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अब्बू की नज़र में जेल
हमारे घर से हमें सीधे ‘हाक’ (एण्टी नक्सल फोर्स) हेडक्वार्टर लाया गया. काले बूट और गहरे हरे रंग की वर्दी में नौजवान लड़के अत्याधुनिक हथियारों से लैस किसी रोबोट की भांति इधर से उधर आ जा रहे थे. हमारे आने पर उन्होंने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. कुर्सियां लगी एक छोटे कमरे में हमें बैठाया गया. हमारे बैठते ही उन लोगों के बीच कुछ काना फूसी हुई और फिर अमिता को इसी से सटे दूसरे कमरे में शिफ्ट कर दिया गया. अब्बू को मैंने शतरंज दे दिया और उसे कोने में लगी एक कुर्सी पर बिठा दिया. लेकिन अब्बू कुर्सी पर बैठते ही सरक कर उतर गया और बोला- ‘मौसा मैं एक चक्कर लगा कर आता हूं.’ इसके बाद वह कैम्पस का चक्कर लगाता और बीच-बीच में आकर मुझे नई-नई जानकारी देता. जैसे, वो लंबा वाला सिपाही वीडियो काल में अपने बच्चे से बात कर रहा है. मैंने चुपके से सुन लिया, आज उसके बच्चे का जन्मदिन है और वो अपने पापा को बुला रहा है.
एटीएस की अनुमति से ही मैंने अब्बू के लिए शतरंज रख लिया था ताकि मैं अब्बू को व्यस्त रख सकूं. अब्बू ने मेरे साथ शतरंज खेलते हुए अपना एक अलग ही नियम निकाल लिया था. जब मैं उसे शतरंज सिखा रहा था उसी दौरान एक बार उसने मुझसे पूछा की मौसा राजा के मरने पर खेल ख़त्म क्यों हो जाता है. अभी तो सैनिक बचे है. वे लड़ेंगे. मुझे इसी समय जावेद अख्तर की कविता ‘ये खेल क्या है’ याद आई. इसके बाद अब्बू ने अपना ही नियम निकाल लिया की जब तक एक भी सैनिक बचा रहेगा खेल जारी रहेगा. यदि मैं किसी काम में व्यस्त रहता तो अब्बू अकेले ही दोनों तरफ़ से खेलता. यहाँ भी जब मुझसे पूछताछ होने लगी तो वह अकेले ही शतरंज में लग गया.
इधर मुझसे पूछताछ की शुरूआत हो गयी थी. 7-8 लोगों ने भयभीत करने के अंदाज में मेरे एकदम नज़दीक आकर घेरे में कुर्सियों पर बैठ गये. पहले औपचारिक पूछताछ हुई. नाम, पता आदि. मुझे मशहूर लैटिन अमरीकी फ़िल्म ‘दी आवर आफ फरनेस’ (The Hour of the Furnaces) का शुरूआती दृश्य याद आ गया. तेज़ ड्रम संगीत के बीच स्क्रीन पर कैप्शन उभरता है. नाम- विक्टिम (victim), सरनेम- आरगैनाइजेशन (organization), पेशा- रिवोल्यूशन (Revolution). सच में मेरा भी यही परिचय था. इस औपचारिक पूछताछ के बाद असली पूछताछ शुरू हुई. मेरे नज़दीक बैठे एक शख्स ने अपना मोबाइल निकाला और एक-एक करके मुझे तमाम लोगों के फोटो दिखाने लगा. फोटो देखते हुए मैं नर्वस होने लगा और मेरे पसीने छूटने लगे. लेकिन जल्दी ही मैंने अपने पर नियंत्रण पा लिया और बाथरूम जाने का इशारा किया. इसी ‘ब्रेक’ में मैंने अपने आपको नार्मल किया. ‘ब्रेक’ के बाद वह हर फोटो का परिचय खुद ही देने लगा और उनसे मेरा सम्बन्ध जोड़ने लगा. अब तक मैं इस शुरुआती शाक से उबर चुका था. मैंने कहा- ‘जब आपको इतनी डिटेल जानकारी है तो मुझसे क्यों पूछ रहे हैं.’
उसने तुरन्त कहा- ‘लेकिन हमें यह नहीं पता कि संगठन में इनका पद और जिम्मेदारी क्या है. यह जानकारी आप हमें देंगे.’
फिर व्यंग्य से बोला- ‘देंगे ना.’
अब तक मेरा अपने आप पर पूरा नियंत्रण हो चुका था. मैंने दृढ़ता से कहा- इनमें से कुछ जनसंगठन के सदस्य हैं और कुछ मेरे व्यक्तिगत दोस्त हैं, बाकी को मैं नहीं पहचानता. कुछ फोटो पर वह ज़ोर देने लगा कि बताइये यह कौन है. मैंने साफ़ इंकार कर दिया कि मैं नहीं जानता. तभी उनमें से एक ने मेरे पेट पर हाथ रखते हुए हल्का सा मरोड़ दिया और बोला कि बताना पड़ेगा. मुझे लगा कि अब टार्चर शुरू होने वाला है. तभी एक हट्टा कट्टा लंबा सांवले रंग का सिपाही जो इस पूछताछ में चुपचाप बैठा था, अचानक बोल उठा- ‘इनका पेट ठीक नहीं है, टच मत करिये.’
बाद में मैंने ध्यान दिया, यह वही व्यक्ति था जिसके बेटे का आज जन्म दिन था और जिसकी बात अब्बू ने सुन ली थी. उसकी बात का असर हुआ. और फिर किसी ने मुझे टच नहीं किया. मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा कि उसने मुझे ‘डिफेन्ड’ क्यों किया.
इसी दौरान अचानक मैंने देखा कि अब्बू पूछताछ करने वाले शख्स के पीछे खड़ा होकर मोबाइल की सभी तस्वीरें ध्यान से देख रहा था. उसने मेरे कान में धीमे से कहा- ‘ये सब भी तेरे साथ मिलकर सरकार से लड़ते हैं.’ मैंने कहा- हां. अब्बू ने तपाक से जोड़ा- वाह. और अपने शतरंज की ओर भागा, जहां शायद उसका राजा भी दुश्मनों से घिरा हुआ था. अब्बू को उसे बचाना था.
इसी पूछताछ के बीच एक रोबीले डील डौल वाले व्यक्ति ने प्रवेश किया, जो पता नहीं क्यों किसी ढहते सामंती परिवार का बिगड़ैल बेटा नजर आ रहा था. उसने कुर्सी पर धंसते ही पूरे माओवादी आन्दोलन को गाली देना शुरू कर दिया. वही पुराना राग- ‘नेता लोग कोठियों में रहते है, कैडर को मरने के लिए छोड़ देते हैं.’ मैं चुपचाप उसका ‘भाषण’ सुन रहा था. लेकिन जब उसने यह बोला कि यहां लड़कियों का शारीरिक शोषण होता है तो अचानक मुझे गुस्सा आ गया. मैंने भरसक अपने गुस्से पर नियंत्रण रखते हुए कहा कि आप मुझसे पूछताछ करने आये हैं या अपना ‘मुर्गावलोकन’ सुनाने. पता नहीं क्यों वह भड़का नहीं. गैर हिन्दी भाषी होने के कारण शायद वह मुर्गावलोकन का अर्थ नहीं समझ पाया. लेकिन उसने उसी रौ में कहा- ‘तुम मानो या ना मानो यह तो कामन सेन्स की बात है.’ मैंने भी यहीं अग्रेजी में कह दिया- ‘योर कामन सेन्स इज नाट सो कामन’. इसके बाद उसका ब्लडप्रेशर थोड़ा नार्मल हो गया और खीझते हुए दूसरों को संबोधित करते हुए बोला-‘इनका ब्रेनवाश हो चुका है, इन्हें कुछ समझ में नहीं आयेगा. दो चार साल जेल में रहेंगे तब समझ आयेगा.’ यह कहते हुए वह पैर पटकते हुए कमरे से बाहर चला गया.
इस गरमा गरमी के कारण अब्बू का ध्यान भी भंग हो चुका था, वह दौड़ कर मेरे पास आया, बोला- ‘मौसा क्या हुआ.’ मैंने कहा-‘कुछ नहीं आदिवासियों को गाली दे रहा था.’ मैंने अब्बू को आदिवासियों की जो कहानियां सुनाई थी, उससे रिलेट करके अब्बू ने कुछ समझा और तत्काल मुंह बनाकर बोला- ‘गन्दा आदमी.’ मुझे हंसी आ गयी और मेरा टेंशन भी रिलीज़ हो गया.
इसी बीच पूछताछ करने वाले एक-एक करके बाहर चले गये. सिर्फ़ वही बचा रहा जिसने मुझे ‘डिफेंड’ किया था. मुझे ऐसा लगा कि वह जान बूझ कर नहीं गया.
जब कमरे में सिर्फ़ मैं और अब्बू बचे तब उसने इत्मीनान से पूछा- ‘आप लोग तो भगवान में विश्वास करते नहीं तो ऐसे कठिन समय में आप किसकी तरफ़ देखते है.’
मैंने बिना सोचे समझे जवाब दे दिया- ‘इतिहास की तरफ़’.
वह संतुष्ट नहीं हुआ, लेकिन आगे कुछ नहीं पूछा और उठ कर चल दिया. अब्बू मेरी बात ध्यान से सुन रहा था. अब्बू को पता है कि मैं भगवान को नहीं मानता. कभी-कभी वो मुझसे बहस भी करता है. इससे जुड़ी बड़ी मज़ेदार कहानियां हैं हमारे पास. लेकिन इतिहास उसके शब्दकोश के लिए नया शब्द था. उसने मुझसे पूछा- ‘मौसा ये इतिहास क्या होता है?’ मैंने दिमाग पर ज़ोर डाला और बोला, कहानी. अब्बू ने तुरन्त दूसरा सवाल दागा- ‘सच्ची कहानी?’ मैंने कहा, थोड़ी सच्ची थोड़ी झूठी. अब्बू ने कहा- ‘अच्छा अब पता चला कि जब मैं रोता हूं तो तुम मुझे कहानी क्यों सुनाते हो. ताकि मैं फिर से हंसने लगूं और खेलने लगूं.’ मैंने कहा- ‘हां’. मैंने इतना और जोड़ा- ‘यही तो इतिहास भी करता है.’ पता नहीं अब्बू ने क्या समझा और वह फिर से कैम्पस का चक्कर लगाने भाग गया.
मुझे लगा था कि आज रात नींद नहीं आयेगी. लेकिन अब्बू को और मुझे अच्छी नींद आ गयी. पूछताछ करने वाली टीम भी कई तकनीकी कामों में उलझी थी- यहां मोहर, वहां मोहर, इसकी पैंकिग, उसकी पैंकिग. शायद यही कारण था कि उन्होंने मुझे सोने का मौका दे दिया. रात में करीब दो ढाई बजे के आस पास मेरे कान में कुछ आवाज़ पड़ी और मेरी नींद खुल गयी. कमरे के बाहर अहाते से धीमे-धीमे बातचीत की आवाज़ आ रही थी. एक की बात तो मैं नहीं सुन सका, लेकिन दूसरा व्यक्ति जो मेरे कमरे की तरफ़ ही खड़ा था, उसकी आवाज़ मैं सुन पा रहा था. वह कह रहा था- ‘नहीं मैं यह नहीं कर सकता. इतनी बड़ी मक्खी मैं नहीं निगल सकता. आखिर कोर्ट में तो मुझे ही जवाब देना पड़ेगा.’ यह सुनकर मैं तनाव में आ गया. लेकिन फिर इसे झटक कर दुबारा सोने का प्रयास करने लगा. मैंने अपने आप से कहा- इसमें मैं क्या कर सकता हूं, जो करना है, अब इन्हें ही करना है.
अगले दिन हमें कोर्ट ले जाया गया. हमें उम्मीद नहीं थी कि वहां हमसे मिलने कोई आयेगा. लेकिन हमारे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा. वहां ना सिर्फ़ हमारे शुभचिंतक पहले से मौजूद थे, बल्कि उन्होंने एक अच्छा वकील भी कर दिया था. सबसे पहले अब्बू की मां हमें कोर्ट में मिली. उसकी आंखें भरी हुई थी. हमसे मिलते ही वह रोने लगी. मैंने उसे ढांढस देते हुए पूछा- ‘अब्बू कैसा है.’ वह बोली कि उसे अभी बताया नहीं है, लेकिन आज सुबह पूछ रहा था कि मौसी की तबीयत खराब है क्या. हम लोगों के व्यवहार से कुछ अजीब लग रहा है उसे. आज सुबह ही मौसा के यहां जाने की ज़िद कर रहा था. बड़ी मुश्किल से समझाया. यह सुन कर हमें भी रोना आ गया. बड़ी मुश्किल से हमने अपने आप को रोका.
खैर कोर्ट की औपचारिकता पूरी करके हम कोर्ट से बाहर निकले. मेरे दिमाग में लगातार यही चल रहा था कि अपने दोस्तों, संगठन के साथियों, और परिवार वालों को सन्देश कैसे दिया जाये कि हम ठीक हैं और अच्छी स्प्रिट में है. तभी कोर्ट की सीढ़ियाँ उतरते हुए हमें सामने मीडिया का हुजूम दिखायी पड़ गया. बस मुझे सन्देश देने का माध्यम मिल गया. सीढ़ियाँ उतरते हुए ही मैंने अपनी मुठ्ठी लहराई और नारा लगाया- इंक़लाब ज़िन्दाबाद. पीछे से अमिता ने भी ज़ोर से दोहराया-इंक़लाब ज़िन्दाबाद. तभी मुझे अब्बू की पतली सी आवाज़ सुनाई दी-इंक़लाब ज़िन्दाबाद. मैंने आश्चर्य से पीछे मुड़ कर देखा- उसके नन्हें हाथ हवा में उठे हुए थे और वह मेरी तरफ़ ही देख रहा था. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. दिमाग में कौंधा- भला अब इंक़लाब को कौन रोक सकता है.
इंक़लाब ज़िन्दाबाद!
पूरा पढ़ गया। इस तरह के गद्य विचलित करते हैं। बहुत कुछ द्रवित भी। मनीष आजाद को पढ़ते हुए देश के भीतर जो कुछ भी हो रहा है जिसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है उसे देखकर तकलीफ ही हो सकती है। हम जिस दौर में जी रहे हैं वह बेहद क्रूर और भयावह है। इस तरह के गद्य की उम्मीद केवल ’समालोचन’ से ही की जा सकती है।
मनीष आनन्द की डायरी पढ़कर मज़ा आ गया । मेरी दृष्टि में यह सबसे आनन्ददायक पोस्ट है । मनीष, अब्बू और अमिता का संसार सुहावना है । समाज को बदलने का जुनून है । अकसर मेरे मन में यही सवाल रह-रह कर उठता है कि मैं गिलहरी की तरह अपनी आहुति डाल सकूँ । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि क्रांति या परिवर्तन अहिंसक हो । हम अपने वांग्मयों से वे व्यक्ति ढूँढें जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपना बहुत कुछ होम कर दिया हो । मनीष जी आज़ाद ने अरुण कमल की पंक्ति ‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है’ को उद्धृत किया है । इस पंक्ति में अहिंसा (जिसका सकारात्मक अर्थ प्रेम है; विश्व व्यापी प्रेम) प्रकट हो रहा है । आज़ाद साहब की कुछ पंक्तियों को मैंने काग़ज़ पर लिख लिया था । मसलन ‘History of Three International’ किताब ख़त्म करनी थी’ । क्योंकि कल एक ज़रूरी अनुवाद से भिड़ना है । एक शायर का कलाम याद आ गया ।
ठनी रहती है मेरी सिरफिरी पागल हवाओं से
मैं फिर भी रेत के टीले पे अपना घर बनाता हूँ
अपने शरीर की मुश्किलात से गुज़रते हुए भी समाज के सुख के लिए कुछ करना चाहता हूँ । मनीष जी लिखते हैं मनपसंद मिलन
की ‘क़ैद’ और पढ़ चुकने की ‘रिहाई’ दोनों का अहसास सुखद होता है । ‘अब्बू की ताक़त है मौसा, मौसा की ताक़त है अब्बू, इन दोनों की ताक़त है मौसी, हम सब की ताक़त है खाना’ । फिर मनीष जी आज़ाद लिखते हैं-दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था’
मनीष और अमिता के घर में मार्क्स, ब्रेख़्त, भगत सिंह आदि के Quotation के पोस्टर मुझे भी हौसला देते हैं । मैंने पहले भी लिखा था कि मुझ में भी कुछ कुछ Communism है ।
पुलिस मनीष को क़ैद करने आयी । बदलाव करने वाले व्यक्ति पुलिस का बेवजह शिकार बनते हैं ।
अब्बू के मन में नाज़ीवाद के लिए नफ़रत है और उसकी यादें हैं । सुखकर है । हिटलर फिर से न पैदा हों । समाज जागरुक करने की कोशिशें जारी रहें ।
प्रोफ़ेसर अरुण देव जी यदि मनीष आज़ाद ने इस डायरी का विस्तृत वर्णन किसी किताब की शक्ल में किया हो तो मैं ख़रीदना चाहता हूँ ।
बहुत गज़ब का लेखन। विवरण ही नहीं उन्हें दर्ज़ करने का तरीका भी निहायत ही भीगा हुआ सा है। उच्चस्तरीय।
बेहद मर्मस्पर्शी संस्मरण ! क्रांति के सपने देखते-बुनते लोगबाग जो सत्ता से टकराने के बाद किस तरह अनेक शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलते हैं और जेल की सलाखों के पीछे जो अमानवीय बदसलूकी एवं नरक जैसी यंत्रणा भोगते हैं-इन सबका यहाँ बड़ा हीं मार्मिक वर्णन है। अब्बू के साथ उसके एक काल्पनिक साहचर्य में जीते हुए गहरी संवेदना से भरी यह आपबीती सचमुच जगबीती बन गयी है। समालोचन एवं मनीष जी को बधाई !
मनीष आजाद ने अपनी आप-बीती इतने सरल, मार्मिक और हदय को छूने वाले शब्दों से लिखी है कि कला तो उसमें अपने आप अंकुरित हो आयी है। अविस्मरणीय पाठ। ऐसी ही रचनाओं से साहित्य समृद्ध होता है। समालोचन ऐसी सामग्री पढ़वाता है इसके लिए उसका आभार।
एक अनुभव के यथार्थ को इस तरह लिखा जाए कि वह एक कृति भी बन जाए: यह उदाहरण है। मनीष का गद्य जीवंत, दृष्टिसंपन्न और मार्मिक तो है ही, प्रतिवाद और यातना को भी प्रभावी ढंग से दर्ज करता है।
अरुण देव को इसे प्रकाशित करने के लिए बधाई।
बेहद जीवंत,मार्मिक।बच्चे के माध्यम से यथार्थ,इतिहास और फंतासी का अद्भुत समन्वय। जेल में बिताए दिन याद आये।
गद्य का एक साथ प्रासंगिक, विचारोत्तेजक और रोचक होना एक दुर्लभ संयोग है। मनीष आज़ाद के इस गद्यांश को पढ़ते हुए इसी विरलता के दर्शन होते हैं। एक ऐसे नैराश्यपूर्ण समय में जबकि साहित्य भी कई बार सत्ता की भाषा बोलने लगी है, या अपनी पुनरावृत्ति में वह प्रायः एक विदूषक की भूमिका में दिखती है, प्रतिवाद का साहित्य हमें नई आशाओं से भर देता है। पूरे संस्मरण में अब्बू की उपस्थिति किसी सुखद प्रतीकात्मकता की तरह है।
इस संस्मरणात्मक गद्य को पढ़कर अनायास मुझे पिछले दिनों इतालवी सिद्धांतकार एंटोनियो ग्राम्स्की के प्रिज़न नोटबुक्स के पढ़े गए कुछ अंश याद आ गए। यद्यपि कंटेंट की दृष्टि से वे बिल्कुल भिन्न हैं और मूलतः राजनीतिक सिद्धांतों पर केंद्रित हैं किन्तु यह बात तो सामने आती ही है कि देह के बंदी बनाए जाने के बाद भी विचारों को बंदी नहीं बनाया जा सकता।
पिछले दिनों साहित्य के इतर भी इतिहास, संस्कृति, कला, सिनेमा, विचार और संगीत पर विविध तरह की सामग्रियाँ प्रकाशित कर समालोचन ने इसके उत्तरदायित्व और इसकी रोचकता दोनों को जिस तरह से संतुलित रखा है, वह श्लाघनीय है।
मनीष आज़ाद की जेल में लिखी कहानी पढ़ते हुए लगा जैसे मैं लेखन की क्लास में बैठा हूं। और सोचता हूं लेखन के लिए इतनी अच्छी और मुफीद जगह सभी को नहीं मिलती। इसका आशय यही हुआ कि यातना के क्षण हमें जुर्म के खिलाफ लिखने को प्रेरित करते हैं। मनुष्य का मौलिक स्वभाव है मनुष्यता के विरुद्ध होनेवाली कार्रवाई को स्थगित करना।
मनीष आज़ाद की इस खूबसूरत शुरुआत के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
पढ़ रही हूं, शब्द, शब्द अनुभव कर पा रही हूँ, मन में बहुत देर तक ठहरने वाला है यह गद्य, बहुत शुक्रिया 🙏
एक एक शब्द रुककर संभलकर पढ़ना पड़ा। भावनाओं का एक कैप्सूल
मनीष आजाद द्वारा लिखी गई बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण डायरी को हम सब के बीच प्रस्तुत करने लिए ‘ समालोचन ‘ को बहुत शुक्रिया।
‘ मेरी जेल डायरी ‘ में जेल की सुबह, शाम और रात जो चार दिवारी में कैद हो जाती है, उसकी इतनी गहराई से मनीष जी ने वर्णन किया है जो हमारी कल्पना में संभव ही नहीं है। पर इसे मनीष जी ने सच कर दिखाया है। एक-एक, छोटी – छोटी बारीक से बारीक चीजों का जिस तरह से चित्रण किया गया है वह बेहद आश्चर्यजनक है। मनीष जी कि गंभीर दृष्टि और समझ ने उनके प्रति मेरे मन में सम्मान की एक नई भावना गढ़ ली है।
मैं जब पढ़ने बैठी तो पता नहीं चला कि कब अंत की निर्णायक शुरुआत में पहुंच गई। अब्बू का मासूम चेहरा और उसकी बातें दिलों, दिमाग में छाने लगी।
‘ मेरी जेल डायरी ‘ पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो कोई फिल्म चल रही हो और उस फिल्म को बीच में एक क्षण के लिए भी छोड़ना मेरे लिए मुश्किल हो गया। भाषा ऐसी जैसे कोई शांत नदी चुपचाप अपनी कहानी किसी नाविक को सुनाते हुए बह रही हो और
नाविक उस नदी में इस तरह खो जाता है जैसे अब उसने फैसला कर लिया हो कि मुझे किनारे नहीं पहुंचना सिर्फ बहना है नदी के साथ दूर तक।
मेरी जेल डायरी बहुत मार्मिक होने के साथ – साथ जीवन की अनेक कहानियों को एक साथ प्रस्तुत करने वाली सुंदर डायरी है। इसके लिए बहुत बधाई और बहुत शुक्रिया मनीष जी और समालोचन को।
वेहद सहज , सम्प्रेषणीय और मार्मिक गद्य
बेहद संजीदा जेल डायरी.
मौजूदा दौर ऐसी ढेरों डायरियां सामने लाने के लिए मुफीद है.