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समालोचन

Home » गांधी और सरलादेवी चौधरानी के बहाने कुछ उठते सवाल: रूबल

गांधी और सरलादेवी चौधरानी के बहाने कुछ उठते सवाल: रूबल

महत्वपूर्ण उपन्यासकार अलका सरावगी का नया उपन्यास ‘गाँधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय’ अपने प्रकाशन से ही चर्चा का विषय बना हुआ है, कुछ अच्छी समीक्षाएं सामने आईं हैं. आधुनिक भारत के केन्द्रीय व्यक्तित्व गांधी से सम्बन्धित होने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है. अभी भी इसके बहुत से ऐसे आयाम ऐसे हैं जिनपर संवाद की दरकार है. कृति अपनी सार्थकता समकालीन विमर्श में हस्तक्षेप के लिए प्रेरित करके भी पाती है. रूबल समाज विज्ञान की गम्भीर अध्येता हैं. हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती हैं और इधर गांधी चिंतन में स्त्री दृष्टि पर कार्य कर रहीं हैं. इस उपन्यास पर उनके इस आलेख से उनकी तीक्ष्ण आलोचना-दृष्टि का पता चलता है. यह आलेख संवाद के लिए आमंत्रित करता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
April 9, 2023
in आलेख
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गांधी और सरलादेवी चौधरानी के बहाने कुछ उठते सवाल: रूबल
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गांधी और सरलादेवी चौधरानी के बहाने कुछ उठते सवाल
रूबल

जब हम किसी ऐतिहासिक चरित्र से संबद्ध किसी औपन्यासिक कृति को पढ़ते हैं तो हमारे सामने ऐतिहासिक साक्ष्य और गल्प की काल्पनिकता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठता है. यह जानते हुए भी कि कल्पनाशीलता का चयन गल्पकार की स्वायत्तता का विषय है बावजूद इसके चरित्र की ऐतिहासिकता उसमें बाधा डालती है. ऐसे में कृति को न सिर्फ लिखना चुनौतीपूर्ण हो उठता है बल्कि उसका पाठ भी कठिन विश्लेषण की मांग करता है.  इस विश्लेषण के कई पहलू हो सकते हैं.

सबसे पहले तो यह स्वायत्तता का सवाल बन कर लेखक और पाठक दोनों के सामने खड़ा होता है. साहित्य के क्षेत्र में  इतिहास के प्रति जवाबदेही उस साहित्यिक कृति के ऊपर प्रश्न खड़े कर सकने में सक्षम हो जाती है, जिसे साहित्यिक औपन्यासिकता से छिपाने का प्रयत्न किया गया हो. यहां छिपाने से आशय उस गल्प के शाब्दिक अर्थ और मंतव्य से है जिसमें कोई भी लेखक अपने रचे हुए को किसी भी परीक्षण की परिधि में सिर्फ इसीलिए नहीं रखने के तर्क गढ़ता है क्योंकि वह गल्पीय रचनात्मकता का एक स्वरूप  है. ऐसे में लेखक के  अनुसार रचना का कोई भी आयाम  किसी भी वेक्टर या तत्व के ऊपर निर्भर नहीं हैं, जो  दिक् और काल की अवधारणा से प्रेरित होता है. वहीं पाठक के सामने दो समानांतर पाठ, एक साथ प्रस्तुत होते हैं, जिसमें ऐतिहासिकता का द्वन्द्व कल्पना से मिलकर एक अंतर्विरोध का पाठ तैयार करता है. इस अन्तर्विरोध के कारण पाठक के लिए इस प्रकार की रचना का पाठ किसी निश्चित विधि से संचालित नहीं हो सकता है, जैसी लेखक ने अपने लिए चुनी है. शायद इसी कारण से किसी भी  कृति का पाठ, एकायामी नहीं हो सकता  है.

डायना वैलेस की माने तो ऐतिहासिक उपन्यास के माध्यम से दो समय, एवं दो विधाओं (साहित्य और इतिहास ) में पारगमन होता है. इस आवाजाही में लेखक की रचना के स्वर पर प्रभाव सिर्फ लेखक के वर्तमान तक ही सीमित नहीं होता बल्कि इनके आरोह अवरोह की संधि दूर दिखते उस इतिहास की धुरी से भी अपनी गति पा रही होती  है, जो बार-बार लेखक से उसकी रचना की कल्पित उड़ान को धीरे और धीरे करने की मनुहार करने लगती है. इस मनुहार को जिस लेखक ने अपनी रचना की सीमा समझ उसके प्रति जितनी सचेतनता दिखाई होती है, उनकी रचना उतने ही शाब्दिक अर्थों में ऐतिहासिक साहित्य के संदर्भ में सटीक उतरती है.

अलका सरावगी का उपन्यास गांधी और सरलादेवी कुछ ऐसे ही इतिहास और कल्पना का सहमेल है, जिसमें इतिहास के दो चरित्र गांधी और सरलादेवी  लेखिका  के माध्यम से साहित्य में उभरते हैं. इनका साहित्यिक चित्रण संबंधों के परिदृश्य में करना उपन्यासकार का अपना चुनाव है. अब इस उभार में कितनी ऐतिहासिक अवस्थिति तथा कितना उपन्यासकार के दृष्टिकोण का सहमेल है– यहां इस तथ्य को परखने की कोशिश की गयी है.

 

ऐतिहासिकता का दृष्टिकोण

किसी भी ऐतिहासिक संदर्भ को आधार बनाकर रची गई साहित्यिक कृति से जिस बात की न्यूनतम अपेक्षा की जाती है वह यह कि लेखक को उसमें बुने गए ऐतिहासिक तथ्यों (हालांकि तथ्यों जैसे कहलाने वाले कारक किसी भी इतिहासकार के लिए उस विशिष्ट समय की हलचलों में से उसके अपने चुनाव से ज्यादा कुछ महत्व नहीं रखता है) की समुचित और सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिए.

उनका यह जानना बेहद जरूरी है कि जिन चरित्रों  और घटनाओं को लेकर इतिहास की परिकल्पना की जा रही है उसमें बिताए गए हर क्षण को किस प्रकार उस कृति के लिखने तक दस्तावेज़ में रखा गया है. यहां उससे साहित्यकार का भेद और मतभेद एक अलग विषय हो सकता है. लेकिन बिना संपूर्ण अनुसंधान किए बीते समय के किसी भी हिस्से को वर्तमान में प्रस्तुत करने की कोई भी कोशिश चाहे कितनी भी ईमानदारी से क्यों न सोची गई हो, उसे रचना के रूप में आकार देना उसके अधूरे रूप को प्रतिष्ठित कर देने जैसा है.

