चमड़े का अहाता
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शहर की सबसे पुरानी हाइड-मारकिट हमारी थी. हमारा अहाता बहुत बड़ा था.
हम चमड़े का व्यापार करते थे.
मरे हुए जानवरों की खालें हम खरीदते और उन्हें चमड़ा बनाकर बेचते.
हमारा काम अच्छा चलता था.
हमारी ड्योढ़ी में दिन भर ठेलों व छकड़ों की आवाजाही लगी रहती. कई बार एक ही समय पर एक तरफ यदि कुछ ठेले हमारे गोदाम में धूल-सनी खालों की लदानें उतार रहे होते तो उसी समय दूसरी तरफ तैयार, परतदार चमड़ा एक साथ छकड़ों में लदवाया जा रहा होता.
ड्योढ़ी के ऐन ऊपर हमारा दुमंजिला मकान था. मकान की सीढ़ियाँ सड़क पर उतरती थीं और ड्योढ़ी व अहाते में घर की औरतों व बच्चों का कदम रखना लगभग वर्जित था.
हमारे पिता की दो पत्नियाँ रहीं.
भाई और मैं पिता की पहली पत्नी से थे. हमारी माँ की मृत्यु के बाद ही पिता ने दूसरी शादी की थी.
सौतेली माँ ने तीन बच्चे जने परंतु उनमें से एक लड़के को छोड़कर कोई भी संतान जीवित न बच सकी.
मेरा वह सौतेला भाई अपनी माँ की आँखों का तारा था. वे उससे प्रगाढ़ प्रेम करती थीं. मुझसे भी उनका व्यवहार ठीक-ठाक ही था. पर मेरा भाई उनको फूटी आँख न सुहाता.
भाई शुरू से ही झगड़ालू तबीयत का रहा. उसे कलह व तकरार बहुत प्रिय थी. हम बच्चों के साथ तो वह तू-तू, मैं-मैं करता ही, पिता से भी बात-बात पर तुनकता और हुज्जत करता. फिर पिता भी उसे कुछ न कहते. मैं अथवा सौतेला स्कूल न जाते या स्कूल की पढ़ाई के लिए न बैठते या रात में पिता के पैर न दबाते तो पिता से खूब घुड़की खाने को मिलती मगर भाई कई-कई दिन स्कूल से गायब रहता और पिता फिर भी भाई को देखते ही अपनी ज़ुबान अपने तालु के साथ चिपका लेते.
रहस्य हम पर अचानक ही खुला.
भाई ने उन दिनों कबूतर पाल रखे थे. सातवीं जमात में वह दो बार फेल हो चुका था और उस साल इम्तिहान देने का कोई इरादा न रखता था.
कबूतर छत पर रहते थे.
अहाते में खालों के खमीर व माँस के नुचे टुकड़ों की वजह से हमारी छत पर चीलें व कव्वे अक्सर मँडराया करते.
भाई के कबूतर इसीलिए बक्से में रहते थे. बक्सा बहुत बड़ा था. उसके एक सिरे पर अलग-अलग खानों में कबूतर सोते और बक्से के बाकी पसार में उड़ान भरते, दाना चुगते, पानी पीते और एक-दूसरे के संग गुटर-गूँ करते.
भाई सुबह उठते ही अपनी कॉपी के साथ कबूतरों के पास जा पहुँचता. कॉपी में कबूतरों के नाम, मियाद और अंडों व बच्चों का लेखा-जोखा रहता.
सौतेला और मैं अक्सर छत पर भाई के पीछे-पीछे आ जाते. कबूतरों के लिए पानी लगाना हमारे जिम्मे रहता. बिना कुछ बोले भाई कबूतरों वाली खाली बाल्टी हमारे हाथ में थमा देता और हम नीचे हैंड पंप की ओर लपक लेते. उन्नीस सौ पचास वाले उस दशक में जब हम छोटे रहे, तो घर में पानी हैंड पंप से ही लिया जाता था.
गर्मी के उन दिनों में कबूतरों वाली बाल्टी ठंडे पानी से भरने के लिए सौतेला और मैं बारी-बारी से पहले दूसरी दो बाल्टियाँ भरते और उसके बाद ही कबूतरों का पानी छत पर लेकर जाते.
“आज क्या लिखा?” बाल्टी पकड़ाते समय हम भाई को टोहते.
“कुछ नहीं.” भाई अक्सर हमें टाल देता और हम मन मसोस कर कबूतरों को दूर से अपलक निहारते रहते.
