गिरीश कर्नाड का अर्धकथानक
राजाराम भादू
अनुवाद को रचना न भी माना जाये तो उसे पुनर्रचना मानने को लेकर तो शायद ही किसी की असहमति हो. साहित्यिक पुस्तक की पुनर्रचना प्रक्रिया में अनुवादक एक ओर मूल कृति के संसार में प्रवेश करता है और दूसरी ओर उस कृति के लिए लक्ष्य भाषा में एक प्रतिसंसार की सृष्टि करता है. जाहिर है कि यह प्रक्रिया गहरी निष्ठा, सतत श्रम के अतिरिक्त एक विशिष्ट रचनात्मक मन: स्थिति की माँग करती है. इसके प्रतिदान में स्वाभाविक है कि अनुवादक उचित पारिश्रमिक के अतिरिक्त उस भाषा के सुधी-जनों से प्रतिसाद की अपेक्षा करे. इसके लिए अनूदित पुस्तक ही एकमात्र आधार है और प्रकाशक प्रायः अनुवादों की समीक्षा नहीं कराते.
मुझे नहीं पता वे अनुवादक को संबंधित पुस्तक की कितनी प्रतियाँ देते हैं. इसलिए जब अलवर में आयोजित मत्स्य साहित्य उत्सव (18-19 मार्च, 2023) में मिलते ही मधु बी. जोशी ने मुझे बताया कि वे मेरे लिए एक किताब लायी हैं, तब छूटते ही मैं ने कहा कि यदि यह गिरीश कर्नाड की आत्मकथा है तो यह मेरी पहुँच के दायरे में आ चुकी है. वे मेरी वाली प्रति किसी और सुपात्र को दे सकती हैं. मधु जी मेरी बात मान गयीं और उन्होंने तब दूसरी किताब मुझे दी, उसकी चर्चा फिर कभी.
गिरीश कर्नाड ने संस्मरणों की श्रृंखला के रूप में आत्मकथा लिखना शुरू किया था जो कन्नड पत्रिकाओं में छपते रहे, फिर पुस्तक रूप में आये. श्रीनाथ पेरूर ने ‘दिस लाइफ एट प्ले’ शीर्षक से अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया. मधु बी. जोशी ने इसी अंग्रेजी संस्करण को हिन्दी में प्रस्तुत किया है जिसे हिन्दी में भी हार्पर कालिंस ने प्रकाशित किया है.
पेरूर ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि अनुवाद के मामले में कथेतर गद्य की अपनी चुनौतियाँ होती हैं. गिरीश कर्नाड की अंग्रेजी आत्मकथा की चर्चा हो चुकी थी.
अनुवाद की सफलता का प्रमुख मापदंड यही है कि वह अनुवाद न लगे. मधु जी का कोई अनुवाद ऐसा नहीं लगता. इसकी एक वजह शायद यह भी है कि वे अधिकांश अनुवाद अपने मन की मौज के लिए करती हैं. वे जहाँ अपने वैदुष्य से चकित करती हैं, वहीं कवि-हृदय भी हैं. अकेली औरतों के घर शीर्षक से उनका कविता संकलन 2006 में आ चुका है और दूसरा संकलन उनके प्रमाद की पीड़ा झेल रहा है. बहरहाल आत्मकथा ‘यह जीवन खेल में’ अभिनव और सरस है. इसी में एक जगह गिरीश कर्नाड लिखते हैं:
“रामानुजन हमेशा कहा करते थे, अनुवाद किसी और की लिखी उत्कृष्ट कृति को अपना बनाने का एक तरीका है.”
संभवतः मधु जी इसी तरह से किसी कृति को अपना बना लेती हैं. इस पुस्तक का समर्पण ही बड़ा दिलचस्प है. जब गिराश कर्नाड अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के उरूज पर थे, उनके माता-पिता ने बताया कि एक समय वे उसे जन्म ही नहीं देना चाहते थे. जब वह अपनी माँ के गर्भ में थे, उनके माँ-बाप ने यह फैसला लिया और एक महिला डाक्टर से मिले. डाक्टर ने उन्हें अपने क्लिनिक पहुंचने और इंतजार करने के लिए कहा, जहाँ वे घंटों इंतजार करने के बाद वापस लौट आये और फिर नहीं गये. उस दिन अपने क्लिनिक में अनुपस्थित रहकर यह जीवन संभव करने वाली डाक्टर मधुमालती गुने को गिरीश कर्नाड ने यह पुस्तक समर्पित की है. इसी संदर्भ में उन्होंने कहा है कि अन्यथा तो यह दुनिया मेरे बिना ही चलने वाली थी.
शुरूआत में कर्नाड ने अपने परिवार और बचपन का विस्तृत और मार्मिक वर्णन किया है. उनकी माँ कृष्णाबाई की थोडी-बहुत शिक्षा उस समय महिला शिक्षा के लिए संचालित सामाजिक अभियानों की पृष्ठभूमि में संभव हो सकी थी. तत्कालीन सांस्कृतिक परिदृश्य में बाल गंधर्व जैसे अभिनेताओं ने मराठी रंगमंच को एक मुकाम दे दिया था. एक अकेली लड़की, फिर बाल विधवा, अविवाहित संबंध में और संघर्ष करते हुए शिक्षा पाकर आत्मनिर्भर बनने तथा विधिवत शादी करने तक कृष्णाबाई का चरित्र एक उदात्त हैसियत हासिल कर लेता है.
गिरीश कर्नाड ने अपने माता-पिता के चरित्र और बच्चों की मन:स्थिति को बेबाकी से श्वेत-श्याम चित्रित किया है. जैसे कि कृष्णा बाई का विधवा के रूप में सिर मुंडने से इसलिए बच गया कि 1920 के बाद उस समुदाय में यह चलन बंद हो गया था. यही कृष्णा नब्बे वर्ष की उम्र में नर्मदा बचाओ आन्दोलन में धरने पर बैठती थीं. कर्नाड अपनी माँ के पक्ष में बने वातावरण का कुछ श्रेय आर्य समाज को भी देते हैं.
कर्नाटक के दूरस्थ कस्बे सिरसी पर केन्द्रित अध्याय में कर्नाड का बचपन ही नहीं मिलता, बल्कि वहाँ का आंचलिक जीवन और उसकी परतें भी दिखती हैं जिसमें पारंपरिक ब्राह्मणों व ईसाइयों के साथ वंचित समुदाय तथा कंपनियों के घुमक्कड़ रंगमंच प्रदर्शन भी हैं.
एक समय यूरोपीय देशों की तरह इंक्विजिशन ( ईश-निंदा ) के नाम पर गोवा में भी नृशंसता हुई थी. भारत में कट्टरपंथी हिन्दू शक्तियों के उभार को देखते औरोरा उलझन में हैं कि यदि उन्होंने सच को सही चित्रित किया तो ये शक्तियाँ उसका अपने लिए बेजा इस्तेमाल कर सकती हैं. औरोरा इस पर गिरीश से मशविरा करती हैं. गिरीश स्पष्ट कहते हैं :
“आपको जो सही लगता है, आपकी अंतरात्मा को जो ठीक लगता है, आपको वही करना चाहिए हम भारतीय, पिछले इतिहास पर लीपा-पोती करने में उस्ताद हैं, और अगर आप भी वर्तमान संदर्भ में पालिटिकली करेक्ट होने के विचार से काम करें तो नैतिक रूप से आप, ‘आदर्श’ इतिहास रचने वाले आरएसएस या कम्यूनिस्टों से बेहतर नहीं होंगी. आपकी व्याख्या, भारत में पहली बार, एक अस्तित्वगत (लगभग ग्राहम ग्रीन-जैसे ) विरोधाभास को सामने लाती है: कि धर्मान्तरण भले ही जबरदस्ती या हिंसक रहा हो, लोगों ने उससे जो आस्था पायी, वह सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध साबित हो सकती है. आज तक कोई यह बात विश्वास जगाने वाले ढंग से कहने की हिम्मत नहीं कर पाया है… मुझे डर है कि आज के विषैले विचारकों को ऐसी अस्तित्वगत जटिलताओं की समझ ही नहीं है. “
आत्मकथा बताती है कि गिरीश कर्नाड की यह समझ सिरसी में चर्च के गहरे संपर्क के चलते बनी थी.
धारवाड़ के कर्नाटक कालेज में गिरीश और उसके कुछ सहपाठी-मित्रों ने दर्शन के अध्ययन के लिए सोक्रेटीज क्लब बनाया तो पहला नियम था- भारतीय दर्शन के रूप में प्रचलित सर्वपल्ली राधाकृष्णन के आत्मतुष्ट ढोंग से दूर रहना (वह तब उप राष्ट्रपति थे). इस समूह के मार्गदर्शक प्रो. के. जे. शाह थे, जिन्होंने भर्तृहरि और विटगेन्स्टाइन की समानता पर चिंतन की शुरुआत की, बाद में कई लोग उनका अनुसरण करते रहे. भारतीय बौद्धिक और सांस्कृतिक परंपरा को अन्तर्ग्रंथित देखने की शाह की मान्यता एक तरह से ए.के. रामानुजन के काम में प्रतिफलित होती है जिन्होंने कन्नड़ और तमिल में उपलब्ध मौखिक साहित्य का अध्ययन और अनुवाद कर पूरी दुनिया का ध्यान उसकी ओर आकर्षित किया.
आक्सफोर्ड में गिरीश कर्नाड ने एक ऐसी परंपरा के अन्तर्गत अध्ययन किया जो भाषायी विश्लेषण को दर्शन के समकक्ष मानती है. रामानुजन के व्यक्तित्व के बारे में कर्नाड दर्ज करते हैं :
“उस समय के अन्य अंग्रेजी शिक्षकों के विपरीत, वह समकालीन पश्चिमी लेखकों के प्रति प्रशंसा से अभिभूत हुए बिना उनके बारे में बात कर सकते थे; उनके ही शब्दों में कहें तो बिना अकिंचन मैं के भाव से भरे.”
रामानुजन के लिए गिरीश कर्नाड लिखते हैं :
“उनकी असाधारण रूप से विस्तृत रुचियां थीं. सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में उनकी गहरी रुचि थी. उन्होंने कहावतों, पहेलियों, खेलते हुए गाये जाने वाले गीतों, गांवों की बूढ़ी स्त्रियों से सुनी पुरानी कहानियों, लोक-कथाओं का संकलन किया था. बाकी हम सबको यह सब साहित्य से असंबंधित, इलियट और पाउंड के संदर्भ में अर्थहीन लगता था. वह जो काम कर रहे थे उसका महत्व समझने में मुझे और दो दशक लगे.”
इस आत्मकथा का मूल शीर्षक है- ‘आडद्ता आयुष्य’. गिरीश कर्नाड ने बेन्द्रे की एक कविता से इसे लिया है. उनकी शुरुआती जद्दोजहद एक कवि होने की थी. अपने दो साल के बम्बई प्रवास को वे इब्राहिम अलकाजी के कारण महत्वपूर्ण मानते हैं. ययाति लिखने की प्रक्रिया को वे यूं दर्ज करते हैं-
‘ऐसा लगा जैसे कोई आत्मा मुझमें प्रवेश कर गयी हो.’
आक्सफोर्ड में गिरीश कर्नाड को इस तथ्य का वास्तविक अनुभव हुआ कि अब हम स्वतंत्र हैं. साथ ही यह भी कि वे अपने साथ अहिंसक तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रभामंडल भी लाये हैं. कर्नाड के अवलोकन बड़े सूक्ष्म और विशद् हैं, इंग्लैंड की अस्तित्व खोती पब संस्कृति पर उनकी टिप्पणी है-
“पब के बगैर ब्रिटेन, बिल्कुल ब्रिटेन नहीं रह जायेगा.”
उन दिनों वे डब्ल्यू. एच. आडेन, स्टीफन स्पेंडर, सेसिल डे व्यूइस और लुइस मेक्नीस की ओर आकृष्ट हुए. उस समय अस्तित्ववाद का बोलवाला था. अस्तित्ववाद को लेकर गिरीश कर्नाड बड़े महत्व की बात कहते हैं-
“इसका इस मायने में एक नैतिक आयाम भी था कि इसने हमें अस्तित्व की निरर्थकता का सामना करने, अपने जीवन को आकार देने की तरीके के बारे में चुनाव करने और उसके अनुसार कार्य करने की क्षमता प्रदान की. और इसलिए, यह कर्म का दर्शन होने के लिए अनुकूल था. आक्सफोर्ड के दार्शनिक आइरिस मर्डोक इनमें अपवाद रहे जो अस्तित्ववाद में रुचि नहीं रखते थे. नतीजतन, मेरे मन में उन्हें लेकर कुछ तिरस्कार भाव रहा. अस्तित्ववादी दृष्टिकोण में, ईश्वर भी एक चरित्र है; मनुष्य के साथ उसका संबंध उन मुख्य समस्याओं में से एक है जिनकी पड़ताल यह परंपरा करती है.”
हम पाते हैं कि गिरीश कर्नाड की मित्रताएं प्रायः दृढ़ और दीर्घकालिक हैं और जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ इसकी पर्याप्त कैफियत बयान की गयी है. एन के साथ संबंध टूटने पर वे अनुभव करते हैं-
“उसके साथ इतना क्रूर व्यवहार करने की पीड़ा मुझे अब भी सताती है.”
आक्सफोर्ड की यूनियन में सचिव से अध्यक्ष बनने तक गिरीश कर्नाड उसके पुरुष प्रधान चरित्र में आये परिवर्तन को महत्व देते हैं जिसके फलस्वरूप 1976 में बेनज़ीर भुट्टो उसकी अध्यक्ष बन सकीं. उन दिनों ब्रिटिश रंगमंच पर बर्नार्ड शा की शैली का वर्चस्व था जिसे जान आस्बर्न के लुक बैक इन एंगर ने तोड़ दिया. तुगलक की पृष्ठभूमि के संदर्भ में कर्नाड अपने मित्र कीर्तिनाथ की इस टिप्पणी को उत्प्रेरक बताते हैं :
“लेकिन किसी ने भी सत्य की नयी परतों को आजमाने और प्रकट करने के लिए ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करने का प्रयास नहीं किया है. अतीत को पुनर्जीवित करने के साथ-साथ हमें एक ऐसी दृष्टि विकसित करनी होगी जो अतीत को एक नये प्रकाश में देखे.”
वे तुगलक पर कामू के कैलिगुला और मैकबेथ पर कैरोलीन स्पर्जन के निबंध का प्रभाव भी स्वीकार करते हैं. 1972 में विजय तेंदुलकर का ‘घासीराम कोतवाल’ और 1974 में हबीब तनवीर का ‘चरणदास चोर’ नाटक सामने आये लेकिन वे दोनों ही नाटककार तुगलक को अपनी पूर्व-पीठिका के रूप में स्वीकारते नहीं दिखते. गिरीश कर्नाड के अनुसार तुगलक की जड़ें धर्म के साथ उसके संघर्षों में हैं.
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जुड़ने के बाद गिरीश कर्नाड अपने प्रिय कवि रामानुजन के अंग्रेजी में आये कविता संकलन ‘द स्ट्राइडर्स’ के प्रकाशन पर खुशी का इजहार करते हैं जिसके लिए वे प्रयत्नशील रहे थे. कर्नाड ओयूपी के औपनिवेशिक नजरिये को तल्खी से देखते है जिसके लिए भारत एक बाजार भर था. भारतीय संगीत पर एकमात्र वैज्ञानिक पुस्तक 1914 में संगीतज्ञ ए.एच. फाक्स स्ट्रेजवेज द्वारा लिखी गयी थी. जहाँ तक भारत शाखा की बात थी, विद्वत्ता का शिखर सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा प्रतिपादित उलझाऊ भारतीय दर्शन था. 1970 के बाद ओयूपी कार्यालय जब दिल्ली आ गया, तब जान दयाल ने रोमिला थापर, इरफान हबीब, वीना दास, आशीश नंदी और सुधीर कक्कड जैसे विद्वानों के अलावा कर्नाड के तुगलक को भी प्रकाशित किया.
आत्मकथा में ब.व. कारंथ का प्रवेश काफी देर से होता है लेकिन आखिर तक चलता है. उन्होंने गिरीश कर्नाड के नाटकों में मूल्यवान परामर्श के अलावा उनके साथ संस्कार और वंश वृक्ष फिल्मों का सह-निर्देशन किया. यहीं कहीं गिरीश कर्नाड मोहन राकेश द्वारा कहे एक जुमले का जिक्र करते हैं-
“भारतीय रंगमंच का भविष्य हमारे हाथ में है.”
उस समय भारत एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहा था. कर्नाड के नाटक हयवदन को यह शीर्षक कारंथ ने ही दिया था. हालांकि इसकी विचार-यात्रा लंबी थी जो लंदन थियेटर में देखे नाटकों, विशेषकर चौसर की कैंटरबरी टेल्स की नाट्य प्रस्तुति को देखकर आया यह विचार था, क्यों न हम भी अपनी परंपराओं के साथ कल्पनाशील प्रयोग करें ?
थामस मान के लघु उपन्यास ‘द ट्रांसपोज्ड हैडस’ और कथासरित्सागर से इसकी कथा बुनने में मदद मिली. तत्कालीन मद्रास की दो सांस्कृतिक संस्थाएं चकित करती हैं, एक के.एम. पणिक्कर संस्थापित ‘चोलमंडल’ और दूसरी युवा रंगकर्मियों का समूह- ‘मद्रास प्लेयर्स’.
एफटीआईआई में निदेशक काल की अन्तर-कथाओं के दो प्रसंग दिलचस्प हैं. दिलीप धवन नामक एक आकर्षक युवा बम्बई के कई फिल्मकारों की चिट्ठियां लेकर संस्थान में प्रवेश लेने आया था. लेकिन गिरीश कर्नाड के दखल से उसे प्रतीक्षा सूची में रखते हुए ओमपुरी को प्रवेश दिया गया. दिलीप की सिफारिश के लिए स्वयं राजकपूर संस्थान आये, उनकी बात रखते हुए दिलीप को भी प्रवेश दे दिया गया. राजकपूर ने तो तत्काल ही उसे कह दिया था कि तेरा एडमिशन करा दिया है, पर मेरे पास काम माँगने मत आ जाना. किन्तु कोर्स पूरा करने के बाद दूसरे लोगों ने भी उसे काम नहीं दिया. अपने सहपाठी सईद मिर्ज़ा के नुक्कड़ से उसे देश में पहचान मिली. नसीरुद्दीन शाह और जसपाल दोनों एनएसडी से थे, दोनों ने संस्थान में हड़ताल का नेतृत्व किया. जब गिरीश कर्नाड की सिफारिश पर श्याम बेनेगल ने नसीर को अवसर दे दिया तो जसपाल भड़क गया, उसे लगा नसीर ने समझौता कर लिया. कुछ समय बाद उसने नसीर पर चाकू से हमला कर दिया. कहते हैं जेल से छूटने के बाद वह भीख माँगता घूमता था. आखिर वह गुमनामी में मर गया.
उपसंहार में कर्नाड आगरा के जैन व्यापारी बनारसीदास की लिखी आत्मकथा अर्धकथानक ( 1641) का उल्लेख करते हैं, जो भारतीय साहित्य की पहली आत्मकथा मानी जाती है. बनारसीदास ने इसे बावन वर्ष की उम्र में लिखा था. गिरीश कर्नाड की आत्मकथा उनके विवाह के साथ लगभग आधे जीवन में समाप्त हो जाती है. इसके अगले भाग पर वे कुछ काम कर रहे थे लेकिन संभव नहीं हुआ.
पुस्तक के अंत में रघु कर्नाड और राधा ने उनके उत्तर-जीवन का अति संक्षिप्त विवरण दिया है. इसमें गिरीश कर्नाड द्वारा अनीति और अन्याय का प्रतिरोध पक्ष सबसे प्रबल है.
2015 में कलबुर्गी मारे गये तब वे गौरी लंकेश के साथ विरोध कर रहे थे, गौरी मारी गयी तो वे उसके विरोध में खड़े थे. उनकी 2018 की अंतिम सार्वजनिक उपस्थिति गौरी लंकेश की शहादत की बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में थी.
आधुनिक भारतीय रंगमंच को रूपाकार देने वालों में गिरीश कर्नाड की अहम भूमिका है.
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राजाराम भादू 24 दिसम्बर, 1959 भरतपुर (राजस्थान). ‘समकालीन जनसंघर्ष’, ‘दिशाबोध’, ‘महानगर’ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन. ‘कविता के सन्दर्भ’ (आलोचना); ‘स्वयं के विरुद्ध’ (गद्य-कविता), ‘सृजन-प्रसंग’ (निबन्ध), धर्मसत्ता और प्रतिरोध की संस्कृति आदि कृतियाँ प्रकाशित. rajar.bhadu@gmail.com |
गिरीश कर्नाड की आत्मकथा का मधु बी जोशी द्वारा बेहद शानदार अनुवाद। यह किताब शुरू करने के बाद आखिरी पन्ने पर ही आराम करती है। गिरीश कर्नाड के अनजाने जीवन के अनेक अभयारण्यों से परिचित कराती है यह आत्मकथा।
राजाराम भादू जी ने बिल्कुल सही इशारा किया कि मधु बी जोशी के किए अनुवाद इसलिए भी इतने सरस होते हैं क्यों कि वे यह काम किसी के कहने पर नहीं, अपनी अंतःप्रेरणा से करती हैं। ज़ाहिर है, इससे पुस्तक चयन भी मन का होता है और इसीलिए अनुवादक का कृति से नाता, उसके प्रति जिम्मेदारी भी अलग तरह से परिभाषित होती है। गिरीश कर्नाड का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों कद्दावर हैं और नाट्य विधा ही नहीं, समूचे कन्नड़ और हिंदी साहित्यिक समाज पर उनका असर है/ रहेगा। इस पुस्तक और गिरीश कर्नाड के बहुआयामी महत्व को श्री राजाराम भादू की समीक्षा संपूर्णता में प्रेषित करती है।☘️☘️☘️
यह एक दुःखद तथ्य है कि अनूदित किताबों पर बात नहीं हो पाती। जबकि ज्ञान के विस्तार में अनुवाद की भूमिका असंदिग्ध है। मधु बी जोशी ने एक बेहतरीन और जरूरी किताब का अनुवाद किया है। गिरीश कर्नाड भारतीय रंगमंच के सर्वाधिक प्रयोगशील नाटककार हैं। वे एक सचेत एक्टिविस्ट रंगकर्मी थे। उनपर लगातार बात होनी चाहिए। हिन्दी में नाटक एवं रंगमंच पर सार्थक किताबें अत्यल्प हैं। राजाराम भादू जे ने इस किताब के महत्त्व को समझा। साधुवाद। समालोचन इसीलिए लीक से हटकर है और पठनीय है, संग्रहणीय तो है ही।