हान कांग
कोरियाई लेखन के लिए नोबेल पुरस्कार
पंकज मोहन
10 अक्टूबर को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल विजेता के नाम की घोषणा के पहले किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि कोरिया की चौवन साल की महिला साहित्यकार बड़े-बड़े महारथियों को पछाड़कर वैश्विक स्वीकृति-सूचक इस सम्मान का हकदार होगी. ब्रिटेन के नोबेल सट्टेबाजी एजेन्सी द्वारा जारी की गयी संभावित विजेताओं की सूची में पहला नाम आस्ट्रेलिया के जेरल्ड़ मरनेन का था. 85 वर्ष के जेरल्ड़ मरनेन ‘स्मृति, अस्मिता और आस्ट्रेलियाई लैंड़स्केप की पड़ताल इतनी बारीकी और गहराई के साथ करते हैं कि उनकी रचनाओं में गल्प और आत्मकथा की विभाजन रेखा धूमिल हो जाती है’. आस्ट्रेलियाई टेलिविजन चैनल एबीसी को उन्होंने बताया कि दुनिया में आज तक किसी ने ऐसा मापदंड और मानक नहीं बनाया जिसके द्वारा विश्व के सर्वश्रेष्ठ लेखन का चयन किया जा सके, और पुरस्कार मिलने से क्या फर्क पड़ेगा मेरे जीवन में? मैं आज तक हवाई जहाज पर नहीं चढ़ा हूँ और इन दिनों बेटे के साथ विक्टोरिया प्रांत के ऐसे गाँव में रहता हूँ जिसकी आबादी बस तीन सौ है.
संभावित विजेताओं की सूची में दूसरा नाम चीनी लेखिका छान श्वे (Deng Xiaohua: जन्म: 1953) का था. उन्हें चीन में प्रयोगात्मक कथा साहित्य का सर्वाधिक सशक्त और सफल हस्ताक्षर माना जाता है. माओ के चीन में जब उनके पिता को दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी करार दिया गया, सारा परिवार भुखमरी और बीमारी के कारण जिन्दगी और मौत के बीच झूलता रहा. फैक्टरी की मज़दूरी और 1980 के बाद सिलाई-कटाई के द्वारा परिवार का भरण-पोषण करते हुए उन्होंने ऐसे विपुल साहित्य की रचना की जिसका एक-एक शब्द जीवन-संघर्ष की भट्टी में ढलकर कागज़ पर उतरा. उनका कथानक दुःख से मंजा-घिसा है और जिसकी दृष्टि और प्रतिमान में आधुनिक चीन के आँसू झिलमिलाते हैं.
हान कांग को इस साल का नोबेल पुरस्कार मिलेगा, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. काव्यात्मक भाषा में आधुनिक कोरियाई इतिहास की त्रासदी और पितृसत्तात्मक समाज की हिंसा जैसे अनुभवों के नये आयाम को निरूपित करने की उनकी कला की मैं पिछले एक दशक से प्रशंसा करता आया हूँ, लेकिन मैं समझता था कि नोबेल समिति सत्तर-पचहत्तर साल के किसी प्रभावशाली बुजुर्ग लेखक को चुनेगी. मैं ग़लत था.
वर्षों पहले आस्ट्रेलियन नैशनल युनिवर्सिटी के मेरे विभाग-चाइना एंड़ कोरिया सेन्टर, में जब चीनी विद्वान लियु शियाओपो विजिटिंग स्कॉलर के रूप में आये, चीनी प्रशासन के उनके सैद्धांतिक विरोध और जनतंत्र की हिमायत को बहुत साहस का काम समझता था, लेकिन उन्हें एक दिन नोबेल शान्ति पुरस्कार मिलेगा, इसकी मैंने कभी कल्पना भी न की थी. अब मैं समझने लगा हूँ कि हमारी धरती इसलिए सुन्दर है क्योंकि यहाँ कल्पनातीत घटनाएँ घटती हैं. 10 अक्टूबर 2024 को जब नोबेल समिति ने हान कांग को ‘गहन काव्यात्मक गद्य में इतिहास के ज़ख्म, सामूहिक स्मृति की पीड़ा और मानव जीवन की अनिश्चितता और नश्वरता को पिरोने’ के कौशल के लिये पुरस्कृत किया, सब ने कहा, इस समाचार को सुनकर उन्हें सुखद विस्मय हुआ.
ली क्वांगसु के ‘मुजंग’ (हृदयहीन) को पश्चिमी ढंग का पहला मौलिक कोरियाई उपन्यास माना जाता है जिसका प्रकाशन 1917 में हुआ था. जापान और चीन में आधुनिक साहित्य का श्री गणेश कोरिया से बहुत पहले नहीं हुआ था, लेकिन दशकों पूर्व जापानी साहित्य और संस्कृति के भाल को कावाबाता यासुनारी और ओए केन्ज़ाबुरो ने उन्नत किया और 21वीं सदी में काओ शिंंग-चियैन तथा मो येन की नोबेल उपलब्धि से चीनी साहित्य गौरवान्वित हुआ.
पूर्व-आधुनिक इतिहास में कोरिया ने चीन और जापान के बीच सांस्कृतिक सेतुबंध की भूमिका निभाई और बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह छोटा-सा देश दुनिया के सामने औद्योगिकीकरण, राजनीतिक जनतांत्रिकरण और वैश्विक अपील के पोपुलर कल्चर का उज्ज्वल उदाहरण बनकर उभरा, फिर भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आज तक एक भी नोबेल पुरस्कार न हासिल होने के कारण अक्टूबर महीने में कोरियाई जनता का मुख म्लान हो जाता था. इस वर्ष कोरियाई नर-नारी के चेहरा मुस्कान से दीप्त हो गया और 1929 में गुरुदेव ने कोरिया के बारे में जो लिखा था, वह भविष्यवाणी सच निकली
प्राची के स्वर्णकाल में
दीप-वाहक था देश कोरिया
प्रदीप्त होगा जब दीपक यह
प्रोज्ज्वल होगा पुनः एशिया.
यह सम्मान कोरियाई जनता के लिये गर्व का विषय है, लेकिन हान कांग के पिता जो स्वयं सुप्रसिद्ध उपन्यासकार हैं, ने अपनी पुत्री की उपलब्धि पर संयत और विनयशील प्रतिक्रिया व्यक्त की. उन्होंने कहा, इतिहास में विरले ही ऐसे साहित्य-साधक हुए हैं जिन्हें इतनी कम अवस्था में विश्व के सर्वोच्च पुरस्कार के लिये चुना गया है, इसलिए जब एक पत्रकार ने मुझे फोन कर इसकी सूचना दी, मैंने कहा, यह फेक न्युज होगा. बड़े-बड़े दिग्गज अभी इंतज़ार में बैठे हैं, मेरी बेटी का नम्बर दस साल में आयेगा. पत्रकार मुझसे पूछते हैं, यह तो उत्सव का मौका है, जश्न कैसे मनाइयेगा. मैं कहता हूँ, आज रूस-उक्रेन और इजरायल-पेलेस्टाइन के युद्ध की प्रचंड़ ज्वाला में हर रोज लोग धू धूकर जल रहे हैं. ऐसी विषम बेला में हम अपनी निजी सफलता का उत्सव कैसे मनाएँ? लेखिका ने कहा, ऐसे तो मैं चाय नहीं पीती हूँ, लेकिन आज इस खुशी के मौके पर बेटे के साथ चाय पी लूंगी.
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कोरियाई लेखिका को नोबेल पुरस्कार मिलने का समाचार सुनकर मुझे एक प्रसंग याद आया. जब कभी मैं सेओल की यात्रा करता हूँ, चोंगनो इलाके का क्योबो जो वहाँ की सबसे मशहूर किताब की दुकान है, का ‘तीर्थाटन’ जरूर करता हूँ. इसके चेन स्टोर अन्य जगहों पर भी हैं. छोटे स्टेड़ियम जैसी दूर तक फैली इस दुकान में तेईस लाख किताबें हैं. हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशकों से खाली थी. उस सूनी दीवार पर लिखा था ‘नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित’. आज उस दीवार का सूनापन दूर हुआ, क्योबो पुस्तक भंड़ार की प्रतीक्षा का अंत हुआ, कोरियाई साहित्य-रसिक सुफल-मनोरथ हुए.
हान कांग (जन्म 27.11. 1970) की सफलता चार दशक के अथक स्वाध्याय और लेखन का प्रतिफल है. उनके पिता हान संग-वन फणीश्वरनाथ रेणु की तरह कोरियाई साहित्य में आंचलिक उपन्यास के सफल प्रयोगकर्ताओं के रूप में जाने जाते हैं. उनकी एक कथा पर ‘आजे आजे परा आजे’ (प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र की पंक्ति का कोरियाई अनुवाद जिसका अर्थ है, चलें, मोह मुक्त हो आगे बढ़े) नामक फिल्म भी बन चुकी है. हान कांग के बड़े भाई पिछले बीस वर्षों से बहुत परिश्रम से बालकथा और उपन्यास लिखते आ रहे हैं और उनका छोटा भाई भी साहित्य-पथ पर आरूढ़ है. हान कांग ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि बचपन में उनके लिये किताबें अर्ध-जीवित प्राणी थीं जिनके साहचर्य में उन्हें सहजता का अनुभव होता था. किताबें उन्हें आश्वस्त करती थीं, “मैं तुम्हारे साथ हूँ- मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी.” मकान बदलकर नये इलाके में जाने पर पड़ोस के बच्चों से दोस्ती बाद में होती थी, पहले अपने पुराने दोस्त -पुरानी किताबों की आलमारी से मिलती थी. पुरानी किताबों की संगति के कारण उन्हें लगता था कि मैं नयी जगह तो आयी हूँ, लेकिन पुराने दोस्तों से जुदा नहीं हुई हूँ.
स्मृति के वातायन से झांकने पर पिता की अपनी बेटी की एकांत वीणा याद आती है.
“कभी-कभी वह दोपहर में कहीं ग़ायब हो जाती थी, और सूर्यास्त के समय जब मैं उसे ढूंढता था, तो वह कमरे के अंधेरे कोने में एकाकी, चुपचाप बैठी दिखती थी. मैं अचम्भित होकर पूछता था, ‘तुम क्या कर रही हो?’, तो वह जवाब देती थी, ‘दिवास्वप्न देख रही हूँ. क्या मैं दिवास्वप्न नहीं देख सकती?’ मुझे खुशी है कि कालांतर में उसने दिवास्वप्न और कल्पना की तूलिका से देश-काल का मनोरम चित्र बनाया.”
किशोरावस्था में हान कांग रूसी साहित्य, विशेषकर दोस्तोवस्की और पास्तरेनाक के उपन्यासों की दुनिया में डूबी रहती थी. 14 साल की उम्र में उन्होंने कोरियाई साहित्यकार इम चल-वू की एक कहानी ‘साफ्यंग स्टेशन’ पढ़ी जिससे वह बहुत प्रभावित हुईं. इस कथा में बर्फीली रात में एक छोटे-से कस्बाई रेलवे स्टेशन के माध्यम से हाशिए पर जी रहे गरीब-गुरबा के जीवन की थकान का सहानुभूतिपूर्ण वर्णन है. इसमें कोई नायक नहीं है; आखिरी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे यात्री साथ बैठे हैं- एक खांसता है, दूसरा अपने बगलगीर मुसाफिर से बातचीत शुरू करने की कोशिश करता है, एक यात्री घूरे की आग की आँच में लकड़ी रख रहा है, आँच के चारों ओर बैठे यात्री अपने शरीर को गरमा रहे हैं. वहाँ एक किसान भी है जिसका मुख म्लान है- उसे इस बात का अफसोस है कि हिमानी और बेशुमार ठंढी रात में जब उसके बूढ़े बाप ने कहा, मुझे अस्पताल ले चलो, उसे इस अनुरोध पर मन ही मन गुस्सा क्यों आया. दो खोंमचे वाले भी हैं और दो औरतें हैं, एक अधेड़ उम्र की मोटी औरत है और एक जवान लड़की है जिसने मेक-अप काफी कर रखा है. अपने साहित्य-सिंचित पारिवारिक परिवेश और इस कथा की मोहिनी शक्ति के कारण हान कांग ने कैशोर्यावस्था में लेखक बनने का फैसला किया.
हान कांग के माता-पिता चाहते थे कि वह विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करे, लेकिन बेटी ने कहा, मुझे कोरियाई भाषा का लेखक बनना है, इसलिए कोरियाई साहित्य विभाग में नाम लिखाने दीजिये. मिता-पिता ने फिर कभी बेटी पर अपनी निजी पसन्द या इच्छा आरोपित नहीं की. कोरियाई साहित्य की छात्रा होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजी भाषा और साहित्य का मनोयोग से अध्ययन किया. बाद में यूरोप और अमेरिका में कुछ महीने बिताने के बाद उन्होंने समकालीन विश्व साहित्य की ऊर्जा और उष्मा को अच्छी तरह जाना और समझा. WG Sebald की Austerlitz, The Emigrants, A Place in the Country आदि पुस्तकों को पढ़कर उन्हें महसूस हुआ कि लेखक ने सामूहिक स्मृति को आत्मसात करने के लिये अन्तर्जगत में गहराई से प्रवेश किया है. Jorge Luis Borges, Primo Levi, Italo Calvino, Arundhati Roy की रचनाओं को भी उन्होंने चाव से पढ़ा. आरम्भ में हान कांग कविता लिखती थीं. उनके साहित्यिक जीवन का आरम्भ तेईस साल की अवस्था में हुआ जब ‘साहित्य और समाज’ नामक पत्रिका में उनकी पाँच कविताएं छपीं. 1995 में उनकी छोटी कहानियों की पहली किताब आई, ‘यसु शहर का प्यार’. मुझे उनकी कविताएँ काफी पसन्द है. एक लम्बी कविता है जिसकी आरम्भिक पंक्तियाँ नीचे दे रहा हूँ
“अगर एक दिन नियति मुझसे बात करे, मुझसे पूछे “मैं तुम्हारी नियति हूँ, पता नहीं तुम्हारे मन में मेरे प्रति गिला-शिकवा है या मैं तुम्हें पसंद हूँ,” मैं चुपचाप उसे अपने बाँहों में भर लूंगी और लंबे समय तक उसे गले से लगाये रखूंगी.
एक क्षण का टुकड़ा
मैं नहीं जानती कि उस समय मेरी आँखों से आँसू छलक उठेंगे या मैं इतना शांत रहूँगी कि मुझे लगेगा कि मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत ही नहीं है.” .
इस कविता का अभिप्रेत है कि हर व्यक्ति की नियति समान नहीं होती, सब अपने-अपने ढंग से जीते और मरते हैं, लेकिन दुनिया में सरल और सहज जीवन नहीं होता. हमारे जीवन की रीति-नीति भिन्न जरूर दिखती हैं, लेकिन हर आदमी अपने-अपने हिस्से की व्यथा-विषाद को झेलता है. जीवन जो दर्द लाता है, वह वस्तुतः समान है.
हान कांग को ‘शाकाहारी’ उपन्यास पर कुछ साल पहले बुकर अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. मुझे इस उपन्यास के अन्तर्गभित भाव और उपरोक्त कविता के भाव में समानता दिखती है. दोनों नये युगधर्म, आधुनिक जीवन के अध्यात्म से प्रेरित रचनाएँ हैं. हम अपनी नियति के लेख के साथ समझौता करते हैं, लेकिन समाज के शाकाहारवादी, अर्थात सर्वसमादृत भोग-विलास, पद-पदवी के रैट रेस से दूर रहने वाले और अपने से भिन्न वाद या विचारधारा में आस्था रखने वाले लोगों के प्रति हमारे मन में असहजता के भाव क्यों उत्पन्न होते हैं?
कोरिया में कुछ अपवाद को छोड़कर सब मांसाहारी हैं, इसलिए ‘शाकाहारी’ सामान्य जीवन से भिन्न जीवन पद्धति का प्रतीक है. हम जिस समाज और समुदाय का हिस्सा हैं, उसमें अनेक प्रकार के शाकाहारी रहते हैं. यदि हम एक-दूसरे की शाकाहारी जीवन-पद्धति या दूसरों की जीवन-शैली की भिन्नता को स्वीकार कर लें और यह मान लें कि विविधता आधुनिक समाज का बीजशब्द है, तो इससे समाज के तनाव में कमी आयेगी और हमारे अन्तस में सुलगती हिंसा की ज्वाला भी शांत हो जायेगी.
इस उपन्यास के मुख्य पात्र, यंगहे के रोजमर्रे की जिन्दगी में कुछ भी नया नहीं है, सब कुछ सामान्य है, लेकिन जब वह शाकाहारी बन जाती है, उसकी आँखों के सामने अपने समाज की विसंगतियाँ एक-एक कर उजागर होने लगती हैं.
यंगहे का पति सोचता है कि जब उसकी पत्नी शाकाहारी नहीं थी, आम औरतों की तरह उसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं थी, पति से पृथक उसकी अपनी पहचान नहीं थी, कितने सुखद थे वे दिन. उसे याद आती है प्रथम मिलन की बेला.
“वास्तव में जब मैंने पहली बार उस पर नज़र डाली, वह मुझे ज़रा भी अच्छी नहीं लगी. क़द भी औसत, बाल-जाल भी ऐसा नहीं जिसमें लोचन उलझ जाये, पीला चेहरा जैसे किसी बीमारी ने उसे जकड़ रखा हो. गाल की हड्डियाँ कुछ ज़्यादा ही उभरी हुई थीं. वह ऐसा चेहरा था जिसे देखकर आँखें मुंद जाएँ और अहसास हो कि अब और देखना और जानना क्या?”
उसे उस औरत की सादगी और स्वाभाविकता इसलिए पसंद थी क्योंकि वह सोचता था कि साधारण शक्ल-सूरत और कम पढ़ी-लिखी होने के कारण वह पति की आज्ञा का निष्ठापूर्वक पालन करेगी. महिला की सादगी और उसकी अपनी आवश्यकताओं के बीच तालमेल बैठता था. अगर वह आधुनिक विचार की स्त्री होती तो कम उम्र में ही उसकी निकली हुई तोंद और पतली टांग के कारण उसे या तो रिजेक्ट कर देती या उसे स्वास्थ्य और शारीरिक सौष्ठव की सीख देती जो उसे अच्छा न लगता.
जाहिर है, हान कांग के साहित्य में नयी अन्तर-वस्तु का साक्षात्कार होता है. विवाह के निर्णय के पीछे “नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय संभाषण’ और ‘पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन’ नहीं है. यहाँ पुरुष की शक्ति की नवीन कल्पना दिखती है. मेरे गुरुदेव नामवर जी कहते थे, महान साहित्यकार कालदर्शी होते हैं, वे अपने काल को निचोड़ते हैं (काल निचोड़ के अमृत पी ले: कबीर), युगधर्म को समझते हैं और इतिहास के साथ उनकी होड़ बनी रहती है.
उपन्यास के दूसरे भाग में लेखिका यंगहे की आँखों के आगे पुरुष-वर्चस्ववाद का एक नया क्षितिज खोलती है. जब वह शाकाहारी बनने का फैसला लेती है, टकराव शुरु होता है और सब कुछ एकाएक बदल जाता है.
“जब वह अपनी कुर्सी से उठा और फ्रीज़ खोला, वह लगभग ख़ाली था, इसमें मिसो सूप का पाउड़र, मिर्च और कटे हुए लहसुन के एक पैकेट के अलावा और कुछ नहीं दिखा.
“मेरे लिए अंड़ा फ्राइ कर दो. मैं आज बहुत थक गया हूँ. आज लंच भी ठीक से नहीं खाया.”
“मैंने सारे अड़े फेंक दिए.”
“क्या? फेंक दिये”
“हाँ और अब मैंने दूध पीना भी छोड़ दिया है.”
“यह तुम क्या कह रही हो? क्या मैं भी तुम्हारे कारण मांस-मछली छोड़ दूं ?”
“अब से मांस-मछली को फ्रिज में नहीं रखना. यह सही नहीं होगा.”
आखिर वह कैसे इतनी स्वार्थी, इतनी आत्मकेन्द्रित हो गयी? मैंने उसकी आँखों में स्वामित्व के शान्त भाव की अभिव्यक्ति देखी. उसने यह स्पष्ट कर दिया कि वह अब अपनी मर्जी से काम करेगी. मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वह पारिवारिक मर्यादा को इस निष्ठुरता के साथ रौंदेगी.
“तो तुम कह रहे हैं कि अब इस घर में मांस नहीं पकेगा?”
“देखो, तुम आमतौर पर नाश्ता करने के बाद दफ्तर चले जाते हो और रात में लौटते हो. तुम लंच और ड़िनर बाहर लेते हो, वहाँ मांस-मछली तो खाते ही होगे. अगर तुम्हें ब्रेकफास्ट में अंड़ा नहीं मिले, तो क्या तुम मर जाओगे.”
उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात कही. वह सोच रही होगी कि उसका निर्णय तर्कसंगत था, उसके विचार में असंगति या अनौचित्य का लेश नहीं था, लेकिन वस्तुतः उसका उत्तर हास्यास्पद था.
“तुम दावा कर रही हो कि अब से मांस बिल्कुल नहीं खाओगी?”
उसने सिर हिलाया.
“ओह, सच में? कब तक?”
“मुझे लगता है…हमेशा के लिए.”
मैं अवाक था, किंकर्तव्यविमूढ़ था.
शादी के वक्त से ही वह बहुत प्रेम से मांसाहारी भोजन बनाती आयी थी. मैं उसकी पाक कला की निपुणता से बहुत प्रभावित था. हाथ में चिमटा और दूसरे में एक बड़ी कैंची लेकर वह तवे पर मांस को पलटते हुए उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटती थी. कीमा हो, बारबेक्यु हो, शोरबा हो, तली मछली हो, उसके हाथ से बने सारे पकवान स्वादिष्ट होते थे.”
यहाँ यह ध्यातव्य है कि सपने के कारण इस उपन्यास की मुख्य पात्र ने शाकाहारी जीवन शैली अपनाई. हान कांग ने एक बार कहा था कि सपने में जो कुछ दिखता है, वह वह किसी न किसी रूप में उनके लेखन में उतर आता है. यह एक नये किस्म का लेखन है जो हमें जीवन और जगत के परिवर्तन के बारे में सोचने को विवश करता है. यह मिशेल फुको के दर्शन की तरह गम्भीर और गाढ़ा साहित्य है. फुको ने हिंसा पर जो कुछ लिखा है, उसका प्रभाव भी उपन्यास में कहीं-कहीं परिलक्षित होता है.
हान कांग की एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक है ‘सोन्यनी ओन्दा’ (बच्चा आ रहा है). ड़ेब्रा स्मिथ के अंग्रेजी अनुवाद में इस पुस्तक का शीर्षक है ‘Human Acts’. इस पुस्तक में मई 1980 में सैन्य तानाशाह की लाठी-गोली से मौत के घाट उतारी गयी जनता के लहू की अविस्मरणीय छवि और छाप है. इस पुस्तक के माध्यम से हान कांग ने यह दिखाना चाहा है कि आज के कोरिया की आर्थिक समृद्धि की नींव में हक की लड़ाई लड़ने वाले हजारों लोगों की शहादत है.
1979 में जब कोरिया ख़ुफ़िया एजेन्सी (KCIA) के प्रमुख ने एक रेस्टोरेंट में सैनिक तानाशाह प्रेसिड़ेंट पार्क चंग ही के सीने पर गोली चलाकर मार दिया, लोगों ने सोचा, निरंकुश प्रशासन की कब्र पर लोकतंत्र के रंग-रंग फूल खिलेंगे, लेकिन कोरियाई जनता की आशा पर तुषारापात हुआ.
जनरल छन तू-ह्वान ने सत्ता हड़प ली और फाशीवादी प्रशासन का एक नया दौर शुरु हुआ. इस सैन्य तख्तापलट के विरोध में राजनीतिक प्रतिरोध के अड्डे के रूप में विख्यात क्वांगजू नगर में हजारों प्रदर्शनकारी सड़क पर उतर आये और फिर मौत का ताड़व नृत्य हुआ. हजारों प्रदर्शनकारियों के खून की होली खेलकर वीभत्स अट्टहास के साथ जनरल चन तू-ह्वान ने सत्ता संभाली. अस्सी के दशक में लोग क्वांगजू का नाम लेने से भी डरते थे. जनता आतंक के माहौल में जी रही थी.
1986 में जब मैंने सेयोल नैशनल युनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के कुछ छात्रों के साथ दक्षिण चल्ला राज्य की राजधानी क्वांगजू नगर-स्थित मांगवल दोंग कब्रगाह (जहाँ तानाशाही के खिलाफ़ लड़ते हुए दम तोड़ने वाले मुक्तिकामी शहीदों के कब्र हैं) जाकर उनकी स्मृति में विषाद और श्रद्धा के फूल चढ़ाने की कोशिश की, पुलिस ने हमारे मार्ग को अवरुद्ध करने का हरसंभव प्रयास किया. हमलोग प्रशासन और पुलिस को चकमा देकर मांगवल दोंग कब्रिस्तान गये. वहाँ जब मैंने मई 1980 के कत्लेआम के शिकार दस-ग्यारह साल के बच्चों के कब्र देखे, मेरी आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे. इस पीड़ादायी अनुभव और जनतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता के कारण 1987 में जब कोरिया के छात्र, किसान, मजदूर भारी संख्या में फौजी शासन के खिलाफ़ सड़क पर उतर आये, मैं भी उसमें शामिल हो गया. सेओल नैशनल यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के छात्रों ने सर्व सम्मति से निर्णय लिया कि विभाग के हर छात्र को विरोध प्रदर्शन में भाग लेना है. मैं अपने भविष्य को दांव पर लगाकर प्रजातन्त्र के यज्ञ में अपनी समिधा डालने कूद पड़ा.
मैंने सोचा, हमारे विभाग के बहुत-से मेधावी छात्र जब अपने उज्ज्वल भविष्य को दाँव पर लगाकर विद्रोह की लहरों पर तैर रहे हैं, तो कोरियाई जनता के मित्र होने के नाते मैं कैसे तटस्थ रह सकता हूँ, तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों का है निमंत्रण. अगर धर-पकड़ होगी, जेल जाऊंगा, फिर भारत भेज दिया जाऊँगा. भविष्य में जो होगा सो होगा. आज मेरा कर्तव्य है, कोरिया के युवा साथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना. आयरलैंड़ की जनता जब 1916 में सड़कों पर उतरी और रक्तपात हुआ, विलियम एट्स ने लिखा “टेरिब्ल ब्यूटी इज बौर्न (उद्भव हुआ भयावह सौन्दर्य का). भयावह दमन चक्र के बीच से कोरिया में भी जनतंत्र का सुन्दर कुटज उगेगा, मन में था विश्वास, पूरा था विश्वास.
‘बच्चा आ रहा है’ नामक उपन्यास के केन्द्र में तोंगहो नामक मिड़िल स्कूल का विद्यार्थी हैं. वह अपने एक सहपाठी की मौत का चश्मदीद गवाह है. वह सहमा हुआ है, डरा हुआ है.. वह सोचता है कि ऐसा नहीं हो सकता. देश की सेना तो जनता की रक्षा के लिये होती है, वह निहत्थे देशवासियों पर नहीं, दुश्मनों पर गोली चलाती है, लेकिन आज यहाँ क्या हो रहा है? सेना द्वारा चलाई गई गोली से उसके प्यारे नगर में खून की नदी बह रही है. उसका दोस्त खून से लथपथ होकर सड़क पर अंतिम साँसें गिन रहा है. डर से थरथर कांप रहे तोंगहो ने भागकर किसी तरह अपनी जान बचाई. उस दिन के बाद वह बच्चा बच्चा नहीं रह गया. उसका व्यक्तित्व पूरी तरह से बदल गया.
इस उपन्यास के मंच पर एक युवती का पदार्पण होता है. वह तोंगहो को जानती है. वह एक प्रकाशन संस्था के सम्पादकीय विभाग में काम करती है. एक बार वह पांडुलिपि को लेकर सेंसरशिप विभाग में प्रकाशन की मंजूरी का आवेदन पत्र लेकर जाती है, तो सेंसर अधिकारी उसके गाल पर थप्पड़ मारता है. उसे सात थप्पड़ लगते हैं, लेकिन वह खून का घूंट पीकर चुप रहने के सिवा और कर ही क्या सकती है.
यह सब देख-सुनकर मिड़िल स्कूल का छोटा लड़का सोचता है, कुछ यादों के ज़ख्म कभी नहीं भरते. काल के प्रवाह के साथ इन यादें पर धूल की परतें नहीं पड़तीं. वास्तव में दूसरी यादें भले ही पूरी तरह मिट जाएँ, दुःस्वप्न की ये स्मृतियाँ हमेशा ज़िन्दा रहती हैं और दिल को कचोटती रहती हैं. उसकी दुनिया घोर अन्धकार में डूब जाती है, जैसे उसकी सड़क पर बिजली के सारे बल्ब एक-एक कर बुझ गये हों और उसे अहसास होता है कि इस अंधेरी रात में वह सुरक्षित नहीं है.
मैं इतिहास का अध्येता हूँ, इसलिये मुझे वैसी रचनाएँ प्रिय हैं जिनमें मुझे समसामयिक इतिहास की धड़़कन सुनाई देती है. टाल्सटाय, प्रेमचंद, लु शून, ड़िकेन्स, स्टाइनबेक जैसे उपन्यासकारों की तरह हान कांग ने अपने समाज के जटिल यथार्थ की अन्तर्दृष्टि प्राप्त की, अपने उपन्यासों में ऐसे पात्र गढ़े जिन्हें राष्ट्रीय आख्यान का प्रतीक माना जा सकता है, और उस यथार्थ को इतनी सहजता और संवेदना के साथ चित्रित किया कि पाठकों में मन में यथार्थ का बोध उत्पन्न हो पाया.
भाव के अनुरूप हान कांग की भाषा में ‘नव उन्मेष’ है. इस संदर्भ में उनके पिता कहते हैं:
“हम दोनों के बीच एक पीढ़ी का अंतर है. उसके उपन्यास की लेखन शैली कोमल-कलित, काव्यात्मक, गीतात्मक और सुंदर है. मैं भी उपन्यासकार हूँ, लेकिन मेरी भाषा वैसी तरल नहीं है और मैं उसकी लेखन-शैली का अनुकरण भी नहीं कर सकता. वह बिल्कुल अलग तरीके की मौलिक लेखन शैली है. साथ ही, यह किसी नई पीढ़ी का सस्ता, सतही लेखन नहीं है, बल्कि एक ऐसा लेखन है जिसमें बहुत गहराई है, जिसका परंपरा के साथ स्वस्थ समन्वय और जीवंत सम्बन्ध है और फिर भी, जिसमें नई पीढ़ी के ताजा अनुभव का उन्मेष है.”
नोबेल पुरस्कार के संदर्भ में अनुवादक के योगदान का उल्लेख करना आवश्यक है, लेकिन चूंकि मैंने हान कांग की मूल कृतियों को उनके अंग्रेजी भाषा से मिलाकर ठीक से नहीं पढ़ा. अनुवाद के बारे में बस इतना कहूँगा, ‘नथिंग सक्सीड़्स लाइक सक्सेस’. ड़ेब्रा स्मिथ ने छह साल तक कोरियाई भाषा का अध्ययन किया और लेखिका जो खुद अंग्रेजी अच्छी तरह जानती हैं, ने अनूदित भाव की प्रामाणिकता की जांच की. गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक अच्छे साहित्यिक अनुवाद को ‘इन्टिमेट रीड़िंग’ मानती हैं. उत्कृष्ट अनुवाद अनु-रचना (Transcreation) होता है. ड़ेब्रा स्मिथ ने लेखिका की सहमति से कोरियाई भाषा में लिखी कृतियों के कुछ अंश को अंग्रेजी पाठकों के लिये सहज रूप से ग्राह्य बनाने के लिये किंचित नये ढंग से गढ़ा है.
अंत में ऊपर मैंने जिन दो उपन्यासों की चर्चा की है, उनके प्रकाशक के बारे में भी दो शब्द. उस प्रकाशन संस्थान के आदि संस्थापक, प्रोफ़ेसर पैक नाक-छंग (पीएच.ड़ी हार्वर्ड़) जिनकी गणना आधुनिक कोरिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण चिन्तकों और आलोचकों में होती है, मेरे गुरु और ‘कल्याण मित्र’ रहे हैं. जब मैं सेओल नैशनल युनिवर्सिटी में एम.ए. (इतिहास) का छात्र था, मुझे दो विदेशी भाषाओं में लिखित और मौखिक परीक्षाएँ पास करनी थी. मेरी अंग्रेजी की मौखिक परीक्षा के परीक्षक थे प्रोफ़ेसर पैक नाक-छंग थे. उस समय कोरिया टाइम्स में प्रति माह मेरे दो लेख छपते थे, इसलिए अंग्रेजी अखबार पढ़ने वाले लोग मुझे जानते थे. उन्होंने कहा, अंग्रेजी में आपका इम्तिहान कौन लेगा? चलें, इस बहाने कुछ बातचीत कर लेते है.
प्रोफ़ेसर पैक ने 1966 में ‘छांगजाक क्वा पीफ्यंग (सर्जना और आलोचना) नामक कोरियाई भाषा की त्रैमासिक पत्रिका निकाली. अपनी पत्रिका में सैनिक तानाशाह पार्क चंगही के निरंकुश प्रशासन और जनविरोधी नीतियों की आलोचना करने के कारण उन्हें प्रोफ़ेसर पद से हटा दिया गया था, लेकिन प्रेसिड़ेंट पार्क की हत्या के बाद वे अपने पद पर फिर बहाल हुए. कालांतर में छांगजाक-क्वा पीफ्यंग पत्रिका का विस्तार छांग-पी (छांगजाक और पीफ्यंग के आद्याक्षरो से बना शब्द) प्रकाशन गृह के रूप में हुआ. हान कांग की उपरोक्त दोनों किताबें प्रोफ़ेसर पैक नाक-छंग द्वारा स्थापित प्रकाशन संस्था, छांगपी ने प्रकाशित की है.
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पंकज मोहन ने उत्तरी एशिया की भाषा और संस्कृति की पढ़ाई का आरम्भ 1976 में जे.एन.यू. मे किया, और तदुपरांत सेओल नैशनल यूनिवर्सिटी और आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी से इतिहास मे क्रमशः एम.ए. और पीएच.ड़ी. ड़िग्री हासिल की. उन्होंने यूरोप, आस्ट्रेलिया और एशिया के कई विश्वविद्यालयों में तीस वर्षों तक उत्तरी एशिया के इतिहास का अध्यापन किया. जुलाई 2020 मे नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर के स्कूल ऑफ हिस्टोरिकल स्टड़ीज के प्रोफ़ेसर और ड़ीन पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे आस्ट्रेलिया मे रहकर शोधकार्य में संलग्न हैं. उत्तर एशिया की संस्कृति पर हिन्दी, अंग्रेजी, कोरियाई और चीनी भाषाओं में लिखे उनके अनेक ग्रंथ तथा शोध आलेख प्रकाशित हो चुके हैं. pankajnmohan@gmail.com
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हम हिन्दी भाषी पाठकों तक इस महत्वपूर्ण और प्रासंगिक आलेख को पहुंचाने के लिए पंकज जी एवं आपके प्रति आभार।
दिलचस्प अंदाज़ में लिखा गया आलेख। यह पंकज जी से ही संभव था। उनसे इस विषय पर एक और लेख लिखने का आग्रह किया जाए। वह कोरियाई भाषा के विद्वान है।
पंकज मोहन जी ने विस्तार से बहुत अच्छा लिखा है। इसके लिए पंकज जी तथा समालोचन का आभार।
जब कोई लेखक किसी सम्मान – पुरस्कार से विभूषित हो जाता है, तब यह सहज स्वाभाविक है कि समाज का ध्यान उस रचनाकार की ओर सघनता से आकृष्ट होता है. पुरस्कारों का एक महत्व या सार्थकता तो यह है ही कि समाज इस बहाने सही उस लेखक से, उसकी कृतियों से जुड़े. फिर यदि बात नोबेल की है तो पूरे विश्व का ही ध्यान खिंचता है.
पंकज जी जिनका सुदीर्घ रचनाकर्म एशियाई भाषाओं पर केंद्रित रहा है, उन्होंने हान कांग के लेखन के महत्वपूर्ण तंतुओं से अवगत कराया. लेखिका की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति से परिचित कराया साथ ही उपन्यासों की कथावस्तु को प्रस्तुत किया. इस उल्लेखनीय साझेदारी के लिए पंकज जी का विनम्र आभार. समालोचन के प्रति भी कृतज्ञता.
Brilliant presentation
पंकज मोहन जी ने जिस आत्मीयता और हान कांग के लेखन की खूबियों को रेखांकित करते हुए यह आलेख लिखा है, उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।पिछले दो दिनों में हान कांग को लेकर जो पढ़ा था उसमें यह और बहुत कुछ मूल्यवान सा जोड़ता है।जीवन मूल्यों के साथ उनकी अन्य रचनाओं की संक्षिप्त किन्तु जीवंत जानकारी है भी यहाँ।वहाँ अध्ययन करते हुए पंकज जी ने सरकार के विरुद्ध आंदोलन में शरीक होकर हम भारतीयों का गौरव बढ़ाया।
हान कांग के लेखन को लेकर अंतराष्ट्रीय मीडिया में काफ़ी कुछ लिखा और बोला गया है. किन्तु, इनसे परिचित कराने वाला संभवत: यह पहला हिंदी में लिखा संक्षिप्त निबंध है.
बुकर पुरस्कार से नवाज़े जाने के बावजूद नोबेल पुरस्कार प्राप्त इस अल्पज्ञात लेखक से आम हिंदी पाठक लगभग अपरिचित थे.
पंकज जी को साधुवाद.
हान कांग को मिले नोबेल पुरस्कार की सार्थकता को इतने अच्छे ढंग से हम तक पहुंचाने के लिए समालोचन की जितनी भी तारीफ की जाए कम होगी. पंकज मोहन जी की गहरी समझ और प्रभावी सम्प्रेषण कला विस्मित करती है.
पंकज मोहन का लेख पूरी हिन्दी और हिन्द की ओर से हान कांग और कोरियाई भाषा का अभिनंदन है।बहुत अच्छा लेख, अनंतर्दृष्टि सम्पन्न।
हान कांग के साहित्य में दर्शन, भाव और भाषा की की संधि को यह लेख धीरे-धीरे खोलता है। एशियाई साहित्य और संस्कृति में एक खास तरह की अंतर्लय है, विश्व पटल पर उसकी उपस्थिति साहित्यिक संवेदना को बदलेगी ज़रूर। पंकज मोहन जी ने चुन चुन कर अंश उद्धृत किए हैं जिससे हिंदी का पाठक उसे गद्य की लय को पकड़ पाए जिसे नोबेल समिति ने पुरस्कार की घोषणा करते हुए रेखांकित किया है।
वाकई उज्जवल आलेख है।
आरंभिक हिस्सा तो बेहद दिलचस्प।
पंकज मोहन जी को लिखने के लिए और
समालोचन के प्रति आभार।
इस लेख में flow है और ऐसी सूचनाएँ हैं जो इस लेखिका के बारे में अँग्रेज़ी लेखों में नहीं मिलतीं।
पिछले 34 वर्षों से मैं शाकाहारी हूँ। मैं अपने-आप को वेगन नहीं कह सकता क्योंकि घर से बाहर किसी कैफ़े में जब मैं कॉफ़ी पीता हूँ तो उसमें दूध होता है। तेजी ग्रोवर — हम तभी से इकट्ठे रहते आ रहे हैं — तभी से वेगन हैं। इसके अलावा हम दोनों मनुष्यों के बरक्स मनुष्येतर जानवरों का पक्ष लेते हैं। यह चीज़ मेरी कविताओं में भी देखी जा सकती है।
तब भी जब हान कांग के उपन्यास “शाकाहारी” को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला तो उसे देखने के बाद मैंने उसे पूरा न पढ़ने का फ़ैसला किया। मुझे उसमें कुछ morbidity नज़र आयी। ऐसी रचनाओं को पढ़ना मेरे लिए कठिन होता है। मैं यह भी मानता हूँ कि morbidity रचना के कला पक्ष को कमज़ोर कर देती है। जैसे ही कोई रचना morbid में प्रवेश करती है उसका कला पक्ष कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। इसीलिए भयावहता या वीभत्सता को रचना में ले आना और तब भी उसे morbidity से बचा लेना श्रेष्ठ लेखकों का गुण होता है।
दूसरी बात यह है कि ऐसा नहीं लगता कि शाकाहार या veganism इस उपन्यास का अकेला सरोकार है। ऐसा लगता है कि इसका एक मुख्य सरोकार कोरिया के पितृसत्तात्मक तथा मुख्यतया मांसाहारी समाज में एक महिला द्वारा अपनी अस्मिता को जताना और स्थापित करना भी है।
एक ऐसा उपन्यास जिसका जंगली जानवरों पर होने वाली हिंसा एकमात्र सरोकार है वह है पोलैंड की लेखिका ओल्गा टोकॉर्कज़ुक का बढ़िया उपन्यास Drive Your Plow over the Bones of the Dead। पोलैंड की उस उपन्यासकार को भी 2018 में नोबल पुरस्कार मिला था।
तब भी, कला पक्ष से हान कांग के उपन्यास की गुणवत्ता जैसी भी हो, यह अच्छी बात है कि 2018 के बाद नोबल अकादमी ने मनुष्य द्वारा मनुष्येतर जानवरों पर की जाने वाली व्यापक हिंसा को विषय बनाकर लिखे गये साहित्य को तरजीह देना शुरू कर दिया है।
हान कांग के लेखन के साथ-साथ कोरियाई इतिहास और संस्कृति से परिचय कराने वाला यह आलेख एक ऐसी प्रस्तुति है, नोबेल पुरस्कार की घोषणा होते ही जिसकी हमें अपनी भाषा में आवश्यकता थी। आपने इतने कम समय में इसे पाठकों के लिए उपलब्ध कराया यह छोटी बात नहीं है। पंकज मोहन जी की कोरियाई व विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य की अभिरुचिपूर्ण जानकारी भी इस आलेख में झलकती है। साधु साधु।
इस लेख को पढ़ते हुए क्षण भर के लिए भी नहीं लगा कि इसे इतनी क्षिप्रता से लिखा गया होगा! लेख के रेशे-रेशे में पंकज जी का कोरियाई भाषा, समाज और राजनीतिक इतिहास से दीर्घ परिचय दिखाई देता है। एक तरह से कहें तो यही बात इस लेख को विशिष्ट बनाती है। अगर यहां वह पृष्ठभूमि न दी गई होती जिसमें लेखक ने कांग को सिचुएट किया है तो यह केवल कांग की किताबों का लेखा-जोखा बनकर रह जाता।
पंकज जी और अरुण देव, दोनों का शुक्रिया।
सुखद अनुभूति से भर दिया आलेख ने।
देश कोई भी हो महत्व, संवेदना और अनुभूति का है।
इसी अभिव्यक्ति ने हान कांग को नोबल विजेता बनाया।
समालोचन पर कोरियाई लेखिका हान कांग को उनके उपन्यास द वेजिटेरियन के लिए मिले नोबल पुरस्कार पर श्री पंकज मोहन का आलेख बहुत सुंदर बन पड़ा है। अपनी टिप्पणी में वे कांग की लेखनयात्रा और उनके संघर्ष सहित समूचे साहित्य को जिस वैश्विक परिदृश्य पर देख पाए हैं, वह सराहनीय है। इस उपन्यास को नोबल मिलने से यह बात लगभग पुष्ट हो रही है कि विश्व मानस हिंसा, अशांति और सतत भोग में रत अप संस्कृति से निवृत्त होना चाहता है। समालोचन को इस सुंदर लेख की प्रस्तुति के लिए बधाई💐
नोबेल पुरस्कार के बहाने हान कांग एवं कोरियाई साहित्य पर प्रोफेसर पंकज मोहन जी के इस सामयिक और प्रमाणिक लेख के लिए साधुवाद। हम जैसे पाठकों के लिए पंकज जी कोरियाई साहित्य से प्राथमिक परिचय के माध्यम हैं। चीनी और जापानी साहित्य पर भी वह जिस गहराई और व्यापकता से दृष्टिपात करते हैं, वह हिन्दी समाज के लिए अनुपम हैं।
आभार इस महत्वपूर्ण आलेख को हम अल्पज्ञानी पाठकों तक पहुँचाने के लिए. नोबेल विजेता हान कांग को अनेक शुभ कामनाएं. समालोचन का कार्य सराहनीय एवं अद्वितीय है. आलेख पढ़कर मन तृप्त हुआ.
रचनाकार किसी भी देश का क्यों न हो निर्णायक तो संवेदनाएं ही है ।
कोरियाई रचनाकार हान कांग पर इतनी जल्दी और सुव्यवस्थित सामग्री जुटाने के लिए पंकज जी और अरुण देव, दोनों का अभिनंदन ।
नरेश चन्द्रकर
हान कांग की पुस्तकों की अच्छी पड़ताल प्रस्तुत किया है जो सर्वथा पठनीय और विचारणीय है।
हान कांग की रचनाएं प्रभावित करती हैं।
पंकज मोहन जी और अरुणदेव जी को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाईयां।
पंकज मोहन जी के इस सुंदर और सुगठित आलेख से हमें न सिर्फ लेखिका के बचपन , उसके पारिवारिक परिवेश , वातावरण और अभिरुचियों तथा कोरियाई जनता की सामूहिक स्मृतियों का पता चलता है बल्कि हम उनके लेखन के साथ-साथ उनकी रचनात्मक विशेषताओं से भी परिचित हो पाते हैं। यह आलेख हान कांग के बारे में और भी जानने – समझने की उत्सुकता पैदा करता है । बहुत ही कम समय में लिखे गए इस आलेख के लिए पंकज जी को बहुत-बहुत बधाई और समालोचन के प्रति हार्दिक आभार जिसने इसे हम तक पहुंचाया।
Respected Pankaj ji
Really fine
I gone through your article on Han n
Pleased to read it
Congrats
It’s the beauty of analysis which is prompting to read the entire book.
Thank you Sir for not only presenting the analysis but also for writing it in such a way that the flow makes us seatbolted and connected to the subject.
बेहतरीन लिखा है पंकज जी ने। इस लेख ने उत्सुकता पैदा कर दी है उपन्यास पढ़ने के लिए।
बहुत आनंद आया। लेखिका हान कांग और उनके लेखन से अंतरंगता सी महसूस होने लगी। प्रोफेसर पंकज मोहन को इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद। इस लेख के प्रकाशन के जरिए समालोचन ने वही भूमिका निभाई है, जिसकी अपेक्षा अभी उससे की जाती है। जल्द ही कहीं से हिंदी में हान कांग की कुछ मूल सामग्री लाने का जुगाड़ किया जाए। कोई कहानी या उपन्यास अंश।
साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली लेखिका हान कांग के साहित्य और उनके व्यक्तित्व के विषय में यह आलेख बेहद सूचनाप्रद है। इस पठनीय आलेख के लिए श्री पंकज मोहन जी को बहुत धन्यवाद। हिन्दी में हान कांग पर यह संभवतः पहला विस्तृत आलेख है। समालोचन को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
बहुत साधुवाद पंकज मोहन जी को इस सुंदर आलेख के लिए.. लेखिका के साथ ही कोरियाई समाज को करीब से जानना कितना सुखद है. आपकी इस त्वरित पहल ने हिंदी जगत को समृद्ध किया है हिंदी में तरोताजा कुछ पढ़ना निश्चय ही सुखद है.
Sir, your article on Han Kang is very informative, relevant and creative in presentation. Congratulations!
हान कांन ने बचपन में जो कुछ देखा उसे अपने उपन्यास के पात्र बनाये । ऐसी छोटी छोटी सफलता से साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला ।
मैं विज्ञान का विद्यार्थी था । इसलिये फ़िज़िक्स और केमिस्ट्री में मिलने वाले नोबेल पुरस्कारों के लेखकों की उपलब्धियों को पढ़कर ख़ुश होता । फ़ेसबुक पर आने के बाद अरुण देव जी से परिचय में गहरापन आया । पहली दफ़ा विश्व पुस्तक मेले में हिसार के मनोज छाबड़ा की बोधि प्रकाशन के स्टाल मुलाक़ात हुई थी । मुझे दोस्त बना लिया ।
संयोग से लेख पढ़ा । “नयनों से नयनों को मिला’ किसी फ़िल्म का गीत है ऐसा ख़याल में आता है । विद्वानों की टिप्पणी मेरे लिये क़ीमती हैं । मुझे में लिखने का शऊर ही नहीं । जैसी बन पड़ी है उसे स्वीकार कर लीजिये प्रोफ़ेसर अरुण देव जी ।
यह भारतीय ज्ञान की सुदीर्घ परंपरा रही है। सर के द्वारा लिखा महत्वपूर्ण आलेख पठनीय है। जो हम जैसे हिंदी पाठक लाभान्वित हुए। एक छोटे से अंश में बड़ी बात कह दिया गया है।
बिहारी के दोहे की तरह। हान कांग का व्यक्तित्व,कृतित्व,परिवेश आदि महत्वपूर्ण हिस्से के बारे में यह जानकारी। ज्ञान की परंपरा को आगे बढ़ा रही है।
बहुत बहुत धन्यवाद
लेखक और समालोचना मंच
बहुत जानकारी परक आलेख। धन्यवाद।
पंकज जी मेरे jnu के ज़माने से मित्र और बौद्धिक सहचर हैं। किसी भी विषय पर अपनी प्रतिक्रिया करने के पूर्व वे कितना गहन अन्वेषण करते हैं मैं उसको पिछले चालीस वर्षों से देखता रहा हूं। वे एक विरल किस्म के विद्वान हैं जिनमें भाषा का गहन ज्ञान, भ्रमण से प्राप्त दृष्टि और परस्पर आदान प्रदान से प्राप्त तीक्ष्णता का अद्भुत संयोग मिलता है। समालोचन को उनसे और भी सहयोग प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।
कोरियाई साहित्य की इस अमूल्य धरोहर से संबंधित शोधपरक समालोचनात्मक विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर आपने हमलोगों का विशेष ज्ञानवर्धन ही किया है पंकजजी! कोरियाई साहित्य से नितांत अनभिज्ञ, किंतु विश्व-साहित्य से परिचित होने की ललक रखनेवाले ज्ञान-पिपासुओं के लिए आपने निश्चय ही एक खिड़की खोल दी है। इस स्तुत्य प्रयास के आपको साधुवाद!
स्नेह, विश्वास और आशीर्वचन के लिये के लिए आप सबों के प्रति समवेत रूप से आभार व्यक्त करता हूं। आप सब नम्र हैं, निरभिमान हैं साहित्य-धर्म मे निपुण हैं, इसलिए कोरियाई लेखिका पर ढाई-तीन घंटों में डेस्क पर बैठकर जो कुछ मैं लिख पाया, वह आपको पसन्द आया।
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।
Pankaj Mohan