उस दिन हमारे हाथ से बाल्टी लेते समय भाई ने बात खुद छेड़ी, “आज यह बड़ी कबूतरी बीमार है.”
“देखें,” सौतेला और मैं ख़ुशी से उछल पड़े.
“ध्यान से,” भाई ने बीमार कबूतरी मेरे हाथ में दे दी.
सौतेले की नजर एक हट्टे-कट्टे कबूतर पर जा टिकी.
“क्या मैं इसे हाथ में ले लूँ?” सौतेले ने भाई से विनती की.
“यह बहुत चंचल है, हाथ से निकलकर कभी भी बेकाबू हो सकता है.”
“मैं बहुत ध्यान से पकडूँगा.”
भाई का डर सही साबित हुआ.
सौतेले ने उसे अभी अपने हाथों में दबोचा ही था कि वह छूटकर मुँडेर पर जा बैठा.
भाई उसके पीछे दौड़ा.
खतरे से बेखबर कबूतर भाई को चिढ़ाता हुआ एक मुँडेर से दूसरी मुँडेर पर विचरने लगा.
तभी एक विशालकाय चील ने कबूतर पर झपटने का प्रयास किया.
कबूतर फुर्तीला था. पूरी शक्ति लगाकर फरार हो गया.
चील ने तेजी से कबूतर का अनुगमन किया.
भाई ने बढ़कर पत्थर से चील पर भरपूर वार किया, लेकिन जरा देर फड़फड़ाकर चील ने अपनी गति त्वरित कर ली.
देखते-देखते कबूतर और चील हमारी आँखों से ओझल हो गए.
ताव खाकर भाई ने सौतेले को पकड़ा और उसे बेतहाशा पीटने लगा.
घबराकर सौतेले ने अपनी माँ को पुकारा.
सौतेली माँ फौरन ऊपर चली आयीं.
सौतेले की दुर्दशा उनसे देखी न गयी.
“इसे छोड़ दे,” वे चिल्लायीं, “नहीं तो अभी तेरे बाप को बुला लूँगी. वह तेरा गला काटकर तेरी लाश उसी टंकी में फेंक देगा.”
“किस टंकी में?” भाई सौतेले को छोड़कर, सौतेली माँ की ओर मुड़ लिया.
“मैं क्या जानूँ किस टंकी में?”
सौतेली माँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं.
हमारे अहाते के दालान के अन्तिम छोर पर पानी की दो बड़ी टंकियाँ थीं. एक टंकी में नयी आयी खालें नमक, नौसादर व गंधक मिले पानी में हफ़्तों फूलने के लिए छोड़ दी जाती थीं और दूसरी टंकी में खमीर उठी खालों को खुरचने से पहले धोया जाता था.
“बोलो, बोलो,” भाई ने ठहाका लगाया, “तुम चुप क्यों हो गयीं?”
“चल उठ,” सौतेली माँ ने सौतेले को अपनी बाँहों में समेट लिया.
“मैं सब जानता हूँ,” भाई फिर हँसा, “पर मैं किसी से नहीं डरता. मैंने एक बाघनी का दूध पिया है, किसी चमगीदड़ी का नहीं…..”
“तुमने चमगीदड़ी किसे कहा?” सौतेली माँ फिर भड़कीं.
“चमगीदड़ी को चमगीदड़ी कहा है,” भाई ने सौतेली माँ की दिशा में थूका, “तुम्हारी एक नहीं, दो बेटियाँ टंकी में फेंकी गयीं, पर तुम्हारी रंगत एक बार नहीं बदली. मेरी बाघनी माँ ने जान दे दी, मगर जीते-जी किसी को अपनी बेटी का गला घोंटने नहीं दिया…..”
“तू भी मेरे साथ नीचे चल,” खिसियाकर सौतेली माँ ने मेरी ओर देखा, “आज मैंने नाश्ते में तुम लोगों के लिए जलेबी मँगवाई हैं…..”
जलेबी मुझे बहुत पसंद थीं, परंतु मैंने बीमार कबूतरी पर अपनी पकड़ बढ़ा दी.
“तुम जाओ,” सौतेले ने अपने आप को अपनी माँ की गलबाँही से छुड़ा लिया, “हम लोग बाद में आयेंगे.”
“ठीक है,” सौतेली माँ ठहरी नहीं, नीचे उतरते हुए कह गयीं, “जल्दी आ जाना. जलेबी ठंडी हो रही है.”
