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Home » अंडलूसिया के बाँके: सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों: अनुवाद: मधु बी. जोशी

अंडलूसिया के बाँके: सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों: अनुवाद: मधु बी. जोशी

लगभग पौने दो सौ साल पहले स्पानी (स्पेनिश भाषा) में लिखे गये सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों के ‘Escenas andaluzas’ के एक अंश का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद वरिष्ठ लेखिका मधु बी. जोशी ने किया है. शीर्षक दिया है- ‘अंडलूसिया के बाँके’ . इस अनुवाद की रवानगी और खिलंदड़ेपन से मूल का कुछ अनुमान हम लगा सकते हैं. विश्व धरोधर से यह ख़ास अंश आपके लिए.

by arun dev
November 26, 2021
in अनुवाद
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अंडलूसिया के बाँके: सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों: अनुवाद: मधु बी. जोशी
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अंडलूसिया के बाँके

सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों

सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों (27 दिसंबर 1799-5 फरवरी 1867) एल सोलीतोरो के नाम से अधिक प्रसिद्ध स्पानी लेखक हैं. इस नाम से उनका एक कविता संग्रह 1831 में छापा था. मलागा में जन्मे  कल्देरों प्रशिक्षित वकील और अरबी भाषा के जानकार थे, अपने दौर के राजनीतिक आंदोलनों में भी उनकी हिस्सेदारी रही. उनकी सबसे लोकप्रिय कृति ‘एसेनाज अंडालुजास’ (1847) है जो स्थानीय जीवन का बतरस के अंदाज़ में लिखा जीवंत चित्रण है. पुर्तगाल पर लिखी उनकी अधूरी इतिहास पुस्तक उनके मरणोपरांत उनके भांजे के सम्पादन में छपी.      

सेंट अन्ना के छोटे चौक से दो आदमी, जिनके हावभाव से साफ जाहिर होता था कि वे अंडलूसिया की नई फसल हैं, नपेतुले अंदाज़ में कदम बढ़ाते उस खास सराय की ओर बढ़े जा रहे थे  जहां सेविले की बेहतरीन शराब गटकी जाती है. अपने साथी से लगभग अंगुल भर लंबा जो जवान गली के बीचोंबीच चल रहा था, बड़ी तरतीब भरी लापरवाही से कांच के मनकों की लटकन और अपने गुनाहों जैसे ही काले फ़ीते से सजा चौड़ा, झुका टोप पहने था. उसने लबादा अपनी बाईं बांह के नीचे उड़सा हुआ था, फ़िरोज़ी अस्तर से निकला दाहिना हाथ चांदी के सजावटी बक्सुओंवाली मेरिनो मेमने की नर्म खाल की बंडी की झलक दिखा रहा था. तुर्की तर्ज़ के बटनोंवाले चरवाहों जैसे सफेद जूते,  लबादे के नीचे दमकता घुटनों तक पहुंचता लाल घुटन्ना, और सबसे बढ़कर, उसकी तगड़ी मजबूत काठी, काले घुंघराले बाल और लाल-गर्म कोयले सी आँखेँ दूर से ही बता रही थीं कि यह उन मर्दों में से है जो रानों के बीच दबाकर घोड़ों का खात्मा कर देते हैं और अपने बल्लम से सांडों को थका मारते हैं.

वह अपने साथी के साथ बहस करता चला जा रहा था. उसका साथी था तो उससे कुछ कम भड़कीला लेकिन उसकी काठी में ग़ज़ब का लोच और छरहरापन था. यह जवान सादा जूतों से लैस था, उसकी लंबी जुर्राबें तस्मों से उसके हल्के नीले रंग के घुटन्ने से बंधी थीं, वास्कट बेंत के रंग का था, कमरबंद हल्के हरे रंग का, उसकी गहरी भूरी बगलबंदी कंधे की बाँकी गाँठों और बटनों से सजी थी. खुला लबादा, कान पर खींचा गया टोप, संभल- संभल कर धरे जाते उसके कदम, और उसकी देह और ठवन का लोच बता रहा था कि सांड से जूझते हुए, हाथ में लाल सुर्ख कपड़ा लहराता वह आरामा के सबसे बिफरे सांड या उत्रेरा के गजब के सींग वाले जानवरों से किलोलें करता मिलेगा.

