गरासियों के बीच में
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होली का त्योहार हमारा सबसे प्राचीन त्योहार है. वैसे तो इसे सारे देश में ही उल्लास और मस्ती के साथ मनाया जाता है लेकिन होली की असली मस्ती देखनी हो तो फिर किसी जनजाति के बीच जाकर ही देखी जा सकती है.
इस बार होली के लिए मैंने कुंवारों के देश जाने का फैसला किया. इसके लिए मुझे आबूरोड़ जाना था. अपने मेजबान से बात करने के बाद मैंने अपना झोला उठा लिया. जहाँ मुझे करीब महीने भर गरासिया लोगों के बीच रहना था. मेरा स्थाई निवास बेकरिया थाने के अंतर्गत पिल्का गांव पहले से तय था.
प्रशासन से जुड़े मित्रों ने कहा कि आप निश्चिंत रहें वे बेकरिया थाना इंचार्ज को कहकर सारी व्यवस्था करवा देंगे. मैंने कहा कि मुझे और कोई व्यवस्था नहीं चाहिए, मैं उदयपुर की बस से आ रहा हूँ और उदयपुर से पहले गोगुंदा रोड पर उतर जाऊंगा जहाँ से मुझे बेकरिया पहुँचवा दें. सबसे जरूरी बात ये है कि मैं केवल सुरक्षा कारणों से आपको सूचित कर रहा हूँ.
सुबह बस से उतरा तो पुलिस की जीप मेरे इंतज़ार में खड़ी थी. वे लोग रास्ते में चाय पिलाते हुए मुझे सीधे बेकरिया थाने ले गए. नाश्ता करवाने के बाद थानाधिकारी ने मुझसे कहा कि साहब आपका कैसे शुक्रिया अदा करूं. आपके कारण आज पहली बार हमारे इतने बड़े अधिकारी ने मुझ से सीधे बात की है. मैंने तो उन्हीं कभी देखा तक भी नहीं. आप निश्चिंत रहें मैं आपके लिए बेहतरीन व्यवस्थाएँ कर देता हूँ.
इंचार्ज साहब आपको कोई व्यवस्था नहीं करनी है. आप मुझे पिल्का में जीवा राम मास्टर साहब के यहाँ छुड़वा दें. मैं उनके घर पर ही स्थाई रूप से ठहरूंगा.
अरे साहब वहाँ कैसे ठहरेंगे आप ? मेरे बड़े साहब ने मुझे पहली बार तो कोई काम कहा है.
देखिये इंचार्ज साहब मैं यहाँ किसी सैलानी की तरह नहीं आया हूँ. मुझे कुछ काम करना है जिसके लिए मुझे उनके साथ ही रहना है.
लेकिन उनके यहाँ तो शौचालय की व्यवस्था भी नहीं है. आपको बोतल लेकर पहाड़ों या खेतों में जाना होगा.
इंचार्ज फिर भी संतुष्ट नहीं हुआ तो मुझे अपने मित्र से ही बात करनी पड़ी. पुलिस की जीप मुझे जीवा राम के घर छोड़ने गई जो मेरे मेजबान के लिए बड़ी इज्जत की बात थी.
जीवा राम के अलावा उनके परिवार में पहले किसी से नहीं मिला था. उनके घर पहुंचकर पूरे परिवार से मिला. उसकी पत्नी, दो बहू, बड़ी बेटी जिसने नर्सिंग में डिग्री की है, बीच वाला बेटा जो सवारियों के लिए अपनी जीप चलाता है और सबसे लाडला छोटा बेटा कांजी मुझसे मेहमान की तरह न मिलकर ऐसे मिले जैसे अपने परिवार के किसी बुजुर्ग से मिल रहे हो. उनका बड़ा बेटा हैदराबाद में किसी कारखाने में काम करता है और छोटी बेटी आबूरोड़ के विधायक के परिवार में ब्याही है.
गरासियों के पहाड़ी क्षेत्र में भाखर पट्टी में दूर-दूर तक बने हुए छिटपुट गांव देखने को मिलते हैं. एक छोटी पहाड़ी पर गरासिया का मकान होता है और ठीक इसके इर्दगिर्द खेत होते हैं. और उसके बाद दूसरी टेकरी और दूसरा मकान. टेकरी दर टेकरी और मकान दर मकान, यह गरासियों का गांव बन गया. इस प्रकार की छिटपुट गांव पद्धति में विकास कार्यों को पहुंचाना बहुत मुश्किल है. ऐसे गांवों में सामुदायिक कार्यक्रमों का लाभ बहुत थोड़े लोग ले पाते हैं. बिजली के खम्भे और पानी के पाईप ऐसे पहाड़ियों और टेकरियों पर बने गांवों में खींचे नहीं जा सकते. जीवा राम का घर तो सड़क से बहुत ऊंचा और दूर नहीं है लेकिन जब मैं उसके पैतृक घर (पिता के घर) गया तो वह उबड़- खाबड़ रास्तों से होकर बहुत ऊंची पहाड़ी पर था. चूंकि जीवा राम के पिता उनके समाज के पटेल हैं तो पहाड़ों के रास्ते से ही वहाँ पानी की लम्बी लाइन बिछाई गई थी. इनके गांव की सबसे छोटी इकाई फलिया होती है, जिसे ढाणी कहा जा सकता है.
फलिया भाई-बंधुओं की यानी एक ही गोत्र और अटक के लोगों की एक छोटी बसावट है. इसमें केवल रक्त संबंधी रहते हैं. रक्त संबंधी होने के कारण यह समूह बहिर्विवाही है. प्रत्येक फलिया का कोई संस्थापक होता है. यह संस्थापक वंश का मुखिया होता है. कभी-कभी फलिया का नामकरण भौतिक वस्तुओं पर भी होता है. उदाहरण के लिए खेजड़ी फलिया वह है जिसमें बहुत संख्या में खेजड़ी के पेड़ मिलते हैं. नदिया फलिया वह है जहाँ से होकर नदी गुजरती है.
दो दिन के पश्चात ही मैंने जीवा राम, उसके पिता (पटेल) और साझा मित्र चतरा से कहा कि जितनी जल्दी हो सके अपने भाट को बुलवावो. उसका आने-जाने का खर्चा और इनाम दे देंगें. भाट को गरसिया बड़वा कहते हैं.
राजपूत जातियों की तरह ही गरासिया जनजाति में भी भाट होते हैं. ये भाट गरासियों के सभी गोत्रों, वंशावली का विस्तृत ब्यौरा देते हैं. पहले यह ब्यौरा कविता बद्ध हुआ करता था जिसे भाट गाते-सुनाते थे. अब कहीं-कहीं भाटों ने गोत्रों के इस आख्यान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशावली को, लिपिबद्ध भी कर लिया है.
उनका ये बड़वा तो किसी मंत्री से भी व्यस्त आदमी मिला. रोजाना फोन करने पर कहता कि आज आ रहा हूँ, कल आ रहा हूँ. आख़िर एक सप्ताह इंतज़ार करने के बाद मैं खुद एक दिन आबूरोड़ से उसे जीप में डालकर लाया.
विभिन्न इतिहासकारों ने राजपूतों की उत्पत्ति के लिए आबू पर्वत के सूरजकुंड को आधार माना है. गरासिया भी अपनी उत्पत्ति आबू पर्वत को ही मानते हैं. अनेक वर्षों तक आबू पर परमार वंश के राजाओं का राज रहा लेकिन धोखे से चौहानों ने परमारों को पराजित कर दिया. जब आबू परमारों के हाथ से निकल गया तब परमारों ने एक ही कान में सोने की मुरकी पहननी शुरू की. इनका प्रण था कि जब आबू पा लेंगे तभी दोनों कानों में सोने की मुरकी पहनेंगे. इस प्रण को निभाने पर ही दोनों कानों में मुरकी पहनना शुरू किया. पुन: अपने घर आने पर ये लोग घर आया-गराया कहे गये. गराया शब्द गरासिया की जगह आज भी प्रचलित है जिसके मूल में यही भाव तथ्य लक्षित है.
