• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण : तरुण भटनागर

ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण : तरुण भटनागर

प्राचीन भारतीय नगरों के बनने, मिटने और खोजने की गाथा ‘भारत के विस्मृत नगर’ की पहली कड़ी ऐरण अर्थात ऐरिकिण पर आधारित है. ‘ऐरण’ मध्य प्रदेश के सागर से लगभग ९० किलोमीटर दूरी पर है. यह भारत के प्राचीनतम और समृद्ध नगरों में से एक था जिसकी खोज़ ब्रिटिश काल में कनिंघम ने की थी. कथाकार-लेखक तरुण भटनागर ने इस इतिहासपरक आख्यान में बड़े ही रोचक ढंग से इस नगर का वृत्त लिखा है, तथ्य निपुणता से कथा की शैली में बुन दिए गये हैं. जो इतिहास से छूट जाता है उसे साहित्य देख लेता है.इस स्मृतिहीन समय में यह श्रृंखला अतीत को देखते हुए खुली दृष्टि भी विकसित करती है, और अपने प्राचीनतम धरोहरों के रखरखाव और उसके प्रति लगाव की जरूरत को भी रेखांकित करती है.प्रस्तुत है.

by arun dev
January 10, 2021
in इतिहास
A A
ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण : तरुण भटनागर
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 

ऐरण उर्फ़ ऐरिकिण                             

 

विस्मृत अवशेषों का देश काल                 
तरुण भटनागर                             

 

अपने नामकरण के तमाम तथ्यों के बीच, हमारी दुनिया में यह अनसुना सा नाम ही रहा है- ऐरण. यूँ यह तमाम जगहों पर लिखा हुआ मिलता है प्राचीन हिन्दू और बौद्ध ग्रंथों में, पुरातन सिक्कों और अभिलेखों में और इस तरह से कई जगह, सैकड़ों, हज़ारों बार उल्लिखित है. विद्वान कनिंघम ने इस शहर के तीन अलग–अलग नामों का हवाला दिया था. हो सकता है और भी ऐसे हवाले हों, कहीं किसी प्राचीन किताब में या अब तक न ढूंढे जा सके किसी शिलालेख या पुरातन सिक्के में. भले आज वक्त के साथ यह जगह अपरिचित सी हो गयी हो, पर इससे क्या होता है, इसके हवाले मिलते हैं, खूब मिलते हैं. यह बात कि लोग अगर प्राचीन शहरों को भूल जाएँ, तब भी उसके वे हवाले यथावत रहते ही हैं कुछ इस तरह कि इन हवालों से गुजरो तो ऐरण का एक किस्सा ही बन जाता है.

एक हवाला है ऐरकैण या इरिकिण नाम से और जैसा कि कनिंघम ने अपनी एक रिपोर्ट में दर्ज किया है कि ऐरण के वराह अभिलेख में इस शहर का यही नाम उसने पढ़ा था. इस तरह एक शख़्स जिसकी मातृ भाषा अंग्रेजी है, पत्थर पर संस्कृत में उकेरे गए नाम को गौर से पढ़ता है, हर्फ़ दर हर्फ़ और लिखता है– यही पढ़ा था, यही, एकदम यही. दूसरा नाम वह बताता है जो यहाँ से उसे मिला, जो कई किस्म के सिक्कों पर उल्लिखित है– ऐराकणय या एरकणय. यह नाम कई सिक्कों पर उकेरा हुआ है. कहते हैं इस प्राचीन शहर में एक टकसाल थी जिसने भारत में सिक्कों को ढालने के तरीकों में नये परिवर्तन किये थे. जो सिक्के ढाले जाते उनमें इस शहर का नाम लिखा होता– ऐराकणय या एरकणय.

तीसरा जो नाम प्रचलित है, आज भी और जब आप इस जगह जाते हैं तो इसी नाम को पूछते हुए यहाँ तक पहुँच सकते हैं यानी ऐरण. ऐरण का अर्थ जैसा कि कनिंघम लिखते हैं, नर्म और नाज़ुक किस्म की घास है जो इस इलाके में बहुतायत में रही होगी. जिससे इसे इसका नाम मिला. एरका या इरका नाम की मुलायम और नर्म घास के इलाके में फैला एक शहर यानी ऐरण. इस तरह किसी घास के नाम पर एक शहर का नाम होता है और फिलहाल ऐसा कोई शहर याद नहीं आता कि उसका नाम घास के किसी प्रकार पर रखा गया हो. यह नाम हज़ारों साल तक चलता रहा. हो सकता है उन प्राचीन दिनों में कोई श्रेष्ठी, कोई कृषक, कोई कर्मकार, कोई पुक्कस, कोई सार्थवाह, कोई नर्तक, कोई स्नातक, कोई सारथी या कोई भी रोजमर्रा का कामकाजी इस शहर से जाता हो काशी, कौशाम्बी, त्रिपुरी या पाटलिपुत्र ही और किसी के पूछने पर कि कहाँ से आये हो, गर्व से बताता हो– ऐरण.

एक खूबसूरत बात यह भी है कि दो जगह इसके दो नाम लिखे हैं. ये नाम एक के बाद एक कई सालों के बाद लिखे गए और जो रोचक रूप से एक जैसे हैं. गुप्त शासक समुद्रगुप्त के एक अभिलेख में ऐरिकिण और ऐसा ही एक नाम इरिकिण जो हूण राजा तोरमाण के 510 AD के अभिलेख में दर्ज़ है. बदलते नामों की तमाम पहचानों के बीच भी एक सी ध्वनि सुनाई देती है जो इस शहर के नामकरण का आधार रही होगी और आज जो एक गाँव है इस बात पर अचरज का बायस है कि यह एक ऐसा विशाल और महत्वपूर्ण शहर रहा होगा कभी खासकर दूसरी सदी ईसा पूर्व से लेकर पाँचवीं सदी तक.

 

अठारहवीं सदी के अंत में किसी समय यहाँ से मिले सिक्कों में से एक सिक्के पर कनिंघम के साथ के लोगों को एक नदी कि आकृति दिखी थी. आज से डेढ़ हज़ार साल से भी पहले के इस सिक्के पर उकेरी गयी यह नदी बीना नदी है जो आज भी इस इलाके में बहती है. ऐरण के भग्नावशेष इसी नदी से थोड़ी  दूर बिखरे पड़े हैं. यहाँ के टकसाल के कारीगरों ने इन  सिक्कों को ढालते वक्त इस पर इस नदी को उकेरा था. पता नहीं क्या था कि इस सिक्के पर राजा के चित्र, की जगह बीना नदी का चित्र बना, किसी राजकीय प्रतीक की जगह बहती नदी की लकीरें उकेरी गयीं और किसी वैभवशाली नाम या प्रशस्ति की जगह नदी की लहरों को बना दिया गया.  

ऐरण का नाम इतिहास की परीक्षाओं और खासकर नौकरी के लिए दी जाने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं के वक्त से  इस तरह से याद रहा कि एक दोस्त अक्सर पूछता था कि वह कौन सी जगह है जहाँ से किसी के स्त्री के सती होने का सबसे पुराना साक्ष्य मिलता है. हूण राजा तोरमाण का ऐरण से मिला वही अभिलेख जो 510 AD का है सती प्रथा का सबसे पुराना साक्ष्य माना जाता है. उसके इस प्रश्न पर जो वह दोस्त अक्सर पूछता था, यह भी लगता ही था, कि कोई जगह इतिहास की पढ़ाई में इस वजह से जानी जाती है कि वहाँ से सती का पहला साक्ष्य मिलता है. पर यह ज्यादती भी है, इतिहास के अध्ययन में प्रचलित तथ्यों की ज़्यादती. यद्यपि यह साक्ष्य इस बात को स्थापित करता रहा है कि सती की कुप्रथा हमारे यहाँ राजपूतों के काल से भी पहले से थी और इस लिहाज़ से सती का यह साक्ष्य महत्वपूर्ण माना जाता है.पर वे तथ्य जो ऐतिहासिक सच होते हैं, उन तथ्यों की भी ज्यादती होती ही है, कि एक शहर जो कभी सपनों का शहर भी रहा होगा, होगा ही क्योंकि आम आदमी के सपने ही किसी शहर को शहर बनाते हैं, अपनी एक बेहद छोटी या अपमानजनक पहचान में सिमट जाता है और उस पर तुर्रा यह कि इतिहास बदनाम करने या ग्लोरिफ़ाई करने के लिए तो नहीं है न.

यह कहने में संकोच नहीं कि उस पुराने दोस्त के बाद एक और दोस्त मिला था पूरे पच्चीस साल बाद और इस तरह ऐरण क्या है मैं जान पाया था. वह ऐरण जो सती के सबसे पुराने साक्ष्य वाला शहर होते हुए भी, किसी दौर के सपनों का शहर था ही जहाँ के बारे में इसी दोस्त से पच्चीस साल बाद जाना कि जब पहली बार इस शहर का उत्खनन हुआ था तब इसके भग्नावशेषों के आसपास से 3000 से ज्यादा प्राचीन सिक्के मिले थे, सैकड़ों साल पुराने सिक्के खासकर 300 BC से लेकर 500 AD तक के जो इस तरह एक ही जगह से मिले सिक्कों के सबसे बड़े जखीरे में से एक है और यह भी कि  बाद में कनिंघम की रिपोर्ट ‘ऑन टूर्स इन बुंदेलखंड एंड मालवा’ में लिखे एक चैप्टर में इसका विस्तृत अध्ययन अचरज से भर देने वाला लगता है. फ्लीट के न्यूमैसमैटिक्स के अध्ययन में खासकर 300 BC से 100 AD तक के इन सिक्कों का विश्लेषण है जो इस शहर का, इस सती वाले प्रचलित इकहरे तथ्य से कहीं ज्यादा विस्तृत एक मुख्तलिफ किस्सा बताता है.

यह सब उस समय की बात है जब हूणों के हमले शुरू हुए थे. ऐरण उस वक्त एक बड़ा शहर था. पर्याप्त साक्ष्य हैं कि यह एक समृद्ध शहर रहा होगा. 18 वीं सदी में जब कनिंघम और उसके लोगों ने यहाँ काम किया था उस वक्त कैमरे नहीं होते थे. इस तरह इस जगह के स्कैच तैयार किये गए थे. उस दोस्त ने मुझे ये सब दिखाया था. वह कनिंघम की किताब और उन स्कैचे के चित्रों को  लेकर आया था. मैं उसके तरतीब से कढ़े बालों और सुनहरे नाज़ुक फ्रेम के चश्मे को देखता रह गया था और वह उन पुराने सकैचों को मेरे सामने रखता जाता था, जिनके नीचे किसी अनाम से चित्रकार का नाम लिखा होता–

‘ये वह स्तम्भ है जो बुद्ध गुप्त के वक्त में मैत्री गुप्त और धन्य विष्णु ने बनाया था, देखो तब भी इस पर ये दोनों गरुड़ बने थे जिनकी पीठ जुडी है और जिनके सिर के पीछे यह चक्राकार आकृति बनी है‘.

वह इतनी तल्लीनता से बताता था, कि खुद ही किताब और चित्र देखता था और बोलता जाता था–

‘ये वो स्तम्भ है जिस पर लिखे अभिलेख से और तोरमाण वाले अभिलेख से लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं क्योंकि दोनों का वक्त एक ही है. पर जो स्तम्भ पर लिखा है वह भानुगुप्त का अभिलेख है जो कि एक बाद का गुप्त राजा था और दूसरा जो वराह पर है वह भी 510 AD का है और हूण राजा तोरमाण का अभिलेख है.’

वह अपने साथ बौद्ध धर्म की एक किताब ‘मंजूश्री मूल कल्प‘ और राधाकुमुद मुख़र्जी की ‘गुप्तकालीन भारत‘ लाया था. मेरी उससे बहस हुई थी कि वह इतना श्योर कैसे है कि 510 AD तक तोरमाण ने यहाँ के गुप्त शासक भानुगुप्त को परास्त कर दिया था, शायद यह बात सही नहीं जो वह बताता रहता है. अपनी इस बात के सबूत के रूप में उसके पास ये चार चीजें थीं– 1888 का तोरमाण और भानुगुप्त के अभिलेखों का ट्रांसक्रिप्ट, कनिंघम की किताब ‘रिपोर्ट ऑफ़ टूर्स इन बुंदेलखंड एंड मालवा इन 1874-75′ के कुछ हिस्से, राधा कुमुद मुखर्जी की किताब ‘गुप्तकालीन भारत‘ और बौद्ध धर्म ग्रन्थ ‘मंजूश्री मूलकल्प‘.

मैंने उसे बड़े तरतीब से मंजुश्री मूलकल्प के पन्नों को पलटते देखा था. इतनी नफ़ासत से मानो जरा जोर से पलटे तो पन्ना मुड़कर टूट जाए जैसा कि बहुत पुराने पन्नों के साथ होता है. यद्यपि उस किताब के पन्ने इतने नाजुक न थे, शायद इसलिए वह इतनी नफ़ासत से उसके पन्ने पलटता था ताकि वे सलामत रहें और पुराने होकर भी बरसों तक उसके पास टिके रहें. मंजूश्री मूलकल्प की उस किताब पर उसके अनुवादक का नाम लिखा था– राहुल सांकृत्यायन. यह नाम देखने के बाद मैं अपनी कुर्सी से उठकर उसके पास चला आया था और किताब के एकदम पास अपना चेहरा लाकर उसे टकटकाता सा देखने लगा. मेरी यह हरकत उसे ठीक न लगी– ‘तुम बैठो न. मैं तुम्हें बता तो रहा हूँ.’- उसने मेरी आँखों की ओर देखकर कहा.

‘ये राहुल सांकृत्यायन का अनुवाद है.’- मैंने थोड़ा अचरज से पूछा. ‘तुम तो ऐसा प्रदर्शित कर रहे हो मानो इस लेखक को जानते हो. मैंने कहा न मैं बता तो रहा हूँ.’- उसने थोड़ा तल्ख़ी से कहा था. मैंने देखा कि कनिंघम के दौर के नक्शों और कुछ ट्रांस्क्रिप्टस को उसने एक पन्नी में संभाल कर रखा हुआ था. शायद इसलिए के उसके बिखरते पन्ने सलामत रहें, मंजुश्री मूलकल्प का एक पृष्ठ उसने बड़ी हिफाज़त से खोल लिया था. मुझे पहली बार लगा कि भले आपने  राहुल  सांकृत्यायन को पढ़ा हो और उनकी किसी अनुदित किताब को देख अचरज में पड भी जाएं तब भी ऐसे दोस्त की बात गौर से सुन लेनी चाहिए जो किसी पुरानी किताब के पन्नों को बड़ी हिफाज़त से पलटता है, उसके किसी हिस्से के बारे में इस तरह से बताने को आतुर होता है  मानो बता न रहा हो  खुद से ही बात कर रहा हो.

तो इस तरह मैंने ऐरण को पहली बार जाना था.


फ्लीट और कनिंघम के प्राम्भिक अध्ययन ये बताते हैं कि यहाँ से मिले सिक्के जिन्हें कनिंघम ने पंचमार्क, ड्राई स्ट्रक, कास्ट और इन्स्क्राइब्ड की श्रेणी में बाँटा है, यहाँ स्थित किसी विशाल मिंट याने सिक्के गढ़ने के कारखाने में बने होंगे. इन सिक्कों पर जे.सी. ब्राउन के इस निष्कर्ष में काफी तर्क है कि भारत में पुराने पंचमार्क सिक्कों की जगह डाई स्ट्रक सिक्के बनाने का काम ऐरण में ही शुरू हुआ था. डाई स्ट्रक सिक्के धातु की  दो परतों को एक दूसरे पर पीट कर तैयार किये जाते थे और पुराने पंचमार्क सिक्कों से आगे की तकनीक के थे. ईसा पूर्व सातवीं सदी से लेकर कम से कम 300 ईस्वी तक के जो सिक्के इस स्थान से मिले हैं उनका प्रसार उज्जैन, मालवा और त्रिपुरी तक था. यानी सिक्कों की सप्लाई के केंद्र के रूप में यह शहर था ही जहाँ ये सिक्के ढाले जाते थे और इनकी आपूर्ति की जाती थी. तमिलनाडु के सुलूर जैसे दूरस्थ इलाके के उत्खनन में ऐरण के ये सिक्के मिले हैं. कनिंघम का यह मानना रहा है कि ऐरण से मिले प्राचीन ताम्बे के सिक्के भारत में मिले सबसे उत्तम गुणवत्ता के सिक्के हैं. उनके अनुसार प्राचीन भारत के सबसे बड़े और सबसे छोटे आकार के सिक्के भी यहीं से मिले हैं. कुछ सिक्कों में चंद्राकार आकृति बनी है. कनिंघम के अनुसार यह चंद्राकार आकृति ऐरण शहर का प्रतीक है. यह आकृति ऐरण शहर के विन्यास को दिखाती है. ऐरण शहर चंद्राकार आकार का था और इसके इसी आकार को दर्शाते चंद्राकार आकृति सिक्कों में अंकित की गयी. यह बात हमेशा रोचक लगी कि एक शहर का नाम दूर–दूर तक फैली घास के नाम पर होता है और जो चंद्राकार आकृति का है और जिसके सिक्कों में उस इलाके की नदी को उकेरा जाता है.

हूणों में सबसे पहले हमला करने वाले हूण किराडाइट हूण बताये जाते हैं. किडाराइट हूण वे हूण थे जिन्होंने सबसे पहले उत्तर पश्चिम भारत के इलाकों पर कब्ज़ा किया था और बाद में गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी इलाकों पर. स्कंदगुप्त के वक्त का भितारी अभिलेख इनके साथ एक भयानक युद्ध का हवाला देता है. बाद में इन्हीं हूणों की एक शाखा जिसे एलकॉन हूणों के नाम से जाना जाता है उनके हमले हुए जिसमें पुराने हमलावर किडाराइट हूणों की शिकस्त हुई. इन्हीं एलकॉन हूणों में एक राजा हुआ तोरमाण. ऐरण के दोनों अभिलेखों याने भानुगुप्त और वराह वाले अभिलेख, बौद्ध ग्रन्थ ‘मंजूश्री मूलकल्प‘ तथा राधाकुमुद मुख़र्जी और अन्य इतिहासकारों के निष्कर्षों के आधार पर माना जा सकता है कि ऐरण का राजा भानुगुप्त इसी तोरमाण से जंग में हारा गया था और इस तरह पश्चिमी गुप्त साम्राज्य का यह हिस्सा जिसमें आज का मालवा का क्षेत्र शामिल है, हूणों के कब्जे में चला गया. पर यहाँ एक दिक्कत यह है कि इन दोनों अभिलेखों की दो व्याख्याएं हैं. एक 1888 की जो कनिंघम की टीम ने की थी और दूसरी 1981 में आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की और दोनों में अंतर है. इसकी वजह यह है कि प्राचीन काल में अभिलेख प्रशस्ति या अन्य जानकारी को काव्यात्मक और प्रतीकात्मक रूप में दर्शित करते थे जिसकी अलग–अलग व्याख्याएं निकाली जा सकती थीं. मैं उस दोस्त को सुनता था जो मंजुश्री मूलकल्प के आधार पर यह बात कहता था कि तोरमाण ने भानुगुप्त को परास्त किया था और ऐरण पर कब्ज़ा कर लिया था. राधाकुमुद मुखर्जी की किताब उस पर थी ही.

(एरण का विष्णु मंदिर मण्डप)

 

विष्णु और नरसिंह के खूबसूरत मंदिरों के भग्नावशेष यहाँ हैं और जैसा कि कनिंघम का एक आकलन बताता है एक विशिष्ट नक्षत्र की वजह से इन्हें सामान्य से अलग कोण पर निर्मित किया गया था. एक मंदिर जिसके भग्नावशेष यहाँ पर हैं हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाता है. इसका काल सातवीं सदी का बताया जाता है, पर कनिंघम की किताब में इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिली. यहाँ का एक शानदार स्थल एक स्तम्भ है जो 484 या 485 AD का बताया गया है और बहुत ऊंचा है. पत्थर का यह विशाल स्तम्भ संभवतः बुद्ध गुप्त का है. इसके ऊपर गरुड़ की दो मूर्तियाँ हैं जो एक दूसरे की ओर पीठ की हुई हैं और जिनके हाथों में साँप हैं. ये आदमकद मूर्तियाँ जो स्तम्भ के शीर्ष पर हैं 5 फ़ीट तक ऊँची हैं. यह पूरा क्षेत्र बेहद खूबसूरत और हमारे दौर के प्राचीनतम वैष्णव मंदिरों का क्षेत्र है, जो आज भी कमाल का दिखता है. यहाँ का भव्यतम मंदिर वराह मंदिर है जो इन्हीं मंदिरों के समूहों में से एक है. ये मंदिर  चौकोर आयोजन वाले हैं और इनमें से कई जैसा कि कनिंघम बताते हैं चौरस छत वाले भी हैं जैसा की सबसे प्राचीन गुप्त काल के मंदिरों में देखने को मिलता है.

 

(एरण स्थित वराह की विशालकाय प्रतिमा) 

 

वराह मंदिर के स्तम्भों का अलंकरण बेहद शानदार है. संभवतः राजा धन्य विष्णु के बनाये इस मंदिर के इन स्तम्भों में सभी ओर अलंकरण हैं ही जो पत्थर में काफी गहराई लिए हुए है और चक्र, कमल, सिंह,  घण्टी आदि के आकारों से बनाये गए बेल बूटों और कंगूरों से भरे हुए हैं. स्तम्भ पर अलंकरणों में बेहद सटीक ज्यामितीय सममितता और साम्य है तथा इनके सजावटी नमूने एकदम अलग हैं जो उस दौर में विकसित स्थापत्य से हमें रूबरू कराते हैं. कनिंघम ने इन स्तम्भों का एक रेखाचित्र भी तैयार करवाया था, जो उसकी रिपोर्ट का हिस्सा है. वराह की शानदार मूर्ती पर कैथरीन बेकर का एक आलेख है ‘नॉट योर एवरेज बोअर : द कोलोसल वराह एट ऐरण, एन आईकॉनोग्राफिक इनोवेशन‘ जो इस वराह की शानदार मूर्ति  के बारे में है.

उन्होंने इसे मूर्ति विद्या का नवाचार कहा है. वे इसके ऊपर किये गए जटिल अलंकरणों, इसके दाएँ टस्क से लटकती देवी की मूर्ति, इस पर लिखे अभिलेख और अन्य बारीकियों की वजह से इसे प्रतीकात्मक आख्यान की मूर्ति भी कहती हैं. उन्होंने यह तर्क भी किया है कि इसके चारों ओर बना मंदिर जैसा कि स्तम्भों और मंडप के अवशेषों से पता चलता है ठीक वैसा ही रहा होगा जैसा कि खजुराहो के वराह मंदिर में देखने को मिलता है. तमाम अनुसंधानकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत इस मंदिर के संभावित वास्तु और रेखांकनों के बीच इस मंदिर का एक विस्तृत विन्यास उन्होंने प्रस्तुत किया है जो पूर्व में और खासकर कनिंघम द्वारा प्रस्तावित चौकोर विन्यास से काफी अलग है. इसके पक्ष में कुछ अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण साक्ष्य भी उन्होंने प्रस्तुत किये हैं.

कैथरीन बेकर का यह आलेख इस पुरातनतम वराह की इस मूर्ति की व्याख्या प्रस्तुत करता है. वराह के दाहिने दन्त से धरती माता को दिखाया गया है जिनका केश विन्यास और रत्नजड़ित पगड़ी बेहद खूबसूरत है. वराह के कानों के पास दैवीय वाद्य यन्त्र वादकों का अंकन है.पीठ पर एक तरफ साधुओं का एक समूह उत्कीर्णित है जो एक हाथ में कमंडल लिए हैं और दूसरे में योग मुद्रा का प्रदर्शन कर रहे हैं. नीचे का एक हिस्सा जिस पर से पत्थर की चिप्पी उखड़ गयी है बहुत संभव है उस पर विष्णु का कोई अंकन रहा हो विशेषतः उनके उन अवतारों में से कोई जिसमें उन्हें मनुष्य की देह से अलग किसी दैवीय जीव के रूप में दिखाया गया हो. बेकर ने यह निष्कर्ष कुछ अन्य वराह की मूर्तियों से इसकी तुलना कर निकाला है. इस तरह इन चार दैवीय मानवीय आकृतियों के अलावा एक आकृति वराह की जीभ पर अंकित है. इस वराह की जीभ जरा सी बाहर को निकली है और इस पर बनी आकृति को बेकर के इस लेख में सरस्वती बताया गया है, जीव्हा पर सरस्वती का वास होने की हिन्दू मान्यता के आधार पर.

बेकर का मानना है कि वाराह के गले में उत्कीर्णित माला जिसमें अट्ठाईस फूलनुमा ज्यामितीय आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं वे अट्ठाईस नक्षत्रों को दर्शाती हैं. यद्यपि इसका कोई सुस्पष्ट आधार उनके इस लेख में नहीं दिखता है पर प्रत्येक नक्षत्र की खगोलीय स्थिति और उसमें पुरुष और स्त्री तत्वों के समावेशन पर उन्होंने विस्तार से लिखा है.

वराह की छाती पर अंकित हूण राजा तोरमाण के 510 AD के अभिलेख की बेकर की व्याख्या इस पर प्रचलित और मान्य ऐतिहासिक तथ्यों जैसी ही है. मालवा के पूर्वी क्षेत्रों पर हूणों के कब्जे और गुप्त राजा के पराजय को इस अभिलेख के माध्यम से उन्होंने भी बताया है. सती के बारे में भी वही है जो पहले उल्लिखित किया गया. यद्यपि वराह के शिल्प और ऐतिहासिकता की कई-कई जगह भावुक और अलंकृत भाषा में व्याख्या की गयी है, पर फिर भी इस अद्भुत मूर्ति को जानने समझने के लिए यह एक अहम लेख है. 

हूणों के हमलों को लेकर उस दोस्त के पास बहुत कुछ था, जैसे कौशाम्बी को नष्ट किये जाने के प्रमाण जिनमें कौशाम्बी में आर्किओलॉजीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की एक पुरातात्विक खोज का ज़िक्र भी था,  जिसमें लगभग पाँच सेंटीमीटर की राख के अवशेषों के नीचे दबा एक विशाल प्रसाद मिलता है. एक बेहद अविश्वसनीय रिपोर्ट पर उसका एक मजबूत तर्क पाटलिपुत्र को लेकर भी था, कि हूणों के हमले के बाद मगध का वह सबसे आलीशान शहर एक गाँव में तबदील हो गया था. कुछ साक्ष्य इस बात के भी थे कि अंततः उज्जयिनी, विदिशा और मथुरा जैसे शहरों का विनाश भी इन हमलों में हुआ ही. ऐरण पर ऐसा कुछ भी कहीं नहीं दीखता इस मजबूत प्रमाण के बाद भी कि हूणों ने यहाँ के गुप्त राजा को परास्त किया. सिक्कों के विशाल जख़ीरे के अलावा ऐरण इस जगह से मिले  सिद्धवरमन, समुद्रगुप्त, बुद्धगुप्त, तोरमाण और भानुगुप्त के अभिलेखों के लिए भी इतिहास में अपनी जगह रखता है, यद्यपि अपनी अस्पष्टता और इस वजह से बार–बार इन अभिलेखों के ट्रांसक्रिप्ट के कारण आज भी इन पर काफी काम किया जाना है. 1881 के कनिंघम के ट्रांसक्रिप्शन और 1988 का ASI के ट्रांसक्रिप्शन के बाद एक लम्बा वक्त बीता है और इस काल को समझने की ऐतिहासिक चेतना का काफी विकास भी हुआ है. कनिंघम ने उस वक्त किसी स्थानीय व्यक्ति के घर पर विष्णु से जुडी एक प्राचीन मूर्ति देखी थी, जिसका जिक्र किया है. हो सकता है वह अब भी वहाँ हो. संरक्षण और खोज कुछ और चीजों को सामने लाती ही है.

एक अद्भुत बात यह भी है कि उत्खनन ने यह बताया कि यह जगह कहीं ज्यादा पुरानी रही है. यहाँ से चैलियोलिथिक काल के औजार मिले हैं. जो इसकी पुरातनता को कम से कम एक हज़ार आठ सौ साल ईसा पूर्व तक ले जाते हैं. मध्यप्रदेश के सागर जिले में बीना के निकट यह स्थान आज भी है ही. नरसिंह मंदिर, गरुड़ स्तम्भ, वराह मंदिर, विष्णु मंदिर आदि के साथ-साथ तमाम प्राचीन इमारतों के भग्नावशेष यहाँ हैं ही और एक शहर की प्राचीर जिसे कनिंघम ने तसदीक किया उसके बाहर भी हैं.

लगता है किसी दौर में इस शहर के चर्चे रहे होंगे ही, खासकर इसलिए भी कि जिस तरह से इसका उल्लेख आता है और ईसा से एक हज़ार साल से भी पहले से इसका एक विकास क्रम मिलता है. हो सकता है इसके पतन का भी कोई वाकया हो जो अब भी अस्पष्ट है. एक बेहद जानकार शहर का नाम अगर सुना जाना बंद हो जाए तो इसके कुछ मायने हैं. नर्म मुलायम घास के समंदर यहाँ अब भी दिखते हैं, बारिश के बाद और बहती है बीना नदी भी, मानो इतने प्राचीन समय के बाद भी कुछ है जो यथावत है, बहुत कम जाने सुने गए किसी किस्से कि तरह से. मानो इस बात से कोई ख़ास फर्क न पड़ता हो कि कोई अब इस तरफ नहीं आता. खुले आकाश के नीचे पुराने वक्त के ऐरण के टुकड़े सांस लेते रहते हैं. जैसे कोई मणिक होता है, जो अपनी दुनिया में होता है, बेशकीमती, भले अभी उसे ठीक तरह से कोई जान न पाया हो और उसे बिना निहारे आगे चला जाता हो.

______________________

तरुण भटनागर का जन्म 24सितम्बर को रामपुर, छतीसगढ़ में हुआ. अब तक उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं- ‘गुलमेहंदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाज़े पर‘ तथा ‘जंगल में दर्पण’. पहला उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी‘ वर्ष 2014 में प्रकाशित. दूसरा उपन्यास ‘राजा, जंगल और काला चाँद’ वर्ष २०१९ में प्रकाशित. ‘बेदावा‘ तीसरा उपन्यास है. कुछ रचनाएँ मराठी, उड़िया, अंग्रेजी और तेलगू में अनूदित हो चुकी हैं. कई कहानियों व कविताओं का हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद.

कहानी-संग्रह “गुलमेंहदी की झाड़ियों‘ को युवा रचनाशीलता का ‘वागीश्वरी पुरस्कार‘ 2009; कहानी ‘मैंगोलाइट‘ जो बाद में कुछ संशोधन के साथ ‘भूगोल के दरवाजे पर‘ शीर्षक से आई थी, ‘शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार‘ से पुरस्कृत. उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी‘ को 2014 का ‘स्पंदन कृति सम्मान’ ‘वनमाली युवा कथा सम्मान‘ 2019 मध्य भारतीय हिन्दी साहित्य सभा का हिन्दी सेवा सम्मान 2015 आदि.

वर्तमान में भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत. 

tarun.bhatnagar1996@gmail.com    

Tags: ऐरिकिणतरुण भटनागरधरोहरभारत के विस्मृत नगर
ShareTweetSend
Previous Post

लता मंगेशकर, शशि कपूर, और कपिल शर्मा: हरि मृदुल

Next Post

हेमरतनकृत गोरा-बादल पदमिणी चउपई का हिंदी कथा रूपांतर: माधव हाड़ा

Related Posts

दवातदार ताजुल मलिक और इल्तुतमिश का आख़िरी फ़रमान: तरुण भटनागर
कथा

दवातदार ताजुल मलिक और इल्तुतमिश का आख़िरी फ़रमान: तरुण भटनागर

पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर
इतिहास

पहला मानव: प्रादुर्भाव और प्रसार: तरुण भटनागर

शून्य की खोज: तरुण भटनागर
इतिहास

शून्य की खोज: तरुण भटनागर

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक