मैं चल कर समुद्र-तट पर पहुँचा. फिर मैं पत्थरों की दीवार पर जा चढ़ा. हमेशा की तरह दूसरी ओर विशाल अबाधित समुद्र दूर तक फैला था जहाँ क्षितिज एक अटूट सीधी रेखा था. समुद्र-तट भी पहले जैसा ही था — ढेर-सी रेत , छोटी-बड़ी लहरें, और पानी के किनारे टहलते हुए बहुत-से लोग. दोपहर बाद के चार बज रहे थे, और पश्चिमी क्षितिज की ओर बढ़ते ध्यानस्थ सूर्य की कोमल रोशनी उस ढलती दुपहरी में जैसे सब को गले लगा रही थी. मैंने अपना थैला रेत पर रखा और उस शांत परिदृश्य को सराहते हुए वहीं बगल में बैठ गया. इस शांत भू-दृश्य को देखते हुए यह कल्पना करना कठिन था कि कभी यहाँ एक भयावह समुद्री-तूफ़ान आया था, कि एक दैत्याकार लहर यहीं मेरे प्रिय मित्र ‘क’ को निगल गई थी. निश्चित ही उस त्रासद घटना को याद रखने वाला कोई और नहीं बचा था. ऐसा लगने लगा जैसे यह सारी घटना भ्रामक थी जिसे मैंने अपने सपने में विस्तार से देखा था.
और तब मैंने महसूस किया कि इस घटना से जुड़ी मेरे भीतर मौजूद सारी नकारात्मक कालिमा जैसे सदा के लिए ग़ायब हो गई थी. यह अचानक हुआ था. वह नकारात्मकता जैसे अचानक आई थी, वैसे ही अचानक चली गई थी. मैं रेत पर से उठ खड़ा हुआ. बिना अपने जूते उतारे या नीचे से अपनी पतलून मोड़े, मैं फेन भरे पानी में चला गया ताकि लहरें मेरे टखनों को धो सकें. ऐसा लगा जैसे मेरे बचपन में समुद्र-तट पर आने वाली लहरें ही अब मेल-मिलाप के माहौल में मेरे पैरों, जूतों और पतलून के निचले हिस्से को स्नेह से भिगो रही थीं. एक लहर धीमी गति से आती, फिर एक लम्बा विराम होता, जिसके बाद एक और लहर उसी धीमी गति से आती. बगल से गुज़रते लोग मुझे मुझे अजीब निगाहों से देख रहे थे, पर मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा. आख़िरकार मेरे मन को दोबारा शांति मिल गई थी.
मैंने ऊपर आकाश की ओर देखा. कपास के टुकड़ों जैसे कुछ सफ़ेद बादल वहाँ बिना-हिले-डुले लटके हुए थे. मुझे ऐसा लगा जैसे वे मेरे लिए ही वहाँ पड़े हुए थे, हालाँकि मैं यह नहीं जानता कि मुझे ऐसा क्यों लगा. मुझे वह घटना याद आई जब बरसों पहले मैंने इसी तरह अपनी आँखें ऊपर उठा कर आकाश में उस भयावह समुद्री-तूफ़ान के केंद्र को ढूँढ़ना चाहा था . और तब जैसे मेरे भीतर समय का अक्ष तेज़ी से हिल उठा. चालीस लम्बे साल किसी खंडहर हो चुकी इमारत-से नष्ट हो गए. ऐसा लगा जैसे अतीत और वर्तमान आपस में गुथकर गड्ड-मड्ड हो गए. सभी आवाज़ें मंद पड़ गईं और मेरे चारो ओर मौजूद रोशनी जैसे थरथराई. मैं अपना संतुलन खो बैठा और लहरों में गिर गया. मेरे दिल की धड़कन धौंकनी-सी चल रही थी, पर मेरे हाथ-पैरों में कोई अनुभूति नहीं रही. मैं बहुत देर तक औंधे मुँह लहरों में गिरा पड़ा रहा और नहीं उठ पाया . लेकिन मैं भयभीत नहीं था. नहीं, बिलकुल नहीं. अब मैं किसी चीज़ से नहीं डर रहा था. वह समय अब जा चुका था.
अब मुझे वे दु:स्वप्न आने बंद हो गए हैं. अब मैं बीच रात में चीख़ते हुए नहीं उठता हूँ. और अब मैं बिना किसी भय के अपना जीवन नए सिरे से दोबारा जीने का प्रयास कर रहा हूँ. नहीं , मैं जानता हूँ कि शायद अब नए सिरे से दोबारा जीवन जीने के लिए बहुत देर हो चुकी है. शायद अब मेरे जीने के लिए ज़्यादा बरस भी नहीं बचे हों. देर से ही सही, पर मैं कृतज्ञ हूँ कि अंत में मैं अपने भय से मुक्त हो सका, दोबारा सँभल सका. हाँ, मैं कृतज्ञ हूँ : यह भी हो सकता था कि बिना भय-मुक्ति के ही मेरे जीवन का अंत हो जाता और अन्धकारमय भय की कुंडली में मैं चीख़ता-चिल्लाता रह जाता.
इतना कह कर सातवाँ आदमी चुप हो गया और बारी-बारी से उसने हम सब की ओर देखा. हम सब बिना हिला-डुले, बिना कुछ बोले बैठे रहे, जैसे हम सब साँस लेना भी भूल गए हों. हम सब कहानी के पूरे होने की प्रतीक्षा में बैठे थे. बाहर हवा थम गई थी और कहीं कुछ भी हिल-डुल नहीं रहा था. सातवाँ आदमी दोबारा अपने हाथ को अपनी क़मीज़ के कॉलर तक ले गया जैसे वह बोलने के लिए शब्द ढूँढ़ रहा हो.
फिर उसकी आवाज़ हवा में गूँज उठी — “वे कहते हैं कि आपको केवल अपने भय से डरना चाहिए , लेकिन मैं यह नहीं मानता.” एक पल रुक कर वह फिर बोला – “डर तो लगता ही है. वह अलग-अलग समय पर कई रूपों में हम पर हावी हो जाता है. लेकिन ऐसे समय में जो सबसे डरावनी बात हम कर सकते हैं वह यह है कि हम अपनी आँखें मूँद लें या उसे पीठ दिखा कर भाग खड़े हों. तब हम अपने भीतर की सबसे कीमती चीज़ को ‘कुछ और’ के हवाले कर देते हैं. मेरे मामले में ‘कुछ और ‘वह दैत्याकार लहर थी.”
( Sougwen Chung, is a Canadian-born, Chinese-raised artist)
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सुशांत सुप्रिय
कथाकार, कवि, अनुवादक
A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम,
ग़ाज़ियाबाद – 201010
8512070086/ई-मेल : sushant1968@gmail.com