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Home » विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.

2022 की श्रेष्ठ पुस्तकें कौन-कौन सी हैं? इससे सार्थक मुझे यह लगा कि 2022 में किन किताबों को पढ़ा गया यह जाना जाए. इसमें अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, ममता कालिया, बटरोही, वीरेन्द्र यादव, माधव हाड़ा, कुमार अम्बुज, प्रियदर्शन, उदयन वाजपेयी, ज्योतिष जोशी, कमलानंद झा, राजाराम भादू, मधु बी जोशी, नरेश गोस्वामी, राकेश बिहारी, रंगनाथ सिंह, रमाशंकर सिंह, मुसाफ़िर बैठा, गंगाशरण सिंह, प्रियंका दुबे, सौरव कुमार राय तथा योगेश प्रताप शेखर जैसे अपने- अपने क्षेत्र के मूर्धन्य विद्वानों ने हिस्सा लिया है. साहित्य के अलावा समाज विज्ञान के विद्वानों से भी मदद ली गयी है. कुछ आकलन तो सुंदर लेख की शक्ल में हैं. यह पूरा उपक्रम किताबों की गहरी और विस्तृत चर्चा करता है. इधर शायद ही पिछले कुछ वर्षों में इतना सघन आकलन आया हो किसी पत्रिका या किसी माध्यम में, मुझे याद नहीं. ‘पहल’ के यशस्वी संपादक ज्ञानरंजन के शहर जबलपुर में हूँ, ‘इत्यादि’ के आयोजन में, यहीं से यह विशेष अंक मैं श्री ज्ञानरंजन जी को समर्पित करता हूँ.

by arun dev
December 28, 2022
in विशेष
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विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.
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2022 में किताबें जो पढ़ी गईं

अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, ममता कालिया, बटरोही, वीरेन्द्र यादव, माधव हाड़ा,कुमार अम्बुज, प्रियदर्शन,
उदयन वाजपेयी, कमलानंद झा, राजाराम भादू, मधु बी जोशी,
नरेश गोस्वामी,
राकेश बिहारी, ज्योतिष जोशी, रंगनाथ सिंह,
रमाशंकर सिंह, मुसाफ़िर बैठा, गंगाशरण सिंह,
प्रियंका दुबे, सौरव कुमार राय तथा योगेश प्रताप शेखर

अशोक वाजपेयी

मेरे जैसे पुस्तक कीट के लिए वर्ष भर की उल्लेखनीय पुस्तकें चुनना एक कठिन काम है. उसके पीछे यह भ्रांति भी काम करती है कि उल्लेखनीय थी तभी तो मैंने उन्हें पढ़ने के लिए चुना! फिर भी, वर्षांत पर जो सूझ रहा है सो बता रहा हूं: पर यह पूरा चुनाव नहीं है.

इस वर्ष मैंने जीवनियाँ बहुत पढ़ी. उनमें से चार मुझे उल्लेखनीय लगती हैं. वैसे उनमें से दो ठीक-ठीक जीवनियाँ नहीं भी हैं हालांकि एक तो आत्मवृत्तांत है और एक महान कवि रिल्के के जीवन और काव्य का बढ़िया पाठ- लैस्ले चैंबर्लेन की पुस्तक है ‘Rilke: The Last Inward Man’.

उसका पहला अध्याय ही है कि आज रिल्के को कैसे पढ़ें और पूरी पुस्तक रिल्के के जीवन और कविता को, उनके समय और हमारे समय को, उनकी कालजयी काव्य साधना को बहुत समझ और संवेदना से विश्लेषण करती है. रिल्के ने अपना पूरा जीवन, एक तरह से, कवि होने कविता लिखने के लिए जिया और हम पुस्तक से जितना उनकी कविता के बारे में जान पाते हैं, उतना ही उनके जीवन के बारे में भी. दूसरी पुस्तक है विनीत गिल की निर्मल वर्मा पर ‘Here and Hereafter’ जो, फिर, एक लंबा संवेदनशील पाठ है, अधिकांशतः उनके चिंतन को केंद्र में रखता और उसमें चरितार्थ जीवन की पड़ताल करता है.

तीसरी पुस्तक है अक्षय मुकुल द्वारा लिखी गई अंग्रेजी में अजेय की वृहत जीवनी जो अजेय के जीवन के तथ्यों का इतने विस्तार से संगुम्फन करती है कि आप उस जीवन के अनेक अज्ञात या अल्प ज्ञात पहलुओं को पहली बार जानते हैं: या तथ्य संकलन इतना विपुल है कि उसमें स्वयं अजेय के साहित्य का विश्लेषण बहुत कम है.

इस समय विश्वविख्यात चीनी कलाकार आई वाई वाई (Ai Weiwei) ने एक अधूरा आत्मवृत्तांत: ‘1000 Years of Joys and Sorrows: The story of two lives, one nation, and a century of art under tyranny’ नाम से लिखा है जिसमें अपने पिता और चीन के महाकवि Ai Qing की चीनी क्रांति के दौरान कैसे कितनी भयानक यंत्रणा और तरह-तरह से एकांतवास, यहां तक की खन्दक-वास तक करने के लिए बाध्य किया गया था, इसकी दारुण गाथा दर्ज है.

आलोचना के क्षेत्र में अपूर्वानंद की पुस्तकें ‘मुक्तिबोध की लालटेन’ एक ऐसी रोचक पुस्तक है जो, बहुत बारीक और विशद ब्योरों में, मुक्तिबोध की कविता और विचारों को लगातार आज के समय की रोशनी में पढ़ती है. मुक्तिबोध की कविता और चिंतन दोनों से हमारा कितना ‘आज’ समाया हुआ है यह पुस्तक बहुत विस्तार से और जतन से बताती-सिखाती है.

अरबी कवयित्री ईमान मरसल ( Iman Mersal) का नाम पहले मैंने नहीं सुना था इस बार पेरिस में उनका अंग्रेजी अनुवाद में एक संग्रह मिल गया है: ‘The Threshold’ उसे इन दिनों पढ़ रहा हूं. उनकी एक कविता का समापन होता है.

“मैं समुद्र से नहीं डरती
क्योंकि कामना की बंद पुस्तक खुली है
और एक सफ़े पर बुकमार्क लगा है.”

अरुण कमल

सालतमाम

जब मेरे पिता जी विद्यालय उप निरीक्षक थे तो साल के आखीर में उनको बड़ी मुस्तैदी से अपने काम का हिसाब किताब करते देखता जिसे वे सालतमाम कहा करते. पढ़ने का भी लेखा जोखा यानी सालतमाम होना चाहिए. लेकिन मैंने कोई दस्तावेज तो बनाया नहीं. केवल याद के सहारे कुछ किताबों का शुक्रिया अदा कर रहा हूँ.

१. अभय मौर्य साहब की बनाई अँग्रेजी-हिन्दी डिक्शनरी मेरी समझ से इस तरह की सबसे बड़ी और उम्दा डिक्शनरी आई है. मैं कामिल बुल्के के शब्दकोश का आदी हूँ. इस साल नये शब्दकोश को भी सिरहाने रखा.

२. ‘The Courage of Hopelessness: Chronicles of a Year of Acting Dangerously’
ज़िज़ेक की इस किताब ने अभी की दुनिया को समझने की नयी कुंजी दी है. ज़िज़ेक कहते हैं- सबकी मुक्ति के लिए होने वाले कम्युनिस्ट संघर्ष का मतलब है कि हरेक ख़ास आइडेन्टिटि को भीतर से काटा जाए. होल्डरलिन की बात हमेशा याद रहेगी,’ जहाँ जोखिम होगा वहाँ बचाने वाली ताक़त भी होगी’. और डिल्युज का उद्धरण, ’अगर तुम दूसरे के सपने में आए तो समझो भोगे जाओगे.’

३.बनीठनी(संपादन- नर्मदाप्रसाद उपाध्याय)
बनीठनी जी की कविता और नागरीदास के साथ उनके संबंध के अलावा यह किताब किशनगढ़ चित्रशैली, निहालचंद और कवि घनानंद तथा बोधा के जीवन-व्यवहार की चर्चा करती है. ये सब क्रांतिकारी और महान कवि थे. बनीठनी जी की कविता की भाषा विशेष अध्ययन की माँग करती है जो खड़ी बोली के करीब है: ‘ऐसे ही बिताई समैं ऐसे ही बितावैंगे’.

४.आग की यादें: एदुआर्दो गालेआनो.
उरुग्वे के इन महान लेखक को पढ़कर मैं हिल गया. ग़रीबी, गैरबराबरी, मनुष्यत्व का हनन और मेहनतकश लोगों का जीवट और संघर्ष. ऐसी किताब पहले कभी पढ़ी नहीं. ‘आज की व्यवस्था का असली चेहरा अपने क्रूरतम रूप में दुनिया के गरीब और पिछड़ेपन दिए गए इलाक़ों में ही दिखता है.’ ‘आप एक बच्चे को कैसे बताएंगी कि खुशी क्या है?’ मैं बताऊँगी नहीं, बस उसकी ओर एक गेंद उछाल दूंगीं. यही तो कविता की भी नीति और रीति है.

५. भारतीय लोकोक्तियों में जातीय द्वेष: (संपादक: एस एस गौतम).
यह किताब बहुत दिलचस्प है जहाँ अनेक जातियों पर लोक में प्रचलित कहावतें संकलित हैं जिससे जातीय दुर्भावना के साथ-साथ अपने समाज के खुलेपन और हँसी मज़ाक़ सहने की शक्ति का भी पता चलता है. सबसे ज़्यादा उक्तियाँ ब्राह्मणों को लेकर हैं. ऐसा ही संकलन स्त्री संबंधी अभद्र कहावतों का भी गौतम जी ने किया है. इस किताब की भूमिका भी महत्वपूर्ण है.

६. ‘Nothing Human is Alien to Me’
एजाज़ अहमद के साथ विजय प्रसाद की बातचीत की यह किताब विशेष कर अपने उपमहाद्वीप के सामाजिक राजनीतिक वातावरण को समझने के लिए जरूरी है. उनका कहना है कि किसी भी मुक्तिकामी संघर्ष का ध्येय समूची ‘क्रूरता की संस्कृति‘ और ‘अवचेतन के उपनिवेशीकरण’ का विरोध होना चाहिए.

७.रूसी भाषा के सोवियतकालीन कथाकार प्लातोनोव को पढ़ना विलक्षण अनुभव है, गरीबों की, गरीब आत्माओं की, ऐसी कहानी कभी कहीं नहीं गयी. इनके संकलन ‘सोल’ में एक कहानी है- गाय. गाय पर ऐसी मार्मिक और दहलाने वाली रचना हमारे वांग्मय में नहीं है; और यह रचना मानव समाज की क्रूरता और लोभ की कठोर भर्त्सना है. अंत में जॉन बर्जर का लेख भी बहुत महत्वपूर्ण है.

८.जीवन के दिन: प्रभात.
अभी के अनेक कवियों ने जैसे प्रेमशंकर शुक्ल, अम्बर, पूनम अरोड़ा, अदनान, पंकज चौधरी, हरेप्रकाश, अविनाश मिश्र तथा फ़िरदौस समेत सबने नया काम किया है. प्रभात का यह संग्रह इसकी तस्दीक़ करता है. नये अनुभव , भाषा और बिम्ब हमारी कविता में आ रहे हैं- चींटियों की सेनाओं से ज़्यादा उम्मीद है पृथ्वी को राष्ट्रपतियों की सेनाओं के बजाए.

९.टॉकिंग पोइट्री-
अशोक वाजपेयी की बातचीत (अँग्रेजी में) रमीन साहब के साथ अनेक विषयों की रोमांचक परिक्रमा है, लेकिन सबकी धुरी अंतत: कविता है. शायद हिन्दी में ऐसी समावेशी किताब उनकी भी नहीं है.- For no thought is contented…and do set the word itself against the word.

१०. अक्स:
अखिलेश-संस्मरणों की यह दिलचस्प किताब केवल कुछ व्यक्तियों की कथा नहीं है बल्कि पूरे परिवेश और अंदरूनी परिवर्तनों को समझने का उद्यम भी है. एक साथ चपल और गंभीर भाषा का सम्मोहन इसकी ख़ासियत है. विनोद भारद्वाज की यादनामा भी याद आ रही है.

आईना आईना तैरता कोई अक्स
और हर ख़्वाब में दूसरा ख्वाब है
(वंदना राग के उपन्यास बिसात पर जुगनू से)

हमारा पढ़ना भी आईनों में तैरते अक्स और ख़्वाबों में आते ख़्वाबों को पकड़ने जैसा है. हर पाठ एक अक्स है और एक ख़्वाब.

ममता कालिया

सेतु प्रकाशन से आई अखिलेश की पुस्तक, ‘अक्स’, संस्मरणों का विलक्षण संग्रह है. अखिलेश ने अपने गांव, मलिकपुर, नोनरा, सुल्तानपुर से शुरू कर अपनी सृजन सामर्थ्य पर पड़े रचनात्मक प्रभावों को विभिन्न वास्तविक व्यक्तियों और स्थलों के माध्यम से क्या खूब कहा है. इन्हें लेखक ‘स्मृतियों की चौपाल’ कहता है.

रवींद्र कालिया, देवी प्रसाद त्रिपाठी, वीरेंद्र यादव, मानबहादुर सिंह, श्रीलाल शुक्ल, अपने माता पिता, सब पर शिद्दत से लिखा यह कथेतर गद्य एक मानक की तरह है.

नीलाक्षी सिंह ने इधर दो वर्षों में दो उत्कृष्ट पुस्तकें हिंदी साहित्य को सौंपी हैं. अभी valley of words का पुरस्कार मिला ही था कि उन्हें अपनी कथेतर पांडुलिपि ‘हुकुम देश का इक्का खोटा’ पर सेतु प्रकाशन का सर्वश्रेष्ठ पांडुलिपि सम्मान प्राप्त हो गया. नीलाक्षी पीड़ा का लेखा देती हैं किंतु अवसाद नहीं फैलातीं बल्कि वे अपनी चिकित्सा की जटिलता को एक दर्शक की तरह देख रही हैं. उसका साहस देख हम भी अपनी हिचकी, कंठ में रोक लेते हैं.

राजकमल प्रकाशन से मधु कांकरिया का उपन्यास, ‘ढलती सांझ का सूरज’,महाराष्ट्र के गांवों के किसानों की व्यथा कथा है. अद्भुत शिल्प कौशल और सत्य विवरणों को लेखिका ने पर्याप्त शोध सहित किसान आत्महत्या की जड़ पहचानने का प्रयत्न किया है. कृषि विभाग को यह गाथा पाठ्य पुस्तक की तरह पढ़नी चाहिए.

वाणी प्रकाशन से हाल ही आया गरिमा श्रीवास्तव की पुस्तक, ‘आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा’, युद्ध और शांति जैसे गंभीर उपन्यासों की याद दिलाती है. उनकी पिछली पुस्तक की छायाएं यहां भी मौजूद हैं क्योंकि समाज चाहे भारत का हो, अथवा यूरोप का, या बांग्लादेश का, हर जगह स्त्री हिंसा की शिकार है. जिन अपराधों में उसकी कोई भूमिका नहीं, उनकी सज़ा भी उसे दी जाती है, चाहे वह सबीना हो या प्रतीति, द्रौपदी हो या रहमाना या फातमा. नात्सी यातना शिविरों का मंज़र दिल दहला देता है. खोए हुए प्रेम और खारिज मुहब्बतों के नुकीले कोने पाठक को छील जाते हैं.

मुझे याद आया एक बार खुशवंत सिंह ने पूर्वी पाकिस्तान की स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा पर इसी तरह दिल दहलाने वाला वाकया लिखा था.जिन स्त्रियों के घर लुट गए,पति छूट गए, बच्चे बिछड़ गए, उन्हें वीरांगना का खिताब बड़ा मंहगा पड़ा.

मन हल्का करने के लिए इरा टाक की किताब love drug उठाई. पेंगुइन रैंडम, हिंद पॉकेट बुक्स से आई यह किताब राजधानी एक्सप्रेस की रफ्तार से आपको भगा ले जायेगी, दिल्ली, जयपुर, शिमला और न जाने कहां कहां. पढ़ते हुए इरा टाक को नया नाम दिया त्वरा टाक. होनी चाहिए ऐसी किताबें, पन्ना पलटते ही दृश्य बदल जाए.

रुद्रादित्य प्रकाशन से आया धुरंधर रचनाकार संजीव का कहानी संग्रह, ‘हिटलर और काली बिल्ली’, अपने आवरण से चौंका देता है. जी हां. हिटलर मौजूद है और काली बिल्ली भी. आर्य रक्त के मिथ्याडंबर को तार-तार करती यह कहानी अकेली नहीं, हर कहानी में लेखक की साफ नज़र कौंधती है.

भारतीय ज्ञानपीठ वाणी से प्रियदर्शन का कहानी संग्रह ‘हत्यारा और अन्य कहानियां’ वर्तमान हालात पर पैनी नजर रखे हुए रचनाकार का सृजन संसार हैं. भारतीयता का मुलम्मा भीड़ तंत्र और सड़क हिंसा में कब तब्दील हो जाये, कहना कठिन है. हिंसा, प्रतिहिंसा को जन्म देती है, गांधी के देश में गांधीवाद सतत पराजित हो रहा है. प्रियदर्शन इस अंधे मोड़ पर हमें नहीं छोड़ते. वे अंत तक आते-आते क्षमा और पश्चाताप की सकारात्मकता दिखा देते हैं.

प्रिय कवि आशुतोष दुबे के दो काव्य संग्रह सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से, इसी वर्ष आए हैं. आकर्षक आवरण और आकार प्रकार की इन किताबों में अनेक यादगार कविताएं हैं. आप कुछ भी छोड़ नहीं सकते. उदासी, करुणा और व्यंग्य की त्रिधारा में “कुछ चितकबरे भय बचे दिखते हैं” “या क्या पता किसी छोटी,नुकीली सी कविता के असंभव सारांश हों” “बारिश में पेड़ एक फटे हुए छाते की तरह होता है”. हर कविता हमसे बात करती है. आशुतोष की खासियत यह है कि उनके यहां तकलीफ में तरीका है तेवर भी है मगर तल्खी नहीं. ये कविताएं हमें जीवन से विमुख नहीं करतीं. कहानी को अगर “एक हुंकारा आगे बढ़ा देता है तो कविता को एक प्रत्याशा कि, “नदी में डूबते हुए एक हाथ अपनी पूरी ताकत से पुकारता रहेगा.”

राजकमल प्रकाशन से आये,नीलेश रघुवंशी के नए उपन्यास,“शहर से दस किलोमीटर” की कथा डंडा साईकिल के कैंची चक्कर से शुरू होती है और गांव,कस्बे और शहर के कई किलोमीटर घुमा लाती है. सायकिल यहाँ जीवन और गति का प्रतीक है. एक लड़की जैसे मनो के लिए आज़ादी का भी. करुण यह कि जो सायकिल सपनों की सवारी थी,धीरे धीरे केवल दीन हीन गरीब गुरबों की सवारी बन गयी. सड़कें चौड़ी होती गयीं,सायकिल का रास्ता सँकरा होता गया.

आज “अलाव पर कोख”, चर्चित नाम ममता सिंह का उपन्यास शुरू किया है. नए विषय में रवां कलम बहाए लिए जा रही है. तन्वी की हिम्मत और तकलीफ खुल रही है पृष्ठ दर पृष्ठ. दोस्तों किसी दीवार की हदबंदी होती है.

मालिनी गौतम का कविता संग्रह, ‘चुप्पी वाले दिन’ ज्ञानपीठ वाणी से आया है. पहली नहीं दूसरी कविता पहले पढ़ी. जाने पहचाने उपकरण चाकू की अर्थ भयावहता ऐसे खुलती है कि हमें फल भूल जाते हैं,चाकू ही दिखते हैं. बायपास अजगर होते हैं, पहिया, आठ साला लड़कियां, शाहीन बाग, पठनीय हैं.

पत्रकार,साहित्यकार विकास कुमार झा का उपन्यास, ‘राजा मोमो और पीली बुलबुल’,गोवा के इतिहास के साथ साथ सैंड्रा और उसकी मम्मी की दिलचस्प कथा है. गोवा की सभी बड़ी हस्तियां यहां किरदार की तरह मौजूद हैं,मारियो मिरांडा,रीता फारिया,रेमो फर्नांडिस, वगैरह.

बोधि प्रकाशन से आए,वाजदा खान के कविता संग्रह, ‘जमीन पर गिरी प्रार्थना’,में शब्दों में रंग बोलते हैं,साथ ही गूंजती है आध्यात्मिक आकुलता. जीवन और दर्शन की चहलकदमी है साथ साथ. शिवना प्रकाशन से आया, गीताश्री का कहानी संग्रह, ‘मत्स्यगंधा’,अपनी रचनात्मक ऊर्जा के लिए पढ़ा जाएगा. ग्राम जीवन की पीड़ा,पराक्रम और संघर्ष यहां ठसाठस  भरे हुए हैं

पढ़ीं तो और भी बीसियों. सब पर लिखना चाहो तो यह नामुमकिन है.

बटरोही

इस वर्ष मेरा ध्यान उत्तराखंड के नव लेखन पर केन्द्रित रहा, उससे जुड़ी रचनाएँ ही पढ़ीं. इनके अलावा जिन दो किताबों ने विशेष आकर्षित किया, वे थीं:

1. ढलती सांझ का सूरज (उपन्यास): मधु कांकरिया
किसानों के ऊहापोह और आंतरिक ताने-बाने को लेकर हिंदी में यह अपनी तरह की पहली रचना है. नयी भाषा और कहन का एकदम नया अंदाज इस उपन्यास को दशक के सबसे महत्वपूर्ण उपन्यासों की श्रेणी में ला खड़ा करता है.

2. कथा कहो यायावर (कथेतर): देवेन्द्र मेवाड़ी
कथेतर लेखन से जुड़ी यह किताब बाल-शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना के विस्तार के उद्देश्य से लिखी गई है. भाषा-शैली में जबरदस्त रवानी है और इसकी पठनीयता असंदिग्ध है.

वीरेन्द्र यादव

इस वर्ष मैंने जो किताबें पढ़ीं:

  1. बस्तर बस्तर (उपन्यास): लोकबाबू
  2. मौसी का गाँव (उपन्यास) : प्रह्लाद चंद्र दास
  3. दातापीर (उपन्यास): हृषिकेश सुलभ
  4. कर्बला दर कर्बला: (उपन्यास): गौरी नाथ
  5. रामभक्त रंगबाज़ (उपन्यास): राकेश कायस्थ
  6. ढलती सांझ का सूरज (उपन्यास): मधु कांकरिया
  7. कीर्तिगान (उपन्यास): चंदन पांडेय
  8. सुखी घर सोसायटी (उपन्यास): विनोद दास
  9. हुकुम देश का इक्का खोटा (संस्मरण): नीलाक्षी सिंह.
  10. अक्स (संस्मरण): अखिलेश
  11. मेम का गाँव गोडसे की गली (संस्मरण): उर्मिलेश.
  12. सीता बनाम राम (कथेतर): नारायण सिंह
  13. पी. वी. रामासामी नायकर (जीवनी): ओमप्रकाश कश्यप.
  14. पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली (समाज और विचार): संपादन-धर्मवीर यादव ‘गगन’
  15. संतराम बीए (चुनी रचनाएँ) : संपादन- महेशचंद्र प्रजापति.
  16. Writer, Rebel, Soldier, Lover(Biography): Akshay Mukul.
  17. Kabir, Kabir (Life &Work): Purushottam Agarwal.
  18. Fractured Freedom (Memoirs): Kobad Ghandi.
  19. Tagore & Gandhi: Rudrankshu Mukherjee.

माधव हाड़ा

वर्ष 2022 में कई किताबों से गुजरना हुआ, जिनमें से कुछ इधर प्रकाशित हुई हैं और कुछ ऐसी हैं, जो पुरानी हैं और चर्चा से बाहर हो गयी हैं, लेकिन इनका महत्त्व बहुत है. गत कुछ वर्षों में आईं, इस वर्ष पढ़ी किताबों में अमर्त्य सेन की ‘होम इन दि वर्ल्ड’, शेल्डन पोलक की ‘दि लेंग्वेज ऑफ़ दि गोड्स इन वर्ल्ड ऑफ़ मेन’ और रोमिला थापर की ‘पास्ट बिफोर अस’ प्रमुख हैं.

‘होम इन दि वर्ल्ड’ संस्मरण और आत्मकथा का मिलाजुला रूप है. यह किताब एक विद्वान की मानसिक बुनावट को तो समझने में मदद करती ही है, लेकिन इसका महत्त्व इस अर्थ में भी है कि यह स्वतंत्रतापूर्व भारतीय मनीषा की चिंताओं और सरोकारों को भी हमारे समाने रखती है.

किताब में रवींद्रनाथ ठाकुर, क्षितिमोहन सेन आदि कई भारतीय मनीषियों, भारत और यूरोप के सांस्कृतिक संबंधों पर भी विचार हुआ है. शेल्डन पोलक की किताब ‘दि लेंग्वेज ऑफ़ दि गोड्स इन वर्ल्ड ऑफ़ मेन’ पूर्व-आधुनिक भारत में संस्कृति और शक्ति में परिवर्तन के दो महान क्षणों को समझने का एक प्रयास है.

पहला क्षण ईस्वी की शुरुआत के आसपास आया, जब लंबे समय से धार्मिक व्यवहार तक सीमित पवित्र भाषा संस्कृत को साहित्यिक और राजनीतिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में पुनर्निर्मित किया गया था. इस विकास से एक अद्भुत यात्रा की शुरुआत हुई, जिसने अफ़गानिस्तान से जावा तक अधिकांश दक्षिणी एशिया में संस्कृत साहित्यिक संस्कृति को फैलाया.

