गिन्सबर्ग की चीख़ का चौथा स्तंभ
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एलेन गिन्सबर्ग की कविता ‘हाउल’ (चीख़) शीर्षक कविता प्रसिद्ध हुई, विवादास्पद भी. 1955 में ही इसका चौथा हिस्सा ‘फ़ुटनोट’ के रूप में लिखा गया. फ़ुटनोट पर चर्चा और उसके अनुवाद से पहले, तथाकथित मुख्य कविता पर विचार करना उचित है. इसी पृष्ठभूमि से संबंधित बिंदु बेहतर प्रकाशित होंगे.
महती ज़रूरत यह कि इस कविता को पिछली सदी के छठवें दशक में अमेरिकी पूँजीवाद के ख़िलाफ़ एक नाद और घोष की तरह भी समझा जाए. यह कविता इसीलिए प्रासंगिक चली आती है क्योंकि पूँजीवाद की अनेक मुश्किलें आज अधिक विकराल और बहुआयामी होकर विकासशील, पिछड़े या मिश्रित समाजों के सामने उपस्थित हो गई हैं.
कविता का विषय, कुल पाठ, रूपक, बिंब, संज्ञाएँ और शब्दाक्रमकता इसे विवादग्रस्त बनाते हैं लेकिन अनुपेक्षणीय और महत्वपूर्ण भी. दरअसल ‘हाउल’ कविता की अनेक मुश्किलों में से एक यह है कि अगर इसे तत्कालीन समलैंगिकों, बेचैन-असंतुष्ट-स्वप्नदर्शी बेरोज़गारों, कल्पनाशील मस्तिष्कों, मेरिजुहाना नशे और यौनजीवन को असीम स्वतंत्रता की परिधि में देखनेवाले युवतर समूहों, नैतिकता को प्रश्नांकित कर रहे अराजक, बोहिमियन जीवन प्रणाली के पक्ष में दार्शनिक मुठभेड़ करनेवालों की तरफ़ से नहीं पढ़ा जाएगा तो इसका पाठ विपथगामी और समस्याग्रस्त हो सकता है.
इस कविता का जैसे ही आरोपित नैतिकता और अभिजात सभ्यता को ध्यान में रखकर पाठ, शब्दार्थ या अनुवाद किया जाएगा तो इसका नुकीलापन, भग्न इच्छा-संसार, नशाजन्य रचनाकांक्षी उन्माद, सर्जनात्मक अवसाद, बौद्धिक नैराश्य, अपने वर्तमान की विडंबना, युद्ध-परिणामों और लोकतांत्रिक पूँजीवाद के प्रति आवश्यक क्रोध तत्काल क्षतिग्रस्त हो जाएगा. तत्संबंधी जो पीड़ाएँ इसमें व्यक्त हैं, ग़ुस्सा, असहमति और वर्जनाओं के खिलाफ चीख़ है, वह महज़ इसके शीर्षक में नहीं, पूरी कविता में विन्यस्त है. इस कविता की शब्दावली नाराज़ और नंगी है लेकिन तकलीफ़ों से प्रसूत है. यह व्यग्र वेदना इसका संचालक तत्व है.
इस कविता के पाठ और भाष्य में ‘अश्लीलता’ एक मुश्किल की तरह पेश होती रही है. इसलिए हर जगह इसकी व्याख्या करते हुए इसे नैतिकता की लाठी से हकाला जाता रहा है. जीवन में अपने आसपास दिखते नंगेपन, अभावों, अंतर्विरोधों, वासनाओं, वंचनाओं और अस्मितामूलक दुर्दशा को साहित्य में देखते ही एक तबका अश्लीलता-अश्लीलता, कहकर सड़कों पर दौड़ पड़ता है. यूरेका-यूरेका की तरह. वह शब्दावली में अटक जाता है. अर्थ-संदर्भ-प्रसंग और कलागत अंतरिक्ष में प्रवेश ही नहीं करता. यही वजह है कि ‘हाउल’ की मुसीबतें अमेरिका में भी कुछ कम नहीं रहीं. इसका परीक्षण कठोर सदाचारी दृष्टि से होता रहा है. तर्कहीनता को तर्क बनाने के काव्य-प्रयास से भी यह लांछित की जाती रही है. इस अति पवित्रतावादी निगाह का ज़लज़ला, उसकी तरफ़ से उग्र टीका और उसकी ‘चरम नैतिकता का झाग’, विमर्शों की सतह पर छह दशकों से फैला हुआ है.
जबकि यह नस्लवाद के विरोध में, अश्वेत-कला और संगीत के पक्ष में अपनी प्रखर सर्जनात्मकता के साथ निष्कंप खड़ी है. सही ध्वनि के लिए इसे काव्य-पंक्तियों की लंबाई अनुसार, श्वासाधारित पढ़े जाने का प्रस्ताव भी है. कविता में प्रतिवाद के तौर पर जैज़ की तरफ़दारी है क्योंकि उस जीवंत संगीत को, श्वेत-मध्यवर्गीय-समाज द्वारा अमान्य करते हुए, दोयम घोषित कर दिया गया था. उस वक़्त में यह कविता रंगभेद के ख़िलाफ़, अल्पसंख्यक-लोक को समर्थन देती है. उसकी त्रासदी समझती है. यह इसका प्रगतिशील आचरण और अपनी तरह का जनवाद है.
(दो)
जैसा इंगित है कि ‘हाउल’ लिखे जाने के समय, अमेरिकी राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, उन संदर्भों और द्वितीय विश्वयुद्ध के दुष्प्रभावों के बीच युवा होती पीढ़ी के पार्श्वदृश्यों को ध्यान में रखे बिना इस कविता का पाठ इसके साथ ना इन्साफ़ी है. और तब इसे समझना और भी दुष्कर होगा. यह विषयावेग, विचारावेग, प्रतिवाद, अंग-प्रत्यंगों को आदिम भाषा में नामांकित करने की क्रोधित उत्तेजना का भी उदाहरण है. इसकी भाषा और शिल्प के सीधे प्रभावों, तन-मन-जीवन के अकथनीय, अशोभनीय, अराजक माने गए कथ्य और अपने अनुभवों को बेलौस ढंग से अभिव्यक्त करने के निःसंकोच अंदाज़ से प्रेरित संसार भर में खूब कविताई हुई. हालाँकि उतनी बात कहीं नहीं बनी जितनी इस कविता में उपस्थित हो सकी.
(अवांतर- हिन्दी में राजकमल चौधरी से धूमिल आदि तक यह प्रभाव लक्षित है. सर्वज्ञात है कि गिन्सबर्ग भारत प्रवास पर भी रहे. बनारस, पटना, कलकत्ता में अनेक कवियों से मिलने का ज़िक्र होता ही रहा है. राजकमल चौधरी से गिन्सबर्ग की कलकत्ता में अनेक विचार संसर्ग हुए. त्रिलोचन के पुत्र जयप्रकाश सिंह की संस्मरणात्मक पुस्तक में दर्ज है कि गिन्सबर्ग ने त्रिलोचन पर, सीढ़ियों से उतरते हुए दृश्य को बाँधकर, एक कविता भी लिखी थी. फिर वे बौद्धधर्म के प्रति आकर्षित हुए और फिर उसके अनुयायी भी रहे. आदि-इत्यादि.)
‘हाउल’ के हीलिक्स में बीट-आंदोलन के मित्र-लेखकों की उपस्थिति पैवस्त है जो न केवल तमाम तरह के स्नायुरोगों से भरे हुए हैं बल्कि ‘मानवाधिकार-विरोधी, आततायी-सरकार’ के गंभीर शिकार भी रहे. मानो वह पूँजीवादी और उत्तर-द्वितीयविश्वयुद्धकालीन वक़्त ही स्नायुरोग से ग्रस्त था. शक्ति संरचनाएँ तो कुछ ज़्यादा ही. देख सकते हैं कि नियंत्रणवाद के विरोध में इस कविता की आवाज़ कुछ ज़्यादा मुखर है.
पवित्र-अपवित्र, सुर-असुर, अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक की बहस को इस कविता ने जैसे हास्यास्पद और प्रश्नांकित कर दिया है. इन्हीं कारणों से आज हमारे अपने देश में भी इस कविता की प्रासंगिकता समझी जा सकती है. इधर जब एलजीबीटीक्यू के पक्ष में आवाज़ें उठी है, आंदोलन हुए हैं, न्यायालय के सामने गुहार लगाई गई है और समाज की मानसिकता को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिशें जारी हैं तब ‘हाउल’ की पुकार और महत्ता को नये सिरे से अनुभव किया जा सकता है.
सरसरी तौर पर इस कविता की सारी आलोचनाएँ, इस पर सारे आरोप प्रथम दृष्ट्या सही लग सकते हैं. यहाँ जुगुप्सा, विद्रूपता और अश्लीलता की खोज भी सहज है. पहले और अभी 2007 तक इस कविता के रेडियो-प्रसारण पर अमेरिका में ही रोक लगी हुई थी अथवा कभी-कभार ‘वयस्क सामग्री’ का दर्जा देकर देर रात में प्रसारण की अनुमति दी जाती रही. यानी एक नैतिक रूप से दंभी समाज में, जो प्रगतिशील और विकसित होने का दावा करता रहा है, इसे सर्वस्वीकार्यता नहीं मिल सकी. इसे लेकर वहाँ भी एक संकोच, दूरी और प्रतिक्रिया की घबराहट बनी रही. लेकिन अपनी अभिव्यक्ति में समाहित मानवीय पीड़ा और व्यापक न्यायपरक आकांक्षा के कारण, अभिव्यक्ति की आज़ादी का परचम लिए यह स्वतंत्रता की देवी की तरह, तुमुल पवित्रता के रूढ़िवादी जनारण्य के बीचोबीच तनकर खड़ी हो जाती है.
अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि कहें कि इसे ‘लेडी ऑव लिबर्टी’ की तरह भी देखा जा सकता है, जो कार्पोरेटी लोकशाही को कठघरे में खड़ा करते हुए, तमाम प्रकार के जीवनाधिकारों और स्वाधीनताओं की चीख़कर माँग करती है. अपने प्रस्ताव देती है. (यही है- ‘लिबर्टी ऐनलाईटनिंग द वर्ल्ड’.) बल्कि काव्य-रूपक में इसका संदेश ‘स्टैचू ऑव लिबर्टी’ से कहीं अधिक स्पष्ट, तीक्ष्ण और प्रभावी प्रतीत हो सकता है. इसे आप झंडे की तरह उठा सकते हैं या लतिया सकते हैं, गलिया सकते हैं लेकिन इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते. यह इस कविता की अपराजेयता है. अकारण नहीं है कि सैन्यवाद, अतिनैतिकतावाद और पूँजीवाद के छद्म के ख़िलाफ़ भी इसका पाठ बारम्बार हुआ है.
(तीन)
अनेक प्रहारों के बावजूद, लिखे जाने के स्वर्णजयंती वर्ष में इस कविता के पाठ, विमर्श और प्रासंगिकता संबंधी अनेक आयोजन हुए. एक फ़िल्म ‘हाउल’ 2010 में जारी हुई. इस चतुष्आयामी फ़िल्म को देखना, कविता और उसकी निर्मिति के वातावरण को समझने में महती सहायता कर सकता है. चतुष्आयामी इसलिए क्योंकि-
(1) इसमें गिन्सबर्ग से समानांतर साक्षात्कार चलता रहता है. जिसमें वे बीट आंदोलन, काव्य-अभीष्ट और जीवन शैली के पार्थक्य और एकीकरण पर उल्लेखनीय बात करते हैं.
(2) गैलरी सिक्स, सेनफ्रांसिस्को में संक्षिप्त समूह के सामने किए गए ‘हाउल’ के पहले पाठ के फ़िल्माए गए सत्र समानांतर चलते रहते हैं.
(3) अनंतर क्रम में कविता की कई पंक्तियों, पैराग्राफ़ों को ऐनिमेशन के ज़रिए भी दृश्यमान किया गया है.
(4) साथ ही, कविता के अश्लील होने संबंधी मुक़दमे की बहस है. बौद्धिक, आकुल और विचारोत्तेजक गवाहियाँ हैं. फिर वह निर्णय जो इस प्रसंग में सदैव मार्गदर्शी और विचारणीय है. अस्तु, इस डॉक्युड्रामा के दो उल्लेखनीय बिंदु :
पहला, अश्लीलता के आरोप की सुनवाई उपरांत फ़ैसला:
‘हाउल’ में उपयोग किए जाने वाले कई शब्द, समाज के कुछ हिस्सों में अभद्र और अश्लील माने जाते हैं लेकिन अन्य कुछ हिस्सों में ये शब्द रोज़मर्रा के उपयोग में हैं. ‘हाउल’ के लेखक ने ऐसे कुछ शब्दों का उपयोग किया है क्योंकि उनका मानना था कि काव्य-चित्रण के लिए उन्हीं शब्दों का होना आवश्यक था. सामान्य नज़रिये से ऐसे शब्दों का प्रयोग ज़रूरी नहीं था और बेहतर होता कि उनकी जगह कुछ अधिक स्वीकार्य आस्वाद के शब्द उपयोग किए जा सकते. लेकिन सच्चाई यह है कि जीवन एक व्यवस्था में सीमित नहीं किया जा सकता, जिसमें हर कोई किसी विशेष पैटर्न या पूर्वनिर्धारित शैली के अनुरूप ही व्यवहार करे.
कोई भी दो व्यक्ति एक जैसा नहीं सोचते हैं. हम सभी एक ही साँचे से बनते हैं लेकिन हमारे भीतर हमारी विभिन्नताएँ भी होती हैं. अगर हममें से हर कोई अपनी भाषा में निर्दोष या सौहार्द्रपूर्ण शब्दों को ही इस्तेमाल करने के लिए बाध्य हो जाए तो क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बचेगी?
एक लेखक को अपने विषयानुसार लेखन के लिए, अपने विचार व्यक्त करने हेतु शब्द प्रयोग की, अभिव्यक्ति की स्वाधीन अनुमति दी जाना चाहिए. और यदि कोई किसी लेखन के अश्लील होने का दावा करता है तो उसके लिए इस आदर्श कहावत को याद रखना अच्छा है-
“बुराई सोचने वाले व्यक्ति के लिए बुराई है.”
(यानी आपके विचार अश्लील हैं इसलिए आप उसे अश्लील और गंदा समझते हैं.)
अभिव्यक्ति और लेखन-प्रकाशन की स्वतंत्रता, मुक्त लोगों के स्वाधीन राष्ट्र में निहित है. यदि हम एक व्यक्ति और एक देश, दोनों तरह से आज़ाद रहना चाहते हैं, तो अभिव्यक्ति की इन स्वतंत्रताओं को रक्षित किया जाना चाहिए. इसलिए, मेरा निष्कर्ष है कि ‘हाउल और अन्य कविताओं’ का वह सामाजिक मूल्य है जो समाज को कई रूढ़ियों से मुक्त करता है. इसलिए यह किताब अश्लील नहीं है.
दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने की जरूरत नहीं है कि यह निर्णय आज भी कितना प्रासंगिक, न्यायिक रूप से मूल्यवान और दिशासूचक है. इधर की परिस्थितियों में तो कहीं अधिक महत्वपूर्ण.
दूसरा, वह साक्षात्कारी संवाद जिसमें यह पूछने पर कि ‘बीट पीढ़ी क्या है’, गिन्सबर्ग जवाब देते हैं-
‘बीट पीढ़ी कुछ नहीं. यह कुछ उन युवा लेखकों का समूह था जो प्रकाशित होने की कोशिश कर रहे थे.’
यहाँ से बहस उस दिशा में जाती है जहाँ तमाम अन्य विरोधाभास और विडंबनाएँ भी इस कविता और गिन्सबर्ग से जुड़ती चली जाती हैं. और यह कि बीट पीढ़ी या आंदोलन को सटीक परिभाषित करना आसान नहीं. इसकी कई परिभाषाएँ और व्याख्याएँ होती रही हैं. जैसे यह- ‘हिपस्टर से हिप्पी शब्द निकला है और इनकी जीवनप्रणाली ही बीट पीढ़ी का कुछ हद तक आदर्श हुई.’ अर्थात समकालीन और प्रचलित सांस्कृतिक मान्यताओं के ख़िलाफ़ रहकर, घुमंतू, मनमाना और प्रतिवादी जीवन बिताना.
विश्वयुद्ध के बाद की स्थितियों में, नियंत्रणकारी संस्थाओं, परंपरागत परिवार और सत्तासंरचनाओं से संघर्ष करते हुए, ख़ास नशे के प्रकारों, यौन-जीवनशैलियों के चयन और उनकी बेरोकटोक आज़ादी की माँग इसमें शामिल है. ‘जो जीवन जी रहे हैं, उसको वैसा लिखने’ का उपक्रम एवं रूढ़िग्रस्त सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रतिरोध बीटनिक साहित्य का अवयव है. (‘विद ए स्माइली’- इसे ‘ऑफ़ बीट’ की तरह भी समझ लें.’)
(चार)
गिन्सबर्ग से इस कविता को लेकर कई सख़्त सवाल भी पूछे गए. तार्किक संदेह और आरोप रखे गए. जैसे ‘हाउल’ की पहली ही पंक्ति- ‘I saw the best minds of my generation destroyed by madness’ का हवाला देकर पूछा गया कि क्या उन युवा मस्तिष्कों में आप ख़ुद शामिल थे जो पागलपन से बरबाद हुए?
वर्णित है कि गिन्सबर्ग का यह पागलपन दरअसल ड्रग एडिक्शन, यौनिक अतिवादी कल्पनाओं और तत्कालीन सरमायेदारी जीवन की समस्याओं से प्रसूत था. साथ ही उनकी माँ की विक्षिप्तता और आनुवंशिकता से भी संलग्न. उन्होंने ने अपनी मानसिक बीमारी, वासनाओं की उत्कटता, गे होने आदि को कभी नहीं छिपाया और हमेशा तर्काधारित बचाव किया. इस सिलसिले में अवसरानुकूल उन्होंने कवि वॉल्ट व्हिटमैन, विलियम ब्लैक का भी आश्रय लिया. गिन्सबर्ग के बचावकारी जवाबों में शामिल है कि उस उत्तरविश्वयुद्धकालीन समाज में, जहाँ कई तरह के विध्वंस हुए, अनेक मर्मांतक, अनसोची चरम पीड़ाओं, सत्ताओं की सनक और नियंत्रणकारिता की वजह से लोगों को अप्रतिम निराशा से गुज़रना पड़ा. इसलिए उस दौर में तनावग्रस्त युवा पीढ़ी का किसी न किसी तरह के पागलपन का शिकार होना स्वाभाविक था.
गिन्सबर्ग स्वीकार करते हैं कि वे पूरी तरह से मनोरोगी नही, बस एक औसत न्यूरोटिक थे. उनकी ऐसी अस्वस्थताओं के मद्देनज़र इस कविता पर जटिलता, अश्लीलता, यौनकुंठित, नशेड़ी, प्रलापी सहित दिमाग़ी सड़न के आरोप आयत हुए. किंतु गिन्सबर्ग ने इन आरोपों को ध्वस्त करते हुए एक व्यापक, बौद्धिक सहमति बनाई कि यह कविता पीड़ा, त्रास, अन्याय से गुज़रती युवा पीढ़ी की मर्मान्तक चीख़ है. पूँजीवाद, औद्योगिकीकरण और युद्ध परिणामों का एक प्रतिवाद है. मनुष्य की स्वाधीनता, उसकी स्वतंत्र जीवन-शैली के इच्छित अधिकारों हेतु याचिका है. अंततः धीरे-धीरे, बहुलता में इस कविता को इन्हीं सबके शामिल दस्तावेज़ के रूप में स्वीकृत कर लिया गया.
लेकिन गिन्सबर्ग के समकालीन, ख़ासतौर पर बीट आंदोलन से जुड़े लेखक (लेखक कॉर्ल सॉलोमन, जैक केरोएक, नील कैसेडी, ग्रेगोरि कोरसो, विलियम बरोज़, पीटर ओरलोव्स्की, ल्युसिएन आदि) और ख़ुद गिन्सबर्ग, क्या अपने समय के सचमुच उत्कृष्टतम मस्तिष्क थे? गिन्सबर्ग का एक दिलचस्प जवाब यह भी है कि
‘यह प्रथम पंक्ति भी दरअसल एक अतिशयोक्ति है और रूपक है.’
इस कविता में कई चीज़ें दो टूक ढंग से, उन्हें काले या सफ़ेद ख़ानों में रखकर पेश की गईं हैं लेकिन गिन्सबर्ग बातचीत में मानते हैं कि जीवन में कुछ भी सीधे काला सफ़ेद नहीं होता. इसलिए काव्य-पंक्तियों को उनकी व्यंजना, फंतासी और काव्यशक्ति के उपकरणों से समझना उचित होगा.
कविता में ऐसे कई तरह के उलझे-सुलझे सूत्र हैं, जिन्हें छठे दशक की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सुलझाया जा सकता है, तब पता चलता है कि हर गठान इसकी महत्ता को रेखांकित करती है और कुछ भी इतना उलझा हुआ नहीं है. हालाँकि, इसका पाठ श्रमसाध्यता की माँग करता है. (ज़्यादा दिलचस्पी हो तो एक प्रमुख बीट लेखक जैक केरोएक के यांत्रिक उपन्यास ‘ऑन द रोड’ को भी इस क्रम में पढ़ा जा सकता है, जिससे गिन्सबर्ग प्रेरित हुए.)
(पाँच)
‘हाउल’ की लोकप्रियता फ्रायड के उन सिद्धांतों की आभा में भी देखी जा सकती है, जिनके अनुसार-
‘जैसे ही आप दमित यौन-इच्छाओं या गोपन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते हैं तो उसे व्यापक रूप से जनस्वीकृति मिल सकती है क्योंकि लगभग हर आदमी इन कुंठाओं, अव्यक्त इच्छाओं से भारग्रस्त है. स्वाभाविक ही इनके सार्वजनिक प्रकटीकरण से वह आकर्षित, संतुष्ट और वशीभूत होता है.’
प्रचलित नैतिकताओं के ख़िलाफ़ उत्सुकता और मन में दबे आग्रह कई तरह की विचित्रताओं, स्वीकार्यताओं और तार्किकताओं को जन्म देते हैं. यदि यह सब कला माध्यमों, विज्ञापनों (जिसका उपयोग फ्रायड के भतीजे और जनसंपर्क के पितामह एडवर्ड बर्नेस ने किया) या सामूहिक उद्बोधन से व्यक्त हो तो फिर वह व्यापक वर्ग को ‘हिप्नोटाइज’ करने में समर्थ है.
लेकिन सिर्फ़ इतनी वजह पर्याप्त नहीं. ध्यातव्य है कि यह कविता नैतिक रूप से एक पतित, पाखंडी, गैर-समतावादी होते जा रहे समाज को बेनकाब करती है. यह उत्पीड़न, संकुचन का शिकार व्यथित युवा पीढ़ी की आवाज़ बन जाती है. युद्ध की विभीषका से निकलकर आई सनसनाती सरमायेदारी के विरोध में एक चीख़. अनभिव्यक्त की अभिव्यक्ति. इसलिए भी इसे उत्सुकता से, प्रतिनिधि स्वर की तरह देखा गया. कविता में शिशु-बलि-प्रेमी ‘मोलोक’ का मिथक अमेरिकी क्रूर सत्ता के रूप में है. और उसे आततायी सत्ता द्वारा बुद्धिजीवियों को नष्ट करने, सीमेंट और अल्यूमीनियम की सभ्यता को विकसित करने, ख़तरे के हड्डी निशान, दुखों के जनक, साम्राज्यवादी, उपभोक्तावादी, स्वतंत्रता और प्रसन्नता को निगलनेवाले दैत्य के रूपक में प्रस्तुत किया गया है, जो दरअसल सरकार है.
इस मोलोक को तमाम निगमीय, संस्थागत पूँजीवाद और लोकतांत्रिक तानाशाही के साये में रहे देशों में, समय-समय पर आज भी चिन्हित किया जा सकता है. याद कर सकते हैं कि गिन्सबर्ग अर्ध-यहूदी थे सो नाज़ीवाद की भयावहता उनके मन और कविता में बनी रही.
एक पवित्र बीटनिक कमण्डल
यहाँ अनूदित फ़ुटनोट कविता जो ‘हाउल’ कविता का चौथा हिस्सा मानी गई है. यह दरअसल कुछ कैफ़ियत देने, ख़ासकर ‘हाउल’ के दूसरे भाग के स्पष्टीकरण हेतु, मनोरोगी समझे जानेवाले बौद्धिकों या उनके पागलपन के पीछे कारण की तरह पवित्रता को सिद्ध करने के लिए लिखा गया. प्रतिवाद यह कि साधारण समाज या तथाकथित सही औसत दिमाग़, दुनिया में विद्यमान वास्तविक सुंदरताओं और पवित्रताओं को संपूर्णता में नहीं समझ सकेंगे. इस तरह धार्मिक पवित्रताओं, उनकी सीमाओं और नैतिक आवरणों को भी विमर्श में लाया गया. यह बीट आंदोलन के दायरे में ‘पवित्रता’ को परिभाषित करने का प्रयास भी है.
आप किसी पतनशील समाज या देश में वहाँ की विसंगतियों, मुश्किलों और परिणामों से बचकर नहीं रह सकते, चाहे आप कितनी भी व्यक्तिगत कोशिश कर लें. पवित्रतावादी आभामंडल के नीचे जिन चीज़ों को अपवित्र मान लिया गया है, दरअसल वे सब पवित्र हैं. इस दक़ियानूसी पवित्रतावाद के पाखंड ने जीवन की संपूर्णता को, उसकी अन्य सुंदरताओं को कठिन बना दिया है, संदेहग्रस्त कर दिया है. इस
‘नियत पवित्रात्मक अवधारणा’ का भंडाभोड़ करना, एक आवश्यकता है. और पूर्णाभिव्यक्ति के साथ कोई निसंकोच, सुविचारित कविता-कर्म जितना ख़ुद को स्वतंत्र करता है, उतना ही हमारे समाज को भी.
मनुष्य जीवन के सामने प्रस्तुत सच्चाइयों और समाज की अपनी सच्चाइयों में गहरा द्वैत है. फाँक है. विशाल खाई है. हर विद्वान इसे देखता है, अनुभव करता है और अपनी सर्जनात्मकता के जरिये विरोध करता है इसलिए उसे पागल समझा जाता है. लेकिन इस पागलपन के पीछे कहीं अधिक बड़ी और नैतिकताओं के दायरों से परे की सच्ची पवित्रताएँ काम करती हैं. जैसे कहीं कोई एक तलघर है जिसमें कुछ पवित्रताओं को सदियों से अपवित्र कहकर पटक दिया गया है.
गिन्सबर्ग तलघर में पड़ी इन पवित्रताओं को, अपने ऐजैण्डे के तहत उजागर करना चाहते हैं. जिसमें वे जैज़ के साथ, नशे को, बोहिमियन जीवन, समलैंगिकता इत्यादि चीज़ों, भावनाओं और कामनाओं को पवित्र दृष्टिकोण से, मनुष्य की असीम आज़ादी से जोड़कर देख रहे हैं. यहाँ तक कि वे ‘मोलोक’ से भी कुछ पवित्रता की आशा करते हैं.
यह फ़ुटनोट-कविता पवित्रता का अपना क्रम और प्रबंधन प्रस्तावित करती है. प्रारंभ में ही 15 बार ‘पवित्र’ शब्द लिखा गया है इसका मंत्रोच्चारण जैसा संगीत और प्रभाव है. इससे वह गूँज और स्वराघात पैदा होता है जो पवित्रता की बहस को बीटनिक पवित्रता के दायरे में लाकर खड़ा करने के लिए ज़रूरी हिकमत है. (एक शब्द के दोहराव के शिल्प का बाद में संसार के कई कवियों ने अनुसरण किया, हिंदी में भी.) तुमुल पवित्रता का साँचा तोड़ने की यह एक प्रविधि भी है. जैसे कण-कण में ईश्वर की कल्पना है, उसी तरह मानो गिन्सबर्ग यहाँ कण-कण में पवित्रता को देख रहे हैं.
जिन शहरों, लोगों, स्थानों के नाम- संज्ञाएँ यहाँ हैं, ये ही वे लोग और जगहें रही हैं जिन्होंने उन्माद और पागलपन को जज़्ब किया, उसे दुत्कारा नहीं. इसलिए वे कहीं अधिक पवित्र हैं. तथाकथित पवित्रता का मख़ौल इसमें विन्यस्त है. पवित्र का यह रैटरिक ‘हाउल’ के तीसरे हिस्से में बार-बार आए ‘मैं रॉकलैण्ड में तुम्हारे साथ हूँ’ के समानांतर है और बीट लेखकों को भी पवित्रता की श्रेणी में रखने की काव्यात्मक कार्यवाही है. जिससे आप सहमत-असहमत हो सकते हैं लेकिन उस ज़िरह में शामिल होने से इनकार नहीं कर सकते.
इस तरह यह फ़ुटनोट ‘हाउल’ का चौथा हिस्सा बन जाता है. चौथा स्तंभ. कहने को पाद-टिप्पणी है लेकिन यह उसका अनिवार्य अनुसंलग्नक है और कई प्रश्नों का समाधान करता है. यह कविता प्रताड़ित लेखकों का पक्ष लेते हुए अधिक दृढ़ रुख के साथ पेश आती है. सबसे उल्लेखनीय यह कि कवि यहाँ अपना एक ‘पवित्रता का बीट-कमंडल’ बनाता है और उसमें सब कुछ इस तरह डालता चला जाता है कि तमाम अपवित्रताएँ, अनैतिकताएँ या रूढ़िगत परिभाषाएँ पवित्र होने के लिए बाध्य हों और तथाकथित अन्य पवित्रताएँ भी इसी कमंडल में समा जाएँ. इसके आगे नतमस्तक हो जाएँ.
इस एक पैराग्राफ के समक्ष.
‘हाउल’ के लिए
पाद टिप्पणी
पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र!
पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र!
दुनिया पवित्र है! आत्मा पवित्र है! त्वचा पवित्र है!
नाक पवित्र है! जीभ और शिश्न और हाथ
और गुदाद्वार पवित्र!
सब कुछ पवित्र है! हर एक व्यक्ति पवित्र है! हर तरफ़ है
पवित्र! हर रोज़ अपनी अनंतता में! हर आदमी है एक
देवदूत!
नितंब उतना ही पवित्र है जितना कोई फ़रिश्ता! एक पागल
पवित्र है जितना तुम हो मेरी आत्मा पवित्र!
टाइपराइटर पवित्र है कविता पवित्र है आवाज़ है
पवित्र श्रोता पवित्र हैं चरमानंद पवित्र है!
पवित्र पीटर पवित्र एलेन पवित्र सोलोमॉन पवित्र ल्यूसिएन पवित्र
केरोएक पवित्र हंकी पवित्र बरोज़ पवित्र
कैसेडी पवित्र अज्ञात गँडमरा और तकलीफ़ज़दा
भिखारी पवित्र आदमी में छिपे स्वर्गदूत पवित्र!
पागलखाने में मेरी मां पवित्र! पवित्र शिश्न
केन्सस के पितामहों के!
पवित्र कराहता हुआ सैक्सोफोन! पवित्र ‘बोप
एपोकेलिप्स’! पवित्र जैज़बैंड्स मारिजुआना
हिप्स्टर शांति और हीरोइन और ड्रम्स!
पवित्र गगनचुंबी इमारतों और गलियारों का अकेलापन! पवित्र
लाखों लोगों से अटे कैफ़ेटेरिया! पवित्र
गलियों के नीचे बहती आँसुओं की रहस्यमय नदियाँ!
पवित्र एकाकी विशाल रथ! पवित्र विशाल मेमना
मध्य-वर्ग! पवित्र सनकी चरवाहे
विपल्वी! लॉस एंजिल्स खोदकर निकालता है जो लॉस एंजिल्स!
पवित्र न्यूयॉर्क पवित्र सैन फ्रांसिस्को पवित्र पेओरिया और
सिएटल पवित्र पेरिस पवित्र टेंजियर पवित्र मास्को
पवित्र इस्तांबुल!
पवित्र अनन्तकाल में समय पवित्र समय में अनंतकाल पवित्र
अंतरिक्ष में घड़ियाँ पवित्र चौथे आयाम पवित्र
पाँचवाँ इंटरनेशनल पवित्र मोलोक के भीतर देवदूत!
पवित्र समुद्र पवित्र रेगिस्तान पवित्र रेलमार्ग पवित्र
लोकोमोटिव पवित्र दृष्टियॉं पवित्र दृष्टिभ्रम
पवित्र चमत्कार पवित्र नेत्र-गोलक पवित्र
रसातल!
पवित्र क्षमा! दया! दान-पुण्य! आस्था! पवित्र! हमारी!
देह! पीड़ाएँ! उदारता!
पवित्र अलौकिक अतीव शानदार मेधावी
आत्मा की दयालुता!
सन्दर्भ : बोप एपोकेलिप्स’- जैज़ का एक प्रकार. बाकी संदर्भ लेख में यत्र-तत्र दर्ज हैं.
अंग्रेज़ी में ‘हाउल’ कविता यहाँ पढ़ें.
लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं. किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com |
हम जैसे छोटे शहर में रहनेवाले लोगो को समालोचन पर दुर्लभ चीजें पढ़ने को मिल जाती हैं.
उसके लिये कुमार अम्बुज और आपका शुक्रिया.
कमाल है. ऐसे बेहतरीन आलेखों के लिए अरुण जी आपका और कुमार जी का आभार..
यह लिखत हमारे सहेजने के लिए एक दस्तावेज़ है।
एक रुका हुआ काम अंबुज जी के हाथों पूरा हो गया। हाउल कविता अब हिंदी में पूरी उपलब्ध है। हालांकि अमेरिकी भूगोल और संस्कृति में यह इतने गहरे धंसी है कि किसी भी अच्छी कविता की तरह मूल के सिवा किसी अन्य भाषा में इसे घसीट कर ही ले जाना पड़ेगा।बचपन से ही अंग्रेजी की दो आधुनिक कविताओं का हल्ला सुनता आ रहा हूं। वेस्टलैंड और हाउल। पहली को तीस साल पहले जैसे-तैसे लंगोट बांधकर पढ़ा, दूसरी के मिथ में ही जीता रहा। खासकर इसकी गिंसबर्गीय प्रस्तुति को लेकर त्रिलोचन जी की संस्मरणात्मक टिप्पणियां अब तक इसे न पढ़ने में मेरे लिए सहायक सिद्ध हुईं। आज यहां पड़े हुए लिंक से यह टला हुआ काम भी हो गया। अमेरिकी फेटिशिज्म (वस्तुपूजक दृष्टि) की यह खासियत रही है कि अपनी महानतम रचनाओं को वह एक खास समय-संदर्भ में बांधकर उन्हें निहत्थी बना देता है। ऐसा इस कविता के साथ भी हुआ है। लेकिन इसे पढ़कर ही पता चलता है कि वह क्या चीज है जो सारे दम के बावजूद गिंसबर्ग का ही समवर्ती बॉब डिलन आपको नहीं दे सकता। इस जानलेवा बेचैनी की तुलना- अगर करना जरूरी हो तो- सिर्फ मुक्तिबोध से की जा सकती है। हालांकि यह चीज इतनी विरल है कि इसे कसौटी बनाने पर दुनिया के ज्यादातर कवि व्यवस्था-हित में इसको ढंकने-तोपने और जितनी बच जाए, उसका खोमचा लगाने में दिलचस्पी लेते दिखाई देते हैं।
अवांतर- हिन्दी में राजकमल चौधरी से धूमिल आदि तक यह प्रभाव लक्षित है. सर्वज्ञात है कि गिन्सबर्ग भारत प्रवास पर भी रहे. बनारस, पटना, कलकत्ता में अनेक कवियों से मिलने का ज़िक्र होता ही रहा है. राजकमल चौधरी से गिन्सबर्ग की कलकत्ता में अनेक विचार संसर्ग हुए. त्रिलोचन के पुत्र जयप्रकाश सिंह की संस्मरणात्मक पुस्तक में दर्ज है कि गिन्सबर्ग ने त्रिलोचन पर, सीढ़ियों से उतरते हुए दृश्य को बाँधकर, एक कविता भी लिखी थी. फिर वे बौद्धधर्म के प्रति आकर्षित हुए और फिर उसके अनुयायी भी रहे. आदि-इत्यादि.)
यह प्रसंग सविस्तार गिन्सबर्ग के *इंडियन जर्नल्स* में बराबर दर्ज है। वहीं से त्रिलोचन जी के सुपुत्र को मिला होगा।
जो हमने त्रिलोचन जी से खुद सुना वह कहानी यूँ है:
गिन्सबर्ग को Psychedelic अनुभव की लालसा थी। शास्त्री जी गिन्सबर्ग को संकरी गलियों से तेज़ दौड़ाते हुए दशाश्वमेध घाट पर ले आए। किसी नशीले पदार्थ को खाने से बरज दिया गया उन्हें।
फिर हमारे गुरु कवि त्रिलोचन ने कहा: उज्ज्बक अब आसमान में यूं देखो कि सूर्य तुम्हारी आँखों के कोनों में रहे। सीधे मत देखना उसे।
भवों में इतना पसीना था कि सीढ़ियों को उतरकर जल तक पहुंचते ही जब सूर्य को शास्त्री जी के सुझाए ढंग से गिन्सबर्ग ने देखा तो इंद्रधनुष कौंध गया भवों के बीच।
बतौर फ़िल्बदीह त्रिलोचन ने अपनी यह कविता उच्चार दी, जो उनकी प्रसिद्ध कविताओं में है
गर्मियों में इन्द्रधुनु जो भौं पर आ टिका
तो मैंने उसे बादलों को दे दिया
इन्द्रधुनु आकाश में ही भला लगता है
—–
आलेख रोचक और पठनीय है। अनुवाद भी सुंदर।
बस इतना कहूँगी कि *अश्लील” शब्दों का अनुवाद भी *अश्लील*होना चाहिए। असद ज़ैदी की एक कविता में बस में लिखी ग्राफीति को जस का तस कविता में लिख दिया गया है।
गुदाद्वार और शिश्न आदि शब्दों को बदल देना चाहिए। हिंदी में तो गर्मागर्म शब्द हैं ही उनके लिए
एक विसरा दिए गए कलखंड,जिसमे कविता अपने शिल्प और अभिजात्य से मुक्त हो रही थी क़ो पूरी गंभीरता एवं विस्तार से विश्लेषित करने के लिए अम्बुज जी का आभार और समलोचन को बधाई.
यह शायद वर्ष 70-75 का समय रहा होगा जब गिंसबर्ग, उसकी कविता और उसके साथ लगातार इंटरएक्शन करते कवियों को लेकर लेख धर्मयुग और अन्य पत्रिकाओं छपे थे।
बनारस में उनके प्रवास को लेकर भी चर्चाएं थीं। वह अकविता जैसा कुछ माहौल क्रिएट किया जा रहा था। उस समय कुछ समझ नहीं आ रहा था। कुछ वर्षों तक उसका हल्ला रहा। यह कुमार अंबुज के लेख से लग रहा है कि वह एक विचारधारा की विचारोत्तेजक बहस थी । और उसका खास मायने था। कविता का बौद्धिक उससे आंदोलित था।
पुनः: इस दृश्य पटल पर इस विचार को देखना और समझना रोमांचक है।
काश गिन्सबर्ग को तत्कालीन ओशो और महेश योगी के आध्यात्मिक संदर्भ में भी जोड़कर देखा जाता. इन चर्चाओं में नागानंद मुक्तिकंठ की अवहेलना नहीं होनी चाहिए क्योंकि सच्चे मायनों में वही गिन्सबर्ग के सजल उर शिष्य की भूमिका निभा रहे थे.
. संभवतः साठ के दशक में, जब हम अबोध रहे होंगे, मलय रायचौधरी पलामू के डाल्टनगंज में मत्स्य अधिकारी थे! इसलिए ‘अकविता’ की यह धुंआइन बयार वहां भी पहुंची थी. इससे जुड़े नई ढब के इन काव्य योद्धाओं ने ‘त्याग-पत्र’ नाम से पत्रिका निकाली थी. समीर, मलय और राजकमल चौधरी आदि इसमें छपे हैं!
यह सब प्रसंग हमें डॉ. चंद्रेश्वर कर्ण और सत्यनारायण नाटे जैसे अग्रज सुनाया करते थे! झारखंड अलग राज्य बनने के बाद पलामू को अब जबकि अपना विश्वविद्यालय मिल चुका है, साहित्य के इस इतिहास का उत्खनन और सूचनाओं की टूटी कड़ियों की तलाश का कार्य विधिवत् होना ही चाहिए!
महत्वपूर्ण यह है कि गिन्सबर्ग पर कुमार अम्बुज ने लिखा है। एक बड़े पंख वाले पंछी की उड़ान का आकलन एक दूसरा बड़ा पंछी कर रहा है। इससे पहले गिन्सबर्ग और बीट पीढ़ी के बारे में मेरी कोई स्पष्ट राय नहीं थी। राजकमल चौधरी और धूमिल के सन्दर्भ में पढ़ते हुए एक धुंधला सा या उथला सा विचार बना था जो हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते हुए परीक्षाओं में खर्च हो चुका था।
इस आलेख की ताज़गी विस्मित करने वाली है और अविस्मरणीय है वह समझ जो एक पीढ़ी की काव्य यात्रा के बारे में कुमार अम्बुज ने रेशा रेशा खोलकर रख दिया है।
कुमार अम्बुज के कद के और कविगण अपना बुद्धि आलस त्याग दें तो हिंदी की वर्तमान और आगामी पीढियों की ज्ञान दरिद्रता का अंधकार तिरोहित हो जाएगा।
समालोचन और अरुण देव का आभार।