घाटशिला बुला रही थी,
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सुबह-सुबह उठना मेरे लिए बहुत कठिन है. देर रात तक जागना कहीं आसान. पर शनिवार, आठ जुलाई, 2017 को सुबह-सुबह घाटशिला के लिए रेलगाड़ी पकड़नी थी. लालमाटी एक्सप्रेस. घाटशिला का आकर्षण तो था ही. घाटशिला जाने वाली रेलगाड़ी का नाम भी मुझे आकर्षक लगा! कितना तो प्यारा नाम है- लालमाटी एक्सप्रेस! गंतव्य और गंतव्य तक ले जाने वाली रेलगाड़ी- दोनों ने ही मुझे सुबह-सुबह जग जाने का बल दिया! घाटशिला घूमने और उससे कहीं ज्यादा सतीश जयसवाल जी से लंबी लुकाछिपी के बाद आखिर मिलने का सुयोग पाने के उत्साह में मैं सुबह-सुबह उठकर, नहा-धोकर तैयार हो गया और सात बजे टैक्सी पकड़ कर हावड़ा स्टेशन के लिए चल दिया. इस उत्साह के बीच, नींद में बेसुध सोई अपनी दोनों नन्ही बेटियों- पुलकिता और आलोकिता को गले लगाए बिना और उनसे विदा लिए बिना चल देने का हल्का-सा दुख कुछ दूर तक साथ बना रहा… जब से पिता बना हूँ, यह सुख मुझे बांधे रखता है! और अब तो मैं अपने परिचय में खुद को दो प्यारी-प्यारी बेटियों का पिता ही बताता हूँ! अब यही मेरा सबसे सुंदर परिचय है!
हावड़ा स्टेशन पर कोलकाता से ही श्री राकेश श्रीमाल और उनके छात्र श्री रजनीश और बर्धमान से श्रीमती श्यामाश्री सरकार तथा उनके पति हमारे कारवां में जुड़ने वाले थे. श्यामाश्री जी ने ही लालमाटी एक्सप्रेस में टिकट बुक कराने की सलाह दी थी. बिलासपुर से सतीश जी अपने दो साथियों- श्री तनवीर हसन और डॉ. धीरेन्द्र बहादुर सिंह के साथ सीधे घाटशिला पहुँचने वाले थे. स्टेशन पर पहले श्रीमाल जी और रजनीश मिले. फिर कुछ देर में ही श्यामाश्री और उनके पति श्री तृप्तिमय सरकार. हम सब एक दूसरे से नितांत पहली बार मिल रहे थे पर अपरिचय नहीं था. फोन पर बतियाना और फेसबुक पर मिलना-जुलना हो चुका था. शायद इसलिए भी श्यामाश्री जी ने मुझे मुझसे पहले पहचान लिया! मैंने जो गाढ़े नीले रंग की छींटदार कमीज पहन रखी थी, उससे यकीनन उनको मुझे पहचानने में मदद मिली होगी और इस मौजूं मदद के लिए फेसबुक को शुक्रिया तो कहा ही जा सकता था!
हरियाली और रास्ता
हम हावड़ा के दक्षिण-पूर्व रेलवे यानी नए वाले स्टेशन पर थे. लालमाटी एक्सप्रेस पहले बीस नंबर प्लेटफार्म पर आने वाली थी. पर आई बाईस नंबर प्लेटफार्म पर. चूंकि हम सब अकेले-अकेले और बिल्कुल कम सामान के साथ थे, इसलिए हमने भारतीय रेल की इस चिर-परिचित अदा का बगैर किसी अफरातफरी के, हँसते-हँसाते भरपूर मजा लिया! अपनी बोगी पर सवार होने से लेकर अपनी आरक्षित-अनारक्षित सीट पर विराजमान होने तक अमूमन जो खट्टे-मीठे, चुटीले-चटपटे-अटपटे अनुभव प्रायः हर यात्री को होते हैं, उन सबसे सहर्ष और सहज भाव से गुजरते हुए, अंततः मैं बर्षों बाद रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में बैठने के सुख और पहली बार घाटशिला जाने के रोमांच में डूब गया!
घाटशिला मेरे अपने ही गृहराज्य झारखंड में है. पर कभी जाने की नहीं सोची. नाम सुन रखा था पर कभी जाने की उत्सुकता नहीं बनी. अपने गृह जिला दुमका से जमशेदपुर तक तो गया था पर आगे जाना नहीं हुआ कभी. हम अक्सर देश-दुनिया की सैर करने के मंसूबे मन में लिए घूमते रहते हैं पर हम अपने ही नगर, अपने ही राज्य के सैलानी नक्शे पर कभी नजर तक नहीं फेरते! यह तो सतीश जी की बहुत पुरानी जिद थी कि घाटशिला जाने का संयोग बन गया! सतीश जी से ही मैंने यह बात सीखी कि छोटी-छोटी और अनजानी-अनसुनी जगहों पर जाने का सुख क्या होता है!
गाड़ी अपने हिसाब से चल रही थी पर हम तय समय से देर से ही घाटशिला पहुँच पाएँगे, यह तय हो गया था. पर मुझे भी कोई हड़बड़ी नहीं थी. राकेश श्रीमाल जी से चूंकि पहली बार मिल रहा था, इसलिए कुछ देर बतियाना भाया. फिर मैं कभी बरास्ते खिड़की, कभी बरास्ते गाड़ी के दरवाजे, बाहर की दुनिया से एकमेक होता रहा. वैसे भी मुझे सफर में किताबों का हमसफर बनने से कहीं ज्यादा, खिड़की से बाहर सरपट भागती दुनिया का हमसफर होना ज्यादा सुहाता है! रास्ते में बारिश तो नहीं थी पर बादलों की गश्त जारी थी. बरसात में वैसे भी प्रकृति पूरे शवाब पर थी! बंगाल से भाया खड़गपुर, झारखंड के टाटानगर को जाती यह पट्टी वैसे भी हरदम हरी-भरी ही रहती होगी. बरसात में बस यह हरियाली तीज में सजी-संवरी दुल्हन की तरह लग रही थी! मुदित, मादक और मनमोहिनी!
लाल माटी ने मन मोह लिया!
एक-एक कर स्टेशन पार हो रहे थे. प्रायः छोटे-छोटे, अनसुने नाम वाले. हाँ, झारग्राम सुना हुआ नाम था. हर जगह गाड़ी रूकती थी. चूंकि मैं इस मार्ग पर पहली बार यात्रा कर रहा था और इसी मार्ग पर खड़गपुर भी था तो मन में आईआईटी से ज्यादा देश के सबसे लंबे प्लेटफार्म को देखने की उत्सुकता थी! खड़गपुर आया तो एक-दो मिनट नीचे उतरकर प्लेटफार्म की लंबाई महसूस करने की गुपचुप कोशिश की. पर कुछ अनुमान न हो सका. यह स्टेशन और प्लेटफार्म भी मुझे अन्य स्टेशनों की तरह ही सामान्य लगा. शायद यहाँ इत्मीनान से ठहरकर कुछ देखता-महसूसता तो शायद कुछ अलग-अनूठा दिख सकता था. खैर, हमारी गाड़ी जैसे-जैसे घाटशिला के नजदीक पहुँचती जा रही थी, दोनों तरफ हरियाली भी बढ़ती जा रही थी. और वहाँ की मिट्टी भी लाल रंग की नजर आने लगी थी. इस लाल माटी ने एकबारगी मेरा मन मोह लिया! मुझे समझते देर न लगी कि इस रेलगाड़ी का नाम लालमाटी एक्सप्रेस क्यों रखा गया था!
हम घाटशिला पहुँचने वाले थे. इस बीच किसी छोटे-से स्टेशन पर एक नेत्रहीन गवैया टेपरिकॉर्डर पर हिंदी के पुराने सुहाने गाने गाते-बजाते हमारे डिब्बे में दाखिल हुआ. बंगाल में रेलगाड़ियों में तरह-तरह से तरह-तरह के सामान बेचने वाले, पीठ खुजाने से लेकर कान खुजाने के नायाब औजार तक बेचने वाले तो चढ़ते ही हैं, इस तरह गाने गा-सुनाकर दो-चार रुपए जुटाने-कमाने वाले भी खूब चढ़ते हैं. रोजाना के एकरंगे सफर में ये कुछ रंग और रस घोल देते हैं! लोग उनसे अपनी पसंद और फरमाइश के गाने सुनते हैं और बदले में उन्हें कुछ पैसे दे देते हैं.
हमारी गाड़ी किसी गाँव के सीमांत से गुजर रही थी. मैंने देखा- उस गाँव में मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर सब एक ही जगह बने हुए थे! मुझे यह परस्पर सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे का बहुत अनूठा उदाहरण लगा! महज चंद सेकेंड में दिखा यह दृश्य मुझे उम्र भर याद रहेगा. कह सकता हूँ, हमारे असली भारत के निशान इन जैसे हजारों गाँवों में अब भी साबूत बचे हुए हैं, जिन्हें कोई सत्ता हरगिज नहीं मिटा पाएगी!
घाटशिला स्टेशन की बुद्ध जैसी मुस्कान!
जब हम घाटशिला के छोटे-से शांत-सलोने स्टेशन पर उतरे तो मन जुड़ा गया! छोटे स्टेशनों का आलस भरा खालीपन और खुलापन मन को एक चिर-प्रतीक्षित शांति के सुख से भर देता है! प्लेटफार्म की दूसरी तरफ़ हरियाली ही हरियाली थी! बिल्कुल पास तक पसरे खेत थे, बिल्कुल पास तक झुके हरे-भरे, छोटे-बड़े पेड़-पौधे थे और सुदूर पहाड़ियों की शिरोरेखाएँ बिल्कुल पास दिख रही थीं!
प्लेटफार्म से बाहर निकलने के लिए कोई धकमपेल नहीं करनी पड़ी. स्टेशन के प्रवेश-निकास द्वार पर बड़े स्टेशनों जैसा तामझाम नहीं था, शांत-स्थिर विनम्रता थी. पुरानी रंग-रोगन और छोटी-सी पुरानी इमारत में धड़कते इस स्टेशन के द्वार के ऊपर सीमेंट की पट्टी पर पीली पृष्ठभूमि पर काले रंग में लिखा ‘घाटशिला‘ जरूर चमक रहा था! मुझे लगा, वह मुझे देखकर, मेरे स्वागत में मुस्कुरा रहा था! मुझे उसकी मुस्कान बुद्ध जैसी लगी! मैंने भी मद्धम-सी मुस्कान के साथ उसका अभिवादन किया. बाहर ऑटो लगे थे पर यात्रियों को घेर-घारकर अपने ऑटो में बैठा लेने वाली चिल्लपों नहीं थी. मानो सब जानते हों, हम उनके अतिथि हैं और उन्हें अतिथियों का सत्कार करना आता था! हमने एक ऑटो किया और चल दिए अपने ठहरने के ठिकाने – रामकृष्ण मठ की ओर!
रिक्शा या ऑटो में सवार होकर, शहर की गलियों- मुहल्लों से गुजरते हुए, आँखों से शहर की नब्ज टटोलने की कौतूहल भरी कोशिश करते हुए गंतव्य तक पहुँचने का मजा ही कुछ और होता है! इतनी देर में हम अलग तरह के रोमांच और उत्सुकता से भरे होते हैं! हम इस मजे में बस डूबे ही थे कि हमारा सफर समाप्त हो चुका था. यही तो छोटी जगहों की खासियत होती है! उन्हें आप पैदल भी नाप सकते हैं! हम कुछ मिनटों में ही रामकृष्ण मठ के मुख्य द्वार पर थे!
रामकृष्ण मठ का आत्मीय आतिथ्य
मठ में प्रवेश करते ही मठ के वातावरण ने मन मोह लिया! हमारे ठहरने के लिए यहाँ कमरे बुक थे. कमरे में पहुँचकर तसल्ली हुई. मठ का विश्राम-गृह भी इतना सुंदर-सुसज्जित होगा, सोचा न था! यहाँ के कमरे भी किसी होटल के कमरों से कम न थे. तभी सतीश जी का फोन आया, जल्दी से भोजन के लिए आ जाओ! देर न करो. हम सब और स्वामी जी प्रतीक्षा कर रहे हैं. दोपहर के पौने दो बज चुके थे. मैं झटपट हाथ-मुंह धोकर भोजन के लिए चल दिया. मठ में मठ के निर्देश, नियम, अनुशासन के अनुसार ही हमें चलना होगा.
