लेखक का बल
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मेरे प्रिय अद्वितीय लेखक एवं अत्यंत आदरणीय विनोदकुमार शुक्ल जी की रॉयल्टी का प्रकरण दुखद है. मुझे इसकी सूचना हिंदी समाज के बंधु-बांधवों ने दी. भले मेरा स्वयं का इस विषय से जुड़ा संघर्ष पुराना पड़ गया है और इन सोलह-सत्रह वर्षों में गंगा जी में बहुत जल बह गया है, मैं लेखक बंधुओं को उनके अधिकारों से सम्बंधित कुछ तथ्य समझाना चाहती हूँ. ये सब सबक़ मैंने अपने संघर्ष के दौरान सीखे.
पहली क़ानूनी बात जो मैं विनोद जी व सब लेखक बंधुओं को बताना चाहती हूँ, कोई भी अनुबंध जिसमें आपके अधिकार से दूसरे को अधिकार प्राप्त होता है, वह चाहे आपके कॉपीराइट से प्रकाशक के प्रकाशन अधिकार का मामला हो या मकान मालिक से किरायेदार का, उसे आप कभी भी क़ानूनी नोटिस देकर निरस्त कर सकते हैं. ऐसा कोई अधिकार नहीं जिसके स्वामी तो आप हैं, मगर गलती कर बैठे तो अब संपत्ति ही हाथ से चली जाएगी.
प्रायः सब लेखकों के अनुबंध में ‘कॉपीराइट की क़ानूनी अवधि तक’ यह अनुबंध किया जा रहा है, लिखा रहता है.
हम अपनी मूढ़ता में उस पर दस्तख़त कर देते हैं, बिना यह सोचे कि अगर यहाँ यह लिखा जाता कि यह अनुबंध वर्तमान लेखक के मरने के ६० बरस बाद तक मान्य है, (जो कि क़ानूनी अवधि का अर्थ है), तो क्या हम पूछते नहीं कि इतना लम्बा अधिकार आप ले रहे हैं तो प्रस्तावित मानदेय क्या है.
दूसरा बिंदु. क्योंकि यह अधिकार लेनदेन पर आधारित है, यह लेनदेन द्वारा ही समाप्त किया जाएगा. प्रकाशक के पास अपने बचाव में केवल एक तर्क है, कि इस अनुबंध के भरोसे मैंने पुस्तकें छापीं थीं, अब स्टॉक का क्या करूँ!
तो आप नोटिस भेज कर किताबें रिमेंडर करायें या ज़िद पर आ जाएँ कि मैं ही ले लूँगा मगर आपको नहीं बेचने दबूँगा! अगर आप अपने काम के प्रति समर्पित हैं और अपने समाज में सम्मानित भी, जैसे कि निर्मल वर्मा या विनोदकुमार शुक्ल, तो आपको कोई परेशानी नहीं होगी. प्रकाशकों में आपके स्टॉक को उठाने की होड़ होगी.
यह चरम निर्णय मुझे दो बार लेना पड़ा. पहली बार राजकमल से निर्मल जी एवं अपनी किताबों का स्टॉक ले कर भारतीय ज्ञानपीठ के सुपुर्द किया कि वे लोग ईमानदार हैं, उनका ट्रस्ट है, किताबें कम मूल्य पर बेचते हैं. मगर ज्ञानपीठ में बदलते समय के साथ चलने की तैयारी नहीं थी. पाठक किताबें ढूँढते घूमते थे और न वितरण की कोई भौतिक व्यवस्था थी, न ऑनलाइन बिक्री की.
क्योंकि मैं राजकमल से संघर्ष का पहला सबक़ ले चुकी थी, भारतीय ज्ञानपीठ से मेरा अनुबंध मेरी शर्तों पर हुआ. इसके बाद किसी भी प्रकाशक के साथ, वह हिंदी हो या अंग्रेज़ी, मैंने ख़ाली लकीर पर हस्ताक्षर नहीं किए. अनुबंध में साफ़-साफ़ लिखा रहता है कि यह अनुबंध पाँच, छह या सात वर्ष के लिए मान्य है. उसके साथ यह भी कि यदि किसी कारण यह अनुबंध दोनों पक्षों द्वारा नवीकृत नहीं किया जाता तो यह स्वतः निरस्त हो जाएगा. निरस्तीकरण के लिए किसी क़ानूनी नोटिस की बाध्यता नहीं.
दस साल के सब्र के बाद मैंने भारतीय ज्ञानपीठ के साथ वह अनुबंध नवीकृत नहीं किया.
एक बार फिर अपनी व निर्मल जी की सब किताबें उठवा लीं. इस संघर्ष का बल मुझे हिंदी जगत के पाठकों से, उनके सम्मान से, हमारी पुस्तकों के लिए उनकी कद्र से मिला. नए प्रकाशक थे वाणी प्रकाशन.
इस बार भी मेरा वही अपनी शर्तों वाला अनुबंध था. बस उसमें अपने संघर्ष से सीखे दूसरे सबक़ की एक और शर्त मैंने जोड़ दी. इन पुस्तकों के प्रकाशन अधिकार के लिए आप कम से कम कितनी प्रतियाँ, हार्ड बैक, पेपर बैक, (और अब ई-बुक) बेचने का बीड़ा उठाते हैं. (प्रकाशन और वितरण का अधिकार दे रहे हैं, तो प्रकाशक की क़वायद का भी तो पता चले.) एक वर्ष की कितनी अग्रिम एकमुश्त रॉयल्टी देंगे. उसकी गणना का आधार क्या होगा, बस उतनी ही राशि चाहिए, उससे अधिक बेचने पर सब लाभ आपका!
यह मसौदा हम दोनों पक्षों ने आँख खोल कर, सब बिंदुओं पर सहर्ष सम्मति से किया. अभी तक इस अनुबंध में कोई शिकायत का मौक़ा नहीं आया. अगर आया तो रास्ता खुला है. नोटिस देने की भी ज़रूरत नहीं.
मुझे नहीं मालूम, अन्य लेखक इस तरह के विमर्श में कितना सफल होंगे मगर आपके अधिकार की बात आपके अलावा कौन करेगा? करके तो देखिए. हो सकता है, जिससे शिकायत है, वह आपकी शर्तों पर तैयार हो जाए.
निर्मल जी जैसे अतिसम्मानित, सर्वप्रिय लेखक को ऐसे संताप से गुजरना पड़ा, इसका प्रायश्चित आज तक राजकमल में है. उन्होंने कई बार हमें वापस चाहा है, मेरी शर्तों का सम्मान करेंगे, ऐसा कहा है. इसी से आज इस वय में मेरे मन में उन्हें लेकर कोई वैमनस्य नहीं. बल्कि संभव है, मैं कोई नई पुस्तक उन्हें ही दे दूँ.
मैं नहीं मानती कि राजकमल या वाणी को विनोदकुमार शुक्ल के होने के मायने मालूम नहीं. न यह कि एक बड़े लेखक के प्रति अंतिम वर्षों में तिरस्कार वाली वही गलती फिर दोहराई जाएगी. इस शिकायत का सम्मानजनक निराकरण हम सब को मिल कर ढूँढना चाहिए. यह टीप दोनों प्रकाशक बंधुओं को भी सम्बोधित है.
और अंत में अपने लेखक बंधुओं से एक सवाल.
आप जो आवाज़ उठाने से इतना डरते हैं, हद से हद क्या होगा?
जिस अधिकार को रख कर इस कठिन समय में एक लेखक का सम्मान सहित जीवन यापन भी दूभर है, उसे फ़्री करके देश को समर्पित क्यों न कर दिया जाए? प्रकाशक का बंधक रहने की जगह पाठकों की दुआएँ क्यों न ली जाएँ? यदि आपके लेखन में दम है, आपके कद्रदान पाठक हैं तो आपको कोई भी छापेगा, बाँटेगा. कॉपीराइट की क़ानूनी अवधि तक अधिकार देने के बाद भी इसकी क्या गारंटी कि आपकी पुस्तकें उपलब्ध रहेंगी?
एक लेखक का जीवन उतना ही छोटा या लम्बा है जितना वह पाठकों की जिज्ञासा में जीवित है. उसका सारा बल उसके पाठक हैं.
गगन गिल 18 नवम्बर 1959 कविता संग्रह : एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक (2003), मैं जब तक आयी बाहर (२०१८) यात्रा वृत्तांत : अवाक, गद्य : दिल्ली में उनींदे अनुवाद : साहित्य अकादेमी तथा नेशनल बुक ट्रस्ट आदि के लिए अब तक नौ पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशितसंपादन : प्रिय राम (प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा द्वारा प्रख्यात चित्रकार-कथाकार रामकुमार को लिखे गए पत्रों का संकलन), ए जर्नी विदिन (वढेरा आर्ट गैलरी द्वारा प्रकाशित चित्रकार रामकुमार पर केंद्रित पुस्तक – 1996 ), न्यू वीमेन राइटिंग इन हिंदी (हार्पर कॉलिंस – 1995), लगभग ग्यारह साल तक टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप और संडे आब्जर्वर में साहित्य संपादनसम्मान भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1984), संस्कृति पुरस्कार (1989), केदार सम्मान (2000), आयोवा इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम द्वारा आमंत्रित (1990), हारवर्ड यूनिवर्सिटी की नीमेन पत्रकार फैलो (1992-93), संस्कृति विभाग की सीनियर फैलो (1994-96), साहित्यकार सम्मान (हिंदी अकादमी – 2009), द्विजदेव सम्मान (2010) ई-मेल : gagangill791@hotmail.com |
गगन गिल ने बहुत जीवट और साहस वाली बात की है।
यही साहस उनके गद्य को भी एक धार देता है, और फिर वह हमारे कॉमनसेंस पर प्रहार करता है, चोट करता है।
गगन गिल ने जब उठाया तो राजकमल ने अपने न्यूज़ लेटर में एक सीरीज चलाई जिसमे लेखकों से पूछा जाता था आपके राजकमल से कैसे सम्बन्ध रहे ताज़्जुब है किसी ने गगन का साथ दिया बल्कि कहा कि राजकमल से उनके सम्बन्ध मधुर हैं। निर्मल जी या विनोद जी तो लड़ भी सकते हैं लेकिन नए लेखक क्या करें उन्हें तो जल्द प्रकाशक ही नहीं मिलते। इस मुद्दे पर कोई साथ नहीं देता बल्कि हर लेखक को यह लड़ाई अकेली लड़नी पड़ती है।
राजकमल प्रकाशन के लोग भी समय के साथ बदले हैं और बेहतर तरीके से लेखक के साथ व्यवहार करते ह़ै…आज वहाँ युवाओं (पचास साल तक के वय के लोग) बेहतर भविष्य के साथ जुड़ रहे हैं. एक पाठक को भी अपने प्रिय लेखकों की किताब बड़े प्रकाशन से देखकर ही खुशी होती है. इस कारण बड़े प्रकाशकों को तुरंत विनोदजी की शिकायतों को दूर करना चाहिए. वे करेंगे भी…
राजकमल प्रकाशन और अहंकार में डूबे उसके मालिक शायद विनोद कुमार शुक्ल जी का साहित्यिक महत्व नहीं जानते हैं। जो बदलाव उनमें आए हैं उनका सबब हजारों की संख्या में बिकने वाली किताबों के नए कुछ लेखको की किताब छापना भर है। यहाँ तो राजकमल वालो के मनमाने आंकड़े नहीँ चलेंगे ये नए लेखक बिकने वाली प्रतियो पर चौकस नजर रखते होंगे।
Kudos to Gagan Gill for her combative attitude in favour of a fair play in the matter of royalty for authors.
She cites from her personal experience how she gained a vantage point when she stood her ground.
I wish to congratulate her for her stand.
Deepak Sharma
लिखते समय संकोच तो है। निजी तौर पर सभी प्रकाशक मित्र जान पड़ते हैं। पर लेखक के मेहनताने का– उसके अधिकार का — जब सवाल उठता है, लेखक “मिमियाते” नजर आते हैं।कारण? शुरू में छपना ही विकट समस्या। स्त्री रचनाकार की कथाएं बीभत्स भी हैं। पद और पैसे वाले, पुरुष, पैसे देकर या किताब बिकवाने के वचन देकर—।महत्वपूर्ण लेखन भी ,नया हो या प्रतिष्ठित, मार खा जाता है इस होड़ में। सहज भरोसा कोई भी बड़ा लेखक, साहित्य और समाज को समर्पित लेखक कर बैठता है— विनोद जी हों, निर्मल जी हों, — क ई नाम हैं पर पर वे ही चाहें तो बोलें—-दस बीस किस्से मुझे भी पता हैं—-।प्रकाशक के मानदंड अनेकानेक । किसी विश्वविद्यालय के डीन को रायल्टी 20 प्रतिशत। नाम जानना है?? माहवार 5 या 10 या 20 हजार अग्रिम नियमित भुगतान। इसी दरिद्र हिंदी में!! औरों को साल में—-! किताबों का अर्थतंत्र? अगर कुल लागत है 20, तो छपित दाम कम से कम होगा 120। संभव 160। थोक सरकारी खरीद, अमेजन फ्लिपकार्ट आदि, रिश्वत आदि समेत, 70% तक डिस्काउंट के बाद, 30 रुपए । साहित्य रचने के अनेक प्रयोजन हम सब ने स्कूल में पढ़ रखें होंगे? यह ऐसा इलाका है जहां भूखेभजन करने वाले ग ली ग ली मिलते हैं। विनोद कुमार शुक्ल अकेले नहीं हैं।अलबत्ता, जीते जी कोई नहीं उठेगा उन के हक़ में।
Very topical and absolutely necessary issue. The so-called big publishers are playing havoc with lives, careers and livelihood of writers. Their pernicious practices have now started coming to the fore. How long will these practices continue, that’s the question. The so-called big publishers are behaving like the mafiosi of a different kind. All of us have been aware of the malfeasance for long but writers find themselves helpless. I myself have been closely associated with the publishing world and seen how publishers behave. They manipulate, make authors malleable and hence become silent victims of the atrocities because the book publishers let lose their wanton ways to treat writers as mere dirt. When will all this stop? Can’t we have some kind of organisation as to become a forum to address the plight of all writers who have been denied what is rightfully theirs. There is no transparency, no accountability, no information on sales and annual accounts of the same, no disbursements of royalty on a regular basis. Vinod Kumar Shukla is just one instance, but then there are hundreds of such victims among the writers’ fraternity. Something must be done to address this malaise which must include legal avenues to justly fight their case and seek immediate redressal from the judicial system to penalise serial perpetrators and offenders from the publishing world. There should be some way even to mete drastic punishment so that this hydraheaded monster to rein in. Writers are one of the mainstay of a civilised society who not only write but also participate in raising awareness of all kinds. So why should they suffer in the hands of avaricious, even rapacious elements in the book ‘trade’ because they have actually traded their souls, because they are absolutely unethical and because they know nothing beyond thuggery of the worst kind. So, any extent of punishment is too less as one really doesn’t know how to bring them down to their knees, kicked in their butt’s and thrown out of the publishing book. Their crime is well entrenched and it might take some decades to clean up their Augean stables. But cleansing there must be to save books, to save writers and perhaps some well meaning publishers as well. But the question once again is: are there well meaning publishers left in this part of the world? If there is one he must stand out and pledge never to hurt a writer any which way, and pledge to make the publishing business as noble as the noble profession of writing itself…
गगन गिल को धन्यवाद ! उन्होंने जो मोटी-मोटी बातें बताई हैं वह ज़रूरी है. इनकी जानकारी अधिकतर लोगों को नहीं है.
राजकमल और वाणी हिन्दी भाषा के विख्यात प्रकाशन संस्थान हैं । लेकिन इनसे भी चूकें हुई हैं । निर्मल वर्मा की पुस्तकों की रॉयल्टी का प्रसंग मुझे याद है । गगन गिल ने रॉयल्टी के लिये राजकमल प्रकाशन से रोष व्यक्त किया था । यह मामला सुधी पाठकों को याद होगा । फ़ेसबुक पर कल दिन भर विनोद कुमार शुक्ल के वीडियो का प्रसारण किया जा रहा था । विनोद कुमार शुक्ल विनम्र व्यक्ति हैं । कम और सादा शब्दों में अपनी बात लिखकर प्रभावी ढंग से पाठकों के दिलों पर राज करते हैं । मैंने एक बार पहले भी लिखा था कि राजकमल ने कुमार विश्वास को छापकर अपना स्तर नीचे गिराया है और यह प्रतिगामी क़दम है । रिटायर्ड एसएसपी ध्रुव गुप्त को भी छापना कष्टदायी है क्योंकि उनका व्यवहार संदिग्ध है । मैं खुलासा नहीं करना चाहता ।
एक पाठक और कानून अभ्यासी होने के नाते मुझे यह देखने इच्छा रही है कि भारतीय लेखक किस प्रकार और क्या अनुबंध करते हैं| अन्य तरक्की व्यवसाय में सभी पक्षों द्वारा किसी न किसी वकील या कंपनी सचिव से राय ली जाती है| पेटेंट और डिज़ाइन ही क्या एक दो शब्द के ट्रेडमार्क तक बहुत दाम में बिकते हैं| फिर साहित्यिक बौद्धिक संपदा क्यों नहीं?
कुछ सह-प्रश्न भी मन में आते रहे हैं:
क्या किसी भारतीय लेखक ने अपना या अपनी बेहतरीन पुस्तक का नाम ट्रेडमार्क में पंजीकृत कराया है? क्या समालोचन का ट्रेडमार्क है? कितने लेखक यह जानकारी रखते हैं कि कापीराइट का पंजीकरण आवश्यक नहीं परंतु उपलब्ध है|
यदि आदरणीय व प्रबुद्ध लेखक बिना जाने समझे लकीर पूछकर अनुबंध पर हस्ताक्षर करते हैं तो इस लेखक शब्द से पहले लगाए गए कम से कम शब्द को मैं वापिस लेना पसंद करूंगा|
कई बार कहा जाता है कि लेखक लेखन करें या इन सब झंझट में पड़ें| परंतु हर खेल और व्यवसाय के नियम हैं| लेखन के भी बौद्धिक सम्पदा नियम हैं, उनका लाभ लें|
यदि लेखक को दाम नहीं मात्र नाम चाहिए तो खुल कर इसे व्यक्त करें और निर्णय शिरोधार्य करें अन्यथा व्यवसायी तरह काम करना सीखें|
पुनः – गगन जी नाम- दाम हटा कर अपने अनुबंध की प्रति उपलब्ध कराकर एक बेहतर मानक अनुबंध तैयार करवाकर सार्वजनिक कर दें| शायद अन्य लेखक लाभ ले पाएँ|
ऐश्वर्य मोहन गहराना
एक शे’र से बात आरंभ कर रहा हूँ ।
कैसी चली है अब ये हवा तेरे शहर में ।
बंदे भी हो गये हैं ख़ुदा तेरे शहर में ॥
निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल ने रॉयल्टी के लिये संघर्ष किया । अपनी शर्तों पर अनुबंध किये । आने वाले रचनाकारों को राह दिखायी । गगन जी रॉयल्टी के लिये प्रतिबद्ध रहीं । यही प्रतिबद्धता युवा रचनाकारों का मार्ग प्रशस्त करेगी । विनोद कुमार शुक्ल और निर्मल वर्मा के प्रति प्रकाशकों का व्यवहार सम्मानजनक नहीं है । एक और शे’र और ग़ुस्ताख़ दिल
वस्सल की शब न छेड़ क़िस्सा ये ग़म ।
फिर किसी और दिन सुना देना ॥
प्रोफ़ेसर अरुण देव जी आप बहुत सी बातों से वाक़िफ़ हैं । ज्ञानपीठ प्रकाशन इसलिये पिछड़ गया, क्योंकि वह एक ख़ास विचारधारा के साथ जुड़ा । लेकिन राजकमल और वाणी ने उस तबके को झपटा जिन्हें भारतीय और संसार के रचनाकारों को उदारवादी मानते हैं । इसलिये दोनों प्रकाशन संस्थान रईस हो गये । दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी भाषा की प्रोफ़ेसर अलका त्यागी आध्यात्मिक व्यक्तित्व हैं । इसलिये उपर्युक्त दोनों प्रकाशकों ने प्रकाशित नहीं किया । I have read a book by Alka Tyagi published by DK Print World. Name of the book is ‘Reconstructing Devotion through Narada Bhakti Sutra. She is trained in Satyananda Yoga from Bihar School of Yoga, Munger and teaches Yoga at various platforms in India and abroad, along with her academic engagements.
लेखक प्रकाशक विवादों के बीच सबसे महत्वपूर्ण सुझाव कि लेखक अपना कापीराइट पाठक और जनता को दे दे – पर बहस होनी चाहिए कि उसे व्यवहार में लाने के लिए किस तरह की व्यवस्थाओं की जरूरत होगी ।
लेखन बाकी जीविकाधर्मी व्यवसायों की तरह का धंधा नहीं है कि उसके बारे में व्यवसायिक रूप से बात की जाय ।
लेखक के आर्थिक स्वावलंबन का प्रश्न अलग से हल करने का है, वह खरीद-बेच में रिड्यूस करने का मामला नहीं है ।
गगन का गद्य किसी भी साहित्य स्वरुप -हां, कुंकी कविता में भी-एक नया मेघधनुष रच देता है…. अभिनन्दन