“लड़कियों को टंकी में क्यों फेंका गया?” मैं भाई के नजदीक—बहुत नजदीक जा खड़ा हुआ.
“क्योंकि वे लड़कियाँ थीं.”
“लड़की होना क्या ख़राब बात है?” सौतेले ने पूछा.
“पिताजी सोचते हैं, लड़कियों की ज़िम्मेदारी निभाने में मुश्किल आती है.”
“कैसी मुश्किल?”
“पैसे की मुश्किल. उनकी शादी में बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है.”
“पर हमारे पास तो बहुत पैसा है,” मैंने कहा.
“पैसा है, तभी तो उसे बचाना ज़रूरी है,” भाई हँसा.
“माँ कैसे मरीं?” मैंने पूछा. माँ के बारे में मैं कुछ न जानता था. घर में उनकी कोई तस्वीर भी न थी.
“छोटी लड़की को लेकर पिताजी ने उनसे खूब छीना-झपटी की. उन्हें बहुत मारा-पीटा. पर वे बहुत बहादुर थीं. पूरा जोश लगाकर उन्होंने पिताजी का मुकाबला किया, पर पिताजी में ज्यादा जोर था. उन्होंने जबरदस्ती माँ के मुंह में माँ की दुपट्टा ठूँस दिया और माँ मर गयीं.”
“तुमने उन्हें छुड़ाया नहीं?”
“मैंने बहुत कोशिश की थी. पिताजी की बाँह पर, पीठ पर कई चुटकी भरीं, उनकी टाँग पर चढ़कर उन्हें दाँतों से काटा भी,परएक जबरदस्त घूँसा उन्होंने मेरे मुँह पर ऐसा मारा कि मेरे दाँत वहीं बैठ गये…..”
“पिताजी को पुलिस ने नहीं पकड़ा?”
“नहीं! पुलिस को किसी ने बुलाया ही नहीं.”
“वे कैसी थीं?” मुझे जिज्ञासा हुई.
“उन्हें मनकों का बहुत शौक था. मनके पिरोकर उन्होंने कई मूरतें बनायीं. बाजार से उनकी पसंद के मनके मैं ही उन्हें लाकर देता था.”
“उन्हें पंछी बहुत अच्छे लगते थे?” सौतेले ने पूछा, “सभी मूरतों में पंछी ही पंछी हैं.” घर की लगभग सभी दीवारों पर मूरतें रहीं.
“हाँ. उन्होंने कई मोर, कई तोते और कई कबूतर बनाये. कबूतर उन्हें बहुत पसंद थे. कहतीं, कबूतर में अक्ल भी होती है और वफ़ादारी भी….. कबूतरों की कहानियाँ उन्हें बहुत आती थीं…..”
“मैं वे कहानियाँ सुनूँगा,” मैंने कहा.
“मैं भी,” सौतेले ने कहा.
“पर उन्हें चमड़े से कड़ा बैर था. दिन में वे सैंकड़ों बार थूकतीं और कहतीं, इस मुए चमड़े की सड़ाँध तो मेरे कलेजे में आ घुसी है, तभी तो मेरा कलेजा हर वक़्त सड़ता रहता है…..”
“मुझे भी चमड़ा अच्छा नहीं लगता,” सौतेले ने कहा.
“बड़ा होकर मैं अहाता छोड़ दूँगा,” भाई मुस्कराया, “दूर किसी दूसरे शहर में चला जाऊँगा. वहाँ जाकर मनकों का कारखाना लगाऊँगा…..”
उस दिन जलेबी हम तीनों में से किसी ने न खायीं.
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अइसी नगरिया में केहि बिधि रहनामधु बी. जोशी |
दीपक शर्मा की पहली कहानी मुझे कवि-संपादक गगन गिल के सौजन्य से पढ़ने को मिली. 1993 की गर्मियों में आलोक भल्ला, निर्मल वर्मा और यू. आर. अनंतमूर्ति के संपादन में अर्धवार्षिक जर्नल ‘यात्रा’ जो भारतीय उपमहाद्वीप के समकालीन साहित्य को प्रस्तुत करने की एक महत्वाकांक्षी योजना थी, का पहला अंक आनेवाला था. उसके लिए गगन ने मुझे एक कहानी अनुवाद करने को दी, ‘चमड़े का अहाता’. लेखक दीपक शर्मा की कोई और रचना पढ़े होना याद नहीं आया, सादा सी लगती कहानी थी- किसी कस्बे के एक घर में अपने भाई को याद करता एक बच्चा, घर में ही चमड़े के प्रसँस्करण का कारखाना, चमड़े के प्रसँस्करण और व्यवसाय को नज़दीक से देखते बड़े होते बच्चे, मनकों के पंछी बनानेवाली माँ को खो चुका लेकिन उस की याद को जिलाए रखनेवाला कबूतर पालनेवाला किशोर, उसकी सँगत में पंछियों से लगाव सीख चुका नैरेटर, सौतेली माँ और कबूतर पालनेवाले किशोर के बीच की तनातनी, कहानी ने मुझे जकड़ लिया, कहन की सादगी जैसे एक डिवाइस थी पाठक को उस वीभत्स लैंडस्केप में ले जाने की जहाँ कन्याशिशुओं की हत्या रिवायत है. कहानी का अनुवाद पसंद किया गया. खेल खतम.