दूसरा क्षण दूसरी सहस्राब्दी की शुरुआत के आसपास तब आया, जब स्थानीय (vernacular) भाषा रूपों को साहित्यिक भाषाओं के रूप में नयी प्रतिष्ठा मिली, जिन्होंने संस्कृत को कविता और राजनीति, दोनों क्षेत्रों में चुनौती देना शुरू कर दिया और अंततः इसकी जगह ले ली.

हो सकता है कि भारतविद् शेल्डन पोलक की यह धारणा कुछ हद तक सरलीकरण हो, लेकिन इससे इतना तो साफ़ है कि इस दौरान संपूर्ण दक्षिण एशिया में देश भाषाओं का चलन और उनका साहित्यिक व्यवहार तेज़ी से बढा, जिससे संस्कृत के कुछ अभिव्यक्ति रूपों का रूपांतरण हुआ और क्षेत्रीय ऐतिहासिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत कुछ नये रूप अस्तित्व में आए.

शेल्डन पोलक की इस धारणा पर भारत में व्यापक और तीखी प्रतिक्रिया हुई. ‘पास्ट बिफोर अस’ इस दशक के आरंभ में आयी, लेकिन इसे पढ़ने का सुयोग इस वर्ष मिला. यह एक असाधारण किताब है, जो भारतीय इतिहास को उसके अपने स्रोतों के आधार पर समझने-समझाने की पहल है. यह किताब कुछ हद इस सामान्यीकरण का समर्थन नहीं करती हैं कि भारतीयों में इतिहास चेतना नहीं है.

हिंदी में प्रकाशित दलपत राजपुरोहित की किताब ‘सुंदर का स्वप्न’ इसी वर्ष आयी. यह किताब इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि इसमें भक्तिकाल अंतिम चरण हुए संत सुंदरदास और इस बहाने भक्तिकाल की कविता को प्रचलित धारणाओं से बाहर, अलग ढंग से, समझने की कोशिश है. पुरानी किताबें इस वर्ष कई पढीं, जिनमें मुंशी देवीप्रसाद की ‘ख़ानख़ानामा’ बाँके बिहारी की ‘ईरान के सूफ़ी कवि’ और परशुराम चतुर्वेदी की ‘उत्तरी भारत की संत काव्य परंपरा’ सबसे प्रमुख हैं.

मुंशी देवी प्रसाद की ‘ख़ानख़ानामा’ भारत अनुपलब्ध थी. राजनायिक और विद्वान जसवंत सिंह ने इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन से लेकर इसे प्रकाशित करवाया.

रहीम को हिंदी में एक सरल और सीधे कवि के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनका व्यक्तित्व बहुत जटिल था. उनके संबंध में कहा गया है कि “बेंत भर शरीर और 100 गाँठें घट में.” यह किताब रहीम को समझने में बहुत उपयोगी है. ‘उत्तरी भारत की संतकाव्य परंपरा’ एक समय अकादमिक क्षेत्रों में बहुत महत्त्वपूर्ण किताब थी, लेकिन अब उसकी कोई चर्चा नहीं करता. यह किताब कभी ढंग से नहीं पढी गयी. इसमें संत काव्य को ठीक से समझने के लिए कई प्रस्थान बिंदु हैं, जिनकी अभी तक चर्चा ही नहीं हुई.

‘ईरान की सूफी कवि’  बाँके बिहारी की 1939 में प्रकाशित दुर्लभ किताब है, जिसमें सनाई, उमर ख़‌य्याम, निज़ामी, शेख़ सादी, फ़रीद्दुदीन अत्तार, रूमी आदि कवियों की कविताएँ उनके परिचय के साथ दी गयी हैं. हिंदी में यह अपने ढंग की पहली किताब है, जो भारतीय सूफ़ी कवियों की जड़ों को जानने-समझने में बहुत मददगार है.

कुमार अम्बुज

किताबों में दो हज़ार बाईस 

इस बरस अनेक किताबें पढ़ने का अवसर मिला. कई इसी वर्ष की किताबें हैं, कुछ पुराने सालों की, जो पढ़ी इस बरस गईं या उनका पुनर्पाठ संभव हुआ. या पिछले कुछ समय से पढ़ी जा रही थीं, इस साल उनका एक पाठ पूरा हुआ. सूची बनाने में ऐसा होता है कि अनेक किताबों का ज़िक्र छूट जाता है. तत्‍काल याद न आ सकनेवाली क़रीब बीस-पच्‍चीस पुस्‍तकों का नाम यहाँ और हो सकता था, सो क्षमायाचना भी.

विशेष नोट: यहाँ जो सूची है, उसमें से अधिकांश पूरी पढ़ी गईं. कुछ अधूरी छूट गईं, ज्‍़यादातर मेरी कमतरी के कारण, कुछ उनकी अपनी मुश्किल या उनका मेरे पाठक से सामंजस्‍य, तादात्‍म्‍य न बैठने के कारण.

गद्य: सोचो, साथ क्‍या जाएगा के चारो खंड- जितेन्‍द्र भाटिया,
चार नाटक- श्‍याम मनोहर: (अनुवाद- निशिकांत ठकार/ राजेन्‍द्र धोड़पकर), अनुनाद– अरुण खोपकर: (अनुवाद- निशिकांत ठकार), हो-चि का कु-चि/अहमद अल-हलो कहाँ हो– सरेन्‍द्र मनन, आज़ादी- अरुंधति रॉय, प्रतिनिधि‍ रचनाएँ, भाग-2- लियो टॉलस्‍टॉय (संपादन- कृष्‍णदत्‍त पालीवाल), साहित्‍य और कला- मार्क्‍स-एंगेल्‍स (राहुल फाउण्‍डेशन),
शहर से दस किलोमीटर- नीलेश रघुवंशी, शहरनामा– दिनेश चौधरी, मैं एक कारसेवक था– भँवर मेघवंशी, स्‍त्री निर्मिति- सुजाता, एक देश बारह दुनिया– शिरीष खरे, उसने गाँधी को क्‍यों मारा– अशोक कुमार पाण्‍डेय, यूरोप के स्‍कैच– रामकुमार, सिनेमा जलसाघर– जय प्रकाश चौकसे, अधूरी चीज़ों का देवता– गीत चतुर्वेदी, किस्‍सा मेडिसन काउंटी के पुलों का– राबर्ट जेम्‍स वॉलर (अनुवाद- यादवेन्‍द्र),
बाम्‍बे टापू किस्‍सा जंक्‍शन– सारंग उपाध्‍याय, जीते जी इलाहाबाद– ममता कालिया, जैसे चाॅकलेट के लिए पानी– लॉरा एस्‍कीवेल (अनुवाद: अशोक पाण्‍डे), एक मनोचिकित्‍सक के नोट्स- विनय कुमार, गूँगी रुलाई का कोरस– रणेंद्र, कल की बात: ऋषभ, षड्ज, गांधार- प्रचण्‍ड प्रवीर, वैधानिक गल्‍प- चंदन पाण्‍डेय ***आदि इत्‍यादि क़रीब दस.

कविता: नागरिक समाज– बसंत त्रिपाठी, खोई हुई चीज़ों का शोकगीत- सविता सिंह, उल्लंघन- राजेश जोशी, जीवन के दिन– प्रभात, वापस जानेवाली रेलगाड़ी/ रेख्‍़ते के बीज- कृष्‍ण कल्पित,
अंतस की खुरचन- यतीश कुमार, ठिठुरते लैम्‍प पोस्‍ट- अदनान कफ़ील दरवेश, प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता– संपादक: कुमार अनुपम, नूह की नाव- देवेश पथ सारिया,

प्रतिनिधि कविताएँ- तेजी ग्रोवर तथा रुस्‍तम, जंगल में फिर आग लगी है, जिधर कुछ नहीं- देवी प्रसाद मिश्र, यह स्‍मृति को बचाने का समय है– अजय सिंह, जंगल में फिर आग लगी है– विमल कुमार, मातृभाषा में- नवल शुक्‍ल,

आवाज़ अलग-अलग है– विनोद पदरज, चुप्पियों में आलाप- सपना भट्ट, कोलाहल की कविताएँ– अम्‍बर पाण्‍डेय, अपनी परछाईं में लौटता हूँ चुपचाप– रामकुमार तिवारी आदि इत्‍यादि, क़रीब बारह.

जो पढ़ी जा रही हैं: चलत् चित्रव्‍यूह– अरुण खोपकर (अनुवाद-प्रकाश भातम्‍ब्रेकर), अपनों के बीच अजनबी– फरीद खाँ, आउश्‍वित्‍ज़– गरिमा श्रीवास्‍तव, The Many Lives of Agyeya– Akshaya Mukul, In The Shadow of Trees- Abbas Kiarostami, Mrs.Caldwell Speaks To Her Son- Camilo Jose’ Cela.

अँग्रेजी: Memory As A Remedy For Evil– Tzvetan Todorov, A History Of Reading- Alberto Manguel, Tell Them of Battles, Kings And Elephants– Mathias Enard, No Nation for Women– Priyanka Dubey, Reading Lolita in Tehran- Azar Nafisi, Walden– Henry David Thoreau, Aimless Love– Billy Collins and some others, around five.

बाक़ी बहुत-सा समय उन फ़‍िल्‍मों को देखने में भी संपन्‍न हुआ
जिन्‍हें मैं किताबों की तरह पढ़ता रहा.

प्रियदर्शन

इस साल जो मैंने पढ़ा

इस साल निजी व्यस्तताओं की वजह से पठन-पाठन कम भी हुआ और बिखरा भी रहा. कई महत्वपूर्ण किताबें आकर पड़ी रह गईं, नहीं पढ़ पाया. कुछ नई-पुरानी किताबें पढ़ीं, कुछ को दुबारा भी पढ़ा. हिंदी साहित्य में यह साल गीतांजलि श्री और ‘रेत समाधि’ का रहा. दिलचस्प यह है कि जब यह उपन्यास छप कर आया था, तब मैंने इसे पढ़ना स्थगित रखा. तभी ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश जी ने इस पर एक टिप्पणी लिखने को कहा था. लेकिन उसके पहले मैं गीतांजलि श्री की कई किताबों पर लिख चुका था. फिर एक परिचित लेखक ने इस किताब की आलोचना की थी. इन सबका असर यह हुआ कि मैंने अखिलेश को मना कर दिया. बाद में किसी और ने भी आग्रह किया. उन्हें भी मना कर दिया. लेकिन किताब जब बुकर के लिए नामांकित हुई, तब मैंने इस साल इसे पढ़ा. निस्संदेह यह एक बड़ा उपन्यास है जिस पर गीतांजलि श्री के पिछले लेखन की छाया तो है ही, उसके आगे की भी छलांग है. बहरहाल, इसके अलावा इस साल कम से कम छह अच्छे उपन्यास पढ़ने का सुख मिला.

नीलेश रघुवंशी का ‘शहर से दस किलोमीटर’ अभी-अभी पढ़ कर ख़त्म किया है. यह उपन्यास विकास और उदारीकरण की आंधी में आर्थिक-सामाजिक स्तर पर टूटते-बिखरते हुए हाशिए के समाजों की बहुत मार्मिक दास्तान है. नीलेश रघुवंशी इसकी कई कथाएं जिस तल्लीनता और गहनता से बुनती हैं, वे अपने किरदारों के जीवन में जिस तरह उतर आती हैं, उससे लिखना सीखा जा सकता है.

मधु कांकरिया का उपन्यास ‘ढलती सांझ का सूरज’ भी अपनी कतिपय सीमाओं के बावजूद किसानों की आत्महत्या पर एक अच्छा उपन्यास है.

सामाजिक-राजनीतिक जीवन को घेरते जिन उपन्यासों ने मुझे बहुत प्रभावित किया, उनमें राकेश कायस्थ का ‘रामभक्त रंगबाज़’, ’प्रवीण कुमार का ’अमर देसवा’ और हृषीकेश सुलभ का ’दाता पीर’ हैं.

’रामभक्त रंगबाज़’ भारतीय सामाजिकता की अपनी संरचना के बीच राम के नाम पर चले अयोध्या आंदोलन की विडंबनाओं को बहुत दिलचस्प और मार्मिक ढंग से पकड़ने वाला उपन्यास है जिसका अब अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं में अनुवाद हो रहा है.

’अमर देसवा’ कोरोना काल की भारतीय अराजकता और छटपटाहट के बीच नागरिकता और मनुष्यता के बीच के द्वंद्व को बहुत करीने से पकड़ता है. जबकि हृषीकेश सुलभ का ’दाता पीर’ भारत में उन पीछे छूटते जा रहे अल्पसंख्यकों की बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है जो अपने ही समाज में भी बिल्कुल हाशिए पर हैं. एक कब्र खोदने वाले परिवार को आधार बना कर लिखा गया यह उपन्यास बेहद पठनीय है.

मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर केंद्रित चंदन पांडेय का उपन्यास ‘कीर्तिगान’ अपने विषय की वजह से बहुत महत्वपूर्ण है, पठनीय भी, लेकिन इससे मेरी कुछ शिकायतें रहीं. मुझे उनका पिछला उपन्यास ‘वैधानिक गल्प” इससे बेहतर लगा था.

इसी साल मैंने नीलाक्षी सिंह का उपन्यास ’खेला’ भी पढ़ा. असंदिग्ध तौर पर नीलाक्षी हिंदी की विलक्षण समकालीन लेखिकाओं में हैं. लेकिन यह विलक्षणता उन्हें कुछ-कुछ गीतांजलि श्री की तरह ही बहुत सारे पाठकों के लिए दुरूह बनाती है. जहां तक ‘खेला’ का सवाल है, अपनी सुस्पष्ट स्तरीयता के बावजूद यह उपन्यास अपने शिल्प में कई आलोच्य बिंदु छोड़ जाता है जो बहसतलब हैं.

इंदिरा दांगी अपने ढंग से पठनीय लेखक हैं, लेकिन उनका उपन्यास ‘विपश्यना’ एक कमज़ोर वैचारिक भित्ती पर खड़ा दिखता है. सपना सिंह का उपन्यास ‘वार्ड नंबर 16 इलाहाबाद रोड’ और वंदना यादव का ‘शुद्धि’ भी इस साल पढ़े.

विनोद दास का उपन्यास ‘सुखी घर सोसाइटी’ आधा पढ़ कर छोड़ा हुआ है. मेरे पढ़े गए उपन्यासों की इस सूची में दूसरी भाषाओं के कुछ नाम तत्क्षण याद आ रहे हैं.

उर्दू का उपन्यास ‘आख़िरी सवारियां’ पढ़ा जिसके लेखक सय्यद मोहम्मद अशरफ़ हैं. अंग्रेजी लेखक अमिताव घोष का ‘कैलकटा क्रोमोजोम्स’ पढ़ा जो पठनीय बहुत है, लेकिन बिल्कुल भूत-प्रेतनुमा वर्णनों की वजह से मुझे पसंद नहीं आया. जिस उपन्यास का पाठ मेरे लिए इस साल उपलब्धि जैसा रहा, वह मार्कस जुसाक का ‘द बुक थीफ़’ है- हिटलर के समय की एक कहानी जिसकी कई तहें हमारे लिए खुलती जाती हैं और एक भयावह दौर की दास्तान खोलती जाती हैं.

कहानी संग्रह मैं कम पढ़ता हूं- शायद इसलिए कि बहुत सारी कहानियां पत्रिकाओं में पढ़ लेता हूं. फिर भी जो कुछेक संग्रह इस साल पढ़े, उनमें जयनंदन का ‘तितकी नहीं जाएगी अमेरिका’ तत्काल याद आ रहा है. जयनंदन सामाजिक सरोकारों से जुड़े बहुत चर्चित और प्रशंसित लेखक हैं लेकिन कहानियों में उनका लेखक कुछ ज़्यादा हावी रहता है.

ममता कालिया के कहानी संग्रह ‘दो गज की दूरी’ की कई कहानियां दिलचस्प हैं. उनके पास किस्सागोई का फन कमाल का है.

निर्देश निधि का ‘सरोगेट मदर’ भी मैंने इसी साल पढ़ा. उनके पास कई तरह की अच्छी कहानियां हैं, लेकिन कई बार मुझे लगता है कि उन्हें शिल्प पर और काम करने की ज़रूरत है.

पंकज मित्र हिंदी में अपनी तरह के अलग लेखक हैं, यह उनके संग्रह ‘अच्छा आदमी’ की कुछ कहानियां पढ़ते हुए नए सिरे से महसूस हुआ.

नीलिमा शर्मा के संग्रह ‘कोई खुशबू उदास करती है’ की कुछ कहानियां भी इस साल पढ़ीं.

कविताओं में तीन किताबें ऐसी हैं जिन्हें बार-बार पढ़ता रहा और जिन पर लिखने की सोच कर स्थगित करता रहा. उन पर गहराई से लिखने का खयाल था.

देवी प्रसाद मिश्र की लंबी कविता ‘जिधर कुछ नहीं’, कुमार अंबुज का संग्रह ‘उपशीर्षक’ और जसिंता केरकेट्टा का ‘ईश्वर और बाज़ार’ बार-बार पढ़ता रहा. इस साल कुछ अनगढ़ लेकिन झनझनाती चोट करने वाले तीन संग्रह भी मुझे पसंद आए- पंकज चौधरी का ‘किस-किस से लड़ोगे’, बच्चालाल उन्मेष का ‘कौन जात हो भाई’ और उन्मेष का ही ‘गहरे प्रश्न छिछले उत्तर’. पंकज चौधरी का संग्रह तो हमारे सार्वजनिक जीवन में व्याप्त जातिवाद पर एक चाबुक की तरह पड़ता है. उन्मेष के दोनों संग्रहों में अनगढ़पन कुछ ज़्यादा है, लेकिन फिर भी उनमें अपनी तरह का ताप है.

इसके अलावा जो संग्रह मैं पढ़ पाया और मुझे बहुत पसंद आए, उनमें शिव प्रसाद जोशी का ‘रिक्त स्थान और अन्य कविताएं’, सपना भट्ट का ‘चुप्पियों में आलाप” और महेशचंद्र पुनेठा का ‘अब पहुंची हो तुम’ हैं. इसके अलावा इसी साल रेखा चमोली का संग्रह ‘उसकी आवाज एक उत्सव है’ और मेधा का संग्रह ‘राबिया’ भी पढ़े.

जिसे इन दिनों कथेतर गद्य कहने का चलन है, उस ढब की भी कुछ किताबें इस साल पढ़ीं. बिल्कुल अभी-अभी सुरेंद्र मनन का यात्रा वृत्तांत ‘हो चि का कु चि’ पढ़ कर ख़त्म किया है और इसके प्रभाव से निकलने में वक़्त लगेगा. खासकर अमेरिकी हमले का सामना करने के लिए वियतनामी योद्धाओं ने सुरंगें बना कर बरसों तक जो लड़ाई लड़ी और जीती, उसके अद्भुत ब्योरे इस किताब में हैं. महाबली अमेरिका का युद्धपिपासु और मानवद्रोही चेहरा भी इस किताब में उभर कर आता है.

विष्णु नागर के संस्मरणों की किताब ‘डालडा की औलाद’ पढ़ते हुए तकलीफ और विडंबना का वह तीखा अनुभव बार-बार मिलता रहा जिसे विष्णु जी अपनी कविताओं में भी साधते रहे हैं.

कैंसर से अपनी लड़ाई को याद करते हुए गीता गैरोला ने ‘गूंजे अनहद नाद’ के नाम से जो किताब लिखी है, वह भी बेहद पठनीय है जिसमें एक बीमारी नहीं, कई सामाजिक बीमारियों और उनसे लड़ने की मुश्किलों का ज़िक्र चला आता है.

अशोक पांडे की किताब ‘तारीख़ में औरत” को उनके विलक्षण गद्य, उनकी अंतर्दृष्टि और उनकी लैंगिक संवेदना के लिए ज़रूर पढ़ना चाहिए. फेसबुक पर लगातार लिखने वाली ममता सिंह की किताब ‘बातें बेवजह की’ का चुलबुला गद्य भी पठनीय है. इसी साल अरविंद मोहन की किताब ‘गांधी और कला’ पढ़ी. कलाओं के साथ गांधी के अंतर्संबंध को लेकर ऐसी अंतर्दृष्टिपूर्ण दूसरी कोई किताब मुझे याद नहीं आती.

जिन कुछ किताबों को इस साल उपलब्धि की तरह पढ़ पाया, उनमें झुंपा लाहिड़ी का ‘ट्रांसलेटिंग माईसेल्फ़ ऐंड अदर्स’ है. अंग्रेज़ी और इतालवी में लिखने वाली झुंपा लाहिड़ी ने कई अनुवाद भी किए हैं और भाषा, अनुवाद और लेखन के रिश्ते पर यह किताब बेहद पठनीय है.

इसी तरह डेविड पिलिंग का ‘द ग्रोथ डिल्यूज़न’ एक शानदार किताब है. पिलिंग बताते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध ने दो चीज़ें दीं- ऐटम बम और जीडीपी की अवधारणा. यह किताब जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के बहाने मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत ज़रूरी और गंभीर टिप्पणी की तरह आती है.

लेकिन यह अधूरी सूची है. कई किताबों के नाम तत्काल याद नहीं आ रहे. बहुत सारी अच्छी कविताएं और कहानियां फेसबुक पर पढ़ीं. कुछ किताबें पढ़ने को रह गईं. प्रत्यक्षा का ‘पारा-पारा’, अविनाश मिश्र का ‘वर्षावास’, गरिमा श्रीवास्तव का ‘आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा’, गौरीनाथ का ‘कर्बला दर कर्बला”, राजकमल, उर्मिला शिरीष और कई मित्रों के उपन्यास पढ़े जाने बाक़ी हैं- कई दूसरी और ज़रूरी किताबें भी.

उदयन वाजपेयी

1.Paradise of Food – Khalid Jawed
2.एक खंजर पानी में– ख़ालिद जावेद
3.नादिर सिक्कों का बक्स – सिद्दीक़ आलम
4. पडिक्कमा (पाण्डुलिपि) – संगीता गुन्देचा
5.भूपेन खख्खर – सुधीर चन्द्र
6.ख़ुदकुशीनामा -रिज़वानुल हक़
7.भावन– मुकुन्द लाठ
8.ल्हासा का लहू– अनुराधा सिंह
9. Devotions: The Selected Poems of Mary Oliver
10.Jejuri -Arun Kolatkar
11.Mirror with a New Face Every time – Hutashan Vajpeyi
12.Cold Candies- Poems of Lee Young-Ju
13.Love Stands Alone– Tamil Sangam poetry
14.Selected Poems – Oksana Zabuzhko
15.To Feed the Stone – Bronka Nowicka
16. Operating Manual for the spaceship Earth -Berkminster Fullar
17.भारतीय मानस का वि-औपनिवेशिकरण- अम्बिकादत्त शर्मा
18.The Boy, the mole, the fox and the horse-Charlie Mackesy
19.असल समृद्धि के आख़िरी स्तम्भ – अमित दत्ता
20.अर्थात- अमिताभ चौधरी
21.Republic of Hindutva – Badrinarayan
22. पाँच चिड़ियों का भाई– आनन्द हर्षुल

 

कमलानंद झा

यह वर्ष पढ़ने की दृष्टि से काफी उर्वर रहा. कई तरह की किताबें पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ. साहित्यिक पुस्तकें, वैचारिक पुस्तकें, हिंदी की किताबें, मैथिली, अंग्रेजी और उर्दू की अनूदित किताबें भी पढ़ने को मिलीं.

वैचारिक किताबों में हेमेंद्र चंडालिया की किताब ‘द पावर ऑफ पेन’ पढ़कर प्रतिरोध के लिए संचित साहस में बढ़ोतरी हुई. किताब पढ़ कर लगा कि ‘चारण पत्रकारिता, के बीच रीढयुक्त पत्रकारिता अभी बची हुई है.

प्रख्यात पत्रकार आशुतोष भारद्वाज की पुस्तक मृत्युकथा जो ‘द डेथ स्क्रिप्ट‘ का हिंदी अनुवाद है ; दंतेवाड़ा के नक्सल और पुलिस गतिविधि और उसके अंतर्संबंधों की बीहड़ किंतु करुणापूर्ण तथ्यात्मक कथा है. विचलित और बेचैन करनेवाली किताब. एक खास तरह के टिपिकल नैरेशन के विरुद्ध नक्सल समस्या पर फिर-फिर विचार के लिए उकसाती किताब.

मनीष भल्ला और डॉक्टर अलीमुउल्लाह खान के संयुक्त लेखन में लिखी गई किताब ‘बाइज्जत बरी’. सोलह मुसलमानों की ऐसी शोकगाथा- जिन्हें बगैर कसूर के सीखचों के अंदर अपनी जिंदगी गुजारनी पड़ी. बाद में वे सब कुछ गंवा कर ‘बाइज्जत बरी’ हुए. यह तो केवल 16 मुसलमानों की बानगी है. न जाने कितने मुसलमान, आदिवासी, दलित बगैर किसी अपराध के लंबी सजा काट रहे हैं. यह किताबें हमें बताती हैं, कि उच्च-मध्य वर्गों का ‘आल इज वेल’ वाली सोच दुर्भाग्यपूर्ण है.

उषा किरण खान ने अपनी पुस्तक ‘मैं एक बलुआ प्रस्तर खंड’ में प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक पितृसत्ता के निनाद में दबी और अनसुनी स्त्रियों की आवाज की शिनाख्त की कोशिश की है.

अनुराधा बेनीवाल ने ‘आजादी मेरा ब्रांड’ के बाद ‘लोग जो मुझ में रह गए’ यात्रा वृतांत में स्त्री यात्रा के सुलझे-अनसुलझे प्रश्नों को सर्जनात्मक तरीके से सभ्यता समीक्षा से जोड़ने का काम किया है. बेनीवाल की बेबाकी का कहना ही क्या?

अवधेश प्रधान की किताब ‘सीता की खोज‘ और नारायण सिंह की विलक्षण शोधपरक पुस्तक ‘सीता बनाम राम’ में राम के बरक्स सीता के महात्म्य को नए सिरे से देखने को मिला.

उर्दू के सफल और सधे व्यंग्यकार मुस्ताक अहमद यूसुफी की व्यंग रचना ‘पापबीती’ ने उत्तर कोरोना के विषादपूर्ण क्षण और अवसाद को बहुत हद तक कम किया. आफताब अहमद साहब का अनुवाद मूल जैसा ही आनंद प्रदान करता है.

तद्भव के संपादक और कथाकार अखिलेश का संस्मरण ‘अक्स’ पढ़कर संस्मरण विधा की ताकत का भान हुआ. ‘अक्स’ में संस्मरण अपनी सारी खूबियों के साथ मौजूद है. व्यक्तित्व निर्माण के सहयात्रियों को अखिलेश ने पूरी संजीदगी से याद किया है.

गौरीनाथ का ताजा उपन्यास ‘कर्बला-दर-कर्बला’ भागलपुर दंगे की सचाई पर पर परदे को खींच देता है. और यथार्थ निपट नंगा होकर रुबरु हो जाता है. उपन्यास में देंगे के अभियुक्त नेताओं, पुलिस अधिकारियों और साम्प्रादायिकों के असली नाम को सरेआम कर देने का जोखिम लेखक ने उठाया है.

गीताश्री का उपन्यास ‘आम्रपाली’ और नीलेश रघुवंशी का उपन्यास ‘शहर से 10 किलोमीटर’ स्त्री विमर्श के दो छोर हैं. एक में प्राचीनकालीन आम्रपाली की जिजीविषा, उत्कट कला प्रेम और बुद्धिचातुर्य के माध्यम से एक नृत्यांगना के विराट व्यक्तित्व को उद्घाटित किया गया है तो दूसरे में नीलेश ने हिंदुस्तान के किसी मामूली कस्बे में रहने वाली लड़कियों के ‘छोटे-छोटे सपनों की ‘बड़ी-बड़ी लड़ाइयों’ का कलात्मक जिक्र किया है.

मैथिली के दो-तीन रेखांकन योग्य पठित उपन्यास की चर्चा आवश्यक; शुभेंदु शेखर का ‘ओ जे कहियो गाम छलै, प्रदीप बिहारी का ‘कोखि’ और विभा रानी का ‘कनियाँ एक घुँघुरुआ वाली’. ये उपन्यास मैथिली उपन्यास को भारतीय भाषाओं के उपन्यास के समकक्ष खड़ा करते हैं.

युवा कहानीकार राजीव कुमार ने ‘तेजाब’ संग्रह में बिल्कुल लीक से हटकर कहानियां लिखी हैं. मुद्दों और विचारों को कलात्मकता से पिरोने में राजीव सिद्धहस्त हैं.

अमितेश कुमार की किताब ‘वैकल्पिक विन्यास’ आधुनिक हिंदी रंगमंच और हबीब तनवीर- नाटक और रंगमंच की बेहतरीन पुस्तक है. वर्षों बाद नाटक पर अच्छी किताब पढ़ने का संतोष हुआ.

इसी तरह रामलखन कुमार की पहली किताब ‘लोक काव्य: प्रतिरोध और सौंदर्य’ लोक साहित्य पर नये तेवर की किताब है.

काव्य विवेक के अभाव में भी कुछ अच्छे काव्य संग्रहों से गुजरने का अवसर इस वर्ष मिला. ‘अघोषित उलगुलान’ के कवि अनुज लुगुन के ‘पत्थलगड़ी’ में आदिवासी सरोकार और इस समाज के सारे प्रतीक उद्घाटित हुए हैं तो अरुणाभ सौरभ की लंबी कविता ‘आद्य नायिका’ में इतिहास और संस्कृति के जटिल संबंधों की पड़ताल की गई है.

विनोद कुमार झा का मैथिली काव्य संग्रह ‘महानगर में कवि’. इसमें विनोद जी ने अपनी काव्य-आंखों से मुंबई महानगर को स्कैन किया है.

बसंत त्रिपाठी का ताजा संग्रह ‘नागरिक समाज’, राकेश कबीर का काव्य संग्रह ‘नदियाँ ही राह बताएंगी’, लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता का काव्य संग्रह ‘तीसरी नदी’, और आशीष कुमार तिवारी का पहला काव्य संग्रह ‘लौह तर्पण’.

इन कविताओं के द्वारा आधुनिक कवि-चित्त को समझने के साथ-साथ कविता के बिल्कुल नए मुहावरे को भी जानने समझने का अवसर प्राप्त हुआ. अजीत कुमार आजाद का काव्य संग्रह ‘लड़कियां’ और ऋचा बिल्कुल नई कवयित्री ऋचा के काव्य संग्रह ‘सुनी सुनाई बातें’ पढ़कर कविता में लड़कियों को देखने की पुरुष-दृष्टि और स्त्री-दृष्टि के बीच प्रचंड फर्क को समझने में आसानी हुई.

राजाराम भादू

पढ़ी गयीं किताबों में से उल्लेखनीय:

 

 

1.खोई चीज़ों का शोक (कविता संग्रह): सविता सिंह
2. अग्निलीक (उपन्यास): हृषीकेश सुलभ
३. अहमद अल-हिलो, कहां हो (रिपोर्ताज) सुरेन्द्र मनन
४. जहां चुप्पी टूटती है (कविता संग्रह): शैलजा पाठक
५. प्रेम का अभिप्राय(अनुवाद): व्लादिमीर सोलोव्योव: नंदकिशोर आचार्य
६. इंजीकरी (कविता संग्रह): अनामिका अनु
७. जीवन के दिन (कविता संग्रह): प्रभात
८. उस रात की वर्षा में (कहानियाँ): प्रियंवद
९. प्रेम, परंपरा और विद्रोह (स्त्री-विमर्श): कात्यायनी
१०.आहार घोंसला (कहानी संग्रह): अशोक अग्रवाल

मधु बी जोशी

चार दिन पहले ही हिन्दी की अनुपम कहानीकार दीपक शर्मा की कहानियों का सुंदर संकलन ‘नीली गिटार’ पढ़ा. हिंसा और अपराध के उनके महीन विवरण अभी भी समुचित परिप्रेक्ष्य में अपने मूल्यांकन का इंतज़ार कर रहे हैं.

आधुनिक हिन्दी प्रकाशन में मोहन गुप्त ने अपने लंबे प्रकाशकीय जीवन में मिले लोगों के साथ अपने अनुभव को ‘और भुलाए न बने’ में दर्ज़ किया है, आधुनिक हिन्दी प्रकाशन का एक महत्वपूर्ण अध्याय.

‘मेरा ओलिया गाँव’ इसी बरस दिवंगत हुए कथाकार-कवि शेखर जोशी का अपने गाँव के बहाने एक बीतती जीवन शैली का शोकगीत है.

कवि-यायावर-अनुवादक अशोक पांडे ने छोटे से पहाड़ी कस्बे में बीते अपने बचपन की यादें ‘लपूझन्ना’ में दर्ज़ की हैं. हमारी आँखों के सामने लुप्त होते दौर का एक बच्चे की निगाह से यह विवरण तेज़ी से बदलते कस्बे और बचपन के लिए गहरा नौस्टाल्जिया जगाता है.

अनुवाद की तैयारी में पढ़ी इतिहासविद उमा चक्रवर्ती की ‘Rewriting History: The Life and Times of Pandita Ramabai’ पंडिता रमाबाई को उनके ऐतिहासिक-सामाजिक-समाज शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में स्थापित करते हुए उनके अवदान को रेखांकित करती है.

भूतपूर्व सांसद-कूटनीतिज्ञ मिकेल बार–जोहर और पत्रकार निस्सिम मिशल का प्रस्तुत किया इज़रायली गुप्तचर सेवा के कारनामों का बहुत पठनीय और रोमांचक विवरण ‘मोसाद’ मोसाद का महिमामंडन करते हुए विश्व राजनीति में इज़रायल की भूमिका के बारे में काफी सही संकेत उपलब्ध करवाता है.

इतिहासकार अनिरुद्ध देशपांडे और मुफीद मुजावर ने ‘The Rise and Fall of a Brown Water Navy: Sarkhel Kanhoji Angre and Maratha Sea Power on the Arabian Sea in the 17th and 18th Centuries’ के माध्यम से सूरत से दक्षिणी कोंकण तक हिन्द महासागर के महत्वपूर्ण गलियारे को अंग्रेजों, पुर्तगालियों और सिद्दियों से सुरक्षित रखने में सरखेल कान्होजी आंग्रे और उनके वंशजों के योगदान को रेखांकित किया है.

नरेश गोस्वामी

पांच किताबें

ज्ञान की राजनीति : समाज अध्ययन और भारतीय चिंतन : मणीन्द्र नाथ ठाकुर
आवाज़ अलग-अलग है : विनोद पदरज
मनोचिकित्सा संवाद : डॉ. विनय कुमार
दुख किस कांधे पर : सत्यनारायण
रिअलिटी ऐंड इट्स डेप्थ्स : अ कंवर्जेशन बिटवीन सविता सिंह ऐंड रॉय भास्कर

मणीन्द्र नाथ ठाकुर की किताब ‘ज्ञान की राजनीति : समाज अध्ययन और भारतीय चिंतन’ (2022) समाज विज्ञानों की दशा-दिशा पर केंद्रित है. इस पर हम समाचलोचन पर एक विस्‍तृत समीक्षा लिख चुके हैं.

विनय कुमार ‘मनोचिकित्सा संवाद’ (2018) में देश के शीर्ष मनोचिकित्सकों से गहरी बात करते हुए समाज के व्यापक परिवर्तनों के साथ व्यक्ति के मन पर पड़ी दरारों को पकड़ते हैं. एक स्थूल अर्थ में कहें तो मनोचिकित्सकों के इन साक्षात्कारों से पता चलता है कि हमारी ज्ञान-व्यवस्था में अनुशासनों और परिप्रेक्ष्यों का विभाजन कितना कृत्रिम और अपूर्ण है. यहाँ अनेकानेक मनो

चिकित्सक सामाजिक कारकों और परिघटनाओं को उसी प्रखरता से देख रहे हैं जैसे कोई कुशल समाज विज्ञानी देखता/दर्ज करता है, लेकिन मनोचिकित्सक के पास एक अतिरिक्त कौशल या सलाहियत भी है : वह यह भी समझता है कि बाहर का यथार्थ व्यक्ति के मन को कैसे चीथता और विदीर्ण करता है. लेकिन अजब यह है कि आमतौर पर ज्ञान के ये दोनों क्षेत्र एक दूसरे के पूरक बनने के बजाय अपनी-अपनी भव्यता में सीमित रहते हैं.

सत्‍यनारायण की डायरी (‘दुख किस कांधे पर’) एक बेचैन कर देने वाली किताब है. अपने अकेलेपन, छूटी हुई जगहों और सुख की विगत संभावनाओं को इस बेनियाज़ी से खोल कर रख देना हिम्‍मत का काम है. लेकिन, एक गहरे स्‍तर पर यह लेखक के दैनिक मनोगत इतिहास के साथ धीरे-धीरे लालसाओं, लालच और क्षुद्रताओं के कारण जर्जर होते सामाजिक संबंधों का भी दस्‍तावेज है. यह इस बात का सुबूत भी है कि व्यक्ति जब अपने अनुभवों को निश्‍शंक भाव से रखता है तो भाषा कितनी विदग्‍ध हो सकती है. इसमें पन्‍ना–दर-पन्‍ना जिए और अनजिए जीवन की ऐसी कचोट, व्यतीत न होने की जि़द पर अड़े समय और कहीं लौट जाने की ऐसी तड़प है कि उनके ताप को संभाल पाना मुश्किल हो जाता है. वैसे, इस किताब पर मैं अलग से लिखना चाहता हूं.

रिअलिटी ऐंड इट्स डेप्थ्स: अ कंवर्जेशन बिटवीन सविता सिंह ऐंड रॉय भास्कर (2020), एक अनूठी किताब है. दर्शन और समाज विज्ञानों के क्षेत्र में भौतिकता और चेतना को एक दूसरे से विच्छिन्न करके देखने के बजाय उन्हें एक ही यथार्थ के दो पक्षों के रूप में समझने तथा उसका तहदार परिप्रेक्ष्‍य विकसित करने वाले दार्शनिक रॉय भास्‍कर के साथ हिंदी कवि और विदुषी सविता सिंह की यह लंबी बातचीत उस मानसिक और वैचारिक प्रक्रिया की बारीक निशानदेही करती है जिससे गुजर कर भास्‍कर क्रिटिकल रियलिज़्म की अवधारणा तक पहुंचे थे. इस किताब से यह बात एक बार फिर सिद्ध होती है कि चिंतन के जटिल और अमूर्त पक्षों को बोधगम्‍य बनाने में साक्षात्कार और संवाद की प्रविधि शायद सबसे कारगर होती है.

विनोद पदरज के कविता-संग्रह ‘आवाज़ अलग-अलग है’ को पढ़ते हुए मुझे बार-बार यह एहसास होता रहा कि उनकी कविताओं में जीवन की छवियां, स्थितियाँ और विडंबनाएं जिस अनायास ढंग से घटित होती हैं, उसे केवल अभ्‍यास या शिल्‍प के बूते अर्जित नहीं किया जा सकता. विनोद जी के कविता-संसार में स्‍थानीय समाज और प्रकृति के ब्योरों-बिंबों तथा जनपदीय भाषा से उठाए शब्‍दों और भावों को देखकर कई लोग उन्‍हें लोक या देशजता का कवि मान बैठते हैं. लेकिन, मेरे ख़याल में यह एक तरह की हड़बड़ी है जो उनकी काव्य-चेतना और उनके सरोकारों को लक्षित करने में चूक जाती है. दरअसल, विनोद जी के यहां स्‍थानिकता एक ‘लोकेल’ भर है जहां उनकी कविता घटित होती है, यह स्‍थानिकता उनकी कविता के संसार या उसके अभिप्रेत को सीमित नहीं करती. उनकी कविताओं में स्थानिकता जश्‍न बनकर नहीं आती— वह उसके अंतर्विरोधों और उसमें पैवस्त सत्‍ता-संबंधों की भी शिनाख्त करती है.

राकेश बिहारी

2022 में पढ़ी गईं किताबों की सूची(पढ़े जाने के क्रम में)

बंद कोठरी का दरवाज़ा (कहानी संग्रह) रश्मि शर्मा
बगलगीर (उपन्यास) संतोष दीक्षित
अच्छा आदमी (कहानी संग्रह) पंकज मित्र
तितली धूप (कहानी संग्रह) भालचंद्र जोशी
ढलती सांझ का सूरज (उपन्यास) मधु कांकरिया
वनतुलसी की गंध (उपन्यास) शिव कुमार शिव
बंद रास्तों का सफर (कविता संग्रह) अनामिका
दाता पीर (उपन्यास) हृषीकेश सुलभ
हिंदी कहानी वाया आलोचना (आलोचना) नीरज खरे
यह जीवन खेल में (संस्मरण) गिरीश कर्नाड, अनुवाद- मधु बी जोशी
गांधी और कला (विचार) अरविंद मोहन (2021 में प्रकाशित)
तलछट की बेटियां (कहानी संग्रह) विनीता परमार
देह और प्रज्ञा के बीच (कविता संग्रह) अलका प्रकाश
हाशिये की आवाजें (विचार) रश्मि रावत
रूई लपेटी आग (उपन्यास) अवधेश प्रीत
गांधी क्यों नहीं मरते (विचार) चंद्रकांत वानखेड़े

ज्योतिष जोशी

इस वर्ष अन्यान्य कारणों से पढ़ने की दिशा दूसरी रही. वैदिक वाङ्गमय और औपनिषदिक साहित्य आदि को पढ़ने में अधिक समय गया, जो मेरी परियोजना के लिए आवश्यक था. पर जो किताबें मैं इन व्यस्तताओं के बीच पढ़ पाया, उन्हें रेखांकित करना आवश्यक समझता हूँ.

इस लिहाज से ‘पद्मावत’ पर लिखी गयी श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक निश्चय ही उल्लेख्य है जो महाकवि जायसी के इस महाकाव्य की उन अंतः सरणियों का अन्वेषण करती है जिन पर किसी की दृष्टि इस बोध के साथ नहीं गयी है. इसी कड़ी में हमने सुलोचना वर्मा के काव्य संग्रह ‘बचे रहने का अभिनय’ को महत्वपूर्ण पाया जिसमें आज समय की यातना भरी स्थितियों में आज के मनुष्य के संघर्ष को अनेक स्तरों पर अंकित करता है.

सुलोचना में कविता को जीने और व्यक्त करने की जो युक्ति है, वह अलग से पहचानी जा सकती है. इसे हिंदी जगत को भी अपने दुराग्रहों से मुक्त होकर देखना चाहिए.

कला विषयक पुस्तकें बेहद कम आईं और जो आईं, वह इतना उल्लेख्य नहीं हैं. इस क्रम में श्री अमितेश कुमार की पुस्तक ‘वैकल्पिक विन्यास’ शीर्ष रंग निर्देशक हबीब तनवीर के रंगमंच के बहाने एक वैकल्पिक रंग विन्यास को अन्वेषित करने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल है जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.

संतोष दीक्षित का उपन्यास ‘बगलगीर‘ जहां पटना शहर के बदलते जीवन दृश्यों के बीच पुराने पड़ रहे, पर परिचित मनुष्य को खोजने की युक्ति का विरल उपन्यास है, वहीं हृषीकेश सुलभ का ‘दातापीर’ कब्रगाह की देखरेख करते और कब्रों की हिफाज़त में ग़र्क ऐसे परिवार की कथा है जिसका अनुभव हमें अलक्षित यथार्थ से रोमांचित कर देता है.

इसी तरह अवधेश प्रीत का उपन्यास ‘रुई लपेटी आग‘ अपने कहन और शिल्प में एक ऐसे अनुभव में ले जाता है जहाँ पहुंचकर हम अपने को ही प्रश्नों के ऐसे बीहड़ में पहुंच जाते हैं जिसका उत्तर हमें खोजने से भी नहीं मिलता. इसी क्रम में श्री रमाशंकर सिंह की पुस्तक ‘ नदी पुत्र ‘ को अवश्य पढ़ना चाहिए जो नदियों के जीवन रहस्यों के साथ उनके उन संरक्षकों की कथा कहती है जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते

‘भारतीय साहित्यशास्त्र की नई रूपरेखा’ श्री राधावल्लभ त्रिपाठी की ऐसी महत्वपूर्ण कृति है जो भारतीय साहित्य की विभिन्न विधाओं को उसकी अद्यतन स्थितियों में समझती और विश्लेषित करती है.

इस कड़ी में बर्ट्रेंड रस्सेल की पुस्तक ‘इंडिविजुअल एंड अथॉरिटी’ का नन्दकिशोर आचार्य द्वारा किया गया अनुवाद ‘व्यक्ति और सत्ता’  तथा उन्हीं के द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्वराज के आधार और आयाम’  महत्वपूर्ण पुस्तक है जो गाँधी जी के स्वराज के तात्विक आधारों की विवेचना करती है.

इस वर्ष श्री अशोक वाजपेयी की रचनावली तेरह खंडों में प्रकाशित हुई जिसे उल्लेखनीय माना जाना चाहिए. इन सभी खंडों में उनकी कविताएं, आलोचना, कला विषयक चिंतन और संस्मरण आदि हैं जिनसे गुजरना अपने समय के साथ होना है.

इसके अतिरिक्त जो पुस्तक रुचि के साथ पढ़ पाया, वह थी कविवर जयशंकर प्रसाद की जीवनी ‘अवसाद का आनन्द’ जिसे ख्यात आलोचक श्री सत्यदेव त्रिपाठी ने बहुत मनोयोग से लिखी है. इस जीवनी के माध्यम से उन्होंने प्रसाद के जीवन और संघर्ष को जिस विस्तार से अंकित किया है, वह रेखांकित करने योग्य है. इसके अतिरिक्त रश्मि भारद्वाज का उपन्यास ‘वह सन बयालीस था’ , प्रवीण कुमार का  ‘अमर देसवा‘  जैसी कृतियाँ भी बेहद महत्वपूर्ण हैं जिन्हें पढ़कर भुलाया नहीं जा सकता.

अखिलेश के संस्मरणों की पुस्तक ‘अक्स’ और सुपरिचित कथाकार मनोज पाण्डेय की प्रेम कविताओं का संकलन ‘ प्यार करता हुआ कोई एक‘ उल्लेखनीय पुस्तकें हैं जिनसे गुजरना अपने होने को ही बार बार थाहना है. कवि गीत चतुर्वेदी की पुस्तक ‘अधूरी चीजों का देवता’ भी रोचक और पठनीय है. पढ़ी गयी पुस्तकों में एक काव्य संग्रह ‘अन्तस की खुरचन’ भी है जिसमें यतीश कुमार ने आत्म के गहरे द्वैत और स्निग्ध आत्मीय क्षणों को बहुत सधे हुए बिंबों में सम्भव किया है.

इस वर्ष तीन अन्य संग्रहों की चर्चा भी जरूरी है जिनकी धमक आगे के वर्षों तक बनी रहेगी. राकेश रेणु ‘नए मगध में’ व्यवस्था-प्रतिरोध के साथ छीजते जा रहे सम्बन्धों की आत्मीयता को पुनर्वसित करते हैं और कविता को एक सहज सम्वाद का हिस्सा बनाते हैं, तो पंकज चौधरी ‘किस किस से लड़ोगे’  में बुरी तरह बंटे समाज में जाति की वास्तविकता के बहाने अनेक असुविधाजनक प्रश्नों से टकराकर एक विमर्श खड़ा करते हैं.

सुभाष राय का संग्रह ‘मूर्तियों के जंगल में’ प्रतिरोध और सम्भावना को द्वित्व में न देखकर एकत्व में अनुभूत करता है और मनुष्य के अपने अन्तर-वाह्य की यात्रा का प्रस्ताव करता है जिससे वह स्वयं तो करुण बने ही, समाज को मानवीय बनाने  में भी सहायक हो.

इस वर्ष इससे अधिक पढ़ना न हुआ, पर जो हुआ, उसकी बुनियाद पर कह सकते हैं कि ये पुस्तकें हमारे देखे जिए संसार के आयतन को विस्तृत करती हैं. इस मायने में इस वर्ष को उल्लेखनीय वर्ष तो कहा ही जा सकता है.

 

रमाशंकर सिंह

एक पुस्तक प्रेमी के नोट्स

पढ़ने की कोई उम्र तो नहीं होती है लेकिन पढ़ने पर उम्र का प्रभाव पड़ता है. उम्र के साथ पाठकीय आस्वाद बदलते हैं, राजनीतिक विचार रूप लेते हैं और परिवर्तित होते रहते हैं. इस प्रकार जैसे कोई साहित्यकार विकसित होता है, उसी प्रकार पाठक भी विकसित होता है. किसी नाच रहे मोर की तरह लेखक का विकास, उसका लेफ्ट-राइट-सेंटर, लाल-भगवा-हरा सब दिखता है. पाठक अदृश्य रहता है. वह अपने-अपने अंदर खुद की, देश और समाज की कई-कई परतें समेटे रहता है.

पहले, यानी 18-30 की उम्र में उपन्यास आकर्षित करते थे, तथ्य आधारित टेक्स्ट बुक अच्छी लगती थीं और कभी-कभी तो व्यक्तित्व विकास की किताबें भी अच्छी लगने लगीं. ऐसा लगता था कि शिव खेड़ा और रोबिन शर्मा के पास कोई जादुई चीज है जो हमारी ज़िंदगी बदल देगी. बाद में कई सारी बातों की तरह खुद ही पता लग गया कि यह सब फर्ज़ी बातें हैं! मनुष्य और उसका व्यक्तित्व कहीं और रहता है.  इस प्रकार शुरुआती जीवन गलत किताबों के पीछे भागते हुए गुजरा. कुछ ठीक-ठाक किताबें भी इसी दौर में पढ़ीं. शायद उन्हीं ने अन्य किताबों को पढ़ने की ओर अग्रसर किया हो. जीवनियाँ तो कक्षा आठ से ही अच्छी लगने लगी थीं. इसी प्रकार यात्रा वृत्तान्त, शिकार साहित्य और जानवरों पर किताबें अच्छी लगती थीं. यह सभी किताबें दुनिया-जहान के बारे में वह बातें बताती थीं जिनको उन किताबों के लेखक अपने पाठक से साझा करना चाहते थे.

फिर भी, दिक्कत उस समय शुरू हुई, जब मैंने उस उम्र में पीएचडी करनी शुरू की जिस उम्र में लोग एकाध नौकरी करके छोड़ चुके होते हैं. मुझे किताबों में लिखी बातें झूठी लगने लगीं. कभी-कभी फ़ील्डवर्क के दौरान, कोई स्कूल न गया वृद्ध मुँहफट तरीके से कह भी देता कि ‘तुम पढ़े-लिखे लोगों की तरह बातें क्यों करते हो? दुनिया ऐसी नहीं है, जैसी किताबों में लिखी होती है’. क्या हमारी ‘वास्तविक दुनिया’ वैसी नहीं है जो किताबों में लिखी है या उससे अलग किसी नये तरह के, पोशीदा सच में गिरफ़्तार रहती है जिसकी खोज ज्ञानी, संत, महात्मा, कवि, समाजविज्ञानी, पत्रकार और अभिनेता, जादूगर और नेता करते रहते हैं? मुझे दूसरी वाली बात थोड़ा जँचती है. दुनिया एक पोशीदा सच में गिरफ़्तार है जिसे लेखक हमारे सामने टुकड़ों में रखते रहते हैं. औसत लोग केवल उसका वर्णन करने की क्षमता हासिल कर पाते हैं.

