गगन गिल की पाँच कविताएँ
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यही घूँट काफी है
यही घूँट काफी है
उतरती जाती है
बूँद सीढ़ियां
अंधेरी गली में
जाने कहाँ से चली यह
किस समुंदर
किस कुएं से
कभी बादल में गयी होगी
कभी पेड़ की जड़ में
कभी आँख में अटकी होगी
कभी प्रार्थना की अंजुली में
रोक दिया होगा इसने कभी
खाँसते मरीज़ की
सांस का रास्ता
अब यह उतरती जाती है
इस कण्ठ की
सीलन में
यही घूँट काफी है
अभी खत्म नहीं हुआ
इसका सफर
अभी इसे जाना है
इस देह के रक्त में
सींचना है
इसका अंतहीन
फैलना है बन कर
अंधेरे में जीवन
कभी बनना है
इसके छोटे से दुख का भाप
कभी अटकना है
किसी दरार में
भर्राकर
यह देह भी नहीं
इसका अंतिम ठौर
इसके बाद
कोई और मिट्टी
कोई और सूरज
कोई और धमनी
न यह इसका अंत
न शुरू
यही घूँट काफी है
कोई रख रहा है पटरियाँ
कोई बना रहा है तुम्हारी प्रतिमा
खींच रहा है रेखाएं
पीड़ा की
तुम्हारे मांस में
थपथपा रहा है
गीली मिट्टी
तुम्हारे चेहरे पर
पटरियां ये अदृश्य
इन्हीं पर चलना है
जीवन भर तुम्हें
मत करो गीला
इस मिट्टी को
रोज़ रोज़ लौटते
किसी बादल से
कोई उकेर रहा है तुम्हारी हड्डी
लिख रहा है अपनी लिपि
तुम्हारे माथे पर
दर्ज कर रहा है
तुम्हारा खाता
सफेद स्याह
बार-बार उछलो मत
वेदन से
हथौड़ी लग गयी जो
उसकी उंगली पर?
सुखा रहा है
तुम्हारी मिट्टी कोई
अंदर से बाहर तक
धूप में
छाया में
सिर्फ उसी को पता है
कितनी गर्म होनी चाहिए
तुम्हारी भट्ठी
कितना वह तपाये तुम्हें
कितने समय तक
कि बर्तन से तुम्हारे फिर
न भाप रिसे
न जल
एक दिन
वह लिपि
निकलेगी
राख में से बाहर
अनजान कोई हाथ
समेटेगा तुम्हारी अस्थियां
देखेगा
वह लिखावट
मछलियां कुतरेंगी तुम्हें
सूरज चमकेगा
जल के ऊपर
अभी तुम
न ऊपर
न नीचे
सिहरो मत
करने दो उसे
अपना काम
देखने दो
मूरत कोई
अब भी
बनी कि नहीं
गुज़र जाने दो
मुख पर से अपने
काल का घोड़ा
हिलो मत
कोई रख रहा है
रेल की पटरियाँ
तुम्हारे चेहरे पर
दिन के दुख अलग थे
दिन के दुख अलग थे
रात के अलग
दिन में उन्हें
छिपाना पड़ता था
रात में उनसे छिपना
बाढ़ की तरह
अचानक आ जाते वे
पूनम हो या अमावस
उसके बाद सिर्फ
एक ढेर कूड़े का
किनारे पर
अनलिखी मैली पर्ची
देहरी पर
उसी से पता चलता
आज आये थे वे
खुशी होती
बच गए बाल- बाल आज
रातों के दुख मगर
अलग थे
बचना उनसे आसान न था
उन्हें सब पता था
भाग कर कहाँ जायेगा
जायेगा भी तो
यहीं मिलेगा
बिस्तर पर
सोया हुआ शिकार
न कहीं दलदल
न धँसती जाती कोई आवाज़
नींद में
पता भी न चलता
किसने खींच लिया पाताल में
सोया पैर
किसने सोख ली
सारी सांस
कौन कुचल गया
सोया हुआ दिल
दुख जो कोंचते थे
दिन में
वे रात मेँ नहीं
जो रात को रुलाते
वे दिन में नहीं
इस तरह लगती थी घात
दिन रात
सीने पर
पिघलती थी शिला एक
ढीला होता था
जबड़ा
पीड़ा में अकड़ा
दिन गया नहीं
कि आ जाती थी रात
आ जाते थे
शिकारी
मुझे यदि पता होता
मुझे यदि पता होता
क्या करना है
इस दिन का
ये दिन
तुम्हारे न-होने का
अंधी आँख जैसा
सफेद दिन
मुझे यदि पता होता
कैसे रोकनी है यह घड़ी
रक्त में
करती टिकटिक
दही जमाती
मेरे सिर में
मालूम होता यदि
कैसे मोड़नी है पत्तल
सूखी देह की
इस पत्ती की
कहीं मिल जाता
यदि जल
पहुँच जाता
समय रहते
इसके पास
जल यदि टिका रहता
अपनी जगह
थोड़ी देर और
उतरता न जाता
नीचे और नीचे
धरती में
आत्मा सुन लेती
मेरी बात
यदि थोड़ी देर और
प्रार्थना ले आती
कहीं से
मामूली कोई शान्ति
नोंचती न मैं यदि
ये हृदय
अपने पंजों से
उछालती न इसे
कभी हवा
कभी समुंदर में
पहुँच पाती मैं यदि
किनारे तक
लहर के दबोचने
रात घिरने से पहले
मुझे यदि
पता होता
कैसे गुज़ारना है ये दिन
ये दिन तुम्हारे न-होने का
थोड़ी देर
तुम्हारे इस ठंडे पड़े दिल में
थोड़ी देर सो जाऊँ?
बाहर विलाप है
मूर्च्छा है
भीड़ का तमाशा है
मेरे कपड़ों में आग है
यहाँ अंधेरे किसी कोने में
थोड़ी देर छिप जाऊँ?
वे मुझे चीरेंगे, गोदेंगे
हवा में लहरायेंगे
धड़ कभी सिर
बिना बहाये रक्त एक बूँद
करेंगे मुझे कभी ज़िंदा
कभी मुर्दा
जादुई इस सन्दूक में
थोड़ी देर लेट जाऊँ?
तुम्हारे दिल की ठंडी इस ज़मीन पर
थोड़ी देर सो जाऊँ?
गगन गिल 18 नवम्बर 1959 कविता संग्रह : एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक (2003) यात्रा वृत्तांत : अवाक संपादन : प्रिय राम (प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा द्वारा प्रख्यात चित्रकार-कथाकार रामकुमार को लिखे गए पत्रों का संकलन), ए जर्नी विदिन (वढेरा आर्ट गैलरी द्वारा प्रकाशित चित्रकार रामकुमार पर केंद्रित पुस्तक – 1996 ), न्यू वीमेन राइटिंग इन हिंदी (हार्पर कॉलिंस – 1995), लगभग ग्यारह साल तक टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप और संडे आब्जर्वर में साहित्य संपादन सम्मान ई-मेल : gagangill791@hotmail.com |
विष्णु खरे
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और मुझ पर अब भी आरोप और लांछन लगते हैं कि मैंने कभी कवयित्री के संदर्भ में केवल महादेवी का स्मरण किया था.इस इक्कीसवीं सदी में महादेवी गगन सरीखी न होतीं तो क्या होतीं ? भारतीय औरत का ख़ालिस दुःख तो मुझे और कहीं दिखाई-सुनाई नहीं देता.