देवदासी प्रथा का इतिहासपरक सामाजिक विवेचनगरिमा श्रीवास्तव |
हाल ही में देश में स्त्रियों के प्रति यौन-हिंसा की घटनाओं में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी देखी गयी है, जिसके आंकड़े भयावह हैं. इन घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि शिक्षा-संस्कृति, आर्थिक तरक्की के ग्राफ़ से समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता की मानसिकता में परिवर्तन का कोई सम्बन्ध नहीं है. स्त्री देह शोषण की सबसे बड़ी साईट है और रहती चली आई है. स्त्री का शोषण बहुस्तरीय है. स्त्रीवाद के तमाम आंदोलनों के बावजूद स्त्रियाँ अभी भी अधीनस्थ स्थिति में हैं. स्त्रियाँ भले ही कितने भी आंदोलनों में भाग क्यों न ले लें चाहे वह तेलंगाना का आन्दोलन हो या शाहीन बाग़ का स्त्री का संघर्ष दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है. जाति और धर्म के मायने स्त्रियों के सन्दर्भ में द्विधात्मक और बहुअर्थी हैं.ये सच है कि स्त्रियों के मामले में यौन हिंसा और शारीरिक शोषण की समस्याएं वैश्विक स्तर पर समान हैं. सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले द्वारा स्त्रियों की शिक्षा, उनके सुरक्षित रहवास की व्यवस्था जैसे मुद्दों को उठाया गया.
1942 में नागपुर में पच्चीस हज़ार स्त्रियों ने सामूहिक रूप से सभी स्त्रियों के लिए शिक्षा का अधिकार और विधायिकाओं में आरक्षण की मांग की थी, जिसके कई बिन्दुओं को डाक्टर अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल में शामिल कर लिया था. इसके बावजूद स्त्रियों को हमेशा संसाधनों का अभाव रहा विशेषकर आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ी स्त्रियों को. इन स्त्रियों के अधिकारों और ज़रूरतों को मुख्यधारा के स्त्राीवादी आन्दोलन में कभी भी अपेक्षित जगह और आवाज़ नहीं मिली.स्त्री की स्वायत्तता और अधिकारों की बात तो संविधान में की गयी लेकिन किसी स्त्री को स्त्री होने की सज़ा क्यों मिलती है, या क्यों मिलनी चाहिए इसके बारे में हमारा समाज और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चुप रहना ही चुना जिसका नतीजा है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रपट जिसमें बताया गया है कि देश में अब भी 4,50,5000 देवदासियाँ हैं. आधुनिक युग में देवदासी प्रथा को स्त्री के सांस्थानिक शोषण के औजार के रूप में पहचाना गया है. बीसवीं शताब्दी की देवदासियां अब कालगर्ल कहलाती हैं, समय बदला है उनके सांस्थानिक शोषण का स्वरूप नहीं. मूल रूप में देवदासियों को ‘ब्रह्मचारिणी’ कहा गया और उनका जीवन देवता को समर्पित समझा गया ‘देवदासी’ का शाब्दिक अर्थ है- देवता की दासी या बंधुआ सेविका. देवदासी प्रथा भारतीय मंदिर संस्कृति से उत्पन्न हुई, जिसने नृत्य-संगीत की विभिन्न शैलियों को पोषित और संरक्षित किया. उनके युवा होने को वृहत् अनुष्ठान में तबदील किया गया. इससे देवदासियों का जीवन आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुआ क्योंकि वह समाज के किसी रसूख वाले पुरुष की रक्षिता के रूप में चयनित की जाने लगी.
मंदिर को सर्वाधिक राशि दान में देने वाले व्यक्ति को देवदासी के साथ स्थायी संबंध का अधिकार मिल जाता था. बाद में वह इच्छानुसार अनुबंध भंग भी कर सकता था, इसी तरह देवदासी को भी अन्य व्यक्तियों के साथ भी संपर्क रखने की छूट थी. किसी कन्या को देवदासी बनने की बाध्यता भी नहीं थी. इतना अवश्य था कि जो परिवार अपनी ‘कन्या’ मंदिर को समर्पित करता था, वह अचानक महत्वशाली हो उठता था, दूसरी ओर ‘देवता’ को समर्पित कन्या भी सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाती थी. उसे ‘नित्य सुमंगली’ अथवा ‘अखंड सौभाग्यवती’ कहा जाता था.
समय ने करवट ली. मध्य युग आते-आते स्त्रियों की दशा हीनतर हो गई. शूद्र और निम्न जातियों की स्त्रियों की दशा और भी बदतर होती गई. स्त्रियाँ अशिक्षित और निस्सहाय थीं, वे भोग विलास की सामग्री बनकर रह गयीं. दिन के उजाले में उच्चवर्गीय व्यक्ति शूद्र स्त्रियों की छाया से भी बचते थे, वहीं रात के अंधेरे में ‘अस्पृश्य’ स्त्रियाँ उनकी वासना पूर्ति का साधन बनती थीं. राज्य और धर्म व्यवस्था ने इस प्रथा को पुष्ट करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जहाँ कहीं विरोध के स्वर उठे, निहित स्वार्थों के लिए उन्हें दबा दिया गया. प्रस्तुत लेख देवदासी-प्रथा के सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक आधार को विश्लेषित करने का प्रयास है, जिसकी प्रेरणा मुझे मेरी एक अनाम विद्यार्थिनी थी उससे मिली, जो देवदासी-पुत्री थी और पिता के लिए तरसते-बिलखते मानसिक रोग का शिकार हो गयी. आदिकालीन सामंती समाज की विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक संरचना की कोख में ‘देवदासी’ प्रथा के बीज हैं. दक्षिण भारत के सभी राज्यों में ‘देवदासी प्रथा’ धर्म के विरूपित पक्ष को उजागर करती है.
समय और परिस्थितियाँ बदली हैं लेकिन स्त्री समानता और स्त्री अधिकारों के इस सूचना युग में भी राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार आज भी हजारों की संख्या में दलित स्त्रियाँ देवदासी बनने के लिए बाध्य हैं. महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर 250,000 दलित देवदासियां मौजूद हैं. आंध्र प्रदेश में इन देवदासियों को ‘जोगिनी’, आसाम में ‘नटी’, कर्नाटक में ‘बासवी’, गोवा में ‘भवानी’ जैसे अनेक नामों से पुकारा जाता है. देवदासी प्रथा की उत्पत्ति के बीज प्राचीन सामाजिक-आर्थिक संरचना में छिपे हैं. ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी से मध्यकाल का प्रारंभ माना जाता है. इसी समय बड़े पैमाने पर राजनीति, सेना और धर्म से जुड़े हुए लोगों को अनुदान और वेतन के रूप में जमीनें देने की प्रथा आरंभ हुई. वेतन के तौर पर जमीन देने की प्रथा दक्षिण भारत में सातवाहन शासकों से शुरू हुई, ऐसा माना जाता है, पल्लव राजाओं के शासन काल तक आते-आते सिक्के बनने लगे थे. पल्लवों द्वारा सिक्कों पर लिखे जाने के उदाहरण आंध्र प्रदेश में तीसरी-चौथी शताब्दी में मिलते हैं. सिक्कों पर खुदे लेखों से यह भी पता चलता है कि भूमि-हस्तांतरण के साथ-साथ उन लोगों का हस्तांतरण भी हो जाता था जो लोग भूमि को बंटाई पर जोतते थे.
