अब दूसरा उदाहरण क्रियात्मकता यानी करने का– फ़िल्म ‘राम श्याम’ से, जिसमें नायक श्याम के भूखे होने और जम कर खाने या जान-बूझकर बेतहाशा खाने के दो दृश्य हैं– एक होटेल में वहीदा रहमान से पहली मुलाक़ात के ठीक पहले और दूसरा वहीदा रहमान व उनके पिता (नाज़िर हुसेन) के सामने, जब श्याम के बहनोई (प्राण) अपने खोए हुए साले राम को लेने आने वाले हैं, जिन्हें हमशकल श्याम ने वस्तुतः देखा भी नहीं है. आप देखिए कि दोनों बार एक ही दृश्य है खाने का– घर-होटेल की स्थितियाँ अवश्य अलग हैं, पर दुहराव के मौक़े (अवसर) शत-प्रतिशत हैं और जैसा कि कहा गया कलाई के बाहर का हाथ और चेहरा ही साधन हैं, पर मजाल है कि एक पल का भी कुछ दुहरा उठे,. इसे कहते हैं तैयारी यानी प्रणाली-सिद्धता. लेकिन मैं बताऊँगा नहीं यानी उसका वर्णन नहीं करूँगा. आपने देखा हो, तो याद कर लें. न देखा हो, तो ‘यू ट्यूब’ खोलें व देख लें.
हाँ, यह ज़रूर बताऊँगा कि दोनो दृश्यों में मक़सद है आने वाले परिणाम से बचना- पहले में खाने के बिल से बचने का और दूसरे में अनजान प्राण के अज्ञात सवालों से निपटने का. प्रक्रिया है खिलंदड़ापन, जिससे पहली बार दर्शकों और दूसरी बार नायिका के भी प्रभावित होकर इश्क़ में पड़ जाने के फलागम का मूल उद्देश्य निहित है, जो गौण बनाकर नियोजित है, पर बखूबी सधता है. उसमें उँगलियों से तमाम तरह के शाका-मांसाहारी खाद्य-पदार्थों को उठाना, तोड़ना-चोंथना, फिर चबाना-चिचोरना-चूसना व निगलना, तथा इस बीच जबड़ों-होठों-गालों व ललाट की रेखाओं की विभिन्न गतियों,एवं देखने व देखने से बचने के लिए आँखों की विभिन्न मुद्राओं के साथ खाने में पूरी तल्लीनता का जो संयोजन-नियोजन बनाया है, वह देखते ही बनता है, क्योंकि दिलीप साहब से वैसा करते ही बनता है. बीच में वहीदा के टहकने– ‘आराम से खाओ’– पर भोज्य पदार्थ से भरे मुँह व फूले गालों के साथ संवाद भी– ‘खाने दो न, गरीब का पेट भरेगा, तो आपको दुआएँ देगा, अब दर्शक की जानबूझकर रोकी हुई हँसी फट पड़ती है. वहीदाजी के पिता बने नाज़िर हुसेन के हो-हो करके हंसने के साथ पूरा हाल खिल-खिला उठता है– तब दृश्य को प्राप्त हो जाता है उसका असली मक़सद– दृश्य का फलागम,.
