‘गिरीश कारनाड नाटकास कसे लिहितात हो’!रंजना मिश्र |
गिरीश कारनाड नाटकास कसे लिहितात हो ! फार परावलंबी कला आहे बुवा’
(गिरीश कार्नाड नाटक क्यों लिखता है भाई, कितनी परावलम्बी कला है !)
ये शब्द प्रख्यात साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त मराठी कहानीकार श्री जी ए कुलकर्णी (गुरुनाथ आबाजी कुलकर्णी) के हैं जिसमें आश्चर्य और प्रशंसा का मिला जुला पुट नज़र आता है और साथ ही नाटय लेखन और रंगमंच से जुडी सच्चाई का अंश भी. नाटककार किसी ठहरे हुए तालाब में एक कंकड़ फेंकता है जिससे पैदा होने होने वाली तरंगें दिग्दर्शक, मंच्सज्जा, वेशभूषा, अभिनय और कलाकारों से होतीकई पढाव पार करती जब आखिरी पंक्ति के आखिरी दर्शक तक पहुँच उसे अपनी गिरफ्त में लेकर उसके भीतर घटित नहीं होने लगती तब तक वह नाटककार सफल नहीं, इस तरह हर नाटककार परावलम्बी ही होता है.
गिरीश रघुनाथ कार्नाड (१९ मई १९३८) के व्यक्तित्व में नाटककार, अभिनेता, कवि, चित्रकार, लेखक, सांस्कृतिक, राजनितिक, सामाजिक कर्मी सारे रंग ऐसे घुले मिले थे कि इन्हें अलगाना कठिन है. उनकी सृजनात्मकता अपनी मिटटी, भाषा और लोगों नैतिक राजनितिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़कर विशिष्टता के उस शिखर पर पहुंची जहाँ शायद इक्का दुक्का लोग ही पहुँच पाएऔर आनेवाले वर्षों में सृजनात्मक प्रतिबद्धता के कई प्रतिमान बनाए वहीँ उसी उंचाई पर स्थापित रही.
उनका जन्म महाराष्ट्र के माथेरान में कोंकणी सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ और बचपन ग्रामीण महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में गुज़रा पर सिरसी में बिताए समय ने उनके भीतर के नाटककार को जन्म दिया जहाँ यक्षगान और नाटकों की परम्परा से वे परिचित हुए और जो कवि और चित्रकार बनने की आकांक्षा से होता हुआ २३ वर्ष में पहले नाटक ‘ययाति’ (१९६०) के लेखन के समय नाटकों पर आकर ठहरा. बचपन को याद करते हुए किसी साक्षात्कार में उन्होंने कहा था यक्षगान उन दिनों मूलतः निचली जातियों में अधिक प्रचलित लोकनाट्य की तरह देखा जाता था तो वे अपने माता पिता के बिना घरेलू कामगारों के साथ नाटक देखने जाते, हो सकता है बचपन के इन दिनों ने भी उनके भीतर कला के माध्यम से समाज को समझने और जोड़ने की भूमिका तैयार की हो. बाद के वर्षों में उत्तर कर्नाटक के सांस्कृतिक गढ़ धारवाड़ में हुई शिक्षा, धारवाड़ के बुद्धिजीवीवर्ग से जुड़ाव शायद कन्नड़ में लेखन का कारण बनी.
उनके नाटक मिथक, इतिहास और लोककथाओं का आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ऐसा पुनर्लेखन रहे जो अपने छह दशकों की यात्रा में दर्शकों, पाठकों के मानस में कितने ही सवाल उठाते उन सच्चाइयों से रूबरू कराते रहे जो समाज की जड़ों को खोखला करता आया है. साथ ही ये नाटक मानव अस्तित्व के शाश्वत प्रश्नों से भी जूझते दिखाई देते हैं. ‘ययाति’ ऐसे ही सवाल उठाती उनसे जूझने की कोशिश करती दिखाई देती है जिसमें हर व्यक्ति जैसे दुःख और द्वन्द्व का एक भँवर है और फिर वह भँवर एक नदी का हिस्सा भी है; और यह हिस्सा होना भी पुनः एक दुःख और द्वन्द्व को जन्म देता है। इसी तरह एक श्रृंखला बनती जाती है जिसका अन्त व्यक्ति की उस आर्त्त पुकार पर होता है कि ‘भगवान, इसका अर्थ क्या है ?
आधुनिक भारतीय रंगमंच के पुनर्जागरण की यात्रा धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, बादल सरकार, विजय तेंदुलकर और गिरीश कर्नाड के बिना अधूरी है. कन्नड़ में लिखे गए उनके सभी नाटकों का अनुवाद अंग्रेजी और अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में हुआ. कुछ नाटक उन्होंने अंग्रेजी में भी लिखे जिसे वे अन्तराष्ट्रीय दर्शकों तक ले जाना चाहते थे. सत्यदेव दुबे से जब वे पहली बार मिलने गए तो सत्यदेव दुबे ने समझा ऑक्सफ़ोर्ड से लौटे कार्नाड अंग्रेजी में ही नाटक लिखते होंगे पर जैसे ही उन्हें पता चला कार्नाड के नाटक कन्नड़ में लिखे गए हैं, उन्होंने कार्नाड को गले लगा लिया. गौरतलब है गिरीश कार्नाड के नाटकों की भाषा मराठी नहीं कन्नड़ रही हालांकि मिथक, लोककथाओं से जनमानस का जुड़ाव भी इनके नाटकों की सफलता का प्रमुख कारण रहा पर कार्नाड उन मिथकों लोककथाओं गाथाओं और इतिहास को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जिस तरह पुनर्परिभाषित करते थे, उनके साथ नए प्रयोग करते थे वह अनोखा था.
१९५८ में अपनी स्नाकोत्तर शिक्षा के लिए वे मुंबई आ गए और गणित विषय चुना जिसके बारे वे कहते हैं– ‘स्कॉलरशिप के लिए मुझे गणित से बेहतर कोई विषय नहीं सूझा क्योंकि इसमें मैं बेहतर कर सकता था. बाद में गणित की शिक्षा मेरे रंगमंचीय सफलता के काम भी आई क्योंकि गणित अनुशासन और तर्कसंगत सोच की मांग करता है और रंगमंच बिना अनुशासन और तर्कसंगति के संभव नहीं’. ऑक्सफ़ोर्ड में उन्होंने दर्शन, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र का विषय चुना. ऑक्सफ़ोर्ड जाने के पहले ही उन्होंने ययाति (१९६०) लिखा और जब वे वापस आए तो ययाति एक सफल कृति बन चुकी थी.
ऑक्सफ़ोर्ड के दिनों ने ही उन्हें तटस्थता से भारतीय समाज को देखने की दृष्टि भी प्रदान की और वे समझ पाए दुनिया नए भारत को किस दृष्टि से देखती है. ऑक्सफ़ोर्ड से वापसी के बाद वे ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, मद्रास और १९७४ में फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे में निदेशक होकर आए. नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, अमरीश पुरी जैसे अभिनेता उन दिनों फिल्म संस्थान के स्वर्ण युग का निर्माण कर रहे थे और छात्रों और प्रशासन के बीच की खटपट में नसीर और गिरीश कई बार एक दूसरे के विरुद्ध भी खड़े हुए पर जब श्याम बेनेगल ने ‘निशांत’ के लिए किसी नए अभिनेता का परिचय माँगा तो वे गिरीश कार्नाड ही थे जिन्होंने नसीर का परिचय श्याम बेनेगल से करवाया. नसीरुद्दीन शाह और श्याम बेनेगल ने आगामी वर्षों में समानांतर सिनेमा का जो इतिहास रचा वह किसी परिचय का मोहताज़ नहीं.
१९७५ आपातकाल के दिनों में विद्याचरण शुक्ल ने जब कार्नाड को कुछ ऐसी फ़िल्में बनाने को कहा जिससे सरकार की छवि को बेहतर दिखाया गया हो तो कर्नाड का जवाब था– ‘अपने आखिरी छह महीनों में आप मुझसे यह आशा कर रहे हैं!’
वे फ़िल्में नहीं बनी, और कार्नाड ने छह महीने पहले ही त्यागपत्र दे दिया और स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की.
१९६४ में ‘तुगलक’ लिखा जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी खुद ही किया, तुगलक उनकी यात्रा में मील का पत्थर साबित हुई जिसके मंचन में इब्राहीम अल्काजी, मनोहर सिंह जैसी हस्तियाँ एक साथ आईं. मुहम्मद बिन तुगलक के जटिल व्यक्तित्व पर केन्द्रित यह नाटक कार्नाड को आधुनिक रंगमंच के इतिहास में शामिल करनें को अकेला ही काफी था. संस्कारा (१९७०) (कन्नड़ फिल्म) हयवदन (१९७५) नाग मंडला (कन्नड़-१९९०) उनके उल्लेखनीय नाटक और फिल्म रही. हिंदी फ़िल्में स्वामी, मंथन, निशांत, गोधुली, चेल्वी, वो घर, उत्सव, सूत्रधार, सुर संगम, अग्नि वर्षा, डोर, इकबाल, और आखिरकार ‘टाइगर जिंदा है’ और भी कई फिल्मों में अभिनय और निर्देशन से जुड़े कार्नाड टी वी धारावाहिक मालगुडी डेज और इन्द्रधनुष में भी देखे गए.
१९७० और ८० के दशक का समानांतर सिनेमा, कन्नड़ नाटक और फ़िल्में उनकी चर्चा के बिना अधूरी हैं. फिल्म और टेलिविजन संस्थान, पुणे, फुलब्राईट स्कॉलरशिप, ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, निर्देशन (१९७१) और पटकथा लेखन (१९७७) के राष्ट्रीय पुरस्कार, पद्म भूषण (१९९२), नेहरु सांस्कृतिक केंद्र, लन्दन के सास्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में वे भारत की सांस्कृतिक नीति निश्चित करने में भी काफी सक्रिय भूमिका निभाते रहे. ये उपलब्धियां उनके राजनितिक और लेखकीय प्रतिबद्धता के आड़े न आ सकीं, ये सब उनके गहन रचनात्मक व्यक्तिव् के कई आयाम हैं जो उन्हें अपनी पीढ़ी का प्रखर कलाकार बनाते हैं जिनका नैतिक आग्रह उसकी सृजनात्मकता के साथ साथ विस्तार पाता रहा.
गिरीश कर्नाड के विषय में सोचते ही ‘स्वामी’ फिल्म का जिम्मेदार और गंभीर घनश्याम याद आता है जिसकी पत्नी किसी और से प्रेम करती है, ‘सुर संगम’ का वह शास्त्रीय गायक याद आता है जो अपने मूल्यों पर अडिग रहता है, मालगुडी डेज का वह ज्ञानी और गंभीर पिता याद आता है जो बड़ी ही सरलता से अपनी संत्तान को स्वाभिमान का पाठ पढाता है. अपने व्यक्तित्व, आवाज़, आँखों का बेहद मंजा प्रयोग उन्हें एक बेहतर संवेदनशील अभिनेता के रूप में स्थापित करता था. उनका भव्य व्यक्तित्व उनके निभाए किरदारों को समयातीत बनाने में पूरी मदद करता था. मेरे मन में एक और तस्वीर उभरती है जिसमें ८० वर्ष के गिरीश कार्नाड अपनी नाक में ट्यूबलगाए हाथ में ‘मी टू अर्बन नक्सल’ की तख्ती थामे धीर गंभीर मुद्रा और अविजित सी नज़र आती आँखों के साथ गौरी लंकेश की हत्या की सालाना शोक-सभा में नज़र आते हैं. उनका स्वास्थ्य फेफड़े की बीमारी की वजह से काफी कमज़ोर नज़र आया पर उनकी इच्छाशक्ति और नैतिक साहस अब भी पूरी मजबूती से कट्टरपंथियों के विरुद्ध खड़ा था.
वे जानते थे हत्यारों की सूची में गौरी लंकेश से पहले उनका नाम था क्योंकि उनकी मुखर सोच कट्टर हिन्दुत्ववादियों के गले नहीं उतरती थी पर यह उनकी चिंता का विषय नहीं था. वे शायद कुछ गिने चुने रंगकर्मियों में से थे जिनके नाटकों से प्रदेश की राजनीति प्रभावित होती रही. २०१२ का उनका वी. एस. नायपाल के विरुद्ध दिया गया भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने नायपाल के मुस्लिम विरोधी बयान की जमकर आलोचना की थी. ये सारी स्मृतियाँ, सभी तस्वीरें उनकी वैचारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता का शानदार और बेमिसाल बयान हैं. वे जो सोचते थे वही लिखते थे वैसा ही व्यवहार करते थे और अपने नाटकों में भी उन्होंने उसी सोच की पैरोकारी की उसे पुनर्स्थापित किया जिसका सपना ६० के दशक में भारत का कलाकार और बुद्धिजीवी वर्ग देखता था.
१९६८ का एक वाकया याद करते हुए वे कहते हैं –
‘मैं और मोहन राकेश कलकत्ते में किसी संगीत नाटक के प्रदर्शन पर कोई अतिनाटकीय गीत सुनते हुए एक दूसरे को और देखकर हंस पड़े और मोहन राकेश ने कार्नाड की और मुड़कर कहा– ‘जानते हो हम क्यों हंस रहे हैं? क्योंकि हम जानते हैं आधुनिक भारतीय नाटकों का भविष्य हमारे हाथ में है’ ! यह पूरी तरह सच भी था क्योंकि इस पीढ़ी ने एक दूसरे के नाटकों के अनुवाद और मंचन अपनी भाषाओं में किया, एक दुसरे का हाथ थामे वे आधुनिक भारतीय नाटकों के भविष्य की और बढे.
अपने किसी इंटरव्यू में कार्नाड कहते हैं –
‘मेरी माँ मुझे जन्म नहीं देना चाहती थीं, पर जिस दिन वे गर्भपात करवाने डॉक्टर के पास गईं, डॉक्टर छुट्टी पर थीं. बाद में गर्भपात की बात वे भूल गईं और मेरा जन्म हुआ. जब मैंने यह जाना तो यह विचार कि दुनिया मेरे बिना भी अस्तित्व में होती और ऐसी ही चल रही होती, मुझे स्तब्ध कर गया. वे पांच मिनट मुझे जीवनं की अनर्गलता का पता देने को काफी थे हालांकि बाद में मैं यह बात भूल गया’.
वे जीवन की अनर्गलता भूल गए या उसे आत्मसात कर जो जीवन मिला उसे पूरी ईमानदारी निर्भीकता और प्रतिबद्धता से जीने की कोशिश करते रहे कहना कठिन है क्योंकि उनका पूरा जीवन, उनकी रचना यात्रा, उनके नैतिक, सामाजिक राजनितिक सरोकार जीवन की निरर्थकता के बरअक्स मायने ढूंढते जीवन का पुनर्पाठ और पुनर्स्थापन ही नज़र आता है, ठीक उनके नाटकों की तरह जिसमें इतिहास और मिथकों का पुनर्पाठ था और जिसका पटाक्षेप १० जून २०१९ को फेफड़े की लम्बे समय से चली आ रही बीमारी से हो गया.
यह समय शायद कठिन सिद्ध होगा आधुनिक भारतीय रंगमंच के आने वाले दिनों के लिए जिसमें गिरीश कार्नाड की उपस्थिति नहीं होगी और उन सार्वजनिक मंचों पर उनकी अनुपस्थिति खलेगी जहाँ मुखर प्रतिपक्ष की भूमिका में वे हमेशा नज़र आते थे.
रंजना मिश्र
ranjanamisra4@gmail.com
गिरीश कर्नाड द्वारा निर्देशित “हयवादन” और मराठी फिल्म “उम्बरठा” में उन का अभिनय मेरे द्रुक श्राव्य कला के अविस्मरणीय अनुभवों में से हैं। बॉलीवुड के मसाला फिल्मों में भी उन का अभिनय बड़ा ही सटीक और सशक्त रहा है। कन्नड़ फिल्म सागरसंगमम के बूढ़े कर्मठ गायक का रोल भी उन्होंने बहुत अच्छा किया था। इतने बहुआयामी और सर्वसमावेशक कलाकर बहुत कम दिखते हैं।