परंपरागत प्रसाद का क्रांतिकारी भाष्यदिनेश कुमार |
बहुत कम पुस्तकें ऐसी होती हैं जो प्रकाशन के साथ ही चर्चा के केंद्र में आ जाती हैं. वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह की नवीनतम पुस्तक ‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद‘ एक ऐसी ही पुस्तक है. यह पुस्तक प्रसाद को बिल्कुल नए ढंग से हमारे सामने लाती है. विश्वविद्यालयों में प्रत्येक स्तर पर और लगभग सभी महत्वपूर्ण विधाओं में अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने के बावजूद हिंदी आलोचना में उन्हें वह महत्ता और प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वे हकदार थे. निराला को रामविलास शर्मा तो मिले ही, पूरी की पूरी प्रगतिशील आलोचना भी उनके साथ डटकर खड़ी रही. प्रसाद को रामविलास जी जैसा कोई ना मिला.
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास जरूर किया लेकिन वह ऐसा नहीं था जिससे उस युग के केंद्रीय साहित्यिक व्यक्तित्व के तौर पर प्रसाद प्रतिष्ठित हो सके. मुक्तिबोध के लिए प्रसाद जीवन भर चुनौती बने रहे. वे अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों के कारण प्रसाद की विश्व दृष्टि को समझने में बुरी तरह असफल रहे. ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ में उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा को कामायनी पर इस तरह आरोपित कर दिया है की कृति की मूल आत्मा ही नष्ट हो गई है. बावजूद इसके यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मुक्तिबोध व्याख्या, विश्लेषण और मूल्यांकन के लिए छायावादियों में से प्रसाद को चुनते हैं और निराला पर मौन साध लेते हैं. मुक्तिबोध जैसे दृष्टि संपन्न कवि-आलोचक का प्रसाद पर लिखना और निराला पर चुप्पी साध लेना अनायास है या सायास, यह बहसतलब हो सकता है किंतु, इतना तो निश्चित है कि प्रसाद से असहमत होते हुए भी वे यह मानते हैं कि प्रसाद के पास एक मुकम्मल विश्वदिृष्टि है.
मुक्तिबोध आलोचना को ‘सभ्यता समीक्षा’ मानते हैं और इस सभ्यता समीक्षा के लिए उन्हें सर्वाधिक अनुकूल कृति ‘कामायनी‘ ही नजर आती है. तात्पर्य यह है कि अपनी नकारात्मक स्थापनाओं के बावजूद उस युग के केंद्रीय रचनाकार के रूप में मुक्तिबोध प्रसाद को ही स्वीकार करते हैं किसी अन्य को नहीं .
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और मुक्तिबोध के बाद जयशंकर प्रसाद को संपूर्णता में समझने का प्रयास विजय बहादुर सिंह ने अपनी पुस्तक ‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर‘ प्रसाद में किया है. उनका मानना है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हिंदी साहित्य से किसी एक रचनाकार का चयन करना हो जो औपनिवेशिक विचारधारा और पश्चिमी जीवन-दृष्टि का भारतीय प्रतिपक्ष रचते हुए भी गैरसंप्रदायिक और उदार है तो वह रचनाकार सिर्फ जयशंकर प्रसाद हो सकते हैं.
वे अतीत में जाकर भविष्योन्मुखी चेतना के बीज खोज कर लाते हैं. शायद इसीलिए उनकी सांस्कृतिक दृष्टि अतीतोन्मुखी ना होकर संस्कृति के सांप्रदायीकरण का सशक्त प्रतिरोध है. प्रसाद की रचना-दृष्टि को एक संघर्षरत जाति के संपूर्ण जीवन-दृष्टि की पुनर्रचना मानते हुए विजय बहादुर सिंह न सिर्फ उसे तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में मूल्यवान बताते हैं बल्कि इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक और संदर्भ वान मानते हैं. प्रसाद संबंधी मूल्यांकन में यह आलोचना-दृष्टि निश्चय ही क्रांतिकारी प्रस्थान बिंदु है .
