दो गज़ ज़मीन : संवेदना के क्षरण का सवाल!
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वरिष्ठ कथाकार हरि भटनागर का अभी नया उपन्यास ‘दो गज़ ज़मीन’ (शिवना प्रकाशन) से आया है. यह उनका ‘एक थी मैना, एक था कुम्हार’ के बाद दूसरा उपन्यास है. पहला उपन्यास जैसा कि उसके नाम से ही ज़ाहिर है लोक कथा शैली का इस्तेमाल करते हुए ज़मीन, पारंपरिक रोज़गार, शासन-प्रशासन से जुड़े कई गंभीर प्रश्न खड़े करता है. लेकिन, बिना बहुत ज़्यादा लाउड या आक्रामक हुए! यह हरि भटनागर का तरीक़ा है. वे अपनी कथा रचनाओं में गंभीर और ज़रूरी प्रश्नों को बिना आक्रामक हुए स्वाभाविक रूप से उभारते हैं, रचना की शर्तों पर! अलग से उन्हें रेखांकित नहीं करते! वहाँ प्रश्न या मुद्दे और रचना एक-दूसरे से अलग नहीं दिखाई देते. उनका पहला उपन्यास वैश्वीकरण और बदलती जीवन शैली के चलते पारंपरिक दस्तकारी और छोटे रोज़गारों के सामने पैदा हुए अस्तित्व के उन संकटों को सामने लाता है जिनके चलते ऐसे रोज़गारों से जुड़े लोगों के लिए जीवन-संघर्ष लगातार कठिन से कठिनतर होता जा रहा है. और जिसे रोज़गारविहीन विकास के मॉडल के पैरोकारों द्वारा स्वाभाविक मान लिया गया है. इस तर्क के चलते कि अगर विकास चाहिए तो उसकी कीमत भी चुकानी होगी! अब यह बात अलग है कि यह कीमत हमेशा किसान-आदिवासी जैसे लोग ही चुकाते हैं.
प्रशासनतंत्र और नीतिनियंता दोनों मिलकर अगर किसी का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिकार करते हैं तो तलछट के बाशिंदों का! जिनके बारे में जैसा कि बार-बार कहा गया है कि उनके पास बेचने को सिर्फ़ अपना श्रम होता है! और जो तादाद में हमेशा बहुसंख्य होते हुए भी सत्ता के खोल में हमेशा हाशिये पर ही होते हैं. हरि की रचनाओं से यह बात बार-बार उभर कर आती है. उनका पहला उपन्यास भी बहुवंदित-बहुप्रशंसित विकास के मॉडल का चाकर-तंत्र अपने क्रूर शिकंजे में कसकर एक आम घड़े बनाने वाले श्रमजीवी को किस तरह अपने रोज़गार और ज़मीन से बेदख़ल करता है इसे नायक भोला की त्रासदी के माध्यम से बहुत मारक ढंग से उभारता है. साथ ही, निचले तबके के लोगों के अपने हक़ों के लिए किये जाने वाले मासूम सामूहिक प्रयास और पाशविक सिस्टम के बीच के द्वन्द्व को उपन्यास बिना किसी युद्ध की मुद्रा के एक ज़रूरी बहस की शक्ल में भीं सामने लाता है. इस सवाल को खड़ा करते हुए कि ऐसे मामलों में सामूहिक प्रयास भी अन्ततः असफल क्यों रह जाते है और विकास की अन्धी दौड़ और जनतांत्रिक ढाँचे में औसत आदमी की असली औक़ात आख़िर होती क्या है! नवउदारवादी आर्थिक विचारक सम्भवतः ऐसे सवालों को अतीत के समाजवादी बीमार सोच का ही नमूना करार दे सकते हैं!
ज़मीन और रोज़गार का सवाल पहले उपन्यास के केंद्र में थे, इस दूसरे उपन्यास में भी हैं. लेकिन, बिल्कुल भिन्न प्रसंग में! और यहाँ प्रश्न ज़मीन के मालिकाना हक़ का भी नहीं है. एक क़स्बे के बस अड्डे को केंद्र में रखकर कही गयी कथा की कई परतें हैं. कथा मोटे तौर बस अड्डे पर चाय की दुकान चलाने वाले लाला (कन्हैया) की है. उसकी दुकान के आस-पास और भी कई छोटी-छोटी दुकानें हैं. मलऊ हलवाई, सत्या हेयर कटिंग सेलून, दरगाड़ी के साइकिल पंक्चर दुकान, रामखेलावन की पान दुकान, हीरा लस्सी वाले की दुकान, परचून दुकान, अन्नपूर्णा होटल. सारी दुकानें किराये पर हैं. जिनका मालिक शहर का सबसे प्रतिष्ठित औेर व्यस्त एडवोकेट रविशंकर है. किराये का हिसाब-किताब उसका मुंशी गिरधर रखता है. जो धूर्त है. किराये की रसीदें नहीं देता और हमेशा बक़ाया वसूली बताता रहता है. इतना ही नहीं, लाला से तनातनी के चलते दुकान में तोड़-फोड़ भी करवाता है. इस सबकी सारे दुकानदारों द्वारा सामूहिक रूप से रविशंकर से शिकायत की कोशिश भी असफल रहती है. लाला की दुकान पर गिरधर की वजह से ही नहीं बल्कि नगर पालिका वालों की हल्लागाड़ी से भी विपत्ति आती है. गाड़ी आकर दुकानों के बाहर रखा समान अतिक्रमण बता कर उठा ले जाती है. पंडित जी के साथ लाला बाक़ी दुकानदारों के साथ लामबंद हो कर फ़रियाद करने पहुँचते हैं. लेकिन, कहीं सुनवाई नहीं होती. उलट, फर्नीचर तोड़कर हल्लागाड़ी द्वारा वापस पटक ज़रूर दिया जाता है. पंडित जी जैसे व्यक्ति इस एक तरह के निजी आघात की तरह लेते हैं. वे उन लोगों में से हैं जो अब भी सरकारी काम-काज और संस्थागत कार्य व्यापार में सत्य एवं न्याय के परिपालन में विश्वास करते हैं. ख़ैर, लाला फ़िर जैसे-तैसे काम शुरू करता है.
उपन्यास के केंद्र में लाला (कन्हैया) है, चाय की दुकान चलानेवाला एक छोटा-सा व्यवसायी! उसकी दो दुनिया हैं- एक घर की और दूसरी बस अड्डे की! घर की दुनिया में माँ और आई हैं. आई का लाला काफ़ी सम्मान करता है. रोज़ सबेरे दुकान पर जाने के पहले उनके पैर छूता है. पत्नी है जिया जिससे लाला की हमेशा नोक-झोंक चलती रहती है. जिसमें लाला कभी-कभी हिंसक भी हो जाता है. हालाँकि, जिया के पीहर चले जाने पर वह उसकी अनुपस्थिति शिद्दत से महसूस भी करता है. चाय-दुकान से आमदनी कम है. जिया उसी में जैसे-तैसे गृहस्थी चलाती है. वह अक्सर इस बात की शिकायत आई से करती रहती है. आई काफ़ी सुलझी हुई हैं. वह जिया की परेशानी समझती है और अपने बेटे लाला की भी! दोनों के बीच सन्तुलन बनाने की कोशिश करती रहती हैं. लाला और जिया के बीच विवाद का एक प्रमुख मुद्दा है- उनका बेटा मंगल! लाला का मानना है कि मंगल का ध्यान पढ़ाई में कम, खेलने में ज़्यादा है और जिया उसे रोकती-टोकती नहीं! वह चाहता है कि मंगल ठीक से पढ़-लिख ले ताकि ठीक-ठाक नौकरी-धंधा मिल सके! इस बात पर नसीहत देने के अलावा कभी-कभी पीट चुका है. आई और जिया इस बात की कोशिश करती रहती हैं कि पिटाई की नौबत न आये! लाला की दूसरी दुनिया बस अड्डे पर उसकी चाय दुकान और आसपास की दुकानवाले हैं. यह दुनिया पहली वाली से काफ़ी बड़ी है. इनमें से मलऊ, रामखेलावन शम्भु, जगदीश, जाफर मियाँ, पंडितजी वग़ैरह जैसे लोग लाला की इस दुनिया के खास चरित्र हैं.
जगदीश दुकान में ही सोता है जब कि भट्टी जलानेवाले शंभू का ठिकाना पोस्ट ऑफिस का बरामदा है. जाफ़र मिया दूर से साइकिल से लाला की दुकान पर दूध देने आते हैं. पंडित जी (आत्माराम पाण्डे) सवेरे से शाम तक अड्डे पर रहते हैं. राजनैतिक रूप से सजग! नैतिकतावादी स्वर के प्रतिनिधि! कुल मिलाकर यह लाला की दूसरी बेहद आत्मीय दुनिया है! एक-दूसरे के सुख-दुख की परवाह करने, आड़े वक्त साथ खड़ी होने वाली! जिसमें एक ख़ास तरह की सामूहिकता भी है. जो कई मामलों में दिखाई देती है. यह छोटे लोगों की वह दुनिया है जिसमें लोग एक-दूसरे के साथ तो खड़े होते ही हैं, वक़्त-ज़रूरत लड़ते भी हैं. अपनी सामूहिकता में वे मनुष्यता की ख़ुशबू बचाये हुए हैं. जो इस बात का भरोसा बनाये रखती है कि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हो गया है बल्कि बहुत कुछ बाक़ी है. लाला सुबह से शाम तक इसी दुनिया में रहता है. खाना खाने घर जाता है. कभी-कभी पंडित जी जाकर खाना ले आते हैं.
पं. आत्माराम पाण्डे विधुर हैं. लाला के पुराने मित्र! ज्योतिष में भरोसा रखते हैं. समर्थ और पुराने बिन्दास व्यक्ति!! उनका बेटा गणेश आज्ञाकारी और सफल बिल्डर है. वे रोज़ पन्द्रह किलोमीटर दूर के अपने गाँव से आते हैं. अपने समय के राजनैतिक परिदृश्य को लेकर उनकी अपनी स्पष्ट राय है. उपन्यास में उनकी मौजूदगी उपन्यास के राजनैतिक पार्श्व को व्यंजित कर उपन्यास की ज़मीन को अप्रत्यक्ष रूप से थोड़ा और विस्तृत करती है. लाला की यह दूसरी दुनिया एक तरह से उनकी पहली दुनिया का विस्तार-एक्सटेंशन है. बल्कि कहा जाना चाहिए कि इन दोनों से मिलकर ही लाला की पूरी दुनिया बनती है.
लाला का बेटा मंगल उस दुकान से असंतुष्ट है. शिकायत भी करता है. पिता से उसकी नाराज़गी की एक वजह यह दुकान भी है. लेकिन, लाला के लिए दुकान रोटी-रोज़गार का ज़रिया ही नहीं बल्कि बहुत कुछ है. एक आत्मीय जगह! लाला की एकमात्र इच्छा के अनुसार मंगल इंटर की परीक्षा अव्वल नंबरों से पास कर पंडित जी के बेटे के साथ बिल्डर का काम करने लगता है. जल्दी ही काम सीख भी लेता है और अपना अलग काम शुरू करना चाहता है. ऑफिस के लिए जगह की तलाश शुरू होती है. यहीं से कथा में एक नया तनाव पैदा होता है. शहर में और कहीं मनपसन्द जगह न मिलने पर उसका ध्यान अपने पिता की दुकान पर जाता है. वही जगह उसे अपने ऑफ़िस के लिए सबसे अनुकूल दिखाई देती है. वह ऑफिस के लिए पिता से आधी जगह माँगता है. जिसके लिए लाला पहले तैयार नहीं होते. बाद में बेमन से होते हैं.लेकिन मंगल आधे की जगह पूरी दुकान हथिया लेता है. उसके कर्मचारी लाला के दुकान के नौकर से मारपीट करते हैं. लाला को इससे गहरा सदमा लगता है. ख़ासकर यह देखकर भी कि जिया और आई भी मंगल की तरफ़दार हैं. यह सदमा लाला की मौत का कारण बन जाता है.
कुल मिलाकर एक क़िस्सा है जो मौजूदा दौर के यथार्थ की बहुत सारी परतें खोलता है. मोटे तौर पर बेटे की आर्थिक महत्वाकांक्षा का शिकार लाला हो जाता है. असल मुद्दा सिर्फ़ बेटे द्वारा पूरी दुकान हथियाने का ही नहीं बल्कि उस बुनियादी संवेदना और समझ के क्षरण का है जिसके चलते मंगल अपने पिता के भावनात्मक लगावों को नहीं महसूस कर पाता. उसका इरादा भले ही नेक था लेकिन उस पर अमल उसने जिस तरह किया उससे पिता के भीतर की एक पूरी दुनिया की न सिर्फ नींव हिल गयी बल्कि पूरी दुनिया ध्वस्त ही हो गयी. यह लाला की भावनात्मक हत्या थी. जो उसके बेटे हाथों हुई. और ज़्यादा त्रासदायक इसलिए थी कि इन क्षणों में उसके साथ बस अड्डे के लोग तो थे लेकिन घर के नहीं! वे मंगल की महत्वाकांक्षा के साथ थे.
इसे नयी पीढ़ी का व्यावहारिक संकट की तरह लिया-समझा जा सकता है कि वह पिछली पीढ़ी के लगाव-जुडाव़ को ना तो समझ पाती है और ना उनका निर्वाह कर पाती है. मंगल के अलावा इसी पीढ़ी का दूध वाले जाफ़र मियाँ का बेटा बहाउद्दीन है जो पिता की तरह दूध का व्यवसाय नहीं करना चाहता, शहर में पोल्ट्री फार्म खोलना चाहता है. तीसरा मलऊ का बेटा नगिन है, वह भी पिता के व्यवसाय की जगह कुछ और ‘बड़ा’ करना चाहता है. पिता के साथ बहस में हिंसक तक हो जाता है. लेकिन, पंडित जी का बेटा गणेश इन तीनों से बिल्कुल उलट है.वह पिता का सम्मान करता है, उनकी भावना समझता है. लाला मंगल को लेकर चिंतित है. बचपन की मारपीट और अपनी माँ के प्रति पिता के अपमानजनक व्यवहार से मंगल के भीतर गुस्सा भी है! उपन्यास निम्नवित्त परिवारों के रिश्तों के कई गुंजलकों को खोलता है और कई महत्त्वपूर्ण चरित्र उभर कर आते हैं. जिनके केंद्र में है लाला! जो उसी गिरधर मुंशी की माँ को अपने घर से आया खाना खिलाता है जो उसे कई तरह से परेशान करता है. इसके अलावा लाला नवविवाहित जगदीश और उसकी बहू को अपने घर में जगह देता है! दूध वाले जाफ़र मियाँ के बीमार पड़ने पर उनसे उनके गाँव जाकर मिलता है! शंभु को भी आसरा दिये है. जब कि वह खुद संत-महात्मा नहीं है. छोटी-सी चाय दुकान चलानेवाला एक सामान्य गृहस्थ है. यह उसकी उसी ‘सामान्यता’ की विराटता है. वह संत या महात्मा होना भी नहीं चाहता. यह उसके सोचने की परिधि के भी बाहर है. वह बुनियादी तौर पर वैसा ही है! सहज रूप से! बिना कुछ ओढ़े-लादे! उसके ऐसे होने को लेकर बस अड्डे की दुनिया के- उसके आसपास के लोगों को उससे शिकायत भी है!
लाला की त्रासदी परायों नहीं अपने ही लोगों के बीच अकेले होते जाने और अपनी जीवन धुरी से हटा दिये जाने की है. इसमें सीधे-सीधे अपराधी कोई नहीं है. सिर्फ एक आंतरिक दंश! एक तो उसका अपना व्यक्तित्व और फिर मलऊ जैसी स्थिति में पड़ने का डर! वह कुछ नहीं कर पाता. ख़ास बात यह कि दुकान के आसपास वाले उसकी मनोदशा समझ रहे होते हैं लेकिन घर के लोग नहीं! यह एक खास तरह की त्रासद स्थिति है जो उपन्यास में अपनी पूरी चुभन के साथ व्यंजित हुई है. हरि बाक़ी तमाम चरित्रों के साथ-साथ लाला का चरित्र जिस तरह खड़ा करते हैं वह अपने-आप में बहुत ख़ास है. ऊपर से सपाट दिखने वाले इस चरित्र की भीतरी कई परतें हैं. जिनमें बहुत नीचे उसका एक पूरा संसार है. इस संसार में मलऊ, रामाखेलावन, पंडित जी, जाफ़र, जगदीश शंभु और मुंशी गिरधर की माँ भी है. पंडित जी जैसा कि पहले कहा राजनीति के उस नैतिक स्वर के प्रतिनिधि के रूप में हैं जिसे अब कोई सुनना चाहता! मलऊ-जाफ़र मियाँ वे हैं जो ज़िंदगी-भर खटते रहने के बाद अगली पीढ़ी की नज़र में असफल हैं. असफल लाला भी है! मंगल घोषित तौर पर ऐसा मानता है. निचले पायदान पर गुज़र-बसर कर रहे लोगों के पारिवारिक ढाँचे में आ रही ये दरारें अगली दुर्घटनाओं संकेत हैं.
महानायकों के जीवन-संघर्ष तो जाने-पहचाने होते हैं लेकिन लाला जैसे तमाम छोटे लोगों के बड़े जीवन-संघर्ष आम तौर पर अनदेखे-बिनजाने रह जाते हैं. हालाँकि, वे अपने इन संघर्षों की गाथाओं को अपने सीने पर तमग़ों की तरह लगाये नहीं घूमते. ’दो गज़ ज़मीन’ ऐसे ही छोटे लोगों के बड़े संघर्षों का क़िस्सा है. उपन्यास लाला के बहाने उन छोटे लोगों की बात करता है जिनकी कोई बड़ी इच्छाएँ नहीं हैं. एक मामूली-सी ज़िदगी चुटकी-भर बेफ़िक्ऱी के साथ किसी तरह गुज़ार-भर लेने के अलावा! उनकी कुल जमा लड़ाई छोटी उम्मीदें-छोटे सपनों को पूरा-भर कर लेने की है. लेकिन, इतना भी बहुत बार उनके लिए आसान नहीं हो पाता. कुछ व्यवस्थागत और कुछ अन्य तरह के अवरोधों के चलते! उनका जीवन हारे हुए युद्धों का आख्यान बनकर रह जाता है. घर से लेकर बाहर तक हारे हुए युद्ध! बिना युद्धक्षेत्रों में गये, बिना कवच-कुण्डल, शस्त्र-शिरस्त्राण धारण किये हिस्से में आये हुए युद्ध! जिसमें जीत भले ही कोई न रहा हो, हार ज़रूर रहा होता है. यह हार किसी को नहीं दिखाई देतीं. बिलकुल नज़दीक के लोगों को भी नहीं! उपन्यास इसी महीन स्थिति को उभारता है. इसे सीधे-सीधे जेनरेशन-गेप की तरह नहीं देखा-पढ़ा जा सकता. ऐसा करना उपन्यास की असल व्यंजना को सीमित करना भी हो सकता है.
उपन्यास मामूली लोगों के भीतर के उस मासूम किस्म के ग़ैरमामूलीपन को भी रेखांकित करता है जिसके लिए मसीहा या फरिश्ता बनने की ज़रूरत नहीं हुआ करती.
हरि के पास अपनी एक खास ढंग की कथा शैली है जो उनकी कहानियों में तो मौजूद रही ही है, पिछले उपन्यास में ‘एक थी मैना…’ मैं भी थी और इस उपन्यास में तो है ही! बल्कि, काफ़ी उठान लेकर विकसित भी हुई है. वे मोटे तौर पर क़िस्सा सुनाते हैं. हालाँकि, यह पारंपरिक किस्म की क़िस्सागोई नहीं है. बल्कि, यहाँ किरदार और क़िस्सा तो लगभग एकाकार हो जाते हैं. इसी के चलते पात्रों की भाषा ‘नेरेटर’ की भाषा एकरूप हो जाती है. जो कथाकथन में शुरू से आखिर तक ज़बरदस्त दबाव और गति बनाये रखती है. वे ब्यौरों के अति में नहीं जाते! लेकिन, ज़रूरी महीन ब्यौरे उनके यहाँ छूटते भी नहीं! और उन्हीं के ज़रिये विजुअल्स की शृंखला तैयार करते जाते हैं. जिसके कारण उपन्यास की कथा का बड़ा हिस्सा ‘दृश्य’ में बदल जाता है.
भाषा के इस तरह दृश्य भाषा में बदलने के चलते कथा भी दृश्य में बदलने लगती है. भाषा का एक ख़ास टोन और चुस्ती उपन्यास की कथा में ज़रूरी कसावट ला पाठक को कथा के भीतरी तनाव से जोड़े रखते हैं. उपन्यास की कुल कथा छोटी है. लेकिन वह जिस गति से ‘दृश्य’ होकर एक मायूस मोड़ पर आकर ख़त्म होती है वह उसे ख़ास बनाती है. ख़़ास बात यह कि ख़त्म होने के बाद मंगल जैसे चरित्र ‘अपराधी’ की तरह नहीं बचे दिखते. आर्थिक महत्वाकांक्षा की कठोर व्यावहारिकता उसे जाने-अनजाने अपने पिता के खि़लाफ़ खड़ा कर देती है-यह बात अलग है. और यही उपन्यास की ख़ासियत भी है.
प्रकाश कान्त 155, एल.आई.जी. / मुखर्जी नगर / देवास,म.प्र. 455001 मो. 09407416269 |
उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा जगाता बढ़िया आलेख।