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Home » खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु » Page 4

खोई हुई आज़ादी की तलाश में: धूमिल: शीतांशु

हिंदी कविता में धूमिल भारतीय जनतंत्र के निर्मम आलोचकों में अन्यतम हैं, ख़ासकर अपनी भाषा को लेकर जो तीर की तरह चुभती है. कबीर की भाषा की ‘सुनो भाई साधो’ वाली रंगत धूमिल की कविताओं में खूब है. दोनों की भाषाओं में कई समानताएं आपको मिलेंगी. कुछ अर्थों में बनारस के धूमिल काशी के कबीर की भाषा के सच्चे वारिस हैं. शीतांशु ने विस्तार से धूमिल की कविताओं में आज़ादी के प्रश्नों को टटोला है और अपने मन्तव्य को धूमिल की कविताओं से पुष्ट भी किया है. यह एक मेहनत से लिखा गया विचारोत्तेजक आलेख है. प्रस्तुत है.

by arun dev
August 8, 2021
in आलोचना
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गाँव से धूमिल के संबंध पर कई आलोचकों की नज़र गई है. जानी भी चाहिए. राजेश जोशी को धूमिल की कविता की यह खासियत दिखाई देती है कि जब वे ग्रामीण जीवन की ओर मुड़ते हैं तो उनकी कविता विद्रोह की एक सही और प्रामाणिक कविता बन जाती है. राजेश जोशी लिखते हैं- धूमिल की कविता ग्रामीण चरित्र से शिक्षित हुई, ग्रामीण जन की और उसको सहज और सायास दोनो ही तरह से चरितार्थ करने की कोशिश करती कविता है.[3] हालांकि धूमिल की कविताओं के विषय-वस्तु पर नज़र डालें तो ऐसा लगता है कि उनकी चेतना की निर्मित में गाँव गहराई में बसा है लेकिन उन्हें परेशान करने वाले प्रश्न गाँव या फिर शहर मात्र के प्रश्न नहीं हैं. धूमिल संविधान और जनतंत्र से जुड़े प्रश्नों और हिन्दुस्तान और उसके नागरिकों के निरन्तर क्षय से संबंधित प्रश्नों से ज्यादा परेशान थे. उनके काव्य में ग्रामीण जीवन को देखते समय यह सचेतनता बनाए रखनी चाहिए. गाँव उनके संस्कार में है लेकिन उनके काव्य की चिंताएँ तो गाँव की सीमाओं को शुरू से ही लाँघ जाती हैं. जब वे मनुष्यों के बारे में सोचते हैं तो गाँव या शहर का कोई फर्क नहीं रखते. और शहर भी उनका अभिजात मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के शहर से अलग है.

अकविता से धूमिल के शहर को अलगाते हुए नामवरजी ने ठीक रेखांकित किया है कि धूमिल के शहर में सिर्फ बेमानी भीड़, रतिक्रांति महिलाएँ और कॉफी हाउस ही नहीं है बल्कि उसमें मोचीराम है, हल्लागाड़ी है, बनिया सच्चाई है तथा इसी तरह की और भी बहुत-सी चीजें हैं जो अकवितावादियों के अमूर्त महानगर के विपरीत ज्यादा भरा-पूरा, जाना-पहचाना संसार है जिसमें कवि एक औसत नागरिक की तरह हिस्सा लेता है. धूमिल का यह शहर बहुत कुछ उनके गाँव जैसा है. नफरत और साजिश दोनो जगह है.[4] और गाँव भी उनका वैसा गाँव नहीं है जैसा काल्पनिक दुनिया में होता है. नामवरजी ने रेखांकित किया है कि इस गँवई दुनिया का कवि धूमिल ग्राम्या के कवि पंत से कितना अलग और वास्तविक है इसका एहसास इससे हो सकता है, जब वह कहता है कि मैं टूटते हुए परिवार में धनुष टंकार झेलते हुए जवान बछड़े-सा कराहता हूँ.[5] इस तरह नामवरजी ने धूमिल को निराला, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की परंपरा से जोड़ते हुए उन्हें वास्तविक और यथार्थ से जोड़ा है और इसके साथ ही एक और शब्द का प्रयोग किया है, वह है निर्मम. यह निर्ममता धूमिल की अपनी विशेषता है. वे समाज, देश, संविधान, नेतागण, जनता के प्रति ही निर्मम नहीं हैं बल्कि सर्वाधिक निर्मम अपने प्रति हैं.

