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Home » खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु » Page 2

खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु

हिंदी कविता में धूमिल भारतीय जनतंत्र के निर्मम आलोचकों में अन्यतम हैं, ख़ासकर अपनी भाषा को लेकर जो तीर की तरह चुभती है. कबीर की भाषा की ‘सुनो भाई साधो’ वाली रंगत धूमिल की कविताओं में खूब है. दोनों की भाषाओं में कई समानताएं आपको मिलेंगी. कुछ अर्थों में बनारस के धूमिल काशी के कबीर की भाषा के सच्चे वारिस हैं. शीतांशु ने विस्तार से धूमिल की कविताओं में आज़ादी के प्रश्नों को टटोला है और अपने मन्तव्य को धूमिल की कविताओं से पुष्ट भी किया है. यह एक मेहनत से लिखा गया विचारोत्तेजक आलेख है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 8, 2021
in आलोचना
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सातवें दशक में ही यह पूरी तरह से जाहिर हो चुका था कि सारे जनोन्मुखी मुहावरे बस अपनी ताकत को बनाए रखने का माध्यम हैं. उन मुहावरों को उछालते रहो जिनसे वर्चस्व बनाए रखने में सहूलियत हो. मुहावरों के खेल में अगर पारंगत हो तो और आगे बढ़कर लोगों को अतीत की गुफाओं में कैद कर दो, वहीं भटकने के लिए छोड़ दो, अध्यात्म और सौन्दर्य की अबूझ छवियों में अपनी ही शिनाख्त न कर पाने की स्थितियों तक पहुँचा दो. ऐसे महान भावों के सामने उन्हें हाथ बाँध कर खड़ा कर दो कि शासन, राशन, भूख, रोटी, रोजगार, भ्रष्टाचार आदि के बारे में बात करने में हिचक हो, बात हो तो सिर्फ राष्ट्र की-

मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन
उन्होंने मुझे टोक दिया है.
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अंगुली रखने से मना करते हैं.
जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं-
भारतवर्ष नदियों का देश है. (अकाल दर्शन)

यह पंक्ति की भारतवर्ष नदियों का देश है, या ऐसी ही तमाम पंक्तियाँ, जैसे भारत सोने की चिड़िया थी, या भारत का अतीत गौरवमयी था- कब एक पुनरुत्थानवादी हिन्दू वादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद में कैद हो जाते हैं इसका अंदाजा भी नहीं लगता. कब समुद्रगुप्त मुगलों के प्रतिपक्ष में आ जाते हैं, कब ताजमहल सोमनाथ के प्रतिपक्ष में आ जाता है, कब गोबर-गोमूत्र आधुनिक उपचारों का विकल्प हो जाता है, कब वेदों को आज के वैज्ञानिक आविष्कारों का स्रोत मान लिया जाता है, कब पुरानी इमारतें लोकतांत्रिक युग में वर्चस्व की लड़ाई का स्रोत बन जाती हैं, कब रूढ़िवाद से मुक्ति की बात करने वाले निशाने पर आ जाते हैं, पता ही नहीं चलता. राष्ट्र की ऐसी परिभाषाओं, अतीत की ऐसी व्याख्याओं के पीछे के छल को तैयार करने के लिए भाषा का जो खेल खेला जाता है, धूमिल की कविता उसे लेकर बहुत सतर्क थी. शब्द और भाषा के दुरुपयोग के खिलाफ वे मुखर थे. और यह सतर्कता अतीत को ही लेकर नहीं वर्तमान को लेकर भी थी. जनतंत्र की आड़ में अतीत और वर्तमान में जो सेंधमारी हुई है, उसे धूमिल उघाड़ने का काम करते हैं. उघाड़ना इसलिए कह रहा हूँ कि ऐसी स्थितियों के लिए नंगापन शब्द का प्रयोग धूमिल के यहाँ कई बार मिलता है.

प्रगतिशील चेतना संपन्न व्यक्ति आज जिस विवशता में कैद है, अगर सिर्फ उसके संदर्भ में बात करें तो उसका सबसे गहन और पारदर्शी वर्णन आज़ादी के बाद किसी कवि न किया है तो वे हैं धूमिल. सातवें दशक की विवशताओं को धूमिल ने पूरे आत्मालोचन के साथ प्रस्तुत किया है. आज के कवियों में भी आत्मालोचन की यह प्रवृत्ति बढ़ रही है. कोरोना के वर्तमान दौर में कुछ न कर पाने की विवशता से कई कवि बेचैन हैं. वे वैसी ही पंक्तियां लिख रहे हैं जैसी धूमिल अपने लिए लिख रहे थे. वे भी कविता से पहले मनुष्यों को बचा लेना चाहते हैं. वे भी खुद से पूछ रहे हैं कि मजदूरों की लॉकडाउन में जो दुर्दशा हुई, उसमें कितने कवि उनके हमदर्द बने, सीधे जाकर उनकी आपदाओं में, दुखों में, कष्टों में भागीदार बने. धूमिल का कवि खुद में और अपनी कविता में यही वृत्ति देखना चाहता था. धूमिल का कवि उसी के लिए प्रयासरत था. अगर वे यह कहते हैं कि

वे इस कदर पस्त हैं
कि तटस्थ हैं

तो वे यह भी कहते हैं कि-

मेरा गुस्सा
जनमत की चढ़ी हुई नदी में
एक सड़ा हुआ काठ है.

वे यह भी कहते हैं कि-

जब सड़कों में होता हूँ
बहसों में होता हूँ
रह-रह चहकता हूँ
लेकिन हर बार वापस घर लौटकर
कमरे के अपने एकान्त में
जूते से निकाले गए पाँव सा
महकता हूँ.(एकान्त कथा)

ऐसी कविताएँ, विशेषकर अकाल दर्शन, भारतीयों की फँसी हुई स्थिति का बोध कराती हैं. धूमिल अनावश्यक ढंग से, इन स्थितियों में संभावनाएं नहीं तलाशते, क्रांति नहीं ढूँढने बैठ जाते बल्कि यथार्थ का वास्तविक खाका खींचते हैं. नक्सलबाड़ी से सहानुभूति रखने वाले कवि थे धूमिल, लेकिन यथार्थ में इतने गहरे पैठे हुए कि क्रान्ति को आसमानी चीज़ नहीं बनाते. उन्हें भारतीयों के इस त्रास में, इस पीड़ा में भी गहरी तटस्थता दिखाई देती है. विरक्ति, पछतावा और संकोच से भरा कवि अपने लोगों को स्वप्न लोक में ले जाकर पटक देने की रूमानी आकांक्षा से खुद को पूरे सामर्थ्य से रोकता है. आत्मालोचन धूमिल की कविता का बुनियादी चरित्र है. वे आम भारतीयों की तटस्थता और खामोशी से खुद को बाहर करके किसी ऊँचाई से उपदेश नहीं देते. वे अपने दोहरेपन से मुक्त होने के लिए, बिना किसी आवरण के सच के साथ चलने के लिए खुद पर प्रहार करते हैं. तात्पर्य है कि धूमिल की कविता में अराजकता और निराशा ढूंढने के बजाय यथार्थबोध से उपजी वह चिंता देखनी चाहिए जिससे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें नहीं मिल रहा है. उनकी कविता में जगह-जगह दिखाई देता है कि वे अपने मुल्क से बेइंतहाँ प्यार करते हैं और इसीलिए जिन मूल्यों से यह देश बना था, उन मूल्यों के बिखराव को देखकर तड़प जाते हैं और कविता में वह तड़प ही प्रत्यक्ष होती है. धूमिल की आशा को, आकांक्षा को समझने के लिए इस तड़प से गुजरते हुए स्थिर बने रहने की जरूरत है. उनकी कविता प्रौढ़ शिक्षा की पंक्तियों पर गौर करिए-

मैंने भी इस देश को
एक जवान आदमी की
रंगीन इच्छाओं की पूरी गहराई से
प्यार किया था
मगर अब, अतीत में अपना चेहरा
देखने के लिए
शीशे की धूल झाड़ना बेकार है
उसकी पालिश उतर चुकी है
और अब उसके दोनो ओर, सिर्फ
दीवार है.

आलोक धन्वा के पास भी ऐसी ही पंक्तियाँ हैं जिसमें वे कहते हैं कि

भारत में जन्म लेने का
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
अब वह भारत ही नहीं रहा
जिसमें जन्म लिया.

इन कवियों की उक्त पंक्तियाँ हिन्दुस्तान से उनके लगाव को बताती हैं, उनके तड़प को बताती हैं, न कि उनकी निराशा को. उनके सपनों के भारत को बताती हैं न कि पस्ती को. देश कोई भूखंड मात्र नहीं है. भूखंड के निवासियों से किसी देश की पहचान बनती है. धूमिल इन निवासियों की खुशियों के रास्ते अपना देश पाना चाहते हैं. भुखमरी और बेरोजगारी में फँसी जनता अगर पस्त है तो कवि राष्ट्रवाद में अंधा नहीं हो सकता. इसीलिए धूमिल लिखते हैं-

एकाएक-
जंग लगे अचरज से बाहर
आ जाता है आदमी का भ्रम और देश प्रेम
बेकारी की फटी हुई जेब से खिसककर
बीते हुए कल में
गिर पड़ता है. (पतझड़)

देश-प्रेम के सारे दावे खोखले हैं जब स्थितियाँ बद से बदतर होती जा रही हैं. सच्चा देश-प्रेम तो इन स्थितियों के खिलाफ मुखर होने में, संघर्ष करने में है. कुछ लोग देश-प्रेम की छद्म अभिव्यक्तियों के प्रभाव में चूक जाते हैं और चूकने के बाद खुद को दिलासा दिलाने के लिए किसी आडम्बर के ईर्द-गिर्द घूमते रहते हैं. धूमिल को ऐसे लोगों का चेहर एक तैरता हुआ पत्थर लगता है जिससे शालीनता बहुत अधिक टपक चुकी है. छद्मता का आलम यह है कि समझौतापरस्तों, सत्ता के चाटुकरों और बिना किसी प्रश्न के व्यवस्था की सेवा करने वालों के पास भी देश बचा है-

उसका विचार है
कि उसके मरते ही मनुष्यता
अन्धी हो जाएगी
उसे अपनी सेवाओं पर गर्व है.
देश से प्यार है. (एक आदमी)

नक्सलबाड़ी कविता में इस तरह के देश-प्रेम की वे धज्जियाँ उड़ाते हैं. समझौता जहाँ हर कदम पर हो और एक ईमानदार आदमी का जीना दूभर हो जाए वहाँ देश-प्रेम के मायने वही नहीं रहते जो आज़ादी के आन्दोलन के वक्त थे. नए भारत में नागरिकों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है और संसद में जिनका प्रवेश हो चुका है वे सड़क को भुला चुके हैं. धूमिल के शब्दों में-

वक्त के
फालतू हिस्सों में
छोड़ी गई पालतू कहानियाँ
देश-प्रेम के हिज्जे भूल चुकी हैं,
और वह सड़क-
समझौता बन गई है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिए आवाजज़दी थी.

जो नफरत हमने पैदा की है उसकी इतनी बेबाक अभिव्यक्ति, रंगों और रौशनियों की लीपापोती किए बगैर, अगर किसी कवि ने की है तो धूमिल ने. नक्सलबाड़ी कविता यह दिखाती है कि किस तरह इस देश को नफरत की आँधी में हमने झोंक दिया है. जो नफरत की फसल हमने तैयार की है वह परिवारों के भीतर पैठ चुका है, वह संविधान की आत्मा पर खंरोच लगा रहा है, वह देश के समतावादी मूल्यों को चोटिल कर रहा है, और हम थोड़ा भी सचेत होने के लिए तैयार नहीं हैं-

ख़बरदार उसने तुम्हारे परिवार को
नफरत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक,
अपनी स्लेट से काट सकता है.
क्या मैंने गलत कहा?

देश और आज़ादी के मायने क्या हैं अगर परिवेश इतना जहरीला हो चुका है, आसमान अगर धुँए से ढंक चुका है. फैज़ के शब्दों में कहें तो ऐसे सवेरे का क्या मतलब जो रात के आगोश में डूबा हो, जिसके उजाले पर ढेर सारे धब्बे हों. देश-प्रेम, आज़ादी, मनुष्यता, प्रेम की बात वहाँ बेमानी हो जाती है जहाँ नफरत की फसल दिन-रात बोई जा रही हो. धूमिल की दो कविताएँ- भाषा की रात और पटकथा इनका खाका शानदार तरीके से खींचती हैं. भाषा की रात कविता में धूमिल इस यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए बिना किसी हिचक के कहते हैं कि सिर्फ नफरत ही झूठ के आवरण से बाहर है. यह कविता अपने सवालों के साथ पूरी तरह समकालीन हो जाती है-

धुँए से ढके हुए
आसमान के नीचे

लगता है कि हर चीज़
झूठ हैः
आदमी
देश
आज़ादी
और प्यार-
सिर्फ नफरत सही है (भाषा की रात)

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Tags: धूमिल
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Comments 6

  1. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?

    Reply
  2. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!

    Reply
  3. Gc Bagri says:
    4 years ago

    ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. शीतांशु says:
    4 years ago

    धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।

    Reply
  6. गंगाधर ढोके says:
    2 years ago

    धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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