मठ के मंदिर में जल्दी से प्रणाम कर भोजन-कक्ष में पहुँचा तो देखा कि सतीश जी और उनके साथी भोजन कर रहे हैं और कोलकाता से पहुँचे हम पांच लोगों के लिए थाली लगी हुई है! स्वामी जी को प्रणाम किया तो उन्होंने सीधे पूछा, बाकी लोग कहाँ हैं? भोजन का समय समाप्त हो चुका था, इसलिए वे हमारी देरी पर थोड़े नाराज हो रहे थे. खैर, मैं भोजन के लिए बैठ गया. स्टील की थाली में एक-एक कर भात, दाल, तरकारी, चटनी, पापड़ परोसी गई. फिर थोड़ी-सी पायस यानी खीर. मुझे तेज भूख लगी थी और खाने में गजब मीठा, सात्विक स्वाद था! मैं बहुत दिनों बाद बाहर इतना स्वादिष्ट भोजन खा रहा था, मानो घर में ही खा रहा हूँ! ऊपर से स्वामी जी का सहज अपनापन! मैं भरपेट और मांग-मांगकर, तृप्त होकर खाया. कहीं और, किसी होटल में खाता तो न तो इतना स्वादिष्ट, सात्विक भोजन मिलता और न ही इतनी आत्मिक तृप्ति मिलती!
मठ के नियम के अनुसार भोजन के बाद अपनी थाली खुद धोनी थी. थाली धोते समय सहसा मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गए! स्कूल के दिनों में हम हॉस्टल के मेस में खाते थे और अपनी थाली खुद धोते थे. आज कितने वर्षों बाद वे दिन और वे अनुभव दुबारा जीवंत हो उठे! मठ में थाली खुद धोने के नियम के पीछे सेवा भाव, संन्यास भाव और स्वावलंबन भाव तो थे ही, यह बात भी निहित थी कि हर कोई थाली मन से, अच्छे से धोएँ क्योंकि अगली बार भोजन आपके धोए थाली में ही परोसा जाएगा! मुझे मठ के भोजन के साथ-साथ यह नियम भी खूब भाया! तन-मन दोनों को ही खूब तृप्ति और आनंद की अनुभूति हुई!
कमरे में लौटकर थोड़ी देर लेट गया. कुछ ही देर में हम सबको घाटशिला घूमने निकलना था. कमरे में लेटे-लेटे ही सतीश जी से कुछ व्यक्तिगत बातें हुईं. लंबे समय से संपर्क में रहने के बावजूद मैं उनसे पहली बार मिल रहा था तो मेरे मन में भी कुछ उत्सुकता तो थी ही! बातचीत में ही उन्होंने कहा- मैंने शादी नहीं की! मुझे कुछ अचरज हुआ. कुछ सवाल मेरे मन में कुलबुला रहे थे पर बातचीत किसी दूसरी तरफ घूम गई. कुछ ही देर में श्री रवि रंजन जी आ गए. वे घाटशिला के ही किसी कॉलेज में पढ़ाते हैं और कुछ ही दिनों पहले उनका यहाँ तबादला हुआ है. उन्होंने ही रामकृष्ण मठ में हमारे ठहरने की व्यवस्था की थी. वे हमारे स्थानीय गाइड भी थे. हम सब उनकी अगुवाई में घाटशिला घूमने निकल पड़े.
बुरूडीह झील के पानी में पहाड़ के होंठ तैर रहे थे!
तय यह हुआ कि हम सबसे पहले बुरूडीह झील देखने चलेंगे क्योंकि यह घाटशिला से करीब बारह किलोमीटर दूर है और हमें सूर्यास्त से पहले लौट आना होगा. इसके बाद हम सुवर्णरेखा नदी देखने जाएंगे और अंत में बांग्ला के सुप्रसिद्ध साहित्यकार विभूति भूषण बंदोपाध्याय का घर देखने जाएंगे. तो हम लोगों ने दो ऑटो बुक किया और चल दिए बुरूडीह झील की ओर. एक ऑटो में राकेश श्रीमाल, रजनीश, श्यामाश्री और तृप्तिमय सवार थे. दूसरे ऑटो में सतीश जी, रवि रंजन, धीरेन्द्र बहादुर सिंह, तनवीर हसन और मैं सवार थे. पहले वाला ऑटो तो पटाक से काफी आगे निकल गया लेकिन हमारा ऑटो ड्राइवर हाईवे से निकलने की फिराक में टाटा-कोलकाता को जोड़ने वाले निर्माणाधीन हाईवे पर चढ़ने का रास्ता ढूंढ़ने में ही काफी वक्त गंवा चुका था! खैर, हम कुछ देर से ही सही, बुरूडीह के रास्ते में थे. मैंने मजाक में कहा कि पहले वाले ऑटो का ड्राइवर जनमार्गी था, इसलिए वह गली-कुचे से ही फुर्र से निकल गया! हमारा ऑटो ड्राइवर राजमार्गी है! इसलिए वह राजमार्ग पर ही सवार होने की जुगत ढूंढ़ने में हलकान था! रास्ते में कविता, साहित्य, राजनीति आदि पर कभी गंभीर, कभी चुटीली चर्चाओं से हमारा सफर और रसरंजक हो रहा था.
बुरूडीह का रास्ता गाँवों से होकर गुजरता था. रास्ते के दोनों तरफ हरियाली थी, कच्चे-पक्के घर थे. मिट्टी के घरों की दीवारों पर सुंदर चित्रकारी की गई थी. आदिवासी समेत प्रायः सभी ग्रामीण क्षेत्रों में दीवारों पर ऐसी चित्रकारी देखने को मिलती है. चाहे वे राजस्थान के गाँव हों या झारखंड के. मिट्टी की दीवारों पर प्रायः फूल-पत्तियों और पशु-पक्षियों के चित्र मांड़े जाते हैं. और रंगों और शैलियों में भी प्रायः अधिक अंतर नहीं होता. प्रकृति के संग-साथ जीवन-यापन करने वाले समाज खुद को प्रायः एक ही तरह से अभिव्यक्त करते हैं शायद! घरों के आगे बड़े-बड़े, औसत से कहीं अधिक ऊँचे-ऊँचे देशी मुर्गे देखकर हम सब जरूर हैरान थे!
गाँवों-बस्तियों और हरे-भरे उजाड़ों से गुजरते हुए हम जब बुरूडीह झील पहुंचे तो दंग रह गए! हमें एकबारगी लगा कि हम घने जंगलों-पहाड़ों से घिरी, एकदम हरी-भरी किसी घाटी में आ गए हैं! यह तीन तरफ से घनी पहाड़ियों से घिरी, पहाड़ियों की गोद में बनी बड़ी झील थी. झील की परीधि पहाड़ियों की तलहटियों को छूती थी. झील के पानी में पहाड़ियों की परछाइयां कुछ इस तरह तैर रही थीं मानो झील में खुद पहाड़ियाँ ही तैर रही हों! झील में एक जगह दो-तीन पहाड़ियों और उनकी इकट्ठी परछाई कुछ इस तरह बन रही थी मानो आकाश और पानी में खूबसूरत होंठ तैर रहे हों!
वहाँ के मनोरम दृश्य ने सबके मन को बाँध लिया था. सब झील के तटबंध से इस दृश्य को अपनी आँखों और कैमरों में बाँधने में मगन थे. पर मेरा मन झील के पानी में उतरने को आतुर था! इसलिए मैं तटबंध से लगी सीमेंट की सीढ़ियों से झील के पानी तक चला आया और चप्पलें उतार कर पानी में ठेहुना भर उतर आया! पानी में उतरते ही एक अलग-सी सुखद अनुभूति हुई और लगा कि अब जाकर यहाँ आना पूर्ण हुआ! एक-एक कर सब पानी तक चले आए! सब पानी में उतर आए! यहाँ से चारों ओर का नजारा और भी सुंदर दिख रहा था. हम सबने पानी में खूब छपाछप किया, खूब तस्वीरें लीं और फिर वापस तटबंध पर आ गए. वहाँ चाय की एक गुमटी थी. हमने चाय पी और शाम ढलने से पहले वहाँ से सुवर्णरेखा नदी के लिए चल दिए! मन में बुरूडीह झील बस गई थी. लग रहा था, काश, यहाँ कुछ देर और ठहर पाता!
मेरे पाँवों के होंठ सुवर्णरेखा का जल चूमना चाहते थे!
जिस रास्ते से आए थे, उसी रास्ते से लौट रहे थे. पर इस बार कुछ अलग अनुभूति हो रही थी! हम दोपहर में आए थे और गोधूलि में लौट रहे थे. इसलिए दोपहर के दृश्य उतर चुके थे और प्रकृति और जीवन- दोनों के कैनवास पर नए यानी साँझ के दृश्य उभर आए थे!
शहर भी शाम का चोला पहनने लगा था! इस बार हम अलग दिशा में थे. शहर का नजारा भी अलग था. सड़कें अधिक खुली-खुली और सा़फ-सुथरी थीं. दोनों तरफ सरकारी पीली इमारतें ज्यादा दिख रही थीं. हमारा ऑटो ड्राइवर हमारा लोकल गाइड बना हुआ था. सुवर्णरेखा नदी तक के रास्ते में उसने कई खास जगहों के बारे में जानकारी दी. उसने ही वह डाक-बंगला दिखाया जहां ‘सत्यकाम‘ फिल्म की शूटिंग के लिए धर्मेंद्र और शर्मिला टैगोर ठहरी थीं. उसने ही ‘हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड‘ के दफ्तर, प्लांट और गेस्ट हाउस दिखाए. उसने ही बताया कि साहब, यहाँ तीस तरह के मेटल रिफाइन होते हैं! कॉपर प्लांट के मेन गेट पर सिक्योरिटी के पास सारे मेटल एक बॉक्स में डिस्प्ले किए हुए हैं. यकीन न हो तो जाकर देख सकते हैं! उसने ही एक तरफ लगे काले-काले ढेरों की तरफ इशारा करते हुए बताया कि ये जो ढेर देख रहे हैं न, ये कॉपर प्लांट से ही कचरा के रूप में निकलता है. लेकिन इसमें भी बहुत मेटल बच जाता है. इसका भी टेंडर हो चुका है. बाहर की कंपनी है जो रोज सारा माल उठाकर उड़ीसा ले जाती है. उसने ही बताया कि ये जो कचरा है न, इससे बड़े-बड़े जहाजों की काई साफ की जाती है. इसलिए भी इसकी डिमांड है! वह अपनी रौ और उत्साह में कई रोचक बातें बताए जा रहा था.
हम सुवर्णरेखा नदी पर बने पुल पर पहुँच गए थे. नदी की काया दिखने लगी थी. पुल से गुजरते हुए भी रोमांच महसूस हो रहा था. ऑटो वाले ने पुल पारकर कच्चे रास्ते से हमें एकदम नदी के किनारे तक ले आया. यहाँ से नदी, उसपर बना पुल, पुल के उस पार से दिख रहा हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड के प्लांट से उठता धुंआ, पुल पर से गुजरती इक्का-दुक्का गाड़ियाँ – सब मिलकर एक सम्मोहक दृश्य रच रहे थे!
हम सुवर्णरेखा के तट पर खड़े-खड़े, सुवर्णरेखा के विस्तार को, उसकी दुबली हो गई काया को, उसपर तिरते बादलों को, उसपर झुक आए आकाश को, उसपर ढल रही शाम को, उसपर बंधे पुल को, पुल पर से थोड़ी-थोड़ी देर में गुजरती गाड़ियों, ट्रकों, टेम्पुओं को, पुल के उस पार कॉपर प्लांट की चिमनियों से उठते धुओं को, नदी के बीच अवशेष की तरह बच गई पुरानी पुलिये पर बैठ जाल फेंक-समेट रहे लोगों को देर तक निहारते रहे. आपस में बतियाते रहे. पहले वाले ऑटो के ड्राइवर ने नदी के बीच एक चट्टान की तरफ इशारा करते हुए बताया कि उस पत्थर को हाथी पत्थर कहते हैं. बरसात में जब यह पत्थर डूब जाता है तो नदी का पानी पुल तक आ जाता है. उसी ने बताया कि हम जहाँ खड़े हैं, उस जगह को मौहबंदर कहते हैं क्योंकि पहले यहाँ महुआ खूब होता था. इन दोनों ही ऑटो ड्राइवरों ने हमें कई स्थानीय जानकारी दीं. पर मेरा मन अब बातों में नहीं, नदी में नहाना चाहता था. मेरे पाँवों के होंठ सुवर्णरेखा का जल चूमना चाहते थे!
मैं पगडंडी पकड़कर पुरानी पुलिये तक उतर आया. कुछ लोग पानी में सड़ाए पटसन से रस्सी बांट रहे थे. कुछ उलझे जाल सुलझा रहे थे. कम उम्र के एक दो युवक पुलिया के नीचे ओट में बैठे बतिया रहे थे. एक आदमी अपनी मोटरसाइकिल लेकर एकदम पुलिया के बीचोबीच चला आया था. पुलिये पर पानी से छनकर निकले खर-पतवार पसरे थे. उन्हीं के बीच से लकीर-सा पतला फिसलन-भरा रास्ता बना हुआ था. संभल-संभलकर कदम रखते मैं पुलिया के आखिर तक गया. वहाँ से नदी बहुत पास लगी और उसके बहते पानी का कलकल स्वर मेरे कानों तक पहुंचने लगा था. कुछ देर ठहरकर मैं लौट आया. बीच में बैठे लोगों के पास कुछ देर बैठा, एक छोटे-से बालक को थोड़ा पुचकारा, उनके साथ एकाध सेल्फी खींची.
अब तक सुवर्णरेखा के जल के स्पर्श का जुगत नहीं बन पाया था. लौटते समय एक जगह लगा कि यहाँ से नदी में उतरा जा सकता है और मैं झटपट उतर गया. सुवर्णरेखा के जल में पाँव रखते ही, मेरे पाँवों के होंठ मानो रोमांच और तृप्ति के सुख में बुदबुदा उठे! मैं कुछ देर तक सुवर्णरेखा के जल में पाँव डुबोये रखा. पानी पारदर्शी था और मेरे मुदित पाँव पानी से बाहर झांक रहे थे. मैंने सुवर्णरेखा के जल में मगन-मुदित अपने पाँवों की कुछ तस्वीरें लीं. पानी से झांक रहे पाँवों के साथ कुछ सेल्फी खींची और सुवर्णरेखा को अपना प्रणाम अर्पित कर बाहर आ गया. पाँवों में सुवर्णरेखा का साबुनी चिकनाई वाला जल कुछ दूर तक साथ चलता रहा!
बिभूति के आंगन में चाँद शामियाना ताने हमारा इंतजार कर रहा था!
बिभूति बाबू का घर हमारा अंतिम गंतव्य था. सूरज कब का जा चुका था पर उजाला बाकी था. शाम के छह नहीं बजे थे. इसलिए दर्शन के लिए हमें उनका घर खुला मिला. यह कोई हवेली नहीं थी. एक लेखक का घर जैसा होता है, वैसा ही था. दो-तीन कमरे, बाहर एक बरामदा, उसके सामने एक तुलसी चौरा और एक खुली जगह. बाहर बिभूति बाबू की एक मूर्ति लगी थी. भीतर के कमरों में उनके कपड़े, उनकी लेखनी के नमूने, उनके पत्र, उनके उपन्यासों की प्रतियाँ सजाकर रखी हुई थी. कहा जाता है कि जंगल की ड्यूटी करते हुए ही यहीं पर उन्होने अपने सारे उपन्यास लिखे थे.
बरामदे में कुछ देर बिभूति बाबू से जुड़ी बातों की चर्चा हुई. फिर मैं बाहर आ गया. बाहर चाँद आसमान में पुरकश चमक रहा था मानो चाँदनी का शामियाना ताने हमारा ही इंतजार कर रहा था! बाहर खाली पाँव घास पर टहलना अच्छा लगा. खुले आकाश में चमकता पूरा गोल चाँद देखना भी अच्छा लगा! इसी अनुभूति के साथ हम बिभूति के आंगन से मठ के प्रांगण में लौट आए.
विदा से पहले कविता
अब तक रात के लगभग आठ बज चुके थे. हम सब अपनी थकान धो-पोंछकर एकबार फिर तरोताजा हो चुके थे. हम सब अपनी कविताओं के साथ अब मठ के एक बड़े-से बरामदे में उपस्थित थे. इस बार चक्रधरपुर से आए उमरचंद जायसवाल और रामावतार अग्रवाल भी शामिल थे. यह कोई साहित्यिक आयोजन नहीं था. यहाँ न तो कोई आयोजक था और न ही कोई प्रायोजक. इसलिए इसका स्वरूप नितांत अनौपचारिक और खुला था. सबने एक-एक कर अपनी-अपनी कविताएँ सुनाईं. मैंने भी अपने दूसरे कविता-संग्रह ‘क्या हुआ जो‘ से कुछ कविताएँ सुनाई, जिनपर संक्षिप्त चर्चा हुई. कविता से ऊबने का कोई कारण तो नहीं था पर फिलहाल मेरा मन दिन भर की अनुभूतियों से अबतक रोमांचित था, शायद इसलिए मेरा मन कविता में बंध में नहीं पा रहा था. खैर, कविता सुनने-सुनाने का दौर जल्दी ही समाप्त हो गया क्योंकि सतीश जी और उनके साथियों को वाया टाटानगर, बिलासपुर के लिए रात में ही निकलना था. मठ में रात का भोजन कर हम सब एकबार फिर जुटे, पर इस बार एक दूसरे को विदा करने के लिए!
भोजन के बाद मठ के स्वामी जी से कुछ देर बातचीत हुई. वे मठ के प्रमुख महंत हैं और उनका पूरा नाम स्वामी विज्ञानानंद जी है. उन्होंने बताया कि वे मूलतः मद्रास के हैं लेकिन तीस-चालीस वर्षों से वे यहाँ हैं. उनका व्यवहार बहुत आत्मीय था और वे सबका खूब ख्याल रख रहे थे. सतीश जी और उनके साथियों को विदा करने के बाद श्यामाश्री, उनके पति तृप्तिमय और मैं मठ में कुछ देर टहलते रहे. मठ की नीरव शांति, तारों भरा आकाश और मंद-मंद बहती हवा तन-मन को शीतल कर रही थी. लग रहा था, कुछ देर और टहल लूँ. लेकिन श्यामाश्री को भी एकदम सुबह-सुबह ही निकलना था, इसलिए हम सब एक-दूसरे से विदा लेकर अपने-अपने कमरे में लौट आए.
बारिश की ख्वाईश पूरी हुई!
अगले दिन कलकत्ते के लिए हमारी रेलगाड़ी दोपहर बाद थी. इसलिए मुझे सुबह उठने की जल्दी नहीं थी. थकान खूब थी, इसलिए नींद जल्दी आ गई. सुबह नहा-धोकर तैयार हो गया और समय से नाश्ता करने पहुँच गया. स्वामी जी से वहीं भेंट हो गई. आज गुरु पूर्णिमा था, इसलिए नाश्ते में भी विशेष व्यंजन बने थे. भरपेट नाश्ता करने के बाद मैं और रजनीश घाटशिला में ही स्थित रणकिनी मंदिर के दर्शन को निकल पड़े. मठ से दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर अपने स्थापत्य, शिल्प और आकार-प्रकार में है तो बिल्कुल साधारण, पर है ऐतिहासिक महत्व का. जादूगोड़ा के पहाड़ पर भी रणकिनी मंदिर है पर वहाँ जाने-आने के लिए हमारे पास अधिक समय नहीं था. इसलिए हम घंटे-भर में ही मठ लौट आए. मठ के कार्यालय में जाकर कुछ औपचारिकताएँ पूरी की और मठ में आश्रय देने के लिए हृदय से आभार व्यक्त किया. मठ के मंदिर में प्रणाम किया और अपने कमरे में लौट आए.
दोपहर का भोजन कर थोड़ी देर आराम करने के बाद हम कोलकाता लौटने के लिए घाटशिला स्टेशन आ गए. इस्पात एक्सप्रेस आने में देरी थी. इसलिए हम रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर ही टहलते-उबते रहे. नियत समय से लगभग डेढ़ घंटे बाद हमारी गाड़ी आई. खैर, हम घाटशिला के ढेर सारे अनुभव और रोमांच के साथ गाड़ी पर सवार हो गए. मैंने इस बार संकोच त्यागकर खिड़की वाली सीट ले ली. पूरे घाटशिला-भ्रमण के दौरान कहीं बारिश नहीं मिली थी पर वापसी में मूसलाधार बारिश मिली! बारिश की ख्वाईश पूरी हुई! मैं खिड़की से अपने हाथ बाहर कर भींगता रहा! बारिश को महसूसता रहा. अपने हाथों को ही भिंगोकर अपना तन-मन बारिश में नहलाता रहा!
लगभग पूरे रास्ते बारिश होती रही और मैं घाटशिला की ढेर सारी स्मृतियों और बारिश की बूंदों के निर्बाध चुंबनों से तृप्त होकर अपने घर लौट आया! हाँ, मन में दुबारा फिर कभी घाटशिला जाने और रामकृष्ण मठ में ही कुछ दिन ठहरने की चाह जरूर घर कर चुकी थी!
(सभी फोटो राहुल राजेश के कैमरे से)
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राहुल राजेश
मोबाइल नं. 09429608159.
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