राज-देव,आदि सब लोगों के पास कुछ तो ऐसा बना-बनाया बेसिक ढंग-ढाँचा (मैनरिज़्म) था, जिसमें हर चरित्र को फ़िट करते, उसी में कुछ माकूल व मामूली तबदीली हो जाती,. लेकिन दिलीप साहब के पास ऐसा कुछ बना-बनाया न था. हर बार नया साँचा बनता. हर फ़िल्म के किरदार के अनुसार अदाएं बदलती-बनतीं, इसलिए वह एकरस (टाइप्ड) न होकर हर बार पुनर्नवा हो जाती. कुल मिलाकर संक्षेप में यह प्रक्रिया ऐसी थी, जो बात व दृश्य की माँग को दिल में बसाती थी, फिर दिमाँग की छननी से छनते व निर्देशित होते हुए शरीर की साधना व अभ्यास में व्यक्त होती थी. और यही सुविचारित-सुनियोजित वजहें थीं, जिनके चलते दिलीप साहब की अदायगी दिल में गहरे उतर जाती थी और ऐसी संवेदनात्मक शास्त्रीयता से बने दिलीप-कौशल से यह तिकड़ी भी अनजान न रही. और एक बार के बाद दिलीप साहब के साथ पर्दे पर न आने की वजहों में इस अंदरूनी वजह से भी इनकार नहीं किया जा सकता और न ही दिलीप साहब की उस आत्म-सजगता को नज़र-अन्दाज़ किया जा सकता, जिसमें दृश्यों में अपनी मौजूदगी की स्थिति एवं संवादों में आते लफ़्ज़ व लहजा-ओ-अन्दाज़ पर वे अपना वर्चस्व बनाने की हेकड़ी क़ायम रखते.
वर्चस्व की हेकड़ी की एक व्यावहारिक किवदंती भी है कि किसी फ़िल्म में ऐसा दृश्य बना, जिसमें दिलीप साहब के कंधे पर पाँव रखकर नायिका को नीचे उतरना था और उन्होंने साफ़ मना कर दिया. यह किंवदंती न भी होती, तो भी प्रमाण न होता, क्योंकि किंवदंती में भी दृश्य बना नहीं. लेकिन इसका निहितार्थ स्पष्ट है कि इतने बड़े कलाकर होने के बावजूद उनमें से पुरुष प्रधानता या रूढिबद्ध सोच समूल निकला न था. इसी संस्कार-सोच का परिणाम था आसिमा साहिबा का पत्नी के रूप में उनके जीवन में आने वाला प्रकरण (एपिसोड), जिसे संतान-प्राप्ति के लिए किया गया बताया जाता है- और पूर्व विवाहिता व बच्चों वाली आसीमा के साथ दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता था. इस स्तर के कलाकार व इतने सुसंस्कृत व्यक्तित्त्व के अनुकूल तो यह कृत्य कदापि न था, लेकिन वह पुत्रेष्टि का संस्कार भी यदि स्पष्ट रहा होता, तो डेढ़ दशक की सहधर्मिणी सायराजी से संतान न होने की मेडिकल जानकारी जब मिली, उसके बाद से उनको विश्वास में लेके सहयोगी प्रयत्न किया गया होता, गोद लेने का विकल्प परम्परानुमोदित भी होता और आधुनिक भी. आज तो कइयों ने बिना किसी कमी के सप्रयोजन ऐसा किया है– सामाजिक सरोकार के लिए. उस वक्त जितने प्राण-पण से सायराजी ने मुख़ालिफ़त की, और उन्हें बाहर निकाल लायीं, जिसके साक्षी उन दिनों की खबरों के साथ हम हैं, उतनी ही शिद्दत से २२ साल की उम्र से अपनी आज ७६ साल की उम्र तक दयिता (प्रेयसी-पत्नी)- धर्म व जज़्बात सायराजी ने जिस तरह निभाये हैं, वह तो स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है, फिर भी इस व्यक्तिगत मामले से हम जैसे मुरीदों के लिए उनकी कला-धर्मिता पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि हम ‘दुर्बलता को दुलराने वाले’ अपनत्व के हामी हैं. लेकिन उनके व्यक्तित्व के आकलन-मूल्यांकन में इस सच को छिपाना या महिमामंडित करना भी हद दर्जे की दक़ियानूसी होती, जो इन दिनों तमाम तथाकथित बुद्धिजीवियों ने की है– निरी भावुकता के नाम पर, मुँहदेखी सदाचारी औपचारिकता के नाम पर, जिन्हें नहीं पता कि दिलीप कुमार का कलाकार किसी की ज़ुबानी ठकुरसोहाती का मोहताज न कभी था, न होगा.