वेतन में भूमि मिलने से ब्राह्मण-वर्ग के पास अधिकाधिक भूमि और साथ ही कामगार संकेन्द्रित होते चले गए, इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर आ गई. उधर शासक वर्ग और ब्राह्मण वर्ग में बहुत पहले से प्रतिद्वंद्विता चली आ रही थी.[i] सिक्कों का प्रचलन सीमित होने के कारण ग्राम की संकुचित अर्थव्यवस्था में ही खर्च करने की बाध्यता थी. इस स्थिति ने मंदिर-निर्माण प्रक्रिया को सुस्थापित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. मंदिर-निर्माण को लेकर राजसी परिवारों और संपत्तिशाली अभिजात्य वर्ग में कड़ी प्रतिद्वंद्विता रहती थी. कौन कितना भव्य और ऐश्वर्यशाली मंदिर बनवाता है, इस बात को लेकर पीढ़ियों से टकराहटें चली आती थीं. ग्राम का मुखिया समकालीन शासकों और अपने पूर्वजों से आगे बढ़कर मंदिर बनवाना चाहता था ताकि लोग उसका नाम लें. पल्लव राजा महेन्द्रवर्धन प्रथम ने एक शिलालेख में खुदवाया कि उसने एक ब्रह्म मंदिर बनवाया और उसमें परंपरागत सामग्री जैसे ईंट, लकड़ी, धातु का उपयोग नहीं किया. उसने अपने आपको ‘विचित्रचित्त’ की उपाधि दी.
पुरी के विशाल मंदिर को टक्कर देने के लिए गंगा राजा नरसिंहदेव प्रथम ने कोणार्क का मंदिर बनवाया था. उड़िया स्रोतों में इसका उल्लेख मिलता है.
भक्ति संस्कृति के विकास ने भी मंदिर निर्माण क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया. भक्ति आंदोलन ने सभी वर्गों और जातियों के लोगों को अपने-अपने आराध्य देव के पूजन और आराधन का अवसर दिया. ईश्वर आराधना के अंतर्गत मंदिर निर्माण, मंदिरों का पुनरुद्धार, मंदिर प्रांगण का परिष्कार, आराध्य का स्तुतिगान और नृत्यगान आदि आते थे. नयनार संतों के उपदेशों ने भी मंदिर व्यवस्था को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने जनता को उचित व्यवहार और कर्म का उपदेश दिया, इनमें ‘तिरूवलूर’ नामक संत काफी लोकप्रिय हुए. मंदिर निर्माण, उसके रखरखाव की ओर जनता को प्रेरित करने और इस तरह मंदिर संस्कृति के पक्ष में जनाधार तैयार करने में उनका योगदान रहा.
‘मंदिर संस्कृति’ ने सैकड़ों लोगों को आश्रय एवं रोजगार दिया. मंदिरों को बड़े पैमाने पर भू-संपदाएँ दान में मिलती थीं, जिनपर खेती करने के लिए श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती थी. आभूषण एवं बहुमूल्य वस्तुएँ- जो मंदिरों में दान के रूप में आती थीं- उसे मंदिर के व्यवस्थापक उधार पर लगाते थे.[ii]
खेती की आय तथा दान से प्राप्त आय के बल पर मंदिर संस्कृति दिनों-दिन वैभवशाली होती गई. इस काल में मंदिर शक्ति पीठों या धनाढ्य संस्थानों में तबदील होते गए. मंदिरों की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती थी. इसके अतिरिक्त मंदिर सेवाओं को आकर्षण बनाने के लिए नृत्यगान करने वाली स्त्रियों की भी नियुक्ति की जाने लगी. इसी के अनुरूप ईश्वर का आश्रय (मंदिर) अब ‘कोचिल’ नाम से पुकारा जाने लगा, जिसका अर्थ था- ‘राजा का महल’. कोचिल शब्द का पहला प्रयोग पल्लव शिलालेखों में मिलता है.[iii]
मंदिरों में धन और ऐश्वर्य के साथ-साथ पूजन-अर्चन के विधि-विधानों और उत्सव के आयोजनों में दिनों दिन बढ़ोत्तरी हुई. साथ ही पहले से कई गुना ज्यादा पुजारियों, कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ने लगी. पल्लव राजा परमेश्वररामन-प्रथम के शासन-काल में कुरम के विमंदिर में केवल चार कर्मचारी कार्यरत थे जो मंदिर में नित्य- पूजा आरती की व्यवस्था के अतिरिक्त मंदिर मंडपम् में जल का छिड़काव करते थे, मंदिर परिसर स्वच्छ करते थे और महाभारत के पदों का नित्य गान करते थे, लेकिन अगली शताब्दी तक आते-आते मंदिर के आनुष्ठानिक क्रियाकलाप इतने बढ़ गए कि सैकड़ों लोगों को उसमें रोजगार मिला.[iv]
नवीं शताब्दी आते-आते पूजा-अनुष्ठान की पद्धतियाँ ज्यादा जटिल और विशुद्ध हो गयीं. देव प्रतिमा को इत्र एवं सुगंधित जल से नहलाना, कीमती वस्त्र, महंगा वस्त्राभूषण एवं नैवेध समर्पित करना जरूरी समझा जाने लगा. अंगभोग एवं रंगभोग का आयोजन देव प्रतिमा के लिए किया जाता था. इसका उल्लेख राष्ट्रकूट एवं चोल लेखों में मिलता है. अंगभोग एवं रंगभोग के आयोजन में नर्तकियाँ शामिल होती थीं. सन् 1071 ई. में पिदारियार मंदिर में 24 नृत्यांगनाओं को देवता के सम्मान में नृत्य करने के लिए नियुक्त किया गया, इनके लिए एक नृत्य शिक्षक की नियुक्ति भी की गई थी. कृष्ण तृतीय के समय का एक शिलालेख यह भी बताता है कि मंदिरों में नृत्य करना एक वंशानुगत पेशा बन गया था, जिसमें ‘देवदासी प्रथा’ के बीज छिपे थे.
बासवी व्यवस्था ने भी देवदासी प्रथा को पुष्ट करने का काम किया. बासवी व्यवस्था में यदि किसी पुत्रहीन व्यक्ति की मृत्यु हो जाती थी तो उसकी संपत्ति की उत्तराधिकारी उसकी वही पुत्री हो सकती थी जिसे ‘बासवी’ कन्या के रूप में दान कर दिया गया हो. वह बासवी कन्या मृत पिता की अंत्येष्टि और अन्य सभी कर्मकाण्डों का पालन कर सकती थी, साथ ही उसे पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकारी की हैसियत से हक भी मिलता था. उसे इस बात की भी छूट थी कि मंदिर-सेवा के साथ-साथ अपनी जाति या ऊँची जाति के किसी व्यक्ति से विवाह कर सकती थी. उसका पुत्र संपत्ति का उत्तराधिकारी बनता था और पुत्र का जन्म होने पर उसका बासवी बनना अनिवार्य था. बासवी व्यवस्था में यदि कोई लड़की अविवाहित रह जाती थी तो उसका विवाह किसी वृक्ष से कर दिया जाता था और उसे मंदिर की सेवा में समर्पित कर दिया जाता था. उसे पुरुषवत् अधिकार प्राप्त होते थे. इस तरह ऐसे वे सभी परिवार जिनमें वंश चलाने के लिए पुत्र का अभाव होता था, उनमें वंश परंपरा का लोप नहीं होता था, क्योंकि पुत्रियों के मंदिर सेवा में समर्पित होने से वे पुत्रवत् सारे कर्म संपादित करने के साथ-साथ संपत्ति की अधिकारिणी होती थी.
