, राजनय, भारतीय विदेश नीति, लोक नीति और महिला अध्ययन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. लोकसभा की फेलोशिप के तहत विदेश नीति पर काम कर चुकी हैं. साहित्य में गहरी रुचि और गति है. कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.बुंदेलखंड में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है.बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं. preetychoudhari2009@gmail.com |
प्रीति चौधरी ने इस आत्मकथा पर अच्छा लिखा है । सन्दर्भों के साथ सरोकार ने इस दिश्लेषण को विश्वसनीयता और रोचकता प्रदान की है।
फिल्मों में अभिनेताओं के संघर्ष की कहानियां बहुत आईं हैं । पियूष मिश्र कोई नए नहीं हैं , पर निःसंदेह पियूष मिश्र का अभिनय नया है । उनके अंदर का गिमिक हमारे दर्शक को ऊबता नहीं बल्कि बेहद आकर्षित करता है । पंकज कपूर ने बहुत पहले अपनी अभिनय शैली विकसित की थी । वह बहुत चुनौतीपूर्ण था जिसे पीयूष ने आगे बढ़ाया है । श्रीराम सेंटर से लेकर NSD तक मैंने उसे कई बार देखा है । हर बार वह आकर्षित करता है । शायद बड़ा ब्रेक उसे “पिंक” में अमिताभ के अपोजिट काम करते हुए मिला था । आजकल वह कई वेब सीरीज में दिखता है । यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उसकी काबिलियत उसे बहुत आगे ले जायेगी । प्रीति चौधरी के आकलन में उस मार्मिकता का अभाव है जो किसी व्यक्तित्व का कनविंसिंग बयान करती है ।
Congratulations to both Preeti Chaudhry n Piyush Mishra; Preeti for her indulgent as well as exhaustive review n Piyush for his bold n honest narrative of a highly talented n evolved but ‘failed rebel’.
Both moving n distressing.
Somehow Preeti’s tone reminded me of the tone that Farukh Sheikh had used in his TV show ‘ Jeena isi ka naam hai’.
Piyush also had been seen in one of his shows and presented a beautifully written nostalgic sing ‘ VEY PURAANE DIN’ along with Manoj Bajpayee.
Thank you,Arun Dev ji,for presenting it.
Regards
Deepak Sharma
I also wish to add a quote here credited to ‘ the goddess rebellion ‘
FAILING DOES NOT MAKE YOU A FAILURE
Deepak Sharma
खुद को खुली किताब की तरह पेश करना भी एक हुनर है और यह हाटकेक की तरह सेलेबल हो तो यह तो आइसिंग आन दि केक है. खुशवंत सिंह ने इसे खूब किया, बिके और शोहरत पाई. लेकिन उनके इस तरह के लेखन में कोई वैल्यू जजमेंट नहीं है. पीयूष मिश्रा की किताब में यह है या नहीं, पता नहीं क्योंकि पढ़ा नहीं. मुझे डर है कि पीयूष मिश्रा की यह किताब अपने इस genre के चलते युवाओं के बीच क्रेज न बन जाए. पुस्तक मेला में राजकमल के स्टाल पर युवाओं के हुजूम से घिरा उन्हें देखा है. हर सफल किताब अपने पीछे एक संदेश छोड़ जाती है. शराबखोरी और औरतबाजी के किस्सों से भरी पूरी इस किताब का हीरो युवाओं का रोल मॉडल भी बन ही सकता है. वैसे ऐसा होने न होने के पीछे मेरा कोई मूल्यगत निर्णय नहीं है, क्योंकि पीयूष मिश्रा के कलाकार व लेखक से मेरा अपरिचय है. मुझे खुद को समय की रफ़्तार में पीछे छूट जाने का अहसास हो रहा है. उम्रदराज होने का यह तकाज़ा भी है.
आत्मकथा पढ़कर ही कुछ कहना बेहतर…. हां इतना कहना जरूर कि प्रीति चौधरी जी की समीक्षा आत्मकथा पढ़ने के लिए मजबूर कर रही है। कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए उन्हें साधुवाद !
बेहतरीन लिखा है प्रीति जी ने।
पियूष मिश्रा से सबसे पहले जे एन यू में टेफ़ला की पहली मंज़िल पर रुबरु होने का मौका मिला था। वह अपनी हारमोनियम, गीत, गायकी और धुन के साथ अपना परिचय लेकर आए थे। शायद यह २००० के आस पास की बात है। उसके बाद कई कलाओं से कई माध्यमों से वह हम तक पहुंचते रहे। हर बार यह लगता कि शायद वह हमारे दिल को छू लेंगे लेकिन कुछ ऐसी कम रह जाती है। कि हम उन्हें खुल कर दाद नहीं दे पाते। लगता है वह फिनिशिंग टच देने की कोशिश नहीं करते या दे नहीं पाते। यह कमी उनकी हर कला में महसूस होती है। लेखन हो, गायकी हो, धुन हो। मिसाल के तौर पर जिस गीत से इस आलेख की शुरुआत है। इसमें बिस्मिल को ‘ओ रे’ से मुखातिब किया गया है। हम तो गली के लड़कों को भी ओ रे नहीं बोलते, आप बिस्मिल को इस तरह कैसे पुकार सकते हैं। इसी तरह की कुछ कमियां हर जगह महसूस हुईं। बहर हाल प्रीति चौधरी जी ने पियूष मिश्रा की आत्मा कथा की गहराई से पड़ताल की है। उन्हें मुबारकबाद।
कुछ शब्द अकेले ही एक व्यक्ति को परिभाषित करने की सामर्थ्य से लबरेज़ होते हैं जैसे कि पीयूष मिश्रा के लिए मुझे हमेशा एक शब्द मिला – ‘ बेबाक’
प्रीति जी का आभार इस आत्मकथा से अच्छे से मिलवाने के लिए। सिनेमा साहित्य या ज़िंदगी के किसी भी तल पर सिर्फ़ एक चीज़ अहम लगती है, वह है कलाकार का उसके सच के लिए समर्पण जो पीयूष जी को यूट्यूब वीडियोज के मार्फत सुनकर भरपूर मिलता रहा। समालोचन का धन्यवाद