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समालोचन

Home » मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद » Page 3

मेरी जेल डायरी: मनीष आज़ाद

जेल की यातनाओं और अनुभवों पर प्रचुर मात्रा में देशी विदेशी भाषाओं में साहित्य मिलता है. नेताओं, क्रांतिकारियों, कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों आदि को जब-जब जेल में डाला गया उन्होंने अपने कारा-वास को रचनात्मक बना डाला, कभी कार्यों से तो कभी अपनी लेखनी से. मनीष आज़ाद ने अपने जेल-अनुभवों में अब्बू यानी अबीर नामक बच्चे को शामिल कर इसे लिखा है. आपबीती अगर ढंग से कही जाए तो वह अपने समय की जगबीती बन जाती है. यह संस्मरण आकार में बड़ा है पर आप इसे शुरू करेंगे तो बीच में छोड़ नहीं पायेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है.

by arun dev
December 13, 2021
in संस्मरण
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3
अब्बू की नज़र में जेल

कोर्ट से जब हम वापस हाक हेडक्वार्टर पहुंचे तो मैं काफ़ी हल्का और आत्म विश्वास से भरा महसूस कर रहा था. निश्चय ही यह ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ नारे का प्रभाव था. अमिता थोड़ा पहले पहुंच चुकी थी. जब मैं और अब्बू वहां पहुंचे तो वहां एक महिला कांस्टेबिल के चिल्लाने और रोने की आवाज़  आ रही थी. जब मैं पूछताछ वाले कमरे में पहुंचा तो बगल के कमरे से अमिता की भी तेज़-तेज़ आवाज़ सुनाई दे रही थी. तभी मेरे कमरे में अमिता को साथ ले जाने वाली महिला कांस्टेबिल ने रोते हुए गुस्से से पैर पटकते हुए प्रवेश किया. उसके पीछे एटीएस का एक अधिकारी भी आया. महिला के कुर्सी पर धंसते ही उस अधिकारी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला- ‘चलो छोड़ो, ये साले खुद ही अपनी मौत मरेंगे.’ मैंने तेज़  आवाज़  में कहा- ‘गाली किसे दे रहे हैं.’

उसने मुझे नज़रअंदाज कर दिया और फिर उस महिला कांस्टेबिल से ही मुखातिब होते हुए कहा- ‘साले ऐसे ही होते हैं.’ इस बार मैं गुस्से में बोला- ‘आपको गाली देने का अधिकार नहीं है.’ यह सुनकर वह महिला कांस्टेबिल चिल्ला पड़ी- ‘आप लोगों को गाली देने का अधिकार है?’ मैं आवाक रह गया. लेकिन बेहद शान्त होकर पूछा- ‘किसने गाली दी, आखिर हुआ क्या है?’ महिला ने तेज़ और उंची आवाज़ में कहा- ‘आपकी पत्नी ने मुझे गाली दी है.’ मैंने आश्चर्य से कहा- ‘क्या कहा उसने?’ ‘हरामी कहा उसने मुझे’- महिला कांस्टेबिल चीख कर बोली. मैंने तुरन्त मामला शान्त करने के उद्देश्य से कहा- ‘चलिए उसकी तरफ़  से मैं माफ़ी  मांगता हूं. लेकिन हुआ क्या?’ वह महिला कांस्टेबिल गुस्से में उठी और पैर पटकते हुए बाहर चल दी. इस पूरे माहौल से अब्बू थोड़ा सकते में आ गया था और मुझसे सट कर बैठा रहा. उसके जाने के बाद अब्बू ने मुझसे कान में कहा- ‘मौसा मुझे पता है क्या हुआ था.’ अब्बू ने फिर धीमे-धीमे बताना शुरू किया- ‘मौसा, वो पुलिस लड़की न, मौसी का बायां हाथ खींच कर कैमरा वाले से दूर ले जा रही थी. मौसी को बांए हाथ में दर्द है ना, तो मौसी ने उसे कसकर डांट दिया.’ फिर थोड़ा रुक  कर बोला- ‘अच्छा किया डांटा.’

खैर उसके बाद एटीएस के ही एक बन्दे ने मुझे बताया कि वह महिला डिप्रेशन में है. ऐसे ही कुछ कुछ समय पर भड़क उठती है. मैंने पूछा, पहले से है या नौकरी में आने के बाद हुआ. उसने कहा, नौकरी में आने के बाद डेवलप हुआ है. शायद नौकरी के प्रेशर का असर हो. मैं उससे बात कर ही रहा था कि पुनः वह महिला तेजी से कमरे में दाखिल हुई और उसी तरह चिल्लाकर बोली- ‘दूसरो की पत्नियों को गले लगाने का रिवाज आपके यहां होगा, हमारे यहां नहीं.’ यह कहकर वह उल्टे पाव वापस चल दी. मैं आवाक रह गया कि यह क्या बात हुई. किस सन्दर्भ में उसने यह बात की. दिमाग पर बहुत ज़ोर  डालने पर मुझे बात समझ आयी. दरअसल कोर्ट में अब्बू की मां जब रो रही थी तो मैंने उसे सांत्वना देते हुए हल्के से गले लगा लिया था और उसके सर पर अपना हाथ रख दिया था. मुझे याद आया, उस समय यही महिला कांस्टेबिल बड़े ध्यान से मेरी तरफ़ देख रही थी. मुझे पूरा मामला समझ आ गया. लेकिन मुझे उस महिला कांस्टेबिल पर ज़रा भी गुस्सा नहीं आया. बल्कि तरस आया. दरअसल असल क़ैद में तो वो थी- ‘अपने पिछड़े मूल्यों की क़ैद में.’

खैर, कोर्ट से एटीएस को हमारा ‘ट्रांजिट रिमांड’ मिल चुका था और अब हमें भोपाल से लखनऊ आना था. गाड़ियों में जल्दी-जल्दी सामान पैक किया जा रहा था. ज़रूरी औपचारिकताएं निभाई जा रही थी. पहली बार हम इतनी लंबी यात्रा बिना कोई सामान लिए करने जा रहे थे- खाली हाथ. कार से इतने ‘लांग ड्राइव’ पर जाने का हल्का सुख भी महसूस हो रहा था और आगे होने वाली पूछताछ की चिंता भी सता रही थी. खैर 8 बजे रात हम लोग निकल पड़े. अब्बू उत्साहित था कि हम लखनऊ जा रहे है- यानी मौसा के गांव. भोपाल से अपने राजनीतिक काम पर निकलते हुए मैं अब्बू से यही कहता था कि मैं लखनऊ जा रहा हूं, अपने गांव.

रास्ते में ढाबे पर हमने खाना खाया. और फिर आगे निकल पड़े. इस दौरान कोई किसी से नहीं बोल रहा था. तभी आगे बैठे एटीएस अधिकारी ने बोला- ‘रात में हम झांसी में अपने कार्यालय पर रुकेंगे और फिर सुबह लखनऊ के लिए निकलेंगे.’ मैं कुछ नहीं बोला. मेरे पास विकल्प ही क्या था. खाना खाने के बाद अब सबको नींद आ रही थी. अब्बू तो मेरी गोद में ही सो गया था. अचानक आगे की सीट पर ड्राइवर के साथ बैठे अधिकारी ने आदेशात्मक स्वर में बोला- ‘किसी को सोना नहीं है. वरना ड्राइवर को भी नींद आयेंगी.’ थोड़ी देर रुक  कर फिर बोला-

‘चलिए मनीष जी अपने बारे में कुछ बताइये. अपने बचपन से शुरू कीजिए.’

मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही उसने सवाल दागना शुरू कर दिया. मसलन, जन्म कहां हुआ, पढ़ाई कहां से की आदि. मुझे समझ नहीं आया कि वह सचमुच मुझमें रुचि ले रहा है या पूछताछ की अपनी ड्यूटी निभा रहा है. बहरहाल मुझे मज़ा आ रहा था. बहुत बहुत दिनों बाद कोई मेरे बचपन के बारे में पूछ रहा था. मेरे अगल-बगल बैठे दो सिपाही और मेरी सीट के पीछे बैठे दो सिपाहियों की प्रतिक्रिया मैं रात के अंधेरे में नहीं देख पा रहा था. अचानक मेरे बगल में बैठे एटीएस के सिपाही ने मुझसे पूछा-

‘आपके कमरे में जो ‘शहतूत’ वाली कविता लगी थी वह आपने लिखी है?’ मैंने हंसते हुए कहा-‘अरे नहीं, वह तो ईरान के मजदूर कवि ‘साबिर हका’ की कविता है.’

एटीएस का यह व्यक्ति वही था जो मेरे कमरे की तलाशी के दौरान तलाशी लेने की बजाय दीवारों पर लगी कविताएं पढ़ रहा था. अचानक उसने सामने की सीट पर बैठे अपने सीनियर से कहा- ‘सर चलिए, कुछ कविताएं सुनते हैं मनीष जी से.’ उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हां-हां कुछ कविताएं, शेरो शायरी हो जाये. पीछे बैठे सिपाहियों ने एक साथ कहा. तब मुझे अहसास हुआ कि इन लोगों को मेरी कहानी में कोई रुचि नहीं थी. गाड़ी 80-90 की रफ्तार से दौड़ रही थी. मैंने कहा-

‘पहले आप लोग कुछ सुनाइये.’ बगल वाले व्यक्ति ने एक अच्छा शेर सुनाया, जिसका भाव यह था कि अगर आप बिखरे हुए कांच के टुकड़ों को उठाने का प्रयास करेंगे तो उंगलियां तो लहूलुहान होगी ही. अब मेरी बारी थी. मैंने लगातार कई शेर सुनाए. सभी मंत्रमुग्ध सुन रहे थे और दाद दे रहे थे. सामने की सीट पर बैठा अधिकारी कुछ नहीं बोल रहा था. शायद उसे यह ‘मुक्त माहौल’ पसन्द नहीं आ रहा था. आखिर मैं क़ैदी  जो था. लेकिन वह बोला कुछ नहीं. अंत में मैंने दो कविताओं के माध्यम से उनके सामने एक सवाल रख दिया. गोरख पाण्डेय की कविता-

‘चिड़िया जाल में क्यों फंसी, क्योंकि  वह भूखी थी.’ और

कंवल भारती की कविता-

‘चिड़िया जाल में क्यों फंसी, क्योंकि वह चिड़िया थी.’

गाड़ी में बैठे सभी लोगों में दो फाड़ हो गया. सभी के अपने-अपने तर्क थे. तभी मैंने देखा कि अब्बू उठकर बैठ चुका था और खिड़की से बाहर का मज़ा ले रहा था. हमारी बातें भी उसके कान में पड़ रही थी. अचानक वह मुड़ा और मेरा गला अपनी ओर खींचते हुए मेरे कान में बोला-

‘मौसा, चिड़िया को कोई बहेलिया जाल बिछाकर पकड़ेगा, तभी तो चिड़िया जाल में फंसेगी. बहेलिया चिड़िया को नहीं  पकड़ेगा तो चिड़िया मज़े  में उड़ती रहेगी, चाहे वो भूखी हो या ना हो.’

बहस में अब्बू का यह निर्णायक हस्तक्षेप था. मैंने आश्चर्य से उसे देखा और उसका माथा चूम लिया. इस खूबसूरत हस्तक्षेप के बाद वह कुछ समय बाहर का नज़ारा लेकर पुनः मेरी गोद में सो गया. तभी सामने की सीट पर बैठा अधिकारी जो अब तक चुप था और ऐसा लग रहा था कि उसे यह ‘कवि गोष्ठी’ पसन्द नहीं आ रही थी, अचानक बोल उठा-

‘एक नक्सली जाल में क्यों फंसा, क्योंकि  वह सुरक्षा के प्रति लापरवाह था.’ और

‘एक नक्सली जाल में क्यों फंसा, क्योंकि वह नक्सली था.’

इस खेल में अधिकारी के कूदते ही सब खुश हो गये. खैर, इस पर भी सब दो भागों में बंट गये और मुझे थोड़ा अन्दाज़ा लगाने में आसानी हुई कि ये मुझ तक कैसे पहुंचे. तभी पीछे बैठे एक सिपाही ने मुझसे पूछा कि आखिर आप लोग चाहते क्या हैं. अब तक मैं बोल-बोल के थक चुका था, लिहाजा मैंने फैज़ का एक मशहूर शेर पढ़ दिया- ‘सुतूनेदार पे रखते चलो सरों के चिराग, जहां तलक सितम की सियह रात चले.’ शेर का अर्थ शायद उसकी समझ में नहीं आया, लेकिन उसने दूसरा प्रश्न दाग दिया- ‘चलिए, मान लिया कि आपको आपका मकसद मिल जाये तो उसके बाद आप क्या करेंगे.’

मैंने उसी रौ में एक और शेर पढ़ दिया- ‘ज़िन्दगी एक मुसलसल सफ़र है, जो मंज़िल पे पहुंचा तो मंज़िल बढ़ा ली.’

शेरो शायरी के बीच हमारी मंज़िल यानी झांसी आ गया. इसी बीच सामने बैठे अधिकारी के पास किसी का फ़ोन  आया. वह ‘जी सर, जी सर’ कहता रहा. फिर पीछे मुड़ कर बोला- ‘मनीष जी सारी, आज रात आपको 2-4 घण्टे थाने के लॉकअप में गुज़ारने होंगे.’ उनकी आपस की बातचीत से मैंने अंदाज़ा लगाया कि ऊपर से आदेश था कि मुझे लॉकअप में ही रखा जाय.

ज़िन्दगी में पहली बार मैं लॉकअप में था. छोटा अंधेरा कमरा, पेशाब की बदबू से भरा. लॉकअप के कोने में पेशाब घर, पेशाब से लबालब. नरक की कल्पना करने वाला ज़रूर इस लॉकअप में रहा होगा. खैर अब्बू अभी भी नींद में मेरी गोद में ही था. मुझे लगा कि कही अब्बू जाग ना जाय और इस नरक से उसका साबका ना पड़ जाय. खैर वह सोया रहा और मुझे भी नींद आ गयी. सुबह-सुबह अचानक मेरी नींद खुली. मेरे कानों में लगातार आवाज़ आ रही थी- ‘अरे बाप रे, अरे माई रे.’ थानेदार अपनी बेल्ट से 16-17 साल के तीन बच्चों को बेरहमी से पीट रहा था. सामने दीवार घड़ी 5 बजा रही थी. पिटते तीनों बच्चों के उपर गांधी, अंबेडकर की फोटो लगी थी. सामने की दीवार पर बड़ा-बड़ा ‘सत्यमेव जयते’ खुदा हुआ था. यह दृश्य देख मुझे महेन्द्र मिन्हवी का एक शेर याद आ गया-

सत्यमेव जयते का नारा खुदा हुआ यूं थाने में
जैसे कोई इत्र की शीशी रखी हुई पैखाने में.

इसी शोरगुल में अब्बू की नींद भी खुल गयी. उसने आश्चर्य से  चारों  तरफ़ देखा और मुझसे लिपट गया. मेरे कान में धीमे से बोला- ‘हम कहां हैं.’ मैंने कहा- ‘ड्राइवर थक गया था, इसलिए हम यहां आराम कर रहे हैं. तब तक पेशाब की बदबू अब्बू की नाक में जा चुकी थी. अब्बू मुंह बना कर बोला- ‘कितनी बुरी जगह है ये. यहां कौन रहता है.’ मैंने बेहद धीमे से यूहीं कह दिया- ‘चोर रहते हैं.’ उसने फौरन सवाल किया-‘लेकिन, लेकिन हम तो चोर नहीं हैं.’ मैंने कहा, हां हम तो सिर्फ़  रुकने के लिए आये हैं. फिर अब्बू ने सहमी सी नज़र लॉकअप में बैठे 3 अन्य लड़कों पर डाली जिन्हें रात में ही यहां लाया गया था.

अब्बू ने बेहद धीमे से मेरे कान में कहा- ‘क्या ये चोर हैं.’ उनमें से एक लड़के ने अब्बू की बात सुन ली और प्यार से कहा- ‘हम चोर नहीं है.’ फिर उसने गुस्से में आगे जोड़ा- ‘चोर तो पुलिस है. उसने हमारे पैसे मोबाइल सब चुरा लिये.’ फिर मेरी तरफ़ दुःख से देखते हुए बोला- ‘हमें तो घर से पकड़ कर लायी है. देखते हैं क्या केस डालती है. अभी तक तो कुछ बताया नहीं.’ फिर उन्होंने अब्बू को खाने के लिए बिस्किट दिये, जो अब्बू ने थोड़ा झिझकते हुए ले लिया. बिस्किट खाते हुए अब्बू ने मेरे कान में धीमे से कहा- ‘मौसा ये चोर नहीं हैं.’ मैंने भी खेल खेलने के अंदाज में उसके कान में कहा- ‘तुझे कैसे मालूम.’ अब्बू ने भी तुरन्त शरारती अंदाज में कहा- ‘मुझे मालूम है, क्योंकि बच्चे हमेशा सच बोलते हैं.’ यह सुनकर मैं मुसकुरा दिया.

इसके बाद हमें लॉकअप से निकाला गया. हम नित्यकर्म से निवृत्त होकर पुनः लॉकअप में आ गये. तभी एटीएस की हमारी टीम भी नहा धोकर, नये कपड़े पहनकर और इत्र लगाकर हमें लेने वापस आ गयी. आते ही एटीएस अधिकारी ने मुझसे पूछा- ‘रात कैसी कटी.’ मैं समझ नहीं पाया कि यह सामान्य सवाल था या व्यंग्य था. मैंने कोई जवाब नहीं दिया. उसने आगे कहा- ‘मच्छरों ने ज़रूर परेशान किया होगा.’ रात की शेरो-शायरी का हैंग ओवर अभी मेरे ऊपर था. लिहाजा एक शेर में ही मैंने उसे जवाब दिया-

‘धूप की शिद्दत कभी महसूस ना करता
ये कौन मगर पेड़ के साये में खड़ा है.’

उस अधिकारी समेत पूरी टीम मुसकुरा दी और हम अगली यात्रा पर निकल पड़े.

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Comments 14

  1. रमेश अनुपम says:
    3 years ago

    पूरा पढ़ गया। इस तरह के गद्य विचलित करते हैं। बहुत कुछ द्रवित भी। मनीष आजाद को पढ़ते हुए देश के भीतर जो कुछ भी हो रहा है जिसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है उसे देखकर तकलीफ ही हो सकती है। हम जिस दौर में जी रहे हैं वह बेहद क्रूर और भयावह है। इस तरह के गद्य की उम्मीद केवल ’समालोचन’ से ही की जा सकती है।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    3 years ago

    मनीष आनन्द की डायरी पढ़कर मज़ा आ गया । मेरी दृष्टि में यह सबसे आनन्ददायक पोस्ट है । मनीष, अब्बू और अमिता का संसार सुहावना है । समाज को बदलने का जुनून है । अकसर मेरे मन में यही सवाल रह-रह कर उठता है कि मैं गिलहरी की तरह अपनी आहुति डाल सकूँ । फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि क्रांति या परिवर्तन अहिंसक हो । हम अपने वांग्मयों से वे व्यक्ति ढूँढें जिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपना बहुत कुछ होम कर दिया हो । मनीष जी आज़ाद ने अरुण कमल की पंक्ति ‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है’ को उद्धृत किया है । इस पंक्ति में अहिंसा (जिसका सकारात्मक अर्थ प्रेम है; विश्व व्यापी प्रेम) प्रकट हो रहा है । आज़ाद साहब की कुछ पंक्तियों को मैंने काग़ज़ पर लिख लिया था । मसलन ‘History of Three International’ किताब ख़त्म करनी थी’ । क्योंकि कल एक ज़रूरी अनुवाद से भिड़ना है । एक शायर का कलाम याद आ गया ।
    ठनी रहती है मेरी सिरफिरी पागल हवाओं से
    मैं फिर भी रेत के टीले पे अपना घर बनाता हूँ

    अपने शरीर की मुश्किलात से गुज़रते हुए भी समाज के सुख के लिए कुछ करना चाहता हूँ । मनीष जी लिखते हैं मनपसंद मिलन
    की ‘क़ैद’ और पढ़ चुकने की ‘रिहाई’ दोनों का अहसास सुखद होता है । ‘अब्बू की ताक़त है मौसा, मौसा की ताक़त है अब्बू, इन दोनों की ताक़त है मौसी, हम सब की ताक़त है खाना’ । फिर मनीष जी आज़ाद लिखते हैं-दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था’
    मनीष और अमिता के घर में मार्क्स, ब्रेख़्त, भगत सिंह आदि के Quotation के पोस्टर मुझे भी हौसला देते हैं । मैंने पहले भी लिखा था कि मुझ में भी कुछ कुछ Communism है ।
    पुलिस मनीष को क़ैद करने आयी । बदलाव करने वाले व्यक्ति पुलिस का बेवजह शिकार बनते हैं ।
    अब्बू के मन में नाज़ीवाद के लिए नफ़रत है और उसकी यादें हैं । सुखकर है । हिटलर फिर से न पैदा हों । समाज जागरुक करने की कोशिशें जारी रहें ।
    प्रोफ़ेसर अरुण देव जी यदि मनीष आज़ाद ने इस डायरी का विस्तृत वर्णन किसी किताब की शक्ल में किया हो तो मैं ख़रीदना चाहता हूँ ।

    Reply
  3. हिमांशु बी जोशी says:
    3 years ago

    बहुत गज़ब का लेखन। विवरण ही नहीं उन्हें दर्ज़ करने का तरीका भी निहायत ही भीगा हुआ सा है। उच्चस्तरीय।

    Reply
  4. दयाशंकर शरण says:
    3 years ago

    बेहद मर्मस्पर्शी संस्मरण ! क्रांति के सपने देखते-बुनते लोगबाग जो सत्ता से टकराने के बाद किस तरह अनेक शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलते हैं और जेल की सलाखों के पीछे जो अमानवीय बदसलूकी एवं नरक जैसी यंत्रणा भोगते हैं-इन सबका यहाँ बड़ा हीं मार्मिक वर्णन है। अब्बू के साथ उसके एक काल्पनिक साहचर्य में जीते हुए गहरी संवेदना से भरी यह आपबीती सचमुच जगबीती बन गयी है। समालोचन एवं मनीष जी को बधाई !

    Reply
  5. अशोक अग्रवाल says:
    3 years ago

    मनीष आजाद ने अपनी आप-बीती इतने सरल, मार्मिक और ह‌दय को छूने वाले शब्दों से लिखी है कि कला तो उसमें अपने आप अंकुरित हो आयी है। अविस्मरणीय पाठ। ऐसी ही रचनाओं से साहित्य समृद्ध होता है। समालोचन ऐसी सामग्री पढ़वाता है इसके लिए उसका आभार।

    Reply
  6. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    एक अनुभव के यथार्थ को इस तरह लिखा जाए कि वह एक कृति भी बन जाए: यह उदाहरण है। मनीष का गद्य जीवंत, दृष्टिसंपन्न और मार्मिक तो है ही, प्रतिवाद और यातना को भी प्रभावी ढंग से दर्ज करता है।
    अरुण देव को इसे प्रकाशित करने के लिए बधाई।

    Reply
  7. राकेश says:
    3 years ago

    बेहद जीवंत,मार्मिक।बच्चे के माध्यम से यथार्थ,इतिहास और फंतासी का अद्भुत समन्वय। जेल में बिताए दिन याद आये।

    Reply
  8. प्रभात+मिलिंद says:
    3 years ago

    गद्य का एक साथ प्रासंगिक, विचारोत्तेजक और रोचक होना एक दुर्लभ संयोग है। मनीष आज़ाद के इस गद्यांश को पढ़ते हुए इसी विरलता के दर्शन होते हैं। एक ऐसे नैराश्यपूर्ण समय में जबकि साहित्य भी कई बार सत्ता की भाषा बोलने लगी है, या अपनी पुनरावृत्ति में वह प्रायः एक विदूषक की भूमिका में दिखती है, प्रतिवाद का साहित्य हमें नई आशाओं से भर देता है। पूरे संस्मरण में अब्बू की उपस्थिति किसी सुखद प्रतीकात्मकता की तरह है।

    इस संस्मरणात्मक गद्य को पढ़कर अनायास मुझे पिछले दिनों इतालवी सिद्धांतकार एंटोनियो ग्राम्स्की के प्रिज़न नोटबुक्स के पढ़े गए कुछ अंश याद आ गए। यद्यपि कंटेंट की दृष्टि से वे बिल्कुल भिन्न हैं और मूलतः राजनीतिक सिद्धांतों पर केंद्रित हैं किन्तु यह बात तो सामने आती ही है कि देह के बंदी बनाए जाने के बाद भी विचारों को बंदी नहीं बनाया जा सकता।

    पिछले दिनों साहित्य के इतर भी इतिहास, संस्कृति, कला, सिनेमा, विचार और संगीत पर विविध तरह की सामग्रियाँ प्रकाशित कर समालोचन ने इसके उत्तरदायित्व और इसकी रोचकता दोनों को जिस तरह से संतुलित रखा है, वह श्लाघनीय है।

    Reply
  9. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    मनीष आज़ाद की जेल में लिखी कहानी पढ़ते हुए लगा जैसे मैं लेखन की क्लास में बैठा हूं। और सोचता हूं लेखन के लिए इतनी अच्छी और मुफीद जगह सभी को नहीं मिलती। इसका आशय यही हुआ कि यातना के क्षण हमें जुर्म के खिलाफ लिखने को प्रेरित करते हैं। मनुष्य का मौलिक स्वभाव है मनुष्यता के विरुद्ध होनेवाली कार्रवाई को स्थगित करना।
    मनीष आज़ाद की इस खूबसूरत शुरुआत के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  10. पूनम वासम says:
    3 years ago

    पढ़ रही हूं, शब्द, शब्द अनुभव कर पा रही हूँ, मन में बहुत देर तक ठहरने वाला है यह गद्य, बहुत शुक्रिया 🙏

    Reply
  11. Anonymous says:
    3 years ago

    एक एक शब्द रुककर संभलकर पढ़ना पड़ा। भावनाओं का एक कैप्सूल

    Reply
  12. जीतेश्वरी says:
    3 years ago

    मनीष आजाद द्वारा लिखी गई बेहद जरूरी और महत्वपूर्ण डायरी को हम सब के बीच प्रस्तुत करने लिए ‘ समालोचन ‘ को बहुत शुक्रिया।

    ‘ मेरी जेल डायरी ‘ में जेल की सुबह, शाम और रात जो चार दिवारी में कैद हो जाती है, उसकी इतनी गहराई से मनीष जी ने वर्णन किया है जो हमारी कल्पना में संभव ही नहीं है। पर इसे मनीष जी ने सच कर दिखाया है। एक-एक, छोटी – छोटी बारीक से बारीक चीजों का जिस तरह से चित्रण किया गया है वह बेहद आश्चर्यजनक है। मनीष जी कि गंभीर दृष्टि और समझ ने उनके प्रति मेरे मन में सम्मान की एक नई भावना गढ़ ली है।

    मैं जब पढ़ने बैठी तो पता नहीं चला कि कब अंत की निर्णायक शुरुआत में पहुंच गई। अब्बू का मासूम चेहरा और उसकी बातें दिलों, दिमाग में छाने लगी।

    ‘ मेरी जेल डायरी ‘ पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो कोई फिल्म चल रही हो और उस फिल्म को बीच में एक क्षण के लिए भी छोड़ना मेरे लिए मुश्किल हो गया। भाषा ऐसी जैसे कोई शांत नदी चुपचाप अपनी कहानी किसी नाविक को सुनाते हुए बह रही हो और
    नाविक उस नदी में इस तरह खो जाता है जैसे अब उसने फैसला कर लिया हो कि मुझे किनारे नहीं पहुंचना सिर्फ बहना है नदी के साथ दूर तक।

    मेरी जेल डायरी बहुत मार्मिक होने के साथ – साथ जीवन की अनेक कहानियों को एक साथ प्रस्तुत करने वाली सुंदर डायरी है। इसके लिए बहुत बधाई और बहुत शुक्रिया मनीष जी और समालोचन को।

    Reply
  13. Anonymous says:
    3 years ago

    वेहद सहज , सम्प्रेषणीय और मार्मिक गद्य

    Reply
  14. Devpriya Awasthi says:
    2 years ago

    बेहद संजीदा जेल डायरी.
    मौजूदा दौर ऐसी ढेरों डायरियां सामने लाने के लिए मुफीद है.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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