माड़ (मगरा) में आकर परमार गरासियों ने भाखर बावसी अथवा घोड़ा बावसी की स्थापना कर भाखर प्रदेश की नींव डाली. माड़ के पूर्व में उत्तर की ओर मेवाड़ एवं दक्षिण में पोशीना (गुजरात) है. भाखर के पश्चिम में आबूरोड़ देलवर भारजा आदि गांव हैं. दक्षिण में कोटेश्वर (अंबाजी) हैं. देलवर एक पुराना नाम है जो भाखर में आने जाने का मुख्य मार्ग रहा है. भाखर के 24 गांव हैं. इसमें कोई भील गांव नहीं है. मुखिया पटेल कहलाता है.
राजस्थान के आदिवासी गरासियों का देश ‘कुंवारों का देश’ कहलाता है. आबू पर्वत के पूर्व में फैली पहाड़ियों में 24 गांव फैले हुए हैं. इन गांवों का यह क्षेत्र ‘भाकर पट्टा’ कहलाता है. इस पट्टे का सबसे बड़ा गांव जांबुड़ी है. इसी गांव में इन गरासियों का सबसे बड़ा आदमी ‘पटेल’ रहता है. यह पटेल ही इनका राजा है. इसी का हुक्म चलता है. फरमान चलता है. न्याय चलता है. सजा चलती है. सजा में पांव में खोड़ाबेड़ी डालना, जेल देना तक शामिल है. जेल की कोठरियों के अवशेष तो आज भी देखे जा सकते हैं. पटेल परंपरागत पीढ़ी दर पीढ़ी बनता आ रहा है.
वैसे तो गरासियों का राजनीतिक संगठन पटेल और पंचायतों से ही चलता है. कोई सौ वर्ष पहले मोतीलाल तेजावत के समय पैदा हुई राजनीतिक जागृति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिथिल पड़ गई थी. अब इनकी राजनीतिक समझ बढ़ रही है. अब तो इनकी भारतीय ट्राईबल पार्टी और भारत आदिवासी पार्टी भी बन गई है जिसके विधायक जीतकर राजस्थान विधानसभा में पहुंचे हैं.
भाटों की कथाएँ गरासिया गोत्र के उद्गम को बताती हैं. इस स्रोत में तार्किकता तो नहीं है, फिर भी सच्चाई का कुछ स्वरूप अवश्य देखने को मिलता है. उदाहरण के लिए गरासिया के एक गोत्र पेमनमार के संबंध में कहा गया है: परमों नाम का व्यक्ति जंगल में गाय-भैंस चराने जाता था. उस पर अम्बामाता की कृपा हो गई. इसके परिणामस्वरूप थोड़े समय बाद गाय चराने वाला परमों राजा बन गया और उसके नाम पर पेमनमार गोत्र चल गया.
एक और मिथक के अनुसार राथुड़ा गोत्र की उत्पत्ति भी गडरिया से हुई है. उससे प्रसन्न होकर देवी ने वरदान दिया कि वह नींद में भी बिना किसी रूकावट के चल सकेगा. इस गडरिया ने बड़े-बड़े करिश्मे किए. वह राजा बन गया और उसकी संतान गरासिया कहलाई.
भारतीय इतिहास के मध्य युग में राजपूतों के साथ गरासियों का उल्लेख भी किया जाता है. इन आदिवासियों के साथ भी इतिहास में वही घटित हुआ जो मीणा और भीलों के साथ हुआ. राजपूतों के आने से पहले गरासिया सिरोही, पिंडवाड़ा और आबूरोड़ के पहाड़ी संभाग में राज्य करते थे. यह संपूर्ण पहाड़ी यानी भाखर क्षेत्र गरासियों का राज्य था. लेकिन इतिहास की यह करवट अधिक समय तक ऐसे ही नहीं रही. उधर तुर्कों और मुसलमानों ने राजपूतों को दबाया. उनके हाथों परास्त राजपूत सिरोही संभाग में आये और उन्होंने गरासियों को और आगे पहाड़ों और जंगलों में धकेल दिया. यहाँ पृथक्करण ने गरासियों की गर्दन ऐसी मजबूती से पकड़ी कि आज तक भी वे पूर्णतया अपना पिंड पृथक्करण से नहीं छुड़ा पाये हैं. लेकिन इस तरह का संक्षिप्त विवरण पर्याप्त नहीं होगा. हमें थोड़ा गहनता से राजपूतों और गरासियों के संबंध को देखना चाहिये.
बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में गरासियों की मुठभेड़ राजपूतों के साथ हुई. राजपूत नई तकनीक से युद्ध करना जानते थे. गरासियों की युद्ध रणनीति तो गुरिल्ला ही थी. अधिक समय तक वे राजपूतों के साथ मोर्चा नहीं ले सके. अंत में गरासियों को हार माननी पड़ी. समझौते के रूप में राजपूतों ने गरासिया गांवो का प्रशासन,गरासिया पटेलों के हाथों में दे दिया. अब गरासियों के लिए उनका पटेल ही शासक बन गया. आम गरासिया और राजपूत राजा के बीच में पटेल ही मध्यस्थ था. उसी कारण गरासियों की ऐतिहासिक परंपरा में पटेल का स्थान महत्वपूर्ण है.
गरासिया पटेलों ने राजपूत राजाओं को जब कभी संकट आया पूरी मदद दी है. महाराणा उदय सिंह, महाराणा प्रताप और महाराणा अमर सिंह को सिरोही संभाग के गरासियो ने जब भी आपात स्थिति आई है, मदद दी है.
गरासियों और मराठों के ताल्लुक कभी अच्छे नहीं रहे. 1731 ई. में जब मराठा डूंगरपुर राज्य में प्रवेश करके इस संभाग से गुजरे तो उनकी गरासियों से ठन गई. बेकरिया, जांबुड़ी आदि के पटेल मराठों से भिड़ गये. इस युद्ध में कई गरासिये खेत हुए. इतिहास बताता है कि 1755- 58 ईसवी में मराठों ने कई बार सिरोही तथा मेवाड़ पर आक्रमण किये. इन लड़ाइयों में एक ऐसा अवसर भी आया जब मराठों ने मेवाड़ के महाराणा को वार्षिक टैक्स देने को बाध्य कर दिया.
गरासियों ने महाराणा को बहादुरी से कहा कि वह इस टैक्स का चुकारा न करेंगे. यह गरासियों का हौसला ही था कि उदयपुर और सिरोही के राजा मराठों के सामने टिक सके.
रजवाड़ों के समय में गरासियों को जंगल के उपयोग और टैक्स न देने की कुछ रियायतें थीं. ब्रिटिश राज की दखलंदाजी के कारण ये रियायतें रद्द कर दी गयीं. अब गरासियों को बोलाई और रखवाली के टैक्स मिलने बंद हो गये. उन्हें यह भी आदेश हो गया कि यदि उन्होंने कानून और व्यवस्था को चुनौती दी तो उसके लिए उनके पटेल और जागीरदार उत्तरदाई होंगे. यह कहना चाहिये कि ब्रिटिश राज द्वारा इस तरह के कई प्रयत्न किये गये जिनका उद्देश्य गरासियों को एक सामान्य नागरिक की तरह स्थापित करना था.
जीवा राम को छोड़कर परिवार के सभी सदस्य मुझे मोटा बाबा कहकर संबोधित करते थे. गरासियों में नातेदारी के संबंध प्रगाढ़ होते हैं. पानी की धारा को काटा जा सकता है, गरासियों के नातेदारी सम्बंध नहीं तोड़े जा सकते. इस जनजाति में बहुत से नातेदारी पद संबोधनात्मक होते हैं. उदाहरण के लिए पितामह और उनकी उम्र की व्यक्तियों के लिए मोटा बाबा पद का प्रयोग किया जाता है. माता की बराबर की स्त्रियों के लिए आई पद काम में लिया जाता है.