प्रसाद पर बात करते हुए अक्सर प्रेमचंद को सामने लाया जाता है और कहा जाता है कि प्रेमचंद वर्तमान समस्याओं पर लिखते हैं और प्रसाद इनसे से मुंह मोड़ लेते हैं. इसी आधार पर कुछ उत्साही लोग प्रेमचंद को प्रगतिशील और प्रसाद को अतीतजीवी घोषित करके प्रेमचंद बनाम प्रसाद की निरर्थक बहस करते रहते हैं. दरअसल, यह तुलना ही असंगत है, क्योंकि प्रेमचंद का क्षेत्र अतीत है ही नहीं. यह प्रेमचंद और प्रसाद का अलग-अलग वैशिष्ट्य है. उनके भारत-स्वप्न में कोई बड़ी भिन्नता नहीं है. प्रेमचंद भी इस बात को बहुत गहराई से महसूस कर रहे थे कि ‘सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है’ और वह ‘संस्कृति का खोल ओढकर आती है’ . प्रेमचंद की इस बात को समझते हुए प्रसाद अधिक बुनियादी महत्व का काम यह करते हैं कि वे संस्कृति की सांप्रदायिक व्याख्या की संभावना को ही समाप्त कर देते हैं. वे अतीत का उत्खनन करके एक ऐसी भारतीय संस्कृति की खोज करते हैं जहां किसी भी तरह की सांप्रदायिकता और मानसिक संकीर्णता के लिए कोई जगह ही नहीं है.
दरअसल, सांप्रदायिकता आधुनिक परिघटना जरूर है पर इसका रण-क्षेत्र अतीत ही रहता है. संस्कृति भी मुख्यतः अतीत से ही परिभाषित होती है. इसलिए, सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए, और उसके जड़ पर प्रहार करने के लिए अतीत में जाना अपरिहार्य है. अतीत से भागकर सांप्रदायिकता से कोई बुनियादी लड़ाई लड़ी ही नहीं जा सकती है. सांप्रदायिकता अतीत की गलत व्याख्या करके ही अपने लिए खाद-पानी जुटाती है. इसलिए, यह गलत प्रश्न है कि कोई रचनाकार अतीत में क्यों जा रहा है बल्कि प्रश्न यह होना चाहिए कि वह अतीत में जाकर क्या ला रहा है? अतीत की उसकी खोज सांप्रदायिकता की जड़ों को मजबूत करने वाला है या उसे उखाडने वाला ?
निश्चय ही प्रसाद अतीत में जाकर एक उदार सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष भारत की जमीन तैयार करते हैं जो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का आदर्श था. विजय बहादुर सिंह बिल्कुल सही रेखांकित करते हैं कि
‘‘अतीत को पुनर्जीवित करते हुए वे न तो अंध अतीतवादी हैं, न उसकी जानी-पहचानी विकृतियों के समर्थक ही. वे उन्हीं पक्षों को उभारने में रुचि प्रदर्शित करते हैं जो बीसवीं सदी के भारत के लिए संजीवनी का काम कर सके.’’
कहने की आवश्यकता नहीं है कि कुछ लोग अतीत से संजीवनी की जगह विष भी लाते हैं.
रचना में अतीत को विषय-वस्तु बनाने वाले रचनाकारों के यहां जैसे यह देखना आवश्यक है कि वे अतीत से वर्तमान के लिए संजीवनी या विष क्या लेकर आते हैं, वैसे ही यह भी देखना जरूरी है कि उन रचनाओं में राष्ट्रवाद व राष्ट्रीयता का स्वरूप कैसा है ? हालांकि यह दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए भी हैं.
विजय बहादुर सिंह इस संदर्भ में द्विवेदी युग के महत्वपूर्ण और सर्वाधिक लोकप्रिय कवि मैथिलीशरण गुप्त तथा राष्ट्रवादी काव्य-धारा के कवियों से प्रसाद की तुलना करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि
‘‘प्रसाद अपने समय के उन महान राष्ट्रीय चारणों से बिल्कुल अलग हैं जो राष्ट्रीय आंदोलन के साथ अपनी काव्य-दृष्टि को संबद्ध कर तात्कालिक उफानों की सतही अभिव्यक्ति के जरिए भारतीय जनमानस की वाहवाही लूटते रहे हैं.’’
यह बात सही है कि औपनिवेशिकता से प्रसाद की लड़ाई अधिक बुनियादी और गहरी है जबकि राष्ट्रीय काव्य-धारा का सबसे बड़ा मूल्य तात्कालिक भावोंउद्वेगों की अभिव्यक्ति में है. वैसे भी श्रेष्ठ साहित्य राष्ट्र की तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति के लिए नहीं होता वह तो राष्ट्र की दीर्घकालिक आशाओं और आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करता है. विजय बहादुर सिंह सही लक्षित करते हैं कि मैथिलीशरण गुप्त की उर्मिला या यशोधरा से श्रद्धा और इड़ा की तुलना करने से तथा ‘भारत-भारती’ से ‘चंद्रगुप्त’ या ‘स्कंदगुप्त’ की राष्ट्रीयता की तुलना करने से एक ही समय की दो काव्य-दृष्टियों में अतीत और राष्ट्रीयता के प्रश्न पर स्पष्ट अंतर दिखाई दे देगा. इसी अंतर के कारण गुप्त जी की कृतियों का आज सिर्फ ऐतिहासिक महत्व मात्र रह गया है जबकि प्रसाद की कृतियां काल का अतिक्रमण करते हुए आज भी उतनी ही प्रासंगिक और संदर्भवान बनी हुई हैं.
वैसे अतीत, संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रश्नों पर मैथिलीशरण गुप्त से प्रसाद की तुलना की जगह दूसरे छायावादी कवि निराला से तुलना अधिक सार्थक है. विजय बहादुर सिंह इस तुलना से बचते हुए दिखाई देते हैं पर, कहीं-कहीं संकेत जरूर कर देते हैं. निराला के सांप्रदायिक इतिहास-बोध की तुलना में प्रसाद का इतिहास-बोध कितना सुसंगत और प्रगतिशील है इसे ‘तुलसीदास’ और प्रसाद की कविता ‘महाराणा का महत्व’ के विश्लेषण से जाना जा सकता है. जहां तुलसीदास का नायकत्व इस्लाम के विरुद्ध है वहीं महाराणा प्रताप के महत्व को स्थापित करते हुए भी प्रसाद कहीं भी अकबर विरोधी नहीं होते हैं. महाराणा, रहीम खानखाना और अकबर तीनों का जिस उदात्तता के साथ चित्रण इस कविता में है, वह प्रसाद ही कर सकते थे. यह अकारण नहीं है कि सांप्रदायिक सोच वाले लोग निराला का तो एक हद तक इस्तेमाल कर लेते हैं लेकिन प्रसाद का बिल्कुल नहीं कर पाते हैं. विजय बहादुर जी प्रसाद और निराला के इतिहास बोध पर भी समग्रता से विचार कर सके तो और बेहतर होगा.
विजय बहादुर सिंह प्रसाद के उन प्रगतिशील पक्षों को सामने लाते हैं जो वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान हैं. इस लिहाज से वे प्रसाद का आधुनिक भाष्य प्रस्तुत करते हैं. हिंदी का पाठक प्रसाद के चिंतन और दर्शन को एक खास ‘फ्रेमवर्क’ और परिपाटी से देखने को अभ्यस्त रहा है. इसी का परिणाम है कि प्रसाद की पहचान एक ऐसे दार्शनिक रचनाकार की बनी जिसकी मूल प्रवृत्ति यथार्थ से पलायन है. विजय बहादुर सिंह इस मान्यता का जोरदार खंडन करते हैं. उनका मानना है कि प्रसाद का चिंतन मूलतः औपनिषदिक है और वे पुराणों के विरोधी हैं. वे लिखते हैं-
‘‘प्रसाद पुराणवादियों की तरह किसी गणेश, सरस्वती या काली-दुर्गा की वरदायी शक्ति का हवाला नहीं देते. वे नहीं मानते कि मनुष्य के बाहर कोई अन्य ऐसी शक्ति है जो किसी पूजा अर्चना से प्रीत होकर किसी साधक कवि या लेखक पर एक दिन बरस पड़ती है. तथापि, वे प्रकृति से बड़ी सत्ता मनुष्य को भी नहीं मानते. यही प्रसाद का यथार्थवाद है, आधुनिकतावादी भी, जो भारत की अपनी विश्व दृष्टि रही है.’’
इस प्रकरण में विजय बहादुर सिंह निराला की चर्चा करते हैं जिनके रचना संसार में पौराणिक देवी-देवता भरे पड़े हैं. निराला के प्रार्थना गीतों और यहां तक कि ‘राम की शक्ति पूजा’ में भी दैवीय शक्तियों के प्रति शरणागत हो जाने का भाव है. इससे दोनों कवियों में एक बहुत बड़ा फर्क आ जाता है जिसे रेखांकित करते हुए विजय बहादुर सिंह लिखते हैं,
‘‘निराला आत्मा से बाहर की किसी अन्य दैवी शक्तियों के प्रति भी आस्थावान हैं, जबकि प्रसाद आत्मा की ही शक्ति को एकमात्र शक्ति मानते हैं.’’
