हबीब तनवीर
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हबीब तनवीर का जाना अनपेक्षित न था, पर 8 जून, 2009 को यह ख़बर एक आघात की तरह लगी. मन की ‘हाय’ शब्दों में यूँ निकली– ‘आज भारतीय रंगकर्म से भारतीयता चली गयी’. और इसी के साथ याद आयी उनके नाटक ‘आगरे बाज़ार’ की टेर ‘महिमा उसकी ही रही, जिसका नाम नज़ीर’ के बदले ‘महिमा उसकी ही रही, जिसका नाम हबीब’!
पहली बार उन्हें देखने की चिर प्रतीक्षित आकांक्षा के पूरी होने की घटना मेरे लिए अपनी पेशोपेश में यादगार है. नवम्बर माह में ‘पृथ्वी थिएटर’, मुम्बई के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में सालाना नाट्योत्सव होता है. १४ नवम्बर, १९८९ का वह दिन मुझे ठीक से याद क्या है, मैं भुला ही नहीं सकता- मेरे बेटे का जन्मदिन होता है और शाम के ६ बजे और रात के ९ बजे के दो शोज़ में ‘आगरे बाज़ार’ लगा था. कहा जाता है कि सबसे पहले ‘आगरे बाज़ार’ ने ही हबीब तनवीर को ‘हबीब साहब’ बना दिया– थिएटर का सरताज. उन्हें व उनके उस नाटक को देखने की प्रबल इच्छा के सामने खड़ी थी बेटे की ख़ुशी और बच्चों सहित पचासों आमंत्रित लोगों का समाज. वक़्त वही, जो नाटक के शोज का.
पत्नी को इस नाज़ुक स्थिति का पता था, पर समाज तो इसे समझ न सकता था– वह समाज, जो बेटे-बहू के फ़िल्म देखने जाने पर पोते की देखभाल के लिए भी नाटक देखना छोड़ देता है. लिहाजा मैं माथा पीट रहा था– ‘यार लाये उसे बाली पे मेरी, पै किस ‘दिन’! छोड़ने लायक़ दोनो नहीं– ‘पुतवौ निक, भतरौ निक, केकर किरिया खाँव?
मन मार के जन्मोत्सव का आनंद ले ही रहा था कि सवा आठ बजते-बजते प्रकट हुए– इला अरुण, अरुण वाजपेयी व के॰के॰ रैना. मैंने समझा कि ये लोग बेटे को बधाई-आशीष देके यहीं से नाटक देखने जाएँगे. उनके ‘एक पंथ दो काज’ का मेरा अनुमान तो सही था, पर उन्होंने बताया– ‘हम नाटक देखकर आ रहे हैं और उसी रौ में बोल गये– ‘अद्भुत है त्रिपाठीजी, हम तो आपको वहीं खोज रहे थे,आप जा रहे हैं न’? और मेरे चेहरे पर कुछ तो आया होगा कि तीनों सकपका गये. केक-वेक कट चुका था. बच्चे खेल रहे थे,बड़े गपिया भी रहे थे और खेल के मज़े भी ले रहे थे. इला व केके से अकुल (बेटे) का जुड़ाव अच्छा था. इला की बिटिया इशिता इसकी हम-उम्र है. आते-जाते दोनों साथ खेलते भी थे. इसी बीच इला ने बेटे को रोक के बधाई के साथ पुष्प व उपहार देके दुलराते-पुचकारते ने कह दिया – ‘बेटा, हमें कहीं जाना है काम से, इसलिए जाएँगे’ कहते हुए जोड़ दिया – ‘तुम्हारे डैडी को भी उसी काम से साथ ले जाना है – तुम तो दोस्तों के साथ खेलो, हम थोड़ी देर के लिए हो आयें ’? और उसने अपने खेलने की ख़ुशी के जोश में ‘हाँ’ में सर हिला दिया और खेलने में जुट गया. बस, लोहा गर्म देखके कल्पनाजी ने भी हथौड़ा मार ही दिया – ‘हाँ-हाँ, निकल जाइए आप लोग ’ और मुझे टहोका– ‘निकल लो जल्दी से’.
नाटक कितना अच्छा था– क्या बताऊँ– लगा कि ज़िंदगी का पहला नाटक देख रहा हूँ– पहली मुहब्बत जैसा वह अहसास. मंच पर सजा हुआ आगरे का बाज़ार, उसी में पतंग की एक दुकान लगाये हबीब साहब. आगरा शहर के शायर नज़ीर अकबराबादी पर आधारित नाटक. उस भूमिका के बच्चे का अब नाम याद नहीं– क्या तो गाता था नज़ीर की नज़्में- जीवंत (लाइव)– बिना साज-संगीत के. नज़ीर द्वारा बाज़ार के सभी छोटे-मोटे सौदागरों के लिए लिखे जाते गीत के इतिहास को जीवंत करते दृश्य–गीत लेकर खुश हुए जाते दुकानवाले और इस शायर पर निसार सारी दुनिया यानी आम आदमी, इसका अपनी दुकान पर इस्तक़बाल करते और बाज़ार की प्राय: मुखियागीरी-सा करता हुआ हबीब साहब का किरदार. सब कुछ इतना प्रीतिकर-रोचक कि पहले शो में आ पाता, तो दूसरा भी बिना देखे न लौटता. लेकिन उस शाम तो रुक भी न सकता था– घर की गहमागहमी में. सो, उस रात तो अपने इस प्रियतम रंग-व्यक्तित्व को मंच पर देख-सुन के ही चला तो आया. लेकिन मिलने, बात करने की चिर हसरत उस शाम अदम्य बन गयी.
और उस अदम्यता को साकार करता अवसर भी कुछ महीनों बाद ही बन गया, जो पुन: यादगार रहा, लेकिन इस स्मरणीयता का सबब बड़ा विचित्र है. संयोग कुछ यूँ घटा कि विश्वविद्यालय में पढ़ाने की अपनी चिर-वांछित की पूर्त्ति-स्वरूप १४ नवम्बर के उक्त दर्शन-श्रवण के ठीक एक महीने बाद ११ दिसम्बर को मैं गोवा पहुँच गया. वहाँ के विश्वविद्यालय में प्रवक्ता बनकर. और अनपेक्षित रूप से वहाँ की राजधानी के शहर पंजिम में मांडवी नदी के किनारे स्थित रमणीय ‘गोवा कला अकादमी’ के किसी आयोजन में हबीब साहब अपना एक और सरनाम नाटक ‘माटी की गाड़ी’ लेकर आ पहुँचे. अब बीस सालों बाद निश्चित तिथि तो क्या महीना भी ठीक याद नहीं आ रहा, लेकिन फ़रवरी-मार्च, १९९० की ही कोई तारीख़ रही होगी. ‘आग़रे बाज़ार’ की ख़ुमारी अभी पूरी तरह उतरी न थी– वैसे समूचे हबीब साहब की खुमारी तो जीवन की चिरकुमारी ही सिद्ध हुई है. वहाँ गोवा की छोटी जगह में ऐसे अवसर यूँ भी बहुत कम आते और फुर्सत कुछ ज्यादा रहती. सो, झटपट एक साक्षात्कार की योजना बना डाली. पड़ोसी मिस्टर कुमार का नया-नया आया कैमरा भी माँग लिया– तब तो आज की तरह के मोबाइल थे नहीं. और काफ़ी पहले हॉल पर पहुँच भी गया.
पता लगा कि हबीब साहब का मेकअप हो रहा है– वे उसमें ‘राजा का साला’ वाली खलनायक की भूमिका में थे, जिसमें बड़ा गहरा मेक-अप था. सो, मोनिका तिवारी (श्रीमती हबीब) से मिला और शो के तुरत बाद का समय भी मिल गया. कहने की बात नहीं कि शो ज़बरदस्त हुआ, लेकिन बाद की मुलाक़ात में जो कुछ हुआ, उसके चलते शो ऐसा भूला कि ‘भरतहिं बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौन’ जैसा हाल हो गया. फिर भी कुछ ख़ास बातें याद हैं, जिसमें सबसे बड़ा तत्त्व यह कि हबीब साहब कुछ भी करें, वह लोक का हो जाता है, वरना संस्कृत का शूद्रक लिखित क्लासिक नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ भी खाँटी लोकनाटक बनकर ही अपनी अक्षय कीर्त्ति अर्जित कर सका.
कृति में वसंतसेना का जो सौंदर्य वर्णित है और जब इस पर ज़हीन फ़िल्म-निर्माता शशि कपूर के लिए गिरीश कर्नाड जैसे कलाकार ने फ़िल्म निर्देशित की, तो भी रेखाजी जैसी ख़ूबसूरती के बिना फ़िल्म बनाने की सोचने को भी तैयार न थे वे लोग, लेकिन उसी चरित्र को आमने-सामने मंच पर तनवीरजी जमुनियाँ काली लोक कलाकर (पूनम) को उतार देते हैं और ज़रा देर में ऐसा लहका देते हैं कि दर्शक का ध्यान न रंग़ पर जाता, न रूप पर – बस वह वसंतसेना है, जिस पर राजा का साला फ़िदा हो सकता है. इसी तरह खल पात्र में पूरे नाटक दबंगई करते हुए हबीब साहब अंतिम दृश्य में अपने भागने-छिपने की ऐसी छाप छोड़ते हैं कि पहले से ही बेहद उत्साहित मेरे जैसा दर्शक शो देखकर ऐसा ‘चार्ज्ड’ हो जाता है कि शो के बाद हुए हबीब साहब के हादसे के बावजूद वह याद पुछ नहीं पाती– अमिट बन कर रह जाती है. तो, अब उस हादसे पर चलें.
हुआ यूँ कि मोनिकाजी के कहने पर किसी लड़के ने मुझे हबीब साहब के पास नेपथ्य में पहुँचा दिया कि गाढ़ा मेक-अप उतारते-उतारते जो औसत से ज्यादा समय लगने वाला है, उतने में बात हो जायेगी. मैं तो पहली मुलाक़ात के अपने भावावेग में आकुल भी था और सजग भी, उधर हबीब साहब भूमिका के बाद की मुक्ति में थकन उतारने की मानसिकता में थे, लेकिन मोनिकाजी के कहे के चलते झट से मुझसे बात करके निपटा देने की मुद्रा में आ गये. और पाँच मिनट में प्रशंसकों के जाने के बाद बातचीत शुरू करने का इशारा किया एवं मेकअप को स्वयं उतारते हुए सारे प्रश्न सुनने की इच्छा जाहिर की. औपचारिक अभिवादन व अच्छे शो के साधुवाद के दो वाक्यों के बाद मैंने एक-एक सवाल पढ़ना शुरू किया- वे स्वीकार में सिर हिलाते रहे…कि 3-4 सवालों के बाद एक सवाल आ गया, जो मामला थोडे ही दिनों पहले ‘संडेमेल’ में मुझे पढ़ने को मिला था– ‘आपके और रामचन्द्र देशमुख के छत्तीसगढी रंगकर्म में क्या अंतर है और किन मुद्दों पर आप दोनो में मतभेद है’, सुनते ही उनका तेवर थोड़ा-सा बदला और झटके से प्रतिप्रश्न आया– ‘तो, आप यह भी लिखने वाले हैं’? मैं ज्यादा कुछ भाँप न पाया और उसी रौ में कह गया– ‘आप जो जवाब देंगे, उसे ज़रूर लिखूँगा’…. बस, मेकअप का उँचारा टुकड़ा हाथ में लिये ही वे झटके से यूँ खड़े हुए कि मैं डर ही गया. अपने उठे हाथ से मुझे दरवाज़े का रास्ता दिखाते हुए गरजे – ‘निकल जाइए आप. मुझे कोई बात नहीं करनी आप से’.
और सबकुछ अचानक बदल गया. मैं चकित, अवाक्, मामला समझने की कोशिश कर रहा था और वे न जाने क्या-क्या तड़कते जा रहे थे. आवाज सुनकर मोनिकाजी आ गयीं. उन्हें शांत किया. मुझसे पूछा कि मैंने क्या कह दिया, और उत्तर सुने बिना ही बताने लगीं कि इन्हें ‘हाई बीपी’ है, बहुत जल्द उत्तेजित हो जाते हैं. तब तक कोई पानी लिये आ गया. मैं ठकमुर्री मारे खड़ा रहा. शायद चाय भी पी गयी. उनका मेकअप उतरा. मैं उपरफट्टू (सरप्लस) की तरह बैठा रहा. ख़ैर, ‘मेकअप’ उतारने के बाद मोनिकाजी के इशारे पर हम वहाँ से निकले और किसी केबिन में जा बैठे. बातें शुरू हुईं. माहौल सहज तो हो गया, पर वैसा उत्फुल्ल (प्लीजेंट) नहीं हो पाया, जो साक्षात्कार के लिए मुफ़ीद होता है. पता लगा कि छत्तीसगढ़ के ही हैं रामचन्द्र देशमुख और छतीसगढी लोकनाट्य के नाम पर कमाने-खाने का धन्धा करते हैं. अख़बारों वग़ैरह में अपने को हबीब साहब के प्रतिस्पर्धी के रूप में प्रक्षेपित (प्रोजेक्ट) करते हैं, जो उनका अपने को प्रचारित करने का हथकंडा है. अब यह हरकत हबीब साहब जैसे श्रेष्ठ रंगकर्मी व रंगचिंतक को बहुत नाग़वार लगनी ही है. ख़ैर, कायदे से बात पूरी हुई और साथ में ही कला अकैडेमी से बाहर निकलते हुए किसी से मुसकुराकर मेरी तरफ़ इशारा करते हुए हबीब साहब ने कहा भी – ‘दीज जर्नालिस्टस, शक आवर ब्लड’ (ये पत्रकार, हमारा खून चूस लेते हैं). यानी साहब सहज हो गये थे. हम बड़े मज़े-मज़े में विदा हुए.
पर मैं उस साक्षात्कार तैयार न कर सका. कुछ और साक्षात्कारों के साथ भी ऐसा हुआ है– ऐसे ही कुछ कारणों से. फिर तब तो मैं काफ़ी अपरिपक्व व आवेशी था(अब भी शायद कम नहीं हूँ). सो, जिस बेक़ायदे से शुरुआत हुई थी, मन बिदक गया था शायद न लिखने की ग्रंथि बन गयी थी. वैसे मन का तर्क आज भी वाजिब लगता है- इतना बड़ा कलाकार इतनी-सी बात पर इतना बेक़ाबू कैसे हो सकता है!! फिर मुझे तो सुदूर गोवा के एकांत में रहने से दोनों कलाकारों का पूरा मामला मालूम न था– सो, जानना चाह रहा था, जो पत्रकार-धर्म होता है– बातों को सामने लाना, मुद्दों को स्पष्ट करना-कराना आदि. इसी दंश ने लिखने न दिया- सालता रहा. अन्दर से बिदकना कैसा रहा होगा कि फ़ोटो लेने की याद आयी- फ़ोटोज़ लिये भी, लेकिन खिंचे एक भी नहीं, क्योंकि कैमरे में आया ही नहीं. बाद में कुमार ने विनोद किया– ‘सर, मेरा कैमरा बहुत सेंसेटिव है. आपका दुःख व आक्रोश झेल न पाया’. लेकिन सच यह था कि उसी उद्विग्नता में शायद लेंस का कवर खोले बिना ही मैंने फोटोज़ ले डाले थे.
(दो)
आज उनके न रहने पर मैं कह सकता हूँ कि बातचीत (साक्षात्कार) को लेकर हमारा आंगछ (पौरा+संयोग) ही ख़राब रहा,पर मैं उनकी कला और व्यक्तित्व से इतना मुतासिर रहा कि ‘घायल कर देते हैं, फिर भी प्यारे लगते हैं’ वाले प्रेमिका के नयनों की तरह उनके नाटक देखने के लिए आँखें उत्सुक रहतीं और मन मिलने के लिए तत्पर. फिर अगली भेंट का अवसर बन गया पूना में– तब तक मै रीडर होकर गोवा से पूना चला गया था. वहाँ ‘थियेटर अकादमी’ के रंगोत्सव में भेंट हुई, जिसकी रंग-जगत में बड़ी साख मानी जाती है. हबीब साहब मिले– अभिवादन हुआ, पर उन्होंने पहचाना नहीं– फिर मैं क्यों बताता? अच्छा ही लगा- कटु स्मृति नहीं रही. सो, नये सिरे से पहचान-सम्बंध शुरू हुआ. याद नहीं आ रहा कि मोनिकाजी उसमें आयी थीं या नहीं, पर यह बखूबी याद है कि मेरी भेंट न हुई उस बार. हबीबजी अपनी तब की नयी प्रस्तुति ‘लाला शोहरत राय’ लेकर आये थे, जो फ़्रांसीसी नाटककार मोलियर के ‘द बुर्जुवा जेंटिलोन’ से छत्तीसगढी में रूपांतरित लाला शोहरत राय नामक व्यापारी की कथा है. वह लालच और आधुनिक बनने के चक्कर में अंग्रेज़ी एवं मार्शल आर्ट आदि सीखता है. इस विनोदपूर्ण व्यंग्य को पूना में खूब सराहा गया. मैं नया-नया ही वहाँ गया था. परिचित लोग कम ही थे.
याद आता है कि नाटक के दूसरे दिन डेक्कन स्थित बहुत प्रतिष्ठित ‘बाल गन्धर्व’ सभागार, जहां नाट्योत्सव हो रहा था, के खुले प्रांगण में खुली बातचीत रखी गयी थी. यह महाराष्ट्र की बड़ी स्वस्थ व उपयोगी परंपरा है कि आज जो नाटक देखा गया, उसके निर्देशक से अगले दिन बात की जाये. और काफ़ी संख्या में जानकार दर्शक आते हैं. बंसी कौल भी मंच पर थे. वे अपना ‘तुक्के पे तुक्का’ लेकर आये थे. उनसे मज़े की बातचीत काफ़ी पहले से थी मेरी. दोनों से बातचीत मराठी के बड़े नाटककार महेश एलकुंचवारजी कर रहे थे, जिनसे मैं अच्छा परिचित था. कभी उन्होंने पंडित सत्यदेव दुबे पर किताब लिखने के लिए मुझे बहुत प्रेरित किया था, जो मैं कर न सका. और उन्हीं की देखरेख में उनके शहर नागपुर के थिएटर का सर्वेक्षण कर पाया था. वे बातें बड़े मज़े-मज़े से कर रहे थे. हबीबजी व बंसीजी के बारे में काफ़ी बेसिक जानकारियाँ वहीं से मिलीं, जिनका उपयोग दोनों व्यक्तित्वों के संस्मरण-लेखन में खूब हुआ भी है.
अच्छी याद यह है कि श्रोताओं की तरफ़ से कोई गीत गाने की फ़रमाइश हुई. बंसी भाई बगली काट गये, तो हबीब साहब से विनम्रतावश कहा गया कि आप अपने किसी कलाकार से गवा दीजिए. उस पर मुझे उनके शब्द याद हैं और अदा भी- खींचकर बोले थे – ‘क्यूँ कर भला? तक़ाज़ा मुझसे हुआ है’!! और अपना वो प्रिय ‘पॉप्युलर’ गीत सुनाया था- ‘सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर…सइंया गारी देवे, परोसी ग़म लेवे…’. और इन तमाम रूपों से समझ में आया- ‘प्रतिभाएं जुनूनी हुआ ही करती हैं’ (कबीर के लिए द्विवेदीजी की कही बात). नये सिरे से बात करने की इच्छा बलवती होती रही…, जिसने आख़िरस, वहीं पूना में ही माँगकर समय लिवा लिया, जो भोपाल जाकर बात करने का तय हुआ. परंतु दुर्दैव ने पीछा नहीं छोड़ा. निश्चित तारीख़ से एक सप्ताह पहले ख़बर आयी – हबीब साहब को कहीं जाना पड़ रहा, और बात रह गयी. लेकिन बहुत अच्छा लगा कि उन्हें याद रहा और उन्होंने सूचना भी दी, वरना तो साहित्य में नामवरजी ने ऐसा ही समय सहर्ष दिया था, बल्कि भिखारी ठाकुर पर बात करने के लिए खुद बुलाया था. और कोई कार्यक्रम आ गया, तो बताने की याद न रही. हम पहुँच गये दिल्ली. फ़ोन किया, तो लगे खेद व्यक्त करने– शायद एक नाट्यकर्मी एवं प्रोफ़ेसर व स्टार समीक्षक में यही फ़र्क़ होता है. तीन के बदले एक दिन की बात हुई, पर मैं लिख न सका और फिर कभी आने के लिए उनके बार-बार आग्रह पर जा भी न सका. ख़ैर,
इसके बाद जाकर भेंट हुई हबीब साहब से 2003 में – ‘इप्टा’, रायगढ के नाट्योत्सव में, जो पूरा उत्सव हबीब साहब पर ही केन्द्रित था. मुझे स्वीकार करना है कि यह आयोजन न होता, इसमें मैं शामिल न होता, तो आज यह संस्मरण न होता!! सारा श्रेय इसके आयोजक उषा-अजय (आठले दम्पति) को जाता है. यह भी बता दूँ कि मेरे पूना-निवास ने ही रायगढ़ से जोड़ा– वहीं पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में उषाजी आयी थीं और नाटक पर मेरा व्याख्यान सुनकर मिलीं तथा रायगढ़ बुलाना शुरू किया– कई-कई साल जाता रहा. इस बार भी ख़ास प्रेक्षक (समीक्षक) के रूप में आमंत्रित था. जनवरी में 16 से 20 तक – यानी पाँच दिन साथ रहने का मौका मिल रहा था, जो एक दिन पहले पहुँचने से छह दिन हो गया. आयोजक उषा-अजय (आठले दम्पति) से हबीब साहब के आने की खबर पाते ही सब काम-धाम छोड़-छाड़ के जाने का त्वरित निश्चय कर लिया. तब तक मैं गोवा-पूना के बीच दस साल भटक के ‘पुन: मूषको भव’ की तरह मुम्बई आ गया था. लिहाज़ा ‘कलकत्ता मेल वाया नागपुर’ का टिकट ले लिया. गाड़ी भोरहरे (४ बजे के आसपास) रायगढ़ पहुँची. मज़े की ठंड थी. शॉल ओढ़े व सदा की तरह शांत-संयत अजय डिब्बे के सामने दो लड़कों के साथ खड़े मिले. नमस्ते-आदाब के बाद तुरत मेरा आतुर प्रश्न– ‘हबीब साहब कब आ रहे हैं’?
‘वो तो आ चुके हैं. कल शाम से रिहर्सल शुरू है’.
सुनकर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा कि आज ही भेंट हो जायेगी. फिर तो उठना-बैठना, खाना-पीना साथ होता. तमाम बातें होतीं. रिहर्सल देखते. शो देखते. बस, रात को सोने भर दूर रहते– मोनिकाजी सहित उनकी सोने की व्यवस्था कहीं होटेल में अलग की गयी थी. बाक़ी समूह के बच्चों सहित हम सब तो कमरों में ज़मीन पर बिछे गद्दों पर साथ सोते. हमारे गाँवों की शादियों की तरह वहीं कड़ाहों में चूल्हे पर सबका खाना बनता. उस वक्त हबीब साहब लगभग 80 साल के थे. उम्र के इस पड़ाव पर उनकी सक्रियता हैरतअंगेज़ थी- 16-17 घंटे काम करते. स्मृति ग़ज़ब- सब कुछ याद! किसी भी विषय पर एकदम अद्यतन (अपडेट). ढेरों बातें होती रहीं, पर जान-बूझकर छिट-फुट ही. क्योंकि आयोजकों ने विधिवत साक्षात्कार का एक सत्र रखा था; जिसमें तमाम श्रोताओं के बीच मंच से मुझे उनसे बात करनी थी. वह समय आया भी, बातें खूब जमकर हुईं– लगभग दो घंटे. वह मौक़ा ही उन पर केंद्रित होने से अलग क़िस्म का था. फिर वह उनका अपना प्रांत था– छत्तीसगढ़, जिसकी राजधानी रायपुर के हैं हबीबजी, लेकिन जन्म के समय वह मध्यप्रदेश का हिस्सा था. यानी अपने घर की बात थी और वहाँ सम्मान मिलना बड़ी बात होती है, वरना तो कहा ही गया है–
तुलसी वहाँ न जाइए, जहां जनम कै ठाँव. ग़ुन-अवगुन जाने नहीं, रखे तुलसिया नाँव..
बाबा के इस कहे को झुठलाने वाले दंपति अजय आठले व उषा आठले उनके प्रति भरपूर श्रद्धा-सम्मान के साथ जी-जान से लगे हुए थे. आस-पास के लोग भी नाटक के अलावा हबीब साहब को देखने आ जाते और हबीब साहब भी उन छह दिनों अपने सर्वोत्तम रूप में बिलसित हो रहे थे. उस बातचीत में भी वे स्वभाव व सुभाव के मुताबिक खुलकर बोले. याद में बस गये एक उदाहरण का मोह-संवरण नहीं कर पा रहा हूँ-
उनके व्यस्त कार्यक्रम को सुनते-सुनते बीच में चुहल के अन्दाज़ में पूछ बैठा था–
‘इतने कामों के बीच शादी का समय कैसे निकाल पाये होंगे’?
उन्होंने तपाक से कहा–
‘मोनिकाजी के घर वालों का शादी के लिए दबाव बढ़ता जा रहा था. मेरे काम कम होने का नाम नहीं ले रहे थे. एक दिन घेराव जैसा कर लिया. बस, मैंने कैलेंडर खोला. बताया कि देखो– ये-ये तारीखें शो की हैं. ये-ये नाट्याभ्यासों (रिहर्सलों) की हैं. इस-इस दिन मीटिंगें है. ये व्याख्यान हैं. ये वर्कशॉप हैं…अच्छा लो, ये एक डेट खाली है. उस दिन करना है, तो जहाँ कहो, मैं आ जाऊँ. ये नहीं हो पाया, तो मैं कह नहीं सकता कि कितने दिन लग जायेंगे कोई खाली दिन पाने में. चुनांचे उसी दिन शादी हो गयी. बस’!
और मैंने चुहल आगे बढ़ा दी–
‘फिर इतनी व्यस्तता में हनीमून कैसे मना’?
हबीब साहब उतने ही तपाक से – ‘
वो तो आज तक नहीं मना’.
ग़रज़ ये कि औपचारिक-अनौपचारिक क़िस्म की ऐसी बहुत-सी बातें हुई थीं.
लगभग दो घंटे की लाइव रेकॉर्डिंग कैमरे में दर्ज़ हुई. इसके अलावा छह दिनों में हबीब साहब के साथ टुकडों मे हुई ढेरों बातों को मिलाकर सोचा था कि बढ़िया-सा स्मरण-आलेख बनाऊँगा. उनकी कार्य-पद्धति देखी थी. अपनी टीम के साथ उनके सलूक का चश्मदीद हुआ था. बड़ा सुन रखा था कि कलाकारों का शोषण करते हैं. उनसे नौकरों की तरह पेश आते हैं आदि-आदि. इसीलिए मैंने समूह के लगभग सभी सदस्यों से बारी-बारी से अकेले में बातें की थीं. इसमें मेरे सहायक हुए देश के बड़े निर्देशक-रंगकर्मी मेरे अनुजवत अरुण पांडेय, जो समूह के कलाकारों के साथ पहले से ही काफ़ी घुले-मिले थे, वरना वे लोक-मानुस शहरियों से मुक्त भाव से निशंक होकर मिलते नहीं. फिर भी सब पहले तैयार न हो रहे थे. बात शायद हबीब साहब के कानों तक भी पहुँची. उन्होंने कुछ कहा होगा– सच्चे रंगकर्मी थे. तब सबने बातें कीं- नगिन (उनकी एकमात्र संतान) ने भी. कुछ ने कम, कुछ ने ज्यादा. पता लगा कि सभी कलाकार ख़ुश हैं. मानते हैं कि ‘साहब’ न होते, तो उन्हें कौन पूछता’? फ़िदा बाई की कला को सबके सामने लाने और ज़ाहिर है कि अपना रंगकर्म लहकाने के लिए भी उसके नख़रे उठाने तथा बाद में उसके गुज़ारे की ज़िम्मेदारी बिना कहे-माँगे निभाने आदि की कथा सबको मालूम ही है. मैंने भी पढ़ा ही है, तो क्या कहना!!
हबीब साहब सबकी निजी समस्याओं से भी वाक़िफ़ रहते. उन्हें हल भी करते. उनकी हर तरह की बातें सबसे होतीं. हाँ, गुणवत्ता के प्रबल आग्रही (परफेक्शनिस्ट) होने से काम को लेकर बहुत कड़क रहते. उनका अलिखित, पर ज़ड़ नियम था– सीखना-सिखाना, बात-विमर्श चाहे जितना हो, गुणवत्ता के साथ क़तई कोई समझौता नहीं. हर शो के बाद आकलन, विचार-विनिमय. हर अगले शो में कुछ न कुछ बदलाव होते रहते– प्रदर्शन बेहतर होता रहता.
संतुलित अनुशासन के साथ छूटें भी इतनी मिलतीं कि क्या कहें! एक मज़ेदार बात मालूम हुई कि उनके एक प्रमुख कलाकार रामचरन निर्मल ने एक व्यंग्य-विनोदभरी कविता लिखी है हबीब साहब पर. अरुणजी से गाँजा ऐंठकर और किसी को न बताने की शर्त का पक्का वायदा कराके उसने हमें सुनायी और मैंने लिख भी ली. बाद में पता लगा कि समूह के सभी लोग जानते हैं, सभी सुन चुके हैं कई-कई बार नशे की रौ में उसका सामूहिक पाठ भी हुआ है. पता हबीब साहब को भी है- शायद सुनी भी हो. तो क्या निर्मल मुझे उल्लू बना रहा था या परीक्षा ले रहा था!! इस वक़्त मैंने खोजी, तो फाइल में दबी पड़ी मिल गयी. आप सुनना चाहेंगे? क्या छिपाना, जब सभी जानते हैं! असली मज़ा उन्हें आयेगा – जिनने हबीब साहब को देखा है, उससे ज़्यादा उन्हें, जो इन्हें जानते हैं, पर बिना देखे-जाने वाला भी अब इतना जान लेने पर बेमज़ा तो न होगा
“होकर कौतूहल के बस में
गया एक दिन मैं सर्कस में भै बिस्मय के काम अनोखे
देखे बहु ब्यायाम अनोखे एक बडा-सा बन्दर आया
उसने झटपट लैम्प जलाया डट कुर्सी पर पुस्तक खोली
आ तब तक मैना यूँ बोली- हाजिर है हुज़ूर का घोड़ा
चौंक उठाया उसने कोड़ा आया तब तक एक बछेड़ा
चढ़ बन्दर ने उसको फेरा टेटू ने भी किया सपाटा
टट्टर फाँदी चक्कर काटा फिर बन्दर कुर्सी पर बैठा
मुँह में चुरुट दबाकर ऐंठा माचिस लेकर उसे जलाया
और धुआँ भी खूब उडाया ले उसकी अधजली सलाई
टेटू ने यों तोप चलायी (इसके आगे के संकेत मुझे भी समझ में नहीं आते, पर पढ लें…)
एक मनुष्य अंत में आया
पकड़े हुए सिंह को लाया मनुष्य-सिंह की देख लड़ाई
की मैंने इस भाँति बड़ाई किसे साहसी जन डरता है
नर नाहर को वश करता है मेरा एक मिंत्र तब बोला
भाई, तू भी है बस भोला यह सिंही का जना हुआ है
किंतु स्यार अब बना हुआ है यह पिंजडे में बन्द रहा है
नहीं कभी स्वच्छन्द रहा है
छोटे से यह पकड़ा आया
मार-मार कर गया सिखाया”
अब बता दूँ अपने दुर्भाग्य की बात. जब मुम्बई आने के काफी दिनों बाद तक लाइव कैमरे की रेकॉर्डिग नहीं आयी, तो एक दिन अजय आठले को फोन किया. पता लगा कि वह पूरी रेकॉर्डिग किसी हादसे का शिकार होकर नष्ट हो गयी. मन तड़प कर रह गया. बहुत पछताया कि इस बातचीत के भरोसे इतने आराम से मिला ढेर सारा समय मैंने क्यों गँवा दिया – रातों को बैठकर दिन भर के नोट्स ही ले लिये होते!! पर तब क्या हो सकता था!! हारकर यह कह-कहकर संतोष किया कि ‘कुछ इच्छाएँ अधूरी रह जायें, तो जीवन में आस्था बनी रहती है’. हबीब साहब के साक्षात्कार की बात ऐसी अधूरी इच्छा बन के रह गयी. पर वे आस्थाएँ-यादें हमेशा के लिए ही जिन्दा हैं…. ख़ैर,
उनकी टीम में ऐसा हँसी-खुशी, हास्य-विनोद का माहौल देखा. अपने जन्मप्रदेश के जनसामान्य में हबीब के प्रति जो सम्मान देखा, वह रोमांचक है. एक शाम इस महान कलाकार के सम्मान में ‘मिलनयात्रा’ निकली थी. यह आयोजन भी भारतीयता की उसी परम्परा का अंग है, जिसके पोषण का हामी हबीबजी का पूरा रंगकर्म है. आगे-आगे हबीबसाहब पैदल ही, साथ में ग्रुप के कलाकार, रंगोत्सव के आयोजक व हम सब और पीछे बढ़ता जाता जन सामान्य का हुजूम. रास्तों के दोनों तरफ लोग फूल-मालाएँ लिये खड़े, अपने प्रिय कलाकार को अपने हाथों देने-पहनाने को आतुर. और ये जुटाये हुए लोग नहीं थे- जैसे राजनेताओं के लिए आजकल होते हैं. इनमें सच का प्यार स्वत: उमड़ के फटा पड़ रहा था. अपने प्रिय कलाकार को अपने द्वार-गैलन में, अपने इतने पास देख कर लोगों के होंठ प्रस्फुरित हो रहे थे, आँखें चमक रही थीं इससे अभिभूत मैं उत्तरप्रदेश के अपने इलाक़े के बारे में सोचता– जहां न ऐसे देवता बचे, न ऐसे अक्षत रहे. और तब रायगढ़, छत्तीसगढ के लिए जितना मन हुलसा, प्रफुल्लित हुआ, उतना ही अपने प्रांतर के लिए तड़पा, जहां ऐसा कोई कलाकार होता भी, तो लोगों की चंग पर चढ़कर वैसा ही रह नहीं पाता!!
रायगढ़ के उस इलाक़े के हर गाँव में छोटा-छोटा मंच सजा था. मंच पर पहुँचते हबीब साहब पर पुष्प-वर्षा होती– यह शायद हमारी परम्परा का हिस्सा था– ‘देवन्ह दीन्हीं दंदुभी, प्रभु पर बरसाहिं फूल’ जिसे रायगढ़ ने बचा रखा है– क्या हबीब जैसे अपने हबीबों (प्रियतों) के लिए ही? गाँव के प्रधान-पंच वग़ैरह स्वागत करते- चन्द शब्द हबीब साहब से सुनना चाहते. वे बोलते भी, पर अपने को व्यक्त करने के हजारों तरीकों से लैस इतने महान कलाकार को अभिव्यक्ति के ऐसे संकट से गुज़रते हुए देखना भी एक अनोखा अनुभव था. दो महाकवियों के शब्दों में– ‘प्रेम न हृदय समात’ और इसीलिए ‘कण्ठ: स्तम्भित वाष्पवृत्ति’ वाला हाल हो गया था हबीब साहब का. यह किसी भी कलाकार को मिलने वाला सबसे बड़ा गौरव है कि बिलकुल ठेंठ समाज (ले मैन) के बीच उसकी कला इस कदर आदृत है!! इसी के लिए तो बच्चनजी ने लिखा है –
छप चुकीं मेरी किताबें पूर्वी औ पश्चिमी दोनों तरह के अक्षरों में
औ पढ़े भी जा चुके हैं भाव मेरे देस औ परदेस दोनो ही स्वरों में
किंतु पाँव मेरे नाचने को हैं नहीं तैयार तब तक, जब तक
गीत अपना मैं नहीं सुनता किसी गंगो-जमुन के तीर फिरते बावले से.
सो ये वही बावले थे– ग्रामीण, अनपढ़ या कम पढ़े पर उनके भाव छलक-छलक कर अपने प्रिय कलाकार की बलैया लेना चाह रहे थे– उनके होने के हर रूप-रंग, हर अदा-ओ -अन्दाज़ को आँखों में बसा लेना चाह रहे थे – अद्भुत दृश्य था, मुझे फिर तुलसी के ‘वन-पथ में राम’ याद आ रहे –
‘एक कहहिं बट-छाँह महँ डारि मृदुल तृन-पात, बैठि गँवाइब छिनकु स्रम, गवनब अबहिं कि प्रात’
और हम सौभाग्यशाली महसूस कर रहे थे इस अप्रतिम भाव-समुद्र के गवाह बनकर, इसे निहार कर– उस निहार में नहाकर!!
इसके बाद मुझे वे टिप्पणियां एकदम बकवास लगीं, जिनमें ‘हबीब अपने क्षेत्र में जा नहीं सकते. उन्होंने वहाँ के लिए कुछ नहीं किया…’ वग़ैरह कहा जाता है. ऐसा कहने वाले लोग अब आज उस आयोजन वाली उनकी लोकप्रियता को भुनाते हुए छत्तीसगढ की सरकार से उनका स्मारक बनाने के लिए प्रच्छन्न ग़ुज़ारिशें कर रहे हैं. वह तो बनेगा ही और उसके भी निहित मक़सद होंगे– ठीक कहने वालों की ही तरह. पर उससे क्या होगा? एक सरकारी खानापूर्त्ति. गान्धीजी तक की तमाम मूर्तियाँ गन्दगी से भरी पड़ी सड़ रही हैं और फाइल से चलायमान सरकार के पास सफाई तक का बजट नहीं है. पर ऐसी अज़ीम शख़्सियतों के स्मारक वहीं होते हैं– लोगों के दिलों में. और वह बन चुका है, जो कभी धूमिल तक न होगा, जिसकी आँखों देखी मिसाल रही वह यात्रा.
हबीब साहब के व्यक्तित्व के तीन पक्षों के लिए आयोजन के तीन विरल उल्लेख और–
एक में हबीब साहब के कलाकर व मनुष्य का बड़प्पन देखिए कि समूह का संचालक व वरिष्ठतम कलाकर अपने नाटक ‘मोर नाँव दमाद गाँव क नाँव ससुरार’ में एक पिटारे (बक्सा ढोने) वाले की नामालूम सी भूमिका करता है और एक नाचीज़ की तरह पूरे समय मंच पर बैठा रहता है. और वहीं एक मंजे हुए और प्रत्युत्पन्न मति कलाकार की सहज ख़ासियत देखिये कि मंच पर शादी पूरी होने के बाद पिटारा सर पे लिए जाते हुए मंच के नीचे पहली पंक्ति में बैठे मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ के सामने पहुँचते ही महज़ दस सेकेंड के वक़्फे में मालिक को सलाम करने की अदा में झुकने और ग़ुलाम की तरह चल पड़ने में ऐसा व्यंग्य व नाट्यरस भर देते हैं कि शामियाने लगे विशाल पांडाल में ठहाके.
दूसरे में उनके विचारक की मिसाल– ‘पोंगा पंडित उर्फ़ जमादारिन’ का शो हुआ. के शो के दौरान भी विरोधी विचारधारा वालों के नारे लगे थे, शो के बाद घेराव हो गया हबीब साहब का. हम तो घबराए रहे बहुत, लेकिन गोवा में इतने उत्तेजित होने वाले हबीब साहब का शांत-संयत, गम्भीर रूप भी देखने को मिला उस रात. विचार की ताक़त कैसे आचारधर्मी नारों व बहसों को निरस्त कर सकती है, का जीवंत दृश्य देखा. नाटक प्रहसन शैली में है और शुरुआत में लम्बे समय तक इस शैली को सार्थक करते हुए गुंजायमान माहौल सिरजा गया है, जिसमें पंडित बने गोविंदरामजी भी शरीक रहते हैं. इसी पृष्ठभूमि पर वह तेज सवाल गाते-गाते करती है अछूत जाति की जमादारन- ‘सुन ले रे महाराज, बता दे तोहर कौन घराना आय’. और यही गाते-गाते पूजा के प्रसाद व पंडितजी का शंख छू देती है. पंडितजी छूत हो जाने से वह सब छोड़ देते हैं, तो वह ठाकुरजी की पिंडी भी उठा के कहती है– ‘मैं इसे घर ले जाऊँगी और सुंदर स्नान-ध्यान कराके इसकी पूजा करूँगी’. फिर काव्य-पुराण के प्रमाण के साथ सिद्ध करती है कि वशिष्ठ-भारद्वाज व महाभारत के अमर रचयिता वेद व्यास आदि के जन्म भी तो कथित रूप से अज्ञात कुलशील घराने में हुए थे, जो लोग अपने महान कर्म से बड़े ऋषि-मुनि हुए. तुलसी के सूत्र ‘करम प्रधान बिस्व करि राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा’ भी उद्धृत करती है. यह सब जो हुआ, वह बेशक आज भी कहीं होना सम्भव नहीं– न कोई करेगा, न कोई करने देगा. लेकिन ‘जीवन के अनकहे सत्य की साक्षी’ की तरह हबीब साहब की यह कला ‘जीवन में अनहुए सत्य’ को भी हुए से अधिक प्रभावी रूप में ऐसे पुरज़ोर ढंग से साकार कर देती है कि उसकी असंभाव्यता का भान तक नहीं होता. और इन तर्कों-प्रमाणों के बाद भी घेराव करने वाली मंडली को जब अपनी गम्भीर-असरदार आवाज़ में पूरी सफ़ाई से पुन: समझाते हैं हबीब साहब, तो धीरे-धीरे मंडली खिसक लेती है. हमारी जान में जान आती है, लेकिन हबीब साहब के लिए तो यह आम बात रही– आ-ए-दिन होती रहती लेकिन उन्हें अपने सोच व उससे उपजी कला से डिगा न पायी. इस पथ पर वे निरंतर चलते रहे – अंत तक.
तीसरे में उनके इंसान की मिसाल, अब समारोह के सम्पन्न हो जाने की रात को भोजन के बाद अजय बैठा है उनके सामने– हम भी हमेशा की तरह मौजूद. थोड़ी देर में ‘सर’ कहते हुए अजय ने बैग का चेन खोलना शुरू किया, हबीबजी मुस्कराते हुए बोले– ‘मुझे पता है, तुम्हें अभी तक कुछ मिला नहीं है. तो रहने दो. यह उतना ज़रूरी नहीं. अपनी सरजमीं पर अपने इतने सारे लोगों के बीच काम करने का लुत्फ़ ही काफ़ी है. जब वहाँ से पैसा मिल जायेगा, तो जितना औसत बैठे, दे देना’. हम तो निस्तब्ध– यह समझदारी और यह उदारता और यह प्रेम यह कला और यह मानुष-भाव! इसीलिए बड़े कलाकर हैं हबीब साहब– कि वे इतने बड़े आदमी हैं– कला बनाती है बेहतर इंसान या बेहतर इंसान होता है बेहतर कलाकर? दोनों अन्योन्याश्रित हैं– हबीब साहब हैं. उस क्षण हमें पता चला कि छत्तीसगढ-सरकार ने बजट मंज़ूर किया है, पर अदायगी अभी नहीं हुई है. अजय भी मर्द रंगकर्मी– सरकार का निरा मोहताज नहीं‘क़र्ज़ की पीते हैं मय’ की तरह क़र्ज़ से करते हैं नाटक और उसकी फाँकेमस्ती का रंग़ तो हमने दर्ज़नों बार देखा है. इसी बात के मिस उसकी कलाचेता मनुष्यता का ज़िक्र भी कर दूँ. इप्टा, रायगढ़ की पत्रिका ‘रंगकर्म’ के लिए भी इस आयोजन की समीक्षात्मक रिपोर्ट मैंने लिखी थी, जिसमें इस घटना का ज़िक्र इसी तरह खुल के किया था. लेकिन अजय ने उस अंश को सम्पादित कर दिया– नहीं छापा. वह उसका धर्म था कि यह सब उसकी अपनी ही पत्रिका में ज़ाहिर न करें. लेकिन तब भी मेरा धर्म था इस इंसानी जज़्बे को प्रकाश में लाना और आज भी है – उसे निभाना.
क्या संयोग व सौभाग्य है कि जनवरी, 2003 में इप्टा, रायगढ़ का उक्त आयोजन हुआ और अगले साल नवम्बर, 2004 में ही ‘पृथ्वी थिएटर’ ने अपने सालाना नाट्योत्सव का 21 दिवसीय वृहत् आयोजन किया, जिसके केंद्र में नियोजित किया ‘नया थिएटर’ यानी हबीब साहब के रंगकर्म को. इसके अंतर्गत उनके आठ नाटक रखे गये और इससे तो घर बैठे अपनी चाँदी ही हो गयी. उन दिनों मुम्बई से ‘जनसत्ता’ जा चुका था. ‘नवभारत टाइम्स’ में रविवारों को मैं तब लिखा करता था, जब शहर में कोई नया नाटक शुरू होता था या बाहर से आता था. उनके यहाँ प्रकाशन की सीमाओं को देखते हुए मैं चिंतित था कि रविवारों को और इतने सीमित शब्दों में पूरे इक्कीस दिन के नाटकों की चर्चा कैसे समा पायेगी!! और इस चिंता को तत्कालीन सम्पादक श्री शचींद्र त्रिपाठी से साझा किया. इसे पृथ्वी थिएटर व हबीब साहब के रंगकर्म का प्रताप ही कहेंगे कि उन्होंने इस उत्सव की गरिमा को समझते हुए हर दिन की गतिविधि व नाटक पर रोज़ सात-आठ सौ शब्दों में लिखने की सहमति दे दी और दूसरे पृष्ठ वाले स्थानीय पन्ने पर सबसे ऊपर छापने का भी विधान तय कर दिया. बस, चाँदी वहाँ भी हो गयी. आज दिन भर की गतिविधि व रात के नाटक पर लिखकर कल भेजता व परसों छपता. इस प्रकार तीन नवम्बर से तेइस नवम्बर तक का लिखा नभाटा की फ़ाइलों में तो होगा ही, रंग समीक्षा के मेरे संकलन ‘तीसरी आँख का सच’ में भी मौजूद है.
उत्सव की शुरुआत ही उसी ‘आगरे बाज़ार’ से हुई, जिससे हबीब साहब व उनके रंगकर्म को देखने की मेरी शुरुआत हुई थी– इसी स्थल पर. और संयोगन ही क्या संगति बैठी कि यह उत्सव ही उन्हें इस तरह ठीक से व थोक में देखने का मेरा अंतिम अवसर भी सिद्ध हुआ. इसके बाद के पिछले चार-पाँच साल के उनके जीवन में न ऐसा संयोग बना, न साहब उतने सक्रिय ही रहे कि आगे की मुलाक़ातें होतीं. लेकिन जितनी हुईं, वे मनुष्य की लोभी वृत्ति, जो हबीब साहब व उनके रंग़कर्म को लेकर मुझमें बेपनाह है, के नाते पर्याप्त भले न हों, लेकिन नाकाफ़ी भी नहीं कि असंतोष के सबब बनें.
‘पृथ्वी-उत्सव’ के तीन प्रदर्शन-स्थल थे- स्वयं ‘पृथ्वी’ के अलावा बांद्रा स्थित मुक्ताकाशी ‘ऐंपी थिएटर’ एवं फ़ोर्ट में स्थित ‘होरिमन सर्कल गार्डेन’ का मुक्तांगण– खुली प्रकृति की गोंद में. पृथ्वी में ‘आगरे बाज़ार’ से शुरुआत हुई. दुबारा देखने की हसरत डेढ़ दशक बाद पूरी हुई– मज़ा भी दुगुना आया. इस बार मंच पर मंसायन बहुत बढ़ गया था. उस अपेक्षाकृत छोटे मंच पर लगभग 30-35 कलाकार यूँ सध गये थे– जैसे अपने रोज़ के जीवन में ही हों और दुकानों के अलावा गाँव के मेले जैसे कई सारे करतब व खेल भी चल रहे थे. समाँ ज़ोरदार था. इस बार किताब की दुकान पर होते जमावड़े में शायरों की कुंठाएँ व कुछ साहित्य की उठापटक भी जुड़ गयी थी. और मध्यांतर के बाद जब पतंग वाले की बंद दुकान खुली, तो नाटक भी खुल गया- खिल गया.
इस बार पतंग वाले हबीब साहब न थे, पर पूरे नाटक में तो समाये वही थे. कहानी-विहीन नाटक को दृश्यों व नज़्म-गायकी ने बांध रखा था. नज़ीर की नज़्मों का इस बार का गायक अलग तरह से कमाल कर रहा था. ‘रीछ का बच्चा’, ‘देख बहारें होली की’, ‘तैराकी वाली’ आदि सरनाम व सरकश नज़्मों की जीवंत (लाइव) गायकी ने नज़ीर की जनकवि की छबि व जनोपयोगिता को खूब जमाया. और अंत में ‘आदमीनामा’ की पंक्ति – ‘और सबमें जो बुरा है, सो है वह भी आदमी’ के साथ जब शो सम्पन्न हुआ और हबीब साहब अपनी निराबानी अदा में प्रकट हुए, तो सब खड़े हो गये; पर न कोई जाने को तैयार था, न तालियाँ रुक रही थीं. बार-बार अभिवादन करके अंत में हाथ जोड़े हुए सबके साथ हबीब साहब के जाने के बाद ही हॉल से लोग निकले.
ऐंपी के मुक्ताकाश में क्षमता हज़ार के क़रीब थी. हबीब साहब ने ‘गाँव क नाँव ससुरार मोर नाँव दामाद’ शायद जानबूझकर ही वहाँ रखा था. क्योंकि उसकी भाषा थोड़ी अबूझ थी– ख़ासकर शहरी लोगों के लिए. संवाद भी इतनी दूर जा न सकते थे, लेकिन संस्कार एवं कुछ अन्य लोकगीतों से भरा था नाटक. जिसमें भाषा-ज्ञान की दरकार न थी और समूह-स्वर के चलते हॉल के उस सिरे तक धुन-लय-स्वर पहुँच सकते थे. यह कौशल है तो व्यावहारिक, लेकिन कला के लिए भी ख़ासा उपयोगी आयाम है. और इसी कौशल का जबरदस्त प्रमाण बना- होरिमन सर्कल में ‘कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना’ का रखा जाना. वहाँ की झाड़ियों-झुरमुटों में से निकल के आते पात्र और डालों-पत्तियों से छनकर थक्के की थक्के चटकती चाँदनीमें विषय-परिवेश एकाकार हो उठे थे. नाटक देखने का ऐसा आह्लादक अनुभव जीवन में यह इकला और अनुपम था. प्रस्तुति में आयी पंक्ति स-रूप-साकार हो रही थी– ‘आधी रात का है वक़्त, वक़्त परियों का’. और अभिनेत्रियाँ सच की परी लग रही थीं– असुडौल-सांवले लोक कलाकर भी देवी-देवता तुल्य प्रतीत हो रहे थे– वरदान नाट्य के पाँचवे वेद का और इसके बीच हम तो गोया स्वर्ग नहीं, तो स्वप्नलोक में तो थे ही.
‘पोंगा पंडित’ भी हुआ, लेकिन रायगढ़ आदि की तरह मुंबई में कोई बवाल नहीं होता- इसलिए नहीं कि यहाँ लोग ज्यादा समझदार है, बल्कि यहाँ न समय है किसी के पास, न एकता. असर वही होता है, पर वैयक्तिकता में गर्क हो लेता है. इस धार्मिक पाखंड-अज्ञान-अंधविश्वास के साथ इस बार इसी का समानधर्मा ‘सड़क’ भी खेला गया, जिसमें सरकारी योजना में बनवायी सड़क ही ग्राम-विकास के नाम पर सारे राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचारों की पोल खोलने का प्रतीक बन गयी. गाँव वालों द्वारा उसका तोड़ा जाना ही विद्रोह बन गया और थिएटर-कर्म अपनी सही मंज़िल तक पहुँचा. ‘नया थिएटर’ के रंगकर्म की मूल लोकवृत्ति से थोड़ा हटा तो ‘सड़क’ भी था, लेकिन इस मूल हबीब-वृत्ति से बिलकुल हटकर अपने रहिवासी शहर भोपाल की भयंकर गैस त्रासदी पर अपना ही लिखित व निर्देशित नाटक ‘ज़हरीली गैस’ का मंचन यूँ तो भाया गैस-कांड के कारण की ज्वलंत पहचान करायी, परिणाम की घोर त्रासदी में डुबोया लेकिन इसे भले व्यामोह कहा जाये, मुझे लिखके संतोष हुआ – ‘बिन नाच-गान के हबीब अच्छे नहीं लगते’.
लेकिन इस उत्सव में हबीब साहब के शोज़ में ‘को बड़ छोट क़हत अपराधू’ का जुर्म करने की गुस्ताखी करते हुए कहूँगा कि उत्सव को लूटा तो उक्त सभी नाटकों ने, लेकिन वह ‘चरन दास चोर’ रहा, जो महफ़िल लूट ले गया. उसमें कथा भी सरनाम लोक कथाकर विजयदान देथा की है और प्रस्तुति तो खाँटी लोक की थी ही. एक चोर से ईमानदारी व नैतिकता एवं अपने कौल पर खरा उतरने के उसूल को जान देने की क़ीमत पर भी निभाने का संदेश जिस सफ़ाई-सिधाई-क़रीने से प्रस्तुत हुआ. फिर लोक कथाओं के अंत की तरह राजा-रानी, राजपाट का सुख-भोग आदि के साथ हमारी नानी-दादी ‘जैसे इनके दिन फिरे, सबके फिरें’ वाला अंत. सब मिलकर देश से विदेशों तक में इसकी सिरमौर लियाक़त का विश्वास दिला गये. लोक ही विश्वजनीन होता है, की सचाई व साधना से सीधा-सच्चा साक्षात्कार करा गये – बक़ौल – ‘इक चोर ने नाम कमाया जी, सच बोल के’.
और यह मूलत: उनके लोक का आलोक ही है कि उनका जाना मुझे भारतीय रंगमंच से भारतीयता के जाने जैसा लग रहा है इसकी थोड़ी तफ़सील यहाँ ग़ैरमौजूँ न होगी.
(तीन)
हबीब साहब के हर नाटक को देखते हुए इस बात का गहरा अहसास होता था कि हम सच्चे अर्थों में एक भारतीय नाटक देख रहे हैं. इसका एक बडा कारण यह है कि हिन्दी के बाकियों में यह अहसास प्राय: नहीं होता या कभी-कभार होता है. मराठी-बँगला आदि में प्रायः होता है– बहुत कुछ भाषा के कारण भी. किंतु हबीब साहब में हर क्षण महसूस होता है कि ‘हाँ, ये है भारतीय नाटक.’. वे संस्कृत के क्लासिक (मृच्छकटिककम्, मुद्राराक्षस, वेणीसंहार) करें या शेक्सपीयर का ‘मिड समर नाइट ड्रीम’ करें, आप को नहीं बताया जाये या आपने वह न पढा हो, तो कतई नहीं जान पायेंगे कि यह हज़ार साल पुराना नाटक है या विदेश का है. क्योंकि हबीब साहब के नाटक शैली-शिल्प, विधान-वितान, भाव-भाषा, तमीज़-अन्दाज़, गीत-संगीत…हर कुछ में यानी सर से पाँव तक इस कदर खाँटी भारतीय हो जाते हैं कि इनमें भारतीयता परिभाषित होने लगती है.
‘मृच्छकटिक’ और ‘मिड समर नाइट ड्रीम’ के तो ‘माटी की गाड़ी’ जैसे लोकमय व ‘कामदेव का अपना, वसंत ऋतु का सपना’ जैसे क्लासिक हिंदीमय नाम ही भारतीयता की छाप दे देते हैं. इन नाटकों को देखकर भारतीयता के निकष निर्धारित किये जा सकते हैं. और यही हाल हबीब साहब के व्यक्तित्व का भी है– उनका चलना-बोलना, सोच-सलूक आदि की ‘हर मुद्रा-हर वेश’ ही नितांत भारतीय लगते हैं – हमारी परम्परा व संस्कृति के सहज ही वाहक व वाचक.
और हबीब साहब ने यह भारतीय रसायन तब अपनाया, जब इप्टा से लेकर बाल नाट्य, रायपुर-अलीगढ से लेकर मुम्बई-दिल्ली और रेडियो-फिल्म से लेकर राडा (रॉयल अकैडेमी ऑफ़ ड्रैमेटिक आर्ट) के प्रशिक्षण तथा योरप के तमाम स्थलों में जाकर थियेटर-कला के अनुभव अर्जित कर चुके थे. इसीलिए इसका अपना ख़ास महत्त्व है. वरना तो यहीं के लोग ऐसे रहते व पेश आते हैं– गोया अंग्रेजियत व पाश्चात्य सभ्यता से आयत्त (इंपोर्ट) किये गये हों. जबकि हबीब साहब के विधिवत रंगकर्म की शुरुआत ही इसी सिरे से हुई. उक्त प्रशिक्षणों-अनुभवों से गुजरने के बाद हुआ यूँ कि हबीब साहब रायपुर गये थे- अपनों से मिलने-जुलने. वहीं अपने बचपन के स्कूल में ‘नाचा’ की एक प्रस्तुति देखने का मौका मिल गया. विदेश में थिएटर के अनुभव के बाद जब उन्होंने उन कलाकारों की सहज-प्राकृतिक कला देखी, तो बचपनी यादों के साथ मिलकर इलहाम जैसा हुआ कि असली रंगमंच तो यही है. फिर जुनून की तरह मन को तय करते पाया कि अब तो सब कुछ छोड़के इन्हीं के साथ अपनी शैली में थियेटर करना है. वहीं से छह कलाकारों को लेकर गये. यह फैसला मामूली न था. पर सारी दुनिया देखने के बाद अंतस् से फूटी थी यह बात. ऐसे ही उन्होंने राडा के प्रशिक्षण में भी किया था. जहाँ जाने के लिए सब लोग तरसते हैं, उसे उन्होंने उस प्रतिष्ठित संस्थान व छात्रवृत्ति देने वाले भारतीय दूतावास आदि सबकी नाराज़गी के बावजूद एक साल बाद छोड़ दिया था. क्यों? उन्हीं के शब्दों में सुनिए– ‘यदि मैं यहाँ और अधिक रुकता हूँ, तो एक अभिनेता के रूप में आडम्बरपूर्ण और अस्वाभाविक हो जाऊँगा. मैं अंग्रेजी में नहीं, वरन अपनी भाषा में अपनी रंग सक्रियता को जारी रखने के लिए वापस जाऊँगा. यहाँ प्रयुक्त होने वाले नियम और सिद्धांत मेरी भाषा में और मेरे देश में काम नहीं आयेंगे’.
यही बात ब्रेख़्त को लेकर भी रही. ब्रेख़्त इन्हें पसन्द रहे, उनसे तनवीर साहब काफ़ी प्रभावित भी रहे. प्रवास के दौरान उन्हें ख़ास तौर पर समझने गये थे. पर वही कि अन्धानुकरण पूर्वक नहीं, वरन ब्रेख़्त को भी अपने देश-काल की तरह भारतीय मुहावरे में ढालकर लेने के हामी रहे. और ऐसा हुआ भी, वरना एडिनबरा नाट्योत्सव में खाँटी लोक में रचा-बसा ‘चरनदासचोर’ देखकर कोई समीक्षक कैसे कहता– ‘लोकनृत्य और गीतों से सजी इस प्रस्तुति में संस्कृत परम्परा और ब्रेख़्त का अद्भुत समन्वय है’.
यानी भारतीयता का यह जज़्बा शुरू से ही सवार था- उनकी प्रकृति में निहित था, जिसने ऐसे फैसले कराये. और यह मौलिकता ही उनकी अलग पहचान व अपार प्रसिद्धि का कारण बनी. इसी मक़सद के लिए इसी निश्चय के साथ उन्होंने ‘नया थियेटर’ की स्थापना की. और बस, वही खाँटी माटी उनकी ख़ासियत बनी. उन्हीं ठेंठ गँवईं कलाकारों के साथ वे आजीवन काम करते रहे. अपनी भाषा को उन्होंने जड़ से उठाया- हिन्दी नहीं, छत्तीसगढ़ी. ऐसा माना जाता है कि सूरदास ने अपने समय में ब्रज भाषा को काव्य विधा की राष्ट्र भाषा बना दिया था और कहना अत्युक्ति न होगा कि हबीब तनवीर ने मंच के ज़रिए छत्तीससगढ़ी का लोहा अंतरराष्ट्रीय मंच पर मनवा दिया– लोहा मनवाने की गरज से नहीं, बल्कि रंग-क्रीड़ा की अपनी स्वाभाविक प्रकृति से. जब हिन्दी तक न बोल सकने वाले कलाकारों व एक अंचल की भाषा में बने चरनदासचोर, माटी की गाड़ी, मिर्ज़ा शोहरत राय, बहादुर जमादारिन आदि नाटकों को लेकर राडा की उसी धरती पर गये, तो मानो वह सिद्ध ही करके दिखा दिया, जो कह कर राडा को छोड़ा था. फ़रमाइश कर-करके ‘चरनदास चोर’ के शोज़ वहाँ कराये गये.
छठें दशक से शुरू हुए उनके विशुद्ध भारतीय रंगकर्म ने उत्तर आधुनिकता, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद के दौर भी देखे, लेकिन उस दौर में भी हबीब साहब का वही लोक व गीत-संगीत का अन्दाज़ क़ायम रहा वैसे ही पसन्द किया जाता रहा बल्कि लोकप्रियता बढ़ती ही रही. यह इस बात का प्रमाण है कि नये होने व तथाकथित आधुनिक होने के नाम पर छद्म-सतही क़िस्म के प्रगत लोग यह सब देखना नहीं चाहते. इससे भागने में उनकी अपनी नीयत और लोभ-लाभ की अधकचरी नियति शामिल होती है. इस प्रकार इन नये विकास से लुभाये और इसके लिए अपनी भारतीयता व अपने लोक को भुला कर शहरी चाकचिक्य व सतही पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागने वाले आज के युग को मानो हबीब साहब बता गये हों– ‘सही अर्थों में लोकल हुए बिना ग्लोबल क़तई नहीं हुआ जा सकता’. अब इसे कोई समझे, न समझे!!
हबीब साहब के नाट्य-कर्म को लोग ‘लोक रंगमंच’ कहते हैं, पर हबीब साहब इसे लोक के आगे का रंगकर्म मानते हैं. हालाँकि ‘लोक’ नामक इस प्रचलित घटक के सामने उनका यह कहना माना नहीं जा सका- चलन में नहीं आया. यह हस्र साहित्य की उसी आँचलिकता वाला ही है, जो आज़ादी मिलने के बाद ‘गाँवों की ओर चलो’ की समझ के साथ आयी थी. वे लोग तो कहते रहे कि इसके दृश्य आँचलिक भले हों, दृष्टि आँचलिक नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में वैश्विक है, पर वह माना कहाँ गया? हबीब साहब की रंगदृष्टि व प्रयोग-सृष्टि को ऐसे संकीर्ण दायरे में नहीं डाला जा सका, तो यह श्रेय उनके रंगकर्म की व्यापकता, सोच, गहराई व करने की प्रतिबद्धता को जाता है. और सुपरिणाम थियेटर जगत की सही समझ का. किंतु हबीब साहब के इस लोक की ओर आने को उसी युग-प्रवाह के साथ जोडकर ही देखा जाना चाहिए. नाम भी वही उस दौर वाला है– ‘नयी कविता, नयी कहानी’ जैसा ही ‘नया थियेटर’, जो साहित्य में ‘नया नाटक’ के रूप में न आ सका और कुल थिएटर भी नया कहाँ हो सका?
लोक के आगे की बात यथार्थ और प्रतिबद्धता की है. ‘लोक’ उनका माध्यम है- शैली-शिल्प है. पर इतना पुरज़ोर व इसीलिए इतना पुरअसर है कि लोग उसी में उलझकर रह जाते हैं. उसी को उनके नाटकों का मक़सद मान लेते हैं. हबीब साहब का ‘इससे आगे जाकर असली मक़सद तक पहुँचने’ का आह्वान इसी यथार्थ व प्रतिबद्धता को समझने का है. पर लोग भी क्या करें ? यह विधान बना ही ऐसा सटीक, मौलिक व मौजूं है कि आदमी का उलझ कर रह जाना लाज़मी है– ‘दिया है दिल अग़र उसको, बशर है, क्या कहिए ’! या नज़ीर के शब्दों में ‘है वह भी आदमी’ लेकिन जो अध्येता उससे आगे जाते हैं, वे साफ़-साफ़ देख पाते हैं कि हबीब साहब का नाट्यकर्म वामपंथी सोच से संवलित है. ‘इप्टा’ के साथ उस दौर में रहना भी इसका प्रमाण है और औपचारिक रूप से उससे अलग हो जाना भी उनकी खाँटी प्रतिबद्धता की ही मानक है. यह इस हद तक भी है कि इनके रंगकर्म को ‘पोलिटिकल थियेटर’ कहने वाले ऐसे लोग भी हैं, जो हबीब साहब के नाट्यकर्म के समक्ष बौने होने लगते हैं. परंतु इनकी दृष्टि-बेधकता और जैसा कि कहा गया, ग़ज़ब के रंगबोध से बने सृजन से ऐसे कथनों का संहार अपनेआप होता गया यह सृजन मुख्य धारा से किनारे कर दिये गये लोगों की पीड़ा से उपजा है. जाति-पाँति, धर्म-सम्प्रदाय, धनी-ग़रीब जैसे भेदों को खत्म करके समानता व स्वतंत्रता की स्थापना का हामी है. कुल मिलाकर मनुष्यता का पक्षधर है. ये मूल्य किसी लेबल के बिना भी हमारे लोक में मौजूद रहे और हैं. उसी को चुन कर हबीब साहब ने उठा लिया. उसे अपना रंगकर्म बना लिया. इसी से यह हबीबजी के यहाँ भारतीयता के पर्याय के रूप में बना व सधा है. और तभी अवाम तक बख़ूबी पहुँचा भी है.
यह इनके यहाँ प्रायः शोक या यंत्रणा बनकर नहीं आता, व्यंग्य-विद्रूप-विनोद या विरोध बनकर आता है. ध्यातव्य है कि ये वृत्तियां भी हमारे लोक की हैं. सच्ची भारतीयता हर ज़ोर-जुल्म के विरोध में बसती है. और हबीब साहब की जुझारू वृत्ति किसी से छिपी नहीं. उनकी रंगयात्रा में विरोधों से जूझने के जितने पड़ाव है, उतने शांति-सुकून के नहीं हैं. शायद इसी में उन्हें शांति-सुकून मिला करता था. वरना उनके कुछेक नाटकों के ख़िलाफ़ जो कुछ हुआ, कोई दूसरा होता, तो टूट भी सकता था. या तो नाटक बन्द कर देता या समझौता कर लेता. लेकिन हबीब साहब अस्सी पार की उम्र में भी ऐसी ताक़तों जूझते हुए, अपने मार्ग से विचलित हुए बिना सतत चलते रहे– ‘न्यायात् पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:’. और यह अविचल चलना चुपचाप भी नहीं हुआ, बल्कि प्रतिरोध पर प्रतिक्रियायित होते हुए हुआ. उनके नाटकों के निशाने भी जाति-समुदाय आदि में सीमित नहीं रहे. यदि पोंगा पंडित में पुरोहिती लालच व कर्मकाण्डी ढकोसलों की पोल खोली गयी है (और यह तो तमाम हिंदू लेखकों ने भी कितनी बार खोली है– ‘मोटेराम की डायरी’, ‘प्रायश्चित्त’आदि), तो मुस्लिम कट्टरपंथियों को और अधिक बेनक़ाब करने वाला ‘जिस लाहौर नहिं देख्या’ भी तो उन्होंने खेला है, जिसमें सीधा व सीरियस आक्रमण है– ‘पोंगा पंडित’ जैसा हास्य-विनोद भी नहीं.
अब मै यहाँ एक दुर्लभ उदाहरण देना चाहूँगा, जो एक सम्पूर्ण नाट्यकर्मी हबीब साहब के शायर रूप का है. कम लोग जानते हैं कि कविता लिखने का शौक़ उन्हें बचपन से था– ‘तनवीर’ नाम से कविताएँ लिखते थे. इस तरह उनके नाम में ‘तनवीर’ तो कविता के वातायन से ही आया और वही प्रसिद्ध हुआ– वरना असली नाम तो ‘हबीब अहमद’ था. कहने की बात नहीं कि वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता के कार्यकाल में यह मामूली-सी लगने वाली कविता सुनायी थी. आप स्वयं देखें उसकी मार्मिकता…. शीर्षक है- ‘रामनाथ’ –
“रामनाथ ने जीवन पाया साठ साल या इकसठ साल रामनाथ ने जीवन में कपडे पहने कुल छह सौ गज पगडी पाँच, जूते पन्द्रह
रामनाथ ने अपने जीवन में कुल सौ मन चावल खाया सब्जी दस मन,
फाके किये अनगिनत, शराब पी दो सौ बोतल
अजी पूजा की दो हजार बार रामनाथ ने जीवन में धरती नापी कुल जुमला पैंसठ हजार मील सोया पन्द्रह साल.
उसके जीवन में आयीं, बीवी के सिवा, कुल पाँच औरतें
एक के साथ पचास की उम्र में प्यार किया
और प्यार किया नौ साल सत्तर फुट कटवाये बाल और सत्रह फुट नाख़ून रुपया कमाया दस हजार या ग्यारह कुछ रुपया मित्रों को दिया, कुछ मन्दिर को और छोडा कुल आठ रुपये उन्नीस पैसे का कर्ज़… …बस, यह गिनती रामनाथ का जीवन है इसमें शामिल नहीं चिता की लकडी, तेल, कफ़न, तिरही का भोजन
रामनाथ बहुत हँसमुख था
उसने पाया एक संतुष्ट-सुखी जीवन चोरी कभी नहीं की- कभी कभार कह दिया अलबत्त बीवी से झूठ एक च्यूँटी भी नहीं मारी– गाली दी दो-तीन महीने में एक आध बच्चे छोडे सात भूल चुके हैं गाँव के सब लोग अब उसकी हर बात रामनाथ
‘नया थियेटर’ है तो लोकाधारित, उसी से निर्मित; लेकिन उसे ‘पेशेवर रंगमंच’ (प्रोफेशनल थियेटर) बनाने की कल्पना की हबीब साहब ने– शायद रंगमंच को पेशेवर बनाने का यह विचार हिन्दी थियेटर में पहली बार तभी आया. लोक और पेशा में मूलत: अंतर्विरोध रहा है. मैं आज की बात नहीं कर रहा हूँ, जब सब कुछ ही पेशे तो क्या बाज़ार में तबदील हो गया है, पर ऐसे अंतर्विरोधों को साधना ही तनवीर साहब को ‘हबीब’ रहा है और उन्होंने इसे भी करके दिखा दिया. तात्पर्य यह नहीं, कि पेशे के रूप में इसे सफल कर गये, बल्कि यह कि पकड़ (अप्रोच) पेशेवर हो गयी. उदाहरण के लिए जिस भी नाटक को जब कहिए, प्रस्तुत कर देने के लिए तैयार. इसकी सिद्धि के लिए जो सबसे बडा परिवर्तन किया हबीब साहब ने, वह सेट के तामझाम से प्रस्तुति की मुक्ति का है, जिससे कि जब जहाँ चाहो, खेल दो. इसे तकनीकी भाषा में ‘प्रोसिनियम से निकाल कर जनता के बीच में ला देना’ भी कह सकते हैं. वे कहा करते थे कि कहानी को कहने में जितने भी अवरोध आते हैं, उसे बेधड़क निकाल दो. दीवारों के बीच न कला पनपती, न कलाकार. इस थिएटर-वृत्ति का सशक्त उदाहरण है ‘ज़हरीली गैस’. भोपाल गैस-त्रासदी पर लिखे-खेले इस नाटक को जब पहली बार मैंने देखा, तो मंच सामानों से भरा पड़ा था– ढेरों बड़े-बड़े बंडल थे, जिनके बीच से गुजर के अभिनय हो रहा था. कुछ दिनों बाद फिर देखा, तो सब हट गये थे – मंच एकदम ख़ाली. यह वाक़या पृथ्वी थिएटर के नाट्योत्सव का है, जिसकी चर्चा पीछे हुई. उसी में एक दिन हबीब साहब से बात-चीत का खुला सत्र रखा गया था. उसमें एक यही सवाल मैंने पूछा था, तो वही जवाब– ‘नाटक को कहने-करने में आते सारे अवरोधों को निकाल दो. नाटक बन जायेगा’.
हाँ, तो इसी सब के चलते ‘माटी की गाड़ी’, ‘आग़रे बाजार’, ‘चरनदास चोर’, ‘बहादुर कलारिन’, ‘गाँव क नाँव ससुरार मोर नाँव दमाद’, .आदि जाने कितने ही नाटक हमेशा चलते रहे – फिर-फिर बनते रहे ‘आगरे बाज़ार’ पहले एक लघु रूपक था. फिर पूर्ण नाटक बन गया. ‘जिस लाहौर नहिं देख्या’ को ‘डब्ल्यू एस एफ, मुम्बई’ में मैंने 45 मिनट का देखा और उसके पहले पूरा देख चुके होने के बावजूद अधूरा या सम्पादित नहीं लगा, तो पहली बार देखने वालों को क्या लगा होगा!! इस नाटक को मैंने समय-समय पर घटी घटनाओं के मुताबिक सुधार व बदल (इमप्रोवाइज) करके करते भी देखा है और पाया है कि मूल संवेदना पर कोई फ़र्क़ नहीं पडता, बल्कि मूल में कुछ और सार्थक जुड़ जाता है. उदाहरण के लिए उन्मादी मुसलमानों द्वारा ही अपने जिस सहिष्णु सोच वाले मौलवी की हत्या पर नाटक समाप्त हो जाता है, एक बार हबीब साहब ने उसके बाद एक-डेढ़ मिनट का दृश्य जोड़ा– इस हत्या के ख़िलाफ़ दंगा करा दिया यानी उन्मादी सोच-अत्याचार के ख़िलाफ़ उसी जमात से विद्रोह. सो, ‘पेशेवर’ से मूलत: मेरा मतलब इन सब कुछ से है. हाँ, दो-ढाई दर्जन कलाकारों को नौकरी देना तथा समूह के लिए स्थल व संसाधन मुहय्या करा लेना तो है, पर वह मामला ज्यादा सरकारी है. इसलिए यहाँ उस तरह विवेच्य नहीं. हाँ, इसे लेकर प्रवाद भी कम न थे, जिसमें अफ़वाह ही ज्यादा रही, जिसके प्रमाण की ज़रूरत भी नहीं.
अपनी इन थियेट्रिकल मान्यताओं तथा उसे साधने वाले रंगशिल्प व उसे साकार करने वाले उन ठेंठ कलाकारों को हबीब साहब ने कैसे-कैसे साधा…आदि पर ढेरों सामग्री मौजूद है. लोगों ने लिखे हैं. ख़ुद हबीब साहब ने लिखे भी हैं और तमाम साक्षात्कारों में साफ़-साफ़ कहे भी हैं. जैसे वे जमकर नाटक करते, उसी तरह डट कर लिखते-बतियाते भी. पर मेरा ही दुर्भाग्य रहा कि कई अवसरों के बावजूद कोई बातचीत तैयार न हो पायी. और हो गयी होती, तो आज यह आलेख न होता.
‘हबीब साहब ने अपने थियेटर की कोई परम्परा नहीं छोडी’, ‘नया थियेटर’ का कोई समर्थ वारिस नहीं’…जैसी आलोचनाओं के जवाब भी इसी सत्य में निहित हैं. ये परम्पराएं अवाम की यादों और फिर लिखित दस्तावेजों (अब कैसेटों) में अक्षुण्ण रहती हैं. लिखित व स्मृति की चिरंतनता सिद्ध हो चुकी है- बल्कि यंत्र-आधारित की होनी अभी शेष है, जिस पर हम पुरानी पीढ़ी वालों को ‘दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है’. और कालिदास की परम्परा में दूसरे कालिदास पैदा नहीं होते. वे हर ज़हीन कवि की कविताओं में समाये होते हैं. ग़ालिब में ख़ुशरो यूँ कहाँ इतने दिखते हैं? पर उन्होंने ख़ुद कहा है – ‘पीते हैं धोके ख़ुशरु-ए-शीरीं सुख़न के पाँव’. इसी तरह हबीब साहब की परम्परा व ‘नया थियेटर’ के वारिस ढेरों कलाकारों के कलाकर्म में समाये हैं. व्यक्त हो रहे हैं. उन्हें देखने के लिए नज़र चाहिए – शौक़-ए-दीदार अग़र है, तो नज़र पैदा कर’ – हबीब साहब के ही नाटक ‘देख रहे हैं नैंन’ की तरह.
सत्यदेव त्रिपाठी वरिष्ठ लेखक, आलोचक, रंग समीक्षक सम्पर्क ‘मातरम्’, 26-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, वाराणसी – 221004 ईमेल -satyadevtripathi@gmail.com |
बहुत विस्तृत और सुंदर आलेख । हबीब साब के व्यक्तित्व और कृतित्व का बेहद आत्मीय अंदाज में संस्मरण
हबीब तनवीर की शख़्सियत अद्वितीय थी । नाटकों का अभिनय ज़ोरदार था । मुझे उनका चेहरा मनमोहक लगता रहा । काश इस लिंक में उनकी पत्नी मोनिका जी तिवारी का फ़ोटो भी होता । हबीब साहब उदारमना थे । ऐसे व्यक्ति बमुश्किल मिलते हैं । उनकी कविता ने ज़िंदगी की तफ़सील लिख दी । और भस्मीभूत हो गये ।