गुल मकई: साधारण का सौन्दर्य
राजेश सक्सेना
आचार्य वामन ने कहा था ‘सौन्दर्यमलंकार:” सौंदर्य ही अलंकार है, आभूषण है अतः काव्य में सुंदर बिम्ब,दृश्य, उपमाएँ यदि प्रयुक्त हुई हैं तो वह काव्य को अलंकार की आभा देता है, वामन का यह कथन कविता के सन्दर्भ को सौंदर्य के प्रगाढ़ अर्थो के साथ ध्वनित करता है, कविता की यात्रा ने ध्वनि, रस, वक्रोक्ति से लेकर अलंकार आदि तक की एक प्रौढ़ यात्रा तय की है.
वर्तमान समय में यदि हम समकालीन हिंदी कविता पर दृष्टि डाले तो अपने समय बोध से अनुप्रेरित कविताओं में अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं को आकार दिया है जिनमें उनकी कलादृष्टि, सम्वेदना, कल्पनाशीलता, और, सरोकार समकालीन यथार्थ के साथ संपृक्त होकर वे एक भावपूर्ण प्रति संसार की रचनाकरते है, मुझे लगता है यह समय कविताओं की प्रचुरता का समय है, और वर्तमान सन्दर्भों में कविता के निकष, उसकी लोकोत्तर उपादेयता से अधिक लालित्य, लोच और कलाबोध की उपलब्धता पर ज्यादा विचार है ऐसे ही समय में हमारे बीच साधारण और विस्मित करने वाले विषयों के साथ अपनी कविता को आकार देने वाले युवा कवि हेमन्त देवलेकर अपने दूसरे कविता संग्रह “गुल मकई” लेकर आते हैं तो कौतूहल जाग जाता है, पड़ोसी देश की तरुणी मलाला यूसुफजई की हिम्मत और हौंसले के प्रति श्रद्धावनत भाव के साथ स्त्री शिक्षा को समर्पित हो इस संग्रह में दुनियावी आतंकवाद से नहीं डरने वाली मलाला जिसे गुल मकई कहा गया है. यद्यपि हेमंत ने यह संग्रह मलाला को समर्पित नहीं किया है किंतु प्रथम पृष्ठ पर उसके जिक्र के साथ कविता दी है अतःयह संग्रह परोक्ष रूप में मलाला को भी समर्पित हो ही जाता है.
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(हेमंत देवलेकर) |
वस्तुतः हेमन्त ऐसे कवि हैं जिन्हें हर घटना, वस्तु, जगह, सम्बन्ध, और व्यक्ति में छुपी हुई कविता की संभावनाओं को टटोलने और उसके साथ एक रागात्मकता जोड़ने की कला आती है, इसलिये वे जब ट्रेन से यात्रा करते है तो सार्वजिनक प्रसाधनों व जगहों पर लिखे मामूली विज्ञापन भी कविता के विषय के लिए बुलाते हैं और धातुरोग जैसी कविता की रचना आ जाती है. इस कविता के जरिये वे समाज से लुप्त हो रही धातुओं की चिंता करने लगते हैं दरअसल धातुएं कहीं गईं नहीं बल्कि वे अलग जगहों पर प्रकट हों रहीं है, अस्तु कवि इस तरफ ध्यान खींचते हैं यह बात भी उल्लेखनीय है, कि कवि यात्रा के दौरान अपनी सृजनात्मक चेतना को जागृत रखते हैं, वरिष्ठ कवि नरेंद्र जैन कहते हैं यात्राओं के नैरेशन होते हैं जिनके रस्ते, कविताएं जन्मती हैं. एक छोटी सी कविता “एक देश है दिन” में एक बड़े सन्देश के रूप में देश प्रेम व राष्ट्रवाद को अभिनव दृष्टि से देखने का प्रयास है जहां सूर्य को राष्ट्र ध्वज दिन को देश और दिनभर अपने अपने काम में मसरूफ हर व्यक्ति के काम को राष्ट्र ध्वज को सलामी देने की क्रिया से रूपांकित किया गया है, लगता है वर्तमान समय में यह कविता और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जब राष्ट्रवाद की बहस नित नए आकारों में राजनैतिक फायदे के लिए ढाली जा रही
है :–
एक देश है दिन
सूरज उसका राष्ट्रीय ध्वज
हर एक जो
गूंथा हुआ काम में
सलामी दे रहा
फहराते झंडे को
हर आवाज
जो एक क्रिया से उपजी है
राष्ट्र गान है,
यह कविता अत्यंत महत्वपूर्ण है इसमें राष्ट्रीय ध्वज,राष्ट्रगान, व राष्ट्र को परिभाषित करते, लोग सर्वथा भिन्न रूप में प्रकट करते हैं, जिसमें हर व्यक्ति का राष्ट्रप्रेम उसके कार्य करने में है सन्निहित है,जो भी पुरुषार्थ के साथ अपने कर्म में रत है वह राष्ट्र के निर्माण पर है, यह इस कविता के उद्दात्त केंद्रीय भाव का प्राकट्य है, जो राष्टवाद के संकुचित प्रचलित दायरों को तोड़कर उसे एक समर्पित राष्ट्रप्रेम तक ले जाती है, यहां मुझे 1970 के दशक में आई एक फ़िल्म मेरा गांव मेरा देश की भी याद आती है डाकू समस्या से ग्रस्त फ़िल्म थी और उसमें खरतनाक डाकू के खिलाफ समूचे गांव के लोग नायक की मदद करते हैं इस तरह वे एक गांव को ही अपना देश मानते हैं, सम्भवतः यह निश्छल प्रेम ही देश प्रेम है जो अधिक मानवीय है.