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कोविड ने हमें कमजोर किया, मजबूर किया कि हम यह मानें कि एक वायरस ने मनुष्य को कितना सुभेद्य(वल्नरेबुल) बना दिया है. इसने मानवीय जीवन की खूबसूरती और उसकी विपरीत परिस्थितियों में लड़ने की ताकत का अहसास भी कराया. भारतीय साहित्य और समाज विज्ञान की पुरानी कहानियाँ-किस्से, गढ़ंत और राजनीति की प्रक्रियाओं को विद्वान आगे लेकर आए. मधु सिंह की ‘आउटब्रेक: एन इंडियन पैंडेमिक रीडर, पेनक्राफ्ट, 2022’ ने  समाज विज्ञान और मानविकी के विभिन्न विद्वानों के लेख, कहानियों, आत्मकथा अंश, अनुवाद, कविता आदि को हमारे सामने रखा. इस संकलन ने औपनिवेशिक संसार से लेकर हमारे विक्षुब्ध वर्तमान पर एक नज़र डालने की सुविधा प्रदान की. कोविड ने हमारे कई साहित्यकारों और दानिशवरों को समय से पहले छीन लिया. उनकी अनुपस्थिति में आयी उनकी श्रद्धांजलियों ने एक बार फिर उनके व्यक्तित्व और कृतित्त्व पर सोचने का अवसर दिया. जिसे मालिक मुहम्मद जायसी कहते थे कि ‘फूल मर जाता है लेकिन उसकी सुगंध बची रहती है’, वह वास्तव में मनुष्य के बारे में है. उसकी एक ‘सामाजिक-बौद्धिक स्मृति’ बची रहती है और उत्तरवर्ती लोग उसे विभिन्न तरीके से पुनर्सृजित करते हैं.

मुझे यह बार लगता रहा है कि किसी लेखक को जानना हो तो उसके द्वारा लिखी कोई श्रद्धांजलि पढ़िए और देखिए कि वह किसी दूसरे लेखक को कैसे याद करता है? वह उसके जीवन, मित्रों, दुश्मनों, इतिहास में उसकी भूमिका पर अपनी श्रद्धांजलि में कैसे विचार करता है. कथाकार एवं समाज विज्ञानी नरेश गोस्वामी ने एक सुचिंतित, विचारोत्तेजक और ऐतिहासिक भूमिका के साथ ‘स्मृति शेष: स्मरण का समाज विज्ञान’(वाणी प्रकाशन 2022) सम्पादित की है. इसमें पिछले एक दशक में  ‘प्रतिमान’ में प्रकाशित श्रद्धांजलि लेख हैं जो आधुनिक भारत के कुछ चुनिंदा विद्वानों और दानिशमंदों की अंदरूनी और बाहरी दुनिया के बारे में बताते हैं. इस प्रकार यह सभी श्रद्धांजलि लेख पिछली सदी का हिसाब-किताब भी प्रस्तुत करते हैं.

लगभग एक शताब्दी और उससे भी थोड़ा पहले के भारत को बौद्धिक रूप से उत्तेजित कर देने वाले स्वामी विवेकानन्द की चर्चा भला कौन नहीं करता. उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस पर भी बात होती रही है. इन दोनों महापुरुषों के पुण्य स्मरण के बीच शारदा देवी(1853-1920) को लोग विस्मृत कर देते हैं. सम्भवतः यह चयनात्मक विस्मृति है. इसे दूर करने की दिशा में पहले भी कुछ महत्त्वपूर्ण काम हुए थे लेकिन जिस संवेदनशीलता और मार्मिकता के साथ अमिय पी. सेन ने ‘सारदा देवी : होलीनेस, कृश्मा एंड आयकोनिक मदरहुड, नियोगी बुक्स, 2022’ लिखी है, वह स्तुत्य है. पेशे से इतिहासकार और प्राध्यापक अमिय पी. सेन इसमें बहुत शानदार गद्य भी सृजित किया है जो किसी जीवनी को और भी पठनीय और ग्राह्य बनाता है. यह पिछली सदी के भारत और उससे भी पहले की एक सदी के भारत की सामाजिक दशा को जानने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है. मुझे इस जीवनी में वह स्थल बहुत ही हृदयग्राही लगा जब वे 1886-87 में उत्तर भारत में तीर्थयात्रा पर निकलती हैं.

पिछली सदी से याद आया कि यह सदी भारत में ऐसे विद्वानों की सदी रही है जो एक साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, विद्वान और संस्था निर्माता रहे हैं. उन्होंने भारत भर को घूम डाला था. मुनि जिनविजय (1889-1976) ऐसे ही एक धार्मिक पुरुष, ज्ञानी और संस्था निर्माता थे जिनका जीवन भारत की आज़ादी की लड़ाई, उसके आत्म संघर्ष, प्रमुख नेताओं और विद्वानों से जुड़ा हुआ था.

मुनि जिनविजय का आरम्भिक जीवन दिखाता है कि उनके भीतर एक एक आत्मसंघर्ष था कि कहाँ सीखा जाए, किससे सीखा जाए? और जो सीख लिया है, उसे किसे बताया जाए? यदि कोई राहुल सांकृत्यायन(1893-1963) और धर्मानंद कोसंबी (1876-1947)के जीवन को देखे तो यह बेचैनी उसे वहाँ भी देखने को मिल जाएगी. यहाँ राहुल सांकृत्यायन और धर्मानंद कोसंबी का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि यह तीनों विद्वान आज़ादी की लड़ाई के अंतिम चालीस वर्षों में एक सक्रिय बौद्धिक और सामाजिक जीवन में मुब्तिला थे. माधव हाड़ा द्वारा सम्पादित और प्रस्तुत ‘मुनि जिनविजय : एक भव-अनेक नाम, आत्म वृत्तान्त और पत्राचार, वाग्देवी प्रकाशन, 2022’ इस लिहाज़ से बहुमूल्य किताब है जो पांडुलिपियों, ज्ञान आधारित संरचनाओं और संस्थाओं से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व को हमारे सामने रखती है.

माधव हाड़ा की यह किताब खत्म करने के बाद मैं अपना एक एकाडमिक काम करने लगा. मुझे अपना एक ‘शोध प्रवाह’ लिखना था जिसमें भारत के अभिलेखागारों, उनकी निर्मितियों, कागज़ और पांडुलिपियों के संसार की बात की जानी थी. इसमें यह भी देखा जाना था कि पूर्व औपनिवेशिक संसार में भारत में ज्ञान का संसार कैसे निर्मित होता था? उसमें कौन लोग भागीदार थे? इसमें मुझे दो किताबों ने मदद की. पहली किताब थी इतिहासकार फरहत हसन की ‘पेपर, परफ़ॉर्मेंस, एंड द स्टेट :  सोशल चेंज एंड पॉलिटिकल कल्चर इन मुगल इंडिया, कैम्ब्रिज़ युनिवर्सिटी प्रेस(2021) और दलपत सिंह राजपुरोहित की ‘सुन्दर के स्वप्न : आरम्भिक आधुनिकता, दादूपंथ और सुन्दरदास की कविता’, राजकमल प्रकाशन, 2022. यहाँ मैं ‘सुन्दर के स्वप्न’ पर अपने आपको सीमित रखूँगा. दलपत का काम मुझे इसलिए आकर्षक लगा कि वह औपचारिक विश्वविद्यालयी जीवन से परे, धार्मिक स्त्री-पुरुषों के जीवन चरित, लीला गान और कविता के सहारे भारत के बौद्धिक इतिहास को देखने की एक खिड़की उपलब्ध कराता है. दलपत ने विभिन्न प्रकार की मौखिक परम्पराओं, ‘वैकल्पिक सांस्कृतिक अभिलेखागारों’ तक वह पहुँच बनाई है जिसे पूर्व औपनिवेशिक भारतीय ज्ञान मीमांसा को समझा जा सकता है.

आजकल मैं अपने पूर्ववर्ती प्रशिक्षण और सिखावन से अलग हटकर एक ऐसी परियोजना में संलग्न हूँ जो इस बात की पड़ताल करना चाहती है कि भारत के एकाडमिक संसार को किस तरह से औपनिवेशित किया गया और वह अपने आपको समझने के लिए उपनिवेश द्वारा थमाए गए हरबे-हथियारों को प्रयोग में लाने लगा. और यह कोई भारत में ही नहीं हो रहा है बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों, विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में गुलामी की तहों को खुरचने का काम किया जा रहा है. उपनिवेश के ‘वैश्विक परिप्रेक्ष्य’ को आँख से ओझल किए बिना स्थानीय ज्ञान परम्परा और संवेदनशीलाताओं का पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है.

ज्ञान के सृजन और उसकी राजनीति को समझने में समाज विज्ञान की प्रचलित कसौटियाँ नाकाफ़ी साबित हो रही हैं. हालाँकि, यह वाक्य हर दशक में दोहराया तो गया है लेकिन कोई ठोस बात नहीं की गयी और ज्ञान की वैधता का एक ‘अदृश्य पश्चिमी प्रतिमान’ हावी रहा है. लिखित रूप में इसे मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने प्रस्तुत करने का साहस किया है. अपनी किताब ‘ज्ञान की राजनीति : समाज अध्ययन और भारतीय चिन्तन’, सेतु प्रकाशन, 2022’ में समाज अध्ययन की उन मुक्तिकामी परम्पराओं की ओर ले जाते हैं जहाँ एक पाठक और विद्वान दोनों को वह स्वतंत्र नज़रिया हासिल हो सके जिससे वह भारत की ज्ञान-परंपराओं को न केवल क्रिटिकल तरीके से देख सके बल्कि उसका आदर भी कर सके. ‘भारतीयता के यशोगान’ से आगे भारत को समझने के लिए उपलब्ध टेक्स्ट और परिदृश्य को समझने में यह किताब मदद करती है. ‘राज्य, विश्वविद्यालय और समाज अध्ययन’ के औपनिवेशिक त्रिकोण को पुनर्विन्यस्त करते हुए मणीन्द्र जी उसमें समाज को प्राथमिकता देने की वकालत करते हैं और ज्ञान को राज्य के चंगुल से निकालकर उसका लोकतंत्रीकरण करने की एक बारीक सी नज़र अपने पाठकों से साझा करते हैं.

आधुनिक और पूर्व आधुनिक समाजों की निर्मिति, उनके बीच ऐतिहासिक टूटन और भविष्य की राहों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक समय में कई राष्ट्र बने और उन्होंने अपने अनुभवों, औपनिवेशिक सत्ता तंत्र तथा उससे उपजे स्थानीय संघर्षों के द्वारा एक विशिष्ट किस्म के राष्ट्रवाद की खोज की. ‘राष्ट्र की जो कल्पना ब्राज़ील या पुर्तगाल या आस्ट्रेलिया की रही है, वही कल्पना भारत की नहीं रही है. फ़्रांस या ब्रिटेन से तो भारत में ‘राष्ट्र का विचार’ जुदा किस्म का है. अपनी किताब ‘भारतीय राष्ट्रवाद : राष्ट्रवाद का वि-औपनिवेशीकरण’, डी. के. प्रिंटवर्ल्ड, 2022 में विश्वनाथ मिश्र ‘मानवतावादी राष्ट्रवाद’ की प्रस्थापना पर जोर देते हैं. हालाँकि, उनके कई निष्कर्षों से मुझे आपत्ति है, मसलन एक जगह वे कहते हैं कि ‘भारत ने विवेकानन्द को यूरोप के माध्यम से जाना और जवाहरलाल नेहरू ने भारत को यूरोप के जरिये पहचाना’(पृष्ठ 76). अपने इस निष्कर्ष को वे आगे विस्तृत करते हैं लेकिन अपनी उर्जा इस कथन को सही करने में लगा देते हैं ! इसके बाद वे सम्भलते हैं और कहते हैं कि आज का भारत जो भी भारत है, वह नेहरू की दूरदर्शिता, आदर्शवाद और पटेल के यथार्थवाद का परिणाम है.

यह भी उल्लेखनीय है कि नेहरू का आदर्शवाद प्लेटो जैसा नहीं है(पृष्ठ 79). फिलहाल यह ऐसी पुस्तक है जिसके किसी एक पृष्ठ से न तो मैं संतुष्ट हो पाया न ही असंतुष्ट. विश्वनाथ मिश्र किसी सर्व सहमति की तलाश में नहीं निकले हैं और वे अपने पाठकों को कोंचते हुए चलते हैं.

महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक बार फिर सार्वजनिक बहसों से लेकर व्यक्तिगत पसंद-नापसंद में लौट आए हैं. इतिहास की सार्वजनिक भूमिका और उसके ‘चुनावीकरण’ की कल्पना तो इतिहासकारों की पिछली पीढ़ी ने नहीं ही की होगी लेकिन जो है, वह है. वास्तव में, भारत के लिए बीसवीं सदी बड़ी प्रभावकारी सदी रही है. इस सदी में भारत ने ब्रिटेन की गुलामी से मुक्ति पायी और आधुनिक अर्थों में ‘राष्ट्र नायक’ सृजित किये. इन नायकों में जवाहरलाल नेहरू के बिना तो आधुनिक भारत की कल्पना नामुमकिन है.

इस वर्ष जवाहरलाल नेहरू पर आयी महत्त्वपूर्ण किताबों में मानश फिराक़ भट्टाचार्जी की ‘नेहरू एंड द स्प्रिट ऑफ़ इंडिया, पेंग्विन, 2022’ ने नेहरू के बौद्धिक संसार, उनकी मानसिक बनावट और भारत नामक देश से उनकी मुखामुखम को बहुत ही खूबसूरती और मार्मिकता के साथ पेश किया है. इसी प्रकार डॉ. भीमराव अम्बेडकर की पहली पत्नी की मृत्यु के बाद उनकी जीवनसाथी बनीं सविता अम्बेडकर की आत्मकथा अंग्रेज़ी में अनूदित होकर आयी है – ‘बाबासाहेब : माई लाइफ़ विद डॉ. अम्बेडकर, पेंग्विन, 2022. मराठी से अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद नदीम खान ने किया है. यह मेरी अज्ञानता है कि यह किताब इसके पहले मराठी और हिंदी में मौजूद थी और हिंदी वाली तो पहुंच में भी थी लेकिन उसे भी मैं नहीं जानता था. खैर, देर से ही सही, इसे पढ़ा. यह किताब दो समानांतर धाराओं को लेकर आगे बढ़ती है- एक तो स्वयं सविता अम्बेडकर का जीवन, उनकी डॉ. अम्बेडकर से भेंट और उनकी शख्सियत से उनका प्रभावित होना. इस किताब की दूसरी धारा अम्बेडकर के जीवन से जुड़ती है जहाँ उनके निजी जीवन प्रसंग और चिंताएं भारत के बृहत्तर इतिहास से जुड़ जाती हैं.

इस किताब के सबसे मार्मिक स्थल वे हैं जहाँ सविता अम्बेडकर डॉ. अम्बेडकर के स्वास्थ्य, उनके शरीर और क्षीणता का उल्लेख करती हैं. डॉ. अम्बेडकर पर यह किताब एक स्त्री ने लिखी है जो उनकी संगिनी भी है, इसलिए वह और भी महत्त्वपूर्ण हो उठती है, विशेषकर उस दौर में जब डॉ. अंबेडकर के जीवन प्रसंगों को ‘चयनित तरीके’ से काट-छाँटकर उन्हें बदनाम करने के कुत्सित प्रयास हो रहे हों. यह बात आज़ादी की लड़ाई के रिक्थ के ख़िलाफ़ जाती है.

भारत की आज़ादी की लड़ाई की चर्चा होने पर हमें जिन दो विदेशी शख्सियतों का ख़याल आता है उसमें एनी बेसेंट और सी. एफ़ एन्ड्रूज़ का नाम लिया जा सकता है लेकिन ले-देकर यही नाम याद आते हैं और उसके साथ ‘भारतीय’ होने का बोध इतना ज्यादा हावी रहता है कि अन्य विदेशी शख्सियतों का नाम और काम हमारी कल्पना में नहीं आता.

सैमुअल  वॉन स्टोक्स, मेडेलीन स्लेड, फिलिप स्प्रैट, राल्फ रिचर्ड कीथन और बी. जी. हार्नीमैन के बारे में या तो बिलकुल नहीं जानते हैं या बहुत कम जानते हैं और जैसा रामचन्द्र गुहा अपनी किताब ‘बाग़ी फिरंगी’(2022), पेंगुइन बुक्स में कहते हैं कि चमड़े का रंग अन्य वास्तविकताओं को ढकने लगता है. इस किताब को अभिषेक श्रीवास्तव ने अनूदित किया है. चूँकि इस किताब को मैंने अंग्रेज़ी में पढ़ रखा था इसलिए मैं थोड़े अधिकार के साथ कह सकता हूँ कि इसका बहुत ही सुंदर और साहित्यिक अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है. इस किताब की जो सबसे खूबसूरत बात है, वह इसके नायक-नायिकाओं का भारत के लोगों, उसकी धरती, वनस्पति से ‘विदेशियों’ का प्रेम है और उस दौर में जब पूरी दुनिया में क्षुद्र राष्ट्रवाद किसी ‘अन्य’ की खोज में ज्यादा संलग्न होने में सुख पाता हो तो ऐसी किताबें तो और भी आवश्यक हो जाती हैं.

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद(11 नवंबर, 1888 – 22 फरवरी, 1958) का जीवन भारत में अन्यीकरण(अदरनेस) की परियोजना का तीखा प्रतिरोध रचता है. उनके बारे में काफ़ी कहा-सुना और लिखा गया है लेकिन जिस तत्परता और अक़ीदे के साथ मोहम्मद नौशाद ने उनके ऐतिहासिक भाषण  ‘कौल-ए-फ़ैसल’ का अनुवाद और प्रस्तुतीकरण ‘कौल-ए-फ़ैसल  (इंसाफ़ की बात)’, सेतु प्रकाशन, 2022  पेश किया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है.

वास्तव में भारत में आने के बाद ब्रिटिश उपनिवेश ने एक नए किस्म की ‘न्याय व्यवस्था’ कायम की थी और कहा कि इसके द्वारा वह अपनी शासित प्रजा के नैतिक और विधिक संकटों का समाधान कर देगा लेकिन यह बात मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं को नागवार गुजरी थी। उन्होंने ईश्वर को साक्षी मानकर ब्रिटिश कानून को मानने से इंकार कर दिया था और उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा कायम हुआ। अपने मुकदमे के विरोध में मौलाना ने अदालत में ‘ क़ौल-ए-फ़ैसल’ या ‘इंसाफ की बात’ नामक प्रसिद्ध बयान दिया. अपनी नैतिक आभा और किरदार की ऊंचाई के द्वारा उन्होंने ब्रिटिश अदालत को शासितों की तरफ से एक अभियोग स्थल में बदल दिया और और ब्रिटिश शासन की न्यायप्रियता की पोल खोल दी. यह किताब इसी कहानी को बताती है.

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पिछले चार दशक भारत में परिधि की मुखरता के दशक रहे हैं. स्त्री, दलित, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, आदिवासी, घुमंतू, विमुक्त, वैकल्पिक लैंगिक पहचानों के जन और परित्यक्त दायरों के लोग मुखर हुए हैं. यह साहित्य और समाज विज्ञान में प्रकट भी हुआ है. रूपा गुप्ता की किताब ‘उन्नीसवीं शताब्दी का औपनिवेशिक भारत : नवजागरण और जाति प्रश्न’, राजकमल प्रकाशन, 2022 विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, गजेटियर और मुद्रित सामग्री की मदद से जाति-प्रश्न की पड़ताल करती है. अपने आकार और विस्तार की दृष्टि से यह महत्वाकांक्षी ग्रंथ है जिसमें भारतीय साहित्यकारों के जातीय संकट, छुआछूत की सततता के साथ जाति प्रथा के बदलते स्वरूप पर चर्चा की गयी है. इस अध्ययन की एक बेहद ख़ास बात यह भी है कि ‘जाति की मुख्यधारा के अंदर स्त्री प्रश्नों को धूमिल नहीं होने दिया गया है.

जाति प्रश्न को जिस डॉ. बी. आर. अम्बेडकर और पेरियार ई. वी. रामासामी ने बड़ी ही तीक्ष्णता के साथ संबोधित किया था. इन दोनों ऐतिहासिक हस्तियों ने अपने समकालीनों के एक बड़े हिस्से को नाराज़ किया तो उन्होंने उससे भी बड़ी जनसंख्या को प्रबोधित भी किया. इस दिशा में दो महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप 2022 में लक्षित किए गये. पहला हस्तक्षेप ओमप्रकाश कश्यप का है जिन्होंने ‘पेरियार ई. वी. रामासामी : भारत के वॉल्टेयर’, सेतु प्रकाशन, 2022 नामक किताब प्रकाशित की है.  पेरियार ने भारत की जनता को तार्किक, वैज्ञानिक और समता से युक्त विचारधारा मानने की वकालत की और उसे अपने जीवन में विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक और राजनीतिक गोलबंदियों से प्राप्त करने का प्रयास किया. ओमप्रकाश कश्यप ने उनके सम्पादक रूप से लेकर एक सार्वजनिक हस्ती के रूप में विकास को बड़ी कुशलता से दिखाया है.

पेरियार पर मैंने जब यह पुस्तक पढ़कर खत्म ही की थी तभी युवा शोधकर्त्ता धर्मवीर यादव गगन ‘पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली’, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2022, पाँच खंड लेकर आ गये. इस ग्रंथावली का प्रकाशन एक घटना की तरह है जिसने उत्तर भारत की उस प्रबुद्ध परंपरा की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है जिसमें 1890 के दशक से लेकर 1980 तक बुद्ध, कबीर, ज्योतिबा फुले, अम्बेडकर, भगत सिंह, पेरियार के दर्शन ने भारत के करोड़ों लोगों को आंदोलित किया था.

बसपा के उभार के ठीक पहले के उत्तर भारत के समाज पर जो अध्ययन हुए थे वे पेरियार ललई सिंह(1911-1993) के बारे में बहुत कम या बिलकुल नहीं उल्लेख करते थे. जहाँ उल्लेख मिलता भी था, वह प्रशंसात्मक ही था लेकिन हम यह जानने में अक्षम थे कि वह कौन सी वैचारिक प्रेरणा थी जिसने पेरियार ललई सिंह का निर्माण किया, जिसने उन्हें बौद्ध धर्म अपनाने, पेरियार ई. वी. रामासामी(1879-1973) की सच्ची रामायण का अनुवाद छापने को प्रेरित किया. इसके चलते पेरियार ललई सिंह को अपार कष्ट उठाने पड़े लेकिन वे न रुके और विपुल मात्रा में न केवल तर्कशील साहित्य छापा बल्कि भारत की हजारों वर्षों की सभ्यता की कठोर समीक्षा भी प्रस्तुत की. उनका यह लेखन कर्म जिस तरह विस्तृत था, उसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर धर्मवीर यादव गगन ने बड़ा काम किया है. इस काम के प्रकाशन के बाद बहुजन वैचारिकी और आंदोलनों पर काम करने वाले देशी-विदेशी विद्वानों का काम आसान हुआ है. इस काम ने उस मिथक को भी ध्वस्त किया है कि हिंदी मुक्तिकामी भाषा नहीं बल्कि वह केवल ब्राह्मणवाद का पोषण करती है. यह ग्रंथावली उत्तर-दक्षिण भारत के बीच जीवंत वैचारिक आदान-प्रदान की ओर स्पष्ट इशारा करती है जिसे निहित स्वार्थ अलग-अलग करके देखते हैं.

ठीक बीस वर्ष पहले अभय कुमार दुबे के सम्पादन में ‘आधुनिकता के आईने में दलित’ का वाणी प्रकाशन से प्रकाशन हुआ था. इसने बीसवीं शताब्दी के अंतिम बीस वर्षों के दलित अनुभव, राजनीति, सांस्कृतिक उपलब्धियों और चुनावी गोलबंदियों को समझने में मदद की थी. इस संकलन में उस समय के देश के चुनिंदा समाजविज्ञानी और सिद्धांतकार शामिल थे. इक्कीसवीं शताब्दी में स्थितियाँ बदलीं और दलित प्रश्न का स्वरूप, उसकी हसरतें, सफलताओं के प्रतिमान और असफलता को मापने के प्रतिमान भी बदले हैं. इसे विद्वानों की एक पूरी शृंखला ने बड़ी शिद्दत से सोचा-विचारा. अनुभव और सिद्धांत के स्तर पर ‘दलित’ और ‘गैर-दलित’ विद्वानों ने देश के बृहत्तर और आधारभूत दलित प्रश्नों की पड़ताल की है.

इस अकादमिक उपलब्धि को कमल नयन चौबे द्वारा दो भागों में सम्पादित ‘दलित ज्ञान-मीमांसा’, वाणी प्रकाशन, 2022, दो खंड  बहुत ही संयत और प्रामाणिक ढंग से रखती है. इन दोनों भागों में इस समय भारत में सक्रिय सभी पीढ़ियों के विद्वानों और बिलकुल युवा शोधार्थियों के लेख शामिल हैं जिन्हें प्रतिमान में प्रकाशित किया गया था तो कुछ लेख बिलकुल नए हैं और सम्पादक कमल नयन चौबे की जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम होगी क्योंकि उन्होंने न केवल कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण लेखों का अनुवाद किया है बल्कि साठ से अधिक पृष्ठों की भूमिका लिखी है. उनकी भूमिका अपने आप में एक स्वतंत्र रचना का रूप धर लेती है.