मैं, जो ऐसे लोगों को पूजता और उन पर मरता हूँ- भले ही वे मुझ पर निगाह तक न डालें- इन हजरात के पीछे धीमे-धीमे चला जा रहा था और, क्योंकि मैं खुद को रोक न पाया, उनके साथ सराय में पहुँच गया. कायदे से तो इस सराय को भटियारखाना कहना चाहिए क्योंकि वहाँ शराब के अलावा और भी नशीली चीज़ें मिलती हैं और आप तो जानते हैं कि मैं चीजों को उनके सही नाम से पुकारने का हामी हूँ. अंदर पहुँच कर मैं यूं बैठा कि ओलिवर और रोलांद की बातचीत सुन सकूँ और उन्हें दिखूँ भी नहीं. मैंने देखा कि खुद को अकेला मानते  हुए उन्होंने बड़े प्यार से एकदूसरे के गले में बाहें डालीं और उनकी बातचीत शुरू हुई:

“पल्पेते,” लम्बा जवान बोला,

“अब जब हम हाथों में छुरे लिए एकदूसरे से टकराने जा रहे हैं, – तुम यहाँ, मैं वहाँ, -एक, दो-संभलना-बचना…शपाक-शांय…. लो…वगैरह –चलो पहले गानों पर झूमते शराब का एक बड़ा जग खाली कर दें.”

“सेन्योर बलबेहा,” अपना चेहरा एक तरफ करके, बड़ी नफासत से अपने जूते की ओर थूकते पल्पेते ने जवाब दिया,

“मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो ला गोर्या या ऐसी ही दुनियावी बातों पर, या बस इसलिए कि मेरे मांस में फौलादी पत्ती धंस गई या कमर चिर गई, बलबेहा जैसे दोस्त से उलझने चलूँ. शराब आने दो, फिर हम गाएंगे; और बाद में खूनखराबा-  छुरे मूठ तक लहू में सराबोर होंगे. जी भर के खूनखराबा होगा.”

शराब लाने का ऑर्डर दे दिया गया, उन्होंने जाम टकराए और, एकदूसरे को देखते सेविल के इलाके का गीत गाया.

यह हो चुका तो उन्होंने आराम से अपने लबादे उतार फेंके, और अपने छुरे म्यानों से निकाले, एक सफेद दस्तेवाला फ्लाण्डर्स के इलाके का बना छुरा था, दूसरा ग्वडिक्स का बना लंबी ढकी मूठवाला. दोनों छुरे चमक रहे थे, उनकी धारें ऐसी तेज थीं कि उनसे मोतियाबिंद का ऑपरेशन कर लिया जाए, पेट और आंत चीर डालना तो कोई बात ही नहीं… . दोनों ने कई बार छुरे हवा में लहराए, लबादे बाएं हाथ पर लपेटे वे पहले करीब आए, फिर वापस हटे, फिर एक छलांग में आगे बढ़े – पल्पेते ने बात करने का इशारा देते रुमाल हिलाया:

“बलबेहा, मेरे दोस्त, मेरी बस इतनी सी गुजारिश है कि मेहरबानी करके मेरे चेहरे पर छुरे के वार न करना, क्योंकि एक ही घाव से उसकी हालत इतनी बिगड़ सकती है कि मुझे पैदा करनेवाली माँ तक मुझे पहचान न पाए, और मैं बदसूरत बनना पसंद नहीं करूंगा; वैसे भी परमेश्वर ने जिसे अपनी सूरत में गढ़ा है उसे बिगाड़ना ठीक नहीं.”

“मान लिया,” बलबेहा ने राजी होते कहा; “मैं उससे ज़रा नीचे ही वार करूंगा.”

“बस-जरा मेरे पेट को भी बचा लेना, क्योंकि मैं बहुत सफाईपसंद हूँ. अगर तुम्हारे छुरे ने मेरे कलेजे और आँतों को नुकसान पहुँचाया तो मैं खुद को खराब ढंग से घायल देखना पसंद नहीं करूंगा….”

“मैं ज़रा ऊपर निशाना रखूँगा, अब शुरू करते हैं.”

“मेरी छाती का ख्याल रखना, यह हमेशा ही कुछ कमजोर रही है.”

“तो बस दोस्त मुझे यह बता दो कि मैं कहाँ पर छुरा टिकाऊँ?”

“बलबेहा, मेरे प्यारे, आदमी को गोदने के लिए काफी जगहें होती हैं; यहाँ मेरे बायें हाथ पर एक गिल्टी है, उसका तुम चाहे कीमा बना लो. मैं कुछ न कहने का.“

“लो तो वार करता हूँ,” बलबेहा ने कहा और तीर की तरह बढ़ा; उसके साथी ने अपने लबादे से वार बचा लिया.  दोनों छुरे लहराते होशियार कलमबाजों की तरह हवा में तरह- तरह के अक्षर और नमूने गोदने लगे, बहरहाल चमड़ी की एक धज्जी तक न उखड़ी.

मैं कह नहीं सकता कि इस खूनखच्चर का क्या अंजाम होता, क्योंकि मेरे जैसा सूखा-सिकुड़ा, इज्ज़तदार आदमी  इन दो लड़ाकों के बीच पड़ने लायक नहीं था; और सराय का मालिक जो कुछ हो रहा था उससे ऐसा बेफिक्र था कि उनके कदमों की धमाधम और गिरते स्टूलों और बर्तनों की खड़खड़ाहट को डुबोने के लिए गिटार पर ज़ोर-ज़ोर से सड़कछाप धुनें बजने लगा. वह ऐसा शांत था जैसे दो जीते जागते शैतानों के बजाय दो फरिश्तों का जी बहला रहा हो.

मैं फिर कह रहा हूँ कि जाने इस खूनखच्चर का क्या अंजाम होता कि तभी दहलीज को पार करके नाटक को आगे बढ़ाने में हिस्सा लेनेवाली मूरत अंदर आई- यह खातून मेरे ख्याल से बीस-बाईस साल की होंगी, बूटा सा कद, सीनाजोरी और खूबसूरती में बेजोड़. साफसुथरी जुर्राबें और जूते, छोटा, काले रंग का झालरदार घाघरा, जंजीरनुमा करधनी, झालरदार टाफ़टा का दुपट्टा सिर को ढके उसकी गर्दन के पिछले हिस्से पर पिन से कसा था और उसका एक कोना उसके कंधे पर गिरा था… लचकते कूल्हे, बाँहें कमर पर टिकीं, सिर को इधर-उधर घुमाती चारों ओर देखती वह मेरी आँखों के सामने से गुज़री.

उसे देखते ही सराय के मालिक के हाथों से गिटार छूट गया, और मुझ पर ऐसी हड़बड़ाहट छाई जैसी उम्र के तीस बरसों में कभी महसूस नहीं की थी (आखिरकार मैं हाड़मांस का पुतला ही तो हूं); लेकिन वह हम जैसे नाचीज़ों को तवज्जो दिए बिना मैदानेजंग की ओर बढ़ गई.

शानदार हँगामा रहा; डॉन पल्पेते और डॉन बलबेहा ने जब डोना गोर्या को नमूदार हुए देखा तो दूने जोरोशोर से पैंतरे दिखाने लगे– यह बला ही तो तमाम झमेले की वजह और जीतनेवाले का इनाम थी! आगे बढ़ते, झपटते, फुर्ती से पीछे को हटते, घूमते, छुरे लहराते वे बिजली से नाच रहे थे, लेकिन एक  का भी बाल बांका न हुआ था. हमारी छबीली हसीना काफी देर तक इस नज़ारे को वह खास मज़ा लेती चुपचाप देखती रही जो हव्वा की बेटियों को ऐसे मौकों पर मिलता है. लेकिन धीरे-धीरे उसके सुंदर माथे पर बल पड़ गए, आखिर उसने अपने नाजुक कान के पीछे से खींचकर, फूल या बाली नहीं, बल्कि एक सिगार का टोटा निकाला और झटके से छुरेबाज़ लड़ाकों के बीच फेंक दिया. स्पेन में हुए तलवारों के आखीरी मुक़ाबले में ऐसा असर तो चार्ल्स पंचम के बेंत का भी न रहा था. अपने हुलिये के बेतरतीबी की वजह से दोनों बेहद इज्ज़त दिखाते हुए आगे आए ताकि झालरों वाली हसीना के सामने खुद को कुछ ढंग का साबित कर सकें. वह जैसे कुछ फिक्र में डूबी सी उनके छुरेबाजी के करतबों का ध्यान कर रही थी, फिर वह फैसलाकुन अंदाज़ में बोली:

