धर्मनिरपेक्षता भारतीय कविता का सबसे बड़ा हासिल हैविष्णु खरे से व्योमेश शुक्ल की बातचीत |
कवि, आलोचक, अनुवादक, पत्रकार और फ़िल्म-अध्येता विष्णु खरे शुरू से अंत तक हिंदी को असहज करते रहे. उनकी निर्भीक, तीखी, जटिल और अपने वक़्त से आगे की बातें लगातार लोगों को उलझन और तक़लीफ़ में डालती रहीं. फिर भी, इस दुनिया ने उन्हें बहुत प्यार किया. उन्होंने भी इस दुनिया को बहुत प्यार किया. उनका गुस्सा रमते जोगी की फटकार जैसा था, जो हिंदी की कृतज्ञ-कृतघ्न बिरादरी पर आशीर्वाद और शाप की तरह गुज़रा. साहित्य संसार ने अनोखे ढंग से उन्हें बर्दाश्त किया और वह भी इसे सह गये. इस अनमोल पारस्परिकता का बीते उन्नीस सितंबर को पटाक्षेप हो गया जब उनके शरीर ने नई दिल्ली के जी. बी. पंत अस्पताल के सघन चिकित्सा कक्ष में अंतिम साँसें लीं. इस मृत्यु पर सोशल नेटवर्क पर मची गहमागहमी के बाद यह भी तय है कि उनकी कविता और आलोचना का खाता जल्दी बंद होने वाला नहीं है. जब तक बुरी और नक़ली कविता को सज़ा मिलती रहेगी, उनकी शख्सियत की स्पिरिट ज़िन्दा और आबाद रहेगी.
उनके साथ यह बातचीत दिसंबर 2014 में बनारस में हुई थी. इस बातचीत के साथ हमने उनकी सौ कविताएँ भी रिकॉर्ड की थीं.
मैं आपसे आज की हिंदी कविता के बारे में बात करना चाहता हूँ और यह भी कि आप बहुत पीछे न जायें, निराला तक भी नहीं. बल्कि हम मुक्तिबोध से भी आगे निकल आयें. आपकी पसंद-नापसंद, आपकी जाँच, आपकी निराशा और आपकी उम्मीद इस कविता से गहराई से जुड़ी हुई है. एक सिलसिले में हमलोग उन्हें जानना चाहते हैं.

ख़ला में इतिहास पैदा नहीं होता. पहले और बाद– ये हर इतिहास के लिये ज़रूरी हैं. रघुवीर सहाय के यहाँ सबसे बड़ी सिफ़त यह है कि वह हमारे वर्ग के आदमी थे. हमारे वर्ग के आदमी तो मुक्तिबोध भी थे, लेकिन मुक्तिबोध एक बहुत ही हाइटेंड सेंसिबिलिटी पर काम करते थे. ऐसा नहीं कि उनके यहाँ सड़क का यथार्थवाद सिरे से ग़ायब था. वह कभी-कभी आता था.
रोज़ाना यथार्थ मुक्तिबोध के यहाँ कम या ग़ायब क्यों है ?
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(मुक्तिबोध) |
तो मुक्तिबोध गहराई वाली दैनंदिन भारतीय राजनीति से दूर रहे. एक बात और थी. मुक्तिबोध इस मामले में बहुत आत्मचेतस थे कि उन्हें बड़े सिद्धांतों पर बात करनी है. उनका गद्य कभी भी बहुत ज़्यादा वास्तविक ज़मीन पर नहीं आता, यानी बहुत चालू नहीं बनता. अपना पहिया वह ज़मीन के ऊपर रखते हैं. इसलिए उनकी कविता भी कभी रघुवीर सहाय जैसी कविता हो नहीं पाई. यह एक बड़ी पैराडॉक्सिकल बात है कि बात वह साम्यवाद की करते हैं, लेकिन उनकी भाषा एकदम संभ्रांत रहती है. इसका एक कारण शायद यह भी हो सकता है कि वह अहिंदीभाषी थे और मराठी की परंपरा उनके यहाँ मज़बूत थी.