गाँव और शहर के संदर्भ में एक अच्छी टिप्पणी अशोक जी की है- यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि धूमिल में शहराती बौद्धिकता और ग्रामीण संवेदना एक रचनात्मक तनाव की स्थिति में रहकर उनकी कविता के संदर्भ को व्यापक और ठोस बनाती है. ग्रामीण संस्कार धूमिल के यहाँ फैशनेबल आंचलिकता का रूप नहीं लेता. वह उनकी कल्पना शक्ति, बिंब योजना और भाषा को ताजगी और विस्तार देता है.[6]

कुछ आलोचक जब स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में ग्रामीण परिवेश की कम उपस्थिति को देखते हैं तो धूमिल के ग्रामीण जीवन से जुड़े पक्ष पर अतिरिक्त जोर देने लगते हैं. फलस्वरूप धूमिल की एकपक्षीय छवि पाठकों तक पहुँचने लगती है. यह सतर्कता जरूरी है कि धूमिल की छवि सिर्फ ग्रामीण चेतना के कवि की न बन जाए. फर्क यही है कि मात्र शहरी चेतना युक्त कवि गाँव को अपने बोध का हिस्सा नहीं बना पाते, जबकि धूमिल गाँव और शहर दोनों को इस प्रकार अपनी चेतना में समावेशित कर लेते हैं कि पूरे हिन्दुस्तान की वास्तविक स्थिति उभर कर आ जाती है. अकारण नहीं कि शहर शब्द का प्रयोग धूमिल की कविताओं में इतनी अधिक बार हुआ है. गाँव उनकी निर्मिति के बुनियाद में है, पर कुछ तो कारण है कि शहर शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत कहीं अधिक है.

धूमिल की छवियों के प्रति जिस सतर्कता की बात मैं कर रहा हूँ, वह इसलिए भी कि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिस पर वरिष्ठ आलोचकों में भी गहरे मतभेद हैं. जैसे कि स्त्रियों के प्रति धूमिल के नजरिए को लें. इस पर आगे चर्चा करेंगे. यहाँ यह देखिए कि नामवरजी जैसे दष्टि-संपन्न आलोचक में भी धूमिल के संदर्भ में स्पष्ट दुविधाएँ मिल जाती हैं जबकि धूमिल को एक कवि के रूप में साहित्य-जगत से परिचय कराने में नामवरजी की महत्वपूर्ण भूमिका है. सातवें दशक में हिन्दी के इतने प्रतिष्ठित आलोचक का समर्थन निस्संदेह धूमिल की काव्य-चेतना के लिए खाद और पानी की तरह रहा होगा. लेकिन परवर्ती दौर में धूमिल की कविता के संदर्भ में नामवरजी की टिप्पणियाँ बताती हैं कि उनकी मृत्यु के बाद तक नामवर जी धूमिल की कविता के संदर्भ में एक स्थिर मत तक नहीं पहुँच सके थे. नामवर सिंह के लेखन में धूमिल संबंधी आलोचनात्मक दुविधाओं पर टिप्पणी करते हुए राजेश जोशी रेखांकित करते हैं- नामवर सिंह ने धूमिल को पहले मुक्तिबोध और बाद में राजकमल चौधरी की काव्य-परंपरा से जोड़ने में ही सारी मशक्कत कर डाली है जबकि धूमिल की कविता विद्रोह को एक सही जमीन की समझ उजागर करने वाली, सही कविता की एक नई परंपरा का उत्स बिन्दु है. उसमें राजकमल चौधरी की तरह भाषाई चमत्कार, अनिश्चय और अराजकता की स्थिति नहीं है, न ही वह मुक्तिबोध की तरह अपने आसपास फैंटेसी का तिलिस्म खड़ा करती है.[7]

कहना न होगा संग्रह के अंत में दिए गए नामवरजी के दो साक्षात्कारों में सिर्फ चार वर्ष का फर्क है. इस समय तक भी नामवरजी धूमिल से जुड़े कुछ प्रश्नों पर एक स्पष्ट राय तक नहीं पहुँच पाए थे. धूमिल को प्रतिष्ठित करने में, हिन्दी जगत को उनकी कविता से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद, सातवें दशक की कविता के लिए जो टूल्स उन्होंने तैयार किए थे उस पर धूमिल को कसने में उन्हें कठिनाई हो रही थी. इसीलिए नामवरजी कभी उन्हें अकविता और राजकमल से जोड़ कर देखते हैं, कभी एकदम उससे मुक्त कर. कभी वे धूमिल में धूमिल राजनीतिक चेतना और अराजकतावाद देखते हैं तो कभी स्पष्ट प्रगतिशीलता. कभी उन्हें सामाजिक यथार्थ के प्रवक्ता के रूप में देखते हैं तो कभी नक्सलबाड़ी के यथार्थविरोधी रूमानियत के.

कुमार संभव को दिए गए साक्षात्कार में नामवरजी 1962 से 67 के दौर के साहित्य में एक किस्म का अराजकतावादी, पेटी बुर्जुआ असन्तोष और उससे संचालित दिशाहीन विरोध देखते हैं. इस साक्षात्कार से स्पष्ट पता चलता है कि वे धूमिल पर भी इसका गहरा प्रभाव देखते हैं. इस दिशाहीन स्थिति का बदलाव वे नक्सलबाड़ी आन्दोलन से देखते हैं और मानते हैं कि यहाँ से इस दौर की और प्रकारान्तर से धूमिल की राजनीतिक चेतना स्पष्ट हुई. लेकिन इस राजनीतिक चेतना में भी वे यथार्थबोध कम और रोमाण्टिक विद्रोह ज्यादा देखते हैं. इस तरह नामवरजी धूमिल में भी इन दोनों प्रवृत्तियों की अवस्थिति देखते हैं.

नामवरजी शब्दों को लेकर बहुत ही सचेत कवि थे. पहले साक्षात्कार में धूमिल शब्द का प्रयोग वे अकारण नहीं करते. श्लेष में करते हैं. यह अगले पृष्ठ पर उनके वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो जाता है. नामवरजी कहते हैं- यह वही दौर था जिसमें जीभ और जाँघ के चालू भूगोल देह की राजनीति वाली कविताएँ लिखी गईं. ज्यादातर यह शहराती निम्न मध्यवर्गीय लोगों के असंतोष, आक्रोष, कुण्ठा की अभिव्यक्ति थी जिसमें राजनीति बहुत धूमिल थी और इसका जनता की आशाओं और आकांक्षाओं से कोई संबंध न था.[8] (इटैलिक्स मेरा) यहाँ धूमिल शब्द अकारण नहीं रखा गया. इस तरह नामवरजी यह तय नहीं कर पा रहे थे कि धूमिल को कहाँ रखें. उनके खाँचे में वे फिट नहीं बैठते. इसलिए विरोधाभासी वक्तव्य दिखाई देते हैं.

अगले पृष्ठ पर ही कुमार संभव की टिप्पणी कि अभी आपने रोमाण्टिक विद्रोह की बात की थी… इसी कैटेगरी में आप धूमिल को भी तो रख सकते हैं पर नामवरजी कहते हैं- बिल्कुल सही नाम लिया आपने. धूमिल, राजकमल चौधरी से चलकर नक्सलवादी आन्दोलन की दिशा को उन्मुख हुए थे. धूमिल की कविताओं में आपको ये दोनों प्रवृत्तियाँ दिखाई देंगी. उन्होंने राजकमल चौधरी की प्रशंसा में उनकी मृत्यु पर कविता लिखी, उनकी कविताओं में बीटनिक कविता और अकविता के बहुत से तत्व मौजूद हैं- जीभ और जाँघ का चालू भूगोल उन्हीं की कविता का शब्द है. एक ओर ये तत्व हैं और दूसरी ओर धूमिल की कविताओं में इस आन्दोलन का प्रभाव था, वह चेतना भी आयी जहाँ ग्रामीण शब्दावली ही नहीं बल्कि मोचीराम जैसा चरित्र भी आया.[9]

अब यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह के नक्सलवादी रोमाण्टिक विद्रोह में नामवरजी यथार्थबोध कम देखते थे. उन्होंने लिखा भी है कि इसलिए इस बीच राजनीतिक चेतना से युक्त जो साहित्य लिखा गया, उसमें मुझे यथार्थ के तत्व कम और रोमाण्टिक तत्व ज्यादा दिखाई देते हैं.[10] अब इस तरह देखें तो धूमिल में अगर यह प्रवृत्ति है तो यथार्थ बोध कम होना चाहिए. जबकि यथार्थ बोध बहुत ही ठोस रूप में धूमिल में मौजूद था. नामवरजी ने भी इस यथार्थ का जगह-जगह परिचय दिया है. लेकिन धूमिल को लेकर एक द्वैत उनकी चेतना में बना ही रहा.

अब यह बात और स्पष्ट हो गई है कि धूमिल जिस यथार्थ को आज से इतने वर्षों पहले देख रहे थे वह अपने विकृततम रूप में आज उपस्थित हो रहा है. बुद्धिजीवी और कुछ करने की चाहत रखने वाले लोग वैसे ही बेचैन हो रहे हैं जैसे कि धूमिल हो रहे थे. फर्क बस इतना है कि धूमिल के वक्त में फिर भी वे बातें लिखी जा सकती थीं जो उन्होंने लिखीं, लेकिन आज के वक्त में आप तुरन्त देशद्रोही ठहराए जा सकते हैं, गोली लग सकती है, समाज से बहिष्कृत किए जा सकते हैं.

अब दूसरे साक्षात्कार को देखते हैं. इन दोनों साक्षात्कारों का फासला जो है वह चार साल का भी नहीं है. इतने कम वर्षों के फासले में भी अकविता और नक्सलवादी आन्दोलन के प्रभाव के संदर्भ में नामवरजी परस्पर विरोधी बातें कहते हैं. एक स्पष्ट राय नहीं है उनके पास. पहले में खुद ही धूमिल को वे अकविता से प्रभावित देखते हैं दूसरे में खुद ही उन्हें मुक्त करने का प्रयास करते हैं.  पिछले साक्षात्कार से अलग यहाँ नामवरजी धूमिल को अकविता से बिल्कुल अलग कर देते हैं- कुछ लोगों की राय में धूमिल भी कुछ समय तक अकविता आंदोलन से जुड़े थे क्योंकि दिल्ली से प्रकाशित होने वाली अकविता पत्रिका में उनकी एक कविता छपी थी. लेकिन लखनऊ से प्रकाशित होने वाली आरंभ नामक लघुपत्रिका के संपादक विनोद कुमार भारद्वाज को सन् 67 के एक पत्र में धूमिल ने स्पष्ट लिखा था-

अकविता में मेरी एक कविता शांति पाठ छप गई है और तुम जानते हो कि अकविता मेरे लिए कोई आंदोलन नहीं सिर्फ एक छोटी पत्रिका है. धूमिल के इस कथन से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अकविता आंदोलन से उनका कोई संबंध न था….अकविता से धूमिल को संबद्ध करने का कारण शायद यह है कि उनकी आरंभिक कविताओं में कहीं कहीं मासिक धर्म, गर्भपात, वीर्यपात, जाँघों का जंगल जैसे कुछ सुरुचि भंजक शब्द मिल जाते हैं किन्तु मेरे खयाल में धूमिल पर यह असर सीधे एलेन गिन्सबर्ग से आया था, जो इत्तफाक से सन 62-63 के दिनों में बनारस में थे और धूमिल उनसे अक्सर मिलते रहे. शायद इसमें कुछ हाथ राजकमल चौधरी का भी है जिनकी मृत्यु पर धूमिल ने एक कविता भी लिखी है. यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि सेक्स संबंधी वर्जित शब्दों का प्रयोग धूमिल ने अकविता के कवियों से भिन्न संदर्भ और भिन्न ढंग से किया है. धूमिल की कविता में ऐसे शब्द कुछ इस तरह से आते हैं जैसे गाँव के लोगों की सामान्य बातचीत के बीच अनायास या सहज भाव से.[11]

इस तरह नामवरजी खुद धूमिल को चार वर्ष बाद पूरी तरह से अकविता से अलग कर देते हैं. पिछले साक्षात्कार में उन्होंन जीभ और जाँघ के चालू भूगोल को अकविता की प्रवृत्ति से जोड़ कर देखा था. लेकिन इस साक्षात्कार में नामवरजी कहते हैं- अंग विशेष के लिए भोजपुरी तद्भव शब्द का प्रयोग अकवितावादियों से धूमिल को किस तरह से अलग कर देता है इस पर विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं है, अकाल का संदर्भ काफी है. … धूमिल के यहाँ तथाकथित अश्लील शब्द प्रायः राजनीति के संदर्भ में आते हैं लेकिन वे देह की राजनीति नहीं बनते जैसा कि राजकमल चौधरी के यहाँ होता है.[12]