“और यह सब मेरी वजह से हो रहा है?”

“और भला किसके लिए होगा? चूंकि मैं- क्योंकि और तो कोई नहीं-” दोनों ने एक सांस में जवाब दिया.

“सुनिए साहब लोग,” उसने कहा.

“आप ये जान लें कि मेरे जैसी खूबसूरत और खानदानी- मैं ला गटुसा की बेटी, ला मेन्डेज़ की भानजी, और ला एस्ट्रोसा की नवासी हूँ-लड़कियों के लिए करार-इकरार-इसरार जैसी चीजों का कौड़ी बराबर मोल नहीं होता. और जब मर्द एक-दूसरे को चुनौती दें, तो चाकू को अपना काम करने दें और लहू बहने दें ताकि मेरी मां की बेटी को वहाँ मौजूद होने पर हारे हुए जवान की खिल्ली उड़ाने का मज़ा तो मिले. अगर आप मेरे लिए लड़ने का दिखावा कर रहे हैं तो यह झूठ है; आप को बहुत सख्त गलतफहमी है. मैं आप में से किसी से प्यार नहीं करती. ज़फ़रा के मिंगलारियोस मेरी पसंद हैं, और वह और मैं आपको हिकारत की निगाह से देखते हैं. अलविदा बहादुरों; और, अगर तुम चाहो तो मेरे मर्द से सुलट लो.”

अपनी बात कह कर उसने थूका, अपने जूते की नोक से लार को पोंछा, पल्पेते और बलबेहा की आँखों में बेबाकी से झांकी और जैसे लटकती-झटकती आई थी वैसे ही बाहर चली गई. दोनों खरे डींगबाज़ निगाहों से बाँकी डोना गोर्हा का पीछा करते रहे; और फिर एक भोंडे ढंग से उन्होने अपने छुरे अपनी आस्तीनों पर फेरे मानो उन पर लगा खून पोंछ रहे हों, एक साथ ही उन्हें म्यानों में सरकाया, और एक सुर में बोले:

“औरत की वजह से दुनिया खोई, औरत की वजह से स्पेन हारा; लेकिन ऐसा कभी न हुआ, न पंवाड़ों में ही सुनने में आता है, और न ही चौक या बाजारों में सुना जाता है कि दो बांकुरे बस एक माशूका के लिए कट मरें हों.”

“अपनी मुट्ठी बढ़ाओ डॉन पल्पेते.”
“हाथ दो डॉन बलबेहा.”
आपस में बतियाते वे गली में निकल गए, दुनिया में सबसे अच्छे दोस्त-

मैं दंग उन्हें देखता रह गया.
____________

मधु बी. जोशी
वरिष्ठ लेखिका और अनुवादक
 E-mail: madhubalajoshi@yahoo.co.in
Tags: Escenas andaluzasमधु बी जोशी
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Comments 11

  1. S. B. Singh says:
    4 years ago

    बहुत बढ़िया। कहानी पढ़ते हुए भगवती चरण वर्मा की कहानी “दो बांके” की याद आ गयी। अनुवाद प्रवाहपूर्ण है।

    Reply
    • Madhu B Joshi says:
      4 years ago

      Mujhe bhi vahi kahani yaad aayee thi, usee se naam liya hai 😁

      Reply
  2. गीता श्री says:
    4 years ago

    अद्भुत !! आनंद !! क्या अनुवाद किया है मधु जी ने.
    इस अंदाज में लिखना … मेरे मन में कई ख़्याल घुमड़ने लगे. हिंदी में कोई नहीं करता न ! यहाँ गंभीरता से लेंगे ?