वह मराठी ब्राह्मण थे. वह उस तरह बोलचाल की उर्दू-मिश्रित दैनंदिन भाषा का इस्तेमाल कर ही नहीं सकते थे. रघुवीरजी उत्तर प्रदेश के थे– लखनऊ के. रघुवीर सहाय ने शायद एक दिन भी सरकारी नौकरी न तो की और न ही उसकी परवाह की.
नहीं. वह आकाशवाणी, दिल्ली में लंबे और यादगार सिलसिले में रहे थे.
हाँ. मैं ग़लत कह गया. आकाशवाणी की नौकरी उन्होंने की. लेकिन आप उनकी शुरूआती कविता का टेम्परामेंट देखें और मुक्तिबोध का देखें. मुक्तिबोध पर असर रहा छायावाद का– छायावाद के डिक्शन का. उनका भाषा वाला रजिस्टर कभी नीचे आया ही नहीं. मुक्तिबोध पर उर्दू का कोई असर आपको कभी नज़र नहीं आयेगा. ऐसा भी कहीं नहीं लगता कि उन्होंने शायरी पढ़ी है, जबकि रघुवीर सहाय के यहाँ आप क़दम-क़दम पर पायेंगे कि भले यह आदमी शायरी का दिखावटी ज्ञान न बतला रहा हो, लेकिन यह उर्दू में पगा हुआ है. और फिर, आल इंडिया रेडियो के किस सेक्शन में काम किया उन्होंने- ख़बरों के. वह संगीत में नहीं गये, टॉक्स में नहीं गये. वह ख़बरों की दुनिया में गये. वहाँ इस देश का राजनीतिक यथार्थ उन्हें बार-बार प्रेरित करता रहा कि वह जनता की भाषा में बात करें, जनता के लिए परिचित और उपयोगी बिंब लायें.
वह वात्स्यायनजी के साथ थे और एक साहित्यिक पत्र के संपादक हो गये थे, तब भी, उनकी भाषा में वह निम्नमध्यवर्गीय बनक हमेशा रही, जो हमें यह बताकर आकृष्ट करती है कि यह आदमी हमारे तबके का है, हमारी भाषा में बोलता है. आल इंडिया रेडियो छोड़कर नवभारत टाइम्स में आने के बाद, यानी ठेठ पत्रकार हो चुकने के ठीक बाद वह संसद के संवाददाता बनते हैं. संसद लोकतंत्र का अखाड़ा है. अखाड़े की रिपोर्टिंग तो अखाड़ेबाज़ी की भाषा में ही करनी होगी. जब आप अखाड़े के पहलवानों से रोज़ मिलेंगे, उनके साथ उठेंगे-बैठेंगे तो आपमें भी वह लहज़ा आ जायेगा, जो नियमित अखाड़े जाने वाले व्यक्ति में आ जाया करता है, भले वह स्वयं अखाड़ेबाज़ न हो. एक अच्छे बॉक्सिंग मैच की रिपोर्टिंग करने वाला भले बॉक्सर न हो, बॉक्सिंग की सारी टेक्निकल शब्दावली वह जानता है. सारे दाँवपेंच वह जानता है. तो जानते हुए भी न जानना या न जानते हुए भी सबकुछ जानना. न करते हुए भी सबकुछ करना, ये बात रघुवीर सहाय में थी.
हम मुक्तिबोध बनाम रघुवीर सहाय के दिलचस्प और असंभव मुक़दमे की ओर जा रहे हैं.
तुम यह मानते हो कि नब्बे प्रतिशत नेता भ्रष्ट हैं, तो मैं भी मानता हूँ कि शायद पंचानबे प्रतिशत भ्रष्ट हैं. यदि तुम्हारी नाक तक इनकी बदबू आती है तो मेरी नाक तक भी आती है. यदि तुम इन्हें पाखंडी और धूर्त समझते हो तो बिल्कुल सही है, मैं भी समझता हूँ. पहली बार कोई हिंदी कवि जनता के ओपिनियंस के इतने नज़दीक़ आया. जनता भी पहली बार किसी कवि के ओपिनियंस के इतने नज़दीक़ आई. वह हिंदी के इतिहास में बेशक़ अपने ढंग के एकमात्र कवि-पत्रकार हैं.
श्रीकांत वर्मा ?
श्रीकांत वर्मा आते हैं उनके बाद. सर्वेश्वर भी उनके बाद आते हैं. लेकिन, जिस तरह रघुवीर सहाय ने दैनंदिन हिंदीभाषी उत्तरभारतीय राजनीति को पकड़ा है, वह अद्भुत तो है ही, साथ में, हमें यह भी देखना है कि वह उत्तर प्रदेश के आदमी हैं. अगर आप उस समय के हिंदी प्रदेश की राजनीतियों को देखें, तो मध्यप्रदेश में कोई ख़ास अपनी राजनीति थी नहीं. वह राजनीति राजस्थान में भी नहीं थी. हम हरियाणा की बात ही नहीं करते. दो ख़ास क़िस्म की राजनीतियाँ थीं, जिनके शायद दो ख़ास अपने रुझान रहे हों. उनकी अपनी भाषाएँ थीं. उनकी संस्कृतियाँ थीं. वे बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीतियाँ हैं.
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(श्रीकांत वर्मा) |
बिहार की राजनीति पर तब भी उत्तर प्रदेश की राजनीति का साया है. मध्यप्रदेश एकदम मार्जिनल था उस समय. आज भी, एक तरह से मध्यप्रदेश मुख्यधारा की राजनीति में है नहीं. राजस्थान मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में नहीं है. हिंदीभाषी राजनीति की मेनस्ट्रीम बनती है उत्तर प्रदेश और बिहार को मिलाकर ही. यह विचित्र बात है. रघुवीर सहाय इसी राजनीति को बहुत इंटीमेटली पकड़ते हैं. मुक्तिबोध का परिचय उस ज़माने के मध्यप्रदेश की राजनीति से नहीं था उतना. लोग एक और बात भूल जाते हैं कि मुक्तिबोध एक रियासत में पैदा हुए थे– मालवा कभी भी मध्यप्रदेश की मेनस्ट्रीम राजनीति में नहीं रहा. मध्यप्रदेश की मुख्यधारा में तो महाकोसल और छत्तीसगढ़ रहे. मालवा के साथ एक तरह की अजनबियत अभी तक बनी हुई है. यानी मुक्तिबोध हिंदीभाषी नहीं, मुक्तिबोध ठेठ मध्यप्रदेश के राजनीतिक क्षेत्र के आदमी नहीं.
वह नागपुर जाते हैं, लेकिन नागपुर पूरा का पूरा महाराष्ट्र में चला जाता है. 1956 में नये राज्य बन गये. विदर्भ और बरार का वह इलाक़ा- जिसमें मुक्तिबोध रहते थे– जो तब कांग्रेस का गढ़ था– वह मध्यप्रदेश के अस्तित्व में आने से पहले ही कटकर अलग हो जाता है. मुक्तिबोध को कभी मध्यप्रदेश की राजनीति समझ में नहीं आई. उन्होंने उसे समझने की कोशिश भी नहीं की. शुरू से ही, उनका आधार मार्क्सवादी था.
लेकिन रघुवीर सहाय मार्क्सवादी नहीं थे.
मुक्तिबोध बहुत डरते थे. वह सरकार से बहुत ज़्यादा डरने वाले आदमी थे, क्योंकि वह एक तरह का एडवेंचरिज्म अफोर्ड कर नहीं सकते थे. रघवीर सहाय बहुत कम उम्र में ही आज़ाद हो गये थे और उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि किसी सरकारी नौकरी में वह हैं, या नहीं हैं. वात्स्यायन तो उन्हें बतौर फ्री पर्सन ही दिल्ली लाये थे. उसके पहले भी वह वात्स्यायन का ही काम करते थे– प्रतीक में.
रघुवीर सहाय ने सरकारी नौकर के बतौर शुरू ही नहीं किया. रघुवीर सहाय का यह बहुत बड़ा एडवांटेज है. उन्होंने शुरू से ही मन बना लिया है कि वह पत्रकार बनेंगे. सरकारी नौकरी नहीं करेंगे. करेंगे तो मजबूरी में. छोड़ देंगे. सारे जीवन-भर, मुक्तिबोध का लक्ष्य और नियति सरकारी नौकरी रही. आख़िर में, लेक्चररशिप प्राप्त करने के लिए उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ी. एयरफोर्समें थे, फिर आल इंडिया रेडियो में चले गये.
रघुवीर सहाय मार्क्सवाद से दूरी बनाये हुए थे. मुक्तिबोध मार्क्सवादी सिद्धांत से तो बहुत इंटिमेट हैं, हिन्दुस्तान की मार्क्सवादी पॉलिटिक्स में बिल्कुल नहीं हैं. रघुवीर सहाय ने इन सारी चीज़ों का अपने कलात्मक लाभ के लिए इस्तेमाल कर लिया. उन्होंने तय किया था कि मुझे इस तरह का प्रतिबद्ध व्यक्ति नहीं होना है. जनता को जिस तरह की प्रतिबद्धता की समझ है, वैसा प्रतिबद्ध होना है. इस मामले में उनके आइकन थे लोहिया.
लोहिया जनता के आदमी थे. लोहिया संसद में बोलने वाले आदमी हैं, बहस करने वाले आदमी हैं, मज़ाक़ उड़ाने वाले आदमी हैं, पोलेमिकल आदमी हैं. लोहिया हिंदी वालों के बीच उठने-बैठने वाले आदमी हैं. महाभारत पढ़े हुए आदमी हैं. उन्हें औरतों से भी प्यार हैं. वह द्रौपदी के बारे में एक अलग दृष्टि रखते हैं. वह जर्मनी से आये हैं. उनका बौद्धिक संसार यूरोप का है. यूरोप का पोस्ट वॉर एटीट्यूड है उनका. मुक्तिबोध ने वह दुनिया देखी ही नहीं थी. उनके पास पर्चे आते थे सोवियत रूस के. लोहिया को उसकी कोई ज़रूरत नहीं थी. रघुवीर सहाय को कोई आवश्यकता नहीं थी उसकी. रघुवीर सहाय का लिबरेशन इसलिए मैं बड़ा मानता हूँ कि वह कभी भी वात्स्यायन जैसे स्नॉब नहीं बने. वात्स्यायन में ग्रासरूट पॉलिटिक्स से एक अलग नफ़रत है. प्रतीक में भारतीय राजनीतिक यथार्थ पर एक भी लेख नहीं है. वात्स्यायनजी ने ख़ुद रियालपॉलिटिक पर एक भी लेख नहीं लिखा, क्योंकि वह भी परहेज़ करते थे. उनको लगता था कि राजनीति पर बात करने वाले वल्गर लोग हैं.
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(रघुवीर सहाय) |
मुक्तिबोध को वैसे लोग बेकार लगते थे, उन्हें पढ़ना बेकार लगता था. यदि मेरे पास मार्क्सवाद का सबकुछ समझने-समझाने वाला वेपन है तो मैं क्यों जाऊं ?
वात्स्यायन कह रहे हैं कि मैं इस सब से इतना ऊपर उठा हुआ हूँ कि मैं क्यों जाऊं ?
उन्हें एक डर्टी वर्क करने वाला मिल भी गया – रघुवीर सहाय– यह जायेगा जनता के बीच. यह बड़ा अजीब है कि मुक्तिबोध कमिटेड होकर रह गये, जनता में नहीं पहुँचे, वात्स्यायन न इधर कमिटेड हुए, न उधर कमिटेड हुए – जनता के बीच वह भी नहीं गये. श्रीकांत वर्मा की स्नॉबरी वात्स्यायन वाली है और ग्रासरूट पॉलिटिक्स से बचने के लिए वह सुपरस्ट्रक्चर का फ़ॉर्मूला अपनाते हैं, कि मैं मिनी माता आगमदास के फ़्लैट में रहकर ऊँचा पॉलिटिक्स करूंगा. वहीं उन्होंने लोहिया से भी राब्ता क़ायम किया. लेकिन जब उन्होंने देखा कि लोहिया का रास्ता सिवा संघर्ष के रास्ते के कुछ नहीं है, उससे मुझे कुछ नहीं मिलेगा, तो धीरे-धीरे उन्होंने मुक्तिबोध को छोड़ दिया, लोहिया को छोड़ दिया और इंदिरा गाँधी को अपना लिया. जो स्नॉबरी वात्स्यायन राजनीति में भाग न लेकर दिखा रहे थे, श्रीकांत ने वही स्नॉबरी कांग्रेस की पॉलिटिक्स में भाग लेकर दिखा दी. उन्होंने स्नॉबरीदिखाई आम कार्यकर्ता के प्रति. वह ख़ुद कार्यकर्ता बने ही नहीं. उन्होंने तय किया कि मैं ख़ास वर्कर बनूंगा.
मुझे अगर जाना है तो मैं सीधा इंदिरा गाँधी के पास जाऊंगा. ऐसा करने के लिए एक बौद्धिक बेस उन्होंने बनाया. वह दिनमान में पॉलिटिकल रिपोर्टिंग करते थे, लेकिन उनकी पॉलिटिकल रिपोर्टिंग कुल मिलाकर प्रो कांग्रेस थी. जब रघुवीर सहाय खाँटी पॉलिटिकल संवाददाता थे, तब श्रीकांत वर्मा सड़क पर थे. तब तक श्रीकांत वर्मा ने पत्रकारिता में कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया था. उस ज़माने में नवभारत टाइम्स में सीधे विशेष संवाददाता होकर जाना और जाते ही सीधा संसद की कार्रवाई देखने पहुँच जाना– जहाँ आपको महान नेता रोज़ दिख रहे हैं. वहाँ बैठे आप रोज़ नेहरू को देख रहे हैं, पूरी कैबिनेट को देख रहे हैं. आप लोहिया की सारी हरकतें देख रहे हैं.
आप कर्पूरी ठाकुर और संपूर्णानंद को देख रहे हैं. पंत को देख रहे हैं. रघुवीर सहाय का यह प्रशिक्षण अनमोल है, लेकिन इसके पीछे रघुवीर सहाय की चॉइस है कि मैं इस देश की राजनीति के बहुत गहरे अन्दर जाऊंगा और मैं इसकी गलाज़त और गन्दगी से डरूंगा नहीं, बल्कि उसी को उजागर करूंगा. यह बहुत बड़ा फ़ैसला था, वर्ना वह भी श्रीकांत वर्मा बन जाते.
रघुवीर जी थोडा डरते भी थे कि अगर यह आदमी इतने क़रीब पहुँच गया है कांग्रेस की इतनी बड़ी नेता के, तो कल को पता नहीं क्या हो सकता है. और दरअसल वही हुआ. रघुवीर सहाय के सबसे ख़राब डर भी तो चरितार्थ हुए न. लेकिन उसके बाद पत्रकारिता पर पड़ने वाले राजनीति के असर की कल्पना रघुवीर सहाय ने नहीं की थी, कि कभी मेरे अमुक तरह के इंटेलेक्चुअल होने की गाज़ मेरे संपादक होने पर गिर सकती है और मेरा प्रो लोहिया होना मेरे ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन मैं इंदिरा गाँधी के पास नहीं जाऊंगा, उनकी चापलूसी नहीं करूंगा, क्योंकि वहाँ एक व्यक्ति पहले से मौजूद है– श्रीकांत वर्मा.
श्रीकांतजी और सहायजी के बीच कैसे रिश्ते थे ?
अगर जनसंघ ही इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ आगे है तो लोहिया बहुत आगे जाते नहीं उस धारा में. इमरजेंसी की एडवांटेज जनसंघ ने लोहियावादियों से छीन ली. कांग्रेस-विरोध की विरासत तब से अब तक छिनी हुई ही है. वह आज तक लोहिया-विचार के खेमे में लौटी नहीं. रघुवीर सहाय इसीलिए एक बड़े भारी राजनीतिक कवि तो बनकर रह गये, उसके आगे नहीं पहुँचे. उसका लगातार दंड उन्हें भुगतना पड़ा. रघुवीर सहाय की जमापूँजी– उनकी राजनीति का एडवांटेज नया कवि लेता है. वह नया कवि– जो नक्सलवाद के उदय के बाद वामपंथी होकर लोहियावाद को नकार देता है, क्योंकि इसबीच वह लोहिया और जयप्रकाश नारायण की कई चालाकियों को समझ जाता है. चालाकी क्या सीमाओं को, कि ये इससे आगे जा ही नहीं सकते. इनका जो समाजवाद है, वह बहुत ज़्यादा काम आता ही नहीं है.
क्या लोहिया के विचार की सीमा रघुवीर सहाय और सहायोत्तर कविता की भी सीमा है ?
आपके ख़याल में रघुवीर सहाय क्या इसी लाइन पर टिके रहे ?
कविता आज बिल्कुल राजनीति के मोर्चे पर है. बल्कि वह एक और राजनीति ही बन गई है. हिंदी कविता हिंदीभाषी राजनीतिक क्षेत्र का वेद बन चुकी है. साहित्य में अगर राजनीति समझनी हो तो आपको हिंदी कविता के पास जाना पड़ेगा और आज की हिंदी कविता को दो ही लोग टेम्पर करते हैं. उसे लेफ्ट बनाते हैं मुक्तिबोध और आत्मवत्ता में डालते हैं रघुवीर सहाय. मुक्तिबोध उसका दिमाग़ तैयार करते हैं और रघुवीर सहाय उसका शरीर.
लेकिन दोनों में ज़्यादा बड़ा क्या है ? ज़्यादा बड़ा वामपंथी कमिटमेंट है या एक समग्र राजनीतिक अनुभव ?
रघुवीर सहाय के बाद क्या होता है ?
एक पुरानी फ़िल्म याद आ गयी. अल्सीद.अल्सीद बारहवीं-तेरहवीं सदी का एक नायक राजा है. वह इतना प्रतिष्ठित है कि उसकी मृत्यु के बाद राज्य के नागरिक सोचते हैं कि इसकी मृत्यु के बाद दूसरे राज्य की सेनायें हम पर हमला न कर दें. तो उन्होंने अल्सीद की लाश को घोड़े पर बिठाल कर आगे खड़ा कर दिया और शत्रु सेना मारे भय के पीछे हट गई.
मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय हमारे अल्सीदहैं. घोड़े पर बैठकर रण में सबसे आगे चलते हुए. युद्ध अभी जारी है और वे मैदान में हैं. उनके बाद धूमिल, आलोक धन्वा. धूमिल की असामयिक मृत्यु हो गयी. आलोक धन्वा चुप हो गये. इसके बाद हिंदी की प्रतिबद्ध कविता मुक्तिबोध के प्रखर सिद्धांतवाद और रघुवीर सहाय के इंटिमेट राजनीतिक अंतर्ज्ञान के गोल्डेन मीन पर है. इसका एक उदाहरण चंद्रकांत देवताले हैं. उनका पॉलिटिकल बेस कमज़ोर है. बौद्धिकता भी कम है. लेकिन राजनीति पर उसकी निगाह ज़्यादा रैडिकल है.
क्या चीज़ ज़्यादा रैडिकल है ?
क्या ऐसा है ? मुझे तो केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस और नीम का पेड़ वाली उनकी कविताएँ याद आ रही हैं, जो आपकी स्थापना के विरुद्ध हैं. बहरहाल अगर आपकी स्थापना को मान लें, तो आज की कविता में जो पक्षधर धर्मनिरपेक्षता है, उसके उत्स कहाँ हैं ? क्या वह रघुवीर सहाय के बाद की चीज़ है ?
श्रीकांत वर्मा को देखिये. उनके यहाँ हिंदू-मुस्लिम सवाल है ही नहीं. सहायजी ने अपनी भाषा में उसको खोज और पा लिया था, लेकिन एक मुद्दे के तौर पर वह उनके लिए बड़ी चीज़ है नहीं. अग्रगामी धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रदायिकता से सीधी भिडंत उनके यहाँ नहीं है. सीधी भिडंत श्रीकांतजी के यहाँ है, लेकिन वह विचारों नहीं, व्यक्तियों की मुठभेड़ है– इंदिरा गाँधी बनाम स्वर्ण सिंह.
तब धर्मनिरपेक्षता की हिंदी कविता में क्या अहमियत है ?
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(फोटो सौजन्य : शुभो) |
कैसी बात करते हो ? यह प्रोएक्टिव, ग़ैरतात्कालिक, ग़ैरराजनीतिक धर्मनिरपेक्षता हिंदी कविता, बल्कि भारतीय कविता का सबसे बड़ा हासिल है, जो एक मूल्य में बदल गई है और अपने सत्यापन के लिए उसे किसी दंगे या किसी अतिरेक की ज़रूरत नहीं है.
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