और अंत में, पर अंतिम नहीं कि दिलीप कुमार के सधते-मंजते हुए अंग-प्रत्यंग से व्यक्त होती कायिक भाषा के लिए किसी ने सही कहा है कि
‘उनके उठते-गिरते-उड़ते-हिलते बाल भी बोलते थे’.
शायर का लिखा व वैजयंती माला की लचकती-लहकती अदा में व्यक्त- ‘उड़ें जब-जब ज़ुल्फ़ें तेरी, कँवारियों का दिल मचले’,यूँ ही थोड़े बना है!!
कँवारियों द्वारा उनकी ज़ुल्फ़ों की भाषा समझने व उनके समझाने के भी तमाम क़िस्से हैं, और दिल सिर्फ़ कँवारियों का ही नहीं, हम जैसे तमाम कँवारों-विवाहितों-जवानों-बूढ़ों तक का भी मचला,एक पूरे जमाने का मचला और आगामी ज़मानों मचलता रहेगा!!
तल मंज़िल, नीलकंठ, ९-हाटकेश सोसाइटी, जेवीपीडी नम्बर -५, विलेपार्ले -पश्चिम, मुम्बई-४०००५६
सत्यदेव त्रिपाठी 2 जून, 1954 को सम्मौपुर, ठेकमा, आज़मगढ़ (उ.प्र.) साहित्य, नाटक एवं फ़िल्म पर समीक्षा की 12 पुस्तकें प्रकाशित, रज़ा फाउंडेशन की फेलोशिप के अंर्तगत लिखी पस्तक ‘अवसाद का आनंद’ (जयशंकर प्रसाद की जीवनी) सेतु प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य, रंगकर्मियों एवं मानवेतर प्राणियों पर संस्मरण पुस्तकें एवं एक कहानी-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. मराठी-गुजराती से हिंदी-भोजपुरी में अनुवाद कार्य-फुटकर कविताओं-लेखों के सिवा ‘ललित कला अकादमी’, दिल्ली के लिए मराठी का अनुवाद ‘कोरा कैनवस’ प्रकाशित. ‘गुजराती के ग़ालिब’ कहे जाने वाले शायर ‘मरीज़’ की की चुनिंदा सौ ग़ज़लों का संग्रह ‘दिल की ज़ुबान में’ परिदृश्य, मुम्बई से प्रकाशनाधीन. गुजराती नाटक ‘सिद्धहेम’ का हिंदी में ‘आइडिया अनलिमिटेड’ द्वारा मंचन.22 सालों तक मुम्बई से नियमित रंग-समीक्षा-नभाटा एवं जनसत्ता में. फ़िल्म समीक्षा पर ‘आज समाज’ (दिल्ली) एवं ‘समग्र दृष्टि’, (पूना) के लिए स्तम्भ लेखन. ‘महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी’ से पत्रकारिता के लिए बा.वि.पराडकर, समीक्षा के लिए नंद दुलारे वाजपेयी एवं साहित्य-कला में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए अनन्त गोपाल शेवड़े सम्मान; ‘वर्तमान साहित्य’ से कहानी लेखन पर ‘कमलेश्वर कथा सम्मान’, देवरिया से ‘नागरी रत्न’ एवं वाराणसी से ‘साहित्य सारथी’ तथा ‘रामचंद्र शुक्ल’ सम्मान. सम्पर्क |
बड़ा दिलचस्प रहा इसे पढ़ना। सोचा था बाद में पढ़ूंगी क्योंकि काम करने के लिए लैपटॉप ऑन हो चुका था। फिर भी एक सांस में पढ़ गई।
अभी कुछ दिनों पहले सुरेखा जी के लिए कुछ ऐसे ही अद्भुत पोस्ट को आप ने हमसे साझा किया , और अब दिलीप जी के लिए । धन्यवाद ।
आप की लेखनी की कला बिल्कुल वैसे ही है जैसे दिलीप जी कला नामों से परे रही ।
दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के उन थोड़े बेमिसाल नक्षत्रों में से हैं जिनके अभिनय की कला और गहराई पर किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व हो सकता है।उनकी गिनती मोतीलाल, बलराज साहनी,संजीव कुमार,प्राण जैसे कालजयी अदाकारों की परंपरा में होती है। इसमें दो राय नहीं है कि दिलीप कुमार बार बार पैदा नहीं होते। यह आलेख उनके जीवन के विविध प्रसंगों और पक्षों पर अच्छा प्रकाश डालता है।
जीवन में पढ़ने -लिखने का सिलसिला जबसे चला है तब से लेकर अब तक कई सारे लेखों को पढ़ा है किंतु सर के लेख को लेकर जो उत्सुकता जो होती है वो शायद ही कहीं और देख पाती हूं ।कुछ दिन पहले सर के ही माध्यम से साझा एक पोस्ट सुरेखा जी को लेकर देखा सुखद अनुभव हुआ ठीक वैसे ही आज यूसुफ़ से दिलीप का सफर और कलाकार अपना अंदाज़ यह जानने और समझने का मौका इस लेख के ज़रिए मिला । सौभाग्य ही है जो कुछ बातों का फर्क करना और फर्क समझना इनके सानिध्य से प्राप्त हुआ है नहीं तो क्या फर्क पड़ता की दिलीप,दिलीप के अलावा भी यूसुफ़ और न जाने क्या -क्या हैं ।बहुत फर्क पड़ता है कलाकार को सिर्फ कलाकार होते हुए देख ।
अप्रतिम लेख सर🙏पहले शब्द को पकड़कर मन बिल्कुल बहता हुआ अंतिम शब्द तक कब आया पता ही नहीं चला…कमाल!!
बहुत बेहतरीन अंदाज़े बयाँ, शीर्ष अभिनेता को आपने तहेदिल से उनकी शख्सियत के मुताबिक नवाज़ा ।
त्रिपाठी जी त्रिपाठी जी सदर प्रणाम,
बेहतरीन लेख। दिलीप कुमार पर यह संस्मरण/लेख पढ़ते हुए हम हिंदी सिनेमा के क्लासिक को समझने की दृष्टि अर्जित कर सकते हैं।
सत्यदेव त्रिपाठी जी ने उन कुचेष्टाओं का भी संज्ञान लिया है जो इन दिनों सोशल मीडिया पर दिखती हैं। बनाम और बरक्स का हवाला ऐसे कुत्सित अभियान का माकूल उत्तर है। दिलीप कुमार उर्फ़ युसुफ खान ने बनाम न चलने दिया, बरक्स ही चल निकला!
“अद्भुत कला किसी नाम-जाति की मोहताज नहीं होती, न ऐसे किसी पैमाने से सधती. इन तुच्छ दुनियादारियों से परे जाकर ही परवान चढ़ती है.”
कलाद्वेषी जमात को सटीक जवाब।
जानकारी पूर्ण और बेहद मार्मिक। शुक्रिया सत्यदेव जी ।
😅 लेख बहुत लम्बा था! पढ़ने में काफ़ी समय लगा और पढ़कर बहुत अच्छा भी लगा।
There are so many films you’ve cited here; I didn’t know half of them. 😂 But I am glad I know them now.
What I liked the most is your unique way of leading the reader through Dilip Kumar’s acting style, delivering dialogues, genres of films, his personal life and all of this without a hitch.
Loved reading this. Honestly, next when I watch Mughal e azam, I shall be watching it in a new light😀
Forever grateful to you for showing things with a new interpretation.
Der se padh payi… Kintu hamesha ka tarah sachmuch atyant sunder likha hai….