साथ-साथ |
कभी निर्मल भी चौबीस-पच्चीस बरस के युवक रहे होंगे, मैंने रुक कर सोचा नहीं.
जुलाई 1979 में जब मेरी उनसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में पहली मुलाक़ात हुई, उस वक्त भी उनमें किशोरों वाली नर्वसनेस थी. बल्कि उनसे कनेक्ट करने का शायद पहला कारण ही यही था, कि वह हम छात्र लोगों जैसे ही घबराये हुए थे. शर्मीले और संकोची भी.
वह भाषण देने आये थे और बक़ौल उनके, उन्हें अभी सार्वजनिक भाषण देना नहीं आया था. किसी गोष्ठी में बोलने के नाम पर उनकी घिग्घी बंध जाती थी. अज्ञेय जी से एक बार उन्हें उनसे झिड़की मिल चुकी थी, “आप इतना घबराते हैं बोलने से! पहले लिख लिया करिए.”
निर्मल ने स्वयं बताया था.

निर्मल को जानने के वर्षों में उनकी उम्र के सब वर्ष मेरे लिए गड्डमड्ड होते गये.
हम में उम्र का फ़ासला इसलिए भी नहीं था कि पलक झपकते हम एक दूसरे के उस समय में पहुँच जाते जहाँ हम एक दूसरे को जानते भी नहीं थे, मैं अभी पैदा भी न हुई थी. जैसे मैं उनके लिए वहाँ हमेशा से थी, और वह मेरे लिए, दैवी किसी खेल में.
उनकी ये कहानियाँ सब मेरी जानी-पहचानीं हैं, जैसे मेरे सामने ही घटी हों. शायद इसलिए कि इनमें क़रोल बाग़ का इलाक़ा है, बाऊ जी का घर है, जहाँ हमने अपनी नयी-नयी गृहस्थी बसाई थी. उसकी छत, उसके पास मेरे देखते-देखते नाले को ढँक कर उस पर बन गई मार्केट. वहाँ का जीवन.
टाइपिंग की एक दुकान, जहाँ कंप्यूटर आने से पहले के जमाने में कभी निर्मल, कभी मैं ज़रूरी टाइपिंग कराने जाते थे.
मीट-मछली की दुकान, जहाँ से लौट कर एक बार मैंने अनशन कर दिया था, “मैं पका दूँगी मगर अब कभी मुर्गा लेने नहीं जाऊँगी.”
मुर्ग़े का कटा सिर सड़क पर तड़पता मेरे साथ घर तक चला आया था.
निर्मल कभी मीट लेने जाते, तो लौट कर बताते, भूखे कुत्ते कैसे कटता हुआ गोश्त देखते हैं. कि भारत में लोग इसीलिए वेजीटेरियन हो जाते हैं कि वह ये सब देख नहीं पाते.
पटपड़गंज के फ्लैट में जाने से पहले हम दस साल उसी पैतृक घर में रहे. हार्वर्ड में हमारे एक वर्ष 1992-93 के प्रवास को छोड़ कर.
बाऊ जी का घर, जो उन्होंने रिटायरमेंट के पैसों से ख़रीदा था. नाले के पास वाला घर, जो तब सस्ता मिल रहा था. जिसका भुगतान करने जब बाऊ जी के साथ रामकुमार गये तो बाऊ जी ने उनसे कहा, रुपयों की थैली कस कर पकड़ो.
नीचे वाला घर किराये पर, पहली मंज़िल पर बाऊ जी-माँ जी-बहनों का साम्राज्य, सबसे ऊपर बरसाती में रामकुमार-निर्मल का राज्य. भैये तब आर्मी में थे.
उस ऐतिहासिक घर में हमने इतनी बातें की थीं, शादी से पहले, शादी के बाद, कि हमारे सब बरस यों घुलमिल नहीं जाते तो आश्चर्य होता.
शाम को अक्सर निर्मल छत की मुँडेर तक चले जाते थे, उजाड़ गली को देखते रहते.
‘इम्तहानों के दिन’ की कहानी वाला वह घर हमारी छत से दिखता था. पंचर ठीक करने वाली दुकान भी, खंभे पर लटका उसका टायर. गली के पिछवाड़े वाली दुकानों में ही वह दुकान थी, ज्योतिषी महाराज की, जिनका ज़िक्र कहानी में आया है. कभी निर्मल सिगरेट ख़रीदने जाते तो उनके सामने से गुज़रना पड़ता था.