बाद में लंबी बीमारी के बीच दीपक शर्मा की और कोई रचना पढ़ना नहीं हुआ.
बरसों बाद, 2011 के उत्तरार्ध में अचानक एक ई-मेल मिला, आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से मिनी कृष्णन ने बताया कि 1993 से उन की फ़ाइल में एक अद्भुत कहानी का रवां अनुवाद रखा है ‘टैनर्स यार्ड’, किसी तरह दीपक शर्मा का संपर्क-सूत्र जुटाया और उन्हें मेल फ़ारवर्ड किया, मुझे लगा कि लेखक को भी अपनी रचना की यात्रा का भान होना चाहिए. उनकी प्रतिक्रिया ने मुझे दंग कर दिया-वह अपनी कहानी की प्रशंसा से लगभग किसी नई लेखिका की तरह प्रसन्न लेकिन उससे भी ज़्यादा सकुचाई थीं. उन्हें आश्चर्य हुआ था कि हिंदी में पाठकों की खास प्रतिक्रिया न जुटा सकी (वैसे श्रीलाल शुक्ल और कुँवर नारायण ने उसे सराहा था) उनकी कहानी को अंग्रेज़ी में इतनी सराहना मिली (मिनी भारतीय साहित्य के अनुवाद की बड़ी संपादक-प्रकाशक हैं).
फिर तो खैर दीपकजी की तब उपलब्ध सभी कहानियां (करीब 12 संग्रह) पढ़ीं. और स्तब्ध रह गई. हिंदी कथा साहित्य में परिवार के भीतर जैंडर-आधारित हिंसा के विविध रूपों, उनकी जानलेवा बारीकियों का जैसा विवरण दीपक शर्मा की कहानियों में मिलता है वैसा और कहीं देखने में नहीं आता. हमारे यहां प्रचलित झिलमिल किस्म के मुहावरों में यह हिंसा परंपरा, रिवाज़, प्रचलन और यहां तक कि प्रेम जैसे चोखे-अनोखे अवतारों में प्रकट होती रही है और उसे परिवार के ढाँचे को बनाए रखने के लिए लगभग अनिवार्य माना जाता रहा है. पितृसत्ता की निरंतरता की अनिवार्य शर्त के रूप में घरों में हिंसा की ओर उनकी पूर्ववर्ती लेखिकाओं ने संकेत तो किया लेकिन शायद प्रचलित सौंदर्यबोध के दबाव में उस पर अलग से टिप्पणी करने से बचती रहीं. स्त्री को बंधे-बंधाए चैखटों में देखने के आग्रही आलोचक वर्ग को यह रास भी आया. इस पृष्ठभूमि में दीपक शर्मा की कहानियों पर अबतक महत्वपूर्ण ढँग से चर्चा न होना अब आश्चर्य नहीं क्षोभ उपजाता है.
सपाट, निराभरण भाषा और सँक्षिप्त कलेवर दीपक शर्मा की कहानियों की खासियत हैं. मैं पाती हूँ कि वह लघु चित्रों यानी मिनिएचर की कलाकार हैं जो अपने सूक्ष्म विवरणों को बारीकी से परखने की शर्त साथ लाते हैं; उन्हें सराहने-पहचानने के लिए एक भावनात्मक तैयारी और मानसिक अवकाश दरकार है.
अधीर और सही कटी-सिली कहानी के आदी पाठक को दीपक शर्मा की कहानियाँ नहीं रूच पातीं, कोमलचित्त पाठक जो किसी भी किस्म की हिंसा के आभास मात्र से घबरा जाते हैं, उन की कहानियों से आतंकित होते हैं. साहित्य की ठीकठाक प्रेमी मेरी बहन ने एक संग्रह पढ़ने के बाद दीपकजी की कहानियाँ पढ़ने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उन्हें पढ़ते उसे किसी सीलन भरे कमरे में बंद होने का अहसास होता है, दम घुटता है. सात बरस बाद भी वह अपने बयान पर कायम है.