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यह वर्ष पत्रकार-साहित्यकारों का भी वर्ष रहा. अभिषेक श्रीवास्तव की ‘कच्छ कथा’, 2022, सार्थक और सुदीप ठाकुर की किताब ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’, 2022 सार्थक को पढ़ने में आनंद आया और नई बातें पता चलीं. नई बातों से मेरा आशय है कि इन्हें पढ़कर समृद्ध हुआ. कच्छ कथा एक ही दायरे को एक दशक तक लगातार देखने का अध्यवसाय है जहाँ एक पत्रकार उस दायरे का हिस्सा बन गया है. हालाँकि कच्छ कथा का उपशीर्षक ‘साझे अतीत की तलाश का सफरनामा’ थोड़ी सी तात्कालिक आवश्यकता का शिकार लगता है लेकिन जैसे ही इस किताब में हम प्रवेश करते हैं तो एक दूसरे से जुदा लेकिन बहुत ही महीन तरीके से जुड़ी कहानियाँ हमें अपनी गिरफ़्त  में ले लेती हैं. रबारी समुदाय के बारे में लिखा गया इस किताब का अंतिम हिस्सा बहुत शानदार बन पड़ा है. ऐसा मुझे इसलिए लगता होगा कि मेरी रूचि भारत के विभिन्न घुमंतू और विमुक्त समुदायों में है लेकिन एक अच्छी किताब तो वह होती है जिसमें उस विषय में आपको मुब्तिला कर दिया जाय जिसे आप पहले से न जानते हों और आपका सीधा साबिका उससे न पड़ा हो. इस किताब का शुरुआती आधा हिस्सा इसी प्रकार है जहाँ अभिषेक स्थानों, मनुष्यों, संतो, चिकित्सकों और कभी-कभी जानवरों के इतिहास से हमें परिचित कराते हुए चलते हैं.

अभिषेक श्रीवास्तव की रूचि कच्छ के रण में थी तो सुदीप ठाकुर की रूचि राजधानी, प्रधानमंत्रियों और उनकी नीतियों में है. उन्होंने अपनी किताब का मुकामी वर्ष 1975 तय किया है जब भारत की राजनीति स्पष्ट तौर पर बदल गयी और इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल की घोषणा हुई. बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर गरीबी रेखा के चुनावी समाजशास्त्र की चर्चा  को सुदीप ठाकुर उस समय की जनता, सरकार और विपक्ष के नज़रिये से व्याख्यायित करते चलते हैं. इस किताब को पढ़ते हुए पाठक को दोहरा फायदा मिलता है- एक तो इंदिरा के समय के भारत को समझने की सलाहियत यह किताब पेश करती है और दूसरा इससे हमारे समकाल को भी समझने में मदद मिलती है.

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सब पढ़ा तो पढ़ा लेकिन अपना क्या पढ़ा? इसका मतलब है कि इतिहास की कौन सी नई किताब मैंने पढ़ी? 2022 से पहले प्रकाशित किताबों का नाम नहीं लेना है तो मैं अपने आपको केवल तीन पुस्तकों तक सीमित रखूँगा.

आधुनिक भारत के इतिहासलेखन के एक मान्य और समादृत ढर्रे के रूप में आर्काइव के स्रोतों को छोड़कर चयनित हिंदी उपन्यासों के आधार पर हितेंद्र पटेल ने ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ (सन्दर्भ: भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त के राजनीतिक उपन्यास)’, राजकमल प्रकाशन, 2022 में उस ‘भारतीय यथार्थ को रेखांकित करने का प्रयास किया है जो 1917 से 1964 तक विकसित हुआ. हितेंद्र पटेल ने अपनी बात कहने के लिए उपन्यास के पात्रों के संवाद और उनके चारित्रिक विकास को आधार बनाया है जिसकी पर्याप्त आलोचना भी हुई है तो दूसरी तरफ एक नयी प्रविधि से इतिहासलेखन का नया ढर्रा बनाने की उनकी कोशिश को आशा भरी निगाह से भी देखा गया है.(विस्तृत विवरण के लिए इस लिंक पर जाएँ : https://samalochan.com/adhunik-bharat-aur-itihas/).

रज़ीउद्दीन अक़ील की ‘हिस्ट्री इन द पब्लिक डोमेन’, मनोहर, 2023 मध्यकालीन इतिहास के विभिन्न दायरों, विचारों, व्यक्तियों, सुल्तानों और बादशाहों के बारे में रोचक और अंतर्दृष्टिपूर्ण तरीके से बताती है. यह किताब एक प्रशिक्षित इतिहासकार की ऐसी किताब है जिसे उसने सामान्य पाठकों के लिए लिखा कि वे जान सकें कि इतिहास हमारे जीवन को कैसे बदलता है या बदलने का प्रयास करता है.

पैट्रिक ऑलिवेल की किताब ‘रीडिंग टेक्स्ट्स एंड नैरेटिंग हिस्ट्री : कलेक्टेड एसेज-थर्ड’, प्राइमस, 2022  घनघोर एकाडमिक किताब है. इसके लिए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि कोई भी यदि भारत के आरम्भिक समाज, जाति व्यवस्था, स्त्रियों की दशा, परिधीय तबकों का जीवन, न्याय व्यवस्था, विधि और विधि व्यवसाय, धर्म और संस्कृति के बारे में स्रोत आधारित प्रामाणिक जानकारी चाहता है तो उसे इस ग्रंथ को पढ़ना चाहिए.

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साहित्य के द्वारा समाज खुलकर सामने आता है. जितना उसका आदर्श हमारे सामने आता है, उससे भी ज्यादा स्याह पक्ष उघड़ता है. समाज का काइयांपन, अवसरवाद, लिजलिजेपन की प्रवृत्ति और चाटुकारिता की प्रवृत्तियां खुलकर हमारे सामने साहित्यकार रख देता है. किसी भी सभ्यता के पतन की दिशा भी साहित्यकार बताता चलता है और सावधान करता है(इसलिए शायद पाठक साहित्यकार से किसी ऊँचे जीवन आदर्श की माँग करता रहता है और जिसमें जब-तब साहित्यकार असफल होते हैं या फिसल जाते हैं). इस तरीके से साहित्य समाज को समझने में न केवल मदद करता है बल्कि उसे थोड़ा और संवेदनशील तरीके से देखने के लिए हमें काबिल बनाता है. यह कहना कहीं ज्यादा दुरुस्त होगा कि साहित्य सामाजिक सच को देखने के लिए न केवल अपने पाठक को तैयार करता है बल्कि उसे सच के विभिन्न रूपों की तरफ ले जाता है.

समाजविज्ञानियों के पास किसी सच को सृजित करने की क्षमता नहीं होती है. उन्हें किसी दायरे और कालखंड में उपलब्ध सामाजिक सच से काम चलाना पड़ता है लेकिन साहित्यकार को यह छूट हासिल है अथवा ऐसे कहें कि उन्हें वरदान हासिल है कि वे दायरों और काल का अतिक्रमण कर दें और सच का सृजन करें. कबीरदास, तुलसीदास, रविदास को कविता में एक ‘यूटोपिया’ रचने का हुनर मालूम था. बाद में वह यूटोपिया एक ‘प्राप्य आदर्श’ में बदलने लगा. रबीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर के चिन्तन में इसे कोई लक्षित कर सकता है कि वे कैसा समाज बनाना चाह रहे थे. तो साहित्य उस दिशा में ले जा सकता है जहाँ समाज को जाना चाहिए. इस नज़रिये से किसी समाज विज्ञानी या इतिहासकार की मदद साहित्य करता रहता है. वैसे आज जो कुछ लिखा जा रहा है, वह कल इतिहासलेखन की कच्ची सामग्री का काम करेगा. हालाँकि, इसके लालच में कई साहित्यकार अपने साहित्य को ‘तथ्यों का घूर’ बना देते हैं.

तो, इस दिशा में, हमारे समय और समाज को समझने में साहित्यकार लगातार मदद कर रहे हैं. मैं उन कृतियों पर एक भी पंक्ति जानबूझकर नहीं लिख रहा हूँ. पहली बात तो इसमें बहुत समय लगेगा और दूसरी बात इसे मैंने साहित्य के परम्परागत निवासियों के लिए छोड़ दिया है. वे कहीं इस पर बेहतर राय रख सकते हैं. यहाँ मैं केवल कुछ कृतियों का नाम लिख रहा हूँ जिन्हें मैंने खरीदकर पढ़ा है.

इस वर्ष के उपन्यासों में चन्दन पाण्डेय का उपन्यास
‘कीर्तिगान’,
अविनाश मिश्र का उपन्यास ‘वर्षावास’,
नीलाक्षी सिंह का ‘हुकुम देश का इक्का खोटा’(विधा के साँचे से बाहर),
गरिमा श्रीवास्तव का ‘आउशवित्ज़: एक प्रेमकथा’,
अमित गुप्ता का ‘देहरी पर ठिठकी धूप’,
विकास कुमार झा का ‘राजा भोमो और पीली बुलबुल’,
प्रवीण का ‘अमर देसवा’ को पढ़ा.

प्रभात रंजन द्वारा अनूदित अमिताभ बागची का उपन्यास ‘हो गयी आधी रात’ घर लाया. मिथिलेश प्रियदर्शी का कहानी संग्रह ‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ पढ़ा और पढ़ा अनिल यादव का यात्रा वृत्तान्त ‘कीड़ाजड़ी’.
ईरानी उपन्यासकार सादिक़ हिदायत का उपन्यास ‘अंधा उल्लू’ पढ़ा (नासिरा शर्मा द्वारा अनूदित).

कविता संकलनों में देवी प्रसाद मिश्र की ‘कविता पुस्तक’ ‘जिधर कुछ नहीं’,
बसंत त्रिपाठी का कविता संग्रह ‘नागरिक समाज’,
लक्ष्मण प्रसाद गुप्त का कविता संग्रह ‘तीसरी नदी’,
पंकज चतुर्वेदी का कविता संग्रह ‘आकाश में अर्धचंद्र’,
सुभाष राय का कविता संग्रह ‘मूर्तियों के जंगल में’,
श्रीप्रकाश शुक्ल का कविता संग्रह ‘वाया नयी सदी’
पंकज चौधरी का कविता संग्रह ‘किस किस से लड़ोगे’,
मनोज कुमार पांडेय का कविता संग्रह ‘प्यार करता हुआ कोई एक’,
सितांशु यशश्चंद्र का कविता संग्रह ‘जटायु, रुगोवा और अन्य कवितायें’,
अनुपम सिंह का कविता संग्रह ‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’,
मेधा का कविता संग्रह ‘राबिया का खत’ और नबनीता देव सेन का कविता संग्रह ‘एक्रोबैट’(अंग्रेजी में अनुवाद : नन्दना देव सेन द्वारा) इस वर्ष पढ़ा.
राजेश जोशी द्वारा सम्पादित बद्री नारायण की प्रतिनिधि कविताएँ और कुमार मंगलम द्वारा सम्पादित ज्ञानेंद्रपति की प्रतिनिधि कविताएँ पढ़ीं. संतोष चतुर्वेदी और हरीश चन्द्र पाण्डेय के कविता संग्रह राजकमल प्रकाशन ले तो आया है लेकिन दरियागंज जाने पर मिला नहीं.

अखिलेश का संस्मरण ‘अक्स’ पढ़ा.

अवधेश प्रधान के भाषणों का संग्रह जो बाद में किताब के रूप में सामने आया- ‘सीता की खोज’ इस वर्ष पढ़ा. सीता से याद आया कि इस वर्ष वाल्मीकि रामायण पढ़ा, पी गोल्डमैन के अनुवाद में. इससे पहले गीताप्रेस वाला पढ़ रखा था. इस वर्ष महाभारत पढ़ना शुरू किया है- गीता प्रेस से प्रकाशित मोटी छपाई वाला और पेंग्विन से प्रकाशित विवेक देबरॉय का महाभारत का पूरा अनुवाद भी साथ-साथ में चलता रहता है. इसमें अभी एक वर्ष और लगेगा. फिर भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे से प्रकाशित महाभारत का क्रिटिकल एडीशन पढूँगा. यह वाली पढ़ाई उस एडीशन को पढ़ने की तैयारी.

 

रंगनाथ सिंह रंगनाथ सिंह

मानवीय ज्ञान परम्परा से जुड़ने और उसमें कुछ जोड़ने की अविराम यात्रा में कुछ पुस्तकें सीधी राह जैसी होती हैं तो कुछ पुरानी राह में आया नया मोड़ साबित होती हैं. कुछ किताबों से गुजरकर हमारे विचारप्रवाह की दिशा से बदल जाती है. पहले तरह की किताबों में नई सूचना देने वाली वाली किताबें होती हैं और दूसरी तरह किताबों वो होती हैं जो हमें नई सोच देती हैं. जो हमारी सोच को नया आकार प्रकार देती हैं. दूसरी तरह की किताबें हमें हमारी धारणाओं पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करती हैं. समालोचन के इस स्तम्भ के लिए लिखते समय प्रयास है कि पिछले साल पढ़ी गयीं उन किताबों का जिक्र किया जाए जिन्होंने मेरी पुरानी धारणाओं को सम्पादित किया है.

1– अच्छी हिन्दी का नमूना और हिन्दी शब्दानुशासन- किशोरीदास वाजपेयी (ई पुस्तकालय डॉट कॉम से प्राप्त ईबुक्स)

पिछले एक डेढ़ साल में जिन लेखकों की किताबों से गुजरना हुआ उनमें सबसे पहला नाम किशोरीदास वाजपेयी का लेना चाहूँगा. उनकी दो किताबें इस दौरान पढ़ीं और दोनों का प्रभाव शायद ताउम्र रहेगा. वाजपेयी जी की किताब ‘अच्छी हिन्दी का नमूना’ हिन्दी के विद्वान साहित्यकार रामचंद्र वर्मा की किताब ‘अच्छी हिन्दी’ की आलोचनात्मक समीक्षा करती है. एक शब्द में कहें तो यह किताब अपने कथ्य और शिल्प के लिहाज से अतुलनीय किताब है. मेरी जानकारी में ऐसी कोई दूसरी किताब नहीं है जिसने किसी अन्य किताब की भाषा इस तरह दुरुस्त की हो. रामचंद्र वर्मा द्वारा अच्छी हिन्दी लिखना सिखाने के लिए लिखी गयी किताब से उदाहरण ले-लेकर वाजपेयी जी ने वो सभी दोष उजागर किए हैं जो भाषा लेखन में सम्भव हैं. जिन्हें भी अच्छी हिन्दी लिखने का मन हो उन्हें किशोरीदास वाजपेयी की ‘अच्छी हिन्दी का नमूना’ जरूर पढ़ना चाहिए.

आचार्य किशोदीदास वाजपेयी की जो दूसरी किताब पढ़ी वो है- हिन्दी शब्दानुशासन. हिन्दी शब्दानुशासन को निस्संदेह हिन्दी की सर्वकालिक श्रेष्ठ किताबों में जगह दी जा सकती है. आचार्य किशोरीदास वाजपेयी संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान थे. उन्होंने अपनी इस किताब में हिन्दी व्याकरण की प्रामाणिक टीका की है. ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि इस किताब के माध्यम से यह प्रामाणिक तौर पर सिद्ध हुआ कि आम धारणा के विपरीत हिन्दी संस्कृत से निकली हुई भाषा नहीं है. यह सम्भव है कि हिन्दी और संस्कृत एक ही मूल से निकली हों लेकिन संस्कृत से घिस-घिसकर हिन्दी नहीं बनी है.

इनसे पहले मैंने किशोरीदास वाजपेयी की लिखी कोई किताब नहीं पढ़ी थी. बस उनका नाम सुना था. व्याकरण पर उनके काम के बारे में सुना था. इन किताबों को पढ़कर महसूस हुआ कि वाजपेयी जी के जीनियस योगदान को हिन्दी पब्लिक स्फीयर में ज्यादा जगह दिया जाना चाहिए.

2- महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली – खण्ड एक (सम्पादक- भरत यायावर), किताब घर प्रकाशन

बीते साल में अन्य जिस विद्वान से परिचय प्राप्त हुआ उनका नाम है आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी. हम सब सुनते आए हैं कि सरस्वती पत्रिका के माध्यम से महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी भाषा का उसका आधुनिक रूप देने में ऐतिहासक योगदान दिया है. द्विवेदी जी के कुछ फुटकर निबंध एवं उनके सम्पादन की चर्चा के अलावा उनके मौलिक लेखन से गुजरने का पहले कभी मौका नहीं मिला था. इस साल भरत यायावर द्वारा सम्पादित महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली के कुछ खण्ड पढ़ने का इरादा किया है. पहला खण्ड पढ़ लिया है जिसमें द्विवेदी जी द्वारा हिन्दी भाषा के स्वरूप एवं इतिहास इत्यादि से जुड़े लेख हैं. पहले खण्ड में द्विवेदी दी द्वारा सम्पादित लेखों के नमूने भी दिए हुए हैं जिनसे हम भाषा को बेहतर तरीके से लिखने के शऊर सीख सकते हैं.

हिन्दी भाषा के छात्र जानते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग को स्वतंत्र युग की तरह देखा जाता है. द्विवेदी जी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी उतनी ही अहिन्दी है जितनी कि फारसीनिष्ठ हिन्दी होती है. महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हिन्दी के उसी रूप को अच्छी हिन्दी मानते हैं जिसे भारतेंदु ने अच्छी हिन्दी माना था. यह नुक्ता मेरे लिए इसलिए उल्लेखनीय लगता है कि क्योंकि हिन्दी-उर्दू से जुड़ी बहस में गैर-हिन्दी विद्वान अक्सर ‘हिन्दी इलीट’ पर संस्कृतनिष्ठता का आरोप लगाते रहते हैं. मेरे सामने प्रश्न यह है कि हिन्दी पर बहस में जो लोग हिन्दी इलीट के प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत किए जाते हैं और उनकी राय पॉलेमिक्स के लिए इस्तेमाल की जाती है क्या वह सही मायनों में हिन्दी भाषा के प्रतिनिधि स्वर कहे जा सकते हैं. यदि हिन्दी भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी की दिखायी राह पर चली है तो फिर उनके विचार को हिन्दी का केंद्रीय विचार क्यों न माना जाए?

3- सावरकर की जीवनी (खण्ड एक एवं दो) – विक्रम सम्पत, (पेंगुइन हिन्द पॉकेट बुक्स)

विनायक दामोदार सावरकर के राजनीतिक विचारों में यकीन रखने वाली भारतीय जनता पार्टी जब से देश की राजनीति में मजबूत हुई है तब से सावरकर जिरह के केंद्र में . पिछले तीन दशकों में सावरकर पर किए गए आलोचनात्मक लेखन की प्रचुर मात्रा से साफ हो जाता है कि सावरकर की स्थापनाएँ वापस से अन्य प्रतिद्वंद्वी विचारधाराओं को चुनौती दे रही हैं. सावरकर का खण्डन करने वाला ज्यादातर उनपर दो एंगल से आलोचना करते हैं. एक- उनके समर्थक और सहयोगी रहे नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या करने के एंगल से और दूसरा, उनके द्वारा कालापानी की सजा काटने के दौरान सजा माफी के लिए लिखे गए पत्रों के एंगल से.

वीर और माफीवीर के दो पाटों के बीच फँसे सावरकर को समझने के लिए विक्रम सम्पत की दो खण्डों में लिखी जीवनी अच्छा स्रोत है. जीवनी का पहला खण्ड सावरकर के आम्भिक जीवन से लेकर 1924 में जेल से रिहा होने तक के कालखण्ड पर है. दूसरा खण्ड उनके जेल से रिहा होकर 1937 तक नजरबन्दी में रहने और उसके बाद के कालखण्ड पर केंद्रित है.

इस जीवनी को पढ़ने से पहले तक वीर सावरकर के जीवन के पहले कालखण्ड से काफी हद तक परिचय था लेकिन जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने क्या किया, इस बारे में विस्तृत ब्योरा इस किताब से मिला. जीवन के दूसरे खण्ड से पता चलता है कि सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद सावरकर ने जातिगत भेदभाव और छुआछूत दूर करने को मिशन मोड में अपनाया था. सावरकर के अनुसार ‘हिन्दू समाज’ सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. इन बेड़ियों में छुआछूत, गैरजाति में विवाह और गैर-ब्राह्मणों के वेद पठन-पाठन पर पाबन्दी भी बेड़ियों के रूप में शामिल थे. जाहिर है कि सावरकर के ये विचार अभी सार्जवनिक विमर्श में ज्यादा जगह नहीं पाते लेकिन जातीय अस्मिता की राजनीति के दौर में सावरकर के ये विचार ज्यादा समय तक दरकिनार नहीं किए जा सकेंगे.

4- नासिर काजमी ध्यान यात्रा (सम्पादन- शरद दत्त, बलराज मेनरा), सारांश प्रकाशन

प्रगतिशील हिन्दी लोकवृत्त से नासिर काजमी लगभग नदारद से शायर हैं. हिन्दी लोकवृत्त में मीर, गालिब, दाग, फिराक, जिगर, जोश फैज, फराज इत्यादि का ही जोर है. जाहिर है कि आजादी से पहले के क्लासिक उर्दू शायर और आजादी के बाद तरक्कीपसन्द तहरीक से हमख्याली जाहिर करने वालों उर्दू शायर हिन्दी लोकवृत्त में ज्यादा चर्चा पाते रहे हैं. नासिर काजमी की वैचारिक लोकेशन ही नहीं शारीरिक लोकेशन भी हिन्दी लोकवृत्त के लिए मुफीद नहीं बैठती. नासिर काजमी पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दी शायर हैं और अपना तार्रूफ प्रगतिशील के तौर भी नहीं कराते तो उनतक नजर न जाना कोई अनहोनी नहीं लगती. उर्दू शायरी में गहरी रुचि होने के बावजूद कोरोनाकाल से पहले तक मुझे इसका ज्यादा इल्म नहीं था कि नासिर काजमी की उर्दू साहित्य में क्या वखत है.

जिस चीज ने नासिर काजमी की तरफ मुझे खींचा वो है उनकी भाषा का हिन्दीपन. उर्दू साहित्य में मीर बड़े या गालिब, की बहस चर्चित है. इस बहस की गलियों से गुजरते हुए ही एक दिन नासिर से भेंट हो गयी. इंटरनेट पर मौजूद नासिर साहित्य खोजकर पढ़ने लगा. उनके बारे में इंटरनेट पर मौजूद वीडियो सुनने लगा. प्रोफेसर शमीम हनफी के एक व्याख्यान से मालूम हुआ कि नासिर भी मीर के शैदायी थी. इसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार आनन्द स्वरूप वर्मा के यहाँ जाना हुआ. जब उन्हें पता चला कि मैं नासिर काजमी का साहित्य खोज रहा हूँ तो उन्होंने यह किताब (नासिर संचयन) मुझे पढ़ने के लिए दे दी.

पहली बार में नासिर काजमी की कविता की डगर से चारों तरफ नजर फेरते हुए गुजर गया हूँ लेकिन इस अहद के साथ की उनपर फिर लौटूँगा. ऊपर मैंने कहा कि नासिर काजमी के हिन्दीपन ने मेरा ध्यान खींचा था. इसका एक नमूना देखिए,

ध्यान की सीढ़ियों पे पिछले पहर.
कोई चुपके से पाँव धरता है..
एक दूसरा नमूना देखिए,
हमारे घर की दीवारों पे नासिर.
उदासी बाल खोले सो रही है..

5- शृंखला की कड़ियाँ – महादेवी वर्मा

छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भों में एक महादेवी वर्मा की कविताओं और निबंधों से परिचित था लेकिन उनके वैचारिक लेखन से ज्यादा परिचय नहीं था. प्रोफेसर दिलीप शाक्य की अनुशंसा पर यह किताब पढ़नी शुरू की और पढ़कर दंग रह गया कि महादेवी वर्मा नारीवादी मसलों पर 1930 के दशक में गम्भीर चिंतन कर रही थीं. इस निबंध से पता चलता है कि महादेवी वर्मा परम्परा और आधुनिकता के बीच रहगुजर बनाने का प्रयास करते हुए नारीवादी चुनौतियों से वाकिफ थीं. इस किताब को पढ़ते हुए यह पता नहीं चलता है कि महादेवी समकालीन यूरोपीय स्त्री विचारकों के लेखन से कितनी परिचित थीं. अपने लेखों में वह किसी विचारक का नाम नहीं लेतीं लेकिन यह देखना रोचक होगा कि पश्चिमी नारीवादी विचारकों की परम्परा के समानांतर पूरबी स्त्री चिंतकों (रुकैया बेगम, रशीद जहाँ और महादेवी इत्यादि) की कोई स्वतंत्र धारा तैयार होती है या नहीं.

6- वे सोलह दिन: नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन, त्रिपुरदमन सिंह (पेंगुइन प्रकाशन)

इतिहासकार त्रिपुरदमन सिंह की किताब भारतीय संविधान में हुए पहले संशोधन की पृष्ठभूमि एवं उसको लेकर हुई बहस पर केंद्रित है. आजाद भारत के संविधान को स्वीकार करने के 15 महीने बाद ही प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एवं उनके मंत्रिमण्डल के अहम सदस्यों को इसमें संशोधन की जरूरत महसूस हुई. इस संशोधन की राह अदालती फैसलों ने तैयार की. आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन, राजद्रोह की अवधारणा, आरक्षण और मीडिया की आजादी से जुड़े मसलों पर विभिन्न हाईकोर्टों द्वारा आए फैसले तत्कालीन केंद्र सरकार के नजरिए से मेल नहीं खाती थी. अदालत के फैसले कांग्रेस के जनता से किए वादों के खिलाफ जाते दिख रहे थे. नेहरू जी एवं उनके समर्थकों का मानना था कि संविधान में संशोधन ही इस समस्या से निदान दिला सकते हैं. वहीं उनके आलोचकों का मानना था कि सरकार संविधान संशोधन करने में जल्दबाजी कर रही है.