लड़के या लड़की के लिए दिकरा और दिकरी पद काम में आते हैं. कुछ अन्य संबोधनात्मक पदों में सामान्यतया काम में लाए जाने वाले पद हैं: बाप्पा (पिता) काको (चाचा) मोटा बाबा (पितामह), नानी आई (माता की माँ) हाहू (सासू) और बेहू (बहू) के वर्गीकरणात्मक पदों का प्रयोग गरासिया नातेदारी में बहुत अधिक होता है.
गरासिया बोली भीली बोली से मिलती-जुलती है. वास्तव में ये बोलियाँ गुजराती भाषा से जुड़ी हुई हैं. इन बोलियों में गुजराती के शब्द अधिक होते हैं. इसके अतिरिक्त जिस संभाग में अमुक आदिवासी रहते हैं,उस संभाग की बोली या भाषा के शब्द भी शामिल होते हैं. गरासिया बोली में जहाँ गुजराती शब्दों की बहुतायत है वहीं मारवाड़ी/ मेवाड़ी बोली के शब्द भी पाये जाते हैं.
गरासिया बोली में स और च को श के जोर से बोलते हैं. चौहान को वे सौहान बोलेंगे. गुजराती और मारवाड़ी शब्द मुझे आसानी से समझ आते थे लेकिन उनके कई स्थानीय शब्द समझने में मुझे परेशानी होती थी. जैसे खोलरा (घर), केलरू (बछड़ा), फून्दो (लिंग), गेबकावणु (संभोग), टेटकी (बकरी), सीढू (प्रात:) इत्यादि.
पहले तो आजीविका के लिए गरासिया जंगल की लकड़ियों और अन्य उत्पादों पर ही निर्भर रहते थे. आजकल इन्होंने खेती करना सीख लिया है. खेती कम होने और पैदावार कम होने के कारण इनके जवान लड़के मजदूरी के लिए शहरों में जाते हैं. इनकी महिलायें खेतों में बहुत परिश्रम करती हैं. जीवा राम की पत्नी को मैंने सारे दिन हमेशा खेतों पर ही पाया. एक दिन मैंने देखा कि जीवा राम की छोटी बेटी अपनी ससुराल से पीहर आई. जैसा की बताया उसका विवाह एक विधायक के परिवार में हुआ है. बहुत रूपवती यह कन्या गहनों से लदी हुई आकर मुझसे मिली. आधे घंटे के बाद ही मैंने देखा कि वह खेतों में काम कर रही है.
अपने खान-पान के लिए मैं जीवा राम पर कोई आर्थिक बोझ नहीं डालना चाहता था. दिन में वे लोग जो भी बनाते थे मैं खा लेता था. रात के भोजन के लिए रोज मैं पैसे देकर बड़ा देशी मुर्गा मंगवाता जिसे मेरे साथ जीवा राम का परिवार भी खाता था. होली के समय मुर्गों की माँग बढ़ जाती है तो मुर्गा महंगा मिलता था. पीने का सामान मैं अपने साथ लेकर गया था लेकिन जीवा राम ने आग्रह किया कि हमारे यहाँ मेहमान को शराब तो हम ही पिलाते हैं. मिल जुलकर हमने शराब बनाई. शराब बहुत अच्छी थी और मैं दिन में भी पी लेता था. असल में वहाँ मैं सुबह छह बजे उठ जाता था और बारह बजे तक पढ़ने-लिखने का काम करके थक जाता था. महुआ पीकर खाना खाता और दो घंटे सो जाता.
औषधि की तरह महुआ कम हानिकारक होता है. जब उठता तो उसका असर खत्म हो जाता था. सायं जरूर सामूहिक महफ़िल जमती. पटेल और जीवा राम दोनों बाप-बेटे तो कम ही पीते थे लेकिन हमारा साझा मित्र चतरा आख़िर तक मेरा साथ देता.
गरासियों में महिलायें भी शराब पीती हैं लेकिन इस परिवार की सभी महिलायें हमारे साथ बैठती जरूर थीं लेकिन मेरे सामने कभी किसी ने पिया नहीं. मेले और होली पर जरूर मैंने दूसरी महिलाओं को वहाँ छककर पीते देखा. सर्दियों के दिन थे तो खा-पीकर हम दस बजे तक सो जाते थे. एक कमरे में मेरी, जीवा राम और कांजी की तीन खटिया लग जाती थी.
आदतन गरासिया माँसाहारी हैं. शाकाहारी भोजन में वे मक्का और ज्वार खाते हैं. आजकल सरकारी राशन में गेहूँ मिलने के कारण उनमें गेहूँ की रोटी खाने का भी रिवाज हो गया है.
गरासियों का मनपसंद भोजन या चहेता खाना राब या राबड़ी है. यह खाना बड़ा संतोषजनक है. राबड़ी पी ली और गरासिया दिन भर के लिए मस्त. राबड़ी मक्के के आटे और छाछ से बनती है. यदि श्रद्धा हुई तो थोड़ा बहुत घी भी डाला जा सकता है.
गरासियों का विशेष भोजन चूरमा, लाप्सी, मालपुआ इत्यादि हैं. ये ही पकवान जन्म और विवाह के अवसरों पर पकाये जाते हैं. दिन-प्रतिदिन के भोजन में रोटियाँ बनाई जाती हैं. रोटियों के तीन प्रकार हैं:
रोटो: यह मक्के के आटे का बनता है, रोटा: यह गेहूँ के आटे का बनता है, और पानिया: मक्की के आटे को खाकरे के पत्ते में डालकर सेंका जाता है.
मौसम के अनुसार गरासिया अपने संभाग में पाये जाने वाले फलों को खाते हैं. सामान्यता खाए जाने वाले फलों में गुलर, खजूर, टिम्बरू, सीताफल और आम हैं.
दारु पीना गरासिया आदिवासियों की आदत है. आमतौर पर वे खुद दारू गालते हैं. दारू महुआ से बनाई जाती है. इनकी मान्यता है कि दारु को किसी आदमी ने नहीं बनाया इसे बनाने वाला तो भगवान खोमड़ है. यह ईश्वरीय वस्तु है. गरासिया स्वयं दारु पीने से पहले इसकी धार अपने पूर्वज और परिवार की देवी को अर्पित करता है.
गरासिया रोज दारु पीते हों, ऐसा नहीं है. दारू एक सामाजिक पेय है जब इसे घर में गाला जाता है तो इसके लिए पत्नी, बड़े पुत्र सभी का सहयोग चाहिये. दारू गालने का काम सामूहिक काम है और इसलिए इसे किसी एक आदमी की लत के कारण नहीं गाला जा सकता. इसी कारण दारू वार-त्यौहार पर गाला जाता है. इसे आस-पडौस में बांट कर पिया जाता है. दारू गालने के अवसर आखा तीज, रक्षाबंधन, नवरात्रि, दीवाली और होली पर आते हैं. अतिथि का स्वागत दारू द्वारा किया जाता है. शादी-ब्याह के अवसर पर छककर दारू पी जाती है. स्त्रियों भी दारू पीती हैं.
गरासियों को हथियार रखने का शौक है. जब हथियार हाथ में हो, गरासिया की शान बढ़ जाती है. हथियार की वास्तविक उपयोगिता बहुत थोड़ी है. इससे प्रतिष्ठा अधिक बढ़ती है, इसलिए जब एक गरासिया नौजवान हाट में जाता है तो तीर-कमान उसे बहुत भाता है. वयस्क गरासिया तलवार को रखना शान समझता है. उम्र वाले व्यक्ति बिना लट्ठ के घर से बाहर नहीं निकलते. घर में बकरा व मुर्गा काटने के लिए और उनकी बोटियों को छांटने के लिये भी छुरा आवश्यक होता है. खेती की देखभाल करने वाले बच्चे गोफण रखते हैं.
