• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सातवाँ आदमी: हारुकी मुराकामी: सुशांत सुप्रिय » Page 2

सातवाँ आदमी: हारुकी मुराकामी: सुशांत सुप्रिय

जापानी भाषा के ख्यात कथाकार हारुकी मुराकामी की कहानी ‘The Seventh Man’ का हिंदी अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है. यह हिंदी अनुवाद ‘फ़िलिप गैब्रिएल’ और ‘जे रूबिन’ के जापानी से अंग्रेज़ी में किए गए अनुवाद पर आधारित है. ‘The Seventh Man’ मुराकामी के कहानी संग्रह ‘Blind Willow, Sleeping Woman’ में संकलित है जिसका अंग्रेजी में प्रकाशन 2006 में हुआ था, इसमें 1981 से 2005 के बीच की लिखी कहानियां संग्रहीत हैं. हारुकी मुराकामी  बेहद पठनीय हैं और  विश्व के कुछ बहुत लोकप्रिय कथाकारों में शामिल हैं. यह कहानी उस आदमी की है जिसका प्रिय मित्र ‘क’ समुद्र किनारे दैत्याकार  लहरों में गुम हो गया था और फिर कथा- वाचक के जीवन के बेशकीमती साल उस घटना से पैदा हुए उतने ही डरावने दैत्याकार भावनाओं के ज्वार से उबरने में लगे.

by arun dev
March 15, 2018
in अनुवाद
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

मैं लगभग एक हफ़्ते तक बिस्तर पर पड़ा रहा. इस दौरान मुझे केवल द्रव वाला पथ्य ही दिया गया.  मुझे कई बार उलटी हुई और मुझे प्रलाप के दौरे पड़ते. बाद में मेरे पिता ने बताया कि मेरी हालत बहुत ख़राब थी. वे डर गए थे कि कहीं इस सदमे और तेज बुखार की वजह से मेरी तंत्रिकाएँ स्थायी रूप से क्षति-ग्रस्त न हो जाएँ. जैसे-तैसे मैं शारीरिक रूप से दोबारा ठीक हो गया. पर मेरा जीवन अब पहले जैसा नहीं रहा. इस घटना ने मुझे बुरी तरह हिला दिया.

उन्हें ‘क’ का शव कभी नहीं मिला. न ही उन्हें उसके कुत्ते की लाश ही मिली. आम तौर पर जब उस इलाक़े में डूबने से किसी की मौत हो जाती तो कुछ दिनों के बाद समुद्र-तट पर पूर्व की ओर मौजूद खाड़ी के मुहाने के पास उसका शव उतराता हुआ दिख जाता. किंतु ‘क’ का शव वहाँ कभी नहीं पहुँचा. दरअसल वे दैत्याकार लहरें उसके शव को दूर कहीं गहरे समुद्र में ले गई थीं. इतनी दूर कि वहाँ से वह शव समुद्र-तट तक नहीं लौट सकता था. ज़रूर उसकी देह डूब कर समुद्र-तल पर पहुँच गई होगी जहाँ वह मछलियों का निवाला बन गई होगी. स्थानीय मछुआरों की मदद से ‘क’ के शव की खोज बहुत समय तक चलती रही, पर अंत में सब थक-हार कर बैठ गए. शव के बिना कभी उसे विधिवत दफ़्न नहीं किया जा सका. अर्द्ध-विक्षिप्त हो गए उसके माता-पिता हर दिन समुद्र-तट पर इधर-उधर भटकते रहते. या फिर वे कई-कई दिनों तक अपने घर में बंद हो कर निरंतर बौद्ध-सूत्रों का पाठ करते रहते.

हालाँकि ‘क’ के माता-पिता के लिए उसकी मृत्यु एक असहनीय आघात थी, उन्होंने कभी मुझे इस बात के लिए नहीं डाँटा कि मैं उनके बेटे को समुद्री-तूफ़ान के बीच में समुद्र-तट पर क्यों ले गया था. वे जानते थे कि मैं हमेशा ‘क’ को मुसीबतों से बचाता था, और उससे इतना प्यार करता था जैसे वह मेरा सगा छोटा भाई हो. लेकिन मुझे तो सच्चाई पता थी. मैं जानता था कि यदि मैं कोशिश करता तो उसे बचा सकता था. सम्भवत: मैं दौड़ कर उसे पकड़ सकता था और घसीट कर उसे उस दैत्याकार लहर के चंगुल से दूर किनारे पर सुरक्षित ला सकता था. हालाँकि यह काफ़ी नज़दीकी मामला होता, लेकिन मैं जब उस पूरे घटना-क्रम की समयावधि को स्मृति में दोहराता तो मैं हमेशा इसी नतीजे पर पहुँचता कि मैं ‘क’ को बचा सकता था. जैसा मैंने पहले भी कहा था, बहुत ज़्यादा डर जाने के कारण मैंने उसे मरने के लिए वहीं छोड़ दिया और केवल ख़ुद को बचाने पर ही पूरा ध्यान दिया. मुझे इस बात से और भी दुख पहुँचता कि ‘क’ के माता-पिता ने मुझे दोषी नहीं ठहराया था. बाक़ी लोगों ने भी सावधानी बरतते हुए कभी भी मुझसे इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि उस दिन समुद्र-तट पर क्या हुआ था. इस भावनात्मक आघात से उबरने में मुझे बरसों लग गए. कई हफ़्तों तक मैं स्कूल भी नहीं जा पाया. इस दौरान मैं बहुत कम खाता-पीता था, और सारा दिन बिस्तर पर पड़े हुए छत को घूरता रहता था.

‘क’ की वह अंतिम छवि मेरे मन-मस्तिष्क में सदा के लिए अंकित हो गई — उस दैत्याकार लहर की जिह्वा के आगे के हिस्से पर लेटा, मेरी ओर देख कर मुस्कुराता और मेरी दिशा में अपने दोनों हाथ फैला कर इशारा करता ‘क’. मैं ज़हन पर दाग दी गई उस छवि से कभी मुक्त नहीं हो पाया. और बड़ी मुश्किल से जब मुझे नींद आती तो वह छवि सपनों में भी मुझे पीड़ित करती. बल्कि मेरे सपनों में ‘क’ उस दैत्याकार लहर से कूद कर मेरी कलाई पकड़ लेता ताकि वह मुझे घसीट कर अपने साथ वापस उस लहर में ले जा सके.

और फिर एक और सपना आया. मैं समुद्र में तैर रहा हूँ. वह ग्रीष्म ऋतु का एक सुंदर दिन है और तट से दूर मैं आसानी से तैर रहा हूँ. मेरी पीठ पर धूप पड़ रही है, और मुझे पानी में तैरने में मज़ा आ रहा है. तभी अचानक पानी में कोई मेरा दायाँ पैर पकड़ लेता है. मुझे अपने टखने पर एक बर्फ़ीली जकड़ महसूस होती है. वह जकड़ इतनी मज़बूत होती है कि मैं उससे  नहीं छूट पाता हूँ . अब कोई मुझे पानी में नीचे घसीट कर लिए जा रहा है. और वहाँ मुझे ‘क’ का चेहरा दिखाई देता है. उसके चेहरे पर वही चौड़ी मुस्कान है और वह मुझे घूर रहा है. मैं चीख़ना चाहता हूँ पर मेरे गले से कोई आवाज़ नहीं निकल रही. घबराहट में मैं ढेर-सा पानी निगलने लगता हूँ जिससे मेरे फेफड़ों में समुद्र का पानी भरने लगता है. ठीक इसी समय मेरी नींद खुल जाती है. अँधेरें में मैं पसीने से लथपथ हूँ और मेरी साँस चढ़ी हुई है. डर के मारे मैं चीख़ रहा हूँ.

आख़िर साल के अंत के समय मैंने अपने माता-पिता से गुहार लगाई कि वे मुझे किसी दूसरे शहर में जा कर बसने की इजाज़त दें. मैं लगातार उस समुद्र-तट को देखते हुए नहीं जी सकता था जहाँ वह दैत्याकार लहर ‘क’ को लील गई थी. मेरे दु:स्वप्न रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. यदि मैं वहाँ से कहीं और नहीं जाता तो मेरे दु:स्वप्न मुझे पागल बना देते. मेरे माता-पिता मेरी स्थिति को समझ गए और मेरा कहीं और रहने का बंदोबस्त कर दिया. जनवरी में मैं कोमोरो इलाक़े के नगाना शहर के पास स्थित एक पहाड़ी गाँव में अपने पिता के परिवार के पास रहने के लिए चला आया. मैंने प्राथमिक स्कूल की अपनी शिक्षा नगानो में ही पूरी की. मैं अपने माता-पिता के पास वापस कभी नहीं गया, छुट्टियों में भी नहीं. बल्कि अक्सर मेरे माता-पित ही मुझसे मिलने मेरे पास चले आते.

आज भी मैं नगानो में ही रहता हूँ. मैंने नगानो शहर के एक शिक्षण संस्थान से ही अभियान्त्रिकी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की. मैं इसी इलाक़े में सूक्ष्म औज़ार और उपकरण बनाने के एक कारख़ाने में काम करने लगा. आज भी मैं यहीं नौकरी करता हूँ. जैसा कि आप देख सकते हैं, मेरे जीवन में कुछ भी असामान्य नहीं. हालाँकि मैं ज़्यादा लोगों से नहीं घुलता-मिलता हूँ, लेकिन मेरे भी कुछ मित्र हैं जिनके साथ मैं घूमने के लिए पहाड़ पर जाता हूँ. जब मैं अपने बचपन के शहर से दूर चला गया तो मुझे निरंतर आने वाले दु:स्वप्न बेहद कम हो गए, हालाँकि वे मेरे जीवन का हिस्सा बने रहे. अब ये दु:स्वप्न मुझे यदा-कदा ही आते, जैसे वे दरवाज़े पर खड़े कारिंदे हों. जब मैं उस त्रासद घटना को लगभग भूलने लगता, तभी यह दु:स्वप्न मुझे फिर से उस घटना की याद दिला जाता. और हर बार वही सपना होता, अपने एक-एक ब्योरे में बिल्कुल पहले जैसा. और पसीने से लथपथ मैं उसी तरह चीख़ता हुआ नींद से जग जाता.

शायद इसी वजह से मैंने कभी शादी नहीं की. मैं अपने बगल में सोने वाली किसी युवती को बीच रात में अपनी चीख़ों की वजह से जगा कर परेशान नहीं करना चाहता था. इन बरसों के दौरान मुझे कई युवतियों से प्यार हुआ, किंतु मैंने कभी उनमें से किसी के साथ भी रात नहीं बिताई. उस घटना से उपजा भय तो मेरी हड्डियों में बस गया था. यह एक ऐसी बात थी जिसे मैं कभी किसी से साँझा नहीं कर सका.

मैं चालीस बरस से ज़्यादा समय तक अपने बचपन के शहर से दूर रहा. मैं उस या अन्य किसी भी समुद्र-तट पर फिर कभी नहीं गय. मैं डरता था कि यदि मैंने ऐसा किया तो मेरा दु:स्वप्न कहीं हक़ीक़त में न बदल जाए. तैराकी मुझे हमेशा से अच्छी लगती थी लेकिन बचपन की उस घटना के बाद मैं कभी किसी तरण-ताल में भी नहीं गया. नदियों और गहरी झीलों में जाने का सवाल ही नहीं उठता था. मैं नाव पर चढ़ने से भी कतराता था. यहाँ तक कि मैंने विदेश जाने के लिए कोई विमान-यात्रा भी नहीं की. सभी तरह के बचाव करने के बाद भी मैं दु:स्वप्न में आते अपने डूबने की छवि से मुक्त नहीं हो पाया . ‘क’ के ठंडे हाथों की तरह ही इस भयावह पूर्वाभास ने मेरे ज़हन को जकड़ लिया और छोड़ने से इंकार कर दिया.

फिर पिछली वसंत ऋतु में मैं अंतत: उस समुद्र-तट पर दोबारा गया जहाँ बरसों पहले दैत्याकार लहर ने ‘क’ को मुझसे छीन लिया था.

एक साल पहले कैंसर की वजह से मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी और मेरे भाई ने हमारा वह पुश्तैनी घर बेच दिया था. कुछ बंद संदूकों को खोलने पर उसे मेरे बचपन की कई चीज़ें मिली थीं, जिन्हें उसने मेरे पास नगानो भेज दिया था. अधिकांश चीज़ें तो बेकार का कबाड़ थीं, लेकिन उसमें ख़ूबसूरत चित्रों का एक गट्ठर भी था जिन्हें ‘क’ ने बनाया था और मुझे तोहफ़े में दिया था. शायद मेरे माता-पिता ने उसे ‘क’ की निशानी के रूप में मेरे लिए सँजो कर रखा. किंतु उन चित्रों ने मेरे पुराने भय को पुन: जीवित कर दिया. उन चित्रों को देखकर मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे ‘क’ की आत्मा मुझे सताने के लिए लौट आएगी. इसलिए मैंने उन तसवीरों को दोबारा बाँध कर रख दिया. मेरा इरादा उन्हें कहीं फेंक देने का था. हालाँकि, मैं ऐसा नहीं कर सका. कई दिनों तक अनिश्चितता के भँवर में उतराते रहने के बाद मैंने उन तसवीरों को दोबारा खोलकर उन्हें ध्यान से देखने का मन बनाया.

उन में से अधिकांश तस्वीरें तो जाने-पहचाने भू-दृश्यों की थीं. इनमें समुद्र-तट और देवदार के जंगल भी थे. सभी तस्वीरें स्पष्टता से एक विशिष्ट रंग-चयन को दर्शाती थीं , जो ‘क’ की चित्रकारी की ख़ासियत थी. बरसों बीत जाने के बाद भी उनका चटख रंग बरक़रार था और उन्हें बेहद बारीकी और कुशलता से बनाया गया था. जैसे-जैसे मैं ये तस्वीरें पलटता गया , ‘क’ की स्निग्ध यादों ने मुझे घेर लिया. ऐसा लग रहा था जैसे ‘क’ अब भी अपनी तस्वीरों में मौजूद था और अपनी स्नेहिल आँखों से दुनिया को देख रहा था. जो चीज़ें हम साथ-साथ करते थे, जिन जगहों पर हम साथ-साथ घूमते थे — ये सारे पल बड़ी शिद्दत से मुझे दोबारा याद आने लगा. और मैं समझ गया कि मैं भी दुनिया को वैसी ही स्नेहिल आँखों से देखता था जैसी मेरे मित्र ‘क’ के पास थीं.

अब मैं हर रोज़ काम के बाद शाम को घर लौटने पर ‘क’ की एक तस्वीर का अपनी मेज पर ध्यान से अध्ययन करता. मैं उस की बनाई किसी तस्वीर को देखते हुए घंटों बैठा रहता. उन में से हर तस्वीर में मुझे अपने बचपन के वे सुंदर भू-दृश्य दिखाई देते थे जिन्हें अब मैं भूल चुका था. ‘क’ की बनाई उन तस्वीरों को देखते हुए मुझे ऐसा अहसास होने लगा था जैसे कोई जानी-पहचानी चीज़ मेरी धमनियों और शिराओं में घुलती जा रही है.

शायद एक हफ़्ता ऐसे ही निकल गया होगा जब एक शाम अचानक मेरे ज़हन में यह विचार कौंधा कि कहीं इतने बरसों में मैं एक बहुत बड़ी ग़लती तो नहीं कर रहा था . जब ‘क’ उस दैत्याकार लहर की जिह्वा पर लेटा था, तो वह निश्चित ही घृणा या क्रोध से मुझे नहीं देख रहा था. वह मुझे अपने साथ घसीट कर नहीं ले जाना चाहता था. और मुझे घूरते हुए उसने जो चौड़ी मुस्कान दी थी, वह भी सम्भवत: प्रकाश और छाया के किसी कोण का नतीजा थी. यानी ‘क’ जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहा था. तब तक तो शायद वह बेहोश हो चुका था, या यह भी सम्भव है कि वह हमारी चिरकालिक जुदाई की वजह से मुझे एक उदास मुस्कान दे रहा था. मैंने उसकी आँखों में जिस गहरी घृणा की कल्पना की थी, वह ज़रूर उस अथाह भय का नतीजा थी जिसने उस पल मुझे जकड़ लिया था.

उस शाम मैंने जितना ज़्यादा ‘क’ के चित्रों का अध्ययन किया, उतने ही अधिक विश्वास से मैं अपनी नई सोच में यक़ीन करने लगा. ऐसा इसलिए था क्योंकि ‘क’ के चित्रों को देर तक देखते रहने के बाद भी मुझे उनमें केवल एक बच्चे की कोमल और मासूम आत्मा ही नज़र आई.

मैं बहुत देर तक बैठ कर मेज पर पड़े ‘क’ के चित्रों को उलटता-पलटता रहा. मैं और कुछ नहीं कर सका. बाहर सूर्यास्त हो गया और शाम का फीका अँधेरा कमरे में भरने लगा. उसके बाद रात का गहरा सन्नाटा आया, जैसे वह सदा के लिए हो. पर आख़िर रात बीत गई और पौ फटने लगी. नए दिन के सूर्योदय ने आकाश को गुलाबी रंग में रंग दिया और चिड़ियाँ जग कर गीत गाने लगीं.

तब मैं जान गया कि मुझे ज़रूर वापस जाना चाहिए.

मैंने एक थैले में अपनी कुछ चीज़ें डालीं, अपने दफ़्तर को अपनी अनुपस्थिति के बारे में सूचित किया , और अपने बचपन के शहर जाने वाली रेलगाड़ी में जा बैठा.

वहाँ पहुँचने पर मुझे अपनी स्मृति में मौजूद समुद्र-तट पर बसा शांत शहर नहीं मिला. साठ के दशक के तेज विकास के दौरान पास में ही एक औद्योगिक शहर बस गया था, जिससे पूरे इलाक़े में बहुत से बदलाव आ गए थे. उपहार का सामान बेचने वाली एक छोटी-सी दुकान अब एक बड़े मॉल में परिवर्तित हो चुकी थी. शहर का एकमात्र सिनेमा-घर अब एक बड़े बाज़ार में बदल चुका था. मेरे मकान का अस्तित्व समाप्त हो चुका था. कुछ माह पहले उसे ध्वस्त कर दिया गया था, और अब वहाँ नाम-मात्र के अवशेष रह गए थे. अहाते में उगे सारे पेड़ काट दिए गए थे और अब वहाँ झाड़-झंखाड़ ही बचे थे. ‘क’ का पुराना मकान भी अपना अस्तित्व खो चुका था और अब वहाँ कारें रखने की जगह बना दी गई थी. ऐसा नहीं है कि मैं बेहद भावुक हो गया था. यह शहर तो बरसों पहले से मेरा नहीं रहा था.

Page 2 of 3
Prev123Next
Tags: सुशांत सुप्रियहारुकी मुराकामी
ShareTweetSend
Previous Post

सबद भेद : प्रतिरोध और साहित्य : कात्यायनी

Next Post

लल्द्यद के ललवाख : अग्निशेखर

Related Posts

शिनागावा बन्दर की स्वीकारोक्तियाँ : हारुकी मुराकामी : अनुवाद : श्रीविलास सिंह
अनुवाद

शिनागावा बन्दर की स्वीकारोक्तियाँ : हारुकी मुराकामी : अनुवाद : श्रीविलास सिंह

शिनागावा बन्दर : हारुकी मुराकामी : श्रीविलास सिंह
अनुवाद

शिनागावा बन्दर : हारुकी मुराकामी : श्रीविलास सिंह

मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
अनुवाद

मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक