गुलज़ार
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एक दफ़े गुलज़ार साहब का एक वीडियो देख रहा था,उसमें वो किसी कॉलेज के छात्रों से मुख़ातिब थे. वो सवाल कर रहे थे कि “कोई मेरी पाँच क़िताबों के नाम बता सकता है? शायद नहीं पर फ़िल्मी गीत पाँच तो कम पड़ेंगे, आप पचासों गिना देंगे मेरे लिखे”.
ये बात वैसे तो उस शख़्स के लिए हमें बहुत छोटी लगती है जिसने दादा साहब फालके सम्मान, राष्ट्रीय पुरस्कार, पद्म सम्मान, फ़िल्मफ़ेअर अवार्ड, ऑस्कर अवार्ड, ग्रैमी अवार्ड और न जाने कितने अन्य बड़े पुरस्कार, ख़िताब जीते. कुछ शख़्सियतों के लिए, दिए जाने वाले ख़िताबात, अवार्ड शायद वो मायने नहीं रखते बल्कि ख़िताब ख़ुद उनसे जुड़कर अपने मायने तलाशते हैं. ऐसी ही कुछ कैफ़ियत लेखक, शायर, निर्देशक,फ़िल्मकार गुलज़ार साहब की है. आपने उनका लिखा कोई गीत , नज़्म या मज़मुए का एक हिस्सा पढ़ा नहीं कि गुलज़ार साहब की तख़लीक़ की ख़ुशबू बिखर गई. सुनने वाले लफ़्ज़ सूंघ लेते हैं और ज़बान पर नाम उभर आता है ‘गुलज़ार’.
गुलज़ार सरहद के उस पार से आए हुए बाशिंदे हैं, जो मुल्क़ की तक़सीम से जुड़े दर्द के शिकार और हमनवा भी हैं. उनकी शख़्सियत, शायरी और किस्सागोई इस बात की बानगी देते नज़र आते हैं. वो कहते भी हैं कि “एक बार सम्पूरन मरा था, दूसरी बार गुलज़ार”. उनका पूरा नाम सम्पूरन सिंह कालरा है. वो मूलतः दीना के रहने वाले हैं जो अब सरहद के उस पार हुआ करता है.
पढ़ने लिखने के ज़ौक ने उन्हें एक मोटर गैराज़ पर काम करते वक़्त भी नहीं छोड़ा, जहां वो रंग रोगन की ख़ातिर आई हुई गाड़ियों पर रंग से रंग मिलाने का काम किया करते थे. उनके मुताबिक़ उन्हें वहाँ एक बड़ा वक़्फ़ा पढ़ने लिखने के लिए मिल जाया करता था. फ़िल्मों में काम करने को लेकर उनके ख़याल थोड़ा अलग किस्म के थे. वो शायद ये मानते थे कि फ़िल्मों में बहुत पढ़े लिखे लोग नहीं जाते. वो तो एक बार फ़िल्मकार बिमल रॉय की फ़िल्म में गीत लिखने को जब उनसे कहा गया तो थोड़ा हिचकिचा गए. तब महान गीतकार शैलेन्द्र ने उनसे कहा “जाते क्यों नहीं, फ़िल्मों में सब ग़ैर पढ़े लिखे ही काम करते हैं क्या”? (श्री बिमल रॉय, गीत शैलेन्द्र जी से लिखवाना चाहते थे, लेकिन वो उपलब्ध न थे उस दिन, तब कोई परिचित इनको बिमल रॉय के पास ले गया था)
उसके बाद ही वो गीत लिखने को तैयार हुए, जिसे हम सब जानते हैं, बंदिनी फ़िल्म का ‘मोरा गोरा रंग लइ ले, जैसे ख़ूबसूरत गीत को उन्होंने सफ़हे पर उतारा. ये गुलज़ार साहब की हिंदी सिनेमा में पहली दस्तक थी और उसके बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. फ़िल्मी दुनिया के वो तमाम गीत जिन्हें गुलज़ार साहब की क़लम ने अंजाम दिए, आज भी संगीत के फ़लक़ पर सितारों की तरह जगमगा रहे हैं.
