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समालोचन

Home » मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद » Page 14

मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद

जेल की यातनाओं और अनुभवों पर प्रचुर मात्रा में देशी विदेशी भाषाओं में साहित्य मिलता है. नेताओं, क्रांतिकारियों, कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों आदि को जब-जब जेल में डाला गया उन्होंने अपने कारा-वास को रचनात्मक बना डाला, कभी कार्यों से तो कभी अपनी लेखनी से. मनीष आज़ाद ने अपने जेल-अनुभवों में अब्बू यानी अबीर नामक बच्चे को शामिल कर इसे लिखा है. आपबीती अगर ढंग से कही जाए तो वह अपने समय की जगबीती बन जाती है. यह संस्मरण आकार में बड़ा है पर आप इसे शुरू करेंगे तो बीच में छोड़ नहीं पायेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है.

by arun dev
December 13, 2021
in संस्मरण
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14
अब्बू की नज़र में जेल

यह मध्य जनवरी की ठंडी सुबह थी. सभी लोग ‘खुली गिनती’ के बाद तुरन्त अपने-अपने बैरक में लौटने की जल्दी में थे. हम अहाते के बीच पहुंचे ही थे कि अब्बू ने मेरा हाथ झटकते हुए सामने की ओर इशारा किया. मैंने देखा कि वहां एक सामान्य कद काठी का लड़का जेल वाला काला झबरीला कंबल लपेट कर खड़ा है और 5-7 लोग उसे घेर कर खड़े हैं. मैं नज़दीक पहुंचा तो देखा कि वह नंगे पांव था और शरीर पर महज एक झीनी सी शर्ट थी जो कंबल के नीचे से झांक रही थी. उसकी आंखों के किनारों से आंसू बह रहे थे और वह ठंड से कांप रहा था. मेरे वहां पहुँचते ही घेरे में खड़े हुए लोगों ने मुझे रास्ता दे दिया मानो अब वह मेरी जिम्मेदारी हो. मैंने उससे पूछा-कब आये हो? उसने कोई जवाब नहीं दिया. लेकिन उसे घेर कर खड़े एक क़ैदी ने कहा कि इसका नाम ‘मकबूल’ है. इसे कल रात लाया गया है. यह मेरे ही बैरक में है. लेकिन इसे हिन्दी नहीं आती. बस थोड़ा बहुत समझ लेता है. इसके पास कुछ भी नहीं है. ये बता रहा है कि इसका स्वेटर भी पुलिस स्टेशन में रखवा लिया गया. मेरे बगल में खड़े अब्बू ने आश्चर्य से दोहराया-‘स्वेटर पुलिस स्टेशन में रखवा लिया गया ?’ मैंने उससे पूछा- ‘कहां के रहने वाले हो?’

उसने कांपते हुए जवाब दिया-‘आसाम’.

उसके बाद उसने कुछ बोला लेकिन हममे से कोई नहीं समझ पाया. मैंने तुरन्त अब्बू से कहा-

‘अब्बू दौड़ के जा और खोखन को बुला कर ला.’

अब्बू दौड़ कर गया और खोखन को बुला लाया. खोखन बांग्लादेश के रहने वाले हैं और भारत में उनकी रिश्तेदारी है. यहां एक रिश्तेदार से मिलने आये और पर्याप्त डाकूमेन्ट ना होने की वजह से उन्हें जेल में डाल दिया. उन्हें बांग्ला और असमिया दोनो भाषाएं आती हैं. खोखन और असम के उस व्यक्ति मकबूल के बीच लगभग 15 मिनट बात हुई. जब खोखन बोलते तो अब्बू खोखन का मुंह देखता और जब मकबूल बोलता तो अब्बू उसका मुंह देखता. इस संक्षिप्त बातचीत के बाद खोखन हम सबसे मुखातिब हुए और कहने लगे कि यह कुछ ही दिन पहले आसाम से लखनऊ आया था. यहां इसके गांव का एक व्यक्ति कबाड़ का काम करता है. उसी ने इसे बुलाया था. मकबूल भी यहां आकर कबाड़ के काम में शामिल हो गया था. कल दोपहर में ‘परिवर्तन चौक’ के पास इसकी ठेला गाड़ी को कुछ पुलिस वालों ने रोका, इसका आधार कार्ड चेक किया, दिन भर थाने में बैठाये रखा इसका स्वेटर उतरवाया और शाम को जेल भेज दिया. मैंने खोखन के माध्यम से उससे पूछा कि उसे मारा पीटा भी गया है क्या, तो उसने कहा-नहीं. उसे अभी तक नहीं पता कि उसे किस अपराध में जेल में डाला गया है. यह सुनकर मैं परेशान हो गया. मैं कुछ सोचने लगा.

तभी सामने से जेल का चीफ़  सिपाही जाता हुआ दिखा. मैंने तुरन्त उसे आवाज़  लगायी- ‘चीफ़  साब, ये किस केस में अन्दर आया है?’

उसने एक नज़र मकबूल पर डाली और बेरुखी से यह कहते हुए आगे बढ़ गया कि ‘अरे, यह दंगाई वाले केस में आया है.’ मैं समझ गया. ‘सीएए-एनआर सी’ के खिलाफ प्रदर्शन का यह पहला क़ैदी हमारे अहाते में आया था. मैं यह बात नहीं  पचा पा रहा था कि पुलिस ने इतनी ठंड में जब रात में पारा जीरो डिग्री के पास चला जा रहा है, इसका स्वेटर क्यों उतार लिया. यह गरीब से नफ़रत के कारण है या मुसलमान से या दोनों से.

जब मैं इन राजनीतिक-नैतिक सवालों में उलझा था तभी मैंने देखा कि अब्बू और खोखन दोनो सामने से हाथ में कुछ कपड़े लिये चले आ रहे हैं. अब्बू और खोखन कब यहां से खिसक लिये थे, मुझे पता ही नहीं  चला. 40 साल के खोखन के साथ अब्बू की भी दोस्ती हो गयी थी. जब वह मेरे साथ नहीं होता तो खोखन के पास उसके पाये जाने की संभावना ज़्यादा होती. दोनों जाकर कुछ लोगों से मकबूल के लिये कपड़े वगैरह जुटा लाये थे. मैं थोड़ा शर्मिन्दा हुआ कि जब मैं सैद्धान्तिक सवालों में उलझा था उस समय खोखन तात्कालिक व्यवहारिक समस्या का समाधान करने में जुटे हुए थे. बहरहाल जल्दी ही मकबूल के पास सभी ज़रूरी चीज़ें  हो गयी.

अचानक मैंने देखा कि अब्बू अपना छोटा मग लेकर भागा आ रहा है. आते ही उसने अपना मग झिझकते हुए मकबूल की ओर बढ़ा दिया. मकबूल मेरी  तरफ़ देखने लगा. मैंने कहा, ले लो. हमारे पास एक और है. इसमें सुबह-सुबह दलिया ले सकते हो. मकबूल के मग पकड़ते ही अब्बू के चेहरे पर खुशी देखने लायक थी. जेल की तुलना अक्सर नरक से की जाती है. लेकिन जहां आम गरीब लोगों का जमावड़ा हो, वहां जीवन बहता है और जहां जीवन बहता है वह जगह नरक कैसे हो सकती है?

बाद में मैं जब भी मकबूल से बात करता तो खोखन भाई अनुवादक की भूमिका निभाते. अब्बू भी अक्सर हमारी बातचीत ध्यान से सुनता. एक दिन उसने मुझसे पूछा- ‘मौसा, अलग अलग तरह की भाषा क्यों होती है. एक ही भाषा क्यों नहीं होती.’

मैंने कुछ देर सोचा. फिर मैंने अब्बू को एक पुरानी कहानी सुनाई-

‘अब्बू पहले सबकी भाषा एक ही थी. तब इंसान ने एक बार भगवान से मिलने की सोची. और सबने एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर आसमान तक एक सीढ़ी बनाने लगे. यह देखकर भगवान घबरा गया और उसने सबकी अलग-अलग भाषा बना दी ताकि कोई एक दूसरे की बात न समझ पाये और भगवान तक सीढ़ी न बना पाये.’

अब्बू का अगला सवाल था-

‘लेकिन भगवान ये क्यों चाहता है कि कोई सीढ़ी ना बना पाये और उससे ना मिल पाये?’

मैं सोच में पड़ गया. मुझे चुप देख अब्बू ने ही संशय और प्रश्नवाचक मुद्रा के साथ कहा-

‘ताकि कोई भगवान की पोल पट्टी ना जान ले.’

मैं आश्चर्य में पड़ गया. अब्बू का आशय क्या था, मुझे पता नहीं. लेकिन मेरे लिए इसके आशय गहरे थे.

बहरहाल तभी अहाते में कुछ हलचल होने लगी. अब्बू तेजी से बाहर भागा. पीछे पीछे मैं भी चल दिया. आज 20-25 लोगों की ‘नई आमद’ आयी थी. नये क़ैदी को यहां जेल की भाषा में ‘आमद’ यानी ‘आमदनी’ कहां जाता है. सच में वो आमदनी होते हैं क्योंकि उनसे जेल प्रशासन कई तरह से अवैध उगाही करता है. अब्बू ने कहा-‘इतने सारे लोग.’ आमतौर पर रोज़ हमारे अहाते में 5 से 7 नये क़ैदी आते हैं. इसलिए सभी को आश्चर्य हो रहा था कि इतने सारे लोग कैसे. हमारे अहाते का राइटर जहां बैठता है, मैं वहीं खड़ा था. तभी सर्किल चीफ़ आया और धीरे से राइटर से बोला-

‘ये सब दंगाई हैं इन्हें अलग अलग बैरकों में रखना. और हर बैरक में कहलवा देना कि इनसे कोई बात ना करे.’

अपनी बात में वज़न लाने के लिए उसने आगे जोड़ा कि यह डिप्टी साहब का आदेश है. यह कहकर जैसे ही चीफ़  मुड़ा, अब्बू ने मुझसे सवाल किया- ‘मौसा दंगाई क्या होते हैं.’ मैं इस मासूम बच्चे को क्या बताता कि दंगाई क्या होते हैं. मुझे पता था कि ये सब ‘सीएए-एनआरसी’ के खिलाफ प्रदर्शनकारी हैं और कुछ मकबूल जैसे लोग हैं जो महज अपनी मुस्लिम पहचान के कारण जेल पहुच गये हैं. मैंने कुछ सोचकर अब्बू से कहा-‘अब्बू रात में जब अपना बैरक बन्द हो जायेगा तो इनमें जो भी अपनी बैरक में आयेगा, उसी से पूछ लेंगे कि दंगाई क्या होते हैं.’

अब्बू ने भी खुशी से कहा, हां यही ठीक रहेगा.

बैरक बन्द होने के बाद जब गिनती पूरी हो गयी तो जाते हुए सिपाही ने सबको सचेत करते हुए कहा-

‘इस बैरक में जो दंगाई आये हैं उनसे कोई बात न करे.’

मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ देर पहले जो बात सर्किल चीफ़ दबी जुबान में कह रहा था वह अब ऐलान बन गयी. यह आत्मविश्वास उन्हें कहा से आया?

बैरक का गेट बन्द होते ही सभी लोगों की निगाह उस ‘दंगाई’ पर टिक गयी. मैं अभी सोच ही रहा था कि उसके पास जाउं और बाते शुरू करूं, तभी तीन चार मुस्लिम क़ैदी अपने फट्टे से उठे और उस नये क़ैदी के पास पहुंच गये. कुछ देर बाद मैं भी उनके बीच जाकर बैठ गया. अब्बू अभी बैरक में लगी टीवी देख रहा था और मुड़-मुड़ कर मेरी तरफ़  देख लेता था. जैसे ही उसने देखा कि मैं उस नये क़ैदी  के पास जा रहा हूं, वह भी उठा और भागता हुआ मेरे पास आ गया. बातचीत पहले ही शुरू हो चुकी थी. उसका नाम अब्दुल था. उसकी इलेक्ट्रिक की दुकान थी. उस दिन घर से उसके भाई का फ़ोन आया कि शहर में कुछ बवाल हो गया है, आप दुकान बन्द करके घर आ जाइये. अब्दुल ने तुरन्त दुकान बन्द किया और घर की ओर चल दिया. रास्ते में ही पुलिस की एक जीप ने उसे रोका, उसका नाम पूछा और उसे जीप में बिठा लिया. कुछ देर थाने में बिठाये रखा और फिर जेल भेज दिया.

मैंने पूछा, मारा पीटा तो नहीं. उसने कहा, ना तो मारा पीटा और ना ही कुछ पूछा ही. बगल में बैठे एक मुस्लिम क़ैदी, जो मोबाइल चोरी के जुर्म में पिछले 8 माह से जेल काट रहा था, ने धीमे से कहा- हमारा नाम ही काफ़ी है. उसके बाद क्या पूछताछ करना. मैं सन्न रह गया. मैंने उससे आगे पूछा कि आपसे बातचीत करने के लिए जेल प्रशासन मना क्यों कर रहा हैं. इसका उसने कोई जवाब नहीं दिया. बस हल्का सा मुसकुरा दिया.

रात ज़्यादा होने लगी तो धीमे-धीमे उसे घेरे सभी क़ैदी एक-एक कर जाने लगे. बस मैं और अब्बू रह गये. अब्बू मेरी गोद में नींद से झूल रहा था, लेकिन फिर भी सो नहीं रहा था. मैंने उससे पूछा भी कि चल तुझे सुला दूं. लेकिन उसने इनकार कर दिया. अब अब्दुल ने मेरा परिचय पूछा. मेरा परिचय जानने के बाद उसके चेहरे पर हल्की चमक आ गयी. उसने मुझसे कहा कि कल मैं आपको और लोगों से मिलवाऊंगा, जिन्हें ‘परिवर्तन चौक’ पर धरना स्थल से उठाया गया है. वो आपको और जानकारी देंगे. उन्हें थाने में बहुत पीटा गया है. अब्दुल के चेहरे पर थकान साफ़  झलक रही थी. मैंने उनसे कहा कि अब आप सो जाइये, कल बात करेंगे. इसके बाद जब मैं  और अब्बू अपने फट्टे यानी बिस्तर पर लौटे तो अब्बू ने तुरन्त पूछा-

‘थाने पर किसे बहुत पीटा गया है.’

मैंने कहा कि चल सो जा. कल मैं तुझे उससे मिलवाऊंगा.

दूसरे दिन अब्दुल गिनती के तुरन्त बाद मुझे सामने की बैरक में ले गया. अब्दुल ने मेरा परिचय उसे पहले ही दे दिया था. उसका नाम तैयब था. तैयब ने बिना किसी औपचारिकता के मुझे गिरफ्तारी की पूरी कहानी बयां कर दी. फिर अपना कुर्ता ऊपर करते हुए लाठियों के निशान दिखाये. निशान नीले पड़ गये थे. पूरी कहानी अब्बू दम साधे सुनता रहा था, लेकिन जब उसने पीठ पर लाठियों के निशान देखे तो मेरी उंगली पर उसकी पकड़ ना जाने क्यों मजबूत हो गयी. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोलू. क्या सहानुभूति दूं. ‘मन्टो’ ने एक शरणार्थी कैम्प के जीवन के बारे में लिखते हुए कहा कि यहां सभी को सहानुभूति की ज़रूरत है, लेकिन दिक्कत यह है कि कौन किसको दे. यही जेल के लिए भी सच है. वापस पीठ ढकते हुए उसने कहा कि मुझे पिटाई का उतना दुःख नहीं है. मुझे इस बात का दुःख है कि पीटते हुए वे यह कह रहे थे कि अब अपने अल्लाह को बुला, देखते हैं तेरा अल्लाह तुझे कैसे बचाता है.

अभी तक उसकी आंखों में आंसू नहीं आये थे, लेकिन यह बात बोलते हुए उसकी आंख भर आयी. इसी बीच एक और क़ैदी  हमारे बीच आकर बैठ गया था. थोड़ी देर चुप रहने के बाद तैयब ने खुद पर नियंत्रण स्थापित करते हुए और उस नये क़ैदी  की तरफ़  इशारा करते हुए कहा कि अब इनका केस देखिए. इनको प्रदर्शन वगैरह से कोई मतलब नहीं. ये सीएए के बारे में कुछ जानते भी नहीं. पुलिस थाने के पास इनकी छोटी सी चाय की दुकान है. पिछले तीन साल से ये थाने में सुबह शाम चाय पिला रहे है. 21 जनवरी को थाने के ही एक परिचित सिपाही ने इसे थाने पर बुलाया. दो चार घण्टे यूं ही बैठाये रखने के बाद और बिना कुछ पूछताछ किये जेल भेज दिया. मैं उसकी तरफ़ मुड़ा और पूछा कि आपका नाम क्या है? उसने धीमे से झिझकते हुए जवाब दिया- ‘कमालुद्दीन’.

सीएए प्रदर्शनकारियों (जिन्हें जेल प्रशासन ‘दंगाई’ बुलाता था) के आने से हमारे अहाते का माहौल बदल गया. सटीक रूप में कहें तो राजनीतिक हो गया. अब मेरा ज़्यादातर समय इन्हीं लोगों के साथ टहलने और बात करने में बीतने लगा. अब्बू की भी नयी दोस्ती ‘आदिल’ के साथ हो गयी. 19-20 साल का जोश से भरपूर यह नौजवान सीएए प्रदर्शन का वीडियो बना रहा था, जब पुलिस ने उसे पकड़ा. अब्बू ज़्यादातर अब उसी की पीठ पर सवार रहता. खुद अन्दर से काफ़ी परेशान होने के बावजूद वह लोगों को हमेशा अपनी हरकतों से हंसाता रहता. एक दिन अब्बू ने मुझे उसके बारे में बताया कि मौसा वो बीड़ी पीता है और जब तुम उसकी तरफ़ आते हो तो वह तुरन्त बीड़ी फेक देता है. एक दो बार मैंने भी गौर किया था यह बात. मैंने सोचा कि 2-4 दिन की मुलाक़ात में वह मेरा इतना लिहाज क्यों कर रहा है. हालांकि उसके इस व्यवहार से मुझे खुशी हो रही थी.

तैयब की बहन जामिया में पढ़ती थी और वहां के प्रदर्शन और शाहीनबाग के प्रदर्शन की भागीदार थी. तैयब से मुझे आन्दोलन की जीवन्त रिपोर्ट सुनने को मिली. एक राजनीतिक क़ैदी  के लिए इससे बड़ा सुख भला क्या हो सकता है कि उसे बाहर चल रहे आन्दोलन के एक सक्रिय भागीदार से आन्दोलन का जीवन्त विवरण सुनने को मिले. शाहीनबाग में जो नया साहित्य जन्म ले रहा था, उसकी झलक मुझे तैयब से ही मिली. उसके सुनाने का अंदाज भी निराला था. ‘आमिर अजीज’ जैसे युवा शायर की रचनाओं से तैयब ने ही मेरा परिचय कराया. तैयब ने जब यह सुनाया तो मैं एकदम रोमांचित हो गया था-

‘भगतसिंह का जज़्बा हूं, आशफाक का तेवर हूं, बिस्मिल का रंग हूं. ऐ हुकूमत नज़र मिला मुझसे, मैं शाहीनबाग हूं.’

मेरी बहन सीमा ने अपना नया कहानी संग्रह ‘सरोगेट कन्ट्री’ मुझे पढ़ने को दिया था. इन प्रदर्शनकारियों के आने से सीमा के कहानी संग्रह की मांग बढ़ गयी और कई लोग ‘वेटिंग लिस्ट’ में अपना नाम लिखाने लगे. वे पुराने क़ैदी जिनके साथ मैं अक्सर घूमता था, वे मुझे प्यार से चिढ़ाने लगे कि अब आप हम लोगों को भूल गये, लेकिन इतना याद रखियेगा कि ये लोग चन्द दिनों के मेहमान हैं. अन्त में आपको हमारे साथ ही रहना है. मैं मुसकुरा देता.

इसी बीच एक दिन जब मैं अब्बू को नहला रहा था तो अब्बू अचानक बोल उठा-

‘मौसा, मैं बड़ा होकर मुसलमान नहीं बनूंगा.’ अचानक मेरा हाथ रुक गया. मैंने कहा क्यों? अब्बू ने मेरे हाथ से मग खींचते हुए जवाब दिया-‘वर्ना मुझे भी पुलिस पकड़ लेगी.’ यह कह कर वह खुद ही अपने ऊपर पानी डालने लगा. और मैं उसे भौचक्का देखता रहा.

अब्बू की नज़र में जेल- अंतिम भाग

एक दिन सुबह-सुबह गिनती के बाद अब्बू ने अचानक बिना किसी सन्दर्भ के मुझसे पूछा- ‘मौसा, अगर तुम्हारे पास अपनी जेल होती तो क्या तुम मौसी को कभी जेल में डालते.’

मैंने बेहद आश्चर्य से उससे पूछा कि ये क्या पूछ रहा है तू. उसने मेरे आश्चर्य वाले भाव पर बिना ध्यान दिये आगे जोड़ा-

‘मतलब कि मौसी तुमसे भी तो झगड़ा करती है, तो उस समय यदि तुम्हारे पास जेल होती तो क्या तुम मौसी को जेल में बन्द कर देते.’

अब्बू बिना रुके उसी रौ में आगे बोलता रहा-

‘लेकिन जब तुमने सरकार से झगड़ा किया तो सरकार ने तुम्हें जेल में क्यों डाला.’

उसकी इस बात ने मुझे और ज़्यादा आश्चर्य में डाल दिया. मैं  समझ नहीं पाया कि क्या बोलूं. इस बात को समझने में तो बड़े-बड़े समाज वैज्ञानिकों को भी दिक्कत होती है. मैं अब्बू को कैसे समझाऊँ. मैंने तो अब्बू को टाल दिया कि ठीक है अब्बू, दलिया पीने के बाद बताऊंगा. लेकिन मेरा दिमाग चलने लगा. जनता और सरकार के बीच का रिश्ता, या और सटीक रूप से कहें तो जनता और राज्य के बीच का रिश्ता क्या है. हमारी पारिवारिक पितृसत्तात्मक संरचना और जनता पर दमन के लिए इस संरचना का इस्तेमाल या इस दमन के प्रतिरोध में यह संरचना कितना अवरोध पैदा करती है. यदि हम सबके घरों में एक छोटी जेल है तो हम इस बड़ी जेल का कितना विरोध कर पायेंगे. या इस बड़ी जेल का विरोध, उन छोटी-छोटी जेलों को तोड़ने में कितना कारगर होगा या इस छोटी जेल का उस बड़ी जेल से आखिर सम्बन्ध क्या है. खैर दलिया पीने के बाद अब्बू ‘बोरा जी’ के साथ चेस खेलने लगा और अपना सवाल भूल गया.

चेस खेलते अब्बू को मैंने ध्यान से देखा और अचानक मेरे दिमाग में आया कि अब इस बच्चे को और जेल में रखना सही नहीं हैं. अभी पिछली ही बार जब मैं मुलाक़ात में अमिता से मिला तो अमिता ने बताया कि उसकी बैरक में जो लोग ‘अब्बू की नज़र में जेल’ पढ़ते हैं, उसमें से कई लोग अब यह कहने लगे हैं कि अब्बू को जेल में नहीं देखा जाता, उसे रिहा कर दो. मेरी बैरक में भी जो लोग ‘अब्बू की नज़र में जेल’ पढ़ते हैं उनमें से भी कुछ लोग यह कह चुके हैं कि इतने छोटे बच्चे को जेल में नहीं देखा जाता. भले ही वह कल्पना में ही क्यों ना हो. उनके इस अनुरोध को मैं अपनी कामयाबी समझता कि मेरी लेखनी असर कर रही है. लेकिन आज मुझे लग रहा है कि क्या मैं महज अपने स्वार्थ में अब्बू को अपने साथ जेल में रखे हुए हूं. ताकी कहानी में मासूमियत ला सकूं. और सहानुभूति बटोर सकूं. मेरे इस दावे में भी कितना दम है कि मैंने अब्बू को इसलिए अपनी कहानी में शामिल किया कि एक बार अब्बू की निर्दोष नज़र से दुनिया को देख सकूं.

आखिर अब्बू के मुंह से मैं ही तो बोल रहा हूं. इसी उधेड़बुन में मुझे गोर्की की कहानी ‘पाठक’ की याद हो आयी. और अन्ततः मैंने अब्बू को रिहा करने का फैसला कर लिया. हालांकि यह ख्याल आते ही मेरा दिल बैठने लगा. बिना अब्बू के मैं कैसे रहूंगा. बिना अब्बू के मैं कैसे लिखूंगा. बिना झूठ के सच कैसे लिख पाउंगा.

‘पाब्लो पिकासो’ तो कहते थे कि कला वह झूठ है जो आपको सच तक पहुँचाता है. फिर मैं बिना अब्बू के सच तक कैसे पहुंचूँगा. क्या कोई दूसरा झूठ गढ़ना पड़ेगा. क्या कला में हर सच का अपना एक झूठ भी होता है. और हर सच को उसके झूठ से और हर झूठ को उसके सच से आंकना होता है. मुझे कोई जवाब नहीं मिल रहा था, लेकिन मैंने फैसला कर लिया कि अब अब्बू को जेल से रिहा करने का समय आ गया. लेकिन उसे कैसे रिहा करूं. क्या कहानी गढ़ूं. क्या अपने पात्र से यानी अब्बू से विद्रोह करा दूं. अब्बू को रूला दूं कि अब मैं जेल में नहीं रह सकता. मुझे घर, मेरे ईजा बाबा के यहां पहुंचा दो. हां यही ठीक रहेगा.

कितनी कहानियों में मैंने पढ़ा है कि पात्र लेखक से विद्रोह कर देते है और लेखक की कल्पना के लौह दायरे को तोड़ कर बाहर निकल जाते हैं. क्या अब्बू मेरी कल्पना के लौह दायरे को तोड़ सकता है. क्या मेरा प्यारा अब्बू ऐसा कर सकता है. ‘संजीव’ की मशहूर कहानी ‘प्रेरणास्रोत’ में भी तो यही होता है. पता नहीं कितना कहानीकार अपने पात्रों को गढ़ता है और कितना पात्र अपने कहानीकार को गढ़ते हैं. पता नहीं मैंने कितना अब्बू को गढ़ा और कितना अब्बू ने मुझे गढ़ा. बहरहाल, अब्बू को अपनी कहानी से बाहर करने का दबाव क्या सिर्फ़  मेरे आठ-दस पाठकों का है, या इसके पीछे मेरी अपनी निराशा भी है.

दरअसल मेरी बेल लगने के बाद ही कुछ ऐसा घटनाक्रम घटा कि मुझे अपनी बेल मुश्किल लगने लगी. तेलंगाना में किसी माओवादी ने समर्पण किया और यहां एटीएस वालों ने आदतन उसकी कहानी को बेवजह मेरे साथ जोड़ दिया. यह सुनकर मन खिन्न हो गया. और निराशा छाने लगी. लगा कि अब लम्बे समय तक बेल मुश्किल होगी. तो अब्बू को कहानी से बाहर करने का फैसला क्या निराशा में उठाया गया फैसला था? पता नहीं. ठीक-ठीक नहीं कह सकता. पहले तो मैं यही सोचता था कि मैं और अब्बू दोनो साथ ही जेल से बाहर आयेंगे. आखिर अब्बू मेरी आशा जो है. उसे तो मेरे साथ रहना ही चाहिए. ‘अनुज लगुन’ ने अपनी कविता में इस आशा को यूं बयां किया है-

यह बच्चा
जो मेरे साथ जेल की कस्टडी में है
तुम्हें नहीं लगता
जब यह बड़ा होगा तो
जेल की दीवार टूट जाएगी….?

खैर बेल पर बहस की डेट भी आ गयी. सीमा ने बताया कि अगर चमत्कार हो गया और बेल हो गयी तो मैं उसी दिन जेल में फ़ोन करवा कर तुम्हें सूचना दे दूंगी. वर्ना समझ लेना बेल नहीं  हुई. आज दिन भर मेरी धड़कन तेज़ चलती रही, लेकिन शाम तक धीरे-धीरे धड़कन की रफ्तार सामान्य होने लगी. सन्देशा नहीं आया. यानी बेल नहीं हुई. एक हल्की सी आशा अभी भी बनी हुई थी कि हो सकता है वह फ़ोन ना करवा पाई हो और कल मुलाक़ात के लिए आ जाये. इसी उधेड़बुन में रात भी कट गयी और दिन भर बेचैनी बनी रही. लेकिन मुलाक़ात नहीं आई. अब स्पष्ट हो गया कि बेल नहीं हुई. अब मैंने अपने आपको शान्त किया और उस कहानी पर विचार करने लगा जिसमें अब्बू को जेल से रिहा किया जाना था. मैंने सोचा कि दोपहर में नहाने के बाद लिखने बैठूंगा और अब्बू को रिहा करूंगा. यह सोचकर मेरा मन भारी हो रहा था कि अब मुझे लम्बे समय तक यहां अब्बू के बिना रहना पड़ेगा.

भीड़ से बचने के लिए अक्सर मैं दोपहर बाद ही नहाता था. मैं अभी अपने ऊपर पानी डालने जा ही रहा था कि अहाते में दूर से दौड़ता हुआ अब्बू आता दिखा. मैंने सोचा क्या हुआ. इतनी तेज़ क्यों दौड़ रहा है. मैं रुक गया. वह मेरी तरफ़ ही आ रहा था. वह सीधे मेरे पास आकर ही रुका. मेरे कुछ पूछने से पहले ही वह हांफते हुआ बोला-

‘मौसा हमारी बेल हो गयी.’

और फिर पीछे की तरफ़ इशारा करता हुआ बोला कि वो नम्बरदार बताने आया है और पैसे मांग रहा है. मैं स्तब्ध था. कोई भाव नहीं आ रहा था. अब्बू को बेल के बारे में मैंने कुछ नहीं बताया था कि झूठ मूठ के वह आशा बांध लेगा. अब्बू को यहाँ रहते हुए बेल का मतलब अच्छी तरह पता था. मुझे इस तरह भावहीन देख उसने फिर हाँफते हुए ही कहा कि मौसा मैं सच बोल रहा हूं. अब हम जेल से बाहर जायेंगे. इसी बीच वह नम्बरदार भी मुसकुराते हुए अब्बू के पीछे-पीछे आ गया और सबसे पहले उसने यही कहा कि 500 रुपये से कम नहीं लूंगा.

पहले मैंने उससे कन्फर्म किया कि सन्देश किसका है और कैसे आया है. आश्वस्त होने के बाद मैंने उसे गले से लगाया और अब्बू को गोद में उठा लिया. अब यह तय था कि मुझे और अब्बू को साथ-साथ रिहा होना था. अब्बू का चेहरा तो खुशी से चमक रहा था. और बार-बार यही पूछ रहा था कि अब हम कितने दिन बाद बाहर निकलेंगे. तब तक अन्य परिचित क़ैदियों ने भी हमें घेर लिया और बधाई देने लगे. सबसे पहले कादिर ने बधाई दी. कादिर की बेल हुए 2 साल हो गये, लेकिन गरीबी के कारण कोई बेलर नहीं मिल पा रहा. महज इसलिए वह 2 साल से जेल में है. पहले 3-4 माह में एक बार उसकी बूढ़ी मां मिलने आ जाती थी और 100-200 रुपये दे जाती थी. लेकिन पिछले 11 महीने से वह नहीं आयी. मैंने एक बार पूछा तो हंस कर बोला- ‘क्या पता, मर मरा गयी हो.’

यह सुनकर मैं अन्दर से हिल गया. बहरहाल अब वह बैरक का झाड़ू पोछा करके अपना खर्च किसी तरह निकाल लेता है. मुझे बधाई देने वालों में कमल भी था जो एक मोबाइल चोरी में आया था और गरीबी के कारण वकील ना कर पाने से पिछले 9 माह से जेल में था. उसकी कहानी हूबहू ‘बायसिकल थीफ’ नामक फ़िल्म से मिलती थी. मैं उसे अक्सर मस्ती में ‘डी सिका’ (‘बायसिकल थीफ’ फ़िल्म  का डायरेक्टर) कहकर बुलाता. वह हल्का सा मुसकुरा देता. मुझे बधाई देने वालों में प्रमोद भी था जिसने अपने छोटे भाई का बलात्कार का केस अपने सर ले लिया था और अब पिछले तीन साल से जेल काट रहा है.

जिस भाई के लिए उसने यह सब किया उसने मुड़ के देखा तक नहीं. उसकी पत्नी ईट भट्टे पर काम करती और महज इतना ही बचा पाती थी कि कोर्ट में पेशी के समय अपने दोनों छोटे बच्चों को उनके बाप की एक झलक दिखा पाती थी. मैं अक्सर उससे पूछता कि तुम्हें अफसोस नहीं होता कि जिस भाई को बचाने के लिए तुमने अपना जीवन दांव पर लगा दिया, उसने तुम्हारी मदद की कौन कहे, मुड़ के देखा तक नहीं कि तुम सब कैसे हो.

वह हल्की सांस भरते दार्शनिक अंदाज में बोलता-‘नहीं दादा, मुझे कोई अफसोस नहीं है. मुझे जो सही लगा मैंने किया, उसे जो सही लग रहा है, वो कर रहा है.’

उसकी यह उदात्तता देख मैं हैरान रह जाता. इन सबकी बधाइयों के बीच मैं अपनी खुशी को दबाने का भरसक प्रयास कर रहा था. इनके बीच अपनी रिहाई की खुशी का प्रदर्शन मुझे अश्लील लग रहा था. मुझे बधाई देने वाले क़ैदियों की आंखों में मैं वो दुःख भी साफ़-साफ़  देख पा रहा था जो मेरी रिहाई के कारण उनकी क़ैद को और गाढ़ा बनाने के कारण आ गया था. इसके अलावा मुझसे बिछड़ने का दुःख भी उन्हें था. मेरे लिए यह 10-15 मिनट का समय बहुत भारी गुजर रहा था- दुःखों के समन्दर में छोटी सी खुशी की नौका हिचकोले खाती हुई.

 

अंत की शुरुआत……….

दार्शनिक दृष्टि से देखे तो ‘अंत’ कुछ नहीं  होता. हर ‘अंत’ के साथ एक अनिवार्य ‘शुरूआत’ जुड़ी होती है. इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने ‘अब्बू की नज़र में जेल’ का अन्तिम भाग असली ‘अब्बू’ को भेजा और फिर फ़ोन से उससे बात हुई. दरअसल मैं ‘अब्बू की नज़र में जेल’ का प्रत्येक भाग सबसे पहले असली अब्बू को भेजता था. 7 साल का हो चुका अब्बू धीमे-धीमे एक-एक लाइन पढ़ता. जहां उसे दिक्कत होती, अपनी ईजा की मदद लेता. उसके बाद वह मुझे फ़ोन करता कि मौसा मैंने तेरी डायरी पढ़ ली. मैं बोलता कि सच में तूने पढ़ ली. वह बोलता, और क्या, चाहो तो टेस्ट ले लो. फिर मैं डायरी के उस हिस्से से कुछ पूछता और वह सही-सही जवाब देता. फिर मैं उसे नम्बर देता. कई बार वह पलट कर खुद भी सवाल करता.

जैसे 12 वां भाग पढकर उसने बड़ी चिन्ता से पूछा कि मौसा ‘कादिर’ को अब कौन निकालेगा. उसकी तो मां भी नहीं है. मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही वह खुद बोल पड़ा- ‘मौसा उसे तुम क्यों नहीं  निकाल सकते.’

मैंने उसे आश्वस्त किया कि ठीक है मैं उसे निकाल लूंगा.

जब मैंने अब्बू को डायरी का अन्तिम हिस्सा भेजा तो उसने डायरी पढ़कर मेरे सवालों का जवाब देने के बाद अचानक बोला- ‘मौसा, काश कि मैं भी तेरे साथ जेल में होता.’ मैं चौक गया. मैंने तुरन्त पूछा- ‘अब्बू तुझे जेल से डर नहीं लगता?’ अब्बू तुरन्त बोला- ‘पहले लगता था, लेकिन तुम्हारी डायरी पढ़ने के बाद नहीं लगता.’

मेरी जेल डायरी का इससे अच्छा अन्त और क्या हो सकता है. इसने एक नयी शुरुआत को जन्म दे दिया. मेरे जेहन में ‘गोरख पाण्डेय’ की एक मशहूर कविता गूंजने लगी-

वे डरते हैं
किस चीज़  से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे.

मनीष आज़ाद  राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं,  लेख, समीक्षाएं आदि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं.
19manish73@gmail.com
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Comments 14

  1. रमेश अनुपम says:
    4 years ago

    पूरा पढ़ गया। इस तरह के गद्य विचलित करते हैं। बहुत कुछ द्रवित भी। मनीष आजाद को पढ़ते हुए देश के भीतर जो कुछ भी हो रहा है जिसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है उसे देखकर तकलीफ ही हो सकती है। हम जिस दौर में जी रहे हैं वह बेहद क्रूर और भयावह है। इस तरह के गद्य की उम्मीद केवल ’समालोचन’ से ही की जा सकती है।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    4 years ago

    मनीष आनन्द की डायरी पढ़कर मज़ा आ गया । मेरी दृष्टि में यह सबसे आनन्ददायक पोस्ट है । मनीष, अब्बू और अमिता का संसार सुहावना है । समाज को बदलने का जुनून है । अकसर मेरे मन में यही सवाल रह-रह कर उठता है कि मैं गिलहरी की तरह अपनी आहुति डाल सकूँ । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि क्रांति या परिवर्तन अहिंसक हो । हम अपने वांग्मयों से वे व्यक्ति ढूँढें जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपना बहुत कुछ होम कर दिया हो । मनीष जी आज़ाद ने अरुण कमल की पंक्ति ‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है’ को उद्धृत किया है । इस पंक्ति में अहिंसा (जिसका सकारात्मक अर्थ प्रेम है; विश्व व्यापी प्रेम) प्रकट हो रहा है । आज़ाद साहब की कुछ पंक्तियों को मैंने काग़ज़ पर लिख लिया था । मसलन ‘History of Three International’ किताब ख़त्म करनी थी’ । क्योंकि कल एक ज़रूरी अनुवाद से भिड़ना है । एक शायर का कलाम याद आ गया ।
    ठनी रहती है मेरी सिरफिरी पागल हवाओं से
    मैं फिर भी रेत के टीले पे अपना घर बनाता हूँ

    अपने शरीर की मुश्किलात से गुज़रते हुए भी समाज के सुख के लिए कुछ करना चाहता हूँ । मनीष जी लिखते हैं मनपसंद मिलन
    की ‘क़ैद’ और पढ़ चुकने की ‘रिहाई’ दोनों का अहसास सुखद होता है । ‘अब्बू की ताक़त है मौसा, मौसा की ताक़त है अब्बू, इन दोनों की ताक़त है मौसी, हम सब की ताक़त है खाना’ । फिर मनीष जी आज़ाद लिखते हैं-दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था’
    मनीष और अमिता के घर में मार्क्स, ब्रेख़्त, भगत सिंह आदि के Quotation के पोस्टर मुझे भी हौसला देते हैं । मैंने पहले भी लिखा था कि मुझ में भी कुछ कुछ Communism है ।
    पुलिस मनीष को क़ैद करने आयी । बदलाव करने वाले व्यक्ति पुलिस का बेवजह शिकार बनते हैं ।
    अब्बू के मन में नाज़ीवाद के लिए नफ़रत है और उसकी यादें हैं । सुखकर है । हिटलर फिर से न पैदा हों । समाज जागरुक करने की कोशिशें जारी रहें ।
    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी यदि मनीष आज़ाद ने इस डायरी का विस्तृत वर्णन किसी किताब की शक्ल में किया हो तो मैं ख़रीदना चाहता हूँ ।

    Reply
  3. हिमांशु बी जोशी says:
    4 years ago

    बहुत गज़ब का लेखन। विवरण ही नहीं उन्हें दर्ज़ करने का तरीका भी निहायत ही भीगा हुआ सा है। उच्चस्तरीय।

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    बेहद मर्मस्पर्शी संस्मरण ! क्रांति के सपने देखते-बुनते लोगबाग जो सत्ता से टकराने के बाद किस तरह अनेक शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलते हैं और जेल की सलाखों के पीछे जो अमानवीय बदसलूकी एवं नरक जैसी यंत्रणा भोगते हैं-इन सबका यहाँ बड़ा हीं मार्मिक वर्णन है। अब्बू के साथ उसके एक काल्पनिक साहचर्य में जीते हुए गहरी संवेदना से भरी यह आपबीती सचमुच जगबीती बन गयी है। समालोचन एवं मनीष जी को बधाई !

    Reply
  5. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    मनीष आजाद ने अपनी आप-बीती इतने सरल, मार्मिक और ह‌दय को छूने वाले शब्दों से लिखी है कि कला तो उसमें अपने आप अंकुरित हो आयी है। अविस्मरणीय पाठ। ऐसी ही रचनाओं से साहित्य समृद्ध होता है। समालोचन ऐसी सामग्री पढ़वाता है इसके लिए उसका आभार।

    Reply
  6. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    एक अनुभव के यथार्थ को इस तरह लिखा जाए कि वह एक कृति भी बन जाए: यह उदाहरण है। मनीष का गद्य जीवंत, दृष्टिसंपन्न और मार्मिक तो है ही, प्रतिवाद और यातना को भी प्रभावी ढंग से दर्ज करता है।
    अरुण देव को इसे प्रकाशित करने के लिए बधाई।

    Reply
  7. राकेश says:
    4 years ago

    बेहद जीवंत,मार्मिक।बच्चे के माध्यम से यथार्थ,इतिहास और फंतासी का अद्भुत समन्वय। जेल में बिताए दिन याद आये।

    Reply
  8. प्रभात+मिलिंद says:
    4 years ago

    गद्य का एक साथ प्रासंगिक, विचारोत्तेजक और रोचक होना एक दुर्लभ संयोग है। मनीष आज़ाद के इस गद्यांश को पढ़ते हुए इसी विरलता के दर्शन होते हैं। एक ऐसे नैराश्यपूर्ण समय में जबकि साहित्य भी कई बार सत्ता की भाषा बोलने लगी है, या अपनी पुनरावृत्ति में वह प्रायः एक विदूषक की भूमिका में दिखती है, प्रतिवाद का साहित्य हमें नई आशाओं से भर देता है। पूरे संस्मरण में अब्बू की उपस्थिति किसी सुखद प्रतीकात्मकता की तरह है।

    इस संस्मरणात्मक गद्य को पढ़कर अनायास मुझे पिछले दिनों इतालवी सिद्धांतकार एंटोनियो ग्राम्स्की के प्रिज़न नोटबुक्स के पढ़े गए कुछ अंश याद आ गए। यद्यपि कंटेंट की दृष्टि से वे बिल्कुल भिन्न हैं और मूलतः राजनीतिक सिद्धांतों पर केंद्रित हैं किन्तु यह बात तो सामने आती ही है कि देह के बंदी बनाए जाने के बाद भी विचारों को बंदी नहीं बनाया जा सकता।

    पिछले दिनों साहित्य के इतर भी इतिहास, संस्कृति, कला, सिनेमा, विचार और संगीत पर विविध तरह की सामग्रियाँ प्रकाशित कर समालोचन ने इसके उत्तरदायित्व और इसकी रोचकता दोनों को जिस तरह से संतुलित रखा है, वह श्लाघनीय है।

    Reply
  9. हीरालाल नगर says:
    4 years ago

    मनीष आज़ाद की जेल में लिखी कहानी पढ़ते हुए लगा जैसे मैं लेखन की क्लास में बैठा हूं। और सोचता हूं लेखन के लिए इतनी अच्छी और मुफीद जगह सभी को नहीं मिलती। इसका आशय यही हुआ कि यातना के क्षण हमें जुर्म के खिलाफ लिखने को प्रेरित करते हैं। मनुष्य का मौलिक स्वभाव है मनुष्यता के विरुद्ध होनेवाली कार्रवाई को स्थगित करना।
    मनीष आज़ाद की इस खूबसूरत शुरुआत के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  10. पूनम वासम says:
    4 years ago

    पढ़ रही हूं, शब्द, शब्द अनुभव कर पा रही हूँ, मन में बहुत देर तक ठहरने वाला है यह गद्य, बहुत शुक्रिया 🙏

    Reply
  11. Anonymous says:
    4 years ago

    एक एक शब्द रुककर संभलकर पढ़ना पड़ा। भावनाओं का एक कैप्सूल

    Reply
  12. जीतेश्वरी says:
    4 years ago

    मनीष आजाद द्वारा लिखी गई बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण डायरी को हम सब के बीच प्रस्तुत करने लिए ‘ समालोचन ‘ को बहुत शुक्रिया।

    ‘ मेरी जेल डायरी ‘ में जेल की सुबह, शाम और रात जो चार दिवारी में कैद हो जाती है, उसकी इतनी गहराई से मनीष जी ने वर्णन किया है जो हमारी कल्पना में संभव ही नहीं है। पर इसे मनीष जी ने सच कर दिखाया है। एक-एक, छोटी – छोटी बारीक से बारीक चीजों का जिस तरह से चित्रण किया गया है वह बेहद आश्चर्यजनक है। मनीष जी कि गंभीर दृष्टि और समझ ने उनके प्रति मेरे मन में सम्मान की एक नई भावना गढ़ ली है।

    मैं जब पढ़ने बैठी तो पता नहीं चला कि कब अंत की निर्णायक शुरुआत में पहुंच गई। अब्बू का मासूम चेहरा और उसकी बातें दिलों, दिमाग में छाने लगी।

    ‘ मेरी जेल डायरी ‘ पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो कोई फिल्म चल रही हो और उस फिल्म को बीच में एक क्षण के लिए भी छोड़ना मेरे लिए मुश्किल हो गया। भाषा ऐसी जैसे कोई शांत नदी चुपचाप अपनी कहानी किसी नाविक को सुनाते हुए बह रही हो और
    नाविक उस नदी में इस तरह खो जाता है जैसे अब उसने फैसला कर लिया हो कि मुझे किनारे नहीं पहुंचना सिर्फ बहना है नदी के साथ दूर तक।

    मेरी जेल डायरी बहुत मार्मिक होने के साथ – साथ जीवन की अनेक कहानियों को एक साथ प्रस्तुत करने वाली सुंदर डायरी है। इसके लिए बहुत बधाई और बहुत शुक्रिया मनीष जी और समालोचन को।

    Reply
  13. Anonymous says:
    4 years ago

    वेहद सहज , सम्प्रेषणीय और मार्मिक गद्य

    Reply
  14. Devpriya Awasthi says:
    3 years ago

    बेहद संजीदा जेल डायरी.
    मौजूदा दौर ऐसी ढेरों डायरियां सामने लाने के लिए मुफीद है.

    Reply

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