महाकाव्यों में आए विभिन्न प्रसंगों से यह पता चलता है कि ईसा की नवीं-दसवीं शताब्दी तक भारत के अलग-अलग भागों में देवदासी प्रथा गहरी जड़ें जमा चुकी थी.[v]देवदासी प्रथा के प्रचार-प्रसार के पीछे जो भी सामाजिक-आर्थिक कारण रहे हों, इतना तय है कि स्त्री देह का धर्म के नाम पर सहज उपभोग करना ही इसके मूल में था.
धर्म और वंश के नाम पर छोटी-छोटी लड़कियों को देवताओं को समर्पित करना भले ही अमानवीय लगता हो लेकिन समर्पण के समय मंदिर संस्कृति के वृहत् अनुष्ठान देवदासी बनने जा रही स्त्री को वैशिष्ट्य बोध देते थे. ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में अपनी भारत यात्रा के अनंतर मुल्तान के सूर्य मंदिर में देवदासियों का नृत्य देखा था.[vi]
अलबरूनी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मंदिरों में देवदासियाँ बाहर के व्यक्तियों से दैहिक संबंधों के बदले धन लेती थीं, वह आय राजा अपने सैन्य खर्च के लिए इस्तेमाल करता था.[vii]
अरबयात्री अबूज़ैद अल हसन ने, जो 867 ई. में भारत आया था, लिखा कि देवदासियाँ वेश्यावृत्ति से जो कुछ कमाती थीं वह मंदिर की व्यवस्था और रखरखाव के लिए पुजारियों द्वारा खर्च किया जाता था.[viii]
इतिहास साक्षी है कि मंदिर संस्कृति में हजारों-लाखों स्त्रियों को धर्म के नाम पर वेश्यावृत्ति के गर्त में धकेला गया. एक बार मंदिर को समर्पित किए जाने के बाद स्त्री का सतीत्व बचना असंभव था. तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर जिसे चोल नरेश राजराजा ने बनवाया था उसमें ग्यारहवीं शती के आरंभ में चार सौ देवदासियां थीं, जिन्हें बाद में चोल साम्राज्य के विभिन्न मंदिरों में भेज दिया गया.[ix]इन चार सौ देवदासियों के नाम मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण किए गए.
ग्यारहवीं से तेरहवीं शती के बीच देवदासी प्रथा अपने चरमोत्कर्ष पर थी. इस काल के शिलालेखों में देवदासियों का उल्लेख बहुतायत में मिलता है, जो चौदहवीं शताब्दी आते-आते अपेक्षाकृत कम हो जाता है. इसका यह अर्थ नहीं है कि देवदासी प्रथा समाप्तप्राय थी. बल्कि इस प्रथा ने दक्षिण भारतीय समाज और धार्मिक जीवन में अपनी ठोस जड़ें जमा ली थीं. इस प्रथा को धर्माश्रय के साथ-साथ राज्याश्रय भी मिला. तंजौर के शिलालेखों में देवदासियों (चार सौ) का उल्लेख मिलता है, जिनको नृत्य-शिक्षा देने के लिए राज्य की ओर से बारह नृत्यगुरु नियुक्त किए गए थे. नृत्य गुरुओं को देवदासियों से ज्यादा पारिश्रमिक मिलता था. वे देवदासियों को नृत्यकला में पारंगत करने के अलावा पुरुषों को रिझाने के लिए भाव-भंगिमाएँ भी सिखाया करते थे. इन्हें वार्षिक वेतन के रूप में धान (चावल) दिया जाता था.
देवदासियाँ मंदिरों को समृद्धशाली बनाती थीं. देवदासियों की अपनी समितियाँ भी होती थीं. आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के कुछ शिलालेख उनके क्रियाकलापों पर भी प्रकाश डालते हैं. देवदासियों का आम जनता पर खासा प्रभाव होता था. एक केन्द्र या समिति में 300 से 500 देवदासी-सदस्य हुआ करती थीं. ये आधुनिक युग की ‘यूनियन’ की पद्धति पर बनी समितियाँ हुआ करती थीं जो द्राक्षरमा, भीमावंरम, पल्लकोल, श्रीकाकुलम, चेवरोल्लु और वेल्लुपुर जैसे सभी व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण नगरों में स्थित थीं.[x]कुछ राज्यों में देवदासियाँ मंदिर व्यवस्था में महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका भी निभाती थीं. 1141 ई. में एक देवदासी ने सोमेश्वर मंदिर में ‘अखण्ड दीप’ जलाने के अधिकार के लिए मंदिर को पचास भेड़ें दान में दी. इस दान की व्यवस्था सोमेश्वर मंदिर के स्थानपति (जो मंदिर की देखभाल के लिए स्थानीय रूप से उत्तरदायी होता था) और तीन सौ देवदासियों और निबंधकर्ता (मंदिर अधिकारी) ने मिलकर की थी.[xi]
देवदासियों को मंदिर संस्कृति में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था. कहने के लिए तो ये ‘देव पत्नियाँ’ होती थीं, जिनका विवाह कौमार्यावस्था में ही देव प्रतिमाओं से कर दिया जाता था. लेकिन, व्यावहारिक सच्चाई कुछ और थी. मंदिर व्यवस्थापक और इनके ग्राहक दोनों मनुष्य होते थे- जो इनका नित्य उपभोग करते थे. कहीं-कहीं देवदासियाँ अपने रक्षकों के साथ विवाह कर गृहस्थी बसाने के लिए स्वतंत्र भी थी. इतिहास में ऐसे कई प्रसंग हैं जो बताते हैं कि कई बार उच्च पदस्थ एवं अभिजात्य कुल के लोगों ने देवदासियों से विवाह किया, तथा राजकुमारों से भी उनके संबंध बने. ‘राजतरंगिणी’[xii]में उल्लिखित है कि राजा हर्षदेव देवदासी सहजा के ऊपर मुग्ध हो गए. बाद में सहजा का प्रेम संबंध हर्षदेव के भाई उत्कर्ष से बना और वह उत्कर्ष की रानी बनकर राजमहल में प्रविष्ट हो गई.