प्रसाद के चिंतन में मनुष्येत्तर की नहीं मनुष्य का केंद्रीय महत्व है. इसीलिए, वे भक्तिवादी जीवन-दृष्टि से भी सहमत नहीं है. यह जीवन-दृष्टि मनुष्य से अधिक किसी उद्धारक देवी-देवता को तरजीह देती है . वहां मनुष्य की सत्ता नगण्य हो जाती है. प्रसाद स्पष्ट लिखते हैं कि
‘‘जिन-जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था, उन्हें एक त्राणकारी शक्ति की आवश्यकता हुई.’’
आत्मविश्वास से रहित लोग ही किसी त्राणकारी शक्ति की तलाश में भक्ति की ओर जाते हैं. मनुष्य को महत्वहीन मानने वाली भक्ति वादी जीवन-दृष्टि का निषेध कर प्रसाद एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और मनुष्य-केंद्रित भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे. धर्म के संबंध में ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में धातुसेन का यह कथन देखना प्रासंगिक है-
‘जिस धर्म के आचरण के लिए पुष्कल स्वर्ण चाहिए, वह धर्म जन-साधारण की संपत्ति नहीं.’’
प्रसाद बार-बार धर्म और संस्कृति की विकृत व्याख्या के समानांतर उसके वास्तविक स्वरूप की याद दिलाते हैं. विजय बहादुर सिंह सही लक्षित करते हैं कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के केंद्रीय प्रश्न ‘हम कौन हैं’ का सबसे सटीक उत्तर एकमात्र प्रसाद ही देते हैं.
इन मुद्दों से इतर प्रसाद की स्त्री-दृष्टि पर भी बात आवश्यक है. विजय बहादुर सिंह ने भी इस पर गंभीरता से विचार किया है. दरअसल, किसी रचनाकार की स्त्री-दृष्टि और पक्षधरता का पता इससे चलता है कि वह अपने स्त्री पात्रों को कौन सी भूमिका देता है और पुरुष की तुलना में उसे कहां ‘लोकेट’ करता है. इस दृष्टि से देखें तो प्रसाद अपने समकालीन रचनाकारों से ही नहीं बल्कि बाद के रचनाकारों से भी बहुत आगे दिखाई देते हैं. ‘कामायनी’ की श्रद्धा अपनी वैचारिक निर्मितियों के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध दोनों की आलोचना का पात्र बनती है, पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ‘श्रद्धा’ जैसी बौद्धिक स्त्री पात्र प्रसाद के समकालीन या उनके बाद के किसी रचनाकार के पास है? विजय बहादुर जी लिखते हैं कि
‘‘मनु के जीवन में वह प्रेरणा भी है, जीवन-संगिनी और मार्ग-निर्देशिका भी. उसमें प्रतिवाद की शक्ति भी है और प्रबोधन की भी.’’
श्रद्धा-सर्ग के बारे में उनकी टिप्पणी गौरतलब है-
‘जीवन से विरक्त हो उठे लोगों के लिए जैसे वह एक नई गीता का प्रवचन हो जिसमें अर्जुन की जगह विरक्त मनु और कृष्ण की जगह श्रद्धा बैठी हो.’’
श्रद्धा और इड़ा जैसे पात्रों को पुनर्सजित करके प्रसाद स्त्री की एक नई भूमिका का स्वप्न देख रहे थे. बौद्धिक और सामाजिक स्तर पर स्त्री को न सिर्फ पुरुष के समानांतर खड़ा करना बल्कि उसे नेतृत्वकारी भूमिका देना प्रसाद को अपने समय से बहुत आगे का रचनाकार साबित करता है. यहां उनके ‘कंकाल’ उपन्यास को भी याद करना प्रासंगिक होगा जिसमें वे पिता नाम की संस्था को ही लगभग ध्वस्त कर देते हैं.
