अंक, अक्षर और आख्यान
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नाद और लय! किसी बीजशक्ति का आरंभ, गति और लय… आरंभ, गति और लय. सतत, निरन्तर, अबाधित. आरंभ, गति और लय! नादबिन्दु-गति-विलय! ‘ना’ – प्राण (शक्ति). ‘द’ – अग्नि (ऊर्जा). इन दोनों के संयोग से उत्पत्ति, फिर गति, फिर विलय. नदी में लहर उमगती, आगे बढ़ती फिर उसी नदी में विलीन हो जाती. मिट्टी से एक फूल खिलता, सुगन्ध बिखेरता, मिट्टी में मिल जाता. हवा आती, सरसाती, चली जाती. ध्वनि उठती, आगे बढ़ती, विलीन हो जाती. यह सबकुछ निरन्तर होता ही रहता, बिना रुके.
लेकिन उत्पत्ति, गति और विलय के मध्य कुछ ऐसा भी था जो अक्षुण्ण था. अव्यय था. क्षण-क्षण परिवर्तित, नष्ट होते जीवन में वह क्या था जो अनश्वर था? वह क्या था जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित संततियों में सूत्रबद्ध संरक्षित था?
वह जो भी था सृष्टि के कण-कण के विस्तार में था, जिसकी कथा हजारों तरह से कही जा सकती थी, जिसके चित्र हजारों तरीके से आँके जा सकते थे, जिसकी अभ्यर्थना में कोटि-कोटि काव्य रचे जा सकते थे. लेकिन प्राप्त हुआ ज्ञान अक्षर कैसे हो? इस उद्देश्य के विचार दिन-रात अनथक घोड़ों की तरह दौड़ते टकबक-टकबक, टकबक-टकबक … न सोने देते, न जागने …
अनुभूत ज्ञान को अभिव्यक्ति के व्यवस्थित प्रारूप में उरेढ़ना भी कम मुश्किल नहीं. सूचनाओं और भावों के आदान-प्रदान के लिए भाषा तो विकसित हुई लेकिन कुछ और भी आवश्यक था जिसके बिना व्यावहारिक कार्यकलापों में कितनी ही बाधा, कितनी ही कठिनाइयाँ होती ही रहती थी. जैसे हमारे पास इतनी सारी गौवें हैं लेकिन ये कितनी हैं?
आज ही तो जंगल में गौ का अधखाया शव मिला. यह अवश्य ही कल जंगल में अपने झुण्ड से बिछड़कर भटक गई होगी फिर किसी अन्य जीव का भोजन बन गई होगी. ऐसा तो होता ही रहता है. शाम को जंगल से सभी गौवें लौट आयी हैं यह निश्चित करने का कौन-सा उपाय सटीक हो, हम अबतक नहीं खोज पाए हैं. हमने अपनी गौवों पर लकीर के चिन्ह बनाए लेकिन इससे बात न बनी. फिर हमने हर अगली गौ पर एक और लकीर बनाने की युक्ति आजमाई लेकिन इससे तो समस्या और बढ़ गई. तब हमने हरेक गौ के लिए एक लकीर किसी सुरक्षित स्थान पर उकेरा और बार-बार मिलान करते रहे. किन्तु यह व्यवस्था भी व्यवहारिक और टिकाऊ नहीं साबित हुई. लकीरों का ही सार-सम्हाल करना कठिन होने लगा. कई बार तो बच्चे ही मौज में आकर लकीर पर लकीर खींच डालते या कुछ मिटा डालते. तब हमने लकीरों के स्थान पर छोटी-छोटी रोड़ियों का उपयोग किया. किन्तु इस विधि में भी समस्या वही बनी कि रोड़ियों को सम्हालकर रखना मुश्किल हुआ. बहुतेरी विधियाँ अपनाई गई लेकिन समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रही. अब कौन-सी विधि खोजी जाए? कौन-सा उपाय कि जिससे हमारी समस्या सरलता से सुलझ जाए ? एक अन्य उलझन भरी समस्या लेनदेन में आती रहती है कि हम अपनी वस्तुओं की कुछ मात्रा को किसी अन्य की अलग तरह की वस्तुओं की कितनी मात्रा से बदलें? यह समस्या समुद्र पार के मनुष्यों के साथ लेनदेन में और भी बढ़ जाती है.
“हे ज्ञान की देवी! हम पर कृपा करते हुए उस रहस्यमयी ज्ञान-विधा का स्वरूप प्रकट करें. उसकी अद्वितीय लिपि का, उसकी शाश्वत व्यवस्था-विधान का रहस्य उजागर करें.”
मानव मेधा एकाग्र अभ्यर्थना में ध्यानस्थ हो गई. इसकी पहली झलक कब मिली थी? पहली? पहली… पहला… प्रथम… यह पहला क्या है? पहला ??? पहले के बाद क्या? उसके बाद? फिर उसके बाद? … और इसका अन्त कहाँ? कहीं होगा भी? अज्ञानता की जलन तो अग्नि की जलन से भी ज्यादा जलाती है. ज्यादा? कितना ज्यादा? कितना??? प्रश्नों से प्रश्नों की शृंखलाएँ बनती जाती हैं… शृंखला? शृंखला कैसी होती है??? … मापन-जोखन के अनगिन कार्य-व्यापार, जीवन का अथाह हिसाब-किताब हमारी समझ की सीमा में सुलझे कैसे?
“हे देवी! आप हमारी सहायता करें… कोई उपाय सुझाएँ…”
इस उपाय की झलक आदिकाल से ही इतस्ततः मिलती रहती थी जबतब. यह इतना अभिन्न और अनिवार्य था कि इसे जाने बिना कुछ भी जानना अपूर्ण था. कभी जिसकी कोई झलक दिख जाती, तो कभी कोई ध्वनि सुनाई पड़ जाती… और इन सबके बीच काल का पहिया लाखों लाख बार घूम-घूमकर भी बिना थके घूमता ही रहा.
मनस्वी का हृदय आर्तनाद से गूँज उठा था,
“हे देवी! तुम प्रकृति की शक्ति और व्यवस्था हो या स्वयम् प्रकृति या इस सृष्टि की रचयिता?” आज फिर तुम अपनी झलक दिखा गायब हो गयी वह लता और उसकी पत्तियाँ खुशी से झूम रही हैं अबतक जिधर से तुम गुजर गयी हो. क्या यही संकेत है तुम्हारा कि इन तरह-तरह की पत्तियों और फूलों को ध्यानपूर्वक देखूँ? इन्हें बाचूँ? कितने-कितने आकार-प्रकार के हैं ये यह जान लूँ…
ये अधिकांश फूलों का बाहरी घेरा सूरज के घेरे-सा ही तो है न! इस तरह के सादृश्य-समानता में कैसा रहस्य है? नदी सीधी बहती है, पहाड़ सीधे उठे हैं, पेड़ भी… लेकिन फूल घुमावदार, सूरज घेरदार… हमारी पृथ्वी कैसी है बोलो तो? चित्र-विचित्र आकार-प्रकार का रहस्य उजागर हो कैसे?
हमारे प्रश्नों का निराकरण करो देवी!”
सूर्योदय के इस देश, जिसे कालान्तर में भारत भूमि के नाम से प्रसिद्ध होना था, में जिस तरह नदियाँ बहती थीं, उसी तरह यहाँ बसे लोगों के बीच दैनिक आवश्यकताओं, विचारों और भावों के आदान-प्रदान के लिए भाषा विचरने लगी थी. लेकिन यह सब अभी वाचिक परम्परा में ही था.
ज्ञान-विज्ञान की देवी ने मन-मानस के जिन कोमलतम, मधुरतम, अनहद स्पन्दनों से इस सृष्टि की रचना की उसकी अनुभूति के लिए मनुष्य को दो उपादानों का वरदान दिया. ये दो उपादान थे- अंक और अक्षर.
अंक और अक्षर मनुष्य की दो आँखें हुईं; समानान्तर पर एक साथ उजलती-विकसती.
वृक्ष की छाया तले भूमि पर विचारमग्न बैठे किसी मनस्वी की तर्जनी जाने कब से धूल में यूँ ही कुछ आकृतियाँ बना-मिटा रही थी. जब ध्यान गया तो विचार-प्रवाह रोककर वे सजग हुए. उन्होंने पहले का खिंचित धूलिकर्म मिटाया और पुनः तर्जनी से तनिक-सा छुआ. यह तो किसी स्थानविशेष को इंगित किए जा सकने की युक्ति हो गयी!!! अहा! मनस्वी का मुखमण्डल उल्लास से चमक उठा. क्या कहें इसे? क्या नाम दें? इसे बिन्दु या केन्द्र कहें तो कैसा रहे?! बिन्दु… धरती पर, हवा में, आकाश में कहीं भी, किसी भी स्थान को सूचित करने का सुगम साधन !
इस ब्रह्माण्ड में कहीं वह बिन्दु भी तो होगी जहाँ पर जीवनी शक्ति का उद्भव हुआ होगा. बिन्दु … नादबिन्दु … उद्गम केन्द्र- प्राण और अग्नि का, शक्ति और तेज का !
आनन्द, विस्मय और कृतज्ञता के मिले-जुले भावों की सजलता से मनस्वी का मन और आँखें भर आईं. ज्ञान की देवी का स्मरण करते हुए, बारम्बार प्रणाम प्रेषित करते हुए मनस्वी ने धूल पर अभी तक दीख रहे बिन्दु को पुनः तर्जनी से छुआ. आनन्द के अतिरेक में मनस्वी की काँप गई अंगुली अपनी ओर खिंच आई. एक चेष्टा, एक क्रिया हो गई. ‘एक’!
… पहली चेष्टा, पहली क्रिया! यानी बिन्दु से विस्तार की ओर पहला कदम! इसके बिना तो क्रिया सम्भव ही नहीं! इसे किस नाम से पुकारें? बहुत सोच-विचार कर मनस्वी ने इस ‘एक’ को ‘रेखा’ कहा.
मनस्वी ने उत्साह में भरकर कई रेखाएँ खींच डाली. खड़ी-पड़ी, छोटी-बड़ी कितनी ही रेखाएँ. बिन्दु और रेखा! अनेक बिन्दुएँ… अनेक रेखाएँ. एक बिन्दु के अगल-बगल सटा-सटाकर अनेक बिन्दु बनाए और यह भी रेखा-सी बन गई. उन्होंने और रेखाएँ बनाई. एक-दूसरे को काटती, एक–दूसरे को जोड़ती, एक-दूसरे से जुड़ती.
मनस्वी ने कई और रेखाएँ खींची. एक मैं, एक यह वृक्ष, एक यह पंछी, एक यह पुष्प… सबके लिए अलग-अलग ‘एक’. हर्षातिरेक में मनस्वी ने चुटकी भर धूल उठाकर वृक्ष के तने पर ‘एक’ का चिह्न बना दिया तिलक-सा.
‘एक’ अनमोल था. इसका मिलना किसी अमूल्य कोष का मिल जाना था. कई दिनों तक मनस्वी मगन रहे. रह-रह कर अपनी ही तर्जनी निहारने लगते. अरे! उनकी तर्जनी भी तो ‘एक’ जैसी ही दीखती है. आश्चर्य! पहले क्यों नहीं सूझा? तर्जनी को उलट-पुलट कर देखते मनस्वी कभी मुग्ध, कभी गम्भीर होते रहे.
मनस्वी ने अगल-बगल दो रेखाएँ खींची: एक मैं, एक मेरी स्त्री. दो और रेखाएँ: एक अज, एक अजा; दो और रेखाएँ: एक गौ, एक वृषभ; दो और रेखाएँ: एक चिड़ा, एक चिड़ी; दो और रेखाएँ: एक मयूर, एक मयूरी. एक और एक के युग्म… कितने ही युग्मक हैं हमारे चारों ओर… दिन और रात्रि भी तो युग्मक ही है- ‘अहोरात्रि’.
समूह के बिना, सामूहिकता के बिना विस्तार सम्भव नहीं, सृजन सम्भव नहीं.
रेखाओं के विचारों में मग्न एक प्रातः व्यालू के बाद जल पीते मनस्वी ने एक अंजलि में थोड़ा जल लिया और अंजलि के जल में डुबोकर दूसरे हाथ की तर्जनी से भूमि पर कई रेखाएँ खींची. दो रेखाएँ कुछ पास-पास थीं. तनिक दूर बैठी स्त्री यह कौतुक बड़े ध्यान से देख रही थी. प्रसन्नचित्त वह पास चली आई. एक रेखा को स्पर्श कर उसने मनस्वी की ओर संकेत किया और दूसरी को स्पर्श कर अपनी ओर. फिर उसने भी ‘एक’ और ‘एक और’ रेखाएँ खींची, एकदूसरे से लगभग स्पर्श करती हुई. स्त्री का मंतव्य समझने में कोई कठिनाई नहीं थी मनस्वी को. वे मुसकुराए और यह सोचकर कि ‘एक’ और ‘एक और’ एकसाथ मिलकर एक इकाई भी बन सकते हैं, उनकी आँखों में एक चमक कौंध गई.
“इस युग्मक यानी ‘एक से एक अधिक’ को भी अलग नाम देना ही चाहिए”, उन्होंने सोचा. और तब एक दिन अस्तित्व में आया दो रेखाओं से निर्दिष्ट किया जा सकने वाला ‘द्वि’ यानी ‘दो’. दो भुजाओं की तरह. अब दिन और रात्रि के ‘दो’ पाटों बीच काल प्रवाहमान था.
संकेतों के साथ ही साथ भावाभिव्यक्ति के लिए विभिन्न ध्वनियों के उपयोग से अधिक परिष्कृत उपादान गढ़ने के सतत प्रयास भी अबाधित रूप से चल रहे थे और इस उपक्रम में भाषा भी रूपाकार ग्रहण करती चल रही थी.
काल कुछ क्षण सुस्ताने बैठा जहाँ, सुमेधासम्पन्न एक तेजस्वी अपनी तर्जनी निहार रहा था. तर्जनी पर भी रेखाएँ थी. जहाँ रेखाएँ थीं, वहाँ गाँठें थीं. इन्हीं गाँठों पर तर्जनी मुड़ती थी. अन्य अंगुलियों में भी ऐसा ही था. ये गाँठें एक नहीं, दो नहीं उससे भी एक अधिक थीं. एक मेरे लिए, एक मेरी पत्नी के लिए और एक शिशु के लिए… उसने सोचा. अंगुलियों की रेखाओं पर वह गिन सकता था- एक मैं, दूसरा मेरी पत्नी और यह जो ‘एक और’ है यह मेरा शिशु…एक, दो और फिर… . रेखाएँ खींचना वह जानता था तो वह खींचता जा रहा था रेखाएँ… एक, दो और एक और. उसने तरह-तरह से ‘एक, दो और एक और’ रेखाएँ खींची. एक, दो के बाद ‘एक और’ को उसने ‘त्रि’ यानी ‘तीन’ कहा. एक, दो और तीन. सबसे बड़ी राशि तीन. तीन माने कि ‘समस्त’. समस्त संसार यानी तीनों लोक. अपरम्पार था तीन का वैभव! तेजस्वी ने तीन की राशि से तीनों लोकों की गणना कर ली थी. अब तो उससे अधिक सम्पन्न कोई नहीं. और कौतुक तो यह था कि इस गणना का औजार उसकी खुद की अँगुलियों के पर्व (गाँठें) थे. गणना की दुनिया में क्रान्ति घटित हो चुकी थी.
तेजस्वी के आनन्द और उत्तेजना का पारावार न था. हर्षातिरेक में वह तरह-तरह से रेखाएँ खींचता. एक, दो और तीन रेखाएँ खींचते हुए उसे एक ऐसी आकृति मिली जिसे बिना अंगुली उठाए पूरा किया जा सकता था. दो भुजाओं के साथ एक तीसरी भुजा जुड़ने से बना यूप: त्रिभुज. इसमें तीन ही कोने बनते थे. यूप यानी बन्द आकृति.
बीतते समय के साथ जाने कब अँगुलियों की गाँठों के बाद अँगुलियों की संख्या पर दृष्टि गई तो संख्या समूह में अगली संख्या ‘चत्वारि’ यानी ‘चार’ का जुड़ाव हुआ जो ‘तीन से एक अधिक’ था और इसका अर्थ भी ‘सबसे बड़ी संख्या’ या ‘समस्त’ ही हुआ. दो का दोगुना था चार. दो के दो समूह बनाने से चार मिलता था. आश्चर्यजनक था कि केवल दो रेखाओं से ही चार की प्रतीति हो सकती थी. किसी स्थान पर एक खड़ी रेखा के बीचोंबीच दोनों ओर को जाती एक पड़ी रेखा खींच देने से चार (भाग) दृश्यमान हो जाता था:
ये तो आगे, पीछे, अगल, बगल के द्योतक हो सकते हैं. ये ही हैं चार कोने और ये ही हैं चार ओर को निर्दिष्ट करती चार दिशाएँ. और यही है इन चारों को यानी समस्त को जोड़ सकने की आकृति.
इसके बाद चार के समूह में गिनने की पद्धति प्रचलित हुई जो गंडा कहलाई. यानी एक चार, दो चार… को एक गंडा, दो गंडा आदि कहा जाने लगा. इसके साथ ही विकसित हुआ चार भुजाओं यानी चार रेखाओं का यूप जिसका नाम रखा गया: चतुर्भुज.
बिन्दु, बृहत् बिन्दु रूप घेरा, रेखा, त्रिभुज और चतुर्भुज.
इन सभी आकृतियों के उपयोग बहुतेरे थे. निवास के लिए गृह बनाने से लेकर उनकी सज्जा तक, नाना प्रकार की गृहोपयोगी वस्तुओं से लेकर दैनंदिन क्रियाकलापों तक इनके बहुविध प्रयोग थे. यज्ञों और कर्मकाण्डों में समिधा प्रज्वलित करने के लिए प्रायः चतुर्भुज के आकार का कुण्ड बनाया जाता था. इन आकृतियों के उपयोग से कई यन्त्र और पूजा पद्धतियाँ भी प्रचलन में आयीं.
गणना के लिए अँगुलियों, उनकी गाँठों आदि के उपयोग की तरह ही लम्बाई या ऊँचाई के मापन की विभिन्न आवश्यकताओं के लिए भी प्रारम्भिक रूप में शरीर के अंगों से ही काम चलाया गया. अंगुल, वितस्ति (बित्ता), अँजुरी, हाथ (मध्यमा अंगुली के सिरे से कुहनी तक की लम्बाई), आजानु (जानु अर्थात घुटना तक), आवक्ष, आशीर्ष, पुरुषप्रमाण (किसी वयस्क पुरुष के सीधे खड़े होकर हाथ उठाने पर पैर के तल से मध्यमा अँगुली के सिरे तक की कुल लम्बाई) आदि कामचलाऊ मानकों का प्रयोग किया गया. इन विभिन्न मापों के आपसी सम्बन्धों का भी धीरे-धीरे पता चलता गया. जैसे किसी व्यक्ति का एक बित्ता उसके (अँगूठा को छोड़कर) बारह अँगुल के बराबर होता है या व्यक्ति साढ़े तीन हाथ का होता है यानी किसी व्यक्ति की आशीर्ष ऊँचाई उसी के हाथ (मध्यमा के सिरे से कुहनी तक) की लम्बाई का साढ़े तीन गुणा होता है. लेकिन व्यक्ति-व्यक्ति के आकार में अन्तर के अनुसार इन मानो में अन्तर होने की वजह से धीरे-धीरे इनका मानकीकरण हुआ जिसकी चर्चा बाद में विस्तार से की जाएगी.
किन्तु लम्बे समय तक अँगूठा गिनती की दुनिया से अछूता ही रहा था. और जब यह जुड़ा तब जो संख्या बनी वह थी ‘पंच’ यानी पाँच. इसका अर्थ था ‘चार से एक अधिक’ और यह गणना का अन्त था. और इसके साथ ही पूरी हो गई थी मुष्टिका. बँध गई थी मुट्ठी. जब पाँच सबसे बड़ी संख्या थी तब पंचमान क्रम में गिनती शुरू हुई जिसे गाही कहा गया. यानी एक पाँच, दो पाँच को एक गाही, दो गाही आदि.
वर्षानुवर्ष ऋतुचक्र को देखते हुए मनुष्य ने धीरे-धीरे यह समझा कि ऋतुएँ ‘एक गाही से एक अधिक’ थी. तब ‘एक गाही से एक अधिक’ के लिए संख्या समूह में ‘षड्’ जुड़ा. कुछ ऋतुएँ बहुत मनमोहक थी तो कुछ बहुत दुष्कर. ऋतुसंक्रमण यानी एक ऋतु से दूसरी में परिवर्तन का काल प्रायः सुखद होता था. जैसे शरद जब धीरे-धीरे कम होता हुआ ग्रीष्म में परिवर्तित होता तो यह परिवर्तन बहुत आह्लादक और आनंददायक होता था. पूरी प्रकृति में जैसे मदनोत्सव का उछाह नृत्यरत दीखता था. आनन्दमग्न झूमती वनस्पतियाँ रंगों और सुगंधियों का कोष उड़ेलती प्रतीत होती थीं. इसी तरह शरद जब धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ आने की झलक देता तो ओसकणों की चादर पर पारिजात पुष्पों की अल्पना से हर प्रभात चित्रित-सुवासित होता रहता था. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण थी ग्रीष्म और शरद के बीच की वर्षाऋतु. काले-घनेरे-घटाटोप बादलों की तुमुलध्वनि से भयाक्रान्त करते मूसलाधार से लेकर रिमझिम फुहारों तक का विविध नादपूर्ण कालखण्ड. धराधाम को आप्लावित करती यह ऋतु विशेष महत्वपूर्ण थी.
प्रचण्ड तापग्रस्त ग्रीष्म और ठिठुरते जमते शरद की दुश्वारियों के बीच जीवन को चलायमान रखने के संसाधन के रूप में कई तरह के अनाजों को उगाने की विविध विधियाँ जो विकसित हो सकी थीं, वह वर्षा ऋतु के ही कारण तो था. वर्षा ऋतु से ही नदियों में जल भरा रहता. जल के देवता हमेशा प्रसन्न रहें! नदियाँ सदा-सर्वदा जलपूरित रहें! जल है तभी तो जीवन है. जल माता है. नदियाँ माताएँ हैं. वर्षा के देवता की हमेशा ही जय हो! वर्षा के देवता जब प्रसन्न होते हैं तो आशीर्वाद रूप में आकाश के इस छोर से उस छोर तक अपना रंग-बिरंगा धनुष दिखाते हैं. इसके सुन्दर-सुन्दर रंगों से आँखें तृप्त होती हैं, मन-मानस उर्जस्वित होता है. कितने तो रंग हैं इसमें! एक, दो … ! इसमें तो षड् से भी एक अधिक रंग है! ‘षड् से एक अधिक’! षड् से भी एक अधिक को क्या कहें??? और रंग-बिरंगे धनुष वाले वर्षा के देवता को क्या नाम दें?
वर्षा के देवता को क्या ‘इन्द्र’ नाम से पुकारें???
“हे इन्द्रदेव! आप सर्वदा हम पर कृपालु रहें.”
इन्द्र के धनुष के रंगों की गिनती से गणना समूह में अगली राशि जुड़ी ‘सप्त’ यानी सात और तब यह सबसे बड़ी राशि थी. यह देवत्व के आशीर्वचन की राशि थी. यह प्रकृति की रहस्यमयी, अनन्त, अगोचर शुभता की राशि थी. अँधेरा होते ही आकाश में लगभग एक ही स्थान पर एक विशेष आकृति में चमकते हुए तारों के समूह में भी सात ही तारें हैं. क्या प्रकृति सप्तरंगी है? इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह क्या आकाश के भी सात स्तर हैं? क्या ब्रह्माण्ड के भी सात स्तर हैं? उनके निनाद का स्वर भी कहीं सात ही तो नहीं? प्रकृति में गुंजायमान जितनी भी ध्वनियाँ हैं क्या वे भी सात ही तरह की हैं? ओह! प्रश्न कभी अकेला नहीं होता, अपने पीछे एक लम्बी शृंखला लिए चलता है जैसे एक दिन के पीछे-पीछे कितने ही दिन… एक रात के पीछे-पीछे कितनी ही रातें…
कितने ही दिन और कितनी ही रातें बीतीं. अनगिनत वर्षाऋतुएँ भी बरस-बरसकर थमीं और फिर बरसीं. जीवन और उसके कार्य-व्यापार कुछ और व्यवस्थित होते रहे. नए अनुसंधान होते रहे. नयी-पुरानी व्यवस्थाएँ बनती-बिगड़ती रहीं. इसी प्रक्रिया में गणना समूह में अगली राशि जुड़ी ‘अष्ट’. वह भी खेल-खेल में. कुछ बच्चियाँ सरोवर में से कुछ कमल पुष्प ले आयी थीं. हाल ही में सीखे अंकों की गणना कमल-पुष्पों की पंखुरियों पर करती वे अचम्भित हुई जा रही थीं क्योंकि सभी पुष्पों में उन्हें सप्त से एक अधिक दल (पंखुरियाँ) मिल रहे थे. अब समस्या ही समस्या थी कि ‘इस वाले एक अधिक’ को क्या कहें? कुछ समय तक इस समस्या में ऊभ-चूभ होती रहने के बाद उन्होंने एक की माता से जाकर पूछा. माता दही बिलोने में व्यस्त थी. तत्काल कुछ सूझ नहीं रहा था और उधर सूरज अस्त होने को था. यही देखकर माता ने बच्चियों से कह दिया “अष्ट”. और धीरे-धीरे सप्त से एक अधिक की संख्या के लिए यही “अष्ट” सर्व स्वीकृत हो गया.
यह भी पिछले अंक ‘सप्त’ से एक अधिक था और इसका अर्थ भी समस्त ही था. अब अष्ट वह संख्या हुई जो सबसे बड़ी थी. इससे ऊँची कोई संख्या नहीं थी. अष्टदल कमलों से सृजित हुई इस संख्या का महत्त्व इतना अधिक था कि इसी के आधार पर दिन-रात का चक्र अष्टयाम में बँटा. सूर्य के ‘अस्त’ हो जाने के ठीक बाद से अगले ‘अस्त’ होने तक के कालखण्ड को “अष्टयाम” कहा गया और अष्टयाम में ‘एक याम’ के अष्ट समूह थे. एक याम ‘अष्टयाम’ का आठवाँ भाग था. अष्ट में दो के चार समूह थे या चार के दो समूह. अष्ट सम भाग में खण्डित हो सकता था.
अष्ट यानी आठ रेखाओं या शलाकाओं से भिन्न-भिन्न तरह के आकार निर्मित किए गए. बच्चों के मन बहलाव के लिए और बुद्धि की तीक्ष्णता परिमार्जित करने के लिए बड़े लोग उन्हें ऐसी पहेलियों में जब-तब उलझाया भी करते. इन्हीं क्रियाकलापों में कुछ ऐसी आकृतियाँ भी रच गईं जो सार्वकालिक महत्व की सिद्ध हुईं. इनमें से ही एक आकृति (नीचे दर्शायी आकृतियों में पहली) को ‘स्वस्तिक’ कहा गया.
‘स्वस्तिक’ आधारभूत रूप से किसी एक केन्द्रबिन्दु से अलग-अलग दिशाओं में गति का द्योतक था. इस आकृति में घुमाव भी लक्षित था जो चक्र या पहिया को दर्शाता प्रतीत होता था. बहुत सम्भव है कि सामान लम्बाई की शलाकाओं से स्वस्तिक और ऐसी ही अन्य आकृतियों की रचना करते-करते ही अरायुक्त चक्रों (पहियों) को निर्मित करने की सूझ मिली हो और यही सूझ आगे चलकर वृत्त के ज्यामितिक विश्लेषण की आधारशिला भी बनी हो यानी केन्द्र, त्रिज्या और परिधि का सह-सम्बन्ध. या कहीं इसका विपरीत तो नहीं हुआ था कि पहिया पहले निर्मित हुआ और उससे मिलती-जुलती सरलाकृतियाँ बाद में रची गईं… जो भी रहा हो धीरे-धीरे स्वस्तिक को शुभता का, लाभ और ऐश्वर्य का प्रतीक मान लिया गया. इसमें व्यापारिक उन्नति भी अवश्य ही एक कारण रहा होगा जिसका सम्बन्ध अरायुक्त पहिए से तो था ही.
फिर न जाने कब संख्या-समूह में अगली संख्या आ जुड़ी ‘दश’. दश अथवा दस का भी अर्थ था सबसे बड़ा, विशाल. अब गणना के सभी कार्यों के लिए दश तक की संख्याएँ थीं.
कालान्तर में एक रोचक घटना यूँ घटी कि एक दिन ईखों के गट्ठर से कुछ बच्चों को ईख देती मानवी ने अपनी अँगुलिओं पर इसे गिना. गणना दश पर पहुँची लेकिन दोनों हाथ की सभी अँगुलियों में से एक अँगूठा बचा रह गया. अँगुलियों में सबसे छोटे इस अँगूठे के साथ यह कितना बड़ा अन्याय हुआ था! गणना समूह में इसे भी शामिल होना चाहिए. उसने आस-पड़ोस के अन्य कई स्त्री-पुरुषों से इसकी चर्चा की. बात तर्कसम्मत थी!
विचार, विमर्श और परिचर्चाओं के एक लम्बा दौर बीता और अन्त में यह तय किया गया,
“जबकि दश सबसे बड़ी संख्या है और अँगूठा एक छोटी अँगुली इसलिए ‘उन’ नामक एक अन्य संख्या सिरजी जाएगी जो दश से एक कम लेकिन अष्ट से एक अधिक होगी. इस तरह हमारी प्रत्येक अँगुली को समान रूप से एक-एक संख्या प्राप्त हो जाएगी. जैसे सृष्टि की आदि शक्ति ने हमें दश अंगुलियाँ ही प्रदान की है, इसी प्राकृतिक व्यवस्था का अनुसरण करते हुए गणना की व्यवस्था के लिए हम संख्या समूह में दश संख्याओं के समूह की व्यवस्था का प्रतिपालन करेंगे. ये संख्याएँ होंगी:
एक, द्वि (दो), त्रि (तीन), चत्वारि (चार), पञ्च (पाँच), षष्ट (छः), सप्त (सात), अष्ट (आठ), उन और दश (दस). इन्हीं दश संख्याओं को हम गणना पद्धति की इकाई के रूप में उपयोग में लाएंगे और इसी कारण गणना पद्धति को हम दशमान पद्धति कहेंगे.”
तो इस तरह बढ़ते हुए क्रम की बजाए घटते हुए क्रम में निर्मित हुई संख्या का उदाहरण बना ‘उन’. ‘उन’ का अर्थ ‘दश से एक कम’ था जो कालान्तर में उलटकर ‘नउ’ से होते हुए नौ (नव यानी नया) हुआ. इसमें तीन के तीन समूह अन्तर्निहित थे.
एक से शुरू हुई अन्वेषी यात्रा के दश तक पहुँचने में सहस्रों वर्षों का अन्तराल बीत गया था. हाथों की दस अँगुलियों की तरह ही पाँवों में भी दस अंगुलियाँ थी. दस संख्या का एक और समुच्चय मानव देह में ही दृश्यमान था. दस और दस के इन दो समूहों को मिलाकर ‘कोड़ी’ कहा गया. लेकिन दस से एक अधिक या दश से दो अधिक संख्याएँ, जो कोड़ी से कम थीं, उनकी गणना के लिए भी ‘दशमान’ का आधार रखते हुए ही धीरे-धीरे उपाय खोजे गए जो सरल भी थे और सुग्राह्य भी. जैसे ‘दश से एक अधिक’ के लिए ‘एकादश’, ‘दश से दो अधिक’ के लिए द्विदश (द्वादश) आदि. इस तरह ‘दश से अष्ट अधिक’ के लिए अष्टादश तक तो कोई दुविधा नहीं हुई लेकिन अगली दो संख्याओं के लिए नामकरण के रथ का पहिया फँस गया. दशमान क्रम की शृंखला के अनुसार अगली संख्या के नाम में ‘उन’ का प्रयोग करना आवश्यक था जिसे अपनी अगली संख्या से पहले लिखा जाना चाहिए था और यह अगली संख्या ‘द्विदश’ तो कही नहीं जा सकती थी. ‘द्विदश’ तो पहले ही ‘दश से दो अधिक’ की राशि के लिए प्रयोग में लाया जा चुका था. काफी सोच-विचारकर दश के दो समुच्चयों के लिए ‘विंशतिः’ शब्द का प्रयोग हुआ और इससे एक कम के लिए ‘उनविंशतिः’ (उन्विंश).
और धीरे-धीरे यह शृंखला बढ़ती गई. क्रमागत राशियों को भी दशमान प्रक्रिया के अनुसार ही नए नाम मिलते रहे. दश के तीन समुच्चय को त्रिंशत्, चार समुच्चय को ‘चत्वारिंशत्’, पाँच समुच्चय को ‘पंचाशत्’, छः समुच्चय को ‘षष्टिः’, सात समुच्चय को ‘सप्ततिः’, आठ समुच्चय को ‘अशीतिः’, नौ समुच्चय को ‘नवतिः’, दश समुच्चय को ‘शतम्’, शतम् के दश समुच्चय को ‘सहस्रम्’, सहस्र के दश समुच्चय को ‘अयुत’ आदि नाम निश्चित किए गए और दैनन्दिन जीवन में गणना सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने में इनका उपयोग होने लगा.
जनसामान्य और बच्चों की स्मृति में ये संख्याएँ स्थायी रूप से रच-बस जाएँ इसलिए जीवन-जगत से जुड़ी अन्य वस्तुओं और प्रसंगों के माध्यम से इन्हें बोलचाल में यूँ समाहित कर लिया गया जैसे गोरस में शर्करा. उदाहरण के लिए संख्या दो के लिए यमल, अश्विनौ, लोचन अथवा नेत्र, कर, कुच, भुज, पक्ष आदि शब्दों का प्रयोग किया गया. इसी तरह तीन की संख्या के लिए त्रिलोक (भूঃ, भुवঃ, स्वঃ), त्रिशक्ति (महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती), त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), त्रिकाल (भूत, वर्तमान, भविष्य अथवा प्रातः, मध्याह्न, सायम्), त्रिताप (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) आदि.
शब्द-सम्पदा और ज्ञान-विज्ञान के विविध आयामों की प्रगति के साथ आने वाले समय में अनेकानेक उदाहरण और जुड़ते चले गए. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था संख्याओं के दृश्य प्रतीक. हर अंक की बनावट सुनिश्चित करने में चिन्तन, मनन और दर्शन की सचेत प्रक्रिया समायोजित की गयी थी.
बिन्दु, बिन्दु का ही विस्तृत रूप वृत्त, रेखा (लकीर) और त्रिभुज-चतुर्भुज जैसे तरह-तरह के यूपों की सहायता से समय के साथ विभिन्न प्रकार के आकारों-प्रकारों वाले अनेक चिह्न उत्पन्न हुए. सबसे पहले अस्तित्व में आई रेखा को संख्या एक के लिए उपयोग में लाया गया था. जब एक-एक कर के विभिन्न संख्याएँ निर्मित हो रही थी, उनके दृश्य प्रतीकों की रचना भी लगभग साथ-साथ ही हो रही थी. एक की ही तरह अन्य कई मामलों में भी दृश्यप्रतीक पहले आए, ध्वनिप्रतीक बाद में (जैसे इन्द्रधनुष के जैसी कुछ घुमावदार रेखा का चिह्न जो संख्या ‘सप्त’ के लिए उपयोग में लाई गई) जबकि भाषा के रचाव में यह प्रक्रिया उलटी थी. भाषा बोलचाल के उपयोग में तो थी लेकिन इसका दृश्यस्वरूप रचित होने में सहस्रों वर्षों का समय लगा. भाषा के अंकन के लिए लिपि की आवश्यकता थी और उसके लिए अक्षर की. संख्याओं के दृश्यप्रतीकों की तरह ही अक्षरों के दृश्यप्रतीक भी गढ़े गए. और इन अक्षरों के गढ़न में भी विभिन्न आकार-प्रकार वाले चिह्नों का ही प्रयोग किया गया. कई बार तो संख्यासूचक चिह्नों का ही प्रयोग कर लिया गया. जैसे सप्त के लिए उपयोग में लाए गए दृश्यप्रतीक से भाषा में जो सबसे महत्वपूर्ण अक्षर रचा गया, वह था- “ॐ”.
हर अंक की बनावट सुनिश्चित करने में भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की सुचिन्तित पद्धति समायोजित थी. अंक एक पहली क्रिया सम्पन्न हो जाने का परिचायक था जो एक केन्द्र (नन्हें वृताकार शीर्ष) के साथ निरन्तरता (अधोभाग की खड़ी पाई) का सूचक है. संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि आरम्भ-विस्तार-विलय के साथ निरन्तैर्य की जीवन दृष्टि के उपयोग से ही सभी नौ अंकों के दृश्य प्रतीक गढ़े गए. लेकिन दश को लिखने के लिए दहाई अंक का प्रचलन कब और कैसे शुरू हुआ? यह बेहद जटिल विचार-प्रक्रिया का निकष था जो निश्चित रूप से मानव मेधा के चरम उत्कर्ष का प्रमाण था. दाशमिक पद्धति में अंकों को लिखने के लिए शून्य को आविष्कृत होना पड़ा. शून्य यानी गणित के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण और क्रान्तिकारी आविष्कार! लेकिन यह कुछ बाद की बात है… एक से नौ तक की संख्याओं के दृश्य प्रतीक रचित हो जाने के बाद की…
अंकों के दृश्य प्रतीक: अंकविधान
बिन्दु का रेखा के रूप में प्रकट होना एक क्रिया, एक चेष्टा का परिणाम था. पहली क्रिया का. पहला/प्रथम यानी ‘एक’ यानी बिन्दु से विस्तार की ओर पहला कदम. एक कदम. एक. कुछ इस तरह:
बिन्दु प्राथमिक है. बिन्दु इकाई है. लेकिन बिन्दु को शक्ति तभी मिलती है जब यह रेखा बनती है. यानी इस रेखा ने ही बिन्दु को शक्ति दी जिससे चेष्टा हो सकी अन्यथा बिन्दु तो अचल-निश्चल ही रहा होता. यह रेखा ही तो बिन्दु की शक्ति है. यही धार है, यही निरन्तरता. इन दोनों के मिलने से ही विस्तार संभव है. और इसे तो जहाँ तक जी चाहे बढ़ाया भी जा सकता है.
इस ‘एक’ के अंक का स्वरूप सागर और उसके तरंग को अभिव्यक्त करता है. तरंगाकार गति विस्तार या बहिर्मुखता का क्रियात्मक स्वरूप है और चक्रवत्-गति अन्तर्मुखता अथवा संकोच का. इस ‘एक’ में अवतरण का भाव भी स्पष्ट हो रहा है. इस ‘एक’ में दो शक्तियाँ क्रियाशील हैं. यह तो देश (दिक्) और काल की अभिकल्पना का मूर्त रूप भी है. काल की माप देशविशेष से ही सम्भव है.
[तो क्या अलग-अलग स्थानों पर काल की माप अलग-अलग होती है? क्या ऐसे स्थानविशेष भी सम्भव हैं जहाँ काल किसी नटखट बच्चे की तरह सरसराता-फिसलता निकल जाता हो चटपट? और क्या ऐसे भी जहाँ रुग्ण बुजुर्ग की तरह यूँ धीरे-धीरे… जैसे पाँव ही न उठते हों? क्या दिक् और काल से परे भी कोई स्थान हो सकता है इस पृथिवी पर? या इस ब्रह्माण्ड में?]
‘दो’ संख्या के अंक (२) की आकृति से ‘दो केन्द्रों’ का आभास होता है जिनके मध्य में सम्बन्ध है. एक का दूसरे पर प्रभाव है यानी उनमें ‘बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव’ है. शून्य के बाद की रेखा क्रमता का बोध तो कराती ही है, इस बात का भी बोध कराती है कि अभी आगे-पीछे कुछ और भी है. इस ‘दो’ (२) के अंक की आकृति में भी ‘तीन शक्तियों’ का बोध होता है: दो ‘शून्यों’ के रूप में और एक, उनको जोड़ने वाली रेखा के रूप में. इन तीन शक्तियों की स्थिति उस आकृति में रहती है जो अगली संख्या तीन की पूर्वपीठिका बनती है.
अंक संख्या तीन (३) की आकृति से तीन केन्द्रों या तीन शक्तियों के भण्डार का पता चलता है. ये तीनों केन्द्र एक ही सूत्र से परस्पर गूँथे हुए हैं. शून्य के बाद की रेखा यह बोध कराती है कि अभी अन्त नहीं हुआ है कि आगे और पीछे कुछ शेष है. इससे क्रमता का ज्ञान भी हो जाता है. तीन की संख्या भारतीय चिन्तन में इतनी महत्वपूर्ण है कि जगत को भी त्रिगुणात्मक ही कहा गया है. त्रिक की महत्ता का वर्णन पुराणों, दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि में भी पर्याप्त मिलता है.
चार अंक (४) की बनावट में तीन शून्य (घुण्डियाँ) हैं यानी तीन शक्तियों से मिलकर ही यह आकृति बनी है. इस अंक की संरचना में केन्द्रस्थ ‘शून्य’ जो नीचे की ओर है, वह ‘चैतन्य’ का प्रतीक है. ऊपर से नीचे आए हुए इस ‘चैतन्य’ से ‘प्रत्यभिमुखता’ स्पष्ट होती है. ऊपर के खुले हुए भाग से व्यापक ‘काल’ की ओर संकेत है. इस तरह अंक चार (४) में सबकुछ है: ‘प्राणब्रह्म’, ‘कं ब्रह्म’, ‘खं ब्रह्म’, ‘काल ब्रह्म’ (चक्र). यह अंक पूर्णता का संकेत करता है. इसी वजह से दिन और रात चार-चार प्रहरों में पूर्ण होता है और जीवन चार आश्रमों में.
पाँच के अंक में ऊपर की ओर का खुला भाग व्यापक काल का और नीचे स्थित ‘शून्य’ चैतन्य की स्थिति का संकेत है. शून्य से जुड़ी हुई रेखा क्रमता का द्योतक है. यहाँ भी तीन शक्तियाँ अनुस्यूत हैं. रेखा के साथ घुण्डी का प्रत्येक अंग में होना चैतन्य के विद्यमान होने का संकेत है. इस आकृति से यह स्पष्ट है कि चैतन्य को सबका ज्ञान है और उसकी क्रमता निरन्तर बनी रहती है. इस संख्या का सम्बन्ध ‘रूप’ (काल) से माना गया है.
संख्या छह की आकृति में भी तीन शक्तियाँ कार्यरत हैं. यह अंक ‘३’ के अंक की आकृति का उल्टा (mirror image) है. इससे विपरीत दिशा का बोध होता है. इस अंक से आवागमन की बात स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती है. यह तीन का ही दूना है.
सप्त यानी सात के अंक की आकृति धनुषाकार है. यह इन्द्रधनुष की प्रतीति है. इन्द्रधनुष में सात रंगों की उपस्थिति से ही सात का अंक अस्तित्वमान हुआ था. चूँकि इन्द्रधनुष आकाश में दृश्यमान होता है इसलिए अंक सात के धनुष को आकाशमुखी आँका गया. ध्यान से देखें तो स्पष्ट है कि यह ‘एक’ अंक की आकृति का ही परिष्कृत रूप है जिसमें रेखा वक्र होती हुई ऊर्ध्वमुखी हो गई है. अंक सात की रेखा का ‘ऊर्ध्वमुखी’ होना ही इसकी विशेषता है. सांकेतिक गूढ़ार्थों के वैभव से सम्पन्न सर्वाधिक चित्ताकर्षक है अंक सात. यह आकार में कुण्डली जैसा है जिसमें बाहरी सिरा अछोर की ओर खुला हुआ है और भीतरी सिरा एक बिन्दु पर केन्द्रस्थ है. यह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के निरन्तर प्रवाह को एक बिन्दु पर केन्द्रित करने का संकेत है. निरन्तरता और केन्द्रीभूतता के अद्भुत समन्वय का प्रतीक है यह अंक. ज्यामितीय दृष्टि से कुण्डली त्रिआयामी और त्रिगुणात्मक संरचना है जिसमें सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का सटीक संतुलन है.
सप्त (सात) के लिए उपयोग में लाए गए दृश्यप्रतीक जैसी रचना के उपयोग से भाषा में जो सबसे महत्वपूर्ण अक्षर रचा गया, वह था “ॐ”.
ॐ
ॐ की आकृति में स्पष्ट रूप से एक दूसरे को स्पर्श करती तीन कुण्डलियाँ हैं. चौथी कुण्डली अर्द्धचँद्र के रूप में है और साथ में केन्द्र रूप एक बिन्दु भी है. ये पाँच संरचनाएँ पंचमहाभूतों का प्रतीक हैं जबकि कुण्डली स्वयम् में एक त्रिआयामी संरचना है. कहते हैं सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी आदिम प्रश्न के उत्तर के सन्धान को एकाग्र किसी ब्रह्मर्षि को चेतना की किसी अनबूझ अवस्था में यह “ॐ” दृष्टिगत हुआ था.
ब्रह्माण्डीय विस्फोटों के जाने कितने करोड़ वर्ष बाद यह एक ऐसा समय आया था जब कोई मनुष्य अनहद नादों में से प्रथम नाद सुन सका था. अनहद का यह एक कतरा पहली बार हद में आया था. सुन्दर, सुनहला प्रणव रूप था इसका. ब्रह्मर्षि ने इसे ‘प्रणवाक्षर’ कहा. यह पवित्रतम था. शुभतम था. यह आदि अक्षर था. प्रथमाक्षर. प्रणवाक्षर की ध्वनि ओंकार थी. इस अक्षर प्रतीक से मनुज ने अनेकानेक परिकल्पनाएँ की. इसे ही लम्बवत खींचते हुए उसने त्रिशूल बनाकर एक देवपुरुष के हाथों में पकड़ा दिया, अर्द्धचँद्र जिसके सिर पर शोभायमान था. यह देवता उस संहार का, महाविस्फोट का प्रतीक था जिसकी वजह से सृष्टि की रचना सम्भव हो सकी थी. यह धरती उसके त्रिशूल पर टिकी काशी थी, जल जिसकी जटाओं से निःसृत होता था. उसके डमरू का एक डम मृत्यु था तो दूसरा डम प्रेम (जीवन). मृत्यु और प्रेम का अहर्निश संगीत रचने वाला यह धूर्जटि सतत नृत्यरत था. यह देवता पंचमहाभूतों के सम्मेल का रूपाकार था. आदिदेव ‘महादेव’! और यह संसार! इस संसार का वस्तुगत रूप त्रिशूल के तीन फलकों की तरह ही त्रिआयामी था. लेकिन वस्तुगत तीन आयामों से परे और भी आयाम थे… चौथा, पाँचवा, छठा… और-और… जिसे प्रणवाक्षर का दृश्यविधान प्रमाणित कर रहा था. तभी तो ‘देश’ के साथ ‘काल’ की परिकल्पना भी साथ-साथ ही चली आयी थी. कुछ भी समय-निरपेक्ष नहीं. जो कुछ भी भूत, भविष्यत् और वर्तमान हो सकता था, यह ॐ उन्हीं की व्याख्या था; इसीलिए सबकुछ ओंकार ही था. इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तुएँ हो सकती हैं, सभी ओंकार ही थी. इसीलिए यह प्रणवाक्षर ‘ॐ’ परापर ब्रह्मरूप अक्षर था.
‘प्रणवाक्षर’ त्रिकालातीत था. यह ब्रह्माण्ड के अमूर्त स्पन्दनों का मूर्तिमान विग्रह था. यह निराकार का आकार था. और आकार भी कैसा! तीन अलग-अलग दिशाओं में अछोर को जाती तीन स्वर्ण कुण्डलियाँ! ठीक-ठीक कहें तो चार स्वर्ण कुण्डलियाँ! और हरेक कुण्डली त्रिआयामी… तो यह संरचना कितने आयामों की हुई!? (स्वर्ण कुण्डली! ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से सूत्रबद्ध प्रकृति के सौन्दर्य, लय, निरन्तरता और संतुलन की समवेत ज्यामितिक रूपाकृति! उद्गम बिन्दु जिसका केन्द्र यानी ऊर्जा का प्रवाह अन्तरिक्ष से केन्द्र की ओर. यही वह दर्शन था जो आचार्य पिंगल के मेरु-प्रस्तार में प्रकाशित हुआ था.)
प्रणवाक्षर में देवनागरी वर्णमाला के पाँच संघटक तत्व अनुस्यूत थे. ये थे तीन अक्षर; अ, उ, म, और दो स्वर संकेत; अनुस्वार व चँद्रबिन्दु. डमरू के निनाद से महेश्वर ने विभिन्न ध्वनि समूहों के चौदह सूत्रों का सूत्रपात किया. इन्हीं ध्वनियों से देवनागरी लिपि की वर्णमाला निर्मित हुई. इन वर्णों की संरचना में संख्या सूचक चिन्हों को आसानी से पहचाना जा सकता है. शून्य और खड़ी पाई (लकीर अंक संख्या एक का द्योतक है) के सहयोग से ‘क’ और इसी तरह ब, व आदि लिखना तो नहीं ही भूले होंगे आप. ध्यान दें तो पाएंगे कि ख, र, श, स आदि वर्णों में अंक २; प, फ, म, ष आदि वर्णों में अंक ५; घ, छ, ध आदि वर्णों में अंक ६; ज में अंक ७; च, ट, थ, य आदि वर्णों में अंक ८ प्रत्यक्ष होता है. अ, आ, उ, ऊ आदि स्वर वर्णों में अंक ३ तो दीखता ही है. मात्राओं के लिए भी अंकों का सहयोग प्रत्यक्ष ही है. जैसे आकार के लिए खड़ी पाई, उकार के लिए ७, ऊकार के लिए ‘औंधा ७’, ऋ या रेफ के लिए ८ आदि.
आठ के अंक की आकृति में अंक दो की आकृति का प्रतिविम्ब दिखाई देता है. यह अंक ‘दो का चार गुना’ और ‘चार का दोगुना’ है.
नौ अंक की बनावट से प्रत्यभिमुखता का आरम्भ होना स्पष्ट होता है. प्रत्यभिमुखता यानी दूसरे चक्र में जाने की बात. अब एक के अंक में रेखा बिल्कुल नीचे की ओर है लेकिन इस नौ अंक में प्रत्यभिमुख उलटने के साथ ही साथ ऊपर यानी दूसरे चक्र में जाने या नीचे जाने का संकेत है. इसीलिए यह अंक बहुत ही महत्वपूर्ण है. यह तीन का तिगुना है. नौ खण्ड पृथ्वी के तीन त्रिक ही हैं.
नौ अंक पर (एक अंक की) संख्या समाप्त हो जाती है. इसी रहस्य को बताने के लिए संख्या नौ को प्रधानता दी गई है. यह एकमात्र नौ अंक की ही विशिष्टता है कि इसके गुणकों के अंकों का योग भी नौ ही आता है.
और अन्त में सूनम् …
(न सद् आसीत् न असत् आसीत् तदानीम्)
आज फिर कोई मनस्वी ठीक उसी तरह वृक्ष के नीचे बैठा था जब पहली बार बिन्दु खँचित हुई थी और खिंचकर रेखा बन गई थी. मनस्वी ने धूल को तर्जनी से छुआ और बिन्दु दृश्यमान हो गई फिर तर्जनी का दबाव बढ़ाया. एक नन्हा-सा घेरा बना दिखा.
सूक्ष्म घेरा ! सूर्य के घेरे जैसा ! पृथिवी की ऊर्जा का केन्द्र है सूर्य. ऐसी ही और इससे अलग किस्म की भी जाने कितनी ऊर्जाओं की संघनीभूत इयत्ता ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का केन्द्र है. यही तो परमतत्व है. परमतत्व यानी वह सत्ता जिसमें सबकुछ समाया तो है लेकिन वह स्वयं दीखता नहीं. जो कण-कण में समाया है, लेकिन अलगाया नहीं जा सकता. जो ‘है’ तो, लेकिन नहीं दीखने का भ्रम रचता.
नहीं दीखता हुआ यह जो कुछ भी ‘है’, जबतक सूक्ष्म रूप में है, अदृश्य-सा, निष्क्रिय और निश्चल बस पड़ा-सा है. बिन्दु की ही तरह इसकी कोई वीमा (आयाम) नहीं, न लम्बाई, न चौड़ाई और न ही ऊँचाई फिर भी यह ‘है’. यह सत् है. इसकी सत्ता यानी इसका ‘होना’ प्रमाणित है, जबकि यह दृष्टिगत नहीं है. दृष्टिगत नहीं होते हुए भी यह असत् नहीं है. यानी यह न सत् हैं, न असत्. यह असत् (nothingness) और सत् (being) दोनों से परे एक ऐसी विशिष्ट स्थिति है जो अस्तित्व का भाव अथवा अभाव नहीं, बल्कि इस दोनों से परे ‘स्वतः कुछ है’ जिसमें अनन्त ‘सम्भावनाएँ’ हैं.
होकर भी नहीं होने जैसा भाव. बिन्दु की तरह. जबतक यह अकेला है, कुछ कर नहीं सकता, कुछ सृजित नहीं कर सकता लेकिन किसी (जैसे कि रेखा) के सम्पर्क में आते ही यह एक से बहु होने लगता है.
और यहाँ से आरम्भ होता है अनेकानेक संयोजनों-वियोजनों का चक्र…
चक्र यानी पहिया. तो शून्य की परिकल्पना का पहिए की धुरी से भी सीधा नाता है. पहिए की नाभि में यानी इसके ठीक बीचोबीच एक वृताकार छिद्र बनाया जाता है जिसमें धुरी लगायी जाती है. धुरी के जुड़ने से ही पहिए में गति आती है. जबतक धुरी नहीं लगती तबतक तो बस सूनम् ही सूनम् यानी “ख” से खाली और खोखला. और धुरी लग जाने के बाद जैसे वह सूनम् कभी रहा ही न हो! यह ‘ख’ भी न! यह “है भी और नहीं भी है”. यह अपने होने की विशालता में प्रकट हो तो पूरा खमण्डल (ब्रह्माण्ड) हो जाए और न दिखना चाहे तो लगभग अदृश्य! जैसे इस सृष्टि का चक्र! क्या हम इसे अनुभूत कर पाते हैं? नहीं न! विलक्षण है यह सूनम् और अद्भुत है इसका वैभव! जब सूनम् मिथ्या नहीं, तो यह जगत भी मिथ्या नहीं. रोमांचित हो मनस्वी ने अपनी आँखें मूँद ली. सूनम् के रहस्यमय ऐश्वर्य पर टिकी उनकी चेतना ध्यानस्थ हो गई…
सूनम् … सूनम्… सूनम्…सून… सून…सून…सून्य… सून्य… सून्य…
सूनम्… शूनम्… शूनम्… शूनम्… शून… शून… शून्य… शून्य…
जाने कितने कल्प बीते, मनस्वी को इसका कोई भान नहीं. शून्य की अभ्यर्थना में डूबा मनस्वी मगन था. मनस्वी ने शून्य के लिए गीत गाए, सूक्तियाँ रची…
तुम अकिंचन !
तुम पूर्णमान !
तुम चिर शाश्वत !
तुम सतत अव्यय !
तुम ही तुरीय !
शून्य पूर्ण है, दूसरा कोई अंक पूर्ण नहीं क्योंकि शून्य के अतिरिक्त किसी भी अंक में स्वयं उन्हें जोड़ने या घटाने पर वह अंक बदल जाता है, वह पहले वाला अंक नहीं रह जाता. शून्य से केवल शून्य निकल सकता है और शून्य से शून्य के निकल जाने के बाद भी शून्य ही बचा रह जाता है. निराकार, निर्गुण होते हुए अनन्त हो सकने की सम्भावना वाला शून्य. इसी तर्कपद्धति से ब्रह्म भी शून्य है, ब्रह्माण्ड महाशून्य. अंडा कहने में भी शून्य का ही आशय है. शून्य की रूपाकृति अण्डे से मिलती-जुलती है: एक सूक्ष्म वृत्त. वृत्त पूर्ण है. वृत्त (की परिधि) पर रेखा जहाँ से आरम्भ होती है, वहीं आ मिलती है और अनन्तकाल तक उसी पर घूम सकती है. वे सभी पूर्ण हैं जो अनन्तकाल तक अपनी गति से चलते रह सकते हैं और इसके बाद भी अपनी कक्षा का अतिक्रमण नहीं करते.
इस तरह बिन्दु सदृश शून्य जहाँ सूक्षमता को व्यक्त करता है, वहीं विराटता के भाव को भी अभिव्यक्त करता है. अंकों के स्वरूप में सदा विद्यमान रहता हुआ यह ‘तटस्थरूप’ से भी रहता है और सक्रिय रूप से भी. यह तबतक तटस्थरूप से रहता है जबतक अकेला होता है लेकिन किसी के (जैसे रेखा के) सम्पर्क में आते ही यह ‘बहु’ (अनेक) होने लगता है. शून्य एक ऐसी शक्ति (Energy) है जो किसी द्रव्य (Matter) के बिना भी रहती है. जैसे ‘शक्ति’ से सम्पन्न होने पर ही द्रव्य, गुण तथा कर्मों में कार्योत्पादकता होती है अन्यथा नहीं. ठीक यही तथ्य परमेश्वर की ‘बीजशक्ति’ के बारे में भी सत्य है जिसका नाम ‘माया’ है. इस बीजशक्ति के बिना वह जगत का सृजन नहीं कर पाता. इसीलिए शक्ति को अलग पदार्थ मानना तर्कसंगत है जिसका अस्तित्व द्रव्य के बिना भी होता है.
शून्य इस तथ्य का प्रत्यक्ष उदाहरण है. यह तटस्थ तो रहता ही है, अन्य अंकों के स्वरूप में सदा विद्यमान भी रहता है. अंकों में शून्य और एक क्रमशः अंकशक्ति की घनीभूतता और क्रियाशीलता (स्पन्दता) का उदाहरण है. शून्य और एक क्रमशः स्थितिज (Potential) और गतिज (Kinetic) ऊर्जा के समतुल्य हैं. ‘चेतना’ तो सर्वत्र ही होती है और केन्द्र बनकर ही क्रिया हुआ करती है.
[आधुनिक काल में अलबर्ट आइंस्टीन ने भी अपने विश्वप्रसिद्ध सूत्र; E=MC2 यानी ऊर्जा=द्रव्य की मात्राx(शक्ति की गति)2 के माध्यम से इसी तथ्य की ओर संकेत किया है कि द्रव्य और ऊर्जा की आपस में अदला-बदली हो सकती है. द्रव्य, ऊर्जा में परिणत हो सकता है और ऊर्जा भी द्रव्य में परिणत हो जाती है.]
शून्य यानी एक सूक्ष्म घेरा! सूर्य के घेरे जैसा! क्या यह किसी सूक्ष्म लोक की प्रतीति है? यह आकृति केन्द्र का विस्तार होने के बोध का प्रतीक है. इस विस्तार का जहाँ तक प्रभाव होगा, उसे (उस) बिन्दु या केन्द्र का मण्डल अथवा परिधि कहा जाएगा.
केन्द्र और परिधि के सम्बन्ध के कारण ही तो क्रिया की उत्पत्ति हुई है. केन्द्रबिन्दु और उसके घेरे की दूरी के कारण ही “चेष्टा” होती है. समय का सम्बन्ध ‘दूरी’ से ही रहता है और फिर दूरी और समय का सम्बन्ध ‘गति’ से. समय (काल) एक ही है, क्योंकि एक ही समय में वह सब जगह वर्तमान है. तथापि काल की पृथकता (Differentiation) ‘दूरी’ के कारण ही होती है. समय का ज्ञान, खण्डशः जो होता रहता है, वह ‘केन्द्र’ से ‘परिधि’ तक के फैलाव (विस्तार) के कारण ही होता है. केन्द्र (शून्य या घनीभूत समूह) का सीधा सम्बन्ध परिधि से है, जिसका ज्ञान देवनागरी की संख्याकृति ‘एक अंक’ के स्वरूप में भी होता है.
बिन्दु को शिव और रेखा को शक्ति माना गया. इन दोनों के संयोग से ही संख्या ‘एक’ का निर्माण हुआ है. इन दोनों के संयोग से ही ‘कला’ और ‘गणित’ की अभिव्यक्ति होती है. बिन्दु और रेखा के मिलने से बनने वाले ‘कोण’ को ‘लोक’ कहा जाता है और ये ‘लोक’ ही ‘शक्ति’ के ‘पटल’ कहे जाते हैं. ‘शक्ति के पटल’’ अर्थात् ‘ऊर्जा के तल’. शक्ति के अनेक कार्य और स्तर हैं. ज्ञान भी ‘शक्ति’ का ही एक रूप है. मन, बुद्धि और चित्त भी उस ‘शक्ति’ के आवास स्थान हैं.
शून्य सृष्टि का आदिकारण है. वस्तुतः ‘चेतना’ भी जबतक व्यक्त नहीं होती, ‘शून्य’ की ही स्थिति में रहती है. सक्रिय होने पर काल जब व्यक्त होता है, तब वह संख्याओं के माध्यम से ही होता है. अंक का सम्बन्ध ‘क्रम’ से है और ‘क्रम’ का बोध ‘अंक’ (‘संख्या’) से ही होता है. साथ ही ‘क्रम’ का सम्बन्ध ‘देश’ से रहता है.
एक से लेकर नौ तक के अंकों की बनावट से यह स्पष्ट होता है कि इन सभी में शून्याकृति का उपयोग अधिक-से-अधिक तीन बार ही हुआ है और शून्य से जुड़ी एक रेखा भी जरूर रहती है. वास्तव में इन सभी में तीन ही शक्तियाँ कार्य करती हैं और इनमें रेखा का जुड़ाव स्पष्ट रूप से निरन्तरता का द्योत्तक है. फिर यह शून्य जो कि पूर्णत्व का प्रतीक है, यह क्या तीन से अधिक शक्तियों या आयामों की इंगिति है?
“तुम पूर्णमान… तुम सतत अव्यय… तुम तुरीय…”
अपूर्व विस्मय से भरी मनस्वी की आँखें सहसा खुल गईं. ‘तुरीय’ उसकी चेतना पर चित्रखिचित रह गया. ‘तुरीय’! तुरीय यानी चौथी अवस्था. जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं से परे क्या कोई चौथी अवस्था थी जब शून्य ने अपना अस्तित्व प्रकटाया? जाने हुए तीन आयामों से परे यह शून्य निश्चित ही किसी चौथे आयाम का दिग्दर्शक प्रतीत होता है. इससे सबकुछ, इसमें सबकुछ… एक ही साथ संकुचित और विस्तारित हो सकने वाली इयत्ता!
चौथा आयाम!!!
त्रिआयामी विस्तार के साथ ही संकोच जैसे चतुर्थ आयाम की अपरिमित शक्ति को समाहित किए हुए शून्य के वैभव की पूरी व्यवस्था धीरे-धीरे अपनी भव्यता में प्रकाशित होने लगी.
तटस्थ रूप से व्यक्त शून्य का व्यवहारिक ‘मान’ प्रतीत नहीं होता यानी ‘कुछ नहीं’ होता है लेकिन यही शून्य जब किसी अंक के दाहिनी ओर आ जाता है तब उस अंक के साथ संयुक्त होकर रहते हुए यह उस अंक की शक्ति बढ़ाता हुआ उसका मूल्य (मान) बढ़ाता है. पूर्णांक के प्रसंग में शून्य की भूमिका विस्तारवादी है, किन्तु वही संख्या जब संकोच की ओर चलती है, तब वहाँ ठीक उसी बराबर विलोम अनुपात में वह उसके खण्डित रूप (संकोच) को प्रदर्शित करती है.
संख्या दश
जैसा कि पहले वर्णित है कि दोनों हाथों की सभी अँगुलियों की गणना दश की संख्या से पूरी होती थी. दोनों हाथों और दशों अंगुलियों की शक्ति ही जीवन-जगत में मनुष्य के सामर्थ्य का साधन थीं. दोनों हाथों को मिलाकर अंजलि बनती थी और अंजलि को घुमाव देकर जोड़ने से एक चक्र की-सी आकृति बन जाती थी. इसी चक्र यानी पहिया की सी वृताकार आकृति शून्य की आकृति थी. शून्य पूर्णता का प्रतीक था. यूँ भी हाथों की दश अंगुलियाँ से मिलकर गणना का एक समुच्चय, एक चक्र तो पूर्ण होता ही था. इसी ‘एक चक्र’ की पूर्णता को संख्याकृति रूप में सूचित करने के लिए ‘(संख्याकृति) एक के साथ शून्य (की आकृति)’ के प्रयोग की तर्कसम्मत युक्ति अपनायी गई.
दश की संख्याकृति से एक चक्र पूरा कर दूसरे में जाने का बोध स्पष्ट होता है. यह आकृति संधि-ज्ञान की भी बोधक है. इस आकृति में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शून्य के दाहिनी ओर होने से एक का मान दश गुणा हो जाना प्रदर्शित हो जाता है.
इस तरह एक से नौ तक की संख्याओं के बाद दश की संख्या का एक समुच्चय दर्शाने के लिए शून्य के साथ एक का सम्बन्ध हो जाता है, वही दश पूर्ण रूप है. हाथ की अँगुलियों के समूह के साथ ही पाँवों में भी दश अँगुलियों का एक और समूह विद्यमान था. इन दोनों समूहों को जोड़ देने से दश के दो चक्र बनते थे जिन्हें विंशति कहा गया था. इस ‘दो चक्र’ के लिए इसी तर्कपद्धति से ‘(संख्याकृति) दो के साथ शून्य (की आकृति)’ का प्रयोग हुआ. दश से अधिक और विंशति से कम के अंकों के लिए संख्या एक के बाद शून्य के स्थान पर संख्याकृति एक, दो, तीन आदि संख्याओं को लिखने की परिपाटी अपनायी गयी. तो इस तरह ९, १९, २९, ३९ आदि संख्याओं में उस क्रम से नौ अंक पर ही संख्या का अवसान होता है और क्रमशः १, २, ३, ४ आदि का शून्य के साथ सम्बन्ध हो जाता रहा. यही १०, २०, ३०, ४० आदि बनें.
इसी पद्धति का विस्तार करते हुए ‘दश के दश चक्र’ यानी शत के लिए ‘(संख्याकृति) दश के साथ शून्य (की आकृति)’ का प्रयोग किया गया. अर्थात् शत के लिए ‘संख्याकृति एक के साथ शून्य (की आकृति) का दो बार’ प्रयोग हुआ. इस तरह एक के दाहिनी ओर जितनी ही बार शून्य आता है उतनी ही बार उसे दश गुणित करता जाता है. इसी पद्धति के आधार पर अपरिमित राशियों के लिए भी संख्याकृति सुनिश्चित की गई. साथ ही इस पद्धति को सटीक और सुग्राह्य नाम दिया गया ‘दशमान पद्धति’.
सुमीता ओझा
गणित विषय में ‘गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्ध’ पर शोध. पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका “स्टारडस्ट’ में कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक ‘समाधान’ नामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन. सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास. ईमेल: sumeetauo1@gmail.com |
किसी भी प्राप्ति तक जाने की साधना को यूँ ही लिखा जा सकता था, तन्मय और काव्यात्मक।
गणित तक जाने का मार्ग भी कविता के वन से ही जाता है, आज भी अगर कुछ नया करना हो।
गणित, भाषा दर्शन, संगीत कितने अनुशासन एक साथ ही समन्वित हो गए हैं, आपके इस आलेख में… मेरा प्रणाम सुमीताजी…
गणितीय अंको की इतनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी हो सकती है!अद्भुत है इसका पाठ।
अंकों का विकास भारत में हुआ। मूल तथ्य भी सही है। 3 और इससे ऊपर आठ तक की संख्याएं समग्र की और समग्र के लिए प्रयुक्त पहले की संख्या से एक अधिक दोनों के लिए काम में आती रही और परवर्ती आशय में ऱूढ़ हो गईं। दस सत (सात) के वर्ण विपर्यय से बना और दश,शत, सहस्र सभी का अर्थ समस्त भी और इसलिऎ दस, शत, शहस्र का प्रयोग समानार्थी – असंख्य, वहुत अधिक, अनगिनत के आशय मे होता है। शून्य सून का परिस्कार है और इसका रैखिक रूप ख, या पहिए के छेद से बना है। आप अपने चिंतन से इस निष्कर्ष पर पहुंची लगती हैे यह सराहनीय है वैसं इसे भारतीय सभ्यता की निर्मिति, 2004, में भी प्रतिपादित किया गया है। उसे भी पढ़ें।
पढ़ा, पहला रिएक्शन यह कि इस आलेख में बहुत कुछ काल्पनिक है, अनुमान के आधार पर हम एक हद तक ही तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं , यह आलेख ‘हदों’ के आगे भी जाता है ,और इसलिए आलेख की तार्किकता पर प्रश्न चिह्न लगते हैं । अंको के जन्म की यह एक ‘कहानी ‘ है और इसकी सत्यता उतनी भर है जितनी एक ‘कहानी ‘ की होनी चाहिए।
इस आलेख को पढ़ने के क्रम में यह महसूस ही नहीं हुआ कि ‘मैं कविता पढ़ रहा हूँ या अंकों का शब्दचित्र।’ शब्दों का चयन कुछ यूँ मिला जैसे ‘नीला चाँद – बेठोस’…पंक्ति-पंक्ति लय और ताल के माधुर्य से सजा एक संगीत सरिता का आभास दे गया।