उनकी कहानियों को पढ़ने के लिए एक खास ब्राँड का साहस और कठकरेजपना चाहिए.
हिंसा दीपकजी की कहानियों का साझा बिंदु है; जब वह केंद्रीय तत्व नहीं भी होती तब भी पृष्ठभूमि में उस का मंद, एकतान स्वर बजता सुनाई देता है. उनकी कहानियाँ हिंसा को प्रेरित और कार्यान्वित करनेवालों की पहचान उजागर करती हैं. इस मायने में वे प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष हिंसा की हमारे दौर की बड़ी और मुख्य क्यूरेटर हैं.
पितृसत्ता से पुष्ट हुई और उसे पोषित करनेवाली मनोवृत्ति का रूपक कस्बापुर उनकी लगभग सभी कहानियों की लोकेल है (हालांकि दीपकजी बीच-बीच में खासे संरचना और वास्तु संबंधी विवरण उपलब्ध करवाती हैं. उनके दिए संकेतों के आधार पर चित्रांकन में रुचि रहनेवाला कोई सहृदय पाठक-दिलीप चिंचालकर, प्रभु जोशी याद आते हैं- कस्बापुर का नक्शा बनाता….), नगर और इसके निवासी इतने साधारण हैं कि साधारण रूप से उन के बारे में कहने जैसा कुछ होता नहीं. लेकिन दीपकजी की संधानी दृष्टि वहाँ घटते असाधारण को पढ़ती है. और पाठक भौचक रह जाता है-‘अइसी नगरिया में केहि बिधि रहना’.
इस मनहूस जगह के सारे ही चलन उलटे हैं. यहाँ संबंध और परिवार हिंसा का अभयारण्य हैं. कमनीय होने, जीवन से लगाव रखने जैसी एकदम निरापद बातें बेटियों को मौत के मुंह में धकेले जाने का समाज सम्मत कारण बन जाती हैं.
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दीपक शर्मा
30 नवम्बर, 1946 (लाहौर, अविभाजित भारत)
लखनऊ क्रिश्चियन कालेज के स्नातकोत्तर अंग्रेज़ी विभाग से अध्यक्षा, रीडर के पद से सेवा-निवृत्त.
पहली कहानी ‘अचतनचेती परौहना’ जून 1970 की प्रीत-लड़ी (पंजाबी मासिक) में दीपक भुल्लर के नाम से छपी. हिन्दी में पहली कहानी धर्मयुग के दिसम्बर, 1979 अंक में ‘कोलम्बस अलविदा’ विवाहित नाम दीपक शर्मा से छपी।
प्रकाशन : उन्नीस कथा-संग्रह :
1. हिंसाभास (1993) किताब-घर, दिल्ली, 2. दुर्ग-भेद (1994) किताब-घर, दिल्ली, 3. रण-मार्ग (1996) किताब-घर, दिल्ली, 4. आपद-धर्म (2001) किताब-घर, दिल्ली, 5. रथ-क्षोभ (2006) किताब-घर, दिल्ली, 6. तल-घर (2011) किताब-घर, दिल्ली, 7. परख-काल (1994) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, 8. उत्तर-जीवी (1997) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, 9. घोड़ा एक पैर (2009) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, 10. बवंडर (1995) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद, 11. दूसरे दौर में (2008) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद, 12. लचीले फ़ीते (2010) शिल्पायन, दिल्ली, 13. आतिशी शीशा (2000) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली, 14. चाबुक सवार (2003) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली, 15. अनचीता (2012) मेधा बुक्स, दिल्ली, 16. ऊँची बोली (2015) साहित्य भंडार, इलाहाबाद, 17. बाँकी (साहित्य भारती, इलाहाबाद), 18. स्पर्श रेखाएं (2017), 19. उपच्छाया (2019) अमन प्रकाशन, कानपुर
सम्मानः साहित्य भूषण सम्मान-2019 (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान)
संपर्कः
बी-35, सेक्टर-सी, निकट अलीगंज पोस्ट ऑफिस, अलीगंज, लखनऊ-226024 (उ.प्र)
मोबाइलः 09839170890/ ईमेलः dpksh691946@gmail.com
पढ गए. एक साँस में. बड़े कैनवस की कहानी है. मधु जी का आलेख सटीक है.
दीपक जी की कहानियाँ मुझे पसंद. कई बार आश्चर्य होता है कि कैसे इतनी छोटी कहानियों में इतनी बड़ी बातें समेट लेती हैं. अद्भुत कौशल .
दीपक शर्मा जी की कहानियों पर चर्चा करके आपने बहुत अच्छा किया। वे लम्बे समय से चुपचाप अच्छी कहानियाँ लिखती रही हैं।
अहा !
दीपक जी को पढ़ना मुझे बहुत सुहाता है।
साँस रोककर पढ़ना 📚 किसे कहते यह हैं ?
यह पाठ दीपक जी को पढ़कर समझा जा सकता है।
शुभकामनाएँ
कहानी पढ़कर रचनाकार की अन्य रचनाएं पढ़ने की उत्कंठा जग गई है। सचमुच हमने कितने बेहतरीन साहित्यकारों को उपेक्षा के आवरण में छुपा रखा है। ‘चमड़े का अहाता’ कन्या शिशुओं व उनके भ्रूण की हत्या जैसे विषय की नींव पर लिखी बेहद संवेदनशील कहानी लगी। शुक्रिया अरुण जी इसे हम तक पहुँचाने के लिए।
बहुत अच्छी कहानी। दरअसल वह सड़ांध चमड़े की नहीं, उस समाज-परिवार की है जो लड़कियों की हत्या तक करने से गुरेज नहीं करते। पितृसत्तात्मक समाज की ऐसी कहानियाँ हमारे समाज में बहुतेरी हैं लेकिन दीपक जी इसे जिस सहजता और सादगी से बुनती है, वह मानीखेज है। पहली नजर में बहुत साधारण ढंग से शुरू होती यह कहानी अपने अंत में जब बड़ा खुलासा करती है तो भीतर अटक कर रह जाती है। समालोचन का आभार अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए।
उफ्फ, कन्या हत्या की दर्दनाक हादसे को जैसे आंखों के सामने ला दिया हो।टँकी देखकर रोंगटे खड़े हो गए।
चुन चुन कर नगीने चुनते हैं अरुण जी। हार्दिक आभार।
जबरदस्त कहानी। दीपक जी की कहानियों का मैं शुरुआती पाठक हूं। उन्होंने प्रचुर लेखन खामोशी से किया है।वह चाहतीं तो अपनी पृष्ठभूमि का लाभ उठा सकती थीं लेकिन उन्होंने सिर्फ अपने लेखन पर भरोसा किया। भरोसा सही था,यह साबित भी हो रहा है। शुभकामनाएं।
देखिए, यह कहानी मैंने गगन गिल के यहाँ बहुत बहुत वर्ष पहले पढ़ी थी। तभी से दीपक शर्मा का नाम मेरे ज़ेहन में अंकित रहा आया है। शायद गगन ने sunday observer के साहित्यिक पन्नों में छापी भी थी।
जहाँ भी पढ़ी, इसे भूल नहीं पाई और उम्मीद करती रही इनसे कभी मुलाकात भी हो जाएगी।
निर्मल जी को भी इनका लेखन बेहद पसंद था। मैंने शायद इनकी कुछ और कहानियों को भी पढ़ा है।
इतनी दमदार कहानियाँ तो हिंदी के ख्यातनामों के पास भी शायद ही होंगी। उन दिनों मैं गगन से कहा करती थी, यह होता है लेखन!
बधाई आपको कि आपके पास दीपक जी का लिखा पहुँच गया।
कहानी अच्छी है, किंतु भुवनेश्वर की कहानी “भेड़िये” अलग जम़ीन पर खड़ी है ―जिजीविषा और मृत्यु के बीच दोलती वह कथा आदिम और प्रकृत गंध से भरपूर है। उसकी कथा सपनों-सी बुनी है। वहाँ यह नहीं है।यूँ कहानी अच्छी है, अचेतन को उतना पकड़ती-हुई नहीं है।
दीपक जी की लगभग जितनी भी कहानियाँ पढ़ी हैं सभी कथ्य के वैचित्र्य, शब्दों की अतिशय मितव्ययिता के कारण बहुत प्रिय हैं। उनकी भाषाई सहजता और यही ठंडापन उनकी कहानियों की विशेषता है।
लैंगिक भेदभाव और हिंसा की विषयवस्तु पर साहित्य संसार की स्तब्ध और रोंगटे खड़ी कर देनेवाली कहानियों में इस कहानी को भी रखा जा सकता है।कहानी लंबी न होकर भी बहुत गहरी है हृदय को मथती- बेधती।पुराने जमाने में सुना है जन्म लेते ही नमक चटा दिया जाता था।यह कहानी उस लोमहर्षक सच का सबूत है।समालोचन,मधु जी एवं दीपक शर्मा जी को साधुवाद !
इतनी सधी हुई अंदर तक बेध देने वाली कहानी पढ़वाने के लिए शुक्रिया।उनकी पहले भी कुछ कहानियां पढ़ी हैं,वे भी ऐसी ही सघन संकेंद्रित। समानता तो नहीं कहूंगा पर यह कहानी पढ़ते हुए मुझे एलिस मुनरो की कहानी boys and girls याद आती रही – ऐसे ही मुर्दा गोश्त के बीच धड़कती हुई जिंदगी।
दीपक जी को प्रणाम और मधु बी जोशी का शुक्रिया दीपक जी पर बेहद संतुलित और निष्पक्ष टिप्पणी लिखने के लिए।
— यादवेन्द्र
वे बहुत ग़ज़ब लेखिका हैं। बारीकियों को रचने वाली। स्त्री के सूक्ष्मतम को स्पर्श करने वाली।
चमड़े का अहाता
यह बहुत आश्चर्यचकित कर देने वाली कहानी है। बीहड़ ऐंद्रिकता है इसमें।
बहुत धीरे से बहुत गहरी बात कहने की अनोखी क्षमता है दीपकजी में। – दिवा भट्ट
दीपक जी का कथा संसार वृहद है। कम शब्दों में मारक बात कहना उनकी कहानियों का गुण है।
छोटी लड़की, जिसे बचाने के लिए उसकी मां ने जान दे दी, वह कहां है ?
कहानी दो बार पढ़ी पर उसका जिक्र आगे-पीछे नहीं मिला। क्या वह भी मार डाली गई? पाठक के लिए सोचने के ऐसे कई कोण हैं। एक और उदाहरण – टैनरी में मजदूर काम पर आते होंगे। क्या वे इन हत्यारों के राजदार रहे होंगे?
इस कहानी की तकनीक बहुत कुछ छुपा लेती है या पाठक की कल्पना पर छोड़ देती है।
मितकथन मात्र तो यह नहीं है। यह कहानी कहने का नया तरीका है जिसमें लेखक एक केन्द्रीय घटना का वर्णन करके अन्य विवरण पाठक की व्याख्या के लिए छोड़ देता है।
एक और प्रश्न – इस कहानी के नवजातों की हत्याओं में सारे समुदाय की संलिप्तता की सड़ांध छिपी है? या पिता एक साइकोपैथ है?
शिल्प प्रधान है। उसकी विवेचना में सपाटबयानी, मितकथन आदि से आगे बढ़कर यह विचार करना होगा कि कौन-से विवरण एक पारम्परिक ढंग की कहानी होते पर यहां छोड़ दिये गये हैं। और इससे कहानी में विविध अर्थों की सम्भावना कितनी बढ़ी है।
दीपक जी की बहुत सी कहानियाँ पढ़ी है उनके नवीनतम कहानी संग्रह पर मधु जी का आलेख बहुत प्रभावित करता है । दीपक जी की कहानियाँ चाहे आकार में छोटी है लेकिन उनका कैनवास बहुत बड़ा है। ।कहानी पढ़े जाने के बहुत बाद में भी दिमाग मे कौंधती रहती है ।पात्र बतियाते रहते है । उनको पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है । मुझे खुशी है कि उनकी नवीनतम पुस्तक की प्रति खुद उनसे प्राप्त हुई ।
ईश्वर उनको हमेशा स्वस्थ औऱ सर्जनात्मक रखे ताकि हमको उनकी कहानियां पढ़ने को मिलती रहे
कहानी बेहतर है लेकिन भेड़िये जैसा घनत्व , जिजीविषा और ललकार इसमें नहीं. यही वजह है कि यह भीतर तक पैठ बना कर वैचारिक उद्वेलन को न व्याकुलता का रूप दे पाती है, न जीवनका नियंता होने की दिशाओं को समाहित कर पाती है. भेडिये में संघर्ष और आत्मविश्वास, चुनौती और दृढ़ संकल्प का वितान इसे गति और जीवंतता देता है
दीपक दीदी की कहानियों में मानसिक हिंसा की भी बहुत गहरी और पैनी मनोवैज्ञानिक पड़ताल मिलती है । वे अद्भुत लेखिका हैं। ताई का स्वेटर कहानी नहीं भूलती, और जाने कितनी । उनकी छोटी छोटी कहानियां काले कैनवास को अनावृत करती हैं। एक छोटे से वाक्य से वे पूरे वातावरण को उकेरने की अद्भुत सामर्थ्य रखतीं हैं।
