उम्मीद की गौरैया |
1/गर्द और तस्वीर
युवा कवि आस्तीक वाजपेयी अपने दूसरे कविता संग्रह ‘उम्मीद’ के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं- इसके पहले वे अपने पहले काव्य-संग्रह ‘थरथराहट’ पर साहित्य अकादमी से 2017 का ‘युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार’ पा चुके हैं. इन दो काव्य-संग्रहों के नामकरण से भी शायद ‘नवोदित’ से ‘युवा’ तक की यात्रा तक का संकेत उभारा जा सके किन्तु मंचीय उपस्थिति पर मंचीय टिप्पन से अधिक उसका कविताओं से कोई सम्बन्ध नहीं बन सकेगा. बहरहाल, हम गौरैया बेटी (पृष्ठ-55) पर बात करते हैं- काव्यसंग्रहों के शीर्षकों के विपरीत इस कविता का शीर्षक कविता का ही अंग है, एक अंकुश (=marker) जिसके निर्देशन में मैं कविता के भीतर आये सिन्दबाद और बग़दाद तक बाद में पहुँचा.
तस्वीर के नीचे जो ख़ाका है उसमें एक पिता घर से दूर अपनी नन्ही बच्ची की याद करता है और घर पहुँच कर पाता है कि ‘वह शक से मुझे देखती है, मैं उसे याद नहीं’ और फिर वापस दूर होने के बाद:
अपनी बेटी को याद कर रहा हूँ, समय ने मेरे बचपन
के बाद मुझसे मेरा बचपन छीनना शुरू कर दिया है.
कवि की समझाइश ख़ाके की छलनी पर गर्दा[i] बिखेरते हुए एक तसवीर उभारने की है जिस को पाठक अपनी ही समझ से समझ सकता है. Ut Picura Poesis (= जैसी कविता तैसा चित्र)- किन्तु आँख आइने से कुछ अधिक है क्योंकि उसके पीछे एक मन भी है- एक इन्द्रिय जो वस्तु को स्वाद में बदलती है.
कभी आँगन में फुदकती गौरैया हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा थी, अनाज बीनती-फटकती घरैतिनें जानती थीं कि घर में घोंसला और अन्न में चुग्गा मौजूद है. फिर माओ साहब ने बताया कि यह हक़तलफ़ी है, ज़मींदार के पास अनाज है और किसान के पास नहीं क्यों कि गौरैया अनाज छीन लेती है इसलिए अगर किसान से ज़मींदार बनना है तो गौरैया का समूल नाश करना होगा. फिर हमने अनाज में ज़हर मिलाना शुरू किया और जीते हुए गौरैया को, मरते हुए गिद्ध को, मारने लगे- गौरैया मित्र से शत्रु में बदल गयी.
बचपन से मासूमियत का एक रिश्ता स्वीकृत रहा है- बचपन से दूरी मासूमियत से दूरी है. बचपन की- चाहें तो कह लें अपने बचपन की- याद जब कवि ने जनमेजय (पृष्ठ -१३) कविता में की है तो महाभारत से उठाया गया ख़ाका यह है कि जनमेजय नागयज्ञ कर रहा है और आस्तीक यज्ञकुण्ड में गिर रहे साँपों को बचाने के लिए आया है लेकिनः
वह अब
सब हो चुका है. वह आस्तीक के ही
साँपों की असंख्य पुश्तों को मारता जनमेजय
हो चुका है. वह किसी को ख़त्म न करने
वाली ताक़त बन गया है. वह हर एक तानाशाह
बन गया है. वह हर एक शिकार बन गया है.
—
अब वह कहाँ है, कहना मुश्किल है.
‘सब होना’ जिस सर्वग्रासिता (totalitarianism) को यहाँ बता रहा है वह ऐसा वर्तमान है जिससे बाहर निकलने के सिर्फ़ दो ही रास्ते दिखते हैं- पहला, अतीत की ओर लौटने की चाहत और दूसरा, भविष्य में पैठने की उम्मीद. आस्तीक की ये कविताएँ इस चाहत और इस उम्मीद में से एक का चुनाव करते हुए दूसरे का ठुकराव करने को नहीं करतीं. इनका वास्तु एक हाइवे का नहीं जिसमें कई ट्रैक समान्तर चलते चले जाते हैं- समान्तर रेखाएँ जो आपस में कभी मिल नहीं सकतीं. समान्तर रेखाओं का न मिलना यूक्लीडियन ज्यामिति का मूलस्थ है किन्तु हम जानते हैं कि बहुत सी ग़ैर-यूक्लीडियन ज्यामितियाँ हैं जिनमें समान्तर रेखाएँ मिलती हैं और आइन्स्टाइन के बाद से यह भी मानते हैं कि विश्व की संरचना ग़ैर-यूक्लीडियन है.
ऋष्यशृंग कविता उस प्राचीन ऋषि के सहारे है जो ‘माँ का न होना पिता के सर्वत्र होने में छिपा चुका है’ और जैसा कि हमें रामायण से मालूम है, उनको इस ‘सर्वत्रता’ से बाहर निकालना ज़रूरी था ताकि उन्हें यह एहसास हो कि जिसे वे सर्वत्र समझते रहे हैं उससे अन्यत्र भी एक तत्र है जिसको अपने अत्र में मिलाये बिना वे उस एकत्र तक नहीं पहुँच सकते जिससे उन्हें वह पात्रता प्राप्त हो सके कि वे दशरथ के ‘जंगल की ख़ामोशी’ में ‘कलकल की गूँज’ पुत्रेष्टि यज्ञ के माध्यम से ले आ सकें. इस प्रकार प्रेम पाने की एक समकालीन युवक की चाहत कामना और सर्जना के उस उद्गमबिन्दु तक पहुँच जाती है जहाँ राम के अवतरण के लिए ऋष्यशृंग की भेंट अप्सराओं से कराना ज़रूरी है.
किताब खोलने पर जो पाँच कविताएँ सबसे पहले दीखती हैं उनके शीर्षक हैंः ‘जनमेजय’, ‘ऋष्यशृंग’, ‘हस्तिनापुर’, ‘द्रोण’, दुर्योधन का सत्य’. इसको कवि की ‘भारतीय परम्परा’ में रुचि से जोड़ना ठीक नहीं- आगे ‘येरुशलम’ शीर्षक से भी कविता है. समकालीन एक युवा जिसके काव्यसंग्रह का नाम उम्मीद है, की अतीत में इतनी दिलचस्पी क्या क्यों और कैसे है?
2/शहर एक सपना है
येरुशलम शीर्षक से एक कविता है जिसमें कुछ और शहर भी मौजूद हैं- वृन्दावन, बनारस, और अयोध्या जैसे शहर ‘जिनके सपने ढोना इतिहास बन्द कर चुका है- और उन्हीं के साथ येरुशलम है जो अपने को इतिहास में ही खो चुका हैः
असंख्य हत्याओं और दमन के बीच
येरुशलम जो तीन महान् धर्मों
की नींव है, कहता है
‘मैं बच्चा हूँ, मुझे खेलने दो.’
ये तीन धर्म इसीलिए ‘महान्’ हैं कि ये ‘मज़हब (= रास्ता)’ हैं. मज़हब एक कारवाँ है जिसके पास रहबर है जो फ़ैज़ साहब की तरह कहता रहता हैः चले चलो कि वो मन्ज़िल अभी नहीं आयी. इन तीन की नींव में येरुशलम- एक सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता- क्योंकि वह एक नहीं तीन-तीन इतिहासों को ढो रहा है. शहर का सपना इतिहास नहीं ढोता लेकिन शहर इतिहास को ढोता है, उनकी नींव में दबा हुआ- अपने सपने को ख़ाब-ए-संगी (=पथरीला सपना) में बदलता हुआ.
‘इच्छा’ और ‘उम्मीद’ से भी शहरों को बताया गया है- या सारे शहर इच्छा होते हैं या उम्मीद में. ‘इच्छा’ स्वरूप है, ‘उम्मीद’ आवास. होने को शायद घर चाहिए किन्तु स्वप्न अपना घर खुद बना लेता है, जागर को घर बनाने के लिए दूसरे भी चाहिए. हत्याओं और दमन के लिए दूसरों की ज़रूरत होती है- घर अपने साथ ही एक बाहर की भी सृष्टि करता है. सपनों को इच्छा या उम्मीद में से किसी एक का चुनाव करने के लिए कविता नहीं कहती किन्तु पाठक को होने और बसने के बीच फ़र्क़ करना ही पड़ेगा- होना सिर्फ़ मौजूदगी है, बसने में उजाड़ना शामिल है.
शायद सृष्टि का होना कविता इससे आ जुड़ती है- तुम हँस रही हो/मैं पहली बार जनमा हूँ. इस जनमने ने ही बाप को बेटी से यह अलापने का अवसर दिया :
वे पेड़ अब ज़्यादा सुन्दर हो गये हैं
बचपन से बाहर निकल कर बहुत खूबसूरत हो गये हैं
लोग भले हो गये हैं जितने शायद वास्तव में नहीं थे.
—-
जो हौसला भगवान ने मुझे नहीं दिया
तू मुझे दे देना.
(सुन्दरता का राग)
3/संरचना और उत्स
हम संग्रह की आखि़री कविता लेते हैं : शीर्षक है शेर दिखा. कविता पढ़ने पर पता लगता है कि शेर नहीं दिखा :
वह नहीं दिखता
मेरी कल्पना में वह सो रहा है. जंगल
के कोने में कहीं पड़ा है. पूरे जंगल में
मिल गया है, अँधेरे में, अपने होने
की उम्मीद में, अपनी नामौजूदगी में.
तो शेर का दीखना उसकी नामौजूदगी में है- दीखना एक कर्म है जिसके फल का फल-त्व वस्तुतः उसकी फल्गु-ता[ii] में है. शेर कल्पना में दीखता हैः वह गाय का, साँभर का, हिरन का, नीलगाय का, शिकार करने के लिए भूख से व्याकुल घूमता है और अन्त में बिना कोई शिकार किये खून और मांस का स्वाद अपनी जीभ पर महसूस करते हुए अकेले में सोने के लिए खा कर चला गया है- जैसी कि शेर की प्रसिद्धि है, उसका पेट एक बार भर जाय तो वह तब तक सोता ही रहता है जब तक उसे फिर भूख नहीं लगती. तो जो शेर भूख के मारे दो दिन से सोया नहीं था वह अगर आँख मूँदता है और गहरी साँस लेता है, और इस हद तक तृप्त है कि उस मैदान से बाहर हो गया है जिसमें कुछ हिरण खड़े हो करा अपनी छोटी-छोटी पूँछें हिलाते हुए घास खा रहे हैं, उसकी भूख, शिकार, और तृप्ति की सत्ता अनिर्वचनीय है- उसे लोकव्यवहार के शब्दों से नहीं बता सकते.
यह अनिर्वचनीयता ही कविता को भाषा के व्याकरण से बाहर ले जाती है और उसे संरचना (=morphe) से परे उत्स (=etymon) में स्थापित करती है. इसे ‘उम्मीद’ में सीमित करना ग़लत होगा- हाँ यह सुझा सकते हैं कि ‘हिरण’ की जगह ‘हिरन’ लिखो.
4/बिना जिस्म के मौजूदगी
संग्रह की बहुत सी कविताएँ पारिवारिक सम्बन्धों पर बुनी गयी हैं- पत्नी-बेटी-माँ-बाप पर- बिना जिस्म के उनकी मौजूदगी भव्य हो गई है (सुन्दरता का राग). इधर के कुछ कवि इन सम्बन्धों की तरफ़ मुड़े हैं और समकालीन कविता में माँ और बाप दिखायी देने लगे हैं किन्तु अधिकांश में उनकी मौजूदगी नहीं दीखती और भव्यता की जगह बेडौली उभरती है.
किन्तु उन रिश्तों की भी बात है जो याद में मौजूद हैं और या तो परिवार में नहीं बदल सके या जिनमें परिवार बनने की तमन्ना शामिल नहीं थी. तुम – वह की याद में की कुछ पंक्तियाँ हैंः
तुम किसी दूसरे के साथ हँस रही हो
—-
वह स्त्रीरिझाऊ कविताएँ लिख रहा है
एक के बाद एक.
—-
जब मैं मर रहा हूँ , तुम नृत्य, नाटक,
——
अकेलेपन के अलावा अनन्त और क्या है?
इस अकेलेपन के बर-अक्स एक और अकेलापन है जिसमें धीरज कहीं तुम तो नहीं थे (कहाँ हो तुम?). मैं इस दूसरी कविता के सम्बोध्य के पुंलिंगी और पहली कविता के सम्बोध्य के स्त्रीलिंगी होने का तिरस्कार करते हुए सोचता हूँ कि फ़िलहाल कविता किस तरह अकेलेपन को लाचारी में बदलने को विवश है. एक वक़्त थाः
है आदमी बज़ात-ए-खुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अन्जुमन समझते हैं, ख़लवत ही क्यों न हो II
(मिर्ज़ा ग़ालिब)
(मनुष्य अपने आप में ही, खयाल की उठानों का मेला है. हम एकान्त को सभा ही समझते हैं. )
कविता का यह वर्तमान क्या वस्तुतः मनुष्य के ‘सामाजिक प्राणी’ में बदल जाने की सूचना है? शायद नहीं क्योंकि इन कविताओं में बच्चे बहुतायत से हैं और समाज उनके लिए खिलौने ढूँढ़ने में लगा हुआ है :
अश्वत्थामा बच्चों को मार रहा है
बच्चों को ही जिन्दा रहना है. …
—–
हर पिता जब उसे समझ में आता है, वह पर्याप्त
खिलौना नहीं है, बच्चों के लिए खिलौने ढूँढ़ता है[iii]
जैसे पत्नी, चींटी के लिए ओस
जैसे घास, टिड्डे के लिए रास्ता
जैसे पेड़, गाय के लिए छाँव
जैसे पहाड़, याक के लिए रास्ता
जैसे आसमान, चील के लिए अदृश्य जंगल
जैसे ब्रह्माण्ड, पृथ्वी के लिए धुरी
वैसे ही पिता अपनी बेटी को देखता है, और पूछता है,
‘तुझे क्या चाहिए?’
(खिलौने)
5/और अन्ततः
शिल्प को वर्तमान समय में काव्य-रचना के भीतर बहुत स्थान नहीं है किन्तु कभी-कभार सादगी भी शिल्प बन सकती है. मुझे शेर दिखा के गद्यात्मक वाक्य अपनी रवानी के चलते आकर्षक लगे- पंक्तियाँ एक दूसरे के भीतर घुसती चली जाती हैं और एक प्रवहमान नदी महसूस होती है जो कविता के भीतर के जंगल के बीच जा बसती है. यह रवानी और जगह भी दिखती है.
लेकिन शिल्प से अलग, इन कविताओं में जो कशिश है वह है लगाव- जो इस समय कविता से बाहर करा दिया गया सा लगता है और कुछ ऐसी यान्त्रिकता हावी हो गयी है जैसे कोई बेमन से अपनी शिफ़्ट बिता रहा हो. मैं इन कविताओं के, और कवि के, आभ्यन्तर तथा बाह्य प्रयत्नों को ले कर ही नहीं, स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट और दुःस्पृष्ट प्रयत्नों को ले कर भी आशान्वित हूँ.
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सन्दर्भ
[i] पहले चित्र बनाने का एक तरीक़ा यह था कि एक ख़ाका खींचते थे जो सूक्ष्म छिद्रों का बना होता था और एक छलनी जैसी बन जाती थी. फिर ऊपर से उसमें एक कपड़े में बाँध कर सूखा रंग डालते थे जो नीचे छन कर एक दूसरे काग़ज़ पर रंगारंग तस्वीर बना देता था. इस रंग बिखेरने और छनने को ‘गर्द.’ (उच्चारण भारत में ‘गर्दा’ और ईरान में ‘गर्दे’ होता है)’ कहते थे. ग़ालिब ने एक मन्क़बत (= हज़रत अली की शान में लिखा हुआ क़सीदा) लिखी है जो हमीदिया नुस्खे में पूरी मौजूद है किन्तु प्रचलित दीवान में कुछ कटे-छँटे रूप में पायी जाती है. उसमें एक शेर हैः
हो व. सरमाय.-ए-ईजाद जहाँ गर्म-ए-ख़िराम
हर कफ़-ए-ख़ाक है वाँ गर्द.-ए-तस्वीर-ए-ज़मीं II
(हज़रत अली आविष्कृति की पूँजी हैं, वे जहाँ चलते हैं वहाँ उनकी चरण-रज का प्रत्येक अंश ‘गर्दा’ है जो छन कर एक पृथिवी की तसवीर खींच देता है. )
‘गर्द.’ शब्द की तरफ़ ध्यान न जाने के कारण प्रायः दीवान-ए-ग़ालिब के संस्करणों में यह ‘गिर्द. (= गोलाई) छपता है.
[ii] ‘फल’ का यह अर्थ भगवत्पाद ने श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में दिया है; ‘फल्गु’ एक नदी का नाम है जो गया जी में पायी जाती है और जिसकी विशेषता यह है कि उसमें जल नहीं है- इसलिए किसी भी व्यर्थ वस्तु को ‘फल्गु’ कहते हैं.
[iii] इस पंक्ति के अन्त में एक पूर्णविराम है जिसे मैंने हटा दिया क्योंकि मेरे विचार में पंक्ति को यहाँ रुकना नहीं चाहिए.
वागीश शुक्ल
हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी वाङ्मय के गहरे और गम्भीर अध्येता, आलोचक और अनुवादक वागीश शुक्ल (जन्म : १९४६, उत्तर प्रदेश) भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली से सेवा-निवृत्त होकर इन दिनों बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रह रहें हैं. साहित्य के मूलभूत प्रश्नों पर आधारित वैचारिक निबन्धों का संग्रह ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं’ तथा निराला की सुदीर्घ कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की टीका ‘छन्द-छन्द पर कुमकुम’ प्रकाशित. गालिब के लगभग पूरे साहित्य की विस्तृत टीका पर कार्य जारी. अभी-अभी चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म शीर्षक से आलेखों का संग्रह प्रकाशित.
wagishs@yahoo.com
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“उम्मीद” कविता संग्रह अभी तक पढ़ा नही किन्तु इस सारगर्भित समीक्षा के बाद उसे पढ़ने की इच्छा जन्म ले चुकी है। वागीश जी जैसा मूर्धन्य जब किसी कृति पर बात करता है तो उसके मायने होते हैं, कविता को बिना आत्मसात किए कोई उसकी व्याख्या कर ही नही सकता, वागीश जी ने कविता को आत्मीय परिसर में बो कर, उसे पल्लवित कर, उसके अर्थ को ग्रहण किया है। यह सुखद है और कविता के लिए भी उम्मीद की तरह है।
वाह, वागीश शुक्ल जैसे मूर्धन्य आलोचक हमेशा ही आपको चमत्कृत करते हैं। कृति को नई तरह से पढ़ने को आमन्त्रित करते हैं।
वागीश जी को पढ़ना रुचिकर है। वे कविता पर गहरे संदर्भों और नितान्त तत्त्व-मीमांसक दृष्टि के साथ बात करते हैं। Consistency तो उनके लेखन में देखते ही बनती है। साधु-साधु।
अच्छी समीक्षा कविता संग्रह पढ़ने को प्रेरित कर रही है।
सुन्दर ।