गरासियों का सामाजिक संगठन बहुत ही सुदृढ़ है. देखने को अन्य लोगों को भ्रांति हो सकती है की गरासिया स्वच्छंद, उन्मुक्त, सरल होने से उनका संगठन लचीला होगा लेकिन ऐसा प्रायः नहीं होता.
गरासिया में तीन प्रकार के विवाह देखे जाते हैं मोडबंधिया अथवा ढोल-चाल विवाह जिसमें विवाह माता-पिता द्वारा तय किए जाते हैं और ढोल बजाते हुए मंडप माँडकर लग्न करते हैं. इससे बड़ा अथवा मोटा विवाह माना जाता है. वर-वधू को पांच दिनों तक पाट पर बिठाया जाता है.
एक विवाह दीतवार विवाह कहलाता है जिसे दीतवार अथवा रविवार को बिना ढोल बजाए संपन्न किया जाता है.
तीसरे प्रकार का विवाह मेल्वी विवाह कहलाता है. इसमें बारात वधू के घर नहीं जाती, लेकिन वधू अपने घर से वहाँ बिना गाये-बजाये ले जाई जाती है. विवाह के अन्य रूपों जैसे सेवा विवाह में सबसे छोटी बच्ची का विवाह कर, जमाई को घर पर रखा जाता है. अधिकांश मात्रा में विधवा पुनर्विवाह होता है. जो लोग वधू धन देने में समर्थ नहीं होते उनके हमीहाटिया में आटे-साटे विवाह संपन्न किए जाते हैं. ऐसे विवाह को गरासियों में आदर से नहीं देखा जाता.
गरासिया युवक-युवती को पारिवारिक जीवन प्रारंभ करने के लिए मोड़बन्ध विवाह या मंडप माँड कर विवाह करने की बाध्यता नहीं है. इसलिए इनमें सबसे लोकप्रिय एवं प्रचलित विवाह नाहटा अथवा ताड़ना कहलाता है जिसमें भगाकर ले जाने का रिवाज होता है. जब भी किसी मेले, बाजार में मिलते हैं तो अपने साथी का चयन कर वैवाहिक जीवन धारण कर सकते हैं.
विवाह-शादियों में गरासियों को बहुत खर्च करना पड़ता है. इतना खर्च ये कर नहीं सकते. इसलिए इनके विवाह बहुत कम होते हैं, पर परिवार सभी बसा लेते हैं.
लड़का जब जवान हो जाता है तब वह अपनी हमउम्र लड़की की तलाश में रहता है. इसी तलाश में लड़की भी रहती है. दोनों के परिवार भी इसमें पूरा-पूरा सहयोग करते हैं. लड़की-लड़का अपनी ही जनजाति-बिरादरी का होता है. दोनों को कोई प्रसंग ढूंढ कर मिला देते हैं. यों इनमें विवाह पूर्व लड़की को किसी से मिलने की पूरी आजादी है. मिलने पर युवक-युवती एक-दूसरे को भेंट देंगे. यह भेंट कांच, बिंदी, रूमाल और रोजमर्रा की जरूरत की चीज होती है. जब दोनों का प्रेम पक्का हो जाता है तब वे किसी मेले में मिलने का तय कर वहाँ से भाग निकलते हैं. सियावा के मेले में ऐसे युगल प्रेमी सर्वाधिक भागते सुने जाते हैं.
लड़की को उड़ाकर युवा गरासिया कहीं छिपता नहीं है. वह सीधा अपने पितृगृह पहुंचता है. माता-पिता सब समझ जाते हैं. लड़के का पिता यह सूचना अपने पटेल को देता है. वह पटेल अपने आदमी लड़की के गांव के पटेल के पास भेजकर सूचना देता है कि आपकी लड़की हमारे यहाँ आई है. उसे कहीं ढूंढने की जरूरत नहीं है, आप पंचायत ले आओ और मेल्या कर लो.
अगर लड़की को ढूंढने में कोई पैसा खर्च होता है तो उसका भार भी लड़के के परिवार को ही वहन करना पड़ता है.
इधर लड़की का पिता पंचायत लेकर लड़के के गांव जाता है. शुरुआत में नाराजगी दिखाई जाती है, इसलिए पंचायत सीधे लड़के के घर ना जाकर गांव के बाहर किसी पेड़ के नीचे बैठती है.
सूचना मिलते ही उस गांव का पटेल अपनी पंचायत लेकर लड़की वालों से आकर मिलता है. लड़की वालों से आग्रह किया जाता है कि बच्चों ने फैसला कर लिया है. अब आप मीठी कर लो. वे अपने साथ मीठे के रूप में गुड़िया शक्कर लाते हैं. इसके बाद वधु-धन तय किया जाता है. जब दोनों पक्ष रजामंद है तो पंच भी अपनी सही राय देते हैं, परंतु हरजाने के रूप में लड़के के पिता को एक निश्चित रकम लड़की के पिता को देनी होती है, जो पंच तय करते हैं. अमूमन यह रकम पांच से दस हज़ार होती है. बहुत अधिक पैसे नहीं माँगे जाते क्योंकि कल को उधर का कोई लड़का इधर की लड़की को भगाकर ले जायेगा तो उन्हें भी अधिक धन देना पड़ेगा.
दापा राशि स्वीकार करने के साथ ही युवक के परिवार जन एवं गांव के पटेल उस युवती की रक्षा का भार भी अपने ऊपर ले लेते हैं. ससुराल में युवती अपने पति के साथ हर प्रकार के कार्य में सहयोग देती है. घर का काम-काज करती है.
ऐसी अस्सी प्रतिशत गरासिया मिलेंगे जो इसी रूप में अपने जीवन साथी का वरण किए हुए हैं. विवाह की रस्म कहीं होती भी हैं तो बहुत बाद में जब उनके संताने हो जाती हैं. ऐसे मौके भी आते हैं जब पिता-पुत्र एक साथ शादी रचाते हैं. इसलिए इनमें कहा जाता है कि यह कुंवारे होते हुए भी विवाहित होते हैं.
गरासियों में प्रजनन परिवारों का भी प्रजनन है. विवाह के तुरंत बाद लड़का अपने पिता से पृथक मकान बनाकर रहता है. पिता अपनी भूमि का एक हिस्सा उसे जोतने के लिए दे देता है. पिता की फलिया में ही इस भांति उसका पुत्र स्थापित हो जाता है.
समाज भी उसके पृथक निवास को मान्यता देता है. पिता की मृत्यु के बाद परिवार की सम्पति का बंटवारा समान रूप से पुत्रों में हो जाता है. इस बंटवारे में निकट संबंधी, पटेल और गांव के प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं. सामान्यतः गरासिया लड़के जब विवाह योग्य हो जाते हैं, पिता से अपनी जमीन लेकर अलग हो जाते हैं. सबसे छोटा लड़का पिता के परिवार में रहता है. यदि परिवार में अतिरिक्त पशु हुए तो छोटी लड़की को कुछ पशु दे दिए जाते हैं. यदि कोई पिता बिना किसी उत्तराधिकारी के मर जाता है तो उसकी संपत्ति उसके भाइयों के हिस्से में चली जाती है. ऐसी अवस्था में भाई संपत्ति के एक भाग को मृत व्यक्ति की लड़कियों में बांट देता है.
गरासियों की विवाहित लड़की अगर बीमार हो जाती है तो उसके ससुराल वाले बहू के पिता को खबर भेजते हैं. दवा-चिकित्सा आदि उनके समक्ष की जाती है. अगर बीमारी की सूचना नहीं दी जाए और युवती ससुराल में मर जाती है तो उसकी लाश को सुरक्षित रखते हैं. युवती के पिता को बुलाया जाता है. यदि युवती के पीहर वाले लाश देखकर आश्वस्त हो जाते हैं कि मृत्यु स्वाभाविक रुप में हुई है और ससुराल वालों की ओर से किसी प्रकार की लापरवाही नहीं हुई है तो सारा कार्य सौहार्द पूर्वक संपन्न हो जाता है किंतु यह ज्ञात हो जाए कि युवती की मृत्यु जानबूझकर लापरवाही से हुई है तो उसका बैर लिया जाता है.
बैर एक व्यक्ति की हत्या के बदले दूसरे की व्यक्ति की हत्या भी हो सकती है, अन्यथा दोनों गांव के पंच मिलकर किसी तरह के समाधान का उपाय ढूंढते हैं. इसमें जानमाल की रक्षा के लिए पंच फैसला यथाशीघ्र आवश्यक होता है. पंच फैसला नहीं होने तक दोषी परिवार ही नहीं वरन् उसके सभी भाईबंध खतरे में पड़ जाते हैं कि मृतक महिला के पीहर वाले न मालूम किसकी हत्या कर दें इसलिए बचाव के लिए समूह में हथियारों से लैस होकर चलते हैं.
इस प्रकार के खतरे से बचने का एकमात्र उपाय पंच फैसला है. पंच फैसले में मृतक महिला के पिता द्वारा बैर की राशि माँगी जाती है जो आजकल दस लाख या ऊपर भी होती है. मृतक परिवार के पास यह राशि नहीं होने पर उसके गांव के भाई-बंध मेरनी (चंदा) कर समझौते की राशि अदा करते हैं. महिला की हत्या के ऐसे मामले पचास वर्ष बाद भी सुलझाए गए हैं.
अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी की हत्या कर देता है तो इसकी सूचना महिला के पीहर में जाते ही वहाँ के पुरुष और औरतें हथियार लेकर दौड़ पड़ते हैं. हत्यारे के घर को जला देते हैं. लूट-पाट मचाते हैं. पंच फैसले के समक्ष अथवा कोर्ट के केस के समय इस परंपरागत लूट का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता.
इस तरह से गरासिया नारी अपने व्यक्तिगत और आर्थिक जीवन में स्वतंत्र है. माता-पिता द्वारा भी यदि सगाई की व्यवस्था की जाती है तो उसमें लड़की की सहमति आवश्यक है.
शादी के पूर्व किसी लड़की का मिलना- जुलना अपराध नहीं माना जाता. उस पर प्रतिबंध केवल भावी ससुराल जाने पर ही होता है. पुरुष अपनी पत्नी के साथ अन्य पुरुष से संबंध सहन नहीं कर सकता. इन्हीं संबंधों की धुरी में पत्नी को ससुराल में जीवन व्यतीत करना होता है.
सामान्य तौर पर प्रत्येक गरासिया किसी भी परिस्थिति में अपनी स्त्री या प्रेयसी को अप्रसन्न नहीं रखना चाहता. अपनी स्त्री के लिए 15-30 मीटर कली के घागरे, मोतियों एवं सिल्मे सितारों वाली रंगीन जुल्की, रंगीन ओढ़नी, सिर पर चांदी का बोर (बोरयू) बोर के पास नीचे त्रिकोण आकार का चांदी का जबला, कानों में ओगन्या, दामानी, सोने के भगरिया, गले में ठोस चांदी की हांसली, चेनवाली हांसली, गले में ही छोटे-छोटे चांदी के पत्तों का हारियू व हाथों में सफ़ेद लाख के चूड़े जो छोटे-छोटे कांच टुकड़ों से सुसज्जित होते हैं.
अविवाहित लड़कियाँ, बहुधा यही चूड़ा पहनती हैं. हाथ, पांवों में चांदी के पावला, पांवों में अंगूठियां जिन्हें पोलादी कहते हैं. गले में कांच के मोतियों का हार भी स्त्रियाँ पहनना पसंद करती हैं. गरासिया अपनी पत्नी की साज-सज्जा के लिए हर प्रकार का आर्थिक बोझ सहन करने के लिए सदैव तैयार रहता है. पुरुष स्वयं भी सदैव कानों में चांदी के झेले, झरमरिये, हाथों में चांदी का कड़ा (मातलियो) पांव में बिडे (कड़ा) वक्षस्थल पर चांदी का मादलिया, कमर में चांदी का कंदोरा तथा चांदी के ही बटन (हांकली) पहनना पसंद करता है.
गरासियों का जीवन उदास एवं दु:खी नहीं होता. उनका जीवन जितना सामाजिक तानों-बानों से गुथा हुआ है उतना ही आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर है. आनंद ही इनके जीवन का रस है. अपनी प्रेयसी या पत्नी के बिना एक पल भी किसी भी तरह के कार्य में प्रवृत्त नहीं होते. इसी कारण कई विकासात्मक प्रवृतियां दोनों के संग-संग ही चल पाती हैं. बालर, कूद, माँदल, लूर, गोंद, घूमडू, मोरियो, ढोल आदि नृत्य सांस्कृतिक संपन्नता के सूचक हैं. अपने गोत्र की पहचान के लिए अपनी-अपनी कुलदेवी (गोतरेज) विवाह के समय माँड कर प्रकट करते हैं. प्रत्येक गोत्र वाले अपने-अपने गोतरेज की पूजा करते हैं. आशापुरी, चामुंडा, शीतलामाता, कालका कुलदेवी के रूप में पूजी जाती हैं. विवाह के लिये गोत्र की पहचान कुलदेवी से भी हो जाती ही क्योंकि अलग-अलग गोत्र की कुलदेवी अलग होती हैं.
लड़की का जन्म सूपड़े (छाज) को बजाकर घोषित किया जाता है जबकि लड़के के जन्म पर ताली बजायी जाती है. प्रसव में गांव की कोई बड़ी-बूढ़ी स्त्री सहायता करती है. बच्चे की नाल को नुकीले तीर से काटा जाता है. नाल मकान से बाहरी उत्तरी भाग में गाड़ दी जाती है. प्रसव के सातवें दिन बाद माँ को चूरमे के पांच लड्डू बनाकर कुलदेवी के देवरे ले जाया जाता है. यहाँ पांच मुट्ठी मक्का भी चढ़ाई जाती है. प्रसव करवाने वाली स्त्री को कुछ अनाज और मिट्टी का घड़ा दिया जाता है.
प्रसव के बाद की सप्ताह भर की अवधि में माँ को विशेष भोजन दिया जाता है. इसमें गुड़, सौंठ, अजवाइन और घी होते हैं. इस अवधि में माँ और बच्चे की रक्षा भूत-प्रेत व चुड़ैल से की जाती है. इस रक्षा का सबसे बड़ा निदान यह है की माँ हमेशा अपने पास लोहे की कोई न कोई वस्तु अवश्य रखती है.
नवजात शिशुओं के नामकरण संस्कार का उत्सव होली पर होता है इस अवसर पर आसपास के गांव की लड़कियों को नये जन्मे बच्चे के नाम देने के लिए आमंत्रित करते हैं. प्रथम जन्मे बालक का नाम अधिकांश जीवौ, जीवली या अमरो, अमरी रखते हैं.
इनके नामों पर विश्वास रखते हैं कि बालक दीर्घायु हो, चिरायु हो. बहुत से नाम सुझावात्मक और बुद्धिमता पूर्ण होते हैं जैसे कि ‘असरी’ नाम अधिक लड़कियाँ का जन्म के बाद रखते हैं कि इतना ही नहीं- फिर भी लड़की और होती है तो नाम देते हैं ‘भूली’ (भूल से आई), या ‘भूडी’ (बुरी), धापी. बच्चे का रंग काला हो तो नाम रखते कालू, कालिया, काली, कालून्दी आदि. अगर रंग गोरा हो तो भूरो, भूरू, भूरियो, भूरी, भूरकी, गौरी, गोरकी आदि नाम देते हैं.
इसी तरह दिन के नाम पर मंगलौ, मंगली, महीने के नाम पर भादो, भादी, अनाज के नाम पर मौठीयौ, मौठी, तिथि के नाम पर तीजो, तीजी, वृक्ष के नाम पर झाम्बू (जामुन) झामूडो, झामूडी इत्यादि नाम रखते हैं.
गरासिया जनजाति राजस्थान की ही नहीं, संपूर्ण देश की रंगीन एवं कलायुक्त पहनावे के लिए जानी-मानी जनजाति है. गोगुंदा होते हुए हम आबूरोड़ के रास्ते जाते हैं तो सिर पर लकड़ियां या अन्य कोई सामान लादे गरासिया अपने चमकदार पहनावे में अलग ही नज़र आते हैं.
यदि परंपरागत पहनावे की दृष्टि से देखें तो गरासिया गैर गरासिया से एकदम अलग थलग दिखाई देता है. वह दाढ़ी और मूंछ रखता है. पटेल की दाढ़ी और मूंछ तो रौबदार होते हैं. मूंछ और दाढ़ी शौक नहीं है. ये प्रतिष्ठा और शक्ति के प्रतीक हैं. वह गरासिया पटेल भी क्या हुआ, जिसके मूंछें नहीं हैं, लहरदार दाढ़ी नहीं है. मैंने देखा आजकल ऐसा रिवाज कम हो रहा है. जीवाराम के पटेल पिता ना तो दाढ़ी रखते हैं और ना ही मूंछें. पटेल हो या आम गरासिया सिर पर पोटिया बांधता है. पोटिया का रंग उम्र के अनुसार होता है.
वयस्क व्यक्ति लाल रंग का पोटिया बांधता है और वृद्ध सफेद रंग का. गरासिया शरीर पर कुरता-झुलकी जिसके चार बटन होते हैं और आधी बांह का होता है पहनते हैं. वयस्क गरासिया जूते पहनता है लेकिन बच्चों के लिए जूते विलासिता है.
गरासिया स्त्रियों की पोशाक तड़क-भड़क वाली होती है. उनमें प्रचलित रंग चटक लाल, हरे,काले और पीले होते हैं. शरीर के ऊपरी भाग में यह झुलकी पहनती हैं. यह झुलकी बनावट में पुरुषों की झुलकी से भिन्न होती है. झुलकी के अंदर पोलका पहना जाता है. शरीर के निचले भाग में स्त्रियां घागरा पहनती हैं. यह घागरा कमर के नीचे कसा होता है और टखने तक पहुंचते-पहुंचते फैल जाता है. घागरे का घेर सामान्य से अधिक होता है. गरीब स्त्रियां छोटे घेर के घागरे पहनती हैं. शरीर के ऊपरी भाग में हाडला या ओढनी पहनी जाती है.
‘गोदना’ आदिवासियों का कभी न उतरने वाला स्थाई गहना है. स्त्रियों को सदैव सुहागिन बनाए रखता है. गहने तो मृत्यु उपरांत उतार लेते हैं परंतु यह शरीर पर चित्रित गहना श्मशान में भी साथ जाता है, उसे कोई उतार नहीं सकता. इसे यह लोग सौंदर्य की निशानी और सुखदायी मानते हैं.
गरासिये ही नहीं संसार के समस्त आदिवासियों ने इसका महत्व स्वीकारा है. गरासियों में अपना नाम,प्रेमी प्रेमिका का नाम, देवी-देवताओं के रेखाचित्र उकेरने की प्रथा प्रचलित है.
गरासियों का लोक विश्वास है कि भगवान के चित्र गुदवाले से भूत-प्रेत और दुष्टात्मा नजदीक नहीं फटकती. गुदवाने से जीवन में सुख-शांति, हंसी-खुशी तथा आनंद और प्रेम का वातावरण बनता है. गरासिया लोग हाथ- पांव पर गोदना गुदवाकर ताकतवर अनुभव करते हैं. औरतें पिंडलियों पर गुदवा कर विश्वास करती हैं कि पांवों में शक्ति प्राप्त होती है. हनुमान का चित्र शक्तिशाली बनाता है. बिच्छू शरीर में विष नहीं चढ़ने देता. राम को आदर्श गृहस्थी का प्रतीक मानते हैं. सर्प का चित्र निर्भय बनाता है. जानवर, पक्षी और वृक्षों के चित्र गोदने से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना जगाती है. इनको चोर चुरा नहीं सकता, न यह गहना टूट सकता है, न खो सकता है और न शरीर से क्षणभर भी दूर होता है और न ही कोई उसे उतार सकता. मृत्यु उपरांत भी साथ चलता है और परलोक तक साथ जाता है, ऐसा इनका विश्वास है.
गरासियों के आभूषण कांसे,चांदी और नकली पत्थरों के होते हैं. पुरुष और स्त्री दोनों ही आभूषण पहनते हैं. पुरुषों के आभूषण में झेला, झरमरिया, कड़ा, कंदोरा और हाकली सम्मिलित है. स्त्रियां प्रायः बिटली, बोरयू, जबला, भगरिया, हाथपान और हांसली पहनती हैं.
गरासिया आमतौर पर चांदी के जेवर पहनते हैं. कुछ ऐसे गरासिया जो आर्थिक दृष्टि से थोड़े ठीक-ठाक हैं, सोने का बोर सिर पर गूंथतें हैं. कभी-कभार ऐसे परिवारों की स्त्रियाँ कान और नाक में सोने की नथ और बाली पहनती हैं. पर यह सब अपवाद है. आम गरासिया लड़की और स्त्री तो बाजार में खूब बिकने वाले सिंथेटिक मोती के हार और कड़े पहनती हैं. साप्ताहिक हाट में मनिहारी की ऐसी वस्तुओं की बिक्री बहुत होती है.
वैशाखी पूर्णिमा को इन आदिवासियों का समूह जुड़ता है. संघ एकत्रित होता है जिसे ये ‘हंग’ कहते हैं. यह हंग पांच वर्ष में एक बार कभी अंबाजी तो कभी आबूजी जाता है.
आबू की नक्की झील इनका वह पवित्र स्थान है जहाँ ये अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन करते हैं. यह नक्की झील नक्खी झील है. नख यानी नाखून से यह खोदी गई है इसलिए यह बड़ी पवित्र मानी जाती है. इस झील सम्बंधी कई किस्से इनमें प्रचलित हैं.
पूरे ‘भाखरपट्टा’ में जाम्बूड़ी की होली का जवाब नहीं. होली पर गरासिया अपनी फ़लिया में ही रहना पसंद करते हैं. लेकिन होली के लिए मैंने जीवा राम को जाम्बूड़ी के लिए तैयार कर लिया. मुझे पता था कि उसके छोटे भाई की ससुराल वहीं है.
जाम्बूड़ी में दो सौ घरों की बस्ती होली पर गांव के चौराहे पर प्रत्येक घर से एक-एक बल्ली लाकर गरासिया होली के थड़े रखेगा. घास-फूस आदि से ढेर कर देगा. जंगल से और भी लक्कड लट्ठ लायेंगे और और हंसी- खुशी से होली मनायेंगे. रात को दो-तीन बजे तक सारे के सारे गांव नृत्य गीतों की ताल और गूंज से आसपास दूर-दूर तक के जंगल को गुंजा देते हैं. आसमान पर पूरा चांद, आग के चारों और मस्त होकर झूम-झूमकर नाचते गरासिया और इन दिनों आदिवासी जंगलों में आग लगा देते हैं. इस मनोरम दृश्य को देखना आल्हादित करने वाला था.
सुबह जब सारे लक्कड़ जलकर तेज अंगारे बन जाते हैं तब युवक मिलकर उन अंगारों पर खेलते- कूदते थिरकेंगे. इस समय ढोल के ढमाकों की गूंज सारे आकाश को एक गहराती गूंजती विशेष गर्राई में उठा लेते हैं.