हर्षदेव ने जब उत्कर्ष से सिंहासन छीन लिया तो उसने आत्महत्या कर ली. हर्ष देव ने फिर से सहजा का हृदय जीतने का प्रयास किया, लेकिन सहजा तैयार नहीं हुई और सती हो गयी. एक देवदासी के सती होने की घटना अनुकरणीय कृत्य के रूप में कई जगह प्रशंसित हुई.[xiii]
राजतरंगिणी में ही इस बात का भी उल्लेख है कि दुर्लभक प्रतापादित्य ने जिस स्त्री से प्रेम किया था, वह उसे तब दिखाई दी जब उसे मंदिर-सेवा में ‘देवदासी’ के रूप में अर्पित किया जा रहा था.[xiv]
ऐसे भी कई प्रसंग मिलते हैं जहाँ ‘देवदासी’ प्रथा का प्रयोग निजी स्वार्थों के लिए किया गया. श्रावस्ती के राजा को अपने सेनापति की पत्नी उन्मादिनी से प्रेम हो गया. सेनापति को जब यह गुप्त-प्रसंग ज्ञात हुआ तो उसने राजा से यह प्रस्ताव किया कि वह पहले अपनी पत्नी को मंदिर में दान कर देगा, तब राजा उसे वहाँ से रक्षिता के रूप में ले जा सकता है. लोकापवाद से बचने का यही एकमात्र उपाय है. पत्नी को मंदिर में दान करने से सेनापति के पौरुष पर भी कोई उंगली नहीं उठायेगा और भार्या दान को धार्मिक भावना से जोड़कर लोग देखेंगे. एक बार देवपत्नी बन जाने के बाद राजा इसे पोषणव्यय या मंदिर को संपत्ति दान के बदले से आसानी से प्राप्त कर पाएगा.[xv]
इसी तरह ‘राजतरंगिणी’ में एक कथा आती है कि कश्मीर का राजकुमार एक बार पुंडरवर्धन नामक नगर में गया जो गौड़ राजा के अधीन था अब वह आधुनिक बंगाल में है – वहाँ उसे कार्तिकेय मंदिर में नृत्य समारोह दिखाने ले जाया गया. नृत्योपरांत मंदिर की सुंदर-चतुर देवदासी नृत्यांगना जिसका नाम कमला था वह राजकुमार को संभोग के लिए उसका हाथ पकड़कर अपने शयनकक्ष में लेकर गयी.
इन प्रसंगों से लगता है कि देवदासियाँ समाज में प्रेम करने के लिए स्वतंत्र थीं और इच्छानुकूल पुरुष का चुनाव कर सकती थी. लेकिन वास्तविकता यह थी कि नृत्य-निष्णात और धर्म कार्य पटु होने के बावजूद इनकी स्थिति वेश्याओं से बेहतर नहीं थी. अबूजैद ने अपने भारत-प्रवास के संस्मरणों में लिखा है-
‘‘वह (देवदासी) सार्वजनिक स्थलों पर घर किराए पर लेती है और दरवाजे पर एक परदा लटका देती है और अजनबियों के आने की प्रतीक्षा करती है. शरीर बेचने से जो धन प्राप्त होता है उसे मंदिर का पुजारी ले लेता है, जिससे मंदिर का खर्च चलता है.’’[xvi]
अलबरूनी ने भी लगभग ऐसा ही अनुभव लिखा है लेकिन वह देवदासी को होने वाली आय के ग्रहणकर्ता के रूप में राजा का नाम लेता है.[xvii]
स्पष्ट है कि देवदासी प्रथा राज्य और धर्म व्यवस्था ने इसका पक्ष लिया, लेकिन समाज में फल फूल रही इस प्रथा को आम जनता वेश्यावृत्ति से बेहतर नहीं मानती थी. कहीं-कहीं इस प्रथा के विरोध में स्वर भी दर्ज किए गए. अलबरूनी ने कहा कि कई बार ब्राह्मणों और मंदिर के कई पुजारियों ने देवदासी प्रथा का विरोध किया लेकिन राजा एवं शासन-तंत्र इसे यथावत रखना चाहता था. इसलिए कम उम्र की लड़कियों का मंदिरों में दान कभी बंद नहीं हो सका और न उनका वेश्यावृत्ति करना.[xviii]
ग्यारहवीं शती में हुए राजा जोजलदेव (राजपूताना) के नाम से मिले आज्ञापत्र में मंदिर-व्यवस्थापन को आज्ञा दी गई कि मंदिर से संबद्ध सभी उत्सवों में सभी देवदासियों (जो उस मंदिर में समर्पित की गई हो) का अपने पोषकों के साथ उपस्थित रहना अनिवार्य होगा.[xix] स्पष्ट है कि एक बार मंदिर में समर्पित हो जाने के बाद स्त्री के लिए अपने भरण-पोषण के लिए या तो किसी की रखैल बनना अनिवार्य था, या वेश्या बनना. वह केवल नाम के लिए ‘देवपत्नी’ थी. देवदासियों की संख्या मंदिर संस्कृति के अंतर्गत मंदिर विशेष की श्री-वृद्धि में येागदान करती थी. देवी-देवताओं की सवारी के आगे नृत्यपटु देवदासियां सुंदर वस्त्र पहने, झुंड के झुंड नृत्य करती चला करती थीं. दूर-दूर से लोग इस दृश्य को देखने के लिए आते थे. इससे मंदिर की प्रसिद्ध और समृद्धि में इजाफा होता था.
कई बार मंदिर व्यवस्था और देवदासियों में टकराव भी होते थे. ऐसे टकरावों में राज्य हस्तक्षेप करता था और कभी-कभी देवदासियां अपनी कामकला से मंदिर के पुजारियों को मुट्ठी में कर लेती थी. ‘कुट्टनीमतम’ में यह कथा आती है कि किस प्रकार देवराष्ट्र का राजा मंजरी नामक देवदासी के वासनात्मक नृत्य पर मुग्ध हो गया. देवदासी के साथ शयन की सुविधा के बदले में, या उत्कोच के रूप में पुजारियों को गाँव मिले.[xx]
ब्राह्मणों ने देवदासी प्रथा को प्रश्रय और संरक्षण दिया. इसके प्रमाणस्वरूप 1112 ई. में धारवाड़ जिले में मिले अग्रहार वंश के एक शिलालेख को देखा जा सकता है, इसमें कहा कहा गया है कि ब्राह्मण सेनापति चालुक्य विक्रमादित्य (चतुर्थ) ने इट्टगी (अपने मूल स्थान) पर बहुत से मंदिर बनवाए थे जिसमें जगह-जगह से, उच्चकुलीन, बुद्धिमती, चतुर और रूप-सौंदर्य की स्वामिनी रति और रंभा जैसी देवदासियों को बुलाकर राजाश्रय दिया गया. इस संदर्भ में यह भी बता देना उचित होगा कि इट्टगी के अग्रहार ब्राह्मण वे थे, जिनके बारे में यह प्रचलित था कि वेद, वेदांगों, पराविज्ञान और तर्कशास्त्र में उनको कोई पराजित नहीं कर सकता.
यह कहा जा सकता है कि चाहे वे ब्राह्मण हों या पुजारी या सामान्य जन, उन्होंने इस प्रथा को सहयोग और संरक्षण दिया. वस्तुतः सत्ता और पुजारी वर्ग दोनों एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित थे, जिसकी छत्रछाया में यह प्रथा फली-फूली.
देवदासी प्रथा का एक महत्वपूर्ण पक्ष था, इसका वंशानुगत व्यवहार. एक बार यदि किसी देवदासी को किसी अनुष्ठान या उत्सव के दौरान देवता की सवारी के आगे नृत्य करने का अवसर मिल जाता था तो उस पर उसका अखंड अधिकार हो जाता था, उसकी आगे की पीढ़ियों में यह अधिकार स्थानांतरित होता चलता था. इस अवसर पर होने वाली आय पर भी उसका अधिकार वंशानुगत होता था.
मंदिर-संस्कृति में ‘देवदासी’ बनाने की प्रक्रिया बड़ी आकर्षक थी. मध्यकाल से बीसवीं शती के प्रारंभ तक देवता को अर्पित की गयी कन्या को पुजारी द्वारा एक मंगलसूत्र पहना दिया जाता था. मंगलसूत्र पहनाने का आयोजन प्रत्येक मंदिर-व्यवस्थापन अपनी-अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप करता था. अक्सर यह आयोजन बड़ा ही भव्य होता था, जिसमें मंदिर-व्यवस्था और पुजारियों का पूर्ण सहयोग होता था. ब्राह्मणवादी व्यवस्था में स्त्री यज्ञोपवीत आदि संस्कारों से बाहर ही रखी गयी, उसके लिए केवल ‘विवाह’ संस्कार का प्रावधान किया गया. किशोरी-कुमारी को देवता को समर्पित करना ‘विवाह संस्कार’ का ही प्रतीक माना गया. रजस्वला होने के बाद कन्या का विवाह देवता की प्रतिमा से किया जाता था. इसका सामान्य तौर पर यह अर्थ होता था कि पुजारी ही ईश्वर के प्रतिनिधि के तौर पर उस कन्या से संभोग करेगा. देव को अर्पण करने की प्रक्रिया में परंपरागत विवाह संस्कार के रीति-रिवाज ही अपनाए जाते थे. ‘मधुयामिनी’ के पहले विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को ही गाया जाता था. देवदासी को ‘नित्य सुमंगली’ अर्थात् अखण्ड सौभाग्यवती माना जाता था.
विवाह-संस्कार के बाद देवदासी मंदिर में रीति-रिवाज और नृत्य संबंधी कर्तव्यों का निर्वाह करती थी. कन्या के रजस्वला होने के अवसर पर जो आयोजन किए जाते थे उनसे मंदिर के सम्मान में श्रीवृद्धि होती थी, साथ ही उच्च एवं अभिजातवर्गीय लोगों का ध्यान भी मंदिर की ओर आकर्षित होता था. जिस मंदिर में जितनी सुंदर और युवा देवदासियाँ होती थीं, उस मंदिर की प्रसिद्धि और समृद्धि उतनी ही ज्यादा होती थी. ‘देवपत्नी’ बनाने के आयोजन में समाज के प्रायः सभी वर्गों के लोग अपने-अपने ढंग से भाग लेते थे. इसी अवसर पर अभिजातवर्गीय लोग अपनी मनपसंद देवदासी का ‘रक्षिता’ के रूप में चयन कर लिया करते थे.
भारत के विभिन्न भागों में देवदासी प्रथा अपने-अपने ढंग से फैली. तमिलनाडु की देवदासी प्रथा के बारे में श्रीनिवासन ने लिखा है कि देवदासी बनने के लिए परंपरा से ही लड़की के लिए एक भव्य समारोह आयोजित किया जाता था, इसके बाद उसे अपनी बहनों, जो देवता को समर्पित नहीं होती, से अलग कर दिया जाता. मंदिर में सेवा काल के दौरान देवदासी को कठिन मानसिक और शारीरिक श्रम से गुजरना पड़ता. इसके अतिरिक्त उसे नृत्य में निष्णात होना पड़ता तथा सार्वजनिक तौर पर यह भी दिखाना पड़ता कि वह अपने किस आश्रयदाता की रक्षिता है. कोई व्यक्ति (ज्यादातर समृद्ध) यदि किसी देवदासी विशेष को रक्षिता बनाना चाहता था तो उसके रजस्वला होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी. किसी व्यक्ति की कितनी अधिक रक्षिताएँ हैं- वह समाज में उसके सम्मान को बढ़ाने वाली बात समझी जाती थी. मुस्लिम, ईसाई या निम्न जाति के लोगों के साथ देवदासियों के शारीरिक संपर्क पर पाबंदी थी. देवदासी को माँ या नानी द्वारा ब्राह्मणवंशीय या राजकीय वंश के व्यक्ति का चुनाव किया जाता था, ताकि देवदासी की संतान अच्छी नस्ल की हो. देवदासी की संतति को पिता द्वारा वैधता प्राप्त नहीं थी. वे पिता के नाम से नहीं जानी जाती थीं न ही पिता की संपत्ति में उन्हें कोई हिस्सा मिलने का ही प्रावधान था. संतानें अपने पिता से मिलने का अवसर तभी पाती थीं जब पिता उनकी माँ से मिलने आए.
उड़ीसा में देवदासियों को ‘महारी’ कहा गया. ‘महारी’ का अर्थ है वे महान स्त्रियां जो अपनी मानवीय वासनाओं पर नियंत्रण रख सकती हैं और अपने आपको पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित कर सकती हैं. ये महान नारियाँ पंचेंद्रिय पर नियंत्रण रख सकती हैं. श्री चैतन्यदेव ने देवदासियों को परिभाषित करते हुए कहा कि वे देव-सेविकाएँ हैं और नृत्य और संगीत द्वारा ईश्वर की सेवा करती हैं. ओडिसी नृत्य गुरु पंकज दास जो स्वयं ‘महारी’ परिवार से संबद्ध हैं- वे लिखते हैं-
‘‘महारी का अर्थ है- महा-रिपु-आरी, जो पाँच महान शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुका है.’’
चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महारी देवदासियों का पतन प्रारंभ हो गया था. जैसे ही मुस्लिम शासकों का आगमन हुआ, पर्दा-प्रथा उड़ीसा में प्रारंभ हो गयी. स्त्रियाँ निरंतर अपनी पहचान खोती चली गईं. 1956 के उड़ीसा गजट में केवल नौ देवदासियों और मंदिर में संगीत और वाद्य यंत्र बजाने वाले ग्यारह सदस्यों का उल्लेख है. 1980 आते-आते हरप्रिया, कोकिलप्रभा, पारसमणि और शशिमणि- ये चार देवदासियां जीवित थी. 1990 तक केवल पारसमणि ही जीवित रही. उड़ीसा के मंदिरों में बीसवीं शती के पूर्व-मध्य तक ही देवदासियों के दैनिक नृत्यों के प्रमाण मिलते हैं. 1990 के उत्तरार्ध तक पारसमणि देवदासी को जगन्नाथ मंदिर के वाषिकोत्सवों में देखा गया.
कर्नाटक में देवदासियों की येल्लम्मा परंपरा आज भी जीवित है. लड़कियों को दवी येल्लम्मा की सेवा में बहुत कम उम्र में समर्पित कर दिया जाता था. समर्पण का पूरा आयोजन विवाह जैसा होता है. देवदासियों को वेश्यावृत्ति करनी पड़ती है. इससे प्राप्त धन से उनके पूरे परिवार का जीवनयापन होता है. कर्नाटक के बगलकोट की एक रिपोर्ट के अनुसार क्योंकि येल्लम्मा देवदासियों को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई होती है अतः वेश्यावृत्ति करने से उन्हें किसी ग्लानि का अनुभव नहीं होता. येल्लम्मा के अनुयायी ज्यादातर वे लोग हैं जो जीवन के अभावों और संघर्षों के सताए हुए होते हैं. वे अपनी पत्नी, बच्चों के साथ समवेत रूप में देवी येल्लम्मा की सेवा का प्रण लेते हैं. ऐसे लोग अशिक्षित और निर्धन होते हैं. रोगी, निर्धन, अभावग्रस्त, कष्टदायी परिस्थितियों के सताए हुए लोग येल्लम्मा के देवी रूप का गुणगान और उनकी महिला का संगीतमय वर्णन करते हैं.