वहीं आते-जाते शायद सोचते होंगे, पंडित जी के लिए, एस्ट्रोलॉजर उस ज़माने तक ज्योतिषी अपने को ज्योतिषी ही कहते थे, एस्ट्रॉलेजर नहीं.
जैसे छोटे अकेले बच्चे अपने से बात करते हुए जाते हैं, आते हैं.
एस्ट्रोलॉजर,
फ़्रेंड, गाइड एंड फ़िलासफ़र!
यह तुकबंदी सिगरेट लेने जाते-आते बनी होगी. कहानी में आ गई है – प्रो. बोधराज, एस्ट्रोलॉजर, फ़्रेंड, गाइड एंड फ़िलासफ़र!
वरना ऐसी कोई तख़्ती आपने कहीं लिखी देखी हो तो बताएँ.
1980 के उन दिनों तक भी वह इलाक़ा उजाड़ हुआ करता था. गली के छोर पर एक वेल्डर काम करता था, उसकी मशीन की आवाज़ ऊपर कमरे तक आती. कार पेंट करता तो उसके पेंट की गंध.
शाम को निर्मल छत पर बैठते तो बरसाती की बत्ती बुझा देते, ग्रामोफ़ोन पर रिकॉर्ड लगा देते. अंधेरे में संगीत सुनते. गर्मियाँ होतीं तो पहले छत पर पानी से छिड़काव करवा लेते. किशन, उनका पुराना भरोसेमंद पहाड़ी नौकर. वह बाबू जी का मन ताड़ जाता.
छत पर मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू और संगीत की आवाज़ हवा में एक साथ फैलते.
हवा में तैरती ये ग्रामोफ़ोन की आवाज़ें निर्मल कथाओं के कितनी ही दृश्यों में हैं. जो भी सीने में घुमड़ता है, संगीत के साथ बाहर आ जाता है, अपने अकथ में.
अकथनीय को अकथ से ही कहने का उनका निराला ढंग.
यह लड़का जो इतना चुप्पा हुआ करता था कि एक बार बाऊ जी के कोई दोस्त उनसे मिलने आये तो सिर हिलाता रहा.
“वर्मा साहब यहीं रहते हैं?”
सिर हिला.
“कहाँ हैं?”
उधर, उँगली हिली.
“उन्हें बुला दो”.
कमरे का पर्दा उठा कर झांका भर.
बाऊ जी बाहर निकल आये. निर्मल ग़ायब.
वह मित्र चले गये तो बाऊ जी ने निर्मल को बुलवाया. डाँटा.
“तुम बोल नहीं सकते? मालूम है, वह क्या कह कर गये हैं? वर्मा साहब, बहुत दुख हुआ, आपका लड़का गूँगा है.”
आसमान को देखना उन्हें बहुत भाता था. धीरे-धीरे डूबता सूरज, गहराता आसमान, दुबला चाँद, चमकते सितारे.
मैंने जब पहली बार करवाचौथ का व्रत रखा, तो शाम भर निर्मल छत पर डोलते रहे कि जैसे ही चाँद निकले, वह मुझे आकर तुरंत बताएँ.
व्रत मैंने रखा था मगर मुँह उनका सूखा था. और चेहरे पर छिपाए न छिपती एक गर्वीली स्मित, कि अब हमारे लिए भी कोई व्रत रखता है!

उसी घर के पते पर जब मेरे नाम पहली चिट्ठी आई, मेरी तभी छपी किताब ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ पर अमृत राय की पाठकीय प्रतिक्रिया, तो निर्मल बड़े हैरान हुए. इसका मतलब, उन्हें विवाह की खबर हो गई है. अमृत जी उस घर में कई बार रुक चुके थे, माँ जी के रहते, पचास-साठ के दशक में. रामकुमार-निर्मल दोनों के मित्र.
फिर उसके बाद मुझे कमलेश्वर की चिट्ठी मिली. वही पाठकीय प्रतिक्रिया! निर्मल मुस्कुराये.
भीष्म और शीला साहनी से मैं शीला संधु के घर पर हमारी शादी की रिसेप्शन में मिल चुकी थी. चंपा और केबी वैद से भी. नामवर जी से भी. कृष्णा जी से साढ़े पंद्रह साल की उम्र में मिल ही चुकी थी, मम्मी के दोस्तों की किसी बैठक में. तब कुछ मालूम न था, एक दिन मैं भी लिखा करूँगी.
एक शाम निर्मल कहीं से लौट कर आये तो देखा, उनके कॉलेज के मित्र मुकुल, जो अब लगभग अंधे हो चुके थे, काफ़ी समय से मुझे ‘देखने’ आये बैठे हैं और अब बड़े मज़े से अपना रचित बांग्ला गीत गा कर सुना रहे हैं!
एक और शाम निर्मल सैर करके लौटे तो महेंद्र भल्ला उनके साथ! हमसे एक ब्लॉक दूर वह रहते थे.
शाम को दोनों सड़क पार राजिंदर नगर के एक ही पार्क में सैर करने जाते थे. योग करती महिलाओं पर तमाम तरह की मज़ेदार बातें. उन दिनों क्या पढ़ रहे हैं, उस सब की भी.
महेंद्र भल्ला किसी लेखक को मुश्किल से ही पसंद करते थे. ज़्यादातर बहस के बाद वह निर्णय देते, मीडियॉकर. कई बार बड़ी उत्तेजक बहस जैसे ही ख़त्म होने को होती, मेरी और निर्मल की नज़र टकरा जाती. अब कहेंगे. एक बार तो भल्ला साहब से पहले मेरे मुँह से ही निकल गया ! मीडियॉकर!
भल्ला साहब ने ऐसा ठहाका लगाया कि सारा मोहल्ला गूंज उठा.
लबोलुबाब यह कि निर्मल के सब यार-दोस्तों ने मेरा ख़ूब स्वागत किया.
निर्मल की गृहस्थी सबसे बाद में जम रही थी जबकि यार-दोस्त ज़िम्मेदारियाँ निभाते थक चुके थे. हमारी नयी गृहस्थी उन्हें ताज़ा करती होगी.
हाल यह कि सन् 2000 के बाद तक भी उनके दूर-दूर फैले कॉलेज के ज़माने के दोस्त निर्मल की बहू देखने आते रहे. कलकत्ता से रिटायर हो गये कॉलेज प्रिंसिपल पीके, बरेन डे जो कभी इंग्लैंड में रहने की इजाज़त के लिए वहाँ झूठ-मूठ के पागल बन कर रहे थे और अब हमें आई आई सी की लाइब्रेरी में मिल जाते थे. और मुकुल तो थे ही.
घर में महफ़िलें जमने लगीं. पुरानी यादें. जब वे सब युवा थे, क्रांतिकारी थे, नर्वस बेरोज़गार थे, भविष्य को लेकर शंकित थे.
1950 का दशक. केबी ट्यूशन पढ़ाते थे, निर्मल, भीष्म जी, देवेंद्र इस्सर कोचिंग कॉलेज में क्लासें लेते थे. महेंद्र भल्ला क्या करते थे, अब याद नहीं. मनोहरश्याम जोशी और केबी वैद शायद राजिंदर नगर में रहते थे, भीष्म जी पटेल नगर में, स्वामीनाथन वहीं एक गली छोड़कर अजमल खाँ रोड पर, निर्मल के जिगरी दोस्त.
निर्मल और स्वामी की बातें ख़त्म होने में न आतीं. एक बार बाऊ जी सैर को निकले तो देखा, दोनों घर के पास खंभे के नीचे खड़े बातें कर रहे हैं. एक घंटे बाद लौट कर आये तो देखा, अभी भी बातें हो रही हैं! उस दिन उन्होंने निर्मल से पूछा, “तुम इतनी लंबी-लंबी क्या बातें करते रहते हो?”
बेचारा उनका गूँगा लड़का मुझे जब यह सब बताता, वह खंभा दिखाता तो काल और देश गड्डमड्ड हो जाता.

निर्मल के घर की छत पर दोस्तों के जमावड़े होते. कुछ इसलिए कि बस घर के सामने से गुज़रती थी. जाने वाला जा कहीं और होता, घर की छत देख कर बस से उतर जाता.
पहली मंज़िल पर बैठक में बाऊ जी का कमरा था. उसकी बग़ल में सीढ़ियों का दरवाज़ा जो हमेशा खुला रहता. यार-दोस्त उसे चुपके से खोल सीधे ऊपर बरसाती में जा धमकते. नीचे किसी को कोई खबर नहीं.
एक प्यारी पुरानी तस्वीर में इनमें से कुछ दोस्त मैंने देखे थे. क़रोल बाग के घर की छत पर. नरेश मेहता, निर्मल, मुकुल, रामकुमार आदि.
मालूम नहीं उस दिन किसे यह विचार आया होगा कि एक फ़ोटो ही ले लें. कैमरा भी हर किसी के पास कहाँ होता था.
दोस्तों में सिर्फ़ भीष्म जी के पास अपनी मोटर साइकिल थी. वही सबसे संपन्न भी थे. कॉलेज में उनकी परमानेंट नौकरी लग चुकी थी.
भीष्म जी जब निर्मल की गली में पहुँचते तो दूर से ही बाइक के शोर से उनके आगमन का ऐलान हो जाता. कभी वह बाऊ जी के सामने पड़ जाते तो घबरा जाते. बाऊ जी ठहरे अंग्रेजों के ज़माने के सख़्त रिटायर्ड अफ़सर.एक बार बाऊ जी ने रामकुमार से कहा, “तुम्हारा यह दोस्त मुझे कुछ ठीक नहीं लगता!”
सबसे शरीफ़ दोस्त के लिए बाऊ जी के ऐसे वचन! क्योंकि भीष्म जी बाऊ जी को देखते ही घबरा जाते थे!
पुराने दोस्तों में देवेंद्र इस्सर पंजाबी-उर्दू मिला कर बोलते थे, हल्का सा नाक का स्वर भी उनका बजता.
हम मंडी हाउस की किसी गोष्ठी में जाते और देवेंद्र जी को बोलना रहता, तो माइक उनके पास जाते ही निर्मल मेरी तरफ़ देखते. अकसर हम एक साथ नहीं, आमने-सामने बैठे होते, जैसे शरारती दोस्त हों. निर्मल को सब पता रहता, मैं अब हँसी, तब हँसी.
कभी-कभी इस्सर साहब वहीं मंडी हाउस के चौराहे पर खड़े हमसे बतियाते रहते. मुझे बताते, कैसे वे लोग अपनी कहानी पढ़ कर सुनाते थे. एक कल्चरल फोरम बना रखा था.
उसकी सभा में निर्मल ने अपने दोस्तों को इनमें से कुछ आरंभिक कहानियाँ सुनाई होंगी.

अपने ही जैसे अनगढ़, युवा, कल्पनाशील दोस्त. सुनने वाले, तबसरा करने वाले. तिस पर दोस्तों की यह शर्त कि जो कहानी सुनायेगा, वह सबको चाय पिलायेगा!
आप कल्पना कर सकते हैं इस दृश्य की?
भीष्म साहनी, केबी, भल्ला साहब, मनोहरश्याम जोशी, नरेश मेहता, निर्मल, स्वामीनाथन, रामकुमार. सबके अंखुवे अभी निकल रहे थे!
कनॉट प्लेस के सूने गलियारों में घूमते हुए मनोहरश्याम जोशी निर्मल को हर इतवार एक धारावाहिक उपन्यास सुनाते थे, फिर कहते, “शेष अगले अंक में.”
अगले सप्ताह वहीं से कथा आगे बढ़ाते. उन्हें सब याद रहता था.
अफ़सोस कि वह उपन्यास कभी जोशी जी ने लिपिबद्ध नहीं किया.
विभाजन के बाद आये पंजाबी शरणार्थियों से पटा सारा इलाक़ा. क़रोल बाग़, राजिंदर नगर, आनंद पर्वत, पहाड़गंज, दरियागंज.
निर्मल, रामकुमार, स्वामीनाथन शरणार्थियों की सहायता में लगे समूहों में भी जाते. कई बार किसी मकान से दंगे में मरी सड़ती लाशें दोनों मित्रों ने निकालीं. इन्हीं वर्षों का एक विचलित कर देने वाला उपन्यास है रामकुमार का – ‘घर बने घर टूटे’.
भारत का विभाजन किसी एक दिन, एक महीने या एक वर्ष की घटना नहीं. लंबे समय तक इस घटना ने इस महाद्वीप के लोगों को व्यथित किया है.
पड़ोसी, जो न एक दूसरे के साथ रह सकें, न एक दूसरे के बग़ैर.

मैंने जब ‘थिगलियाँ’ पढ़ी तो चकित रह गई. इतने निकट से देखा था निर्मल ने उजड़े हुए लोगों को? सुना था उनकी विलाप करती चीख़ों को?
बाऊ जी पटियाला से थे मगर उनके बच्चे पंजाबी नहीं बोल पाते थे. माँ जी पुरानी दिल्ली की खत्राणी थीं. बाऊ जी- बाबा जी के असर से बच्चों की बोली में पंजाबी भाषा का असर ज़रूर आ गया था. निर्मल मेरी पंजाबी मिली हिन्दी सुनते तो मुस्कुराते. मैं उनकी भाषा में पंजाबी शब्द पहचानती तो गुदगुदी होती.
जब चारों ओर ज्ञानपीठ पुरस्कार निर्मल और गुरदयाल सिंह में बँटने की आलोचना हो रही थी, पंजाब के एक अख़बार, शायद ट्रिब्यून ने, मुखपृष्ठ पर खबर छापी- ‘इस बार का ज्ञानपीठ पंजाब को! एक पंजाब का बेटा है, दूसरा दामाद!’
निर्मल की ख़ुशी देखते बनती थी. मम्मी को अख़बार दिखाया तो उन्होंने निर्मल को लिफ़ाफ़ा दिया, “निर्मल, अवार्ड पर नया सूट पहन कर जाना!”
ऐसी हिला देने वाली कहानी ‘थिगलियाँ’ उन्होंने अपने पहले संग्रह ‘परिंदे’ में क्यों नहीं रखी?
उन दिनों चारों ओर उजड़े लोगों का शोर था.
वह उसे बढ़ा तो न देंगे? इसी से बचना चाह रहे होंगे.
कला में संताप के एकांत की जगह बना रहे होंगे.
इन्हीं दिनों, 1956 में, उन्हें क्षोभ हुआ होगा, सोवियत संघ के हंगरी पर हमले को लेकर. कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र सदस्यता उन्होंने त्याग दी होगी.
जिस पार्टी के सदस्य वह मुश्किल से एक -दो साल रहे, उसका ठप्पा उन पर आधे जीवन के लिए लग गया.
जिस पार्टी के अनुमोदक वह कभी नहीं थे, उसका नाम भी उनके साथ अंतिम वर्षों में चिपक गया.
न यह सच था, न वह.
जो कहानियाँ किसी संकलन में आने से छूट गईं, और वे कहानियाँ जो निर्मल ने अंतिम वर्षों में लिखीं, जैसे एक रोचक वृत्त बनाती हैं. जहाँ से शुरू, वहीं पर ख़त्म.
जैसे उनके कथा वृत्त को इसी तरह पूरा होना था. अधूरा भी इसी तरह छूटना था.
मेरे पास कहने को कुछ न था, मगर मैंने इन कथाओं को घटित होते देखा था, इनके लेखक को भी, जो इन्हें अपने भीतर लेकर मेरे साथ हमारा जीवन साझा कर रहा था.
जीवन कहाँ ख़त्म होता है, और साहित्य कहाँ शुरू, अब इसका निर्णय पाठक करें.
25 मार्च, 2024
गगन गिल gagangill791@hotmail.com |
गगन गिल। बहुत ही उम्दा कलम। कुछ महिला लेखिका आसमान से तारे तोड़ लाने की काबिलियत रखती हैं। जैसे गगन गिल।
Gagan jaise paas baithee sunati hon .
Ek kahani jaise jeevan ke asphut prasang.
Kitab aani chahiye, choti see her sahi.
किस्से थे या कविताएं… कविता तो निर्मल खुद थे… कविता तो कहानियों में ढल कर सामने आती हैं, पढ़ते समय लगा गगन जी सामने बैठ कर सुना रहीं हैं अपने ठहरे हुए गेय सुर में कुछ कुछ जैसे कविता पढ़ते हैं….
एक दिन पता नहीं क्यों मैं सोच रहा था निर्मल जी के साथ रहते हुए गगन जी के लिए यह स्वाभाविक रहा होगा कि अक्क महादेवी तक वैचारिक यात्रा की जाए।
ऐसा सहज और तरल संस्मरण गगन गिल ही लिख़ सकती थी. कितना अच्छा हो कि इस क्रम को आगे बढ़ाया जाय. यह वृतांत पढ़कर बहुत सी यादें ताज़ा हो गयी. गगन गिल को बधाई समालोचन को साधुवाद.
बेहद उम्दा
आत्मीय गद्य।
स्मृतियों के जीवंत चित्र।
जैसे उन्हें हाथ बढ़ाकर छू सकते हैं।
*
‘थिगलियाँ’ की कहानियाँ पढ़ेंगे।
निर्मल जी को पहली बार श्रीराम सेंटर में गुनगुनी दोपहर में खाना खाते देखा था, गगन जी चुपचाप उन्हें खाना खाते देख रही थीं, यह एक आदर्श छवि स्मृति में क़ैद है…
फिर राजकमल प्रकाशन ने लेखक से मिलिए कार्यक्रम शुरू किया तो पहले लेखक निर्मल जी ही थे. वही श्रीराम सेंटर के ऊपर वाला हाल था. उस दिन भयानक उमस वाली गर्मी थी. अच्छे प्रश्न पूछनेवाले को उपस्थित लेखक की किताब उपहार में दी जाती थी. बहुत बाद में मालूम हुआ नकि वह उपहार विजयशंकर जी को मिला था. मैं उस प्रोग्राम में था और नियति ही थी कि विजयशंकर जी जैसे दोस्त मिले. एक निर्मल वृत्त बना जिसमें हम सब निर्मल जी के प्रशंसक एक साथ रहे. वैगाटेल कहानी जब १९५4 के कहानी पत्रिका में मिली तो लगा कुछ अद्भुत-सा पा लिया है.
अंतर्दृष्टि संपन्न संस्मरण और अत्यंत रोचक भी।
पढ़ते वक्त भी लग रहा था कि कुछ छूटता जा रहा है दृश्य में दृश्य। अब लग रहा है ,प्यासा ही छूट गया हूं। इतने निकट से देखी भोगी चीज़ें चिंदी आसमान के जैसी दिखाई दे रही हैं हालांकि धूप के चकत्ते और बारिश के चहबच्चे खूब छिटकाए हैं गगन ने। शायद कभी विस्तार से लिखें तो दूसरे राग भी सुनने को मिलें। इंतज़ार रहेगा।
निर्मल जी के जीवन और साहित्य में मेरी दिलचस्पी है। आज गगन जी का संस्मरण पढ़कर समृद्ध हुआ। आपको बधाई इसे उपलब्ध कराने के लिए। इसके पहले अशोक अग्रवाल जी ने भी निर्मल जी के जीवन के अनछुए पहलुओं पर बहुत अच्छा लिखा था। आभारी हूं कि समालोचन पर इतना श्रेष्ठ आ रहा है।
पढ़ते हुए मुझे लगा कि गगन जी मुझसे बतिया रहीं हैं। यही गगन जी के लिखे हुए की सबसे बांधने वाली खूबी है कि वे अपने लिखे वाक्यों में ध्वनि भरना जानती हैं। निर्मल जी के जीवन के प्रसंगों को गगन जी से अच्छा किसी से नहीं सुना है।
बहुत सहजता से एक जटिल जीवन का वृतान्त उकेरा है गगन गिल ने।सजीव दृश्यात्मक संस्मरण। राँची में एक बार निर्मल जी जब हमारे घर आए थे तो तो हम इतने अभिभूत थे कि सब कुछ स्वप्न जैसा लग रहा था।बहुत ही सहज, सरल और निरहंकारी व्यक्तित्व था उनका।
बहुत सुंदर, आत्मीय।
धन्यवाद गगन जी।
“जिस पार्टी के सदस्य वह मुश्किल से एक -दो साल रहे, उसका ठप्पा उन पर आधे जीवन के लिए लग गया.
जिस पार्टी के अनुमोदक वह कभी नहीं थे, उसका नाम भी उनके साथ अंतिम वर्षों में चिपक गया.
न यह सच था, न वह.”……….
कितनी पीड़ा में लिखा है गगन जी ने इसे ! क्या हिन्दी समाज कभी इसे समझ पाएगा ? निर्मल जैसा बड़ा लेखक भी किस तरह दुराभिसंधियों का शिकार होता है यह पढ़ना टीस पैदा करता है।
अतिप्रिय रचनाकार निर्मल वर्मा की अविकल उपस्थिति को नमन🙏 गगन जी और समालोचन का आभार इस आत्मीय संस्मरण के लिए। ” थिगलियां” तो लेना ही है❤️
भोपाल में कविता सम्मेलन में गगन गिल को पंजाब के बुजुर्ग कवि हरभजन सिंह के साथ देखा था. लगता था वे कविता का संसार पहली बार देख रही हों.अब वे हिंदी कविता का संसार बुन रही हैं। इतनी जल्दी वे जिंदगी के तोपे लगाना सीख चुकी हैं. अब वे निर्मलजी का विस्तार लगती हैं। इस बात को आगे बढ़ते रहना चाहिए..
निर्मल जी के घर बाहरी बैठक में एक संत जी का चित्र छोटा मढ़ा हुआ दीवार पर लगा था. निर्मलजी ने बताया गगनजी के पिता हैं, वे साधु हो गये थे. इसीलिए जीवन के प्रश्न गगनजी के पास आकर सतही नहीं रह जाते हैं….
गगन जी को पढ़ना बहुत अच्छा लगा।
निर्मल वर्मा के चाहने वालों के लिए समालोचन का यह हिस्सा उनकी स्मृतियों में हमेशा हमेशा बसा रहेगा।
“अवाक” में अलग तरह का साथ था। इस पाठ को पढ़ते पढ़ते बरसाती और छत और गगन निर्मल की गृहस्थी मेरे साथ फिर हो ली।
हमारे वाले समय के बारे में भी गगन कभी लिखेंगी। जब मैं चंडीगढ़ से खास इन दोनों को मिलने आती थी।
कठिन दिन भी थे। बहुत बहुत थे। कठिन प्रसंग भी। इतने कठिन कि मुझे अभी तक सपने आते हैं। इन दोनों मित्रों से ख़्वाब में मिलना बहुत होता है। अगर नींद आ जाए कभी तो।
कुछ और लिखूंगी। चाव से पढ़ा। उम्मीद है गगन लिखती रहेंगी। कई प्रसंग इतने रोचक थे कि …
वह बरसाती, वे दिन, वे निर्मल, और मेरी सखी गगन!!
‘ थिगलियाँ ’ जैसी बेधक कहानी को निर्मल जी ने अपने उस दौर के संग्रहों में क्यों नहीं लिया होगा इस पर गगन जी विचार करते हुए जहाँ पहुंचीं उसे पढ़, दिल–दिमाग एक बारगी हिल गया–ऐसी होती है एक बड़े लेखक की ज़िम्मेदारी अपने समाज के प्रति… ☘️
निर्मल जी और गगन जी का साथ इसी झीनी साझा समझ का साथ है.
निर्मल जी के जन्मदिन पर इस तोहफे के लिए शुक्रिया गगन जी☘️ शुक्रिया समालोचन☘️☘️☘️
गगन जी ने बहुत सुंदर लिखा है। यह संक्षिप्त भी लंबे समय का विस्तार समेटे है। समालोचन ने महत्वपूर्ण संजोया है।
Ji ” ThigliyaN” sngreh kahaN se prakashit hua hai? zra batlaney ki meharbani kreyNgi aap.Gagan ji ka ye lekh ya kaheyN post vakeya hi ba kmaal raha..” TigliyaN” padhney ki chahat rakhta hooN
राजकमल प्रकाशन से
निर्मल और उनके साथी लेखकों के अन छुए प्रसंग मानो एक समय को काट कर सजीव उपस्थित कर दिया हो —हरि मोहन शर्मा
जिस लाड़ व श्रद्धा के साथ गगन गिल ने निर्मल वर्मा जी के साथ कुछ जिए कुछ अनजिए चित्र मंत्रचालित इस लेख में
हमारे सामने रखे हैं,उन से मंत्रमुग्ध हुए बिना रहना असंभव है।
विरले व अद्भुत इस लेख के लिए गगन जी को बधाई तथा अरुण देव जी को धन्यवाद।
दीपक शर्मा