‘ध्रुवस्वामिनी’ का यह कथन तो मानो स्त्री स्वतंत्रता का उद्घोष ही है-
‘‘मैं केवल यही कहना चाहती हूं कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-संपत्ति समझ कर उन पर अत्याचार करने का जो अभ्यास कर लिया है वह मेरे साथ नहीं चल सकता.’’
विजय बहादुर सिंह की यह किताब निश्चय ही प्रसाद संबंधी मूल्यांकन में एक नया प्रस्थान बिंदु है. पुस्तक से गुजरने के बाद हमें आश्चर्य होता है कि प्रसाद को ऐसे भी देखा और समझा जा सकता है. यह पुस्तक प्रसाद के प्रति रूढ़ हो चुके ‘कॉमनसेंस’ को तोड़ने वाली है. विजय बहादुर सिंह मानते हैं कि छायावाद वस्तुतः भारतीयता का एक नव क्रांतिकारी संस्करण है. मुझे कहने दीजिए कि उनकी यह पुस्तक ‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद’ परंपरागत प्रसाद का क्रांतिकारी भाष्य है.
‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद’ संस्करण- 2021, लेखक, विजय बहादुर सिंह,
प्रकाशन, साहित्य भंडार इलाहाबाद-221103, मूल्य ; 650 रू0
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दिनेश कुमार हिंदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित. हिंदी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका हंस में 2012 से 2018 तक सृजन परिक्रमा नामक नियमित स्तम्भ लेखन. मुक्तिबोध: एक मूल्यांकन तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल: एक मूल्यांकन नाम से दो आलोचना पुस्तकें प्रकाशित. संप्रति: असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय. |
प्रवाहपूर्ण समीक्षा है। पढ़ता ही चला गया। इतना अच्छा लिखा है कि लगा कि और लिखा होता तो और पढ़ता जाता। इस पुस्तक को पढ़ते हुए मेरी भी कुछ ऐसी ही धारणा बनी है। लेकिन लेखक ने और फिर प्रस्तुत समीक्षक ने जाने-अनजाने प्रसाद बनाम निराला, यानी एक को बड़ा बताने के लिए दूसरे को छोटा साबित करने वाला दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया है जो स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। फिर, इस समीक्षा में लेखक की आलोचना भाषा पर भी चर्चा होनी चाहिए। विजय बहादुर सिंह के लेखन में कई जगहों पर आलोचनात्मक भाषा का सतही उदाहरण भी देखने को मिलता है, जिसकी शिकायत ज़रूर की जानी चाहिए। अभी इनकी नवीनतम पुस्तक ‘आचार्य नंददुलारे वाजपेयी’ पढ़ रहा हूँ, तमाम विशेषताओं के साथ उसमें भी यह कमजोरी है और यहीं मुझे उनमें सजगता की कमी लगती है। समीक्षक को समीक्षा करते हुए लेखक की “वास्तविक समीक्षा” करनी चाहिए, केवल पुस्तक के परिचय और प्रचार तक सीमित न रहना चाहिए। पुस्तक के प्रति नये पाठकों को जिज्ञासु बनाना उसका पहला काम है तो उसकी शक्ति के साथ साथ सीमा बतलाना एक नैतिक जिम्मेदारी भी है। मुझे श्री दिनेश कुमार से ऐसी उम्मीद रहेगी।
विजय बहादुर सिंह अक्सर अपनी आलोचना दृष्टि से चमत्कृत करने वाले हिंदी के लगभग अंतिम आलोचक हैं।
उल्लेखनीय किताब और अच्छी समीक्षा। बधाई!
आपकी विस्तृत समीक्षा न केवल आलोच्य पुस्तक के वैशिष्ट्य को समग्रता से उभारती है बल्कि उन बिंदुओं की ओर भी इंगित करती है जिन पर चर्चा होनी चाहिए। प्रसाद ने अतीत और इतिहास को लेकर जो लिखा उसके लिए अपने जीवन काल में पर्यापप्र आलोचना झेलनी पड़ी थी लेकिन उनकी दृष्टि की व्याप्ति को समझ पाना सतही आलोचकों के वश की बात नहीं थी और इस मर्म को कला आलोचक विजयबहादविज सिंह ने जिस गंभीरता से समझा और समझाया है, यह निश्चित तौर पर प्रणम्य है। प्रसाद के रचनात्मक अवदान और विश्व दृष्टि को सामने लाने के लिए आदरणीय विजय बहादुर जी को प्रणाम एवं आपकी गंभीर पारखी आलोचना को भी धन्यवाद जिसने इस पुस्तक को पढ़ने के लिए प्रेरित किया है। प्रसाद मेरे प्रिय रचनाकार हैं और उन पर केंद्रित पुस्तक को पढ़कर उन्हें समग्रता से जानने का एक अवसर और समझने की एक नयी दृष्टि मिलेगी, इस विषय में दो राय नहीं है। पुनः लेखक और समीक्षक दोंदो को बधाई। 💐🙏
‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जय शंकर प्रसाद’ में बिजय बहादुर सिंह ने प्रसाद के प्रति प्रख्यात आलोचकों,लेखकों और मार्क्सवादी विचारकों के द्वारा बनी-बनाई अबतक की रूढ़ मान्यताओं को तोड़ने और उनकी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि को हमारे सामने रखने का एक गंभीर प्रयास किया है।रूढ़ आलोचना की कसौटी पर भारतीय अस्मिता की खोज में उन्हें अक्सर सांप्रदायिक पुनरुत्थानवादी मानकर विशेष महत्व नहीं दिया गया। लेकिन यह मानना कि पुराणों और मिथकों को अपना काव्य-वस्तु बनाने से निराला का इतिहास-बोध सांप्रदायिक हो जाता है,सही नहीं लगता। प्रगतिशील तत्व मिथकों से भी लिए जा सकते हैं। कुछ बिन्दुओं पर असहमति के बावजूद दिनेश जी की समीक्षा और यह आलोच्य कृति बहुत मूल्यवान है।प्रसाद को अबतक जिस कोण से देखा-समझा जाता रहा है,उससे बिल्कुल एक भिन्न दृष्टि । उन्हें साधुवाद !
अब तक पुस्तक नहीं पढ़ी है लेकिन कई पुस्तक समीक्षाओं में इतना दम होता है कि वे पुस्तक पढ़ने कि जिज्ञासा को और बढ़ा देती हैं आलोचक दिनेश कुमार द्वारा लिखी इस समीक्षा में वो दम है, साथ ही इस समीक्षा में प्रचार तंत्र से अलग हटकर पुस्तक की आंतरिक अर्थसत्ता के उद्घाटन के साथ साथ समकालीन संदर्भों और जयशंकर प्रसाद से संबंधित तमाम तरह के वाद विवाद को संवाद के केंद्र में स्थापित करने का लक्ष्य भी निहित है। ऐसी समीक्षाएं ही आलोचना के लिए खाद पानी का का करती हैं, दिनेश कुमार इस आधार पर हिंदी आलोचना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं, न जाने कब पुरुस्कार समितियाँ दलों के जमघट से आज़ाद होंगी और ऐसी आलोचनाओं को पुरस्कृत करेंगी। बहुत बधाई दिनेश जी। आपसे ऐसी उम्मीदें लगातार रहेंगी लिखते पढ़ते रहें।
आज मैंने विजय बहादुर सर जी की इस किताब के समीक्षा जो की डॉ. दिनेश सर ने किया है मैंने अच्छे से पढ़ा।।
मैं जब समीक्षा पढ़ना शुरू किया तब लगा जैसे प्रसाद जी के रचना को मैंने कभी जाना ही नहीं था, हा सायद ये सच भी हैं, मैं उनकी रचनाओ तक ही सीमित था,
मगर प्रसाद और निराला, प्रेमचंद, गुप्त जी इन सब मे प्रसाद अपने समय में देश की स्थिति और स्त्री की दशा को ध्यान में रखत्ते हुए, औपनिवेशिक सरकार का इस कदर विरोध किया की कही भी संप्रदायिकता का झलक उभर न पाया, क्योकिं उसके केंद्र मे इस समाज के स्त्री और देश के गरीब लोग आ रहे थे
बिल्कुल यहाँ मैंने पाया कि प्रसाद निम्न रचनाकारों से बिल्कुल अलग ही राह पर अपने रचनाओ को उन्मुख किया है
जो भविष्य को भी हमेशा प्रेरित करता रहेगा, उनकी हर रचना
हमें आगे जीवन के लिए भी अपनी समीक्षा के लिए हर युग को पुकारती रहेगी
आज प्रसाद जी के बारे में इतनी महत्वपूर्ण जानकारी के लिए
इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के अ. प्रोफेसर डॉ. दिनेश सर का आभार ।
आपकी समीक्षा हमें बहुत हद तक प्रसाद जी के रचनाओ के करीब जोड़ने का प्रयास किया है
आभार 🌹💐🙏
आपका विधार्थी
योगेंद्र चौरसिया
M. A hindi 2nd semester
इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय
“प्रकाशित पुस्तक की क्रांतिकारी विशेषताओं और समकालीन समय में इसकी उपादेयता को स्पष्ट समझ के साथ रोचक तरीके से प्रस्तुत करती एक समीक्षा, जिसे पढ़कर पाठक प्रस्तुत पुस्तक के पृष्ठों से गुजरने को लालायित हो जाए।”
प्रसिद्ध युवा आलोचक डॉ दिनेश कुमार की समीक्षा पढ़कर ऐसा लगता है मानो विजय बहादुर सिंह की इस पुस्तक में प्रसाद-साहित्य का पुनर्निर्माण हो रहा हो—उसे देखने-समझने की परंपरागत दृष्टि को नई आँखें मिलने के साथ ही अध्याय-दर-अध्याय वैचारिक पूर्वग्रहों के भी चश्मे उतर रहे हों। पाठकीय ललक को जागृत करने के अतिरिक्त यह समीक्षा पुस्तक के हवाले से कई नए बिंदुओं की ओर इशारा करती है, जिसपर नये सिरे से बातचीत और शोध किये जाने की आवश्यकता है। ‘प्रसाद और निराला की इतिहास-दृष्टि’, ‘प्रसाद की रचना-दृष्टि : एक संघर्षरत जाति के संपूर्ण जीवन-दृष्टि की पुनर्रचना’, ‘संस्कृति के सांप्रदायीकरण की खाल उधेड़ने में अतीत के पुनर्निर्माण की महत्ता’, ‘प्रसाद और उनके समकालीन रचनाकारों के साहित्य में राष्ट्रवाद व राष्ट्रीयता का स्वरूप’, ‘प्रसाद की पुराण-विरोधी और औपनिषदिक दृष्टि’ तथा ‘प्रसाद-साहित्य में स्त्री की नेतृत्वकारी भूमिका’ कुछ ऐसे ही बिंदु हैं। विजय बहादुर सिंह के अनुसार यदि छायावाद भारतीयता का नव क्रांतिकारी संस्करण है, तो उपर्युक्त बिंदुओं के परिप्रेक्ष्य में यह उम्मीद की जा सकती है कि प्रसाद इस संस्करण के प्रतिनिधि रचनाकार के रूप में स्वीकृत होंगे।
जयशंकर प्रसाद को नये ढंग से परिभाषित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य आदरणीय श्री विजय बहादुर सिंह ने किया है। अहा! अद्भुत ! हिंदी साहित्य में एक और सितारे का आगमन है यह शोधपरक पुस्तक, जो लम्बी साधना, अनुपम योग्यता और रचनात्मक कौशल के बिना लिखी नहीं जा सकती, लेकिन जितना महत्व एक लेखक का होता है अपनी रचनात्मकता में उतना ही महत्व एक समीक्षक का भी होता उस पुस्तक को यथेष्ठ मंच पर स्थापित करने में और इस दृष्टि से दिनेश कुमार जी की समीक्षात्मक दृष्टि का महती योगदान है ….ढेर सारी शुभकामनाएं।।।।
दिनेश जी के इस आलेख की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह साहित्य-प्रेमी पाठक को परिधि से केंद्र की ओर उन्मुख करने में सक्षम है।
इस आलेख से गुजरते हुए विजय बहादुर सिंह की पुस्तक ‘जातीय अस्मिता के प्रश्न और जयशंकर प्रसाद’ को पढ़ने के लिए हम उत्सुक होते हैं।
भारतीय बुद्धिजीवियों में औपनिवेशिक ज़हनियत वाले अनेक ‘उखड़े हुए लोग’ हैं जो आज भी विदेशों में इस बात का उल्लेख करते नहीं थकते कि भारत में अंग्रेज़ी बोलने लिखने वाला बहुत बड़ा मध्यवर्ग है जो यूरोप से तालमेल बिठाने में सक्षम है।