जोगतियाँ (स्त्रियाँ) और जोगपा (पुरुष) जो स्वेच्छा से देवी की सेवा में नियुक्त होते हैं- उनके दीक्षा ग्रहण की वृहत आनुष्ठानिक प्रक्रिया होती है. येल्लम्मा की सेवा में भर्ती होने वाले नए अनुयायियों को तीन पवित्र सरोवरों में स्नान करके पुजारियों के पास शपथ ग्रहण के लिए जाना पड़ता है.
आधुनिक काल में उच्च जातियों से देवी येल्लम्मा के अनुयायियों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई, लेकिन आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर पिछड़े और अनुसूचित जातियों और जनजातियों द्वारा अब भी ‘येल्लम्मा पंथ’ अपनाया जाता है. आर्थिक रूप से दमित और कमजोर वर्ग की स्त्रियाँ चाहकर भी इसे छोड़ नहीं सकतीं. देवी की कृपा से पुत्र प्राप्ति, रोग मुक्ति के साथ-साथ वेश्यावृत्ति की धार्मिक स्वीकृति की सुविधा के कारण येल्लम्मा पंथ के अनुयायियों की संख्या काफी है. हालांकि स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रयासों से इनकी संख्या में पहले से कमी आई है, लेकिन आज भी पूरे कर्नाटक में लगभग 25,000 देवदासियाँ उत्तरी कर्नाटक, बेलगाम, बीजापुर, रामचूर, कोप्पल, धारवाड़, शिवमोगा आदि जिलों में फैली हुई है.[xxi]
महाराष्ट्र में देवदासियों को ‘मुरली’ कहा जाता है और उनके पुरुष संगी को ‘वाज्ञा’. महाराष्ट्र में देवदासी प्रथा दूसरे राज्यों से इसी मायने में अलग है. मुरली और वाज्ञा आपस में जोड़े बनाकर रहते हैं. ‘मुरली’ वे देवदासियाँ कहलाई, जिन्होंने ‘खांडोबा’ देवता को अपना संपूर्ण जीवन अर्पित कर दिया. ‘मुरली’ और उसकी कन्याएँ देवदासी प्रथा को आगे बढ़ाती हैं. महाराष्ट्र के जेजुरी मंदिर जो एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है- में मुरली और वाज्ञा की विशिष्ट जीवन पद्धति देखने को मिलती है. ये समूहों में, मंदिर परिसर में ही सुबह से शाम तक रहते हैं- मुरलियाँ मंदिर के दर्शनार्थियों को आकर्षित करती हैं और देह-व्यापार अनवरत गति से चलता है, वहीं ‘वाज्ञा’ मंदिर के आसपास ही नृत्य-गान एवं भिक्षा मांगकर जीवन यापन करते हैं. आम आदमी तथा पुलिस-प्रशासन उन्हें वहाँ से नहीं हटा सकता, क्योंकि वे धर्म के नाम पर ये सब कृत्य करते हैं. यहाँ तक कि यदि कोई अनाथ बच्चा उन्हें मिल जाता है तो वे उसे भी देह-व्यापार और भिक्षाटन के लिए बाध्य करते हैं.
दक्षिण महाराष्ट्र के जिलों- अकेले कोल्हापुर और साँगली में लगभग 200 देवदासियाँ अभाव और दबाव के चलते देवपत्नीत्व ग्रहण करने के लिए विवश हैं. यदि कोई स्वयंसेवी संस्था उनको इस धार्मिक वेश्यावृत्ति करने से रोकती भी है तो जीवन -यापन के विकल्पों के अभाव में यह कार्य सफल नहीं हो पाता. कई संगठन देवदासियों की बच्चियों को ‘सुधार गृहों’ में लाकर रख भी देते हैं लेकिन अठारह वर्ष की होते-होते वे वापस देह व्यापार में जुट जाती हैं. उनकी आय पर उनका पूरा परिवार निर्भर होता है. सरकार की ओर से सन् 2004 में देवदासी प्रथा उन्मूलन के सजग प्रयास किए गए. महाराष्ट्र सरकार ने देवदासी बनने और बनाने को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया और पकड़े जाने पर 10,000-50,000 की राशि के दंड के दंड का प्रावधान किया. यह भी कहा गया कि देवदासियों को वैकल्पिक रोजगार के लिए कुटीर उद्योगों का कर्ज दिया जाएगा. जिला और राज्य स्तर पर देवदासी नियंत्रण समितियों के गठन की बात भी की गई. सरकार के ये प्रयास यथार्थ से दूर थे क्योंकि देवदासियों की गणना का सही प्रयास ही नहीं किया गया. इसलिए उनके पुनर्वास की दिशा में भी कारगर कदम नहीं उठाए जा सके. समाज कार्य के लिए स्थापित कॉलेज निर्मला निकेतन की उप प्रधानाचार्य के अनुसार
‘‘देवदासी प्रथा, बालिका वेश्यावृत्ति महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के साथ-साथ राजस्थान के नट समुदाय में आज भी प्रचलित है.’’
भारत के राष्ट्रीय महिला आयोग ने देवदासी प्रथा के उन्मूलन के संदर्भ में देश के विभिन्न राज्यों से आँकड़े एकत्र किए. उड़ीसा सरकार द्वारा आयोग को सूचना मिली कि अब वहाँ यह प्रथा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है, केवल एक देवदासी पुरी के मंदिर में जीवित हैं. तमिलनाडु सरकार ने भी यही बयान दिया जबकि आंध्र प्रदेश सरकार ने कहा कि राज्य में 16,624 देवदासियाँ हैं तथा कर्नाटक सरकार द्वारा 22,941 देवदासियों का वेश्यावृत्ति में लिप्त होने की सूचना दी गई. आयोग को महाराष्ट्र सरकार की ओर से, इस संदर्भ में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गयी और कहा गया कि राज्य द्वारा देवदासी मेंटनेंस अलाउंस के लिए विज्ञापन दिया गया, जिसके लिए 8,793 प्रार्थना पत्र आए. इनमें से 2,479 प्रार्थना पत्रों को निरस्त कर दिया गया और 6,314 को देवदासी पोषण वृत्ति के योग्य पाया गया. सन् 2007 तक 1,432 देवदासियाँ महाराष्ट्र सरकार की ओर से पोषण वृत्ति पा रही थीं.[xxii]
देवदासियों की अच्छी संख्या आंध्र प्रदेश में है, विशेषकर करीमनगर, वारंगल, निजामाबाद, महबूबनगर, कुरनूल, हैदराबाद, अनंतपुर, मेडक, आदिलाबाद, रंगारेड्डी, नेल्लोर, नलगोंडा और श्रीकाकुलम जिलों में. आज भी कर्नाटक के रायचूर, बीजापुर, बेलगाम, धारवाड़, बेलारी और गुलबर्ग जिलों में सैकड़ों स्त्रियाँ देवदासी बनकर वेश्यावृत्ति कर रही हैं. महाराष्ट्र में पुणे, शोलापुर, कोल्हापुर, सांगली, मुंबई, लातूर, उस्मानाबाद, सतारा, नांदेड़ और सिंधुदुर्ग जिलों में देवदासियाँ अच्छी संख्या में मौजूद हैं.[xxiii]जोगेन शंकर[xxiv] ने देवदासी प्रथा के परंपरा से पुष्ट होने के धार्मिक और मनोवैज्ञानिक कारण बताए थे-
- भारत में मानव-बलि की प्रथा थी. मानव बलि के प्रतीक के रूप में जीवित मनुष्य को देवता को समर्पित करना उसी प्रथा का अनुकरण हे.