अलका सरावगी

चूंकि अलका सरावगी ने अपने इस उपन्यास में गांधी और सरलादेवी के बीच के संबंधों को अपना आधार बनाया है इस आधार का मुख्य और सबसे महत्वपूर्ण सिरा इन दोनों  के बीच हुए पत्राचार माने जा सकते हैं, जिसे लेखिका ने उपसंहार में दर्ज करते हुए कहा भी है कि गांधी के सरला को लिखे अस्सी से ज्यादा पत्र उपलब्ध हैं, लेकिन सरला के गांधी को लिखे सिर्फ चार पांच पत्र ही बचे हैं. इसका कारण कुछ पत्रों का नष्ट होना बताया जाता है. ऐसे में यहां दो बात प्रमुखता से कही जा सकती है. पहली, तो यह कि जो पत्र अभी तक मिले हैं वे  इतिहासकारों के अनुसार किसी भी निष्कर्ष का अनुसरण पूर्ण रूप से नहीं कर सकते हैं क्योंकि दूसरे पत्रों के सन्दर्भ में, जिन्हें अभी तक खोया (या नष्ट) हुआ माना जा रहा है, उनमें से कुछ भी मिलने से स्थापित अवधारणा पर असर पड़ सकता है.

गेराल्डिन फोर्ब्स की मानें तो इतिहासकार ये मान बैठे थे कि गांधी के सरला को लिखे पत्र “देसाई” और “गांधी के संग्रहित कार्यों” में ही रह गए हैं और सरला के पत्र पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं, लेकिन दीपक चौधरी ( जोकि सरलादेवी के पुत्र हैं) के दिए हुए पत्रों, (DC कलेक्शन) और सरलादेवी के पांच पत्रों ने इस तरह की मान्यता को चुनौती देने का कार्य किया है. (गेराल्डिन फोर्ब्स . लॉस्ट लेटर्स एंड फेमिनिस्ट हिस्ट्री  p .145).

जिस प्रकार दीपक के द्वारा सामने लाए गए पत्रों से  गांधी और सरलादेवी के सम्बन्ध को और गहराई से देखने की महत्वपूर्ण कड़ी मिली है, ऐसी सम्भावना तो बनी रहेगी ही कि अगर कभी ऐसे ही नष्ट माने गए पत्र सामने आ जाते हैं तो यह माना जायेगा कि यह उपन्यास ऐतिहासिक घटनाओं की अधूरी जानकारी के प्रभाव में रचा गया है, जिसे उपन्यासकार ने विषय का चुनाव करते हुए शायद महत्वपूर्ण नहीं माना.

यहाँ प्रश्न पूछा जा सकता है कि जिन साक्ष्यों के आधार पर गांधी और सरलादेवी के संबंधों पर प्रकाश डाला गया है, वहां गांधी के पत्रों के साथ में अगर सरलादेवी के कुल चार-पांच पत्र ही थे, तो क्या यह कहना गलत नहीं होगा कि उपन्यासकार ने उन पत्रों की कल्पना को वर्तमान से जोड़कर देखने का जो आदर्श रचा क्या वह उन्नीस सौ बीस के गांधी के पत्रों के जैसे साक्ष्य बन पाता है ?

जो दूसरी बात इसी संदर्भ में कही जा सकती है कि कई बार ऐतिहासिक उपन्यास में गल्प की शैली को लेखक इतना उदार मानने लगते हैं कि इतिहास में हुई किसी भी घटना को निर्णायक अवधारणा में तबदील कर देते हैं. डायना वैलेस की माने तो इससे बचने के लिए  लेखक को अपने उपन्यास के किसी भी हिस्से में इतिहास में स्थापित तथ्य व इतिहास की  उन सभी घटनाओं की जानकारी अपने पाठकों को दे देनी चाहिए जिससे इस बात का पता लगाया जा सके कि क्या तथ्य के रूप में लिखा गया है और किसकी कल्पना की गयी है.

यह शायद एक खुला सिरा हो सकता है, किसी ऐतिहासिक बुनियाद को साहित्यिक अर्थों में समझने के लिए, जहां से पाठक लेखक के आग्रह से नहीं अपनी समझ से इतिहास की परिकल्पना कर सकता  है. यहाँ किसी निष्कर्ष या अंतिम बात कहने की कोई जल्दी नहीं होती है.

लेकिन इस उपन्यास को पढ़ने के बाद आपके मन में किसी भी प्रकार के अंतर्विरोध की गुंजाइश शायद ही बचे. यहाँ  एक सीमित व  सपाट निष्कर्ष दिखाई देता है.  स्त्री के रूप में सरला का पक्ष कमतर और दोयम दर्जे का  है. गांधी ने उन्हें अपनी आध्यात्मिक पत्नी का दर्जा भी दिया और फिर अचानक उन्हें अपने जीवन से निकाल फेंका. यहाँ गांधी का चरित्र बहुत ही उलझा हुआ और पुरुषवादी वर्चस्व में डूबा हुआ दिखाई देता है. उपन्यासकार ने इस प्रकार की  धारणा को लक्ष्य कर आखिर  में यह साबित भी कर  दिया कि गांधी ने अपनी आत्मकथा में सरलादेवी के साथ अपने भावनात्मक सम्बन्ध का कोई जिक्र नहीं किया है  (p.213). इसका तो अर्थ यह निकला कि लेखिका के अनुसार यह गांधी का एक ऐसा छुपा हुआ राज है, जिसे सामने लाना गांधी को उचित नहीं लगा होगा.

असल में किसी भी भावनात्मक संबंध को गांधी के सन्दर्भ में इस प्रकार से समझने में यह उपन्यासकार की चूक मानी जा सकती है. गांधी के लिए नैतिकता और प्रेम का रिश्ता इस तरह से कभी संदर्भित नहीं हुआ, और इसे अपने उपन्यास में इस प्रकार से चित्रित करने में अलका सरावगी की दृष्टि  में विस्तार की अपेक्षा थी. वह अनुभवी उपन्यासकार हैं.