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Tags: धूमिल
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Comments 6

  1. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी का विवेचन सचमुच बहुत गहरा और लगभग सर्वांगीण है। कविता को बुद्धिगम्य बनाने का काम ही शायद आलोचना का काम है। उससे परे अपना काम कविता ख़ुद ही करती है। उस ठौर पर कोई भी कविता ,किसी भी पाठक या आलोचक के लिए ,मात्र उतनी ही पहुंच पाती है जितनी ग्रहणशीलता उस व्यक्ति के भीतर हो।कविता या कला मात्र का यह अजीब विपर्यास है।ऐन वही तर्क,जो धूमिल की भावनात्मक और वैचारिक व्याकुलता को, और उसके फलस्वरूप एक लगभग आदर्श समाज एवं जीवन की परिकल्पना को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं–वे ही तर्क उन शक्तियों और व्यक्तियों को कितने नागवार लगेंगे,उनको, जिन्होंने जीवन-विश्व को “नरक”बना रखा है! कला विमर्श के भीतर से झलकने वाले कितने सारे ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी तरह के प्रतिपादन को, खंडन और मंडन को “सार्वभौम”होने ही नहीं देते! शशांक जी ने बहुत वस्तुनिष्ठता से धूमिल की केंद्रीयता आज के संदर्भ में पुष्ट की है।आशा करें कि अब जब हम धूमिल के पास जाएंगे, तो उनकी कविता से कुछ अधिक सम्रद्धि बटोर पाएंगे। हालांकि जिन्हें समता न्याय सहज भाईचारा सिरे से नापसंद है,वे…?

    Reply
  2. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    शीतांशु जी। टाइप की भूल क्षमा!

    Reply
  3. Gc Bagri says:
    4 years ago

    ऐसा लगता है जैसे बहुत सी कविताएं पिछले पांच वर्षों में ही लिखी गई हों। सही समय पर जरूरी आलेख। शीतांशु जी और समालोचन बधाई के पात्र हैं

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    4 years ago

    अपनी रचनाओं में छिटपुट स्त्रीवादी विचारों को लेकर कबीर,तुलसी और धूमिल- तीनों कवियों की आलोचना होती रही है। पर इससे उनके समस्त रचना संसार और उनके अवदान को खारिज नहीं किया जा सकता।धूमिल के रचना लोक के केंद्र में एक गुस्साये हुए आदमी की अभावों से भरी जिंदगी की व्यथा है । आजादी के बाद एक उम्मीद से भरे हुए आदमी का लोकतंत्र से मोहभंग और उसके टूटे हुए सपनों का आक्रोश इन कविताओं में पूरे आवेग से फूटते देखा जा सकता है। यह नाराज़गी सबसे अधिक व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र से है। इसकी हीं पराकाष्ठा हमें घोर अनास्था के रूप में नक्सलवाड़ी आंदोलनों में दीखती है। लेकिन तब से आधी सदी बीतने के बाद भी धूमिल की कविताएँ आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक होती गयी हैं।जाहिर है, हालात बदतर होते गये हैं क्योंकि जिस शोषण की बुनियाद पर व्यवस्था टिकी है उसकी जड़ें और भी गहरी होती गयी हैं। इतने विस्तार से शीतांशु का यह आलेख हमें धूमिल को आज के संदर्भ में समझने की एक आलोचना दृष्टि देता है।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !

    Reply
  5. शीतांशु says:
    4 years ago

    धन्यवाद आप सभी को इन सारगर्भित टिप्पणियों के लिए।

    Reply
  6. गंगाधर ढोके says:
    2 years ago

    धूमिल जी की कविताओं में स्त्री पक्ष को लेकर जो मलाल रहा, वह शीतांशु जी की समालोचना के बाद धूल गया है । आज के परिप्रेक्ष्य को धूमिल जी कविताओं के साथ पढ़ने को प्रेरित करता है यह आलेख ।

    Reply

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