इनसे विलग एक बड़ा तबका वह है जो जातीय अस्मिता को वेद,पुराण आदि तक सीमित करके देखता है।
एक तीसरा तबका भी है जो जातीय अस्मिता को जातपात से जोड़कर देखने का हिमायती है और केवल सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने से जब सत्ता नहीं मिलती दिखाई देती तो वर्तमान सत्ताधारी दल के मुकाबले और बड़ा परशुराम मंदिर और राम मंदिर बनवाने का वादा करने लगता है।
जाहिर है कि विजय बहादुर सिंह जब प्रसाद के साहित्य के संदर्भ में जातीय अस्मिता के सवाल पर विचार करते हैं तो उनका विमर्श सतही राजनीति के बजाय सभ्यतामूलक और संस्कृतिमूलक विमर्श के रूप में उभरता है।
प्रसाद के बहाने आलोचक उस जातीय अस्मिता की प्रासंगिकता का संधान करता है जो आज के भारत को तथाकथित अस्मितामूलक विचलनों से उबारकर पटरी पर ले आये।
इस महात्त्वपूर्ण पुस्तक के लिए आदरणीय Vijay Bahadur Singh जी को साधुवाद और इससे आम हिंदी पाठकों को सम्यक रूप से परिचित कराने के लिए युवा आलोचक Dinesh Kumar को धन्यवाद।
छात्र जीवन के दरम्यान जयशंकर प्रसाद को पढ़ते हुए उनके प्रति पुरातन व्यवस्था का पोषक ,अतीत जीवि छवि बन गई थी जो आज तक बनी रही।दिनेश जी की समीक्षा पढ़ने के बाद प्रसाद के प्रति बनी अतीत जीवि छवि टूटी है। प्रसाद और उनके साहित्य के प्रति नजरिया में बदलाव आया है।हाल में आई रघु ठाकुर की पुस्तक गांधी -अम्बेडकर कितने दूर कितने पास में रघु ठाकुर ने गांधी जी को एक ऐसे प्रचीन भारतीय सभ्यता के स्वप्न्न द्रष्टा के रूप में दिखाने की कोशिश की है जहाँ किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं है।हर जगह समानता है। प्रसाद भी ऐसे ही सभ्यता के स्वप्न्न द्रष्टा हैं। वे अतीत के साथ सार्थक संवाद करते हैं,वे प्रचीन उज्ज्वल पक्षों को उजागर करना चाहते हैं। आज कुछ ऐसी ताकतें हैं जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करती हैं। उन्हें न इतिहास की समझ है , न संस्कृति की। उन्हें प्रसाद से इतिहास की सार्थक व्याख्या सीखनी चाहिए। आज की राजनीति में जिस प्रकार सत्ताधारी ताकतें नागरिकता को लेकर कानून बनाती हैं, जिस प्रकार धर्म को देखने का नजरिया विकसित कर रहीं है, उसका प्रचीन भारत के मूल्यों से कोई तालमेल दिखाई नहीं पड़ता । प्रसाद की एक पात्र कहती है:- अरुण यह मधुमय देश हमारा जहाँ पहुँच अनजान छितिज को मिलता एक सहारा” प्रसाद की यह पंक्ति भारत की एक ऐसी छवि स्थापित करती है जहाँ हमारे लिए केवल मानव मात्र का महत्व है। बाकी चीजें गौड़ हैं। रविन्द्र नाथ टैगोर ने भी मानवता से बड़ा राष्ट्रवाद को नहीं माना है।वे हीरे की कीमत पर लोहा नहीं खरीदना चाहते हैं। आज सत्ता के लिए साहित्य , हाशिये की चीज हो गईं हैं। ऐसे में सत्ता के लोगों को बौद्धिक चेतना के लिए प्रेरणास्रोत का मिलना मुश्किल होता जा रहा है। हमें प्रसाद का साहित्य, इतिहास के अंधेरे में रोशनी दिखाने का काम करता है। इस रोशनी में, हमें अपने अतीत के चेहरे को देखने की जरूरत है ताकि हम वर्तमान के साथ, सार्थक संवाद कर सकें।
विजयबहादुर सिंह की पुस्तक जयशंकर प्रसाद को समझने के लिए एक नयी दृष्टि देती है। उन्होंने छायावाद के केंद्र में प्रसादजी को स्थापित कर हिन्दी साहित्य का बड़ा उपकार किया है। दिनेश कुमार सिंह की यह समीक्षा हमारे लिए बहुत मूल्यवान है।