फॉलो बैक
दीपांकर शिवमूर्ति
कला संकाय की घटिया चाय ग्रैजुएशन फ़ाइनल ईयर आते-आते इस क़दर हमारे मुँह लग चुकी थी कि बाहर कहीं चाय हमें सुहाए ही नहीं. नवंबर की सर्दियों में उस दोपहरी भी मैं अपने कुछ सीनियर के साथ खड़ा चाय पी रहा था. रोज़मर्रा की बौद्धिक जुगाली चल रही थी जिसमें शामिल होकर जताना चाहता था कि मेरा भी पढ़ने-लिखने से वास्ता है. तभी वहाँ सीनियर स्कॉलर ज़ेबा मैडम अपनी दोस्त रिहाना के साथ पहुँचती हैं और वह भी बहस का हिस्सा बन जाती हैं.
बात होते-होते किसी तरह उर्दू शायरी के तर्जुमे पर पहुँच जाती है. वह शायरी के तर्जुमे में होने वाली तमाम दुश्वारियों पर बात करने लगती हैं. उन्होंने बताया कि जब शुरू में ग़ालिब के क़लाम का अँग्रेजी तर्जुमा हुआ तो उनके हरेक शेर को दीवाँ यानी क़िताब कहा गया. मैंने ज़ेबा मैडम से कहा कि इस विषय पर लिखे उनके रिसर्च पेपर को मैंने पढ़ा है.
“मैडम, मगर मुझे आग़ा शाहिद अली के तर्जुमे का तरीक़ा कुछ ज़्यादा जंचा नहीं जिसे किसी हद तक आपने अपने पर्चे में इंडोर्स किया है.
“क्यूँ बाबा, तुम्हें क्यूँ तकलीफ़ होने लगी?”
उन्होंने ज़रा तंज़िया अंदाज़ में कहा.
“अब देखिए, वो दो लाइन की शायरी को छह लाइन, आठ लाइन में ट्रांसलेट करते हैं. दरअसल ये ट्रांसलेशन नहीं एक्स्प्लेनेशन है. हो सकता है इसमें मानी तो कन्वे होता हो मगर एसेंस ऑफ पोएट्री खो जाता है.”
ज़ेबा मैडम काफ़ी हैरत में थी कि एक अंडरग्रेड का लड़का इतनी दिलचस्पी लेकर मेरे रिसर्च पेपर पढ़ता है. उन्हें पता था कि वहाँ खड़े उनके तमाम कलीग में से किसी ने उनका पेपर नहीं पढ़ा था. मैडम कश्मीरी शायर आग़ा शाहिद अली पर पीएच.डी. कर रही थीं. एक बेहद संजीदा स्कॉलर थीं. उनको एक साल के लिए फुलब्राइट-नेहरू फ़ेलोशिप मिली थी. इन्हीं सर्दियों में रिसर्च के सिलसिले में उनको अमरीका जाना था.
एक स्माल टाउन यूनिवर्सिटी में किसी को यूएस में इतनी प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप मिलना बहुत बड़ी बात थी. एक तरह से वह कैंपस की स्टार थीं. सब लोग उनकी इज़्ज़त करते थे.
ज़ेबा मैडम थोड़ी भरी-पूरी और मँझोले क़द की लड़की थीं. वह कम ही बोलती थीं- बिल्कुल नाप-तौल कर. इस वजह से उनकी आँखों और शख़्सियत में रहस्य का पुट आ जाता था. लेकिन उनकी सबसे नुमाया ख़ासियत उनकी ज़हनियत थी. उनसे मिलना भी मेरे लिए जादू जैसा था.
फिर उसके बाद वह मुझे कैंपस में दिखी नहीं. शायद अमरीका चली गईं. हम लोगों के भी आख़िरी साल के इम्तिहान हो गए. जैसे-तैसे मैं भी पास हो गया. फिर एण्ट्रेंस हुआ और मुझे एम ए में दाख़िला मिल गया.
जैसा कि छोटे कस्बों के कैंपस में होता है. पहला सेमेस्टर शुरू होते-होते सर्दियों की आहटें सुनाई देने लगती हैं. अब जाकर हमारी क्लास धीरे-धीरे रवानी पकड़ रही थी. एक दिन हमारी पोएट्री की प्रोफ़ेसर बनर्जी ने मुनादी की कि इस साल आग़ा शाहिद अली कोई गेस्ट फ़ैकल्टी पढ़ाएगा.
अगले दिन बड़ी बाहों वाली ब्लाउज़ वाली साड़ी पहने ज़ेबा मैडम क्लास में दाख़िल होती हैं. आख़िरी बार की तरह ही ख़ुशगवार और ताज़ादम. उनके बग़ैर एक लफ़्ज़ कहे बिख़री हुई क्लास यकायक जैसे किसी जादू के ज़ोर से तरतीब में आ गई.
ज़ेबा मैडम के पढ़ाने का तरीक़ा अलहदा था. वह सबसे पहले विद्यार्थियों का भरोसा जीतती थीं. अक्सर होता था कि हमारी छोटी सी क्लास के लिए रीफ्रेशमेंट और चाय भी मँगवाती थीं. उनका यह तरीक़ा हमारे कैंपस की उस परंपरा से बिल्कुल उलट था जहाँ टीचर और स्टूडेंट के दरम्यान काफ़ी फ़ासला रहता था. जल्दी ही ज़ेबा मैडम स्टूडेंट की चहेती बन गईं.
मेरी गुफ़्तगू उनसे लगातार क्लास के बाहर भी चलती रहती थी. ख़ासतौर से यह बात इस पसे मंज़र में ज़्यादा मौजूं हो जाती थी कि अँग्रेजी साहित्य के ज्यादातर छात्र उर्दू अदब की रवायतों और बरीक़ियों से वाक़िफ़ नहीं थे. उर्दू हमारे बीच साझा थी.
कक्षाएं बोरिंग हुआ करती थीं. मेरे हॉस्टल से संकाय की दूरी चंद क़दमों की थी. फिर भी ज़ेबा मैडम के आने से पहले मैं बहुत कम कैंपस आता था. कक्षाएं से तो अब भी अधिकतर ग़ैरहाज़िर ही रहता था. मैडम के आने के बाद फ़र्क़ यह आया कि कैंपस में रेग्युलर आने लगा. हालांकि मेरा ज़्यादा वक़्त कक्षाओं से बाहर रिसर्च पार्लर, कैंटीन या डिपार्टमेन्ट के बगीचे में बीतता था. ज़ेबा मैडम के साथ चाय तो जैसे रोज़ की रस्म बन गई. कभी-कभी लंच के लिए भी हम लोग कैंपस के आस-पास रेस्टोरेंट में जाते थे.
वह जिस तरह से पेश आती थीं, जिस तरह पढ़ाती थीं, उनका सेंस ऑफ ह्यूमर, उनकी चुप्पी और उनका बिलकुल वजूद ही- मैडम के आभामंडल के तले होना सिखावन, मनोरंजन, दर्शन और अध्यात्म सब था.
कभी-कभी उनकी सरप्राइज़ कॉल आती- कहाँ हो? मैं तुम्हारे हॉस्टल के बाहर खड़ी हूँ.
उनकी लाल स्कूटी के पीछे बिठाकर शहर के चक्कर लगवातीं. घंटों गंगा घाट पर बैठे रहते. अक्सर वहाँ एक कैफ़े में जाते थे जिसका नाम था- रीवरव्यू कैफ़े. कभी-कभी उनकी स्कूटी के पीछे बैठना अजीब भी लगता. मगर वह कभी मुझे स्कूटी चलाने नहीं देती थीं.
दिसंबर में सेमेस्टर एक्जाम हुए. जिस दिन उनका पेपर था, जैसे ही मैं एक्जाम हाल से बाहर निकला वह तेज़ क़दमों से मेरे तरफ़ आयीं.
“एक्जाम कैसा रहा? कोई मुश्किल तो नहीं हुई?”
“नहीं मैम, हो गया है.”
“सब लिख डाला ना? कुछ छोड़ा तो नहीं?”
“सब तो लिख दिया है. अब कैसा लिखा है, यह तो आप देखेंगी” मैंने मज़ाकिया लहज़े में कहा.
कुछ दिनों के बाद रिजल्ट आ गए. मैं ठीक-ठाक सीजीपीए के साथ पास भी हो गया. लोग मुझे ज़ेबा मैडम के पसंदीदा स्टूडेंट की तरह देखते थे. और इस बात के इर्दगिर्द मज़ाक़ भी करते थे. मसलन अगर मैडम दिख न रही हों तो मेरे सहपाठी कहते उससे पूछो, उसे पता होगा.
पहला सेमेस्टर ख़त्म होने के बाद कुछ दिनों के लिए मैं घर चला गया. जनवरी में दूसरे सेमेस्टर शुरू होने पर जब तक मैंने डिपार्टमेन्ट जॉइन किया, ज़ेबा मैडम सेमिनार के लिए कोलकाता जा चुकी थीं. दसेक दिन बाद एक दिन जब मैं रीसर्च पार्लर में अपने सहपाठियों और सीनियरों के साथ बैठा था तभी ज़ेबा मैडम नज़र आती हैं. काफ़ी दिन बाद उनसे मिलने पर मुझे अजीब कशमकश का सामना करना पड़ा, जिस वजह से स्थिति थोड़ी असहज हो गई. मैडम तो जल्दी से खुलती नहीं थीं, मैं भी उस दिन ज़रा बुझा-बुझा रहा. और उस असहजता को वहाँ बैठे हर किसी शख़्स ने महसूस किया. इन्टरनेशनल पोएट्री डे पर बाद में नज़्म की शक्ल में उस जज़्बात का तर्जुमा कुछ इन अल्फ़ाज़ में किया और उसे फेसबुक पर भी साझा किया:
रिसर्च पार्लर में
मस्लहत थी, मरासिम थे कि ना आशनाई
क्या मालूम?
दरपेश वक़्त से
ज़ार ज़ार होता रहा.
ज़ेहन जो कुछ भी कम्पोज़ करे
दिल कहे कि वो ‘कन्वे’ नहीं होगा.
एक से ही सवाल सारे
इस तवक़्क़ो में कि
कुछ मुख़्तलिफ़ जवाब आये.
कातिबे वक़्त ने कुछ और
लिख रखा था उस रोज़ शायद!
कि तभी दाख़िल होती है दबे पाँव
एक सरगोशी,
रफ़ू ए चाक़ ग़रीबां का हुनर लिये
जो मरहम थी, महरम भी
और नुमाया हो जाती है
हर सिम्त एक रौशनाई!
यूं तो उन्हीं पहचानी दीवारों से होते रहे पेशतर
एक मुख़्तसर फ़ासले के बाद
मगर वो तकती रहीं हम पर
किसी हमदमे दैरीना की तरह.
नज़्म को लोगों ने काफ़ी पसंद किया. कई सहपाठियों ने अपनी वाल पर इसे साझा भी किया. अगले दिन जब मैं डिपार्टमेन्ट पहुंचा तो नज़्म की चर्चा गर्म थी. यह मेरे लिए काफ़ी चौंकाने वाला था. भले ही यह साहित्य का विभाग था. फिर भी किस डिपार्टमेन्ट में एक स्टूडेंट की लिखी कविता पर इतनी बातें होती हैं! शायद इसकी वजह थी नज़्म थोड़ी निजी किस्म थी. कुछ लोगों को शायद इसका बैकड्रॉप भी मालूम था. मेरे कुछ क्लासमेट्स ने पूछा भी कि मैंने किसके लिए यह कविता लिखी है!
“कविता कोई आत्मकथा या संस्मरण नहीं. और यह ‘किसी के लिए’ नहीं लिखी गई है. यह एक जज़्बात और वाक़ये का बयानिया है. कोई और मतलब ढूँढने के बजाय इसे एक कविता की तरह ही पढ़ना चाहिए”
मैंने ज़रा खीज़कर जवाब दिया.
डिपार्टमेन्ट के कारिडोर में ज़ेबा मैडम से सामना होता है. मिलते ही मैडम ने मुसकुराते हुए कहा-
“मैंने नज़्म का स्क्रीनशॉट ले लिया है. आराम से पढ़ूँगी. बहुत अच्छा लिखा है”
मैं उस टापिक पर बात करने से परहेज करता रहा.
फिर साल बीतते-बीतते, वसंत की विदाई होते डिपार्टमेन्ट की फ़िज़ा भी बदलने लगी.
जो कमरे का हाथी था वह बाहर दिखने लगा. जो बातें दबी ज़बान में होती थी, अब वह खुले आम होने लगीं. क्लास, कॉरीडोर, गार्डेन, डिपार्टमेन्ट, फ़ैकल्टी, कैंटीन और आसपास के कैफ़े, हर कहीं मेरे साथ ज़ेबा मैडम के नाम के चर्चे होने लगे. मैडम भी अब मुझसे मिलने से बचने लगी थीं. अगर कभी टकरा जाती तो बेहद असहज हो जाती और मैं भी हालात समझकर हौले से हेलो कहकर निकल लेता.
तभी एक वाक़या हुआ जिसने आग में घी का काम किया.
हुआ यूं कि मैडम की स्कूटी ख़राब हो गई. उन्होंने बड़ी लाचारी से मेरे तरफ़ देखकर कहा
“प्लीज़ यश, मैं किसी और से बोल भी नहीं सकती!”
“अभी जाता हूँ, मैम, ऐसी क्या बात है!”
मैंने आदेश मानने वाले भाव से कहा.
जब मैं स्कूटी बनवाकर लौटा तो मैडम क्लास में जा चुकी थीं. कुछ देर मैं डिपार्टमेन्ट के इर्दगिर्द ही घूमता रहा. कुछ देर बाद जब उन्हें चाभी वापस करने की गरज से उनके पास जैसे ही पहुंचा वह मुझ पर चिल्लाने लगीं.
“यश, तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है. यही सब गॉसिप कुक-अप करने में तुम्हें मज़ा आता है!”
जब तक मुझे माज़रा समझ आता, मैडम आपे से बाहर हो चुकी थी. मेरी एक क्लासमेट प्रियंका मुझे खींचकर दूसरी तरफ़ ले गई. काफ़ी लोग इकट्ठे हो गए थे. मेरे लिए माहौल काफ़ी अजीब हो गया था. बाद में मुझे प्रियंका ने बताया कि मेरे आने से पहले ज़ेबा मैडम की एक स्टूडेंट ने उनसे सीधे उनके और मेरे रिश्ते के बारे में पूछ लिया था जिसकी वजह से उनके सामने विचित्र स्थिति खड़ी हो गई थी. इसीलिए वह इतनी गुस्से में थीं. मुझे और भी पश्चाताप होता रहा कि मेरे वजह से उन्हें यह सब झेलना पड़ रहा. धीमे क़दमों से मैं डिपार्टमेन्ट से बाहर की तरफ़ निकाल गया.
गरमियाँ आते-आते हमारे रिश्ते में बिल्कुल सर्द-नहरी आ चुकी थी. सामना हो जाने पर किसी अजनबी की तरह एक-दूसरे के सामने से गुज़र भर जाते थे. मैंने चेक किया तो सारे सोशल मीडिया से उन्होंने मुझे अनफालो कर दिया था. यह निजी तौर पर मेरे लिए काफ़ी दिल तोड़ने वाला था. मैं ख़ुद को दिलासा देता रहा कि इस सब के बाद यह नतीजा तो भुगतना ही था.
फिर फाइनल सेमेस्टर के इम्तिहान हो गए. अनौपचारिक तौर पर हम सब डिपार्टमेन्ट से विदा हो गए. सबके सामने कॅरियर की चिंता और उधेड़बुन थी. मुझे भी अब फैसला करना था कि अब आगे क्या करना है! इसी उधेड़बुन और दुश्चिंता में गरमियाँ गुजरती रहीं. अब धीरे-धीरे हॉस्टल छोड़ने की तैयारी भी चल रही थी.
कि एक दिन आउट ऑफ ब्लू ज़ेबा मैडम का फोन आता है.
“हाँ यश, कहाँ हो? सुनो! कल मेरे पीएच.डी का फ़ाइनल वाइवा है. कल 11 बजे तुम्हें डिपार्टमेन्ट में प्रेजेंट रहना है.”
“स्योर, मैम” मेरे इतना कहने के पहले फोन कट चुका था.
अगले दिन 11 बजे के पहले ही मैं डिपार्टमेन्ट पहुँच चुका था. मैंने नोटिस किया कि मैडम ने बहुत कम लोगों को आमंत्रित किया था. उनके स्टूडेंट में से तो मुझे कोई नज़र नहीं आया. उनकी चुनिंदा गेस्ट लिस्ट में ख़ुद को पाकर मैं मन-ही-मन बेहद ख़ुश हो रहा था. मैडम अपनी बड़ी बाहों वाली ब्लाउज पर साड़ी की सिग्नेचर स्टाइल में उस दिन और भी प्रखर लग रही थीं.
उन्होंने शानदार तरीक़े से अपनी थीसिस डिफ़ेंड किया. अच्छा तो वह ख़ैर बोलती ही थीं- सलीक़े से, सधी हुई ज़बान में. अलबत्ता उस दिन तो उन्होंने चंडी वाला रौद्र-रूप धारण किया हुआ था. ऐसा मालूम होता था वह चुप ही नहीं होंगी. उनके सुपरवाइज़र और एक्जामिनर को बार-बार दख़ल देना पड़ा कि अब समापन करो. उनका वाइवा सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ. फिर खाने-पीने का कार्यक्रम शुरू हुआ जो शाम तक चलता रहा. उसके बाद मैंने अपने मेज़बान से इजाज़त लेनी चाही. तो उन्होंने ज़रा इसरार से कहा
“कहाँ जाओगे? थोड़ी देर ठहरो. साथ में निकलेंगे.” तो फिर मैं बैठ गया.
सबके विदा होते-होते शाम ढलने लगी तब मैडम ने कहा “यश, चलो चलते हैं.”
महीनों बाद स्कूटी पर उनके साथ बैठा था. मैं काफ़ी रोमांचित था. मैडम भी ख़ुशगवार मालूम पड़ रही थीं. मैडम मुझे लेकर वहीं गईं जहां हम अक्सर बैठते थे- रीवरव्यू कैफ़े.
“एक-एक प्याला चाय पीते हैं” मैडम स्कूटी खड़ी करते हुए बोली.
“दिन भर चाय ही तो पिया गया है, मैम.”
“हाँ, एक आख़िरी पीते हैं” मैडम ने आहिस्ते से कहा. तब मुझे शायद ही इस मेटाफर का मतलब समझ आया.
हम चेयर पर इत्मीनान से बैठ गए. कैफ़े की सिमिट्री और सराउंडिंग ऐसी थी कि वहाँ बैठने पर बड़ी शांति उतरती थी.
मैडम अचानक से संजीदा हो गई थीं.
“देखो यश” वह सोचने की मुद्रा में एकटक तकती रहीं-
“तुम्हें पता है- मैं कितनी कंजरवेटिव फेमिली से आती हूँ. मैं तुम्हारी टीचर हूँ और तुम्हें हमारे उम्र का फ़ासला भी मालूम है. लड़कों के लिए तो हंसी-मज़ाक़ होता है, भुगतना तो लड़कियों को पड़ता है…“
“मैं समझता हूँ, मैम” मैं इतना असहज और नर्वस था कि बामुश्किल इतना भर कह पाया. और बाक़ी मैडम चाय पीते हुए क्या कहती रहीं- मुझे कुछ याद नहीं!
कैफ़े से मैडम ने मुझे हॉस्टल ड्रॉप किया. पूरे रास्ते हम ख़ामोश रहे. ड्रॉप करने के बाद जब मैं जाने लगा तो उन्होंने पीछे से कहा “सुनो यश, अब हम फिर कभी नहीं मिलेंगे” और वह चली गईं. मैं वहीं खड़े काफ़ी देर तक सोचता रहा.
कॉलेज से पास आउट होने के बाद अब वक़्त था करियर पर फोकस करने का. उसी साल मुझे जादवपुर यूनिवर्सिटी में मुझे पीएच.डी. में दाखिला मिल गया. मैं अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर कोलकाता निकल आया. अगले साल मुझे सुरेन्द्रनाथ कॉलेज में एडहॉक पर टीचिंग पोजिशन भी मिल गई. तब तक मैं कोलकाता में रम चुका था. रहता कोलकाता में था, वहीं से 24 नॉर्थ परगना पढ़ाने जाता था. इसी तरह से दिन, महीने और साल गुज़रते रहे.
एक दिन शाम को साइंस सिटी से मेट्रो में लौट रहा था कि इंस्टाग्राम पर एक नोटिफिकेशन आया. मैंने नोटिफिकेशन देखा- मैडम ने मुझे इंस्टाग्राम पर फॉलो बैक किया था. मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था. हे भगवान! पाँच साल बाद! मैं जबड़े फाड़ कर ज़ोर-ज़ोर से मुसकुरा रहा था और मेरे सहयात्री मुझे अजीब नज़रों से घूरे जा रहे थे.
दीपांकर शिवमूर्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के शोध छात्र हैं. रचनाएँ हिन्दी और अँग्रेजी की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. ‘ऑनरेबल मेंशन’, ‘हर्षित’, ‘डू आई इक्जिस्ट’ और ‘इलहाम’ जैसी फिल्मों की पटकथा के लेखक हैं. विभिन्न वेब पोर्टल, वेबसाइट और समाचार पत्र-पत्रिकाओं मसलन ‘लल्लनटॉप’, ‘न्यूज़लांड्री’, ‘द वायर’ और ‘बीबीसी हिंदी’ में सम-सामयिक मुद्दों पर लेख और स्तम्भ भी लिखते हैं. Twitter/@DShivmurti |
Sir aap hindi mei bhi Kitni सहजता se likhte hai.
दिलचस्प भैया😊
It feels like everything is so live during reading your composition. 💐😊🙏
मासूम, सादगी से भरी और प्यारी सी कहानी…….दोनो किरदारो के मासूम से अहसासात को खूबसूरती से ब्यान किया गया।
पूर्णतया सहमत
बहुत साधारण सी कहानी है, कॉलेज के परिवेश और शिष्य -अध्यापक के रिश्ते पर इस तरह की सैकड़ों कहानियाँ लिखी जा चुकी है। ख़ैर ! लेखक के जज्बाती अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद !
Lagta hai nyee aur umda hindi kahanioN ki fasal ko boor padna shuru ho gyaa hai. Is se pahley Dr. Kishunk Guta ki kahani aur ab ki baar Mr. Dipanker Shivmoorti ki.
( Asadharan kahaniyaN padhni hoN to Jnaab Amit Dutta ya fir purane writer K.B.Vaid padh lijiye.