ख़ैर बात यहाँ उस गुलज़ार की है जो फ़िल्मों की नगमाकारी से भी कुछ अलहदा पहचान रखता है. जिसका दर्द न सही पर एक कसक तो है कि उसे क़िताबों में उस क़दर ना पढ़ा गया, एक रेख्ते, क़िस्सागोई, या साहित्य का शहरयार न कहा गया, जबकि उसकी तरबियत के निशान आज भी वहीं पोशीदा हैं. क़िताबों का गुलज़ार, सिनेमा के गुलज़ार से यूँ एकदम मुख़्तलिफ़ तो नहीं फिर भी उस स्याही से थोड़ा फ़र्क़ नज़र आता है जिससे वो फ़िल्मी नगमे लिखा करता है. अपनी नज़्मों, ग़ज़लों, कहानियों, और माज़ी के यादनामों में वो किसी मसरूफ़ और बंदिशों से बंधा सिनेमाई क़लमकार के बज़ाय एक मलंग शायर और लेखक दिखायी देता है. उसकी कहानियां वक़्त और उम्र के बांधों पर तैरती सी निकल जाती हैं और पहाड़ों, रेगिस्तानों की चहल पहल से लेकर शहरों की तंग बस्तियों, झुग्गी झोपड़ियों के वीरानों तक ले जाती हैं. उनमें रिश्तों की पेचीदा गलियां भी दिखती हैं और भीड़ में अकेले इंसान का सन्नाटा भी, वो जहां जहां से भी गुज़रता है सबसे बात करता है. फूल, पत्तियों को नर्म हथेलियों से सहलाता है, अश्कों की तपिश को महसूस करता है और झूम के बरसती बारिशों में क़तरा क़तरा बिखर जाता है.
गुलज़ार अपनी तहरीरों में अक्सर जज़्बाती असर रखते हैं. वो एक फ़ौजी की बात भी इस मासूमियत से करते हैं मानो वो एक सरहद पर तैनात बच्चा हो जिसे बंदूक तो थमा दी गई है मगर हर इंसान को वो एक फूल ही देना चाहता है. वो अपने वतन की आन पर मर मिटने को तो हाज़िर है फिर भी उसे उस पार खड़ा सिपाही अपना भाई नज़र आता है जब तक वो उसके मंसूबे नहीं भांप लेता. कितनी कहानियां, कितनी नज़्में उन्होंने सरहदों से लिपटी सुबहों, शामों पर निसार कर दी हैं.
गुलज़ार साहब के कथा साहित्य की अगर हम बात करें तो वो एक शायर की कहानियाँ लगती हैं. शायर कितनी भी क़िस्सागोई कर ले वो रहता आख़िर शायर ही है. उसकी ज़बाँ में वो मुलायमियत, वो क़सीदाकारी, कर्कश या रूखी बातों को भी उस लिबास में सामने रखना कि वो पढ़ने या सुनने वालों को रेशम से बनी हुई लगें. इंसान सब कुछ छोड़ सकता है पर उस क़िरदार की तासीर नहीं छोड़ सकता जो वो ज़िन्दगी में एक अरसे से जीता आया है, जिसने उसको पहचान दी और एक मुक़ाम तक पहुँचाया. अफ़सानानिगार बनना ग़ालिबन शायर की शख़्सियत से कहीं पेचीदा काम लगता है.
शायर अपने क़लामों में चंद लफ़्ज़ों में जो बात कह देता है उसको अफ़साना बनाने के लिए कई सफ़हों का सफ़र लगता है और ख़यालों की भीड़ से गुज़रना पड़ता है. गुलज़ार साहब की क़िस्सागोई उनकी नगमाकारी या शायरी से बिल्कुल अलहदा नहीं है. चूंकि उनकी रिहाइश और, तरबियत इस तरह हुई है कि वो ज़बाँ ज़्यादा उर्दू की तरफ़ झुकी हुई लगती है. पंजाबी हैं इसलिए पंजाबी लफ़्ज़ भी कई बार किस्सों में फूट पड़ते हैं. उनका मानना भी है कि हिंदी और उर्दू को अलग कर पाना बेहद मुश्किल है क्योंकि ये मिली जुली ज़बाँ अब हमारे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जज़्ब है.
उनके समकालीन जितने भी अफ़सानानिगार रहे हैं ख़ासकर सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, कृशनचंदर या बेदी, ये ख़ालिस क़िस्सागोई के उस्ताद थे. इसलिए इनके अफ़सानों में वो सब कुछ मिलता है जो ज़ालिम हक़ीक़त को बेपर्दा कर देता है. इनमें समाज का जो अक़्स उभरकर आता है वो कहीं ज़्यादा सच्चा और हक़ीक़त के क़रीब लगता है.
मंटो की ज़बाँ में तल्ख़ी,और सोज़ उसी भद्दे, बेलिबास तरीके से सामने आती है जैसी वास्तव में हमें अपने इर्दगिर्द दिखती है. जितनी भी कहानियां मैंने उनकी पढ़ी उनमें खुले तौर पर ग़ुरबत, मज़लूमियत, और ज़िंदगी की वहशत का ज़िक्र बड़ी बेबाक़ी से किया गया है. आपसी रिश्तों में एक औरत के साथ कैसा सुलूक किया जाता रहा है ये उनकी कहानियों में बार-बार नज़र आता है. कुछ कहानियों में जैसे टोबाटेक सिंह में मंटो की संवेदना का पता मिलता है जो भावुक कर देती है. ज़ेहनी बीमारियों के हिस्से भी उनकी कुछ कहानियों में साफ़ नज़र आते हैं. कोई भी उनकी कहानियों को पढ़ते सोच सकता है कि क्या इतना घिनौना चेहरा है हमारे समाज का?या शायद हम वो चेहरा देखना ही नहीं चाहते, एक नक़ाब लगा लेते हैं.
इस्मत चुगताई की क़िस्सागोई मंटो से बहुत फ़र्क़ नहीं पर हाँ ये ज़रुर है कि उनकी ज़बाँ थोड़ी आसान और जज़्बाती ज़्यादा है. वो लिखती सब कुछ हैं पर एक लिहाफ़ में जोकि उतना विचलित नहीं करता जितना कि मंटो का कथा साहित्य. मंटो के वो क़रीब रही हैं लेकिन उनकी लिखावट में एक तरीके की पर्दादारी है, शाइस्तगी है जो शायद स्त्री होने के नाते अपने आप ही आ जाती है. उन्होंने उपन्यास लिखे हैं और कहानियाँ भी. ‘लिहाफ़’ उनकी चर्चित कहानी है.
कृशनचन्दर की कहानियों में सब कुछ मिलता है. हास्य व्यंग्य, कश्मीरी मौसम का वो रूमानी एहसास, बँटवारे के बाद का दर्द, और रिश्तों के ताने बाने का जगर-मगर. बेहद उम्दा और सरगोश तहरीरों में छिपे बेचैन कर देने वाले मक़बूल जज़्बात, जिनको पढ़कर एक इत्मीनान सा मिलता है कि गोया मन कहता हो यक़ीनन बिल्कुल यही जवाब होना चाहिए था इस सवाल का. उनका बचपन पुंछ में गुज़रा जोकि कश्मीर का ही एक हिस्सा है इसलिए उनकी कुछ कहानियों में
उस ख़ूबसूरती का पयाम मिलता है जो वादियों की गोद में कहीं रची बसी है. उनकी भाषा अपने समकालीन उर्दू कथाकारों से थोड़ी ज़्यादा सरल और सहज लगती. उर्दू के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल उन्होंने भी भरपूर किया है पर वही उर्दू जो आमतौर पर हमारे यहां बोली जाती है. ख़ालिस फ़ारसी ज़बाँ का इस्तेमाल उन्होंने कमतर किया है. उनके लेखन में जो विविधता है वो अन्य कथाकारों में कम दिखाई देती है. वो लाशों से भरी पेशावर एक्सप्रेस में मुल्क़ की तक़सीम का दर्द लिख देते हैं, और पेड़ के नीचे दबे एक साहित्यकार की कथा में वो पूरे सरकारी तंत्र की ऐसी तैसी भी कर देते हैं. वो एक जवान बदसूरत बिटिया की शादी से जूझने वाले परिवार की पीड़ा की कहानी जितने दर्द से कहते हैं उसी तरह सफ़र में मिलने वाली ख़ूबसूरत लड़की को देखकर उठने वाले अपने जज़्बातों की बयानगी भी शिद्दत से करते हैं. उनकी लिखावट में एक ठहराव और सुकून नज़र आता है इसलिए कहीं कहीं पर वो गुलज़ार साहब के बेहद क़रीब लगते हैं.
गुलज़ार साहब फिल्मों की नगमाकारी और शायरी में इस क़दर डूबे कि वही उनकी पहचान बन गई. हालांकि वो ज़िंदगी की जद्दोजहद की शुरुआत में फिल्मों से दूर भागते थे. इसलिये ये माना जा सकता है कि शायद उनका मुक़ाम उर्दू साहित्य में अपनी एक मुकम्मल जगह बनाना रहा हो. फिल्मों में नगमाकारी और उनकी ज़मीन से जुड़ी शायरी ने उन्हें वो जगह दी जिसके दम पर वो अपनी शख़्सियत से जुड़े कई आयामों को ढूँढ़ सके और सबके सामने रख सके. कामयाबी इंसान को अपने रास्ते से अलग, नए रास्तों पर चलने के ज़ोखिम उठाने का माद्दा देती है. उनकी अफ़सानानिगारी ऐसी ही एक कोशिश लगती है. वो ख़ुद कहते हैं कि जब भी नगमाकारी या शायरी से ऊबे तो क़िस्सागोई में ही ठाँव मिली. आगे कहते हैं कि शेर या नज़्म में कहते ही जो दाद या वाह वाह मिल जाती है वो बात अफ़साना सुनाने में इस क़दर नहीं मिलती.
कहानियां, कविता या शायरी से इस तरह भी अलग हैं कि कहने वाले को एक बड़ा फ़लक़ मिलता है अपने दर्द और माज़ी को ज़ाहिर करने का, जिसमें वो उन सभी किरदारों को याद करके, जिनकी उसकी ज़िन्दगी में ख़ास अहमियत रही, एक ताना बाना बुनता है, एक अपना अलग ही संसार सजाता है. किस्से बीती या बीत रही ज़िंदगी के ही अक़्स होते हैं. गुलज़ार साहब की क़िस्सागोई में आपको दर्द ज़रूर मिलेगा, उसका एहसास भी होगा पर उस खुले और ख़ालिस अंदाज़ में नहीं जैसा मंटो की कहानियों में नज़र आता है. वो बातों को थोड़ा सहम के कहते हैं कि पढ़ने वाला सिहर न जाए.
उन्होंने बच्चों के लिए भी तमाम छोटी कहानियां, किस्से लिखे हैं, और अपनी आवाज़ में सुनाए हैं. जोकि बेहद लोकप्रिय हुए हैं.
उनका कथा साहित्य शायद बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ा गया है, उनकी नज़्मों के बरअक्स लेकिन उसका असर ज़रूर दिखता है उन चाहने वालों पर जो गुलज़ार से अपने आप को बड़ी शिद्दत से जोड़ पाते हैं.
कभी-कभी किस्सा कहते हुए इतने मगन जाते हैं कि अपने किस्से में ही वो हँसी मज़ाक के लम्हे ढूँढ़ लेते हैं . ऐसी ही एक याद है क़िताब ‘डयोढ़ी’ से जिसमें फ़िल्म की शूटिंग के लिए सरहद पर जाना पड़ता है, पूरे लाव लश्कर के साथ. कहानी का पात्र बुझारत सिंह ख़ासा मसखरा जान पड़ता है उनकी अफ़्साना-निगारी के अंदाज़ में. वो कहते हैं
‘बुझारत सिंह को वायरलेस पर बात करते करते ऐसी आदत सी पड़ गयी थी कि कोई भी बात हो, ख़त्म करते ही ओवर बोल देता था. हम उसके पास खड़े थे, बोला “आप इधर चारपाई खींचकर बैठ जाओ ना! ओवर!
कुछ देर बाद, उसकी बीड़ी बुझ गयी थी. नंगी चारपाई के बान ही में एक तिनका छीला उसने और लालटेन के ऊपरी सुराख़ से जला के बीड़ी ताज़ा की, दो कश लगाए कि बीड़ी फिर बुझ गयी. उसी वक़्त गोपी (एक अन्य किरदार) ने लाइटर से सिगरेट जलाया तो हँस के बोला “अपने भी एक लाइटर होता तो ज़िन्दगी में क्या मज़ा होता! अब परमाणु बम से बीड़ी तो नहीं सुलगा सकते ना-ओवर “
उनकी बातों में एक घुमंतू शख़्सियत का अल्हड़पन और एक बांके जवान की आशिक़ी का जुनून दोनों जज़्ब दिखायी देते हैं. वो जब घूमने निकलते हैं तो दिन, रात, मौसम,पहाड़, सरहद, थकान सब कुछ पीछे छोड़ जाते हैं.
जब सुरूर में बहते हैं तो मुम्बई की झुग्गी में रहने वाले अलमस्त पियक्कड़ की तरह बारिश में बह जाने वाली अपनी झोपड़ी के साथ ही बह जाते हैं.
मैंने बचपन में उनकी आवाज़ जंगल बुक की कहानी में सुनी थी और उसके उनवान में ही जो गीत शुरू होता है, एक बच्चे को गुलज़ार के क़रीब लाने में काफ़ी मालूम देता है. कोई इस क़दर भी बचपना दिखा सकता है भला की चड्ढी पहनाकर फूल खिलाए!
बात बचपन की हो रही है इसलिए एक बाल फ़िल्म का ज़िक्र करना यहाँ ज़रूरी लगता है जिसे शायद कम लोगों ने ही देखी या सुनी होगी, नाम है ‘चतरन’. चतरन पूरी तरह से गुलज़ार के एक मासूम किस्से का नाम है जो सिनेमाई रवायतों के शोर से पूरी तरह दूर नज़र आता है. ये एक जंगल के साये में प्यारे बिल्ली और कुत्ते के बच्चे के बीच के ‘प्यार’ की कहानी है जिसे पूरी फ़िल्म में गुलज़ार सुनाते हैं. ‘चतरन’ बिल्ली के बच्चे का नाम होता है.
पेड़ से लिपटी नन्हीं सी जानें
चिड़ियों सी सूरत तोतली ज़बानें
(‘चतरन’ फ़िल्म से)
बच्चों का गुलज़ार, सिनेमाई और अदब के गुलज़ार से बेहद अलग नज़र आता है, जहाँ वो बचपन के रंगों से खेलता हुआ नानी की कहानियां बन जाता है.
गुलज़ार साहब का एक उपन्यास ‘दो लोग’ जोकि बंटवारे की जीती जागती दास्तान है, शायद उनका अकेला उपन्यास है. ये सरहद के उस पार के एक काल्पनिक शहर ‘कैम्बलपुर’ की कहानी है जहाँ मुसलमान, हिन्दू, सिख सभी मिलजुल कर रहते हैं. वो आती हुई आज़ादी और मुल्क़ की तक़सीम की सुगबुगाहट, रोज़ रोज़ आती हुई दंगों, क़त्लेआम की ख़बरों से हलकान हैं. वो इस ख़ौफ़ और शक़ में जी रहे हैं कि कैसे अपनी ज़मीन, अपना मक़ान छोड़कर सरहद के उस पार जाएं ? जो अभी ये भी नहीं जानते कि ख़ुद उनके ही मुल्क़ में उनकी सरहद कहाँ है? भला उनके ही लोग जो सुबह शाम एक दूसरे के घर में चाय पीते हैं, खाना खाते हैं, वो उनकी जान कैसे ले लेंगे? उन्हें रहने न देंगे?
“फ़ज़लू एक बात बता, पाकिस्तान अगर बन गया तो क्या तू मुझे छोड़कर पाकिस्तान चला जाएगा?”
उस मासूम (करम सिंह) को नहीं मालूम था कि पाकिस्तान वहीं बनने वाला है जहाँ वो रह रहा है. और जब फ़ज़ल मास्टर ने उसे समझाया कि कौन कौन से इलाक़े पाकिस्तान में आ जाएंगे तो उसने मुसकुरा के कहा.
“तो फिर क्या फ़िक्र है. पहले अंग्रेज़ थे. अब मेरा यार हुकूमत करेगा मुझ पर!”
(उपन्यास ‘दो लोग’ से)
गुलज़ार के दो कहानी संग्रह आए थे, एक चौरस रात, दूसरा धुआँ. बाद में दो और आए, ड्योढ़ी, जिसमें ज़्यादातर उनकी यादों के खट्टे मीठे किस्से हैं और रावी पार, जिसमें उनकी बुनी हुई कहानियां हैं. कुछ और क़िताबें हैं जो फ़िल्मी कहानियों से जुड़ी हैं जैसे क़िताब, मौसम, नमकीन, कोशिश, अंगूर, किनारा इत्यादि. ये सभी एक ख़ास कड़ी ‘मंज़रनामा’ के तहत लिखी गई हैं.
एक क़िताब ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ पर भी है जिस पर उन्होंने बेहद उम्दा टी. वी. सीरियल बनाया था.
बच्चों के लिए गुलज़ार साहब ने कुछ बेहतरीन क़िताबें लिखी हैं, जिनमें ‘पोटलीबाबा की कहानियाँ’, इक चूरन सम्पूरन, बोस्की का पंचतंत्र (पाँच भाग में) ,मुख्यतः हैं.
गुलज़ार आज जहां खड़े हैं वहाँ से बस उनके तआरुफ़ में उनका नाम ही काफ़ी है. गुलज़ार एक असर एक एहसास का नाम है जो कभी आँखों की महकती ख़ुशबू देखता है और कभी उसके रंग. उन्होंने कभी कहा था ” मैं रंग चाहे कितने भी बदलूँ , लिबास नहीं बदलता”
डॉ. कौशलेन्द्र प्रताप सिंह कविता संग्रह ‘भीनी उजेर ‘और संस्मरणों की किताब प्रकाशित. |
बहुत बढ़िया लिखा है कौशलेन्द्र ने। सेल्युलाॅयड पर अफसाने लिखने में गुलज़ार साहब का अफसानानिगार कहीं गुम हो गया
गुलज़ार साहब पर बहुत सुंदर,मानीखेज ,दिलचस्प और पठनीय लेख l कौशलेंद्र जी को हार्दिक बधाई और अरुण देव जी को साधुवाद l गुलज़ार साहब की शख्सियत बहुआयामी है l शायर, गीतकार , संवाद लेखक , कहानीकार , पटकथा लेखक , निर्देशक , अनुवादक और संपादक सभी रूपों में वह अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं l उनका सम्पूर्ण साहित्य और सभी फिल्में संवेदना , कलात्मकता और संजीदगी की अनुपम मिसाल है l बंदिनी में गुलज़ार की एंट्री शैलेन्द्र की व्यस्तता के कारण नहीं थी बल्कि सचिन देव बर्मन और शैलेन्द्र की अस्थाई अनबन थी इसका खुलासा खुद गुलज़ार साहब ने रुड़की के हमारे एक कार्यक्रम में किया था l गुलज़ार साहब अपनी कलम से साहित्य की बगिया महकाते रहे l उन्हें सादर प्रणाम l आज से पचास साल पहले उन्होंने कविता की नई विधा ” त्रिवेणी” (तीन पंक्तियों की कविता ) इज़ाद की l कमलेश्वर जी ने उनकी त्रिवेणि यों को सारिका में खूब छापा l त्रिवेणी कविता संग्रह की भूमिका भी कमलेश्वर जी ने लिखी l
बढ़िया लेख। गुलज़ार के साहित्य को फ़ोकस में रखते हुए कम लिखा गया है। यहाँ साहित्यिक समग्रता में गुलज़ार मिलते हैं।
कौशलेंद्र जी और आपको बहुत बधाई और शुक्रिया।
गुलज़ार की सिमटी हुई घड़ियां हजारों बार सुन चुका हूं। क्लासिक टच देते हैं वे। उनका लिखा आत्मा की आवाज लगती है। बिल्कुल डिफरेंट। एकदम रूहानी। जिस एक गीतकार पर मुझे लिखने का मन करता है तो वह गुलज़ार हैं। हवाओं से लिख दो हवाओं पे नाम। हंस के जरिए उनकी कहानियां भी पढ़ी हैं।
बहुत कम लोग ऐसे हुए जिन्होंने साहित्य और सिनेमा दोनों में अहम मुकाम हासिल किये।गुलज़ार उनमें से एक रहे हैं।उनकी भाषा में हिन्दुस्तानी लफ्ज़ों की नज़ाकत और सौंदर्यबोध है।आलेख गुलज़ार की शख्सियत को समझने में मददगार है।कौशलेन्द्र जी को बधाई !
मैंने ज़िंदगी में क़रीब 20 फ़िल्में देखी थी । मेरे लाल जी (पिता जी) मीडियम वेव पर ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस पर गीत सुनते थे । कभी मैं भी सुन लेता । अब कोई फ़ेसबुक दोस्त गुलज़ार की आधी लाइन लिख देता है तो मन कहता है कि वह मेरे रहनुमा का है । गुलज़ार की ‘तख़्लीक़ की ख़ुशबू’ मुख़ातिब हो जाती है । मुझे एक नामालूम शायर का शे’र याद है ।
अपनी तख़्लीक़ में इन्सान को शामिल करके
दुख उठाये हैं ख़ुदा जाने ख़ुदा ने कितने
उनकी पैदाइश दीना में हुई और मेरे लाल जी की कबीरवाला ज़िला मुलतान में । हमार महसूस करने की तर्बियत में फ़र्क़ नहीं है । अगले पैराग्राफ़ पढ़कर कुछ और भी लिखूँगा । माशा अल्लाह कौशलेंद्र जी उर्दू भाषा की जानकारी विपुल है ।
गुलज़ार, सआदत हसन मंटो और इसमत चुगताई के लेखन की ख़ुशबू एक सी है । कौशलेंद्र जी ने इसमत आपा के पर्देदारी का उल्लेख किया । यह महिलाओं का स्वभाव है
‘ये हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आये
पर्दे में चले जाना शर्माये हुए रहना’
एक समय के तीनों लेखक कृष्णचंद्र गुलजार और इस्मत चुगताई तीन अलग-अलग क्षेत्र तीनों के अलग-अलग कहानियां समाज को बहुत कुछ दिया है मैंने आज के युवा सबसे अधिक गुलजार को महसूस कर रहे हैं और हर व्यक्ति अपने आपको गुलजार समझकर कुछ न कुछ लिखने का काम कर रहा है।
बढ़िया रिपोट।शुक्रिया सर।
बहुत शानदार लिखा है भाई। इस आलेख को पढ़ना ड्यू था। गुलज़ार के बारे जो लोग ठीकठाक जानते हैं उनको भी इसमें कुछ न कुछ नया मिल ही जाएगा। गुलज़ार का शायर उनके किस्सागो पर इतना भारी है कि अमूमन उनके चाहने वाले उनके इस पहलू से अगर वाकिफ़ हैं भी बहुत मुतास्सिर नहीं हैं। इस लिहाज़ से यह एक महत्वपूर्ण लेख है। अपने समकालीनों से उनकी शख़्सियत और लेखन की तुलनात्मक पड़ताल सचमुच बाकमाल है। बहुत-बहुत उम्दा लेख। लेखक के साथ साथ अरुण देव जी को भी इसके लिए बधाई। आख़िर में यह कहना कैसे भूल जाऊँ कि कौशलेंद्र जी की ज़ुबान कितनी नफ़ीस है !
आज फिर से इस आलेख को पढ़ा । तरबियत ऐसी है कि जो शख़्स मेरे फ़ेसबुक पेज के लिखे गये को लाइक कर लेता है तो मेरी कोशिश होती है कि वापस वहाँ जाकर कुछ फ़र्ज़ अदा करूँ । परमाणु बम से बीड़ी सुलगाने वाली पंक्तियाँ सराहनीय हैं । गुलज़ार ऐसे फ़नकार है कि वे मामूली बात को ग़ैरमामूली तरीक़े से लिख देते हैं । यूट्यूब पर उनके बोलने के क़िस्से मिल जाएँगे ।
मुल्क का बँटवारा कर दिया गया । लेकिन रूह का नहीं किया जा सकता । वहाँ से आये हिन्दू और सिंधी समाज के शरणार्थी नहीं भूल सकते । वह पीढ़ी मर खप गयी है । कुछ चुनिंदा व्यक्ति बचे हुए हैं । सम्पूरण सिंह कालड़ा टीस को नहीं भूले । गुलज़ार ने अपने नग़मे में भी बीड़ी जलायी थी । गुलज़ार रवाँ होते आये हैं । वक़्त के साथ चले हैं और अप्रासंगिक नहीं हुए ।
डॉ कौशलेंद्र सिंह ने शिद्दत से लेख लिखा । हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषी होते हुए भी इस आलेख में उर्दू के जादू को बिखेरा ।
ख़ुदा गुलज़ार को सलामत रखे ।
गुलज़ार साहब की पूरी शख़्सियत को समेटता एक खूबसूरत आलेख ।