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Home » हार्ट लैंप : सरिता शर्मा

हार्ट लैंप : सरिता शर्मा

पुरस्कारों की प्रतिष्ठा चयन में निहित होती है. कहना न होगा कि इसी बहाने कृति प्रकाश में आ जाती है. दूसरी भाषाओं में अनूदित होकर लेखक कुछ और पाठक प्राप्त कर लेता है. रचनाकार के श्रम और उसकी विशेषज्ञता की क्षतिपूर्ति राशि से नहीं की जा सकती. कन्नड़ लेखिका बानू मुश्ताक की दीपा भास्ती द्वारा अंग्रेजी में अनूदित कहानियाँ के संग्रह ‘हार्ट लैंप’ को 2025 का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है. सरिता शर्मा ने इस संग्रह की कहानियों की विवेचना करते हुए उन्हें स्त्री अधिकारों की आवाज़ कहा है. समीक्षा प्रस्तुत है.

by arun dev
June 2, 2025
in समीक्षा
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हार्ट लैंप : सरिता शर्मा
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हार्ट लैंप
स्त्री अधिकारों की आवाज़
________________________

सरिता शर्मा

रूमी ने कहा है- “तुम्हें मुझसे दूर भाग जाना चाहिए, मेरे शब्द आग हैं.” बानू मुश्ताक के बारह कहानियों के संकलन ‘हार्ट लैंप’ को पढ़ते हुए पाठक बार-बार नारी पात्रों के प्रति संवेदना महसूस करते हुए विचलित हो जाता है. इस पुस्तक का कन्नड़ से अंग्रेज़ी अनुवाद दीपा भास्ती ने किया है और इस पुस्तक ने 2025 का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता है. इससे पूर्व 2022 में, डेज़ी रॉकवेल द्वारा हिंदी से अनुवादित गीतांजलि श्री की टॉम्ब ऑफ सैंड ने यह प्रतिष्ठित पुरस्कार जीता था. यह पुस्तक लैंगिक असमानता, धार्मिक रूढ़िवादिता और पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाओं के लचीलेपन जैसे विषयों को उठाया गया है.

इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष और चर्चित लेखक मैक्स पोर्टर ने इस संग्रह की प्रशंसा करते हुए कहा,

“यह संग्रह जीवन से भरपूर, गहराई से राजनीतिक और गहन रूप से मानवीय है. इसकी कहानियाँ प्रजनन अधिकारों, जातिगत अन्याय और आत्मा की पीड़ा जैसे विषयों से मुठभेड़ करती हैं, लेकिन किसी भी क्षण अपने साहित्यिक सौंदर्य से समझौता नहीं करतीं.”

बानू मुश्ताक के शब्दों में,

“मेरी कहानियाँ उन महिलाओं की हैं जो इतिहास की किताबों में नहीं मिलतीं. वे घरों की दीवारों के पीछे, गली-कूचों में, छोटे-छोटे संघर्षों में जूझती हैं. वे चुप होती हैं, लेकिन उनकी चुप्पी भी एक भाषा है- जिसे मैंने सुना और लिखा.”

लगभग हर कहानी प्रजनन अधिकारों की भी जोरदार वकालत करती है. अर्ध-शिक्षित पुरुषों से लेकर बेकार के बदमाशों तक, उनकी पत्नियाँ जानती हैं कि अगर वे सर्जरी करवा लें तो उनका जीवन कितना बेहतर हो सकता है. पुरुष गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के सख्त खिलाफ हैं इसलिए महिलाएं ऑपरेशन करना चाहती हैं. फिर भी, पुरुष इस प्रक्रिया को हतोत्साहित करते हैं, ताकि उनकी मर्दानगी पर सवाल न उठे. वे बार-बार अपनी पत्नियों को याद दिलाते हैं कि जब तक पिता उसका भरण-पोषण करने में सक्षम है, तब तक एक नए बच्चे का स्वागत है.

“दी स्टोन स्लैब्स फॉर शाइस्ता महल” (शाइस्ता महल के लिए पत्थर की पट्टियाँ) कहानी इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कैसे महिलाओं से लगातार बच्चे पैदा करने की उम्मीद की जाती है, उनके स्वास्थ्य या इच्छाओं के बारे में बहुत कम ध्यान दिया जाता है. यह शाइस्ता नाम की महिला और उसके पति इफ़्तिख़ार के बारे में है. यह कहानी ज़ीनत की नज़र से कही गई है, जिसका पति मुजाहिद, इफ़्तिख़ार का दोस्त है.

“चाहे कोई किसी भी धर्म का हो, यह स्वीकार किया जाता है कि पत्नी पति की सबसे आज्ञाकारी नौकरानी, उसकी बंधुआ मज़दूर होती है.”

वह औरतों के बारे में यह भी याद करती है-

“हाँ, मेरी दादी कहा करती थीं कि जब पत्नी मरती है, तो यह पति के लिए कोहनी की चोट की तरह होता है. क्या तुम जानती हो ज़ीनत, अगर कोहनी में चोट लगती है, तो एक पल के लिए बहुत ज़्यादा दर्द होता है- यह असहनीय होता है. लेकिन यह सिर्फ़ कुछ सेकंड तक रहता है, और उसके बाद कुछ भी महसूस नहीं होता. कोई घाव नहीं, कोई खून नहीं, कोई निशान नहीं, कोई दर्द नहीं…”

जो पूर्वाभास लगता है.

इफ़्तिख़ार, शाइस्ता से बेहद मुहब्बत का दिखावा करता है, ऐसा मालूम होता है कि शाइस्ता के बिना इफ़्तिख़ार जी ही नहीं सकता.

“अगर मैं कोई सम्राट होता, तो मैं महल बनवाता जिसके सामने ताज महल भी शर्मिंदा हो जाता और इसे शाइस्ता महल कहता.”

मुजाहिद उसे टोकता है,

“रुक जाओ. इफ्तिकार तुम्हें नहीं पता कि तुम गलती कर रहे हो. सम्राट ने ताज महल अपनी मृतक पत्नी की कब्र के रूप में बनाया था. अल्लाह शाइस्ता भाभी को लम्बी उम्र दे. वह तुम्हारे सामने बैठी है, और तुम शाइस्ता महल बनवाने की बात कर रहे हो.”

यह कहानी ताज महल पर भी व्यंग्य करती है. मुमताज महल की मृत्यु चौदहवें बच्चे को जन्म देने के दौरान हुई थी. शाइस्ता भी सातवें बच्चे के जन्म के पंद्रह दिन बाद ही भागदौड़ करने लग जाती है जबकि जीनत याद करती है कि उसके परिवार में माँ किस तरह बहुओं को बच्चे के जन्म के चालीस दिन तक सिर्फ आराम करने दिया करती थी.

“जन्म देने के चालीस दिन तक नवजात बच्चे और जच्चा के लिए चालीस कब्रों के मुँह खुले हुए होते हैं. हर गुजरते दिन के साथ एक-एक कब्र का मुँह बंद होता जाता है.”

शाइस्ता की मृत्यु के ठीक चालीस दिन बाद इफ्तिकार अचानक पुनर्विवाह कर लेता है. मुजाहिद उसे कहता है,

“इफ्तिकार भाई, तुम जो चाहो, वह करो कोई बात नहीं. लेकिन उसके सामने ऐसे प्रेम का इज़हार मत करना जैसा शाइस्ता के साथ करते थे.”

परिवार में सबसे बड़ी लड़की अक्सर सहारा होती है. छोटी लड़कियों की मदद करने वाली बड़ी लड़की अपनी पढ़ाई छोड़ देती है.

‘दी स्टोन स्लैब्स फॉर शाइस्ता महल’ में, आसिफा अपनी माँ के लिए छोटे बच्चों की देखभाल करती है –

“वह मेरे लिए बेटी से ज़्यादा माँ है”, शाइस्ता कहती है. मार्मिक कहानी ‘हार्ट लैंप’ (दिल का दीया) में, सलमा बच्चे के रोने की आवाज़ सुन कर जाग जाती है और बाहर भागती है और अपनी माँ को केरोसिन का डिब्बा और माचिस का पैकेट लिए हुए अहाते में पाती है. मेहरुन बाद में कहती है कि यह सलमा का स्पर्श था जिसने उसे होश में लाया, जैसे कि उसे किसी दोस्त द्वारा सांत्वना, स्पर्श और प्यार दिया जा रहा हो.

‘हार्ट लैंप’ में, इस बात पर गहराई से विचार किया गया है कि कैसे सम्मान और पारिवारिक अपेक्षाओं की अवधारणाएँ महिलाओं पर असंगत रूप से बोझ डालती हैं. मेहरुन एक अपमानजनक विवाह से शरण मांगती है, लेकिन उसके परिवार द्वारा उसे उनके सम्मान को कलंकित करने के लिए अपमानित किया जाता है. वह मायके में आ कर बताती है कि उसने पति की फैशन करने की बात नहीं मानी,

“आपने मुझमें अल्लाह का डर भर दिया. मैंने वह नहीं किया जो वह चाहता था. इसलिए उसने ऐसी औरत से शादी कर ली जो उसके इशारों पर नाचती है. और अब आप मुझे कहते हैं कि उसने मुझे छोड़ा तो मैं आप पर बोझ बन जाउंगी.”

उसका भाई कहता है,

“जो मरना चाहते हैं, वे इसके बारे में बात करते नहीं फिरते. लेकिन अगर तुम्हें इस परिवार की इज्ज़त की कोई चिंता होती तो तुम यहाँ आने के बजाय ऐसा ही करती. जिस घर में तुम्हारी डोली जाती है, उसी घर से तुम्हारी अर्थी निकलती. यही एक सभ्य महिला का जीवन है.”

उसका भाई उसे वापस पति के घर छोड़ आता है. जिस तरीक़े से यह सब हो रहा होता है, वह मेहरून को अंदर से तोड़ देता है. वह बहुत कुछ सह चुकी है और

“मेहरुन के दिल का दीया बहुत पहले ही बुझ चुका था.” उसके पास कोई विकल्प नहीं बचता, उसे अपने बिना प्रेम के जीवन को स्वीकार करना पड़ता है. कहानी मुश्ताक के अपने जीवन की एक घटना को दर्शाती है जब, शादी, मातृत्व और घरेलू जीवन से जूझते हुए, उसने खुद को केरोसिन में डुबो लिया. मेहरून के बच्चे हस्तक्षेप करते हैं, उसे याद दिलाते हैं कि उसे प्यार किया जाता है और समझा जाता है. यह एक बेटी के अपनी माँ के प्रति प्रेम और उनके बीच गहरे, अटूट बंधन के बारे में एक मार्मिक कहानी भी है. अंतिम दृश्य विशेष रूप से मार्मिक है.

“फायर रेन” (आग की बारिश} में, एक मुतवल्ली अपनी बहन को उसकी सही विरासत से वंचित करता है, अपने कार्यों को सही ठहराने के लिए धार्मिक सिद्धांतों में हेरफेर करता है. इस प्रकार महिलाओं के अधिकारों को दबाने के लिए धार्मिक अधिकार के दुरुपयोग किया जाता है. लोगों का ध्यान भटकाने के लिए गलत आदमी की लाश को दफना दिया जाता है और कोई भी यह सच नहीं बताता है. जब उनके बेटे को दिमागी बुखार होता है तो उसकी बीवी कहती है कि किसी का हक़ मारने से कभी भला नहीं होगा, “हक़दार तरसे, तो अंगार का मुँह बरसे.”

महिलाएँ प्रतिद्वंद्वी भी हो सकती हैं और कभी-कभी अपने कार्यों के कारण अन्य महिलाओं को पीड़ित होने देती हैं. कभी-कभी पुरुषों को भी दुख सहना पड़ता है; “ए डिसीजन ऑफ द हार्ट” (दिल का फैसला) में यूसुफ अपनी विधवा माँ और झगड़ालू पत्नी के बीच फंसा हुआ है. यूसुफ की पत्नी अलग रहने वाली सास से इतनी ईर्ष्या करती है कि जब भी उसका पति माँ से मिलने जाता है वह गाली गलौज पर उतर आती है. यूसुफ अपनी माँ को बिना बताए उनकी दोबारा शादी करने का जीवन बदलने वाला निर्णय लेता है. महिला के पास अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. वह अपनी पत्नी को ताना मारता है.

“अल्लाह करे कि तुम्हारे बच्चे तुम्हारी शादी का इंतजाम करें” उसने धीरे से कहा और अपनी जिंदगी भर की कटुता को उगल दिया.

“ब्लैक कोबरा” (काला कोबरा) में यह बताता गया है कि कैसे पुरुष, अवसरवादी मौलवियों की सहायता से, सुविधा के लिए धार्मिक कानून में हेरफेर करते हैं, महिलाओं को आस्था के नाम पर हाशिये पर धकेलते हैं. अशरफ, जिसे उसके पति ने तीन बेटियाँ देने के बाद छोड़ दिया है और उसके पास अपने बीमार बच्चे के लिए दवाइयाँ खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं, तो वह स्थानीय मस्जिदों के संरक्षक मुतवल्ली के पास जाती है. वह अपने पति से कम से कम दवाइयाँ मंगवाने के लिए भीख माँगती है, लेकिन कोई फायदा नहीं होता. अशरफ की मालकिन जुलेखा बेगम इस्लाम की सही व्याख्या करती है,

“उन्हें लड़कियों को मदरसे में नहीं बल्कि स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाना चाहिए. उनका पति चुनने का अधिकार होता है. इन लड़कियों को मेहर देकर शादी नहीं करनी चाहिए. दहेज की तलछट को चाटते रहने की बजाय लड़की को मायके वालों से संपत्ति में उसका हिस्सा मिलना चाहिए.”

अशरफ अपने बीमार बच्चे को गोद में लेकर मस्जिद में बैठ जाती है और बाकी दो बच्चे उसके साथ होते हैं, जबकि दूसरी महिलाएँ उसे अपने घरों की चारदीवारी से झाँक कर देखती हैं और उसका दर्द महसूस करती हैं. लेकिन जब त्रासदी होती है, और अशरफ अपने बच्चे को खो देती है, तो महिलाएँ सामूहिक गुस्से में एकजुट हो जाती हैं और मुतवल्ली को त्रासदी में भूमिका निभाने के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं, जिसने एक उच्च कद के व्यक्ति को कुछ नहीं बनने दिया. जब वह सड़क पर चल रहा होता है, तो एक महिला उसकी ओर पत्थर फेंकती है, यह दिखावा करते हुए कि वह एक कुत्ता है, और चिल्लाती है, “कुत्ता, बस कुत्ता!” एक और महिला दूर से चिल्लाती है:

“तुम्हारे लिए कुछ भी अच्छा नहीं होगा…काले कोबरा तुम्हारे चारों ओर कुंडली मार लें.”

“रेड लुंगी” (लाल लुंगी) में जब एक महिला को गर्मियों की छुट्टियों के दौरान 18 बच्चों की देखभाल करने का काम सौंपा जाता है, तो वह तय करती है कि लड़कों का खतना करवाना है.

“इसलिए गर्मी की छुट्टियाँ शुरू होते ही रजिया के सिरदर्द बढ़ जाया करते थे. उसकी दोनों कनपटियों की नसें चटक रही थीं. उसका गर्म सिर ऐसा लग रहा था जैसे फट जाएगा. और उसकी गर्दन के पीछे की नसें किसी भी समय फट सकती थीं.”

खतना सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जहाँ गाँव के गरीब लोग भी अपने बेटों का मुफ्त में खतना करवा सकते हैं. आस्था की परीक्षा तब होती है जब महिला के परिवार के संपन्न लड़कों के घाव संक्रमित हो जाते हैं जबकि एक गरीब आदमी का बेटा बिना किसी चिकित्सा सहायता के पूरी तरह स्वस्थ हो जाता है. रजिया बड़बड़ाते हुए कहती हैं,

“अगर अमीरों की मदद करने वाले लोग हैं, तो गरीबों के पास भगवान है.”

यह कहानी उन लोगों का मज़ाक उड़ाती है जो दान को स्वार्थी नाटक में बदल देते हैं. एक मुतवल्ली का अहंकार और प्रदर्शनकारी धर्मनिष्ठता को भी उजागर करती है.

कुछ कहानियों में महिलाएं और पुरुष अजीबोगरीब जुनून का भी शिकार होते हैं जैसा कि “हाई-हील्ड शू”, “ए टेस्ट ऑफ़ हेवन” “द श्राउड” और “द अरेबिक टीचर एंड गोबी मंचूरी” में होता है. इन कहानियों में गंभीर मुद्दों पर ध्यान देते हुए, सामाजिक मानदंडों की आलोचना करने के लिए हास्य और व्यंग्य का उपयोग किया गया है.

“हाई-हील्ड शू” (ऊंची ऐड़ी वाले जूते) में नयाज खान अपनी भाभी द्वारा सऊदी से लाए गए जूतों के बारे में सोचना बंद नहीं कर सकता.

“उनमें खिले हुए फूलों की तरह मोती जड़े हुए थे, उनमें हल्की-सी चमक थी, जो मुलायम काले चमड़े के तलवे पर टिकी हुई थी. एड़ियाँ ऊँची और पतली थीं.”

उसका जुनून उपभोक्ता वस्तुओं में बढ़ती रुचि को दर्शाता है. इस कहानी में ईर्ष्या पर गहन विचार किया गया है.

“उसके जूतों ने उसका दिल चुरा लिया था…जब वह उन्हें पहनकर इधर-उधर घूमती थी, तो ऐसा लगता था कि वह हवा में तैर रही है.”

नयाज के मन में एक गुप्त इच्छा है; वह उम्मीद करता है कि उसकी भाभी गिर जाए, उसके टखने में मोच आ जाए और उसका पैर का अंगूठा टूट जाए, ताकि वह अब जूते न पहन सके. उस स्थिति में, वह उन्हें ठीक करवाएगा और अपनी पत्नी को उपहार में देगा. नयाज खान अपनी पत्नी आसिफा के लिए भी ऐसा ही एक जोड़ा खरीदता है. वह उसे जूते पहनाता है, इस तथ्य से बेपरवाह कि वे जूते इतने छोटे हैं कि उसकी पाँच महीने की गर्भवती पत्नी एक कदम भी नहीं चल सकती और उसने हवाई चप्पलों के अलावा कुछ भी नहीं पहना है.

“ए टेस्ट ऑफ़ हेवन” (स्वर्ग का स्वाद) कहानी का कथ्य कठिनाई के लंबे जीवन में खुशी का छोटा सा टुकड़ा है. बी दादी, “शाश्वत कुंवारी” की शादी बाल वधू के रूप में की गई थी. शादी के एक महीने बाद ही उसके पति की मृत्यु हो गई और वह तब से अपने बड़े भाई के परिवार के साथ रह रही थी. “वह छाया की तरह रही. और अपने बड़े भाई के परिवार के लिए छत्रछाया बनी रही.” जिन बच्चों के लिए वह दादी की तरह है, वे एक अक्षम्य गलती करते हैं – अज़ीम अपनी बाइक साफ करने के लिए उसकी पुरानी प्रार्थना चटाई का इस्तेमाल करता है.

बच्चों की माँ उसे एक और प्रार्थना चटाई देती है, जो बेहतर गुणवत्ता की होती है, लेकिन बी दादी दुखी होती हैं और खाने से इनकार कर देती हैं. कहानी में एक अप्रत्याशित मोड़ आता है, जब सना, जिसने प्रार्थना चटाई अपने भाई को दी थी, एक गिलास में कुछ पेप्सी डालती है और बी दादी से कहती है कि यह आब-ए-कौसर (स्वर्ग में बहने वाली नदी का पानी) है.

“केवल भाग्यशाली लोग इसे पी पाते हैं. अब आप स्वर्ग में हैं. हम आपकी सेवा करने के लिए तैयार हूर हैं.” बी दादी को पेप्सी का स्वाद “नशे” का एहसास कराता है और वह इसकी आदी हो जाती है.

“द श्राउड” (कफन) में भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की ललक मौजूद है. अमीर शाजिया गरीब विधवा यासीन बुआ के लिए हज से पवित्र जल में डूबा हुआ कफन लाने का वादा करती है. मदीना और मक्का में होने वाले उत्सवों में उसका सिर घूम जाता है, खरीदारी उसके लिए किसी भी धार्मिक भक्ति से ज़्यादा महत्वपूर्ण है. वह सऊदी अरब से अंतिम संस्कार के लिए कफ़न लाना भूल जाती है.

शाजिया घर आकर भी इसे भूल जाती है, जब तक कि यासीन वापस आकर उससे इसके लिए नहीं पूछती है. यासीन शाजिया द्वारा दी गई प्रार्थना चटाई को अस्वीकार कर देती है. वह बस वह कफन चाहती थी, जिसे शाजिया पैसे ले कर भी नहीं लायी.

“आभूषणों और शानदार कपड़ों से सजी शाज़िया ने उसके साथ जिस तरह से एक दीन-हीन की तरह व्यवहार किया था, उसने उसके दिल में एक स्थायी निशान छोड़ दिया था.”

जब यासीन बुआ मर जाती है तो शाजिया अपराध बोध से भर जाती है.

“शाज़िया ही यह सच जानती थी कि अंतिम संस्कार यासीन बुआ का नहीं, बल्कि उसका हो रहा था.”

“द अरेबिक टीचर एंड गोबी मंचूरी” (अरबी टीचर और गोबी मंचूरी) संकलन की सबसे मनोरंजक कहानी है. इसमें कथावाचक, जो एक वकील है, अपनी बेटियों को अरबी सिखाने के लिए एक होम ट्यूटर को काम पर रखती है. सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन जब वह जल्दी घर लौटी तो उसने देखा कि शिक्षक आराम से बैठा हुआ है, जबकि उसकी बेटियाँ और रसोइया रसोई में “गोभी मंचूरी” बना रहे हैं. पता चला कि उसे फूलगोभी के फूलों से बने नाश्ते का बहुत शौक है. हालाँकि शिक्षक की नौकरी चली जाती है, लेकिन नाश्ते का भरपूर आनंद लेने की उसकी इच्छा उसे एक ऐसी पत्नी की तलाश में ले जाती है जो उसके लिए इसे पकाएगी. एकमात्र शर्त – उसे उसकी पसंदीदा डिश, गोबी मंचूरी बनाना आना चाहिए. लेकिन जब वह शादी करता है, तो वह अपनी पत्नी के पकवान बनाने के तरीके से नाखुश होता है और उसे पीटता है. ऐसी विचित्रता पाठक को आश्चर्यचकित करती है जो शुरू में सहज हँसी का स्रोत थी और बाद में कुछ अधिक भयानक में बदल जाती है.
कथावाचक कहती है

“चीजें जितनी सरल लगती है उतनी होती नहीं है. लोग तब अजीब और तर्कहीन तरीके से व्यवहार करने लगते हैं जब वे डरे होते हैं और जब वे गलत जिम्मेदारी उठा लेते हैं.”

गंभीर माहौल के बीच-बीच में हास्य का पुट भी है. जब उसकी बहन उसे अपने बच्चों के कुरान शिक्षक पर बहस के दौरान “शकुनि जैसा मामा” कहती है तो इमाद कहता हैं,

“जब कुरान सीखना यहाँ बड़ी बात है, तो मेरा ध्यान भटकाने के लिए रामायण और महाभारत को बीच में मत लाओ. फिर कोई और बातचीत में शामिल हो जाएगा, और यह पूरी तरह से एक अलग बात हो जाएगी.”

“सॉफ्ट व्हिस्पर्स” (धीमी फुसफुसाहट) में जब अतीत का दोस्त आबिद उर्स के दौरान आता है, तो नायिका के लिए एक याद फिर से उभर आती है. उसे एक जन्मदिन याद आता है जिसमें उसने अज्जीजान द्वारा उसके लिए बनाई ड्रेस पहनी थी, आबिद ने उसे चूम लिया था और अज्जीजान ने उसकी मदद की थी. वह आबिद में अपने “शरारती, असभ्य” दोस्त की तलाश करती है, लेकिन उसे एक अलग आदमी मिलता है, जो अब उसके परिवार की दरगाह में मुजावर (पर्यवेक्षक) है. मस्जिद में मौलवी का पद उसे एक वयस्क के रूप में बदल देता है – एक ऐसा व्यक्ति, जिसे वह अब पहचान नहीं सकती.

संग्रह की अंतिम कहानी ‘एक बार औरत बनो प्रभु!’ मानसिक और भौतिक, दोनों स्तरों पर घटती है और एक विवाहित स्त्री के संघर्ष को दिखाती है.

“तुमने मुझे बहुत अधिक दर्द सहन करने की ताकत दी. मगर तुम्हें उसे इतनी क्रूरता करने की ताकत नहीं देनी चाहिए थी.”

उसकी करुण पुकार हृदय विदारक है,

“धैर्य की सीमा क्या है? हालांकि धैर्य मेरा जीवन मंत्र है. मैं ढह गई. मेरे मुँह से आवाज़ नहीं निकलती. मुझे नहीं पता कि धैर्य का अर्थ क्या है.”

महिला ईश्वर से प्रश्न करती है और ईश्वर को चुनौती देती है जो उसके दुखों के प्रति अंधा लगता है.

“मेरे लाल स्याही से भरे दिल की निब टूट गई है.”

जब उसकी माँ की मृत्यु उसका इंतजार करते हुए होती है तो वह कहती है कि उसके पोस्टमार्टम में

“उन्हें उसमें जमा हुआ खून तो नहीं मिलता, बल्कि जमी हुई आत्मा और अनेक अलंघ्य लक्ष्मण रेखाएं और दर्जनों अग्निपरीक्षाओं के चिन्ह मिल जाते.”

वह भगवान से विनती करती है,

“यदि तुम्हें फिर से मर्द और स्त्री बनाने हों, तो अनुभवहीन कुम्हार की तरह मत बनो, धरती पर स्त्री बनकर आओ प्रभु!”

क्योंकि तभी आप स्त्री की व्यथा समझ पाओगे. जीवन के नाटक में, या तो ईश्वर इतना मूर्ख है कि वह यह नहीं समझ पाता कि महिलाएं क्या सहती हैं, या वह इतना क्रूर है कि उसे परवाह नहीं है. यह एक साहसी कृति है, जो बहुत प्रभावशाली है.

दीपा भास्‍ती ने ‘द हार्ट लैंप’ को ‘एक्सेंटेड ट्रांसलेशन’ कहा है, यानी ऐसा अनुवाद जो मूल भाषा की सांस्कृतिक गंध, लय और टोन को पूरी तरह दूसरी भाषा में बनाए रखे. दीपा कहती हैं,

“मैंने कोई सजावट नहीं की, न ही इन कहानियों को पश्चिमी पाठकों के लिए सरल बनाने की कोशिश की. इन कहानियों की आत्मा कन्नड़ में है और मेरा काम केवल उस आत्मा को अंग्रेज़ी में महसूस कराना था.”

बानू मुश्ताक की कहानियाँ अपने समय और समाज का दस्तावेज़ हैं. उनकी लेखनी में नारी-विमर्श, धर्म, जाति, वर्ग और लिंग जैसे प्रश्न सहजता से उतर आते हैं. वे बिना किसी नारेबाज़ी के, बिना किसी बड़बोलेपन के, केवल कहानियाँ कहती हैं. लेकिन ऐसी कहानियाँ जो दिल को छूकर निकलती हैं और सोचने पर मजबूर कर देती हैं. चाहे मुस्लिम सामाजिक ढाँचे में बसी हों, पर वे सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं की कहानियाँ नहीं हैं, वे हर औरत की कहानी हैं. कई जगह कहावतों का इस्तेमाल किया गया है जो कहानी को पाठकों से जोड़ देता है. इन कहानियों को पढ़ते हुए तसलीमा नसरीन और इस्मत चुगताई की कहानियाँ भी याद आती हैं.

संग्रह की कहानियां _

Stone Slabs for Shaista Mahal, Fire Rain, Black Cobras, A Decision of the Heart, Red Lungi, Heart Lamp, High-Heeled Shoe, Soft Whispers, A Taste of Heaven, The Shroud, The Arabic Teacher and Gobi Manchuri, Be a Woman Once, Oh Lord.

 

सरिता शर्मा सरिता शर्मा (जन्म : 1964) ने अँग्रेजी और हिन्दी भाषा में स्नातकोत्तर के साथ-साथ पत्रकारिता, फ्रेंच और क्रिएटिव राइटिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया है. पाँच वर्ष तक ‘नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया’ में संपादकीय सहायक के पद पर कार्य किया. तत्पश्चात बीस वर्ष तक राज्य सभा सचिवालय में कार्य करने के बाद नवंबर 2014 में सहायक निदेशक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. कविता-संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष’, कहानी-संकलन ‘वैक्यूम’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ और रस्किन बॉण्ड की दो पुस्तकों ‘स्ट्रेंज मैन, स्ट्रेंज प्लेसेज’ और क्राइम स्टोरीज’ प्रिंस’, ‘विश्व की श्रेष्ठ कविताएं’, ‘महान लेखकों के दुर्लभ विचार’ और ‘विश्वविख्यात लेखकों की 11 कहानियां’  का हिंदी अनुवाद प्रकाशित. 

 sarita12aug@hotmail.com

 

 

Tags: 20252025 समीक्षाअंतरराष्ट्रीय बुकर सम्मानबानू मुश्ताकसरिता शर्माहार्ट लैंप
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Comments 6

  1. Aabid Surti says:
    1 day ago

    My day is made.

    Reply
  2. Rohini Aggarwal says:
    1 day ago

    बानू मुश्ताक का बहुचर्चित और पुरस्कृत कहानी-संग्रह ‘हार्ट लैंप’पढ़ लिया है।
    बेहद औसत दर्जे की कहानियाँ हैं। हमारे समय की चेतना से दूर।

    स्टीरियोटाइप्स और बाइनरी को रच कर पितृसत्ता स्त्री-पुरुष को जिन छवियों, मूल्यों और आचार-संहिताओं में कैद करती है, यह संग्रह एक रुंधी हुई भावुकता के साथ उन्हीं घेरों की परिक्रमा के दर्द को उभारता है।
    लेकिन आज दर्द को दवा बना कर तिल-तिल मरने का गौरव नहीं पाया जा सकता। ऐसे शहादत भरे किस्से पुराने वक्तों की कब्र में फना हो गए हैं। फिर उन्हें बाहर क्यों निकाला जाए?
    क्या इसलिये कि एक वर्ग (समाज के बड़े समूह) का सच आज भी वही है?
    हाँ, तो क्या उनसे टकराने के औज़ार नए वक्त के नहीं होने चाहिए?
    क्या इस तथ्य को नजरअंदाज किया जा सकता है कि वक्त की तरह कुछ भी जड़ रूप में स्थिर नहीं रहता? टूट-फूट के साथ अपने को निरंतर रचता रहता है। उस रचाव को देखना ही समय में जीना है।

    समय में जीना अनिवार्यत: समय में हस्तक्षेप करना है।

    तो क्या यह संग्रह समय में जीकर समय की ग्रंथियों को खोल रहा है?

    या उसी गढ़े हुये सांस्कृतिक सच को गढ़ी गई निरीह मासूमियत के साथ पोस रहा है जिसे बखानते हुए कृष्णा सोबती व्यंग्यपूर्वक कहती हैं, स्त्रियों के हिस्से आए हैं दर्द, जापे और व्रत-त्योहार ; और पुरुषों के हिस्से आए हैं मुजरे, हुकूमतें और रंगीनियाँ?

    प्रेमचंद जब साहित्य को मशाल कहते हैं और मैथ्यू आर्नल्ड जीवन की आलोचना, तब सहज ही कहानीकार से अपेक्षा होती है कि वह जीवन को रुग्ण/ विनष्ट करने वाली रूढ़ियों/ विकृतियों पर इस ढंग से लिखे कि जूझने का हौसला नई तामीर का सबब बने।

    कहानी दर्पण में प्रतिबिंबित होने वाला अक्स भर नहीं है, दर्पण की चौहद्दियों को तोड़ कर अपना अंतरिक्ष बनाने की बेचैनी है। जाहिर है कहानी में यथार्थ महत्वपूर्ण नहीं, यथार्थ से मुठभेड़ की दृष्टि महत्वपूर्ण है जो टकराव की प्रक्रिया में जिस वैचारिक संवेदन को बुनती है, वही ‘लिखे’ को ‘सृजन’ का रूप देती है।
    लेखक और पाठक की साहित्य-दृष्टि का टकराव रचना के प्रयोजन और रचना के प्रभाव के बीच फैले बहुत से सवालों की ओर ले जाता है जो समय, संस्कृति और समाज-मनोविज्ञान की संश्लिष्ट तहों को उजागर करते हैं।

    मैं कहानी को ‘सृजन-स्वप्न’ के रूप में देखती हूँ। इसलिए बेचारगी और भावुकता के भँवर मेरे भीतर की आस्वाद-ग्रंथि में सहानुभूति नहीं उपजाते, वितृष्णा पैदा करते हैं। बीहड़ जीवन का मुक़ाबला रोने-पिटने सा पिट कर रोने की गठरी बन कर नहीं किया जा सकता।

    बीसवीं सदी के पहले दशक में जब रुकैया सखावत हुसैन ‘सुल्ताना का सपना’ लिख रही थीं या दूसरे-तीसरे दशक में शिवरानी देवी ‘साहस’ और ‘समझौता’ जैसी कहानियाँ, तब समय के सवालों को ललकार कर समय का दिशानिर्देश भी कर रही थीं।

    लिहाज़ा स्त्री-लेखन का सौन्दर्यशास्त्र रसास्वादन के सवाल को परंपरागत मर्दवादी सौंदर्यशास्त्रीय मानकों के आधार पर एड्रेस नहीं कर सकता। उसे सहानुभूति को एम्पैथी और करुणा को विश्लेषणात्मक ऊर्जा में ढाल कर प्रतिरोध और गत्यात्मकता को अपनी ‘आँख’ बनाना होगा।

    इस प्रक्रिया में पुरस्कार की राजनीति के वर्ग-चरित्र पर भी विचार किया जाना चाहिए कि वह सत्ता के किन किलों को बचाने के लिए कहाँ-कहाँ कमज़ोर कड़ियों को अपनी ताकत और प्रतिनिधि बना रहा है।

    Reply
  3. Mridula Garg says:
    1 day ago

    After reading a few of the stories in Heart Lamp, not all, I’ve reached 2 general conclusions.
    1.Banu Mushtaq’s stories are tales with a twist in the tail. An age old formula which still works for popular literature. An apt tool to mesmerize readers who want everything to be spelt out.

    She gives long descriptions for quite a few pages of everyday events. Then in the last paragraph a dark or ominous truth is revealed. It has to do largely with male indifference,
    injustice or emotional violence. Hidebound dogmatism is rampant and is the very basis of most stories.
    A hint of the bleak truth lurks in the earlier pages but the seemingly endless recounting of events numbs the senses and one tends to ignore it.

    The males are mostly lacking in empathy or even normal familial concerns. The women on other hand are understanding, nurturing, just,etc. But let alone take a stand, they don’t even ask
    the men to gear up to at least look after the family.

    In one story, I forget the name, the husband accusingly recounts how he had to look after their first child when he was a newborn because the wife was incapable of doing so. But would you believe it, the wife was only 12 years old when she gave birth. And the husband blames her parents for getting her married at such an early age!

    I one story “Black Cobras,” the wife finally rebels and how. She decides to get an operation done upon herself after delievering 7 children because the husband absolutely refuses to get one done on himself! It otherwise depicts the miserable, starving existence of a wife with 3 daughters, whom the husband abandons to marry another woman because she hasn’t borne a son. No one blames him including the religious heads. No one puts out a helping hand out for the woman with a sick fatally sick daughter who eventually dies on the threshold of the mosque, where the family was camping, starving and shivering in freezing cold weather. Again the crass and cruel behaviour of the husband is justified by all the men as they blindly and erroneously cite the Sharia. One educated woman is present in this story who keeps egging the victim to fight on but she loses to her blind traditionalist society.

    The Europeans and other so called civilized societies love the portrayal of such pitiable victimization in what to them are “not civilized societies” as depicted in Mushtaq’s stories.
    No wonder they loved them.
    I’m no judge of what contemporary Muslim societies are exactly like. But anyone who has read writers like Ismat Chugtai or Nasira Sharma would take Mushtaq’s labours with a pinch of salt.
    Premchand did depict 2 such males in Qafan but not all his men were as unfeeling and not all his women victims!
    The saving grace is the display of wit in most of the stories. It actually succeeds in emphasizing the tragedy of the cruel orthodoxy. That we can say is the ultimate success of her craft . Most applicable to Shaista Mahal, the first story.
    In other words, the delectable Form manages to save the stories despite the inanity of their content.

    Reply
  4. Sarita Sharma says:
    1 day ago

    Thanks a lot Rohini Agrawal and Mridula Garg ji. You have read Banu Mushtaq stories carefully. There are many victims of polygamy and other vices of society. The voice of the author is heard in many stories rebelling against wrong interpretations of islam that keep women in weaker position. I found the stories very realistic.

    Reply
  5. डॉ. रेनू यादव says:
    20 hours ago

    सरिता शर्मा ने कहानियों के बहुत ध्यान से पढ़ा है । हर कहानी के सूत्र को इस लेख में उभारने का प्रयास किया गया है ।
    बानू मुश्ताक़ इस आधुनिक समाज के पीछे छिपे उस अंधकारमय भयावह यथार्थ को सामने ले आयी हैं, जिसे आधुनिक दौर में समझ पाना मुश्किल है । एक तरफ मैट्रो सिटी की चकाचौंध तो दूसरी तरफ गाँवों और कस्बों में वही पुरातन परंपराएँ और रूढ़िवादी सोच भारत को दो हिस्सों में बाँट देता है और दोनों ही एक दूसरे को बहुत कम जानते हैं । सिर्फ भोक्ता ही समझ सकता है ।
    सभी कहानियाँ यथार्थ की भावभूमि पर खड़ी हैं ।

    Reply
  6. रुस्तम सिंह says:
    17 hours ago

    बानू मुश्ताक़ की एक ही कहानी मैंने पढ़ी है “लाल लुंगी”, “समालोचन” में। मुझे लगता है कि इस कहानी में दो चीजें होती हैं। एक तो खतना नामक क्रिया खूब ब्यौरों के साथ सामने आती है। दूसरा, उस ख़ास समाज में अमीरों और गरीबों के बीच जो बड़ी खाई है वह भी स्पष्ट तौर पर उभरती है।

    परन्तु जिस कारण कहानी कमज़ोर हुई है वह यह है: लेखक ब्यौरों को सम्भाल नहीं पायी, ऐसा लगता है कि वे उनके हाथ से निकल गये, वह उन्हें सम्पादित नहीं कर पायीं। इस प्रकार कह सकते हैं कि कहानी का शिल्प कमज़ोर है।

    परन्तु कुछ लेखक और आलोचक जिन्होंने बानू की किताब की सारी कहानियाँ पढ़ी है, वे कह रही हैं कि कहानीकार को अपने समाज, अपने समुदाय में परिवर्तन लाने की बात, ख़ासकर इस दौर में, मुखर ढंग से कहनी चाहिए थी और यह उसने ज़रा भी नहीं कही और कि यह इन कहानियों की सबसे बड़ी खामी है, समस्या है।

    यहाँ दो बातें कही जा सकती हैं। पहली तो यह कि जबसे उपन्यास और कहानियाँ लिखे जाने शुरू हुए हैं, कौन सा ऐसा दौर था जब किसी समाज या समुदाय या संस्कृति में परिवर्तन की ज़रूरत नहीं थी? दूसरा, क्या यह ज़रूरी है कि कोई कहानीकार परिवर्तन को कहानी लिखने का मुख्य उद्देश्य बनाये, या, यहाँ तक कि परिवर्तन की बात करे ही? यदि कोई कहानी अन्य मापदण्डों के हिसाब से बढ़िया है, उत्कृष्ट है तो ज़रूरी नहीं कि वह इस माँग विशेष को पूरा करे ही।

    तब भी यदि कोई कहानी परिवर्तन की बात स्पष्ट तौर पर नहीं भी करती है, लेकिन किसी समाज या समुदाय या संस्कृति का इतने ब्यौरों सहित वर्णन करती है कि उसे ध्यान से पढ़ने पर, उसका महीन पाठ करने पर उस समाज या समुदाय या संस्कृति की अन्तर्निहित खामियाँ पाठक के सामने उभरने लगती हैं, तो मैं तो कहूँगा कि वह कहानी परिवर्तन की बात कर रही है, चाहे वह ऐसा प्रत्यक्ष ढंग से नहीं भी कर रही। बल्कि मैं तो तो यहाँ तक कहूँगा कि यदि ऐसी कहानी का शिल्प बढ़िया है तो वह परिवर्तन की बात शायद ज़्यादा सक्षम ढंग से कर रही है और इसलिए वह एक ज़्यादा सूक्ष्म और बेहतर कहानी है।

    यही बात उपन्यासों और कविताओं के बारे में भी कही जा सकती है।

    ध्यान रहे कि यहाँ मैं बानू की कहानियों की बात नहीं कर रहा। मैं एक सामान्य बात कर रहा हूँ।

    Reply

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