बीस-पच्चीस ढोल जब एक साथ बजे उठते हैं, तब गरासियों का मंगल देखते बनता है. जंगल में सचमुच का मंगल देखना हो तो जांबुड़ी चले जाइए.
गरासियों के त्योहारों के गीत बहुत सरल और प्रिय होते हैं. होली का ये गीत देखिये-
आयी रे सोदरणी रात, होळीयो कुण जाई रे
रेमणा सरकी रात रे, धोरी रमणा आवो रे
किये वैने परदेस, होळीयो कुण जाई रे
जावो मारा वीरा, कीणा वधवै औणू रे
होळीयो कुण जाई रे
इसमें होली के त्यौहार का महत्व आंकते हुए गरासिया महिलायें कहती हैं- देखो, आ गई चांदनी रात. होली को किसने जन्म दिया? यह कितनी सुंदर है. यह पूर्णिमा की रात्रि खेलने जैसी है. आओ ‘धोरी’ पर खेलने चले. उनको जाकर परदेश में कहना कि होली को किसने बनाया? हे मेरे प्रिय भाई! उनको निमंत्रण देकर ले आओ. होली आ गई है. होली जैसा सुंदर त्यौहार किसने रचा?
होली के बाद से गरासियों के मेलों की बाढ़ आ जाती है. त्रयोदशी को अंबाजी के पास कोटेश्वर का मेला. अमावस्या को देलवाड़ा के पास कोटड़ा कोसीना रोड़ पर चेतर- विचितर मेला. इस मेले का पौराणिक संदर्भ है. उनके कथा-किस्से कई तथ्य उजागर करते हैं. वैशाख कृष्णा पंचमी को सियावा गांव का गणगौर मेला इनका सबसे बड़ा मेला भरता है. लगभग ढाई सौ बरसों से यह मेला लगता आ रहा है. सियावा गांव में तीन फली हैं- माता का खेड़ा, जलैया फली और सियावा गांव फली. इन तीन फली में बांसिया, डूंगाइच तथा सिरीमिया बांसिया गोत्र के गरासिया रहते हैं. इनमें प्रतिवर्ष एक-एक गोत्र गणगौर लेते हैं. चैत्र शुक्ला एकम को पांच युवक और पांच युवतियां गणगौर का व्रत लेती हैं. बीस दिन तक गौर माता का अखंड दीपक जलता रहता है और वे युवक-युवतियां प्रतिदिन अपने सिर पर गणगौर को लेकर गाते-नाचते रहते हैं. केवल लोठे में नीम-फल सहित डालियां या अन्य फूलावली लगा दी जाती है. वही गौर-ईसर (पार्वती-शिव) स्वरूप होता है.
अंतिम दिन ये साक्षात स्वरूप धारण करते हैं, तब बांस की खपचियों के सहारे इन्हें आदम रूप दिया जाता है. दोनों के मुंडे (मुंह-मुखोटे) काठ के बने होते हैं जो लगा दिये जाते हैं. फूल पत्ती, खजूर के कच्चे फल खजूरे,आम के पत्ते, महुआ फल आदि की मालाएं बनाकर गौर-ईसर को सजाते हैं और संध्या को विशेष जुलूस-उत्सव के साथ नाचते-गाते मेले में पहुंचते हैं. यहाँ गणगौर-ईसर का विवाह रचाया जाता है.
इस मेले में प्रत्येक गरासिया-गरासियन भाग लेना अपना पवित्र कर्तव्य समझते हैं. इनके झुंड के झुंड रात-रात भर गाते- नाचते चले आते हैं. तब मेले के प्रत्येक हंग को आटा दिया जाता जिससे रोटले बनाकर खाते. अब यह प्रथा नहीं रही. अकाल की मार ने उनके साथ जबरदस्त चोट की. अब इतनी फसल भी नहीं होती.
नृत्य गरासियों की विशेष पसंद है. यह इनकी ‘रचनात्मक’ शक्ति को प्रकट करने का माध्यम है और एक सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी है. रोजमर्रा के जीवन को यह तरोताजा करता है. थकान को मिटाता है. नाचना इनके हंसी-खुशी तथा मस्ती से जीने का ढंग है, इससे आंतरिक खुशी बाहर झलकती है. नृत्य के समय शरीर के विभिन्न अंगों से अनेक हावभाव और विचार संपादित होते हैं. इसमें लय और गति में पूरी एकाग्रता होती है, चाहे वह पांवों की गति हो चाहे हाथों की. इससे अच्छे ढंग से, सुंदर एवं आकर्षक बनाने के लिए गोल घेरा बनाकर नाचते हैं और बीच में ढोल और साज बजते हैं.
गरासियों के अस्सी तरह के पारंपरिक नाच हैं, जिसमें निम्नांकित मुख्य एवं महत्वपूर्ण हैं-
वालर नाच, मादळ नृत्य, खु़ड़ नृत्य, लुर नाच, रंगल – खंगळ नाच, गोर का नृत्य, जुलारू नृत्य, घूमर नृत्य, बेरला नृत्य, मोर नृत्य, ढोल नाच, रायन (देवी) नृत्य, तिनखा या अग्नि नृत्य, भोपा नृत्य, गेर नृत्य, हेर नृत्य इत्यादि.
इसी तरह गरासियों के अपने स्वयं के पृथक तरह के वाद्य-यंत्र होते हैं. यह वाद्य-यंत्र मिट्टी के, काष्ठ के,धातु के तथा चमड़े के बने होते हैं. इनमें मुख्य निम्नांकित है –
मादळ, कुण्डी, डफ (चंग), डमरू, थाली, मंजीरा, झालर, बकतुरीया, बांसुरी, धोरीयुं, ढोल इत्यादि.
मोर को ये आदर्श पक्षी और अपना भांजा मानते हैं. मोर के कई गीत हैं. एक गीत में मोर से सवाल-जवाब हैं. उससे पूछा जाता है- ‘तुम्हारे मामा कौन हैं? ‘ वह कहता है- ‘बारह मेघ मेरे मामा हैं और तेरह बिजली मेरी मामियां हैं.’
लीला मोरिया रे थारे कुणे रो तूं भाणेज
लीला मोरिया रे मेघां रो मूं भाणेज
लीला मोरिया रे कुण हैं थारा मामा
लीला मोरिया रे बारे मेघा मारा मामा
लीला मोरिया रे कुण है थारी मामी
लीला मोरिया रे तेरे बिजली मारी मामी
गरासियों में कथा-किस्से बहुत प्रचलित हैं. किस्सा है एक बार मोर ने गेंद उछाली. बारह बरस का अकाल पड़ा. खाने को तो क्या देखने तक को अन्न का दाना नहीं. बादलों ने समझा की मोर भी मारे अकाल के मर गया होगा पर जब उसे जिंदा पाया तो उसके धैर्य और सहनशीलता पर बड़ा अचरज हुआ. मोर को पूछा कि क्या खाकर जिया होगा? उसने कहा-
‘नाज नहीं था तो क्या हुआ, कंकड़ तो थे. मैं उन्हीं को खाकर जीवित रहा. इन कंकड़ों के लिए मुझे कम मेहनत नहीं करनी पड़ी. कितना भटका हूँ. देखो ना मेरे पांव. कैसे बेडोल हो गये हैं. नाच तक बिगड़ जाता है तभी तो इन्हें देखकर रोता हूँ.’
धार्मिक दृष्टि से गरासिया आत्मावाद में विश्वास रखते हैं. पहाड़ी भाखर क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी प्रकृति और उसकी आपदाओं से बराबर भयभीत रहते हैं. प्रकृति के अतिरिक्त ये आदिवासी सवजी अर्थात् भगवान शिव और शक्ति (देवी) की उपासना करते हैं. वे कहते हैं कि भगवान शंकर उनके भाखर और जंगल में पार्वती के साथ कहीं विहार करते हैं. देवी देवताओं के अतिरिक्त आदिवासी भूत प्रेत में विश्वास रखते हैं. उन्होंने भूत-प्रेत को दो श्रेणियों में बांट रखा है: हितकारी और दुर्गम्य. हितकारी आत्माएं बीमारी और रुग्ण अवस्था में सहायता देती हैं जबकि दुर्गम्य आत्माएँ जीवन में दुख देती हैं.
आदिवासियों में विवाह, मौताणा, विभिन्न सामाजिक भोज, बैर की सूचनाओं के लिए अलग-अलग ढोल बजाये जाते हैं. मृत्यु की सूचना भी एक विशेष प्रकार के ढोल को बजा कर दी जाती है. छिटपुट बसावट में ढोल ही ऐसा साधन है जिसके द्वारा गांव के लोगों को एकत्रित किया जा सकता है. जब सब लोग मृतक के घर पहुंच जाते हैं, तब दाग की तैयारी की जाती है. दाग के लिये सभी अपने हाथ में लक्कड़ लेकर आते हैं. श्मशान घाट पर जाते हुए रास्ते पर मक्की के दाने फेंके जाते हैं. यह काम कोई भी नजदीक का नातेदार करता है. गरासियों की यह मान्यता है कि कभी-कभी बुरी आत्मा वापस लौट कर आती है. यदि ऐसा हुआ तो इस आत्मा को बिखरे हुए मक्की के दाने एकत्रित करने में सारी रात गुजर जाएगी और सुबह होते-होते अधूरा काम छोड़कर भाग जाना पड़ेगा.
शमशान पर चिता को आग देने का कार्य भानजा करता है. इस अवसर पर सभी रिश्तेदार अपने सिर का फेटिया उतार लेते हैं. यह मृत आत्मा को आदर देने का सूचक है. संपूर्ण परिवार तेरह दिन तक शोक मनाता है.
जंत्र-मंत्र में गरासियों का दृढ़ विश्वास है. लोकधारणा है कि प्रत्येक गरासिया जादू- मंत्र में पारंगत होता है. यह विद्या पुरुष और स्त्रियों दोनों जानते हैं. अधिकांश मनुष्य तो इसका प्रयोग-उपयोग जनहित के लिये काम में लेते हैं परंतु कुछ लोग तो हानि भी पहुंचाती हैं. ये मानते हैं कि स्त्रियों में स्वार्थ और ईर्ष्या की भावना अधिक होती है. इन तांत्रिक स्त्रियों को तीन भागों में बांटा जा सकता है:
१. डायन २. मैली ३. स्यारी
इनका विश्वास है कि यह डायन औरतें दूसरी स्त्रियों, बच्चों या जानवरों को लगती हैं और रह-रह कर कष्ट देती हैं. अन्य को डायन बनाकर अपनी संख्या बढ़ाती हैं.
इसी तरह गरासिया शकुन और स्वप्न में विश्वास करते हैं तथा उनका अर्थ निकालते हैं. जैसे- खाती पक्षी यात्रा में प्रस्थान करते समय दायीं ओर दिखाई दे तो शुभ और बाईं ओर दिखाई दे तो अशुभ समझते हैं. इसी तरह सपने में अगर छत्ते से मधु निकले तो सर्दी-जुकाम होगा, पुलिस पकड़े, सांप, बाज दिखाई दे तो वर्षा होने की पूरी संभावना रहती है.
गरासियों के अशिक्षित होने से अज्ञान, अंधविश्वास, कुपोषण और स्वच्छता की कमी से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और बीमारी बढ़ती है. दरिद्रता भी इसमें एक कारण है जिसके कारण यह लोग संतुलित और पौष्टिक आहार नहीं ले पाते. जंगल और पर्वत के निवासी होने से अनेक रोग लग जाते हैं. ज्वर, मलेरिया, दाद-खुजली, फोड़ा- फुंसी, वमन, अतिसार, नारू अधिक होते हैं. गंदा पानी पीने से भी अनेक रोग लग जाते हैं. ये लोग देवस्थान, ‘बूझ’ भोपों के भाव, जंत्र-मंत्र-तंत्र, झाड़-फूंक, टोटके, डोरे, ताबीज, उतारणा, आवारणा आदि में आदिकाल से विश्वास रखते हैं. पर्वतीय अंचल के पूरे जानकार होते हैं. देशी जड़ी-बूटी का इन्हें अच्छा ज्ञान होता है. यहाँ तक भी पूरी जानकारी रखते हैं कि कौन सी जड़ी-बूटी किस स्थान पर उपलब्ध है. अग्नि कर्म से दाग कर भी ये लोग उपचार करते हैं. किस रोग में किस अंग पर किस जगह, कैसा और कितना अग्नि कर्म ( दाह कर्म) करना, उसका पूरा अनुभव होता है.
अपने स्वयं के पेशाब (शिवाम्बु) और गोमूत्र से भी इलाज करते हैं. महुआ के फूल, बीज तथा छाल से भी इलाज करते हैं. देसी इलाज के उदाहरण हैं- ज्वर में सिलूटी और अडूसा दोनों की जड़ कूट-पीसकर यह काथ उबालकर दिन में तीन बार पिलाते हैं. सर्प का विष नावरवेल, अंकोरी, ककोरी, अरीना, विद्रेक, धतूर, आक तथा केर, इन सबकी जोड़ों को कूट-पीसकर मिलाकर दंश पर लेप करते हैं और घृत में यही औषधि पिलाते हैं. वमन होने दें, रोकें नहीं. पानी नहीं पिलायें तथा नींद नहीं लेने दें. इसी प्रकार से ये जड़ी-बूटियों से अपना उपचार करते हैं.
आख़िर में यही कहूँगा कि गरासियों पर सदियों से पृथक्करण की ऐसी मार पड़ी कि ये आज भी मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाये हैं. कुछ टापरे पक्के मकानों में बदल गये हैं, जीवा राम जैसे कुछ गिनती के लोगों की अध्यापक या बाबू के रूप में नौकरी भी लगी है लेकिन आम गरासिया से विकास आज भी कोसों दूर है. आने वाले कुछ दशकों में भी इनकी स्थिति में कुछ सुधार होगा, ऐसा लगता नहीं है.
ज्ञान चंद बागड़ी विगत 32 वर्षों से मानव-शास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन.उपन्यास , कहानी, यात्रा वृतांत और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन, मासिक पत्रिका ”जनतेवर” मे स्थाई स्तंभ ”समय-सारांश” वाणी प्रकाशन, दिल्ली से ”आखिरी गाँव” उपन्यास प्रकाशित. एक यात्रा वृतांत और दूसरा उपन्यास , अंग्रेजी- हिन्दी में छपने हेतु प्रकाशनाधीन.सम्पर्क : १७२ , स्टेट बैंक नगर, मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली – ११००६३ gcbagri@gmail.com/मोबाइल : ९३५११५९५४० |
बहुत खूबसूरत लेख ।
शानदार और भावप्रवण लेखन में बागड़ी जी को महारथ हासिल है🙏💕
पहली बार बागड़ी जी को पढ़ा। पूरी तरह विषय-केंद्रित ऐसी भाषा कम पढ़ने को मिलती है। विवरणो का तो जखीरा है।
बागड़ी जी ने बहुत विस्तार और प्रामाणिकता के साथ गरासिय अजन जाति के बारे में यह लेख लिखा है. मैं क्योंकि लगभग 25 वर्ष उसी इलाके में रहा हूं, यह बात अधिकार पूर्वक कह सकता हूं कि लेखक ने इस जन जाति के साथ पूरा न्याय किया है. लेखक को बधाई!
ज्ञान चंद जी को पढ़ना हमेशा ही एक अलग किस्म का अनुभव होता है। हिंदी-जगत की समृद्धि के लिए ऐसे लेखकों का होना ज़रूरी है।
।तथ्यात्मक एवं प्रमाणिक आलेख।।सूक्ष्म विवरण।
गरासियों के विषय में अच्छी जानकारी।