रेलवे मण्डलों की दिशाओं से पहचान बनाते संक्षेपी वर्णक्रम में वे अत्यंत रोचक कविता ढूंढ लेते हैं :-
परे मरे पूरे दरे
उरे उमरे पूमरे
भारे दमरे पूपरे
उदरे उपरे पुदरे
इस तरह की संक्षेपिका के साथ वे भारतीय रेलवे का गीत कविता रचते हैं, जिसमें एक लयात्मक छंद का विन्यास दिखाई देता है, रेलयात्रा में वे चौकस होकर देखते हैं और नूतन विषयों के चुनाव कर उन पर लिखते हैं.
हेमंत के पास प्रेम की दुनिया को पहचानने की एक भावुक दृष्टि है जिससे वे तितलियों के होठों में दुनिया के सबसे सुंदर प्रेम पत्रो को देख पाते हैं या फिर दो फूलों के बीच के समय को एक नए संसार के बनाव की कल्पना रचने के रूप में देखते हैं.
तितलियों के होंठ में
दबे हैं दुनिया के
सबसे सुंदर पत्र,
दो फूलों के बीच का समय
कल्पना है एक नए संसार की
तितली की तरह
सिरजने की उदात्तता
भी होनी चाहिए
एक संवादिये में
इस कविता में हेमन्त ने दो फूलों के बीच तितली की आवाजाही के समय को एक नए संसार के सृजन के रूप में घटित होने की संकल्पना में समझा, और दो शब्दों को जड़ सौंदर्य से लोक सौंदर्य में विखण्डित किया है एक-सृजन से सिरजने दो- संवादक से संवादिये इन दो शब्दों की टूटन ने तितलियों की भूमिका के प्रति प्रकृति के लिये श्रेष्ठ भाव दिए हैं. यदि कवि सिरजने की जगह सृजन भी लिखता तो भी कविता का निहितार्थ वही रहता, किन्तु उसकी ध्वनि और सौंदर्य आभिजात्य हो जाता अस्तु कवि ने सिरजने का प्रयोग किया जो लोक की और ले जाता है, एक देशज भाव विन्यास को प्रकट करता है यह कवि की कलात्मक खूबी और शिल्प की सूक्ष्म पकड़ के बारे में सूचित करता है.
घडी की दुकान कविता, में वे समय के पुर्जे पुर्जे हो जाने या समय मिलाने के भ्रामक स्थान की तरह देखते हैं कारण घड़ी की दुकानों में हर घड़ी अलग समय हो रहा है, देखा जाए तो इस कविता में वर्तमान का समय भी उकेरने की कोशिश है कारण, कवि बहुवर्णी अर्थों में इस समय के पुर्जों के बिखरे होने या भ्रामक समय की तरफ इशारा कर रहा है.
“भारत भवन में अगस्त” ऐसी कविता है जो स्थानिकता में सांस्कृतिक शिल्प और उसके स्थापत्य के स्तवन व रागात्मकता को लेकर पाठक तक आती है.
“मुंहासे“ जैसे अत्यंत साधारण विषय पर लाक्षणिक सौन्दर्य के साथ बहुत सुतीक्ष्ण व्यंजना में हेमन्त ने छोटी सी कविता लिखी है –
गेंदे के कुछ फूल खिले हैं गुलाब की क्यारी में उनकी अवांछनीय नागरिकता पर गुलाब ने पूछा
तुम यहाँ क्यों ?
ढीठ है फूल गेंदे के
सिर उठाकर जवाव देते हैं
वसन्त से पूछो.
इस पूरी कविता मे, वसन्त, रंग दृश्यात्मकता, उम्र, भाषा के साथ लक्षणा और व्यंजना का अनूठा विन्यास रचा गया है, गेंदे के फूल खिलने का समय वसन्त और उस ऋतु का रंग भी वासन्ती इसकी सममिति में उम्र के जिस आंगन में फूटते हैं मुंहासे वह भी उम्र का वसन्त ही अस्तु इसमें रंग के साथ गेंदे की उपमा का प्रयोग कवि की प्रकृति,ऋतु संज्ञान, पर सौन्दर्यपरक लाक्षणिक दृष्टि का परिचायक है.
“चार आने घण्टा” बचपन की स्मृति की वीणा के तारों को छूने के बहाने किराए की छोटी साईकिल जिसे अद्धा भी कहा जाता था, उसके साथ दोस्तों की संगत में बजाए गए जीवन के सबसे सुंदर राग की याद को जीवित करने की कोशिश इस कविता में है. यह कविता बाजारवादी समय की कठोर पीठ पर सबसे उदात्त और मानवीय संवेदना को पछीटे जाने की और भी इशारा करती है ,जिसमें किराए की साईकिल सिखाने के लिए दोस्त आसपास दोनो तरफ सहारे के लिए साथ दौड़ते थे उसकी जगह अब साइकिल में दो छोटे सहायक पहिये लगा दिए गए हैं जो सीखने वालों को गिरने से बचाते हैं. यानी पहले जो काम दोस्त करते थे वह अब एक यांत्रिक प्रवधि करती है ऐसे समय मे दोस्तों की जरूरत समाप्त हो गई है. इसीलिए कवि को यह पंक्ति लिखना पड़ा –
समय सबसे मंहगी धातु
दूसरों को गढ़ने में इसे गंवाना
एक आत्मघाती विचार.
यहाँ मुझे एक बात में जरूर विरोधाभास लगता है कि कवि धातुरोग जैसी कविता में धातुओं को ढूंढने की बात कर रहा है ,जबकि इस कविता में वह धातु के रूप में समय को बिम्बित कर रहा है अस्तु दोनो कविताओं में धातु पर विचार करते हुए कवि ने कहीं न कहीं एक जगह विरूपण किया है.
लगता है धातुरोग कविता विचार से अधिक बिम्ब और शब्द विन्यास की कविता है. एक और कविता “जुलाई” है जिसमें कवि ने ऋतु परिवर्तन के नैसर्गिक सौंदर्य के साथ आम, जामुन से लेकर बादल और बच्चों के स्कूलों के खुलने के सौंदर्यपूर्ण दृश्यों का भी जिक्र है. इस कविता में एक खास बात यह है कि कवि ने बरसात में चारों तरफ फैली हरियाली और हरी घांस के रंग को राष्ट्रीय रंग की उपमा दी है जो सचमुच सुंदर, सौन्दर्यपरक, सच्ची औऱ नैसर्गिक लगती है.
युवा खून की तरह
बहता पानी
जुलाई की नसों में
हर्ष से विस्मित रोम हैं घांस
राष्ट्रीय रंग की तरह
पसरा हुआ है हरा.
इस कविता की अंतिम पंक्ति में जुलाई को बरसात का आवास कहा गया है मुझे लगता है आवास में एक स्थायित्व का बोध होता है जो यहाँ प्रयोग के लिए कदाचित उचित नहीं है क्योंकि न तो जुलाई और नही बारिश स्थाई है इसलिए यदि लिखा जाता कि “जुलाई बरसात की अंशकालिक किराएदार है” तो शायद कुछ ठीक और अधिक कलात्मक होता.
इसी तरह एक कविता जिसका शीर्षक “दस्ताने” है उसमें कवि ने बहुत मौजू सवालों के साथ दस्तानों और उनकी उपयोगिता के बरक्स स्त्री विमर्श की और कविता के उत्कर्ष को ले जाने का उपक्रम किया है, कि जहां स्त्रियों के हाथ अधिकांश समय गृहस्थी के काम काज के लिए जल में डूबे रहते हों वहां उसके लिये दस्ताने पहनने का अवसर कहाँ है तो फिर सवाल यह कि क्या दस्ताने स्त्रियों के लिये बने ही नहीं इसी विचार के मर्म को स्पर्श करती हुई ये कविता —
गृहस्थी के अथाह जल में
डूबे उसके हाथ
हर वक्त गीले रहते हैं
तो क्या गरम दस्ताने
स्त्रियों के हाथों के लिये
बने ही नहीं ?
ये सवाल कवि की और से स्त्रियों के पक्ष में उठाया गया बहुत सार्थक सवाल है. “पहल” कविता को पढ़ता हूँ देवताले जी के कविता संग्रह “खुद पर निगरानी का वक़्त ” सामने आ जाती है जिसमें कमोबेश वही भावबोध है जो हेमन्त अपनी पहल कविता रखते हैं, बिम्ब और भाषा चाहे अलग हो पर सभी आरोप, सभी संदेह, सभी झूठ का रुख हेमन्त अपनी तरफ रखकर कविता लिख रहे हैं क्योंकि जिस समय को वह कोस रहा है उसमें वह भी है. “रात “ शीर्षक की कविता अवसाद और अकेलेपन की कविता है जिसके ऐंद्रिक लोक में कवि विचरते हुए एक दार्शनिक तत्व को गढ़ने की कोशिश करता है पर देह की विकलता और मन की गति इसे सफल नहीं होने देती.
हेमन्त में विषय चुनने की भी एक बैचेनी सी दिखाई देती है हर जगह उनका कवि मन जाग्रत चेतना के साथ सक्रिय रहता है यही कारण है कि वे हर चीज या हर जगह से नए प्रयोग करते हुए बिम्ब तलाश लेते हैं एक और कविता है “हारमोनियम”जिसके स्वर संधारकों को वे ज़ेब्रा क्रॉसिंग क़ी उपमा देते हैं और उस पर चलती उंगलियों को दोतरफा ट्रैफिक कहते हैं कोई वनवे यहाँ नहीं, लेकिन लगातार हार्न बजते हैं और कोई हरी बत्ती नहीं जलती. इस कविता में कवि ने ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर पैदल चलने वाले लोगों की मासूम चहलकदमी के प्रति औदार्य व्यक्त करते हुए इसे उस संगीतात्मकता से जोड़ा है जो ठीक उसी तरह हारमोनियम के स्वर संधारको पर उंगलियों की मासूम चहलकदमी की तरह है यह एक अत्यंत सुंदर बिम्ब है कि जेब्रा क्रासिंग पर चलने वालों में मासूम बच्चे, बुजुर्ग, महिलाओं के सहित अनेक लोग चलते हैं वहां दोनों तरफ के ट्रैफिक में रुके वाहनो के हार्न उन्हें चौंकाते भी है और वे जल्दी से हरी बत्ती होने के पूर्व पार हो जाते हैं,लेकिन हारमोनियम में कोई हरी बत्ती नही जलती और एक संगीत का स्वर उतरता रहता है यह एक सुंदर स्थिति की निर्मिति करती कविता है जिसमें अंधाधुंध गतिशील त्वरण को एक संगीतमय कला यन्त्र के द्वारा रोकने के रचाव का अनूठा बिम्ब हेमन्त ने अपनी कविता में गढा है.
यह एक संकेत भी है कि जेब्रा क्रॉसिंग पर चहलकदमी करते लोग की गति अवरोधक नहीँ बल्कि गति की संगीतात्मकता के पक्षधर हैं वैसे ही मानव सभ्यता के विकास के हर आयाम में एक ज़ेब्रा क्रासिंग है जहाँ चहल कदमी करते लोग अवरोधक नहीं बल्कि जीवन की गतिशीलता में संगीतात्मकता और उसके मानवीय सरोकार के पक्षकार हैं मुझे लगता है यह कविता अपने सुंदर और कलात्मक बिम्ब के साथ जीवन विवेक के मानवीय सरोकार को भी उकेरती है.
एक और अन्य कविता “पानी आजीन यात्री है”भी उल्लेखनीय कविता है जिसमें पानी अपने अनेकवर्णी रूपों में अस्तित्व बोध के साथ है, यूँ भी पानी,आग,पत्थर और कुत्ता मनुष्य के प्रागेतिहासिक मित्र और सहचर हैं यह कुछ ऐसे ही महत्व को रेखांकित करती कविता है.
बच्चों के प्रति अतिशय अनुराग हेमन्त की ह्रदयगत विशेषता है इसलिए वे झिमपुडा के लिये निवेदन ,बाल जिज्ञासा, तेरी गेंद, मेले से लौटते बच्चों का गीत, हड्डी वार्ड में बच्चा, समय और बचपन आदि कविताएं भी हमें स्पंदित करती हैं.
तानपुरे पर संगत करती स्त्री, संगतकार को इशारा, छायागीत जैसी कविताएं उनकी कल्पना शक्ति में बसे रंगकर्मी की सूचना देती है. जुलाई, अगस्त, आषाढ़, पौष, मार्च, दिसम्बर, मार्च जैसी कविताओं में कवि का ऋतु प्रेम प्रकट होता है.
इस तरह कहा जा सकता है कि अपने दूसरे कविता संग्रह तक आते आते हेमन्त ने दो समयावधि के अंतरालों में समकालीन दबावों के बावजूद पाठकों के समक्ष एक संवादिये की तरह इन कविताओं को सिरजने का कलापरक और सरोकार युक्त उपक्रम किया है, संग्रह की कविताओं की पठनीयता पाठक को सहज ही अपनी तरफ खींच लेती है.
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राजेश सक्सेना
48-हरिओम विहार
तारामंडल के पास
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