    Reply
    • Madhu B Joshi says:
      4 years ago

      Shukriya geetashree!

      Reply
    • Vanshi Maheshwari says:
      4 years ago

      अंडलूसिया के बाँके:
      सेराफिन एस्तेबानेज कल्देरों

      मधु बी. जोशी के ये अंग्रेज़ी से अनुवाद पूरी तरह से देशज हैं. दो प्रतीकों के बीच जो कहानी चल रही है ठीक वैसे ही जैसे अपने गाँव के अखाड़े में रेत की मोटी दरी पर दो मल्ल बाँकुरे लँगोट कसकर,ताल ठोंककर आपस में हाथों और टाँगों के इशारे करते झूमते,चक्कर काटते, मचक-मचक के लहराते हैं ( लड़ते नहीं है )और पास में बैठी या खड़ी माशूक़ा गन्ना चूसती दोनों को आँखों से नचाती है.
      वैसे ही इन दोनों मुस्तण्डों के छुरे सिर्फ़ हवा में लहराते हैं न लड़ते,न हाथ मिलाते, सिर्फ़ हाथ हिलाते रहते हैं.
      उनका पॉवर हाउस उस समय फ्यूज़ हो जाता है जब वह ( तथाकथित प्रेमिका ) कहती है-
      “अगर आप मेरे लिए लड़ने का दिखावा कर रहे हैं तो यह झूठ है; आप को बहुत सख्त गलतफहमी है. मैं आप में से किसी से प्यार नहीं करती. “
      दोनों के चेहरों पर बासी हवा का बेहोशी झोंका पसर जाता है.

      ये तो कृति का एक अंश भर है, पूरी तो अद्भुत होगी.
      डेढ़ सौ वर्षों के बावजूद किस कदर समसामयिक है.
      ख़ासतौर से मधु जी के अनुवादों में एक ख़ास तरह की संजीदगी, साफ़गोईपन,भाषा का सुघड़पन, शब्दों के बरकस उतने ही कारगर शब्दों को लाना और मूल की ध्वनि-प्रतिध्वनि की गूँज को पूरे अनुवाद में प्रतिष्ठित करना ये सब ज़ाहिर है कि वे माहिर हैं.
      वे मूल को बग़ैर क्षति पहुँचाये अपनी भाषा में घोलकर उसे जो स्वाद देती हैं वह निश्चित ही मूल के स्वाद से कुछ ज़्यादा ही स्वादिष्ट होती होगी.

      वैसे भी अनुवाद ओपन हार्ट सर्जरी है. और इसके लिये गहन चिकित्सक होना ज़रूरी है,
      और मधुजी एक प्रतिष्ठित चिकित्सक हैं.

      वंशी माहेश्वरी.

      Reply
      • Madhu B Joshi says:
        4 years ago

        Vansheejee, you are ever so kind.

        Reply
  3. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    बहुत सुंदर और पठनीय अनुवाद। मधु बी जोशी के लिए संभव हो तो इस लाजवाब पूरी किताब का अनुवाद कर हमें पढ़वाएं।

    Reply
    • Madhu B Joshi says:
      4 years ago

      Zaroor, agar milee to.

      Reply
  4. बजरंगबिहारी says:
    4 years ago

    कमाल का अनुवाद किया है मधु बी जोशी ने।
    दोनों बांके जिस अंदाज़ में आए, लड़े, बोले और डोना गोर्या के जाने के बाद चाकू पोंछते गए, पूरा दृश्य जैसे घटते हुए देखा और यादों में हमेशा के लिए दर्ज़ कर लिया।

    Reply
  5. Madhu B Joshi says:
    4 years ago

    Thanks Bajrang jee.

    Reply
  6. Anonymous says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा अनुवाद

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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