बहुत ही सुंदर कहानी है। इसमे विन्यस्त अनेक कहानियों का सूक्ष्म प्रवाह इस कहानी में मिलता है।अनेक तहे है , इस कहानी में। सतह खुलती है , और सच्चाई नये सिरे से जान पड़ती है और फिर कोई सतह खुलती है और फिर आप नई सच्चाई से रूबरू होते है। भारतीय यथार्थ के आयामो को कहानी मार्मिक ढंग से जब्त करते हुए , चेतना पर आघात करती है। सच है परिवार में दारुण , हिंसा को स्वीकार कर लिया जाता है पर अंदरूनी रूप से विद्रोह अनेक स्तरों पर चलता रहता है। कहानी के प्रवाह में काउंटर पॉइंट जलेबी से आता है। एक क्षण में सच्चाई के रहस्योंदघाटन से पात्र का जेहन और समूचा भाव पक्ष ही बदल जाता है और गुस्से में उपजता रंजिशमय आक्रोश दरक कर दुलार से जलेबी देने वाले भाव मे बदलता है।अज्ञेय, कहानी को क्षण के सौंदर्य की विधा मानते थे और इस कहानी में जलेबी अदभुत रूपक बनकर आती है। पात्र, जैसे भीषण मनो -आघात की परिस्थितियों में जलेबी की बात करते है और आघात से मुक्त होने के लिए जलेबी खाने की बात भी करते है। पर, खाते नहीं है।यहीं ,कहानी संकेत करती है कि कितना गहरा दुख उनकी चेतना में उतर रहा है।
दीपक जी को ज्ञानोदय में भी पढ़ा है। मेरी लोककथाएँ आती थीं। कुछेक जगहों में हम कहानियों के साथ थे।
उनकी अनूठी कहानियों की प्रशंसिका रही हूँ। चुपचाप रचनारत दीपक जी का उचित मूल्यांकन आवश्यक। मधु जी ने इस कथा और कथाकार पर बढ़िया लिखा है। साधुवाद!
– अनिता रश्मि
कहानी का लगभग रिपोर्टिंग का सा सीधा सीधा बयानिया अंदाज़ बेहद चौंकाता है। उसका बिलकुल आवरण रहित होना ही उसे धार देता है, उसमें घटित हो रही हिंसा के अहसास को पैना करता है। कहानी में एक ओर मरे हुए जानवरों की खाल, चमड़े की सड़ांध है,मंडराती चीलों, गिद्धों का साया है तो वहीं बच्चों का कबूतरों को पालना, उनकी देखभाल करना है जो घर और समाज में व्याप्त हिंसा का ज़बरदस्त प्रतीलोम रचता है☘️
मधु जी का अनुवाद और कहानी पर उनकी टिप्पणी बेहद सटीक है☘️
यह एक क्लासिक कहानी है । जेहन में दर्ज हो जाती है।
Such a powerful story. would like to read more of Deepakji ‘s work.
दीपक जी की कहानियाँ चित्त में दर्ज हो जाती हैं! अंत तक आते-आते कितनी ही बार माथे पर पसीना चू आया!
बिना किसी आडंबर और क्लिष्टता के उनका लेखन सीधे मन-मस्तिष्क को मथ देता है!
बिना किसी उबाऊ डिटेलिंग , अस्त -व्यस्त प्रसंगों से विहीन एकदम चुस्त और धारदार कहानी। जिसे कोई भी पाठक एक सांस में पढ़ लें। काश ! नवोदित लेखक बिना बहके ऐसी ही कहानियाँ लिखें तो हिन्दी साहित्य की कहानियाँ आम पाठकों के हाथों में भी हो।
स्त्रियों पर होने वाली हिंसा की बहुत धारदार और सुगठित कहानी. अचरज होता है कि इतने कम और बिलकुल सामान्य शब्दों में भी सदियों के संताप को सहजता से व्यक्त किया जा सकता है. पढ़ने के बाद अवाक सा रह गया. जैसे ब्लेड की तेज किन्तु ठंडी धार से अनजाने ही कलेजा कटकर रह गया हो. बहुत पैनापन है कहानी में. # गोविन्द सेन