- जमीन की उपज बढ़ाने या किसी मनोकामना के पूर्ण होने पर कन्या को देवता को अर्पित करना धार्मिक भावना का प्रतीक था.
- भारत की द्रविड़ संस्कृति में लिंग पूजा प्रचलित थी. देवता को पुरुष मानकर उसे कन्या समर्पित करना – उसी परंपरा का अवशेष है.
- अतिथि एवं गणमान्य व्यक्तियों के सम्मान एवं आतिथ्य के लिए भारतीय संस्कृति में कन्या को दान दिए जाने के प्रसंग मिलते हैं. धार्मिक वेश्यावृत्ति के बीज इसी परंपरा में देखे जा सकते हैं.
- वर्णव्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मणों ने समाज के निचले तबके के शोषण को वैधता प्रदान करने के लिए इस प्रथा का पोषण किया होगा.
- राज्य व्यवस्था को आर्थिक संबल प्रदान करने में देवदासियों द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती थी. अतः इस प्रथा को राजकीय संरक्षण मिला.
यद्यपि सन् 1934 में पारित अधिनियम द्वारा भारत में देवदासी प्रथा के उन्मूलन की घोषणा की गई लेकिन इतने वर्षां के बाद भी लगभग 450,000 देवदासियाँ धर्म के नाम पर देह-व्यापार से संबद्ध हैं. अशिक्षा और अस्पृश्यता ने इस प्रथा को पोषण दिया. आज कई स्वयंसेवी संस्थाएँ देवदासियों और उनके परिवारों के सुधार के लिए आगे आई हैं. इनमें से कई संस्थाएँ उनकी स्वास्थ्य परियोजनाओं पर भी कार्यरत हैं. एड्स और एचआईवी, सरवाइकल कैंसर जैसी रोगों के प्रति देवदासियों को जागरूक किया जा रहा है, उन्हें स्वास्थ्य कार्ड भी दिए जा रहे हैं ताकि वे स्वयं और अपने ग्राहकों को एड्स जैसे रोगों से मुक्त रखें. स्वयंसेवी संस्थाएँ उनके पुनर्वास पर भी ध्यान दे रही हैं. कृषि, टोकरी बुनना, कपड़ों की बुनाई जैसे काम उन्हें सिखाए जाने के रचनात्मक प्रयास हो रहे हैं. इसके अतिरिक्त उन्हें रोगों की रोकथाम के बेहतर उपाय भी सिखाए जा रहे हैं. परिवार नियोजन कार्यक्रम या कन्या-बालिका के लिए मुफ्त भोजन और स्कूली शिक्षा इन्हीं उपायों में प्रमुख हैं.[xxv]
देवदासी प्रथा के जड़ से समाप्त न हो पाने के पीछे भारतीय समाज का मानसिक अनुकूलन है, जिसे पहचानने के लिए उन्नीसवीं सदी के धर्म सुधार आंदोलनों पर दृष्टि डालना जरूरी है. जहाँ राजाराममोहन राय, केशवचन्द्र सेन जैसे पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान से संपन्न समाज-सुधारकों और बुद्धिजीवियों ने इस प्रथा को समूल नष्ट करने का बीड़ा उठाया वहीं पुनरुत्थानवादियों जिनमें थियोसोफिकल सोसायटी का स्थान प्रमुख था- ने इस प्रथा को बनाए रखने के पक्ष में प्रयास किए. जोगेन शंकर ने लिखा है कि सुधारवादियों का उद्देश्य था इस प्रथा को हटाना, जिसमें ईसाई मिशनरी के लोगों, चिकित्सकों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया. उनकी माँग थी कि उन सारे उत्सवों और अनुष्ठानों को बंद कर दिया जाए जिससे कम उम्र की हिन्दू लड़कियों को देवदासी बनाया जाता है. उन्होंने संगोष्ठियों और विचार गोष्ठियों का आयोजन किया ताकि वे देवदासी प्रथा के विपक्ष में जनमत बना सकें. सुधार आंदोलनों की वैचारिकता ईसाई धर्म से प्रेरित थी. ईसाई धर्मगत नैतिकता और मूल्य-रक्षा की तर्ज पर इस प्रथा को केवल वेश्यावृत्ति से जोड़कर देखा गया. इस सुधारवादी दृष्टि के पीछे राष्ट्र-चेतना काम कर रही थी. ब्रिटिश शासन वेश्यागृहों को बनाए रखने के पक्ष में था. जो लोग साम्राज्यवाद के खिलाफ थे उनके लिए जरूरी था कि वे इस धार्मिक वेश्यावृत्ति का विरोध करें. ‘India Social reformer’ (इंडियन सोशल रिफॉर्मर) जैसे अंग्रेजी अखबार ने सुधारवादियों का पक्ष लिया. आम जनता से यह अपील की गई कि जो लोग सुधारवादियों के पक्ष में हैं वे नाच-पार्टियों में नहीं जाएंगे और घरेलू उत्सवों में देवदासियों को सम्मिलित आमंत्रित नहीं करेंगे. इस आंदोलन के बाद देवदासियों की संख्या में कमी आई.
सुधारवादी आंदोलन के समानान्तर ही पुनरुत्थानवादी आंदोलन भी चलाया गया, जिसने अपने आपको राज्यों की चुनावी राजनीति एवं पश्चिमी प्रभाव से पृथक रखा. थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्यों ने इसका समर्थन किया क्योंकि भारतीय नृत्यगीत की परंपरा को पुनरुज्जीवित करने में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. थियोसॉफिकल सोसायटी की मादाम एच.पी. ब्लावाट्स्की और कर्नल एस.एस. ओल्कॉट ने दक्षिण भारत का दौरा कर मंदिर संस्कृति से जुड़ी ‘सादिर’ नृत्यकला का संरक्षण एवं पुनरुद्धार करने का प्रयास किया, जिन्हें दक्षिण भारतीय अभिजात्य वर्ग का प्रबल समर्थन मिला. आगे चलकर ‘सादिर नृत्य’ को भरतनाट्यम के रूप में रूक्मिणी देवी अरूंडेल ने प्रसिद्धि दिलाई. वे स्वयं थियोसोफिस्ट थीं.
थियोसोफिकल सोसायटी ने भरतनाट्यम के प्रचार-प्रसार के लिए रूक्मिणी देवी को प्रचुर आर्थिक सहायता मुहय्या करवाई. वस्तुत: पुनरुत्थानवादियों ने देवदासी प्रथा के आदर्श संस्थागत रूप को उभारने और प्रस्तुत करने का रचनात्मक प्रयास किया. उनका मानना था कि देवदासियां प्राचीन देवमंदिरों में देवताओं के सम्मुख नृत्य-गान करने वाली पवित्र कुमारियाँ होती हैं, जिनकी कला में संस्कृति का स्वरूप सुरक्षित रहता है. पुनरुत्थानवादियों ने देवदासियों को वेश्यावृत्ति से संपृक्त नहीं किया, बल्कि उन्हें कलाकार की गरिमा दी. उन्होंने जनता में इसका प्रचार किया कि मंदिर संस्कृति नृत्य और संगीत कला को पुष्पित-पल्लवित करने और संरक्षित करने का काम करती है और देवदासी नृत्य-नाट्य-योग का ही एक रूप है, जो किसी मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति को उन्नत करता है. वे चाहते थे कि सादिर नृत्य के शास्त्रीय स्वरूप को सुरक्षित रखा जाए, इसलिए इसे शुद्ध करने के लिए कुछ सुधार भी किए गए. इन प्रयासों के परिणामस्वरूप बहुत सी ब्राह्मण कन्याओं ने मंदिरों में देवदासियों से नृत्य-शिक्षा लेनी प्रारंभ कर दी.