जरूरी बात यह है कि व्यक्ति के मूल्यांकन  के लिए दृष्टि का एकायामी होना भविष्य की हर संभावनाओं पर गंभीर प्रभाव डाल सकता है, जो ऐतिहासिक उपन्यासों के लिए एक चुनौती है. यहाँ  इतिहास के किसी भी पात्र को उसकी  ऐतिहासिक सम्पूर्णता में न देखना एक बड़ी समस्या है जो उपन्यास और इतिहास के अंतर्संबंधों पर गंभीरता से विचार करने की मांग करता है. उपन्यासकार ने गांधी और सरलादेवी को उनके राजनीतिक परिदृश्य से जोड़ कर न देखने के क्रम में बहुत सी बातों को नजरंदाज कर  दिया है. साथ ही यह जानना बेहद दिलचस्प भी है कि कैसे उपन्यासकार ने इन संवादों और लेखन को दो राजनीतिक मित्रों या राष्ट्रवाद के प्रति संवेदनशील मनुष्यों से हटकर देखने की दृष्टि अर्जित की. एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्यों  उपन्यासकार ने इन दो राजनीतिक व्यक्तित्वों के संवादों को गैर राजनीतिक बनाये रखना चाहा है ?

 

प्रेम की आदर्श परिकल्पना

महात्मा गांधी और स्त्रियों के साथ उनके संबंधों को समझने के प्रयत्न में जो विचार सबसे प्रमुख रूप से सामने आता है वह यह है कि गांधी के दक्षिण अफ्रीका से वापिस आने के बाद भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों की भागीदारी बड़ी मात्रा में बढ़ी साथ ही गांधी ने स्त्रियों को उनके स्त्रियोचित चरित्र के साथ राष्ट्रीय आंदोलन में जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया.

इस स्त्रियोचित चरित्र का व्यवहार और सीमाएं हमेशा से ही स्त्री विमर्शकारों के लिए चर्चा का विषय रहे हैं. अलका सरावगी का यह उपन्यास इसी स्त्रियोचित छवि के अंतर्विरोधों में लिपटे एक ऐसे  ही संबंध का पुनर्निर्माण करता है. हालाँकि इस उपन्यास के समय का केंद्र बीसवीं सदी के ब्रिटिश  भारत का बहुत छोटा सा ही हिस्सा है, लेकिन बिना किसी पूर्व राजनीतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ के बगैर इस उपन्यास में आये किसी भी चरित्र और उनके संबंधों का आधार जानना एक अधूरा कार्य जैसा ही होगा. इस अधूरेपन का खामियाजा सबसे ज्यादा उस स्त्री को चुकाना पड़ेगा जिसे संबंधों के बंधन में उपन्यासकार ने यहाँ दिखाने की कोशिश की है. इसके पीछे उपन्यासकार का कोई निश्चित मकसद या दृष्टिकोण सामने नहीं आता सिवाय प्रेम को सामाजिकता और राजनीतिक बहसो-विवादों से दूर रखने की भोली और अबूझ कोशिश के.

इस बात की पुष्टि इस बात से भी की जा सकती है कि गांधी के स्त्रियों के साथ संबंधों को लेकर लिखे गए, किसी भी कृति को आमतौर पर ऐसे देखा जाता है कि क्या गांधी ने उनके साथ भी न्याय नहीं किया ? क्या उन्हें भी गांधी की जिद्द और दृष्टि के सामने झुकना पड़ा? ऐसी बातें  गैर जरूरी और संदर्भ से बाहर लग सकती हैं पर इस तरह की प्रतिक्रिया या शंका को भारत में एक नहीं कई-कई लोग साथ लिए फिरते हैं.

इसका एक बड़ा कारण गांधी के निजी जीवन को लेकर एक रहस्य बरकरार रखने की प्रवृत्ति है,  जिसका श्रेय बुद्धिजीवियों को जाता है. गांधी मनुष्य के तौर पर स्त्रियों के लिए क्या थे, या क्या हो सकते थे यह बिना पढ़े, या बिना ऐतिहासिक सामग्री को समझे हम कैसे बता सकते हैं? क्यों गांधी के संदर्भ में उनके इस पक्ष पर संवाद उपेक्षित रखा जाता है? गांधी के  निजी संबंधों को खासकर उनके जीवन में आईं स्त्रियों को लेकर हमेशा से एक एकांगी झुकाव रहा है. विद्वान गांधी के  स्त्रियों के साथ किसी भी प्रकार के संबंधों पर बात करने से कतराते हैं, जैसे इससे किसी आदर्श समाज और व्यक्तित्व का हनन होता हो. और अगर कभी इस विषय पर बात भी की गयी तो ज्यादातर अतिरेक में देखने की सम्भावना को ही बल मिला, जहाँ एक ओर गांधी अपनी यौनिकता से जूझते एक कामुक व्यक्ति रहे तो दूसरी ओर एक संत महात्मा जिन्होंने हर वह प्रयास किए जिससे वह साधारण मनुष्य के लोभ लालच से स्वयं को मुक्त कर सकें.

इस उपन्यास ने इस तरह के अतिरेकी झुकाव को एक कदम और आगे ही बढ़ाया है. अगर आप इस उपन्यास के बारह अध्याय के शीर्षक पर ध्यान दें तो आप इन्हें कुछ इस तरह देख सकते हैं, जहाँ “आपकी हंसी तो इस देश की सम्पदा है” “तुम सचमुच शक्ति हो, सरला!”  “तुम गांधी का तोता बन गयी हो,सरला!”  “अब तुम्हारे बिना मेरा काम नहीं चल सकता !”

बहुत साफ है कि अलका सरावगी ने स्त्री पुरुष के संबंधों को पारम्परिक रूप से स्थापित  प्रेमी–प्रेमिका की कोटि  से बाहर ले जाने की कोई हिम्मत नहीं दिखाई है. वर्षों से रटे हुए स्त्री पुरुष के सम्बन्ध जहाँ पुरुष ताकतवर रहता है और स्त्री को अपने प्रेम में विक्षिप्त कर देने  की सामर्थ्य रखता है, वही लेखिका का केंद्र रहा.

यहाँ प्रश्न यह भी उठता है कि क्यों लेखिका को गांधी के संबोधन सरला के एक  प्रेमी के लिखे जैसे ही दिखते हैं, जिसका प्रेम स्त्री को कभी बौद्धिक तो कभी आध्यात्मिक रूप से अपना बनाने को लेकर चिंतित हो. संबोधन के प्रति लेखिका के इस आग्रह को, ऐतिहासिक दृष्टव्य की बेहद जरूरत है, जहाँ गांधी अपने सभी साथियों से इस प्रकार से ही संवाद में रहे हैं, और अगर उपन्यासकार को यहाँ सरला के रूप में स्त्री को लिखे पत्रों में ही प्रेम का आदर्श ढूँढना था, तब तो मुझे लगता है कि गांधी अपने सभी स्त्री मित्रों के प्रेमी स्थापित हो सकते हैं क्योंकि गांधी के अपने सभी स्त्री पुरुष साथियों को लिखे पत्र इन्हीं तरह के शब्दों व संबोधन से पटे हुए है. गांधी के प्रेम की परिकल्पना में स्त्री पुरुष का कोई भेद नहीं था. लेकिन जो प्रेम यहाँ उपन्यासकार ने समझ कर उसे सरला और गांधी के बीच स्थापित करने की कोशिश की है वह सिर्फ प्रेम का एक रूप हो सकता है.

स्त्री और पुरुष के संबंधों को गांधी के प्रेम की अवधारणा के साथ समझना शायद एक बड़ा मुश्किल कार्य भी है. उपन्यासकार  ने इसे इतना सपाट परिदृश्य दे दिया है कि प्रेम और उसकी नैतिक परिकल्पना में किसी भी अंतर्विरोध की जगह लगभग समाप्त हो गयी है. ऐसा भी नहीं है कि लेखिका ने इन अंतर्विरोधों  को देखा या महसूस नहीं किया है. अपने एक पत्र में गांधी ने सरला को “मेरी प्यारी बहन” लिखकर उसे संबोधित किया है (p.118). ऐसे कई दूसरी जगह भी इस प्रकार के कथ्य का प्रयोग किया गया है. जिसे उपन्यासकार ने अपने कथ्य में रखा है .

असल में बात यहाँ न बहन की है, न ही पत्नी की. गांधी की नैतिक शब्दावली किसी भी सामाजिक संबंधों से अर्थ नहीं पाती है. उनके लिए उनके पुरुष मित्र भी प्रेमी समान थे, और अपनी विवाहिता पत्नी भी बहन के समान. साथ ही गांधी के लिए सरला ही एकमात्र स्त्री नहीं थीं जिसे वह प्रिय कहकर संबोधित करते थे. प्रेम के उदात्त रूप को स्त्री पुरुष के मध्य होने से ही अफेयर या रोमांस में तब्दील करना एक गंभीर वैचारिक समस्या है जिसे इस उपन्यास ने और अधिक जटिल बना दिया है.

 

स्त्री विमर्श में सरला देवी कहाँ हैं?

पार्थ चटर्जी और गेराल्डिन फोर्ब्स ने एक जैसी ही बात कही है कि इतिहास लेखन में स्त्रियों को लगातार विस्मृत किया गया है, इसीलिए स्त्रियों को विस्मृत किए गए अंधकार से वर्तमान के प्रकाश में लाने का बहुत महत्वपूर्ण साधन स्त्रियों द्वारा लिखित हर वह रचना, कृति हो सकती है जो स्त्रियों ने अपने जीवन के क्रम में समझ-बूझते या सिर्फ जाने-अनजाने ही रची हो. इनमें डायरियां, तस्वीरें, आत्मकथा या कुछ भी छोटी सी छोटी चीज शामिल की जा सकती हैं.

इस दृष्टि से अलका सरावगी का यह उपन्यास एक उत्कृष्ट चयन के लिए बधाई का पात्र है. उपन्यासकार ने सरलादेवी को जो कि इतिहास में कहीं बहुत पीछे छोड़ दी गयीं थीं , हमें उनसे मिलवाया है. साथ ही सरलादेवी के माध्यम से बहुत सारे उन उलझे तारों को जोड़ने की कोशिश भी की है जो इतिहास में इतने गंभीर ढंग से उलझ चुके हैं, जिन्हें सुलझाने के श्रम से बचाने के लिए उन्हें इतिहास की रूढ़ प्रतीकात्मकता से छुपा दिया गया है. उपन्यासकार ने कुछ मुश्किल सवालों को ढूंढने का प्रयास भी इसी दिशा में  किया है. जहाँ स्त्रियों को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से लोहा लेते हुए किसी पुरुष के संरक्षण में रहने की एक धारणा को ध्वस्त करने की कोशिश की गयी है .

ऐसे में अगर सरलादेवी के चरित्र को इतिहास से वर्तमान  में लाने की एक सुखद  सम्भावना बनी थी तो अलका सरावगी ने इसे उनके संक्षिप्त आयामों (यहाँ उनकी मुख्य तौर पर आत्मकथा और पत्राचार ) में ही इसे बांध दिया है. इस तरह किसी व्यक्ति के आत्म को रचने में यह एक अधूरी खोज ही मानी जाएगी.

किसी स्त्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के मूल्यांकन  के लिए अगर सरलादेवी को अलका सरावगी इतिहास से निकाल कर सरला के ही रूप में लातीं, तो एक अलग और बेहतर आयाम बन सकता था. फिर उन्हें सरलादेवी  के समय की हर उस घटना, हर उस व्यक्ति के साथ सरलादेवी को  संदर्भित करना पड़ता जिससे उनका संदर्भ और ज्यादा विस्तृत हो जाता. ऐसे में सरलादेवी सही मायनों में वर्तमान में अपने पूरे वजूद के साथ आ पातीं. उस नैरेटिव में गांधी जरूर  होते पर सिर्फ  गांधी ही नहीं होते.

यह उपन्यास सरलादेवी की सम्पूर्णता को बहुत सीमित व सामान्य कर देता है. लेखिका ने गांधी के साथ सरलादेवी को बांध दिया, और शायद एक बेहतरीन मौका गंवा दिया जब वाकई लेखिका सरलादेवी के आत्म और उनके धधकते व्यक्तित्व से हमें  मिला सकती थीं.

इस उपन्यास में सरलादेवी ही एकमात्र चरित्र नहीं हैं, एक अहम चरित्र  महात्मा गांधी का भी है. ऐसे में जैसे-जैसे आप उपन्यास में गहरे उतरते जायेंगे वैसे ही उपन्यास का स्वर गांधी और सरलादेवी के “और” शब्द के अर्थ विन्यास में  “बरक्स” के ज्यादा करीब प्रतीत होता जाता  है. जहाँ एक स्त्री प्रेम में एक पुरुष के आगे निरीह खड़ी है और पुरुष उस सम्बन्ध में ताकत के उच्च पायदान पर खड़ा है.

यहाँ एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि उपन्यासकार को सरला की आवाज़ गांधी के रास्ते ही  क्यों सुनाई पड़ी?   क्यों उनका मूल्यांकन किसी के साथ या किसी के बरक्स रखकर करना पड़ा ? क्या संबंधों के इस तरह के द्वैत से किसी स्त्री के भीतरी जगत की थाह ली जा सकती है ? गौर से देखें तो गांधी से जुड़े किसी भी उपन्यास में जाने अनजाने गांधी ही मुख्य भूमिका में आ जाते हैं. जहाँ वह प्रेमी हैं, कहीं पारिवारिक जिम्मेदारियों से आँख मिचौनी करते पति, कहीं कठोर  मार्गदर्शक हैं, तो कहीं मन और तन की नैतिकता की बिलकुल नई परिभाषा गढ़ता कोई महात्मा. वह गांधी से बनते  महात्मा है, महात्मा से बनते गांधी भी. जहां सरला सुधीर कक्कड़ की मीरा, गिरिराज किशोर  की बा से कुछ ज्यादा अलग नहीं हो पाती है .ऐसे में प्रश्न यही है कि इनमें वह स्त्री कहाँ हैं, जो वाकई गांधी के साथ कभी रही थी.

दृष्टि की निर्मिति निजी से सामाजिकता का रास्ता तय करती है, इसके उलट देखने से (सामाजिक से वैयक्तिक) व्यक्ति के आत्म का मूल्यांकन अधूरा रह जाता है. ऐसे में इस उपन्यास को स्त्री-विमर्श के किसी भी आख्यान में शामिल करने में गम्भीर समस्या है, क्योंकि इस उपन्यास का आधार सम्बन्ध और उसकी गतिशीलता है. महत्वपूर्ण यह है कि किसी भी स्त्री के सम्पूर्ण आत्म को इस तरह के सीमित अवधि के सम्बन्ध पर आरोपित नहीं किया जा सकता है. असल में यह संबंधों के मूल्यांकन का ही कोई पाठ प्रतीत होता है. यहाँ यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सरलादेवी का जीवन सिर्फ 1919 से 1920 का ही नहीं है (जो इस उपन्यास का विशिष्ट  कालखंड है ). यह सम्बन्ध की अवधि है, न कि उनके जीवन की.

 

अंत में

एक इंटरव्यू के दौरान अलका सरावगी ने कहा था कि “सिर्फ गांधी नहीं थे सरलादेवी की पहचान”.
(नवभारत टाईम्स, मुम्बई 11 फरवरी 2023).

यह एक ऐसा वक्तव्य है, जो सरलादेवी को स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में सही परिभाषा देता है. शायद इतिहास के भूले बिसरे पन्नों से किसी को ढूंढ कर वर्तमान में लाने का कारण उसको सही परिप्रेक्ष्य में विस्तार देना ही होता है, जहाँ वैयक्तिकता का सम्मान सामाजिकता के भीतर होता है. जहाँ उस व्यक्ति के आत्म का उसके समय के सन्दर्भ में बेहतर निरूपण हो सके. इसमें किसी भी सामाजिक बोध की अभिव्यक्ति व्यक्ति से ऊपर नहीं हो सकती है.

लेकिन लेखिका के इस मंतव्य की सम्बद्धता उनके उपन्यास में नहीं देखी जा सकती है. यह उपन्यास सरलादेवी व उनके विस्मृत हो चुके चरित्र की खोज नहीं हैं. बल्कि यह उनके जीवन का  एक पक्ष है, एक हिस्सा है जो महज एक-डेढ़ साल तक ही उनसे  जुड़ा रहा. गंभीर बात यह है कि इस हिस्से में गांधी और सरलादेवी के संबंधों की कोई संवेदनशील पड़ताल भी नहीं की गयी है , बल्कि प्रेम के अगंभीर विश्लेषण से नैतिकता के कुछ ऐसे मानक रचने की कोशिशें की गयी, जो स्त्री को उसके बौद्धिक और शारीरिक द्विभाजन में बाँटने के प्रयत्न से आगे नहीं बढ़ पाए. यहाँ सरलादेवी चौधरानी गांधी के साथ उस समय की तस्वीर को समझती हुईं, बौद्धिक रूप से भागीदारी करती गांधी की मित्र नहीं हैं, बल्कि प्रेम व भावनाओं में बहती वह स्त्री हैं, जिसके कारण गांधी का पथ भ्रष्ट हो रहा था और उनसे संबंधों की मुक्ति ही गांधी के लिए अपने ‘भटकाव’ को रोकने का एकमात्र रास्ता बचा. स्त्री-पुरुष के मध्य हुए किसी भी संवाद  को इस प्रकार से देखने में हो सकता है इतिहास ने जाने कितनी स्त्रियों के राजनीतिक और सामाजिक बौद्धिकता को अपने पन्नों में ऐसे ही छिपा दिया हो.

यहाँ अंत में यह कहना जरूरी है कि, इस उपन्यास को सरलादेवी के सम्पूर्ण जीवन की कोई भी अभिव्यक्ति मानना ठीक नहीं  होगा, क्योंकि व्यक्ति के आत्म की पुनर्सरंचना व पुनर्निर्मिति उसके सपूर्ण जीवन से तय की जाती है, कालखंडों से नहीं. साथ ही  प्रेम व संबंधों को रूढ़िवादी नजरिये से देखने के कारण यह उपन्यास न तो सरलादेवी के जीवन के साथ कोई न्याय कर पाने में सक्षम हुआ है और न ही स्त्री-पुरुष के संबंधों की चेतना को समझने के लिए किसी बेहतर और समृद्ध समझ की कोई आशा छोड़ जाने की उम्मीद देता है.

उत्तराखंड के देहरादून में जन्मी रूबल हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लिखती हैं. उनके लेखन के केंद्र में गांधी और साम्राज्यवाद है. इन दिनों वे गांधी के चिंतन में स्त्री दृष्टि की पड़ताल कर रही है. फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया विषय पर उन्होंने जेएनयू से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. फिलहाल केरल के एक कस्बे में रहते हुए वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं.
rubeljnu21@gmail.com
 
Tags: 20232023 आलेखgandhiSarala Devi Chaudhuraniगांधीगांधी और सरलादेवी चौधरानीरूबल
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Comments 18

  1. रवि रंजन says:
    2 years ago

    यह समीक्षा इस बात का साक्ष्य है कि गहन अध्ययन से अर्जित ज्ञान तथा वैचारिकता दृढ़ता से लैस अपने विषय का एक गंभीर विद्वान् कैसे बगैर किसी पूर्वग्रह के लेखक की आँखें खोलकर उसे सत्य का साक्षात्कार करा सकता है.
    गाँधी वांगमय की अध्येता और विचारक रूबल को साधुवाद.

    Reply
  2. RAMA SHANKER SINGH says:
    2 years ago

    एक बहुत ही सुचिंतित और आधारयुक्त लेख है. चूँकि मैंने यह उपन्यास और रामचंद्र गुहा के द्वारा लिखी गाँधी की जीवनी पढ़ रखी थी तो इस उपन्यास की दिशाओं को पहचान पाने में समर्थ था लेकिन इसकी कमजोरियों को लक्षित कर पाने में समर्थ नहीं था. ऐसा इसलिए था कि मैंने इस मुद्दे पर कोई व्यापक अध्ययन नहीं किया था (और मुझे इसकी जरूरत भी नहीं थी).

    ऐसे में रूबल ने गाँधी और सरलादेवी के संबंधों की औपन्यासिकता को कहीं और ज्यादा स्पष्ट कर दिया है. उन्हें इस काम के लिए बधाई कि वे यह दिखा रही हैं कि रचना के सत्त्व के प्रति पूरी तरह से सम्मानजनक रहते हुए ऐतिहासिक उपन्यासों की समीक्षा किस बेधकता के साथ की जा सकती है.

    Reply
  3. Pramod Shah says:
    2 years ago

    यह ठीक है कि किसी व्यक्ति को एक कालखंड में सीमित रखकर उसे समग्रता में नहीं समझा जा सकता है। लेकिन उसके माध्यम से कुछ मर्म तक पहुंचने की कोशिश हो सकती है।
    आप यह नहीं कह सकते कि इतना और किया जाना चाहिए था।
    इतिहास और कल्पनाशीलता को मिश्रित कर अलका सरावगी ने जो यह उपन्यास लिखा है उसे हम महात्मा गांधी को आदर्श के रूप में देखते हुए समझने में लगेंगे तो मानवीय पक्ष की अनदेखी की जा सकती है। फिर बाद की घटनाएं यह दर्शाती है कि रचनाकार का कुछ धारणाएं सिर्फ काल्पनिक नहीं है अपितु उसके ठोस आधार भी है।

    Reply
  4. Pradeep Shrivastava says:
    2 years ago

    गांधी मर्दवादी सोच में गहरे धँसे हुए थे या नहीं यह समझने के लिए उनकी आत्मकथा मेरे सत्य के प्रयोग ही पर्याप्त है. केवल एक सरला देवी ही नहीं उनसे जुड़ी अनेक महिलाएं हैं जिन्हें विद्वान लेखकों ने अंधेरे में छिपा दिया जिससे महात्मा वाली छवि पर कोई आंच न आए. समीक्ष्य उपन्यास भले ही एक छोटे काल खंड के आधार पर खड़ा हुआ है लेकिन एक सरला को अंधेरे से बाहर लाने का श्रेय निश्चित ही उसे जाता है.

    Reply
  5. Pankaj Chaudhary says:
    2 years ago

    रूबल अलका सरावगी के उपन्यास पर इतनी तीखी और सच्ची टिप्पणी इसलिए कर पाती हैं क्योंकि उन्होंने गांधी को न सिर्फ पढ़ा है बल्कि उन्हें अपनी प्रज्ञा से जानने की कोशिश भी कर रही हैं। कलिकथा वाया बाईपास जैसे उपन्यास की लेखिका गांधी को लेकर स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों पर इतने पारम्परिक ढंग से सोच सकती हैं हैरत होती है। रूबल ने इस तथ्य को बड़े करीने से पकड़ा है।

    Reply
    • Alka Saraogi says:
      2 years ago

      जानना चाहती हूँ कि मेरे उपन्यास में गांधी और सरला देवी के संबंधों को लेकर धारणा आपने किताब पढ़कर बनायी है या रिव्यू पढ़कर?
      हक़ीक़त यह है कि मैंने कोई मन से ऐसा कोई चित्रण नहीं किया। जो था उसे वैसे ही रख दिया। यह अनधिकृत चेष्टा होती कि मैं उसमें हस्तक्षेप करूँ।

      Reply
  6. Raj Gopal Singh Verma says:
    2 years ago

    यह किताब पर एक बहुत सार्थक, जरूरी और निष्पक्ष टिप्पणी है। इसे लेखकों को इतिहास-सम्मत और तठस्थ निर्देश के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।

    Reply
  7. Hitendra Patel says:
    2 years ago

    यह एक सुचिंतित टिप्पणी है। साधुवाद।

    Reply
  8. डॉ सुमीता says:
    2 years ago

    विशद अध्ययन, गहरी सूझ और सतर्क परख से ही सम्भव हुई है यह तटस्थ समीक्षा। ऐसी समीक्षाओं की बेहद ज़रूरत है। रूबल जी को हार्दिक साधुवाद।

    Reply
  9. Mridula Garg says:
    2 years ago

    मुझे लगता है एक गांधी विशेषज्ञ को इस उपन्यास की समीक्षा नहीं लिखनी चाहिए थी क्योंकि वह गांधी की प्रचलित छवि के मोहपाश से मुक्त हो कर इसके दूसरे किरदारों को नहीं देख सकता। कितने भी महान, विशिष्ट, अलहदा रहे हों फिर भी थे तो गांधी विरोधाभासों से बने एक मानव। उन के
    विरोधाभास जानते हुए भी हम अनजान बनते हैं क्योंकि उसी में सुकून है। पर समीक्षा में वह सुकून आड़े आता है।
    गांधी मेरे समकालीन थे। मैं इनकी प्रार्थना सभा में बराबर जाती रही। उनके संस्कार में भी गई। कितनी स्त्रियों के साथ उन्हें देखा।
    मुझे वे ईश्वर नहीं मानव लगे हमेशा।
    शायद मैं ही अड़ियल हूं।
    यूं भी ईश्वर और प्रकृति में अंतर होता नहीं मेरे संस्कार में।

    Reply
    • Alka Saraogi says:
      2 years ago

      शुक्रिया मृदुला जी। आपने उपन्यास को डूबकर पढ़ा है। इसलिए आप ही यह लिख सकती हैं। गांधी-विशेषज्ञ तो सुधीर चंद्र भी हैं जिन्होंने उपन्यास पढ़कर अपनी मर्म- भरी राय दी है, उपन्यास के बैकफ़्लैप में—“ इतिहासकार और जीवनीकार प्रायः तथ्यों के मायाजाल में फँसे रहते हैं। कुशल कथाकार तथ्यों के पीछे छिपे सत्य के मर्म को उद्घाटित कर देते हैं। अलका सरावगी का ‘गांधी और सरलादेवी चौधरानी’ इसी का एक अप्रतिम उदाहरण है। ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुके महामानव गांधी और असाधारण सौंदर्य और प्रतिभा की धनी सरलादेवी चौधरानी के बीच पनपे झंझावाती आकर्षण का जैसा बारीक, मार्मिक और संयत वर्णन यहाँ हुआ है कहीं और नहीं मिलेगा। उपन्यास का अंत विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह एक अद्भुत जुगत है उस सब की ओर इशारा कर देने की, जो मूल पाठ में पुरुष गांधी के विरुद्ध कहा जा सकता था, पर नहीं कहा गया। वह सब जो प्रेम की मर्यादा और आत्म-सम्मान ने सरलादेवी को और उनके सम्मान में कथाकार को, कहने न दिया।”

      Reply
  10. mamta kalia says:
    2 years ago

    रूबल का विश्लेषण तार्किक और तीक्ष्ण है किंतु उसमे गल्प की स्वाधीनता के लिए कोई हाशिया नहीं दिया गया।गांधी जी ने स्वयं कहा था कि वे कोई देवता नहीं।वे अपनी गलतियां खुली हथेली पर लिए चलते थे।एक जन नेता इससे आगे कोई भी भावात्मक संबंध कैसे निभा सकता था।
    अनेक स्त्रियों की तरह सरला भी उनकी बौद्धिकता,निर्भीकता और सहजता की मुरीद थीं।लेखक को अपनी कल्पना इस्तेमाल करने की छूट कुछ हद तक देनी चाहिए।इतिहास और साहित्य में यही अंतर होता है

    Reply
    • Alka Saraogi says:
      2 years ago

      शुक्रिया ममता जी।

      सच तो यह है कि गांधी को लेकर उपन्यास पूरी तरह उनके उपलब्ध पत्रों, CWMG( जिसमें उनके जीवन का हर दिन डॉक्युमेंटेड है), उनकी आत्मकथा, महादेव देसाई की डायरी पर टिका है। लेखक की कल्पना की गुंजाइश सिर्फ़ सरलादेवी की घरबार छोड़ने की ऊहापोह में है, जो स्त्रीसुलभ है। पर कहा जा रहा है कि सरलादेवी के जलाये गए पत्रों के बिना इतिहास अधूरा है, जबकि सरलादेवी की भी बांग्ला रचनाओं, टैगोर परिवार की अन्य आत्मकथाओं, गांधी के उत्तरों में छिपी सरला की भावनाओं को आधार बनाकर ही लिखा गया है।

      बाई द वे, गांधी के पत्रों को चालीस साल से खोज रही जेराल्डीन फ़ोर्ब्स(Lost letters and feminist history) ने ख़ुद ही मुझे कहा था कि सरलादेवी के जीवन में एक उपन्यास है, जिसे लिखना उनके जैसे इतिहासकार के बस में नहीं।

      Reply
  11. चन्द्रकला त्रिपाठी says:
    2 years ago

    इस आलोचना ने उपन्यास को फिर से पढ़ने समझने के लिए उकसाया।

    और यहां कुछ असहमतियां दर्ज़ करने के लिए भी प्रेरित किया खासतौर पर यह लिखा जाना कि लेखिका ने जानबूझकर गांधी और सरला देवी के संबंध को जो
    दो राजनीतिक व्यक्तित्वों का संबंध अधिक होना चाहिए था, अपने गल्प के लिए गैर-राजनीतिक बनाए रखा है।

    मुझे ऐसा नहीं लगा। उनके बीच अहिंसा और स्वदेशी संबंधी निश्चय अनिश्चय और जिरह के भी संदर्भ हैं। सत्याग्रह और स्त्री शिक्षा से संबंधित गांधी के नज़रिए पर ठहर कर सोचना है और आलोचना भी है। अंग्रेज़ों के प्रति नफ़रत न घटा पाने के द्वन्द्व भी हैं और इन जैसे कई प्रसंगों को जीवित प्रसंगों के रुप में रचने का रचनात्मक संघर्ष भी है क्योंकि कि उपन्यास में इतिहास का उल्था काम का नहीं होता मगर लेखिका ने सरला देवी चौधरानी के पत्रों का आधार लेकर गांधी के संदर्भ को विकसित करने की दिशा पकड़ी है जो सीमित नहीं है। उसमें ऐतिहासिक वस्तुगत परिप्रेक्ष्य की ध्वनियां हैं, तनाव हैं।इसे सरला देवी के छोर से देखने से एकायामी समझा जाए, यह ठीक नहीं लगता।
    इसके अलावा यह खींचतान थोड़ा विचित्र लगा कि उपन्यास किसी अवधारणा को साबित करने के लिए लिखा गया है और कायदे से इसे अपने अनुसंधान को पूरा करके ही आगे बढ़ना चाहिए था।यानी गांधी को लिखे सरला देवी के पत्रों की पर्याप्त उपलब्धता होती तो यह थीसिस कुछ और होती। सरला देवी को लिखे गांधी के पत्रों से फूटती ध्वनियों को आलोचक ने अपर्याप्त माना है।
    मैं हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह कहना चाहती हूं कि मुगल न भी आए होते तो भक्तिकाल का अस्सी प्रतिशत ऐसा ही होता,वैसा नहीं होता।
    पत्र पत्रों के उत्तर होते हैं।
    उत्तर में प्रश्न की उपस्थिति होती है।
    इस आलोचना को पढ़ते हुए मुझे इसके जजमेंटल होने की हड़बड़ी कई जगह समझ में आई।
    अलका सरावगी ने उपन्यास में जजमेंट ही तो नहीं दिया है।
    यह बड़ी सावधानी बरती है लेखिका ने।

    Reply
  12. Oma sharma says:
    2 years ago

    उपन्यास की विषय वस्तु लेखिका का चयन और प्राधिकार है लेकिन उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के प्रति समुचित संतुलित निगाह रखे जाने की जरूरत(तथ्यों के अधूरेपन के प्रति सावधानी बरतने की जरूरत के अलावा)रूबल जी की इस परख का हासिल है। किसी लेखक, समाजशास्त्री या राजनैतिज्ञ की गांधी को लेकर बनी राय से अधिक महत्तपूर्ण इस बहाने उनके और दूसरों के अलक्षित या कम लक्षित संदर्भों की आजमाइश हो सकती है जिनकी और यह आलोचना इशारा करती है। अलावा इसके यह आलोचना के क्षेत्र में इधर के सन्नाटे को भेदती है: कृति को महान/खराब से परे, एक क्लोज रीडिंग से परखते हुए उसकी सीमाओं/संभावनाओं के प्रति पाठक को सावधान करना।
    रचनाकार को लाख आभार मानना चाहिए।

    फिलहाल समालोचना और रुबेल दोनों का आभार

    Reply
  13. प्रकाश मनु says:
    2 years ago

    आपका उपन्यास सुनीता जी ने तो आते ही तीन-चार सिटिंग में पूरा पढ़ लिया था। और जो कुछ उन्होंने बताया, उससे बहुत गहरी उत्सुकता मेरे मन में पैदा हुई।
    मैं भी तत्काल पढ़ जाना चाहता था, पर पुस्तक मेले में मेरी कई किताबें आनी थीं, जिनमें थोड़ा-थोड़ा काम बचा था।‌ उनमें जुटना पड़ा, और यह सिलसिला पुस्तक मेले के बाद तक भी चलता रहा।
    पर किताब पढ़ने की इच्छा एक क्षण के लिए भी मंद नहीं पड़ी। और अब तीन-चार दिनों से मैं हूं और यह पुस्तक है, पुस्तक है और मैं हूं, और मैं लगभग एक पागल उत्साह से इसे पढ़ता गया हूं। उपन्यास पूरा हुआ, और अब मैं उदास–बहुत उदास हूं।
    हालांकि पूरी तरह उदास भी नहीं। एक अच्छा और अपूर्व उपन्यास पढ़ने की खुशी तो इसमें शामिल हैं ही। पर फिर भी उपन्यास का अंत किस कदर उदास कर गया, मैं आपको बता नहीं सकता।
    अफसोस, एक महान देशरागी समाज सेविका का ऐसा दारुण अंत! इसे सहन कर पाना बेहद बेहद कठिन है।
    अगर ठीक-ठीक वही स्थितियां रही होंगी, जैसा आपने जिक्र किया है, तो गांधी जी बहुत बड़े दोषी साबित होते हैं। मोतियों की तरह खिलखिलाहट बिखेरने वाली आत्मविश्वासी स्त्री को उन्होंने अपने आत्मद्वंद्व और आतमशंका के चलते अंततः एक कथित रोती-झींकती, चिड़चिड़ी स्त्री में बदल दिया।
    असल में द्वंद्व तो खुद गांधी के मन में ही था। एक क्षण को उन्हें यह दो लिबरेटेड आत्माओं का प्रेम लगता था, तो अगले ही क्षण वासना का स्पर्श भी। अपने इसी द्वंद्व से उबरने के लिए वे सरला चौधरानी को ‘भारत माता’ बनाकर बहुत-बहुत ऊपर उठा देना चाहते हैं, और दिनों दिन और अधिक डिमांडिंग होते जा रहे हैं। मांगें, मांगें और बस मांगें। इतनी मांगें कि कोई औरत आठ हाथ होने पर भी उसे पूरा न कर सके।
    गांधी का असंतोष गहरा है। पर यह असंतोष सरला के कारण नहीं है। खुद गांधी के आंतरिक द्वंद्व या आत्मभ्रम के कारण है, जिसके जिम्मेदार गांधी और बस गांधी ही थे।‌ पर दुर्भाग्य से इसका परिणाम भुगतना पड़ा एक सीधी-सादी जोशीली स्त्री सरला चौधरानी को, जिसके भीतर की शांति ही नहीं, पारिवारिक सुख को भी गांधी ने किसी अशुभ ग्रह की तरह बर्बाद कर दिया।
    खासकर रामभज दत्त की मृत्यु तो ऐसी शोकांतिका है, जिसे आंसुओं से ही ट्रिब्यूट दिया जा सकता है। और क्या सरला चौधरानी की मृत्यु भी वैसी ही एक करुण शोकांतिका नहीं, जो दिल में एक कराह सी पैदा कर देती है।
    और‌ मृत्यु से पहले जब वे गांधी से थोड़ा समय मांग रही हैं, अपनी समस्याओं पर बात करने के लिए, तो गांधी की चुप्पी तो मुझे हिंस्त्र चुप्पी लगती है, एक खलनायक सरीखी। लगा, अहिंसावादी गांधी तो महा हिंसक हैं।
    राजगोपालाचारी से इस मामले में एक पत्र में उनका डिस्कशन भी बड़ा बेहूदा है, और जिससे आप प्रेम करते हैं, उसे निर्वसन करने सरीखा है। सरला सरीखी संवेदनशील स्त्री पर उसका कैसा पड़ा, उपन्यास में इसका बहुत अच्छे से जिक्र है‌‌।
    अलबत्ता एक बड़ा उपन्यास लिखा है अलका जी, आपने। इसके पीछे कितना शोध है, देखकर आपके प्रति मेरा सिर आदर से झुक जाता है।
    मैं आज सुबह ही सुनीता जी से कह रहा था कि जितना समय और ऊर्जा इस उपन्यास को लिखने में लगी होगी, उसमें कल्पित पात्रों को लेकर उपन्यास लिखना हो, तो शायद दस उपन्यास लिख लिए जाते। पर यहां तो पग-पग पर आपके हाथ बंधे हैं।
    यों ऐसा नहीं कि उपन्यास की सीमाएं न हों। सुनीता जी की बात मुझे एकदम ठीक लगती है कि चौधरी रामभज दत्त के कोण से जो बातें उभरनी चाहिए थीं, या उनका द्वंद्व जिस तरह सामने आना चाहिए था, वह नहीं आया।
    बल्कि मुझे तो लगता है कि चाहे थोड़ा ही सही, कस्तूरबा का कोण भी उभरना चाहिए था, घर और परिवारी जनों की स्थितियां भी उभरनी चाहिए थीं, और अंत में चलकर तो दीपक का कोण भी अच्छे से उभरना चाहिए था।

    पर अपेक्षाओं का तो कोई अंत नहीं अलका ही। यह कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं कि आपने इतिहास की एक लगभग अज्ञात स्त्री पात्र को लगभग संपूर्णता के साथ पेश कर दिया। इसके पीछे कितना श्रम, लगन और अध्यवसाय है, मैं उसकी कल्पना कर सकता हूं, इसलिए एक बार फिर से आपको साधुवाद देता हूँ।
    भाई, अरुण जी, मुझे लगा, शायद पत्र की ये सतरें लिखकर ही मैं इस विमर्श में‌ शामिल हो सकता हूं, और अपने तरीके से कुछ आगे बढ़ा सकता हूं।
    इस समीक्षा पर जो विचारोत्तेजक पत्र आए, और उन्हें मैं बड़ी रुचि से पढ़ गया हूं।
    इसे मैं इस समीक्षा की तो नहीं, हां, उपन्यास की सफलता मानता हूं, सार्थकता भी।
    अलबत्ता, ‘समालोचन’ के जरिए उपन्यास पर खूब जमकर बात हो सकी, इसके लिए भाई अरुण जी, आपको और ‘समालोचन’ को मेरा साधुवाद!

    Reply
    • Alka Saraogi says:
      2 years ago

      शुक्रिया प्रकाश मनु जी। गांधी को समझने की मुहिम के लिए एक ज़िंदगी कम है।

      Reply
  14. Jnanesh Thacker says:
    2 years ago

    Has someone translated the above article in English? I can read and understand Hindi but would need help to understand enough to reflect.
    🙏🏻

    Reply

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