यह संशोधन कितना अहम था इसे इससे समझें कि त्रिपुरदमन सिंह के अनुसार संविधान विशेषज्ञ उपेंद्र बख्शी ने इसे संविधान का पुनर्लेखन बताया है. यह किताब न केवल भारत के संवैधानिक इतिहास के बेहद अहम अध्याय को हमारे सामने रखती है बल्कि इसका एक सिरा वर्तमान से सीधे तौर पर जुड़ता है क्योंकि पिछले कुछ समय से न्यायपालिका और विधायिका के बीच वैसा ही टकराव देखने को मिल रहा है जैसा पहले संविधान संशोधन के समय दिख रहा था. यह जानना रोचक है कि उस समय नेहरू सरकार संसद की सर्वोच्चता की जो दलील दे रही थी, वही दलील आजकल मोदी सरकार दे रही है. उस समय संसद के रास्ते न्यायपालिका के फैसलों को पलटने के खिलाफ जो दलील श्यामा प्रसाद मुखर्जी दे रहे थे, कमोबेश वैसी ही दलील आज कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल दे रहे हैं. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही 1951 में भारतीय जनसंघ नामक राजनीतिक दल की स्थापना की थी जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के नाम से जाना गया.

मुसाफ़िर बैठा

हमारे दैनिक जीवन में हर दिन चौबीस घंटे का तय समय है जिसके अंदर ही नींद, आराम, भोजन पानी, रचनात्मक मानसिक कसरत समेत जीविकोपार्जन के आवश्यक एवम् इतर तमाम काम हमें निबटाने होते हैं जबकि हर दिन न जाने कितनी किताबें छपती हैं और उनमें से बहुत सारी हमारे काम की अथवा पसंद की हो सकती हैं. इसलिए यह जरूरी हो जाता है, मजबूरी हो जाती है कि हम पीक एंड चूज करें और कुछ चुनिंदा किताबों को ही अपनी रीडिंग लिस्ट में शामिल करें. यह भी कि जब पढ़ी किताबों पर यदि किसी शाब्दिक हद में रहकर बात करनी हो तो एक बार फिर से हमें एक चयन से गुजरना पड़ता है.

सन 2022 में मैंने जो पुस्तकें पढ़ी हैं उनमें मैं तीन पुस्तकों को अलग से रेखांकित करना चाहूंगा. वे हैं ’दलित–विमर्श की कविताएं’ (संपादक- डॉ. दिलीप राम), ’कौन जात हो भाई’ एवम् ’छिछले प्रश्न गहरे उत्तर (कवि बच्चा लाल उन्मेष’).

’दलित–विमर्श की कविताएं’ पुस्तक तो सन 2022 में छपी है एवम् पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की स्नातकोत्तर कक्षा के अस्मितमूलक विमर्श नामक पत्र के दलित काव्य खंड विषयक पाठ्यक्रम का आंशिक हिस्सा है. पुस्तक में दलित एवम् गैर दलित कवियों की दलित विमर्श मूलक कविताएं संकलित हैं जिनमें से भारी संख्या में युवा कवि शामिल किए गए हैं. इन पंक्तियों के लेखक की कविता भी इसमें सम्मिलित है.

सोशल मीडिया फेसबुक एवम् इंस्टाग्राम पर वायरल एवम् चर्चित हुए युवा कवि बच्चा लाल ‘उन्मेष’ के दो कविता संकलन ‘छिछले प्रश्न गहरे उत्तर’ और ‘कौन जात हो भाई’ इस वर्ष ही प्रकाशित हुए हैं.

इनकी कविता ‘कौन जात हो भाई’ इसी वर्ष वायरल हुई थी और एनडीटीवी के प्रख्यात पत्रकार विनोद दुआ (तब जिंदा थे) ने प्रभावित होकर अपनी फेसबुक पर इसका पाठ किया था. इसी चैनल के जानेमाने साहित्यकार–हृदय मीडियाकर्मी प्रियदर्शन ने भी इस कविता का ख़ास उल्लेख अपनी फेसबुक पर एक विस्तृत प्रशंसात्मक टिप्पणी कर की थी.

बाबा साहब द्वारा लिखित आत्मकथा “waiting for a visa” की पटना में CPI-ML की सांस्कृतिक संस्था ’हिरावल’ के सौजन्य से की गई नाट्य प्रस्तुति के दौरान कविता “कौन जात हो भाई” के मंचन के दौरान दृश्य एवम् श्रव्य रूप में उपयोग गया. यह ’ऐतिहासिक’ साबित प्रस्तुति प्रेमचंद रंगालय, पटना में भगत सिंह के 150वें जन्मदिन के अवसर पर हुई थी.

इसी वर्ष चर्चित दलित कवि अजय यतीश का दूसरा एवम् युवा कवि कर्मानन्द आर्य का तीसरा संग्रह क्रमशः ’मुक्ति के लिए’ तथा ’डॉ. कर्मानन्द आर्य: चयनित कविताएं’ नाम से कर्मानन्द का तीसरा संग्रह आया है.

इसी वर्ष मैंने संपादन के खयाल से झारखंडवासी वरिष्ठ दलित कथाकार प्रह्लाद चंद्र दास की कहानियों में से 15 दलित कहानियां छांट कर पढ़ी हैं, संभव है, अगले वर्ष के पूर्वार्ध में यह संकलित होकर पुस्तक रूप में आ जाए. दास हंस समेत मुख्यधारा की पत्रिकाओं में छपते रहे हैं.

‘आईना अपना चेहरा नहीं देखता’ शीर्षक से पटना में रहने वाले दलित कवि & गजलकार परमानंद राम का गजल संग्रह आया है जिसमें सम्मिलित अधिकांश गजलें अस्मितामूलक एवम् आंबेडकरी चेतना की हैं. हालांकि गजल के तय ’मीटर’/मानकों पर रचनाएं कैसी हैं, मैं नहीं बता सकता.

इस साल मेरे अध्ययन से गुजरी पुस्तकों में पटना के वयोवृद्ध दलित लेखक एवम बौद्ध एक्टिविस्ट की संस्मरणात्मक पुस्तक ’टुकड़े–टुकड़े आईना’ (भाग–5), न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका ’समकाल’ का दलित साहित्य विशेषांक, पटना वासी प्रखर युवा कवि नरेंद्र कुमार का अभी-अभी आया प्रथम कविता संग्रह ’नीलामघर’, पटना रहवासी एवम् वामी साहित्यिक–सांस्कृतिक संगठन ’जसम’ से जुड़े समर्थ युवा कवि राजेश कमल का 2022 में आया पहला कविता संकलन ’अस्वीकार से बनी काया’, बिहार के भागलपुर क्षेत्र के 1980 के अंखफोड़वा कांड से लेकर 1989 तक के दंगों पर लिखे गए कथाकार–प्रकाशक गौरीनाथ का विमर्शमूलक एवम् बहसतलब उपन्यास ’कर्बला दर कर्बला’ एवम् गौरीनाथ की फेसबुक पर ’गवाही’ पाकर और इसी दिसंबर माह में ऑनलाइन खरीदकर पढ़ी मुंबइया फिल्मी दुनिया में बसे फरीद खान की विधा–बाहर संस्मरणात्मक पुस्तक ’अपनों के बीच अजनबी’ शामिल है.

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की भूमिका वाली इस पुस्तक में एक अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी के नाहक दुख, विषाद, प्रताड़ना एवम् वैमनस्य झेलने के मर्मस्पर्शी बयान हैं.

रीडिंग लिस्ट में अटकी कम से कम चार महत् पुस्तकें हैं जो आते साल के शुरू के एकाध माह के भीतर ही पढ़ी जानी हैं, इनमें एक अंग्रेजी में है, जो आंबेडकर की द्वितीय जीवनसंगिनी सविता अंबेडकर द्वारा मराठी मूल में लिखित है और नदीम खान द्वारा ’baba saheb my life with Dr Ambedkar’ नाम से अंग्रेजी में अनूदित है. राजकमल से पांच खंडों में आई ‘पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली’ (संपादन संकलन– धर्मवीर यादव गगन), डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक संघर्ष (यह मराठी में प्रा. दत्ता भगत द्वारा शोध अध्ययन कर लिखित बेहद मौलिक, अछूती एवम् महत्वपूर्ण दस्तावेजी पुस्तक है जो हिंदी में प्रसिद्ध अनुवादक डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित होकर इसी वर्ष आई है तथा उनके ही रिकमेंडेशन पर लेखक द्वारा इन पंक्तियों के लेखक को उपलब्ध कराई गई है.) तथा मराठी दलित पैंथर आंदोलन के प्रसिद्ध नेता एवम् लेखक रहे नामदेव ढसाल की चुनिंदा कविताओं की पुस्तक ’मुक्तिगाथा’ है.

बिहार सरकार में उच्चाधिकारी रहे वयोवृद्ध लेखक रामरक्षा दास की आत्मकथा ’एक दलित की आत्मकथा’ नाम से आई है. यह इसी वर्षांत में प्रभात प्रकाशन से आई है. बिहार से यह डॉ. रमाशंकर आर्य की दलित आत्मकथा ’घुटन’ के बाद आई दूसरी कायदे से दलित आत्मकथा है. इसकी पांडुलिपि को कांट-छांट कर सही रूप देने में मेरा भी हाथ रहा है.

गंगाशरण सिंह

उमादे (उपन्यास): डॉ. फतेह सिंह भाटी
राजस्थान की रानी उमादे, जिन्हें हम ‘रूठी रानी’ के नाम से जानते हैं, पर केंद्रित रोचक ऐतिहासिक उपन्यास.

दातापीर (उपन्यास): हृषिकेश सुलभ
मैयतों और क़ब्रों के बीच जीवन के राग-विराग, पटना के प्राचीनतम मोहल्लों में जनमती-पलती ज़िन्दगियों की यह कहानी पाठक को एक अलग भावभूमि पर ले जाती है, जहाँ से उसकी वापसी आसान नहीं रह जाती

जन्म जन्मांतर (उपन्यास): विवेक मिश्र

विध्वंसकारी ताकतों के हाथों निरंतर त्रस्त होती मनुष्यता के सर्वकालिक दुखों का प्रभावी आख्यान.शिल्प एवं कहन की ताज़गी से उपन्यास यादगार बन पड़ा है.

विस्थापित (उपन्यास): ज्ञान प्रकाश विवेक
पाकिस्तान से विस्थापन का शिकार हुए एक युगल के जीवन संघर्षों की मर्मस्पर्शी गाथा. ज्ञान प्रकाश विवेक की काव्यात्मक भाषा से इस उपन्यास की अंतर्वस्तु तो निखरती ही है, कथा में भी एक रवानी पैदा हो जाती है.

ढलती साँझ का सूरज (उपन्यास): मधु काँकरिया
भारतीय किसानों के जीवन से जुड़ी त्रासदियों, दुश्वारियों एवं संघर्षों के बयान के साथ ही सकारात्मकता का आह्वान करतामर्मस्पर्शी सार्थक उपन्यास.

काँच के घर (उपन्यास): हंसा दीप
जीवंत, खिलंदड़ी भाषा में लिखा गया यह उपन्यास आत्ममुग्ध लेखकों की अजीबोगरीब हरकतों के साथ ही कोरोना काल में शुरू हुए लाइव के अनंत सिलसिले पर व्यंगात्मक प्रहार करता है.

कीर्तिगान (उपन्यास): चंदन पांडेय
चंदन पांडेय का यह उपन्यास मॉब लिंचिंग के ऐतिहासिक सूत्रों से होकर वर्तमान की अनेकानेक त्रासद घटनाओं की मार्मिक शिनाख़्त करता है.

देवभूमि डेवलपर्स (उपन्यास): नवीन जोशी
नवीन जोशी के पहले उपन्यास ‘दावानल’ की उत्तर कथा! पर्यावरण संरक्षण के नाम पर होने वाली लूट-पाट और मूल निवासियों के प्राकृतिक अधिकारों के हनन की यह कथा बेहद प्रभावी और असरदार बन पड़ी है.

सावरकर: काला पानी और उसके बाद (इतिहास): अशोक कुमार पाण्डेय
इस शोधपरक किताब में कालापानी की सजा के बाद क्षमा माँगकर बाहर निकले विनायक दामोदर सावरकर के जीवन की मुख्य घटनाओं का विश्लेषण हुआ है.

भीड़ और भेड़िए (व्यंग्य): धर्मपाल महेंद्र जैन
धर्मपाल महेंद्र जैन का यह व्यंग्य संग्रह उनके अनेक चुटीले, मारक व्यंग्यों का संकलन है.

दिन जो पखेरू होते (उपन्यास): राजेन्द्र राव
वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र राव ने इस उपन्यास में एक कस्बाई शहर के विकास और काल-क्रम में उसके परिवर्तित होते दिनों को याद किया है.

स्मृति में जीवन (संस्मरण): केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह के मनभावन गद्य का एक नमूना है यह किताब. संध्या सिंह और रचना सिंह द्वारा संपादित इस किताब में उनके संस्मरणों के साथ ही कुछ ऐसी कविताएँ भी संकलित हैं, जिनमें स्मृतियाँ शामिल हैं.

यह जीवन खेल में (संस्मरण): गिरीश कर्नाड, अनुवाद: मधु बी जोशी
मधु बी जोशी द्वारा अनूदित गिरीश कर्नाड के आत्म संस्मरणों की इस किताब से गुज़रना न सिर्फ़ उनके जीवन की विविध घटनाओं से रूबरू होना है बल्कि कई स्तरों पर यह किताब पाठक को समृद्ध भी करती है.

अस्थान (उपन्यास): राजनारायण बोहरे
राजनारायण बोहरे ने इस उपन्यास धर्म और अध्यात्म जगत की अत्यंत अछूती और प्रामाणिक तस्वीरें प्रस्तुत की हैं. रोचक, आद्योपांत पठनीय उपन्यास!

यही तुम थे ( स्मृति-आख्यान ): पंकज चतुर्वेदी
पंकज चतुर्वेदी ने अपनी इस प्रशंसित किताब में वरिष्ठ हिन्दी कवि वीरेन डंगवाल को अपनी स्मृतियों के माध्यम से अनूठे अंदाज़ में याद किया है.

तितली धूप: भालचंद्र जोशी, कहानी संग्रह
भालचंद्र जोशी के इस नए कहानी संकलन में उनकी वह तमाम कहानियाँ संग्रहीत हैं जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपीं और चर्चा में रहीं.

प्रियंका दुबे

इस वर्ष मैंने यूं तो बहुत सी किताबें पढ़ीं लेकिन यहाँ उन पाँच लेखकों की जीवनियों का ज़िक्र करना चाहूँगी जिन्होंने मेरे जीवन और समझ में अभूतपूर्व योगदान दिया है.

१) सौन्टैग: बेंजामिन मोजर द्वारा लिखी गयी सुजान सौन्टैग की जीवनी.
२) वाई दिस वर्ल्ड ? – बेंजामिन मोजर द्वारा लिखी गयी क्लेरिस लिस्पेक्टर की जीवनी
३) एव्री लव स्टोरी इज़ ए घोस्ट स्टोरी – डी टी मैक्स द्वारा लिखी गयी डेविड फ़ॉस्टर वॉलिस की जीवनी
4) द मेनी लाइव्ज़ ओफ़ अज्ञेय : अक्षय मुकुल द्वारा लिखी गयी अज्ञेय की जीवनी
5) हीयर एंड हीयरआफ़्टर – विनीत गिल द्वारा लिखी गयी निर्मल वर्मा की (साहित्यिक) जीवनी .

इन पाँच मूर्धन्य उपन्यासकारों की जीवनियों ने मेरे लिए एक अद्भुत स्कूल का काम किया. इन जीवनियों को पढ़कर मेरे मन में उपन्यास लिखने के दुष्कर कर्म के प्रति अगाध आदर तो उमड़ा ही, सृजन से जुड़ी बारीकियों पर विलक्षण अंतर्दृष्टि भी मिली. लेकिन यहाँ मेरे लिए सीखने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात इन उपन्यासकारों के पाठक से परिचित हो पाना था.

इन पाँच किताबों में से कम से कम चार मामलों में इन जीवनियों को पढ़ने का अनुभव अपने जैसे घोर दीवाने पाठकों के संग जी पाने जैसा था. पढ़ने का साझा जुनून और गद्य के प्रति वह स्वतंत्र जिज्ञासा जिसे यह जीवनियाँ मेरे भीतर पोषित करती रहीं हैं- इसी स्वतंत्र जिज्ञासा ने पिछले पूरा बरस मेरे भीतर अलाव जलाए रखा.

 सौरव कुमार राय

कुछ चुनिंदा नयी-पुरानी किताबें

लिक्खाड़ों के इस देश में सलीके का पाठक होना अत्यंत आवश्यक है. इस साल की शुरुआत में ही सोच लिया था कि यह साल लिखने से ज्यादा, पढ़ते हुए व्यतीत करना है. इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली. हालाँकि, लिखते रहने का मोह छूट नहीं सका. बहरहाल, यह साल अपने शोध विषय से इतर काफी कुछ पढ़ते हुए बीता. कुछ किताबों के बारे में इधर-उधर से, मित्रों से काफी कुछ सुन रखा होता है, परन्तु पढ़ने का मौका नहीं मिल पाता. यह अमूमन ‘word-of-mouth’ पब्लिसिटी का मामला होता है. ऐसी ही कई किताबों को इस साल मंगवाया और कइयों को पढ़ा भी. यह साल सबसे ज्यादा दिवंगत इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा के विपुल लेखन को पढ़ते हुए बीता. उन्हें पढ़ते हुए यह एहसास हुआ कि एक विद्वान का जनसरोकार के लिए प्रतिबद्ध होना नितांत आवश्यक है. समाज से कटा हुआ विद्वान अकादमिक हलकों में तो पहचान पा लेता है, लेकिन समाज पर कोई स्थायी/अस्थायी प्रभाव छोड़ने में असफल रहता है. ऐसे में रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की की वो कहानी याद आती है जहाँ एक पाठक अपने लेखक से कहता है, ‘हाँ, तुमने एक बहुत प्यारी सी चीज लिखी है, इसमें कोई शक नहीं है….[लेकिन] कोई पुस्तक-मिसाल के लिए तुम्हारी अपनी लिखी हुई पुस्तकें-कैसे और किस उद्देश्य के लिए लिखी गयी है?’ उद्देश्य से विहीन स्वान्तः सुखाय के लिए लिखता हुआ लेखक चाहे कुछ भी हो, जन-बुद्धिजीवी नहीं हो सकता.

इसी साल एजाज़ अहमद को भी तसल्ली से पढ़ा. एजाज़ अहमद उन चुनिंदा विचारकों में से एक थे जो किसी भी घटना को उसके देशकाल में बखूबी स्थापित करते हुए उसे तत्कालीन विश्व में घट रही अन्य घटनाओं से जोड़कर एक तुलनात्मक अध्ययन करने में सक्षम हो पाते हैं. एजाज़ कई मायनों में शब्दशः एक अंतरराष्ट्रीय चिंतक एवं जन-बुद्धिजीवी थे. कार्ल मार्क्स एवं एंटोनियो ग्राम्शी के विशद अध्ययन पर टिकी उनकी स्थापनायें बौद्धिक जगत में काफी गंभीरता से ली जाती थीं. वे नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय से भी बतौर फेलो जुड़े रहे. विजय प्रसाद द्वारा लिया गया उनका लंबा साक्षात्कार ‘Nothing Human is Alien to Me’ ज्यादा-से-ज्यादा पढ़ी जानी चाहिए – न सिर्फ अपने निहायत ही ख़ूबसूरत शीर्षक एवं कवर पृष्ठ के लिए, बल्कि एक जन-बुद्धजीवी के निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए.

इसके अलावा अपने शोध (चिकित्सा की सामाजिकी) से जुड़ी किताबें तो लगातार पढ़ते ही रहा. यहाँ पर दो पत्रिकाओं के विशेषांकों की चर्चा लाजिमी है, जो अपने-आप में किसी पुस्तक से कमतर नहीं हैं. एक है ‘सदानीरा‘ का जे. सुशील द्वारा संपादित एन्थ्रोपोसीन विशेषांक तथा दूसरी है ‘पक्षधर‘ पत्रिका का विजय झा द्वारा संपादित एंटोनियो ग्राम्शी विशेषांक. इन दोनों संपादकों का हिंदी पट्टी के पाठकों पर उपकार रहेगा. मैं बार-बार कहता हूँ, हिंदी में बहुत कुछ लिखा गया है और अनवरत लिखा जा रहा है. जरूरत है दिल और दिमाग खुला रखने की. थोड़ा सा और अधिक संवेदनशील और ग्रहणशील होने की. अन्यथा आप तोतारटंत लगाए रखेंगे की हिंदी में स्तरीय लेखन उपलब्ध नहीं है.

पेश है इस साल मेरे द्वारा पढ़ी गयी कुछ चुनिंदा नयी-पुरानी किताबें और उनपर कुछ निजी टिप्पणियाँ.

कृष्ण कुमार, पढ़ना, ज़रा सोचना, जुगनू प्रकाशन: नयी दिल्ली

इस साल की शुरुआत प्रख्यात शिक्षाविद तथा एन.सी.ई.आर.टी. के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार द्वारा लिखित पतली सी पुस्तक ‘पढ़ना, ज़रा सोचना‘ से हुई. कृष्ण कुमार के ही शब्दों में ‘जो पढ़ नहीं सकते, उन्हें अनपढ़ कहकर हम ऐसे लोगों के लिए कोई शब्द नहीं छोड़ते जो पढ़ सकते हैं, मगर पढ़ते नहीं. उनसे भी बड़ी संख्या में वे लोग हैं जो पढ़ते हैं, पर समझते नहीं.‘ यह पुस्तक इन्हीं दो समस्याओं के बारे में है. पहली समस्या है, पढ़ने की आदत का अभाव; और दूसरी है, समझने की चिंता किये बगैर पढ़ते चले जाना. दोनों ही समस्याओं की जड़ यह पुस्तक वर्तमान शिक्षा प्रणाली तथा पढ़ाई संबंधी हमारी मौजूदा धारणाओं में तलाशती है. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह पुस्तक हमें एक सलीके का पाठक बनने का राह दिखाती है.

इस पुस्तक के एक-एक पृष्ठ में कृष्ण कुमार के अनुभव की झलक मौजूद है. ‘पढ़ना एवं पढ़ाई‘, ‘वाचन एवं पाठ‘, आदि के बारीक विभेद और उसका शिक्षा संबंधी हमारे दृष्टिकोण पर प्रभाव को कृष्ण कुमार जैसे शिक्षाविद ही इतने सरल शब्दों में प्रस्तुत कर सकते हैं. विशेष तौर पर इसका अंतिम अध्याय ‘अच्छा बाल साहित्य किसे मानें?’ मेरे जैसे कई अभिभावकों के लिए किसी संदर्भ ग्रंथ से कम नहीं है. इसकी भाषा एवं चन्द्रमोहन कुलकर्णी द्वारा बनाये गये चित्र इस किताब को और भी अधिक ख़ूबसूरत बना देते हैं. वैसे तो बहुत सी बातें लिखी जा सकती हैं इस किताब के बारे में, परंतु अभी इतना ही कि यदि आप शिक्षक या अभिभावक हैं तो 64 पन्नों की इस किताब को जरूर पढ़ें. यह आपको एक बेहतर शिक्षक एवं अभिभावक बनने में मदद करेगी.


लाल बहादुर वर्मा, इतिहास के बारे में, इतिहासबोध प्रकाशन: इलाहाबाद

यदि आप इतिहास विषय के विद्यार्थी या शिक्षक हैं या किन्हीं कारणों से इतिहास में आपकी रुचि है और आप हिंदी की आधारभूत समझ रखते हैं तो आपको लाल बहादुर वर्मा की किताब ‘इतिहास के बारे में‘ या फिर ‘इतिहास: क्यों, क्या, कैसे‘ ज़रूर पढ़नी चाहिए. ये एक जन-इतिहासकर के उस मुहिम के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी जिसके तहत वो इतिहास को जनता के बीच ले जाना चाह रहा था. बड़े-बड़े इतिहासकारों द्वारा जनता के लिए प्रामाणिक इतिहास लेखन की अनदेखी ने जनसामान्य के इतिहासबोध का कबाड़ा कर रखा है.

यह किताब आपको इतिहास क्या है, और इसे पढ़ना क्यों जरूरी है तथा इतिहास कैसे लिखा जाये पर महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करती है. यह वर्मा साहब द्वारा प्रोफेसर रेमों आरों के निर्देशन में सारबॉन विश्वविद्यालय (पेरिस) में किये गए शोध से उपजी किताब है. सबसे बड़ी बात है कि यह पुस्तक विद्वानों को नहीं, सामान्य पाठकों और विद्यार्थियों को संबोधित है. इसके पीछे वर्मा साहब की यह सोच थी कि समाज को विद्वता की भी जरूरत होती है पर उससे पहले जानकारी की जरूरत होती है. यह पुस्तक पाठकों को इतिहास विषय संबंधी आधारभूत जानकारी देकर उनके इतिहासबोध को परिमार्जित करने का सायास प्रयास करती है.

लाल बहादुर वर्मा की किताब ‘इतिहास के बारे में’ पढ़ते हुए कुछ दीगर बातें: 

  1. ‘समाज के सन्दर्भ में इतिहास की वही भूमिका है जो मनुष्य के सन्दर्भ में उसकी स्मृति की. …. वर्तमान को इतिहास से ही परिप्रेक्ष्य मिलता है.‘

  2. ‘इतिहास मनुष्य की प्रगति-यात्रा के शानदार महाकाव्य जैसा है, बिना नायक और खलनायक के.‘

  3. ‘समाज के संदर्भ में इतिहास की वही भूमिका है जो मनुष्य के संदर्भ में उसकी स्मृति की.‘

  4. ‘उन्नीसवीं शताब्दी में रान्के और उसके शिष्यों का इतना प्रभाव था कि सारे पश्चिमी जगत के विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक इतिहास की बातें होती रहीं पर फिर भी लोकप्रिय हुई इंग्लैंड में कार्लाइल, जर्मनी में ट्राइट्श्के, फ्रांस में मिशले और अमेरिका में बैंक्रॉफ्ट की पुस्तकें जो अत्यन्त पक्षतापूर्ण ढंग से लिखी गयी थीं.‘

  5. जी. एम. ट्रवेल्यान के अनुसार ‘इतिहास कभी विज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि जैसे प्याज अपने छिलके से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार ऐतिहासिक घटनाएं अपनी परिस्थितियों से अलग नहीं की जा सकती.‘

  6. ‘इतिहासकार सब हो सकता है किसी का भोंपू नहीं हो सकता. यदि वह ऐसा करता है और किसी व्यक्ति, तंत्र, राज्य, जाति-धर्म या अपने ही स्वार्थों का गुलाम होकर तदनुकूल इतिहास लिखता है तो निश्चित ही वह इतिहास को भ्रष्ट करता ही है, अंततोगत्वा जिसके लिए वह ऐसा करता है उसका भी भला नहीं करता. …. वर्तमान के हाथों पूरी तरह बिका इतिहासकार इस प्रकार न केवल घोर पक्षपात का शिकार हो जाता है, बल्कि विनाश की पृष्ठभूमि तैयार करने में भी मदद करता है.‘

  7. ‘इतिहासबोध यह बताता है कि बीता हुआ कुछ भी नहीं वापस आता, पर बीता हुआ कुछ भी एकदम बीत नहीं जाता.‘

  8. ‘भंडारकर ने स्पष्ट रूप से कहा कि इतिहास तो जज होता है वकील नहीं, जो जाति या देश को मुवक्किल समझकर इतिहास में उसके पक्ष के तर्क ढूंढे. उसका एक मात्र लक्ष्य ‘अतीत के सत्य‘ की तलाश है जो उसे जागरूक होकर करना चाहिए. भंडारकर स्वयं आस्तिक हिन्दू थे लेकिन इतिहासलेखन में उन्होंने न धार्मिक भंगिमा अपनायी, न आध्यात्मिक.‘

  9. ‘यह ज्ञान के सरलीकरण का, अधिकारी और दक्ष लोगों द्वारा सामान्य लोगों की रूचि और समझदारी को ध्यान में रखकर सरल पुस्तकें लिखने का युग है.‘

  10. ‘इतिहासबोध जनचेतना का आधार होता है. इतिहास की प्रयोगशाला में ही रास्तों की खोज होती है.‘

  11. ‘इतिहास को आगे बढ़ाने के काम का अनिवार्य अंग है उसके नाम पर हो रहे बकवास को नकारना, समाप्त करना और ऐसी स्थिति पैदा करना कि बकवास न पैदा हो सके, न पनप सके.‘

  12. ‘व्यक्ति समाज में जीता है और समाज इतिहास में. … इतिहास की समस्याओं को समझने और उन्हें हल करने का सवाल स्वयं समाज को समझने और बदलने के सवाल से जुड़ा हुआ है.‘

 

लाल बहादुर वर्मा, जीवन प्रवाह में बहते हुए
लाल बहादुर वर्मा, बुतपरस्ती मेरा ईमान नहीं

उम्र के एक पड़ाव पर पहुँच चुके बौद्धिक जब आत्म-अवलोकन करते हैं तो उनके अनुभवों से काफी कुछ सीखने मिलता है. यह दु:खद है कि अब राजनेताओं और अभिनेताओं के अलावा बाकी लोग अमूमन आत्मकथाएं नहीं लिखते. हरिशंकर परसाई ने आत्मकथा के नाम पर एक छोटा सा लेख (‘गर्दिश के दिन‘) भर लिखा था. कोविड महामारी ने उसे भी एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज में बदल दिया. कुछ-कुछ ऐसा ही सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के ‘कुल्ली-भाट’ के साथ हुआ.

दो खण्डों में लिखी गयी इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा की आत्मकथा सिर्फ उनके जीवन और उसमें निहित संघर्षों का आख्यान मात्र नहीं है, बल्कि वह एक पूरे दौर का इतिहास है. वर्मा साहब ने अपनी जीवनी को तीन हिस्सों में बाँटा है: पहले हिस्से में वे जीवन प्रवाह में बहते हुए जान पड़ते हैं; दूसरा हिस्सा वह है जब उन्होंने इस प्रवाह में तैरना सीख लिया और अपनी दिशा स्वयं निर्धारित करते चले गए; तीसरा एवं अंतिम हिस्सा किनारे तक पहुँचने के उनके आभास को दर्ज करता है. वह अपनी आत्मकथा में सिर्फ घटनाओं को दर्ज भर नहीं करते, बल्कि एक बुद्धिजीवी की भांति स्वयं उनकी विवेचना भी करते चलते हैं. इससे पाठक को एक नयी अंतर्दृष्टि मिलती है अपने आस-पास की घटनाओं एवं जीवनवृत्त को समझने में.

दो खण्डों की इस आत्मकथा का सबसे शानदार हिस्सा संभवतः पेरिस में बिताये गए उनके संस्मरण हैं. वर्मा साहब पेरिस में जिन वर्षों में गए वह एक ऐतिहासिक कालावधि थी. यह वही दौर था जब वहाँ एक व्यापक छात्र आंदोलन हुआ, जिसे बाद में वर्मा साहब ने अपने उपन्यास ‘मई अड़सठ, पेरिस‘ में भी दर्ज किया है. साथ ही उनके अध्यापकीय जीवन से जुड़े अनुभव, इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस में उनके द्वारा छेड़ी गयी बहस, सांस्कृतिक मोर्चे पर उनकी सक्रियता, आदि से जुड़े संस्मरण भी अत्यंत पठनीय हैं.

सोचिए अगर सौ साल के होने जा रहे रणजीत गुहा या फिर जीवन के नब्बे वसंत देख चुके इरफान हबीब या रोमिला थापर या फिर 83 वर्ष के सुमित सरकार यदि आत्म-अवलोकन करते हुए ऐसी ही आत्मकथाएं लिखें तो कितना गजब का काम होगा.

नथिंग ह्यूमन इज एलियन टु मी: एजाज़ अहमद इन कन्वर्सेशन विद विजय प्रसाद

 एजाज़ अहमद का जन्म 1941 में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में एक कुलीन मुस्लिम परिवार में हुआ था. बँटवारे के उन्माद एवं विभीषिका के बीच उनके कई रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए. इसके बावजूद धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण को लेकर नेहरूवादी आदर्शों के प्रति गहरी आस्था के चलते एजाज़ के परिवार ने आरंभ में भारत में ही रहने का निर्णय किया. हालाँकि, 1950 के दशक के मध्य आते-आते एजाज़ अहमद के परिवार ने भी पाकिस्तान जाना ज़्यादा मुनासिब समझा. परिवार के पाकिस्तान जाने के बाद भी एजाज़ दो और वर्षों तक भारत में अपनी मैट्रिकुलेशन की पढ़ाई पूरी करने तक रुके रहे. तदोपरान्त, वे भी अपने परिवार के पास लाहौर चले गए जहाँ उनकी आगे की पढ़ाई हुई. विस्थापन का यह सिलसिला जो ऐजाज़ की ज़िन्दगी में 1950 के दशक के मध्य में शुरू हुआ वह जीवन पर्यन्त उनसे जुड़ा रहा.

पाकिस्तान में एजाज़ अहमद साम्यवादी आंदोलन से जुड़े रहे और सैन्य तानाशाही के खिलाफ बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. 1980 के दशक में एजाज़ अहमद अपनी जन्मभूमि भारत आकर बस गए. उन्होंने दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया एवं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया. इसी दौरान वे नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय में बतौर फेलो भी नियुक्त हुए. फेलो रहते हुए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रहे साहित्यिक चिंतन में मार्क्सवादी नज़रिये से महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करना शुरू किया जिसकी परिणति उनकी बहुचर्चित किताब ‘इन थियरी : क्लासेज, नेशन्स, लिटरेचर्स‘ (1992) के रूप में हुई. वे अपने दौर के शानदार चिंतकों जैसे कि फ्रेडरिक जेमसन, सलमान रुश्दी व एडवर्ड सईद से न सिर्फ लगातार संवाद करते रहे बल्कि उनकी कई सारी बौद्धिक स्थापनाओं को चुनौती भी दी. यही वो समय था जब एजाज़ विश्व फ़लक पर एक गंभीर मार्क्सवादी साहित्यिक एवं राजनीतिक चिंतक के तौर पर उभरे.

जब एजाज़ अपने जीवन के ढलान पर थे तो उनके कुछ प्रशंसक मित्रों सुधन्वा देशपांडे, मलयश्री हाशमी और विजय प्रसाद ने उनके जीवन एवं कार्यों पर केन्द्रित उनसे एक लम्बी बातचीत की. एजाज़ से उनकी यह बातचीत लेफ़्टवर्ड द्वारा ‘नथिंग ह्यूमन इज एलियन टु मी‘ शीर्षक से 2020 में प्रकाशित हुई. यह किताब एजाज़ के व्यापक जनसरोकारों एवं चिंतन को दर्शाती है. साथ ही यह उनके विचारों एवं सिद्धांतों को सार रूप में उन्हीं के शब्दों में एक जगह दर्ज करने का भी काम करती है.

माधवी, हेल्थ, मेडिसिन एंड माइग्रेशन: दि फॉर्मेशन ऑफ़ इंडेंचर्ड लेबर, 1834-1920

कभी-कभी लगता है कि जीवन में भले सिर्फ एक ही किताब लिखना हो पाए, लेकिन ऐसी ही कोई मुकम्मल किताब लिख सकूँ. माधवी की यह किताब अकादमिक उत्कृष्टता का शानदार नमूना है. कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिनसे लेखक के वर्षों की मेहनत नैसर्गिक रूप से प्रतिबिंबित होती है. प्रस्तुत किताब निःसंदेह उनमें से एक है. इसकी एक बानगी तो यह है कि इस किताब के प्रत्येक अध्याय में एक सौ से अधिक फुटनोट्स अर्थात पादटिप्पणियाँ (अध्याय 3 के मामले में 199) हैं, जिसमें प्रकाशित और अप्रकाशित द्वितीयक स्रोतों के विस्तृत अध्ययन के साथ-साथ ब्रिटिश राज से सम्बद्ध असंख्य अभिलेखीय फाइलों के उद्धरण शामिल हैं. यह किताब हमारे दौर के दो निहायत ही ‘फैशनेबल‘ ऐतिहासिक परिचर्चाओं – गिरमिटिया मजदूरों के प्रवसन एवं औपनिवेशिक शासन के औजार के रूप में पाश्चात्य चिकित्सा की उपादेयता – को एक साथ गूंथने का प्रयास करती है.

लेखक द्वारा ब्रिटिश राज में मॉरीशस और नटाल को जाने वाले प्रवासी भारतीय मजदूरों के जीवन चक्र के वर्णन से यह पता चलता है कि किस प्रकार औपनिवेशिक चिकित्सा व्यवस्था की दखल एवं सह-अपराधिता इन मजदूरों की भर्ती से लेकर, उनकी समुद्री यात्रा एवं औपनिवेशिक बागानों में उनके दमघोंटू दैनन्दिन कार्यों में बनी हुई थी. दूसरे शब्दों में, यह किताब गिरमिटिया मजदूरों के प्रवसन को केंद्र में रखकर औपनिवेशिक चिकित्सीय तंत्र में गहरे समाये नस्लीय एवं साम्राज्यवादी तत्वों को चिन्हित करती है. इस क्रम में माधवी औपनिवेशिक काल में चिकित्सा के इतिहासलेखन के साथ-साथ गिरमिटिया श्रम के इतिहासलेखन में मौजूद रिक्त स्थानों को भरने में काफी हद तक सफल रही हैं.

राजन गुरुक्कल (सं.), इश्यूज इन सेकुलरिज्म एंड डेमोक्रेसी: एसेज इन ऑनर ऑफ़ के.एन. पणिक्कर, थ्री एसेज कलेक्टिव

हमारे दौर के एक प्रमुख इतिहासकार और बुद्धिजीवी के. एन. पणिक्कर के 85वें जन्मदिन के अवसर पर रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, प्रभात पटनायक और राजीव भार्गव के आख्यानों का आयोजन किया गया था. जनतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता पर केंद्रित इन आख्यानों को आप इस पुस्तिका में पढ़ सकते हैं. इनमें प्रभात पटनायक वाला लेख हासिल-ए-महफ़िल लेख है जिसे वर्तमान संकटों से जूझ रहे हर नागरिक को पढ़ना चाहिए. प्रभात पटनायक का यह लेख भारतीय संविधान के तीन मूलभूत सिद्धांतों – लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद – के विध्वंस की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पड़ताल करता है.

पटनायक के अनुसार, 1980 के दशक के मध्य में भारत में नव-उदारवाद के आगमन ने इस विध्वंस के पीछे की नींव रखी. यही समय था जब जनता में निहित संप्रभुता को धीरे-धीरे एक नव-उदारवादी शासन के तहत अंतरराष्ट्रीय पूंजी की संप्रभुता द्वारा स्थानांतरित कर दिया गया. इसलिए, पटनायक यह तर्क देते हैं, चाहे कोई भी राजनीतिक दल देश के भीतर सरकार बना ले, जब तक वह इस देश को अंतरराष्ट्रीय पूंजी के भंवर से बाहर नहीं खींचता है, वह वैश्विक पूंजी की मांगों को अस्वीकार नहीं कर सकता है. ऐसे में राजनीतिक दल चुनावी विजय के पूर्व जनता से चाहे कोई भी वायदा करें, देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. पटनायक भारत में नव-फासीवादी शासन के उदय और विकास को नव-उदारवादी शासन के संकट से भी जोड़ते हैं. हालाँकि, पटनायक के अनुसार, वर्तमान नव-फासीवाद तथा बीसवीं सदी के फासीवाद में एक आधारभूत अंतर है. 1930 के दशक की फासीवादी सत्ताएं राष्ट्रीय पूंजी की कुत्सित आकांक्षाओं की द्योतक थीं, जबकि नव-फासीवाद अंतरराष्ट्रीय पूंजी के शासन के भीतर आसीन है. इस कारण नव-फासीवाद चाहे कितना भी राष्ट्रवाद की बात कर ले उसके लिए वैश्विक पूंजी के आधिपत्य को समाप्त करना संभव नहीं है.

इसीलिए, देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए नव-फासीवादी राजनीतिक शासन के किसी भी प्रयास को ठीक उसी तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिनका उसके गैर-फासीवादी पूर्ववर्तियों को सामना करना पड़ा था. नतीजतन, यह कल्पना की जा सकती है कि अगर चुनावों में धांधली नहीं हुई तो नव-फासीवादी अस्थायी रूप से सत्ता खो सकते हैं. लेकिन केवल उनकी चुनावी हार से नव-उदारवादी शासन के मौजूदा आर्थिक संकट का समाधान नहीं होगा और इसलिए नव-फासीवादी बार-बार सत्ता में लौटते रहेंगे.

इसी प्रकार राजीव भार्गव का लेख भारतीय लोकतंत्र में संकट के विभिन्न चरणों की पड़ताल करता है जो अंततः हिंदुत्ववादी ताकतों को केंद्र में ले आया. भार्गव यह तर्क देते हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी केवल धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर सत्ता में नहीं आई. बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र में दशकों से चले आ रहे लोकलुभावन तत्वों के संचय की अभिव्यक्ति थी जिसने लोकतांत्रिक मांग करने वाली, पूछताछ करने वाली तथा सत्तासीन दल का विरोध करने वाली एक सक्रिय राजनीतिक जनता का गठन किया. हालाँकि, भार्गव के अनुसार, एक बार जब दक्षिणपंथी तत्व लोकलुभावन लहरों पर चलते हुए सत्ता के गलियारों तक पहुँचने में कामयाब हो गए, उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र में होने वाले जन-विमर्शों को पूरी तरह से विकृत कर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली. साथ-ही-साथ उन्होंने चुनावी गतिविधियों और शासन-प्रशासन के निर्णयों के मध्य एक अभूतपूर्व खाई का निर्माण कर दिया. भार्गव के अनुसार, चुनावी राजनीति अब वास्तविक सामाजिक-आर्थिक निर्णयों और सरकार की नीतियों और उनके परिणामों से प्रभावित नहीं होती है; बल्कि यह तर्क-वितर्क, मसखरापन, दिखावा और व्यक्तिगत करिश्मे तक सिमट कर रह गया है.

इस किताब और इसमें शामिल लेखों को प्रत्येक जागरूक भारतीय नागरिक को अवश्य पढ़ना चाहिए.

डिएगो आर्मस एवं पाब्लो एफ. गोमेज़ (सं.), दि ग्रे ज़ोन्स ऑफ़ मेडिसिन: हीलर्स एंड हिस्ट्री इन लैटिन अमेरिका, युनिवर्सिटी ऑफ़ पिट्सबर्ग प्रेस: पिट्सबर्ग, 2021

ज्ञान अर्जन के लिए सामने उपलब्ध चीजों अथवा घटनाओं को अलग-अलग खांचे में वर्गीकृत कर देखने की प्रवृत्ति नितांत मौलिक प्रवृत्ति है. यह हमें अपने आस-पास की चीजों, वस्तुओं, विचारों और घटनाओं को सरलीकृत तौर पर समझने में मदद करता है. हालाँकि, जैसा कि जैन दर्शन के अंतर्गत ‘स्यादवाद‘ के सिद्धांत में कहा गया है कि किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण होते हैं, जिन्हें सत्य के आंशिक रूप भी कहा जा सकता है. चीजों को वर्गीकृत करके देखने की प्रवृत्ति हमें ज्ञान अथवा सत्य के इस सापेक्ष स्वरुप को देखने से रोकती है. इसे दूसरे तरीके से कहें तो चीजें अमूमन ‘ब्लैक एंड व्हाइट‘ (स्याह-सफ़ेद) नहीं होतीं, ‘ग्रे जोन‘ (धूसर अथवा स्लेटी रंग) अक्सर मौजूद होता है.

यह पुस्तक लैटिन अमेरिकी चिकित्सा इतिहास के संबंध में इन ग्रे अंचलों की खोज के लिए समर्पित है. चिकित्सा के इतिहास पर हुए हालिया अध्ययन हमें यह बताते हैं कि कोई भी चिकित्सा पद्धति अपने मानक स्वरुप में काफी हद तक जनसंख्या के एक बड़े हिस्से के लिए दुर्गम रही है, और आज भी है. यह परिस्थित मुख्यधारा से दूर हाशिये पर अनेक उपचारकर्ताओं को पनपने का मौका देती है जो विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के उदार सम्मिश्रण पर निर्भर होते हैं. इससे स्वास्थ्य और उपचार को लेकर लोगों के वास्तविक अनुभव काफी जटिल बन जाते हैं.

प्रस्तुत पुस्तक प्रारंभिक औपनिवेशिक काल से लेकर वर्तमान तक लैटिन अमेरिका के कुछ प्रसिद्ध जन-चिकित्सकों की जीवनियों के माध्यम से प्रयुक्त चिकित्सा पद्धतियों की इस जटिलता को सामने लाने का प्रयास करती है. इस सिलसिले में प्रस्तुत पुस्तक में शामिल लेख ‘आधुनिक‘ ‘वैज्ञानिक‘ चिकित्सा को ऐतिहासिक रूप से निर्मित श्रेणी के रूप में देखते हैं जो कालांतर में अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों को ‘अवैज्ञानिक‘ करार देकर हाशिये पर धकेल देती है. इतना ही नहीं, आधुनिक चिकित्सा को प्राप्त राज्य द्वारा वैधानिक समर्थन चिकित्सा की अन्य सभी प्रणालियों या प्रथाओं और उनके चिकित्सकों को एक ही झटके में अवैध बना देता है. हालाँकि, जैसा कि प्रस्तुत पुस्तक में दिखाया गया है, पूर्व-आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को गैर-कानूनी घोषित करना या इससे जुड़े चिकित्सकों का अपराधीकरण इन्हें निर्मूल करने में प्रायः असफल ही रहा है. बल्कि, ये चिकित्सक सबाल्टर्न एवं कुलीन दोनों ही वर्गों के बीच पर्याप्त दखल रखते हैं. मेरे अनुसार भारतीय सन्दर्भों में भी ऐसे कार्य को दोहराने की जरूरत है.

रमाशंकर सिंह, नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी

नदियाँ इतिहास विषयक अध्ययन के केन्द्र में रही हैं. स्कूल के दिनों में इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल जिन प्रसंगों ने संभवतः सबसे ज्यादा आकर्षित किया होगा उनमें से एक था नदी घाटी सभ्यताओं का अध्ययन. हममें से ज्यादातर लोगों ने स्कूल में कम से कम तीन नदी घाटी सभ्यताओं के बारे में अवश्य पढ़ा होगा: भारतीय उपमहाद्वीप की सिंधु नदी घाटी सभ्यता, मिश्र की नील नदी घाटी सभ्यता एवं मेसोपोटामिया की दजला व फ़रात नदी घाटी सभ्यता. दूसरे शब्दों में, जैसा कि रमाशंकर सिंह लिखते हैं ‘नदियाँ हमारी संस्कृतियों की प्राथमिक पाठ हैं‘. यह अलहदा बात है कि ज्यों-ज्यों हम इतिहास अध्ययन के क्रम में आगे बढ़ते हैं, हम नदी-केन्द्रित अध्ययन से दूर होते चले जाते हैं और हमारा सारा ध्यान कृषि एवं उद्योग आधारित मानव समाज तक सीमित होते चले जाता है. बहरहाल, उपरोक्त नदी घाटी सभ्यताओं को पढ़ते समय शायद ही किसी ने इन नदियों पर आश्रित समुदायों के बारे में सोचा होगा. कालान्तर में जंगल के साथ जुड़े जनजातियों का अध्ययन तो हुआ, परंतु नदियों से अन्योन्य रूप से जुड़े निषादों पर गंभीर ऐतिहासिक अध्ययन न के बराबर हुए. रमाशंकर सिंह की प्रस्तुत पुस्तक इस रिक्त स्थान को भरने की दिशा में एक सार्थक कदम है.

यदि लेखक द्वारा प्रयुक्त शोधविधि एवं स्रोतों की बात की जाये तो इस लिहाज से निस्संदेह यह पुस्तक इतिहास लेखन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है. यह पुस्तक पाठ (टैक्स्ट), अभिलेखीय सामग्री (आर्काइव) एवं क्षेत्र कार्य (फील्ड वर्क) का एक मोहक समन्वय है. ऐसा सम्मिश्रण हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में लिखी जाने वाली इतिहास की पुस्तकों में भी विरल ही है. इतिहासलेखन के ये विविध स्रोत एवं शोधविधि प्रस्तुत पुस्तक के भिन्न-भिन्न अध्यायों में उभरकर सामने आये हैं. उदाहरण के तौर पर पूर्व-आधुनिक भारत में निषादों के उदय एवं उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक छवियों की पड़ताल हेतु लेखक ने संस्कृत स्रोतों जैसे कि वेद, महाकाव्य, धर्मसूत्र, स्मृति, इत्यादि के साथ-साथ पालि ग्रंथों की भी गहन विवेचना की है.

इसी प्रकार आधुनिक भारत विशेष तौर से औपनिवेशिक काल में निषादों की अपवंचना और बेदखली को दर्ज करने हेतु औपनिवेशिक अभिलेखागारों की विभिन्न फाइलों को खंगाला गया है. इसके साथ ही निषाद समुदाय के वर्तमान अस्तित्व और उनके समक्ष उपस्थित आजीविका के प्रश्न और उससे जुड़े विचार, संघर्ष व राजनीति को समझने के लिए लेखक ने एक बड़े पैमाने पर एथ्नोग्राफिक अथवा नृशास्त्रीय क्षेत्र कार्य का सहारा लिया है. लेखक द्वारा ये एथ्नोग्राफिक क्षेत्र कार्य मुख्यतः इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज), वाराणसी, चन्दौली और कानपुर जिलों में किया गया है. ये क्षेत्र कार्य लेखक द्वारा स्थापित शोध अवधारणाओं को न सिर्फ पुष्ट करते हैं, वरन उन्हें समकालीन, समाज-सापेक्ष एवं जनोपयोगी भी बनाते हैं. यही कारण है कि इस पुस्तक का पाठकीय दायरा घनघोर अकादमिक विमर्शों तक ही सीमित न रहकर जनसाधारण तक पहुँचने की संभावनाओं से परिपूर्ण है.

डॉ. राममनोहर लोहिया, इतिहास-चक्र

वर्तमान राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि नेताओं ने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया है. अब वो सिर्फ दूसरों से लिखवाते हैं. एंटोनियो ग्राम्शी ने बुद्धिजीवियों के दो वर्ग बताये हैं: पारम्परिक बुद्धिजीवी तथा आंगिक बुद्धिजीवी. पारम्परिक बुद्धिजीवी से ग्राम्शी का आशय बुद्धिजीवियों के उस समूह से है जो प्रत्येक समाज के हर एक कालखंड में मौजूद रहा है. उदाहरण के तौर पर पुरोहित वर्ग, शिक्षक, चिकित्सक, वकील, आदि. ये पारम्परिक बुद्धिजीवी नागरिक समाज में काफी सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं. वर्चस्व कायम करने एवं उसे बनाये रखने के लिए किसी भी राज्य सत्ता को इन पारम्परिक बुद्धिजीवियों को अपने पाले में करना नितांत आवश्यक होता है.

वहीं दूसरी तरफ आंगिक बुद्धिजीवी किसी भी वर्ग विशेष के आंतरिक क्रियाकलापों से निकलते हैं. चूंकि ऐसे आंगिक बुद्धिजीवियों का अस्तित्व वर्ग विशेष पर निर्भर होता है, वे न सिर्फ उस वर्ग विशेष के चिंतन एवं महत्वाकांक्षाओं का सैद्धांतिकरण कर उसे एक निश्चित स्वरुप प्रदान करते हैं, वरन उसके हितों के पोषक एवं शुभचिंतक होते हैं. उदाहरण के तौर पर पार्टी विशेष से जुड़े विचारक, पत्रकार, इतिहासकार, समाज विज्ञानी, आदि. ये आंगिक बुद्धिजीवी वर्ग विशेष के लिए पारम्परिक बुद्धिजीवियों का विश्वास जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

लेकिन वर्तमान दौर ‘किराये के बुद्धिजीवियों‘ (Mercenary Intellectuals) का दौर है. राजनीतिक पार्टियाँ इन किराये के बुद्धिजीवियों को तरह-तरह के प्रलोभन देती हैं और वे लग जाते हैं पार्टी/नेता विशेष के पक्ष में ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय सिद्धांतों को गढ़ने में. एक दौर था जब राइट, लेफ्ट, सेंटर, हर प्रकार के दलों के प्रमुख राजनेता खुद ही चिंतक भी हुआ करते थे. फिर चाहे नेहरू हों, राममनोहर लोहिया हों या दीन दयाल उपाध्याय हों. यह लगभग अकल्पनीय है कि आज का कोई नेता इतिहास की गतिकी पर चिंतन करते हुए किसी सिद्धांत को गढ़ने का प्रयत्न करे. यह कोशिश राममनोहर लोहिया 1955 में कर रहे थे, वह भी हीगल, मार्क्स, अर्नाल्ड टॉयनबी, ओसवाल्ड स्पेंगलर, आदि को पढ़ते हुए.

लोहिया के अनुसार अब तक समस्त मानवीय इतिहास वर्गों और वर्णों के बीच आंतरिक बदलाव, वर्गों की जकड़ से वर्ण बनाने और वर्णों के ढीले पड़ने से वर्ग बनने का ही इतिहास रहा है. यहाँ अस्थिर वर्ण को वर्ग कहा गया है और स्थायी वर्ग को वर्ण. लोहिया का यह मानना था कि हर समाज या सभ्यता में वर्ग से वर्ण और वर्ण से वर्ग का बदलाव हुआ है, जो कि उस समाज/सभ्यता के उत्थान एवं पतन से जुड़ी होती है. इसी किताब में लोहिया एक और मार्के की बात कहते हैं जिसे आजकल कई इतिहासकार भूल गए हैं. लोहिया यह कहते हैं कि इतिहास के विद्यार्थी को दिल की पसंद और नापसंद से और देशभक्ति की इस भावना से कि वह अपने देश और युग की सफलता को कायम रखे, कोई मतलब नहीं रखना चाहिए. उसे ऐतिहासिक घटनाओं को निष्पक्ष होकर देखना चाहिए. इस किताब की बौद्धिक स्थापनाओं से मतभेद हो सकता है, फिर भी यह एक पढ़ी जाने लायक किताब है. इतिहास एवं इसके अध्ययन को लेकर जो सवाल लोहिया ने इस किताब में उठाये हैं, वे आज भी काफी हद तक विचारणीय बने हुए हैं.

हर्ष वर्धन, एक अनोखी जीवन यात्रा

किशोरावस्था की तमाम धूमिल स्मृतियों में से एक किउल जंक्शन और लखीसराय स्टेशनों से जुड़ी हुई है. पटना से राजमहल आने-जाने के क्रम में ट्रेनें प्राय: अगल-बगल स्थित इन दोनों स्टेशनों पर रूका करती थीं. ये स्टेशन किउल नदी के दोनों तटों पर एक-दूसरे से काफी नजदीक स्थित हैं. किउल नदी के तट के समीप ही लखीसराय में ‘बालिका विद्यापीठ‘ नामक एक सुप्रसिद्ध आवासीय विद्यालय अवस्थित है. यह अनूठी कहानी इसके संस्थापक दम्पति व्रजनन्दन शर्मा और विद्या देवी की है जिसे कलमबद्ध किया है उनके सबसे छोटे बेटे हर्ष वर्धन ने जो उनके संघर्ष के दिनों के साक्षी रहे. डी. के. कर्वे द्वारा स्थापित ‘स्त्री शिक्षण संस्थान‘ से प्रेरणा पाकर व महात्मा गांधी और फिर राजेंद्र प्रसाद के सुझावों पर अमल कर शर्मा दम्पति ने इस विद्यालय की स्थापना सन् 1948 में की थी.

कालान्तर में इस विद्यालय से अनुग्रह नारायण सिंह, लक्ष्मी मेनन व गंगा शरण सिंह जैसे लोग सक्रिय तौर पर जुड़े रहे. इस विद्यालय में समय-समय पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आचार्य विनोबा भावे, बाबू जगजीवन राम, महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी व रामधारी सिंह दिनकर का भी आगमन हुआ. इस विद्यालय की स्थापना से पूर्व शर्मा दम्पति एक लम्बे समय तक महात्मा गांधी के निर्देश पर स्थापित ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा‘ से जुड़े रहे. उनके द्वारा एक संतुलित स्थिर जीवन को छोड़ लड़कियों के लिये आवासीय विद्यालय स्थापित करने के स्वप्न सरीखे लक्ष्य व अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ना कल्पनातीत है. इस देश को बनाने में ऐसे अदम्य जिजीविषा और इच्छा शक्ति वाले लोगों का योगदान रहा है. यह एक ऐसे दौर का वृत्तांत है जब देश नई अँगड़ायी ले रहा था और समाज व राजनीति में सेवा भाव की प्रधानता तथा इससे सन्नद्ध व्यक्तियों के प्रति सम्मान की भावना थी. जरूर पढ़ें इस अनोखी जीवन यात्रा को. 

शुभनीत कौशिक: इतिहास भाषा और राष्ट्र. संवाद प्रकाशन, 2022
शुभनीत कौशिक (सं.)
, पंडित रविदत्त शुक्ल कृत देवाक्षर चरित्र, अमेजन किंडल, 2021,

हिंदी पट्टी में वर्तमान में चल रहे समाज विज्ञान संबंधी विमर्श में शुभनीत कौशिक एक महत्वपूर्ण दखल रखते हैं. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और फिर जे.एन.यू. से पढ़े शुभनीत ने पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ अपना पाठक वर्ग तैयार किया है, बल्कि अपने विविधतापूर्ण लेखन और सधी हुई इतिहास दृष्टि से मेरे जैसे प्रशंसकों का भी अर्जन किया है. प्रस्तुत पुस्तक शुभनीत द्वारा पूर्व में प्रकाशित कुछ लेखों के साथ-साथ नए अप्रकाशित लेखों का संकलन है. उदाहरण के तौर पर वैश्विक एवं भारतीय परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास का विश्लेषण, भाषायी विविधता को लेकर समाजवादी आंदोलन से जुड़े नेताओं के विचारों की पड़ताल, सांप्रदायिकता की समस्या से जूझते हुए भारत में भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता, आदि पर इस किताब में उम्दा लेख शामिल हैं. शुभनीत के ये लेख आधुनिक भारतीय इतिहास से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर एक सार्थक बहस को बढ़ावा देते हैं. इस किताब में मौजूद एकाधिक लेख इतिहासलेखन से जुड़े विभिन्न आयामों पर भी गहराई से चिंतन करते हैं जिनमें भारत में इतिहासलेखन की परंपराओं, इतिहास और मनोविज्ञान की जुगलबंदी, तथा बीसवीं सदी के इतिहासलेखन पर मार्क्सवादी चिंतन के प्रभाव से संबद्ध सुचिंतित टिप्पणियाँ शामिल हैं. साथ ही प्रस्तुत किताब में शुभनीत द्वारा की गयी कुछ पुस्तकों की समीक्षायें भी संकलित हैं.

इसके अलावा अमेजन किंडल पर उपलब्ध शुभनीत कौशिक द्वारा संपादित किताब ‘देवाक्षर चरित्र‘ भी इस साल की पठनीय पुस्तकों में से एक रही. यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि शुभनीत ने भूसे में से सूई ढूंढने का काम किया है. भोजपुरी भाषा में लिखे गये प्रथम नाटक के रूप में दर्ज रविदत्त शुक्ल कृत ‘देवाक्षर चरित्र‘ दरअसल तत्कालीन समाज में मौजूद भाषाई विविधता का भी श्रेष्ठ प्रतिबिंब है. रविदत्त शुक्ल ने इस नाटक को ‘हास्य रूपक’ (सीरियो-कॉमिक ड्रामा) की संज्ञा दी थी. ‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक मुख्यतः कचहरी और अदालतों में, स्कूलों में देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा की वकालत करने के उद्देश्य से लिखा गया था. इस नाटक में उस समय बलिया (संयुक्त प्रान्त) में चल रहे सर्वे और पैमाइश के काम, बन्दोबस्त की पूरी प्रक्रिया की जटिलता का वर्णन किया गया है. साथ ही, इस नाटक में अंग्रेज़ अधिकारियों के भारतीयों के प्रति पूर्वग्रहों को भी दर्शाया गया है. यह पुस्तक हमें उस काल और हिंदी-उर्दू विवाद पर भी बेहतर समझ बनाने में मदद करती है. शुभनीत ने इसकी एक उम्दा भूमिका भी लिखी है. 

जयप्रकाश ‘धूमकेतु‘ एवं अमरेन्द्र कुमार शर्मा (सं.), महामारी: साहित्य, समाज, सत्ता और संस्कृति, युगांतर प्रकाशन: नयी दिल्ली, 2022

राहुल सांकृत्यायन सृजन पीठ के मातहत ‘अभिनव कदम‘ पत्रिका के महामारी विशेषांक में शामिल लेख अब एक सम्पादित पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध हैं. ‘महामारी: साहित्य, समाज, सत्ता और संस्कृति’ नामक इस पुस्तक के सम्पादक जयप्रकाश ‘धूमकेतु‘ एवं अमरेन्द्र कुमार शर्मा हैं तथा इसे युगांतर प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. इस पुस्तक में शामिल आलेख हिंदी के पाठकों के लिए महामारी के इतिहास एवं वर्तमान पर एक सम्यक समझ विकसित करने में सहायक हैं. इसका कलेवर कुछ-कुछ मधु सिंह द्वारा अंग्रेजी में सम्पादित ‘Outbreaks: An Indian Pandemic Reader’ से मिलता-जुलता है. इस किताब में महामारी के अध्ययन हेतु दस्तावेजी महत्व की कहानियाँ, लेख, साक्षात्कार, विचार व उपन्यास अंश शामिल किये गए हैं. इनमें से कुछ प्रमुख हैं नोम चोम्स्की एवं मैनेजर पाण्डेय के साक्षात्कार; अरुंधति रॉय एवं जुआल नोवा हरारी द्वारा मूलतः अंग्रेजी में लिखे गये लेखों के अनुवाद; मास्टर भगवानदास, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, राजिन्दर सिंह बेदी तथा फणीश्वरनाथ रेणु की दस्तावेजी कहानियाँ; अल्बेयर कामू के कालजयी उपन्यास ‘प्लेग‘ के कुछ अंश; एवं रामशरण जोशी, अमरेन्द्र कुमार शर्मा, प्रमोद रंजन, आदि के लेख. यदि आप पुस्तकप्रेमी हैं और महामारी के इतिहास एवं वर्तमान में रूचि रखते हैं तो यह पुस्तक निस्संदेह आपके संग्रह की शोभा बढ़ाने वाली है.  

योगेश प्रताप शेखर

कविता-संग्रह :

 उपशीर्षक – कुमार अंबुज (राजकमल प्रकाशन)

इस संग्रह की कविताओं में रोज़मर्रा का जीवन, समकालीन यथार्थ एवं इन सब के बीच हमारी पारिवारिकता, संबंध की तनावपूर्ण स्थिति और लगातार कुछ खोते जाने का एहसास संवेदनशीलता से अंकित है.

पत्थलगड़ी – अनुज लुगुन.( वाणी प्रकाशन)

पत्थलगड़ी का संबंध आदिवासी संवेदना एवं आंदोलन से है लेकिन इस संकलन में कविताएँ सिर्फ इसी भाव-भूमि की नहीं हैं. इस में नागरिकता कानून, भीमा-कोरेगाँव से ले कर ‘चूल्हों’, ‘खुश होती लड़कियों’ पर भी कविताएँ हैं. इस संग्रह से यह स्पष्ट होता है कि ‘विमर्श’ का साहित्य व्यापक मानव-मुक्ति और जनपक्षधरता से जुड़कर अपने को सार्थक करता है.

ठिठुरते लैम्प पोस्ट –  अदनान कफ़ील दरवेश  (राजकमल प्रकाशन)

अदनान का यह पहला कविता-संग्रह है. इस में गाँव की याद भी है और महानगर की परिस्थितियाँ भी. एक तरह से कहा जा सकता है कि हमारी ग्रामीण जीवन-शैली और महानगर की दुनिया के बीच के अनुभव यहाँ वर्णित हैं. साथ ही वर्तमान भारत में फैलती सांप्रदायिकता की भी वीभत्स मौजदूगी से छलका दर्द भी है.

जोशना बैनर्जी आडवाणी – अंबुधि में पसरा है आकाश  (वाणी प्रकाशन)

इस संग्रह को पढ़ने यह पता चलता है कि एक स्त्री जीवन के विविध प्रसंगों को किस राग-अनुराग की दृष्टि से देखती है ? उस की नज़र क्या महसूस करती है ? जीवन के बहुप्रचलित प्रसंग यथा प्रेम आदि में उस के अस्तित्व की क्या दशा होती है ?

अस्वीकार से बनी काया – राजेश कमल (अंतिका प्रकाशन)

राजेश कमल की कविताओं में संघर्ष और प्रतिरोध को ले कर अटूट विश्वास है. वर्तमान पूँजीवाद और बाजारवाद हमारे जीवन को न केवल प्रभावित करता है बल्कि उसे अपने अनुसार बिना हमें एहसास दिलाए नियंत्रित भी करता है. राजेश कमल की कविताएँ इसी प्रक्रिया में एक साधारण मनुष्य की दृढ़ता और उस की जिजीविषा के प्रति भरोसा दिलाती हैं.

 मुक्तिबोध की लालटेन – अपूर्वानंद ( सेतु प्रकाशन)

मुक्तिबोध पर यह किताब नई दृष्टि से लिखी गई है. आलोचना की यह किताब आलोचना को ‘निर्णय’ नहीं बल्कि ‘निमंत्रण’ के रूप में प्रस्तावित करती है. इस की एक और विशेषता है कि इस में पहली बार मुक्तिबोध के पत्रों तथा उन पर लिखे गए संस्मरण आदि को भी विचार के दायरे में लाया गया है.

सुन्दर के स्वप्न – दलपत सिंह राजपुरोहित ( राजकमल प्रकाशन) 

किताब मध्यकालीन निर्गुण दादूपंथी संत सुंदरदास पर है. इस में उन को केंद्र में रखते हुए ‘आरंभिक आधुनिकता’, दादूपंथ के विकास तथा विस्तार और संतों एवं व्यापारी समाज के बीच संबंधों का विवेचन किया गया है.

रज़ा पुस्तक-माला

जीवनी :

अवसाद का आनंद – सत्यदेव त्रिपाठी( सेतु प्रकाशन) 

यह जयशंकर प्रसाद की जीवनी है. इस में शोधपरक दृष्टि से जयशंकर प्रसाद के जीवन को अत्यंत रोचक ढंग से रखा गया है. यह जीवनी हिंदी एक अभाव की पूर्ति करती है. अच्छी बात यह है कि इस में हर सूचना और जानकारी का यथासंभव संदर्भ दिया गया है.

 एक भव अनेक नाम मुनि जिनविजय – संपादक माधव हाड़ा  ( सेतु प्रकाशन)

इस किताब में प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी के प्राचीन साहित्य के उद्धारक, अनुवादक एवं संपादक मुनि जिनविजय के आत्म-वृत्तांत तथा पत्राचार का संकलन है. मुनि जिनविजय उपेक्षित से हो गए हैं. उन पर इतनी महत्त्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन हिंदी साहित्य की दुनिया को समृद्ध करता है.

राग-अनुराग – रविशंकर (बँगला से अनुवाद रामशंकर द्विवेदी) राजकमल प्रकाशन

हिंदी में चित्रकारों, संगीतकारों और नृत्य से जुड़े व्यक्तित्वों पर उत्कृष्ट सामग्री का अभाव है. राग-अनुराग प्रख्यात संगीतकार रविशंकर की आत्मकथा का अनुवाद है. इस आत्मकथा को पढ़ने से न केवल एक कलाकार के बनने की प्रक्रिया पता चलती है बल्कि भारतीय संगीत और विश्व संगीत के रिश्ता भी समझ में आता है.

मुख़्तसर मेरी कहानी – सैयद हैदर रज़ा ( सेतु प्रकाशन)

यह किताब प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की संक्षिप्त आत्मकथा है. इसे पढ़कर एक चित्रकार की बनती हुई दुनिया और जिंदगी के बारे में पता चलता है. साथ उस के कला-माध्यम यानी चित्र के प्रति उस की विकसित होती समझ भी हमारे सामने आती है.

प्रस्तुति

अरुण देव
devarun72@gmail.com
Tags: 20222022 की पसंदीदा पुस्तकें2022 विशेषfavourite-books-of-2022/अरुण कमलअशोक वाजपेयीउदयन वाजपेयीकमलानंद झाकुमार अम्बुजगंगाशरण सिंहज्योतिष जोशीनरेश गोस्वामीप्रियंका दुबेप्रियदर्शनबटरोहीमधु बी जोशीममता कालियामाधव हाड़ामुसाफ़िर बैठायोगेश प्रताप शेखररंगनाथ सिंहरमाशंकर सिंहराकेश बिहारीराजाराम भादूवीरेन्द्र यादवसौरव कुमार राय
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Comments 18

  1. Sadashiv Shrotriya says:
    2 years ago

    इस ज़रूरी आयोजन के लिए आभार !

    Reply
  2. Pankaj Chaudhary says:
    2 years ago

    इसीलिए ‘समालोचन’ हिंदी की ‘पेरिस रिव्यू’ है। जिसका हरेक सुबह लोग दिल थामकर इन्तजार करते हैं। अरुण देव तन-मन-धन से इसको सिरज रहे हैं।

    Reply
  3. Yatish Kumar says:
    2 years ago

    ये कमाल का काम किया आपने । हम जैसों के लिए रिफरेन्स पॉइंट है यह दस्तावेज और साथ में यह भी सीख हैं कि अग्रज रचनाकार कितना ज़्यादा पढ़ते हैं । अपनी किताब का नाम वो भी कुमार अम्बुज सर द्वारा सुखद रहा। कितनी सारी क़िताबें नहीं पढ़ी और पढ़नी होगी वही सोच रहा हूँ

    Reply
  4. Chandrakala Tripathi says:
    2 years ago

    किताब समृद्ध साल का लेखा जोखा इस रुप में सार्थक है कि कई बहुत अच्छी विचारोत्तेजक नई किताबों का ज़िक्र है यहां। कुछ विद्वानों ने अपने उल्लेख में तटस्थता बरती है तो वहां यह विश्वसनीय भी है।

    Reply
  5. Girdhar Rathi says:
    2 years ago

    समालोचन ने अद्भुत और अद्वितीय पैमाने से पठन पाठन के दरवाज़े खोले हैं।
    पर अफ़सोस,” सकल पदारथ हैं जग माहीं…”। किताबों के लिए ललचाते मन को एक पूरी ज़िन्दगी चाहिए , मात्र इतनी ही किताबें पढ़ने को– जो कि अब कगार पर है, छीजती नेत्र ज्योति को ढोती हुई। पर क्या ही कमाल हो अगर नयी पीढ़ियां कुछ ग़ौर से देखने लगें कि रहस्य रोमांच रोमांस के अक्षय स्रोत तो किताबों की दुनिया में हैं, और आभासी दुनिया में भी किताबें ही कुछ अधिक देर साथ रह सकती हैं!

    Reply
  6. मनोज मल्हार says:
    2 years ago

    वर्ष भर के साहित्यिक – ज्ञानशास्त्रीय – सांस्कृतिक पुस्तकों पर सुन्दर आयोजन… संपादक जी का आभार..

    Reply
  7. Surendra Manan says:
    2 years ago

    आपके इस उपक्रम से इतने विविध विषयों पर चुनिंदा पुस्तकों का परिचय मिल जाता है कि यह एक तरह का इनसाइक्लोपीडिया ही है l बहुत महत्वपूर्ण अंक है l

    Reply
  8. Daya Shanker Sharan says:
    2 years ago

    किताबों की जगह सिकुड़ती जा रही है या यों कहें कि एक तरह से गायब हो रही हैं जीवन से।किसी कस्बे या छोटे शहर में अब साहित्य की कोई दूकान नहीं ।बड़े शहरों में एकाध कहीं विरले हों तो हों।कुल मिलाकर स्थिति अत्यंत निराशाजनक है।ऐसे में पढ़ी गई या पढ़ी जा रही किताबों की चर्चा मरूस्थल में ओएसिस की तरह है

    Reply
  9. Anonymous says:
    2 years ago

    हिंदी और समीप की भाषाओं के पाठकों के लिए अपरिहार्य प्रस्तुति। अभिनंदन। स्वाभाविक है, कुछ उम्दा कृतियां भागीदारों से छूट गईं। शायद इसलिए भी कि कुछ का प्रकाशन साल बीतते– बीतते हुआ है।

    Reply
  10. दीपक रुहानी says:
    2 years ago

    इस तरह के लेख या इस तरह का मंतव्य लेना, सर्वे करना बहुत ही सार्थक और औचित्यपूर्ण है। समालोचन टीम को इसके लिए बधाई।
    इसे पढ़कर मैंने एक दो किताबों का ऑनलाइन आर्डर किया।

    Reply
  11. प्रकाश मनु says:
    2 years ago

    बहुत महत्त्वपूर्ण आयोजन। पढ़ने-लिखने के लिए एक व्यापक स्पेस और परिदृश्य रचता हुआ। अब ये पुस्तकें लंबे समय तक साथ रहेंगी, और इन्हें पढ़ने के साथ-साथ बहुत कुछ और भी नया पढ़ने की चुनौती देती रहेंगी।

    इस सुंदर और सार्थक प्रस्तुति के लिए आपको साधुवाद, भाई अरुण जी!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  12. शहंशाह आलम says:
    2 years ago

    साहित्य ज़िंदा है। ज़िंदा रहेगा। यहाँ यह उम्मीद जगती है।
    उर्दू साहित्य की भी बात यहाँ होती, तो यह चर्चा पूर्ण लगती।

    Reply
  13. Upendra Kumar satyarthi says:
    2 years ago

    बहुत उम्दा कार्य। अरुण देव सर को बधाई💐

    Reply
  14. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    2 years ago

    साल में किन किताबों को पढ़ा गया, यह निश्चित ही बड़ा और काम का विचार है बजाए इसके कि वर्ष में आई पुस्तकों की जल्दबाजी में और पूर्वाग्रह से तैयार सूची प्रस्तुत कर देना.
    उधर The Sunday EXPRESS ने भी साल के आखिर में ने अपने खूब पढ़े जाने वाले पेज़ में चुनिंदा न्यूजमेकर्स, पॉलिटिशियंस, पॉलिसिमेकर्स, डिप्लोमेट्स, रायटर्स, आर्टिस्ट्स, इकोनॉमिस्ट्स और डॉक्टर्स से रायशुमारी कर वर्ष में उनकी पसंदीदा किताबों के बाबत पूछा तो जाहिरा तौर पर अंग्रेजी भाषा की ही किताबों का नाम लिया गया. पर अच्छा लगा, The Year In Books के प्रतिफल में हिंदी भाषा की भी कुछ क़िताबें सामने आई.

    मुझे कहने में कुछ हिचक भी हो रही है पर होनी नहीं चाहिए कि जिन हस्तियों के विचार आपने जानकर “समालोचन” में हमें बताए, उनमें से कइयों ने अपने पढ़े को ऐसे नहीं सांझा किया कि हम उद्धत हो उठें वह पढ़ने के लिए.
    अशोक वाजपेयी जी ने ज़रूर रिल्के, निर्मल वर्मा, अज्ञेय और मुक्तिबोध की इस तरह से बढ़िया याद दिलाई कि मैं प्रेरित हुआ लेस्ले चैंबर्ले, विनीत गिल, अक्षय मुकुल और अपूर्वानंद की किताब पढ़ने हेतु. ऐसी ही मुकम्मल टिप्पणी प्रियदर्शन की भी है.

    Reply
  15. Dr. Vinay Kumar Singh says:
    2 years ago

    अनेक पुस्तक-प्रेमी कवियों, लेखकों के द्वारा वर्ष 2022 में पढ़ी पुस्तकों से सम्बद्ध विशेष प्रस्तुति रोचक, उपयोगी और पठनीय है!
    हम सब अपनी पसंद की पुस्तकें पढ़ते हैं, अपनी पसंद के अनुकूल बहुत-सी पुस्तकें हम नहीं पढ़ पाते,पर इस तरह की समीक्षा का लाभ यह होता है कि इनमें से भी नहीं पढ़ी गयी महत्वपूर्ण पुस्तकों का चयन कर हम नये वर्ष में पढ़ सकते हैं!

    Reply
  16. बजरंगबिहारी says:
    2 years ago

    बेहतरीन संयोजन। अरुण देव जी अनगिनत धन्यवादों और अशेष साधुवाद के हक़दार हैं।

    Reply
  17. महेश आलोक says:
    2 years ago

    पहली बार इतनी महत्वपूर्ण किताबों की चर्चा एक जगह संभव हो पाई है। निश्चय ही सभी की अपनी पसंद है, इसलिए कुछ किताबें चर्चा से छूट भी जाती हैं।अरुण देव और समालोचन को इस महत्वपूर्ण संयोजन के लिए साधुवाद।

    Reply
  18. धर्मपाल महेंद्र जैन says:
    2 years ago

    इस महत्त्वपूर्ण संयोजन के लिए समालोचन और अरुण देव जी का शुक्रिया। मेरे व्यंग्य संकलन ‘भीड़ और भेड़िए’ ने यहाँ स्थान पाया, इसके लिए आपकी टीम का आभार।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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