समाजसुधारकों द्वारा देवदासियों की छवि ‘पतित स्त्रियों’ के रूप में प्रस्तुत की गईं, वहीं पुनरुत्थानवादियों ने उन्हें ‘नन’ या चिरकुमारी माना. आधुनिक काल में ‘देवदासी प्रथा’ के पीछे पुरुष सत्तात्मक मानसिकता के षड्यंत्र को पहचाना गया. वस्तुत: इसे स्त्री के, विशेषकर अभावग्रस्त और दलित वर्ग के सांस्थानिक शोषण के रूप में पहचाना जाना जरूरी था. मंदिरों में अनुष्ठानों और उत्सवों में नृत्य की परंपरा तो कब की शेष हो चुकी, अब बचा रह गया है स्त्री के दमित मानसिक अनुकूलन का लाभ उठाकर, धर्म और पारिवारिक जिम्मेदारी के नाम पर दैहिक शोषण. कभी मनौती पूरी करने के लिए, कभी जीवनयापन के लिए- अशिक्षित और हाशिए का उपेक्षित समाज अपनी कन्याओं को देवदासी बनने के लिए बाध्य करता रहा. एक बार देवदासी बन जाने पर ‘धर्म’ के नाम पर स्त्री को सामान्य स्त्री-सा जीवन जीने की छूट कभी नहीं दी गई.
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(प्रसंगत: जोया ज़ैदी की कविता ‘देवदासी का गीत’ यहाँ दी जा रही है जो स्त्री-पीड़ा की मार्मिक प्रस्तुति है.)
देवदासी का गीत
मेरे कानों में मंदिर की घंटियां बजती हैं
जिस दिन जन्मी मैं बिन ब्याही माँ को
उस दिन से सुनती आ रही हूँ घंटियाँ मंदिर की
मेरी मां ब्याही गई मंदिर को
लेकिन, मेरा पिता कैसे हो सकता…?
मेरे कानों में मंदिर की घंटियां बजती हैं
मैं मंदिर की दीवारों के मौन उच्छवास
सुनती हूँ रात के गहरे अंधेरे में
सुनती हूँ उसांसे …परितृप्त की
सुनती हूँ मां की सिसकियां
परितृप्त उसांसों से लिपटी दबी सिसकियां
उसांसे अतृप्ति की
मैं लेटी हूँ मंदिर के ठंडे बेजान पत्थर पर
मेरा पालना है गहरे अंधेरे खोह में
जहाँ बुमिश्कल पहुँच पाती है कोई रौशनी
मुझे चाहिए पिता का स्नेह स्पर्श
उसकी ममतालु गोद
माँ से पूछती हूँ जब
कहती है मंदिर ही है तुम्हारा पिता
एक दिन अकस्मात्
अधभिड़े किवाड़ की दरार से
पुजारी को हाँफते, सिसकारियाँ भरते पसीने से तरबतर
देखा, माँ की आँखों में विषादमय आश्चर्य!
(क्योंकि वह निरावृत्त थी मेरे सामने)
मौन गिड़गिड़ाहट और असहाय अश्रुपूरित आँखों को सुना मैंने
जाओ यहाँ से जाओ-बच्ची हो अभी
लेकिन एक दिन,
मैं बच्ची नहीं रही
प्रथम स्पर्श महसूसा
रेंगता, लिजलिजाता, चिपचिपा स्पर्श
पुजारी की आँखों में
वही स्पर्श उसकी बाँहों की जकड़ में था
जी मिचला गया, वमन से सँध गया गला
ये पिता-सा स्पर्श तो नहीं
मेरी मासूम हड्डियाँ भी जान गईं
फिर कोई दूसरा, फिर तीसरा …
अब मैं भी हूँ माँ …
जो नहीं जानती गर्भस्थ शिशु के पिता का नाम
अपनी माँ की तरह ही कहूँगी
अपनी बेटी से
मंदिर ही है तुम्हारा पिता
यही सदियों से चला आया है
चलता रहा है
चलता रहेगा
मैं मंदिर की देवदासी हूँ
मंदिर हो सकते हैं क्षत-विक्षत, जीर्ण-शीर्ण
लेकिन मैं
रहूँगी सदा देवदासी
चलती रहूँगी यूं ही अनवरत.
जोया ज़ैदी
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सन्दर्भ
[i] नेशनल कमीशन फॉर वीमेन – http://uk.geocitiesicom/dalitsnuk/dalitrights/issue6.html.
[ii] आर.एस. शर्मा, भारतीय सामंतवाद, अनवुादक – आदित्य नारायण, दिल्ली, 1973, पृ.सं. 2
[iii] E1, 32, P.290 cited by K.R. Srinivasan, Some Aspects of Religion as Revealed by early monuments and Literature of the South Madras, University of Madras, 1960, pg. 15
[iv] Ibid
[v] J.A.S.B. 9, Pg. 766F, Cited in B.N. Sharma, Social and cultural History of Northern India, C 100 – 1200, New Delhi 172, Pg. 75
[vi] P. Thomas, Indian women through the Ages, Bombay 1964, Pg. 237
[vii] B.P. Majumdar, Socio Economic History of Northern India, 1020-1194 A.D. Calcutta, Pg. 372
[viii] वही, पृ.सं. 110
[ix] SII-Volume 2, Part III No. 66
[x] आंध्र प्रदेश का इतिहास – वी. यशोदा देवी, JAHRS, पृ. 61
[xi] SII. No. 110
[xii] RT, VII 850-60
[xiii] Ibid
[xiv] RT, IV P. 17-32
[xv] कथासरित्सागर, पाठ तीन, तरंग-1, पृ.सं. 247-49
[xvi] Socio-Economic History of Northern India, Calcutta 1960, pg. 371
[xvii] Alberuni\’s India, Edward C. Sachau (Ed. and translated) New Delhi, 1964, Vol. II, pg. 157
[xviii] Albruni\’s India, Op. Cit P. 157
[xix] EI, XI PP. 26-28
[xx] कुट्टनीमतम् – पृ.सं. 747-49
[xxi] येल्लम्मा संस्कृति – Deccan Herald, 6 March 2007
[xxii] Donors, Devotees and daughters of God : Temple women in Medieval TamilNadu-Leslie C. One
[xxiii] जोगेन शंकर देवदासी प्रथा : एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण, द्वितीय सं., आशीष पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
[xxiv] वही,
[xxv] Devadasis (Prohibition of dedication) Act, 1982
गरिमा श्रीवास्तव भारतीय भाषा केंद्र |
बहुत मर्मस्पर्शी आलेख देवदासी प्रथा के ऐतिहासिक विवरण के साथ ही धार्मिक अनुमति के साथ उनके दैहिक शोषण से लेकर उन्हें सत्ता और संपत्ति से बेदखल कर केवल एक वस्तु के रूप में मान्य कर दिया आज भी कई राज्यों में ये प्रथा चल रही है जिसका समूल उन्मूलन आवश्यक है