जनगढ़ उसके बारे में अखिलेश |
जनगढ़ सिंह श्याम एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न संगीतकार था जिसने अपने गीतों में वर्णित देवी देवताओं को पहले मिटटी में फिर रंग से क़ागज पर उकेरना शुरू किया और स्वामीनाथन के सानिध्य में दुनिया के पहले कला के घर ‘भारत भवन’ में रहते हुए जिस बुलन्दी को छुआ वो दुलर्भ और अप्राप्य रही अनेक कलाकारों के लिए. जनगढ़ जापान में बन रहे मिथिला संग्रहालय के लिए जब दोबारा गया तो लौटा नहीं. वहाँ उसके द्वारा की गई आत्महत्या कि पहेली उसके सिवा कोई नहीं सुलझा सकता. वो एक ऐसा रहस्य है उसके चित्रों की ही तरह जिसे वो ही समझ सकता है, उसकी आत्महत्या कि ख़बर फैक्स से आयी और कुछ ही दिनों में अख़बारों के लिए मसाला बन गयी. तरह-तरह के झूठ और बनाई हुई ख़बरों से अख़बार अपना गैर जिम्मेदाराना चरित्र उजागर कर रहे थे. भारत भवन से मुझे नियुक्त किया गया सुबह शाम इन अख़बारों के प्रतिनिधियों को ताज़ा जानकारी उपलब्ध करने के लिए. ग्यारह दिनों में जनगढ़ का शव भोपाल आ चुका था और उसका अंतिम संस्कार किया गया जब तक पत्रकारों का एक ही जीवन्त प्रश्न होता था. उसने आत्महत्या क्यों की. जनगढ़ कुछ लिख कर छोड़ नहीं गया था और उस पर कुछ भी कहना मूर्खता ही होती अत: मैं उन्हें एक किस्सा सुनाता था ज्यां बोद्रिल्ला की पुस्तक seduction से. किस्सा संक्षेप में कुछ इस तरह है :
बगदाद शहर के बाज़ार में राजा का प्रिय सैनिक खरीदारी के दौरान देखता है कि दूसरी तरफ मौत खड़ी उसे देख रही है. दोनों की नज़रें मिलती हैं और मौत उसे देख मुस्काती है. सैनिक घबरा जाता है. दौड़कर राजा के पास जाकर बोलता है मुझे आपके घुडसाल का सबसे तेज चलने वाला घोड़ा चाहिए. राजा का प्रिय सैनिक है इसलिए राजा उसे घोड़ा देता है और पूछता है क्यों ? सैनिक बाज़ार की घटना बतलाता है और रातों रात चलकर सुरक्षित समरकंद पहुँचकर अपने को बचा सकता है. इस तरह मौत से पीछा छुड़ा सकता है. उसके चले जाने के बाद राजा मौत को दरबार में बुलाकर फटकारता है कि तुम मेरे राज्य में लोगों को डरा रही हो तुमने मेरे प्रिय सैनिक को बाज़ार में देखा और मुसकुराई, ऐसा तुम क्यों कर रही हो ? मौत ने कहा मैं किसी को डरा धमका नहीं रही और मुझे आपके राज्य में लोग खुश ही नज़र आये. हाँ मैं सैनिक को देखकर इसलिए मुस्कराई कि यह यहाँ क्या कर रहा है मैं तो इसे कल सुबह समरकंद में मिल रही हूँ ?
पत्रकारों का दूसरा सवाल भी वही होता तब मैं उन्हें नीलगिरी की पौराणिक कहानी सुनाता था. (यह कहानी लेख में है) ये दोनों कहानियां हमें सिर्फ अपनी सीमित सोच का विस्तार करती दीखती हैं. मुझे नहीं पता और शायद किसी को भी पता न होगा कि उसने ऐसा क्यों किया. मैं उस दिन से जापान के इस संग्रहालय जाकर देखना चाहता था कि आखिर वो कौनसी जगह है जहाँ ये सब हुआ. मेरी मुलाकात औरोगीता से भारत भवन में हुई और उसने बताया कि वह जनगढ़ के ऊपर काम कर रही है. उसी से बातचीत के दौरान यह तय हुआ कि हम दोनों निगाता इस संग्रहालय देखने जायेंगे. और वो मौका शीघ्र ही आया.
ये जगह बिलकुल ही सुनसान जगह है और यहाँ शायद ही कोई बाहरी व्यक्ति आता जाता होगा. जितने दिन हम लोग यहाँ रहे अकेले ही थे. छोटा सा एक तालाब है जिसके किनारे संग्रहालय के करता धर्ता और सब कुछ सेन हासेगावा अपनी पत्नी और एक बेटे के साथ रहते हैं. पास ही दो तीन और छोटे छोटे मकान हैं जिसमें से एक बन्द है जनगढ़ इसी में रहता था और अब ये स्टोर कि तरह बरता जा रहा है. दो अन्य आस पास ही हैं जहाँ अन्य कलाकार, जिन्हें सेन हासेगावा आमंत्रित करते हैं, ठहरते हैं. जनगढ़ के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो बकवास उन दिनों लगातार अख़बारों में छपती रही.
इस लेख के साथ यदि कभी कोई मौका मिले तो जनगढ़ की मृत्यु के बाद मैंने एक लेख “परधान की मौतें” महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय कि पत्रिका के संपादक श्री पीयूष दईया के आग्रह पर लिखा था जो बहुवचन के नौवें अंक में छपा है पाठक गण उसे भी पढ़े तो शायद अंदाजा हो सकता है जिस माहौल से जनगढ़ गुजर रहा था. उसमें मैंने इस बात की तरफ़ इशारा किया है कि किस तरह जनगढ़ आत्महत्या करने के पहले कई बार मर चुका था.
उन दिनों अख़बारों में उसके बारे में बहुत लिखा गया. ज़्यादातर लापरवाह और बेध्यानी से, भरपूर ग़ैरजिम्मेदारी से. ज़्यादातर बिना सरोकार, बिना स्नेह, बिना जाने, सिर्फ़ बहती गंगा में हाथ धोकर प्रसिद्ध होने की लालच में. लिखे गये का ज़्यादा हिस्सा झूठ से भरा है. लिखे गये हर पाठ में हर विद्वान ने तथ्य जाने बगैर उसके बारे में मनगढ़न्त कहानी लिखी. कुछ अपना स्वार्थ साधते लिखे तो कुछ उसकी प्रसिद्धि के छींटों से भीगे खुद को उस जगह देखते हुए. यह सब एक बात स्पष्ट कर देता है कि अधिकतर लिखने वाले ग़ैरजिम्मेदार थे और अपने माध्यम के प्रति उदासीन और अज्ञानी हैं. उसके बारे में जितना छपा है, उसे पढ़कर अब और ज़्यादा लिखने को उत्सुक ऐसे कई लोगों की भीड़ चली ही आ रही है, जो अपनी जिज्ञासा में अनेक छपे झूठ को सच मानकर बहस करने लगी है. परिणाम में एक बड़ा झूठ तो प्रचलन में आ ही गया है, जिसे ‘गौण्ड कला’ के नाम से निस्संकोच बापरा जा रहा है.
उसके बारे में छपा कि वह किसी ‘जेल में बन्द है और उसे वहाँ से आने नहीं दिया जा रहा है’ ऐसा एक ख़त उसने बिहार के एक कलाकार को लिखा है. उसका कोई ख़त बिहार के किसी कलाकार के पास नहीं आया. ‘उसे जबरदस्ती बंद कर उससे अनेक चित्र बनवाये जा रहे हैं.’ ‘उसे बिना उसकी इच्छा के जापान ले जाया गया है.’ यह सब या इस तरह की अनेक बातें झूठ सिर्फ़ इसलिये साबित हो जाती हैं कि वह बच्चा नहीं था, जिसे अपना अच्छा या बुरा न समझता हो. वह दुनिया घूमा हुआ था और उसके इर्दगिर्द कई लोग थे, जो ये जानते थे कि उसकी मर्जी के बगैर उसके साथ कुछ नहीं हो सकता था. वह स्वतंत्र था और अपनी शख्सियत का मालिक था. वह जिद्दी था और दूसरी तरफ गहरा संवेदनशील. उसमें आत्मसम्मान था और वह अपनी खोती जा रही पहचान के प्रति सजग था. एक घटना बतलाता हूँ.
“वह पेरिस से लौटा था. पेरिस में एक प्रदर्शनी हुई थी जिसमें दुनिया के सौ जादूगरों को आमंत्रित किया गया था, जो अपनी उँगलियों से अचम्भा पैदा करते हैं. पेरिस में ठण्ड रही होगी और उससे बचने के लिए उसने महँगी और नये फ़ैशन की एक जैकेट खरीदी होगी. उसके लौटने पर मैंने घर में एक दावत रखी थी जिसमें स्वामी जी और कुछ साथी कलाकार भी शामिल थे. दिसम्बर के ठण्ड के दिन थे, हम लोग घर के आँगन में आग जलाकर उसके चारों और बैठे थे. रात गहरा गई थी और आग की ताप और रसरंजन की वजह से बातचीत के विषय भी आग की लपटों की तरह इधर-उधर लहरा रहे थे. इसी बीच स्वामीनाथन ने चुटकी ली, ‘अब तो तुम भी शहरी हो गये हो, ये जैकेट…..’. उनका वाक्य अधूरा रह गया. वह झटके से खड़ा हो गया और आनन-फानन में उसने अपनी जैकेट उतारी और आग में झोंक दी. जैकेट आधुनिक सिन्थेटिक कपड़े की बनी थी, तुरन्त ही आग पकड़ जलने लगी. वह वापस निश्चिन्त बैठ गया और पहले की तरह बात करने लगा मानो कुछ हुआ ही नहीं. इस घटना से साफ होता है कि एक स्वतंत्र, आत्माभिमानी कलाकार को हाँका नहीं जा सकता.”
रूपंकर में आदिवासी और आधुनिक कला को पास-पास रख स्वामीनाथन एक बड़ा काम कर रहे थे. हमारे गुलाम मस्तिष्क में यह भेद बहुत ही साफ और गहरे धँसा है कि आदिवासी, जो जंगल में रहता है वह अजूबे की बात है. इस ‘आदिवासी’ को मानव समाज से बाहर रखकर अध्ययन का विषय मानकर, मानों वह मनुष्य नहीं कोई और प्रजाति का जीव है, अनेकों ने ग्रन्थ लिख अपनी विद्ववता का झण्डा गाड़ा. इनमें से अक्सर सभी ने ‘विषय’ से एक दूरी बनाये रखी. राजनेताओं ने भी इन्हें आज तक छब्बीस जनवरी पर निकलने वाले परेड में ‘विचित्र नाच नाचने वालों’ से ज़्यादा कुछ नहीं समझा. इस झाँकी को आदिवासी रस से भरने की शुरूआत हमारे पहले प्रधानमंत्री ने की और बाकी बचे प्रधानमंत्रियों का आदर्श चूँकि पहला वाला ही रहा, इसलिए आज तक छब्बीस जनवरी की परेड के लिए इन आदिवासियों को शिद्दत से याद किया जाता है. इससे ज़्यादा इनके बारे में भारतीय समाज कुछ नहीं जानता. स्वामीनाथन एक बड़ा जोखिम ले रहे थे कि वे कला में मौजूद भेद को समाप्त कर ‘मनुष्य द्वारा’ की जाने वाली कला की महत्ता को केन्द्र में लाने की पहल कर रहे थे.
इसी पहल में उन्होंने कई प्रदर्शनियाँ भी आयोजित कीं. मुझे अच्छे से याद है, जब स्वामीनाथन ने इसकी एक प्रदर्शनी दिल्ली की दीर्घा में आयोजित की तो सिर्फ़ तीन शहरी कलाकार प्रदर्शनी देखने आये, शेश ने स्वामी को झिड़का ही कि ये क्या तमाशा कर रहे हो, ये कोई कला है? उन्हीं में से कई ने बाद में इस पर लेख लिखे कि कैसे उन्होंने इसकी प्रतिभा को पहली नज़र में ही पहचान लिया था और उन्होंने जो कुछ भी उसके लिए किया, सिर्फ़ इसी कारण से वह अन्तरराष्ट्रीय कलाकार हो गया. यह कहकर उन्होंने अपनी पीठ खुद ही एक बार और थपथपा ली.
प्रसिद्ध नृतत्त्वशास्त्री श्री हीरालाल शुक्ल ने एक बार कहा, ‘इतने सालों में जो काम कोई सरकार नहीं कर पायी, जो काम कोई और संस्था नहीं कर सकी, वो अकेले स्वामीनाथन ने कर दिखाया. आदिवासी इलाकों में स्वामीनाथन को भगवान की तरह मानते हैं.’ यह बात सच भी है कि स्वामी जी की उस छोटी-सी शुरूआत के कारण आज मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में रहने वाले लगभग चार लाख आदिवासी जीविकोपार्जन के लिए अपने हुनर पर आश्रित हैं. उनके भीतर आत्मविश्वास और एक सम्बल जागा है. अब हफ्तों दस रुपये की दिहाड़ी की मजदूरी का इन्तज़ार नहीं करना पड़ता है. अब वे अपनी इच्छा और मर्जी से काम करते और कमाते हैं. यह कोई आसान काम नहीं था.
मैंने तो चार लाख अपने अन्दाज़ में ही लिखा है. संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है. बयासी में शुरू किये गये इस यज्ञ की आँच से तप कर आज अनेक मुल्कों में इस दिशा में काम हो रहा है और अब इसे ‘आदिवासी कला’ कहने में भी एक तरह का नृतत्त्वशास्त्रीय फन्दा ही नज़र आता है, तो इसे और ज़्यादा मुक्त करने के लिए Vernacular कला भी कहा जा रहा है. मैं तो चाहूँगा कि इसे इस सम्बोधन से भी मुक्त किया जाना चाहिए और सिर्फ़ कला की तरह ही बरतना चाहिए, तब इस यज्ञ की आहूति पूर्ण होगी. इन अन्तरराष्ट्रीय बहसों को बीच ले आने में ‘उसका’ भी हाथ है. वह भले ही अब इन सब बातचीत और बहस से बाहर चला गया है, किन्तु उसी के कारण ‘आदिवासी कला’ पर भारतीय समाज में ध्यान दिया जाने लगा. हालाँकि इसके पहले भी कई कलाकार मौजूद थे और वे बहुत अच्छे कलाकार होने के साथ नामचीन भी थे, किन्तु उनकी समझ का दायरा अपनी कला के साथ जुड़ा था. सीमित था.
(दो)
उसके बारे में यह कहना बिल्कुल ही गलत होगा कि वह अनपढ़ था. ये बात ज़रूर है कि वह उस Macaulay Education System में नहीं पढ़ा था, जो हम भारतीयों को अपने बारे में अज्ञानी और संस्कृति विहीन बनाता है. किन्तु वह लिखता था और हिन्दी में लिखे उसके अन्तिम ख़त में हिज्जों की गलतियाँ शहर में पढ़े-लिखे कई लोगों से कम हैं. यह ख़त जो उसके दाह-संस्कार के बाद मिला, जिसे उसने अपनी आत्महत्या के तीन दिन पहले लिखा था. उस ख़त में, जो उसने अपनी पत्नी ननकुसिया श्याम को लिखा था, कई बार वह चिन्ता करता है बच्चों की, घर की और परिजनों की. वह अपने आने के बारे में दो बार लिखता है. वह कहता है कि इक्कीस या उन्तीस जुलाई को लौट रहा है. वह यह भी कह रहा है कि ‘अम्मा’ और ‘ठाकुर साहब’ से मिलकर मेरे बारे में विचार करने को कहना और जानना कि मेरे साथ क्या होगा? एक जगह यह भी लिखता है कि, ‘‘पता नहीं अब आप लोगों से मिल सकूँगा या नहीं ऐसा लगने लगा है.’’ यह वाक्य ख़त के आखिरी हिस्से में लिख रहा है. इसके बाद वह यह भी लिख रहा है कि मंगत से कहना अगले रविवार को फ़ोन करूँगा. ख़त में कई बार ज़िक्र है मेरे बारे में विचार करवाना. चिन्ता है बच्चों की. परिजनों की. ज़िक्र है वीज़ा बढ़वाने का. नब्बे दिनों का टूरिस्ट वीज़ा. आने की तारीख का ज़िक्र भी है. यहाँ दो बातें साफ हैं कि वीज़ा खत्म होने पर वीज़ा बढ़ाया गया है और आने की तारीख बढ़ाई गयी है, जो उसी माह के दस दिन बाद वाली तारीख है. यानी वह अगले दस दिन और रुकेगा.
दो हज़ार एक में जब उसकी मृत्यु का फ़ैक्स आया था, तभी से मेरे मन में ‘कभी इस जगह जाऊँगा’ का विचार बैठ गया था. चैदह बरस बाद यह मौका मिला और मैं मिथिला संग्रहालय, निगाता गया. मिस्टर हासेगावा, जो एक दिलचस्प, दिलकश, दिलदार और ज़िन्दगी को भरपूर जीने वाले शख्स हैं, इस संग्रहालय के निदेशक, मालिक, रचयिता, संरक्षक आदि सभी कुछ हैं. उनके साथ बिताये गये सात दिनों में एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि कुछ बनावटी है, कुछ संदेहास्पद है. जापान में संग्रहालय, वो भी भारतीय लोक आदिवासी कला का संग्रहालय, यह सब एक दीवानगी लग सकती है, जो कि वास्तव में वही है. इस दीवानगी की शुरूआत सत्तर के दशक से होती है. मिस्टर हासेगावा, टोक्यो में रहने वाले सम्भ्रान्त परिवार के सदस्य हैं जो समुराई, एक तरह के विषेश तलवारबाज़ योद्धा की सोलहवीं पीढ़ी से हैं.
चैबीस वर्ष की उमर में उन्होंने अपने पिता से कहा कि वे पहाड़ों में जाकर रहेंगे और वे टोक्यो छोड़कर इधर चले आए. कुछ वर्ष इन सुनसान पहाड़ी इलाकों में भटकते रहने के बाद जब वे कुछ काम से टोक्यो गये थे, वहाँ किसी हिप्पी को, जो हिन्दुस्तान से लौटा था, मिथिला, मधुवनी के कुछ चित्र बेचते हुए देखा. उनकी जिज्ञासा उन्हें वहाँ खींच ले गई और उन्होंने उससे चित्र लेकर देखना शुरू किये. उसमें एक चित्र पर उनकी नज़र अटक गयी. यह चित्र था- ‘गंगादेवी’ का. चित्र की कलात्मकता पर रीझे, कल्पना में उलझे, मिस्टर हासेगावा कुछ ही महीनों बाद मिथिला में गंगादेवी से मिल रहे थे और इस बार उन्होंने कुछ ज़्यादा चित्र खरीदे. बयासी में मिथिला संग्रहालय की इच्छाशक्ति और अपने खर्च से शुरूआत कर डाली. उसके बाद लगातार गंगादेवी, जमुनादेवी, बोवादेवी ही नहीं, अनेक लोक आदिवासी कलाकारों को वे आमंत्रित करने लगे और आज इस संग्रहालय में गंगादेवी, नीलमणी देवी, जिव्या सोमा म्हाशे, जनगढ़ सिंह श्याम आदि अनेक कलाकारों की कलाकृतियों का विशाल और महत्त्वपूर्ण संग्रह यहाँ है. इतने बरसों में उनका लक्ष्य सिर्फ़ उत्तमता ही रहा. संख्या से कभी मिस्टर हासेगावा प्रभावित नहीं हुए. इन चार भारतीय कलाकारों की कलाकृतियाँ का श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण संग्रह भारत में नहीं, जापान में है, जो सिर्फ़ एक आदमी की दीवानगी से पैदा हुआ है.
निगाता, टोकामाची शहर से कुछ दूर पहाड़ियों में बसा इतना छोटा गाँव है कि उसमें सिर्फ़ एक ही परिवार रहता है. यह परिवार ज़ाहिर है मिस्टर हासेगावा का है जिसमें उनकी पत्नी, लड़का और लड़की के अलावा दो कुत्ते भी शामिल हैं. ठण्ड के मौसम में यह जगह दुनिया से लगभग पाँच महीनों के लिए कट जाती है. यहाँ चार मीटर तक बर्फ़बारी होती है जिसकी सफाई की जिम्मेदारी मिस्टर हासेगावा की ही है. वहीं सामने एक छोटा-सा तालाब है जिसमें आसपास लोग मछलियाँ मारने आते हैं. ये लोग मछली बामुश्किल पकड़ते हैं और जो पकड़ते उसे वापस तालाब में छोड़ देते हैं. सामने की पहाड़ियाँ पेड़ों से भरी हैं. पीछे उतराई है, जो धीरे-धीरे उस सड़क तक चली जाती है, जो इसी गाँव को आती है. दो कव्वे स्थाई रूप से मछलियों के लिए काँव-काँव करते उड़ते रहते हैं. एक बिल्ली है, जो यहाँ-वहाँ भटकती रहती है. मिस्टर हासेगावा का घर तालाब किनारे है और उनके चार घर और यहीं आसपास हैं. ये सभी घर संग्रहालय में आने वाले कलाकारों के लिए आश्रय स्थल हैं. इन्हीं में से एक में जो मिस्टर हासेगावा के घर की दाईं ओर है, वह रहा था; जहाँ उसने न जाने क्यों अपनी इहलीला समाप्त की?
सर्पीली सड़क इस गाँव तक आती है, जिस पर पेड़ों से गिरे पत्तों का भूरा रंग बिछा हुआ है. तालाब किनारे ही एक मन्दिर है, जो देखभाल और मरम्मत के लिए इन दिनों बन्द है. मोड़ पर जहाँ से मिथिला संग्रहालय दिखना शुरू होता है ‘पहाड़ की चट्टानों के बीच अलाव में एक देवता की प्रतिष्ठा की गई है, जो यात्रियों को सुरक्षित रखने का काम करता है.’ आसपास के इलाकों में ढेरों गर्म पानी के गंधक भर सोते हैं जिन्हें वहाँ के स्थानीय लोगों ने स्नानघर में तब्दील कर लिया है और सभी जगह लोग नंग-धड़ंग स्नान करने आते हैं. आसपास की पहाड़ियों पर ज़्यादातर चीड़ के वृक्ष हैं और पास ही एक झरना है जिसका धातुज पानी स्वास्थ्यकारी है. इस पूरे इलाके में प्रकृति मेहरबान है. चारों तरफ़ पहाड़ियाँ, ऊपर खुला आसमान, साफ़ हवा और उसमें वानस्पतिक गंध. यह सब मिलकर आपको प्रेरित करती हैं इस खुले जंगल में विचरने को, जहाँ चीड़ के ऊँचे वृक्षों की फुनगी पर छोटी-छोटी चिड़िया चहचहाती बैठी हैं और बीच-बीच में एक-दूसरे का पीछा करतीं उड़ती हैं. उनकी तीखी आवाज़ आपका ध्यान खींचती है. चक्करदार सड़क पहाड़ों पर ऊपर-नीचे आती-जाती दीखती है, जिसके किनारों पर पेड़ों के झड़े पत्ते जमा हैं. इन्हीं सड़कों पर वह भी भटका होगा और गाया होगा कभी कोई गीत.
उसके बारे में जो अख़बारों में छप रहा था, वह सनसनीखेज़ पीली पत्रकारिता का अकाट्य उदाहरण है. हर बात कुछ ऐसी छापी जा रही थी, मानों संवाददाता वहीं खड़ा होकर देख, लिख रहा हो. हमारे ग़ैरजिम्मेदार कलाकारों का एक बड़ा समुदाय इस पीली पत्रकारिता की गर्म खबरों का मज़ा ले रहा था और आज तक उसी को सही समझता हुआ अपना शेष जीवन शेष कर रहा है. इस तरह की ख़बरों और बकवास का सामना मुझे रोज़ करना होता था. उन दिनों शासन ने मुझे इस विषय को बरतने का निर्देश दिया था जिससे भारत भवन से ही पत्रकारों को वास्तविक घटनाक्रम का विश्वस्त ब्यौरा मिल सके. जो हम लोगों में से किसी के पास नहीं था. रोज़ सुबह-शाम पत्रकार नियमित रूप से आते थे और उनके पास दिल्ली में छप रही इन ऊलजलूल खबरों का ढेर होता था, जिसमें एकप्रश्न रोज़ पूछा जाता था कि उसने वहाँ जाकर आत्महत्या क्यों की? यह किसी को मालूम नहीं था और इस बारे में कोई कयास लगाना, किसी को जिम्मेदार ठहराना उसी पीली पत्रकारिता की ग़ैरजिम्मेदार बाढ़ में बह जाना था, मैं उन्हें एक कहानी सुनाता था-
“नीलगिरी के पहाड़ों में एक तोता रहता था. भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ उसका दोस्त था. जब भी गरुड़ को फुरसत होती वो अपने दोस्त से मिलने चला आता और वे घण्टों बातचीत करते कभी मिनटों. यह क्रम कई वर्षों से लगातार चला आ रहा था. एक बार तोते का ध्यान इस तरफ गया कि उसके बच्चे, उनके बच्चे और उनके बाद कई और बच्चे मर चुके हैं, किन्तु वह अभी तक ज़िन्दा हैं. वह भी किसी दिन मर जायेगा और उसकी यह दोस्ती खत्म हो जायेगी. इस बात से वह चिन्ता में डूब गया. उसने अपनी चिन्ता गरुड़ से व्यक्त की और कहा तुम तो उनके वाहन ही हो, क्यों न उनसे कहकर मुझे अमर करवा देते हो, सो हमारी दोस्ती भी बरकरार रहेगी. गरुड़ को भी बात समझ आ गई.
वह भगवान विष्णु के पास पहुँचा और अपनी व्यथा कह डाली. विष्णु ने कहा, मैं पालनहार हूँ, किसी को अमर नहीं करता, किन्तु चलो भगवान शिव के पास चलते हैं, वे अक्सर अमर होने का वरदान देते रहते हैं. भगवान शिव सुनकर बोले, देखो मैं उसी को वरदान देता हूँ जो मेरी कठिन तपस्या कर मुझे प्रसन्न करता हो. अतः हमें भगवान ब्रह्मा के पास जाना होगा. वे दोनों भगवान ब्रह्मा के पास पहुँचे और पूरा किस्सा बतला ही रहे थे कि तीनों ने देखा कि यमराज उस तोते को लिये जा रहा है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ही नाराज़ हुए और यमराज को कहा, ये क्या किया, हम इसी तोते को अमर करने की बात कर रहे थे और तुमने उसे मार दिया? यमराज ने कहा, क्षमा चाहता हूँ, किन्तु मैंने इस तोते की बहुत ही असम्भव मृत्यु लिखी थी. मैंने लिखा था कि जिस दिन ब्रह्म, विष्णु, महेश तेरे बारे में बात करेंगे उस दिन तू मरेगा. अब आप लोगों को कहाँ फुर्सत कि एक मामूली तोते के बारे में बात करते! बरसों बाद आज आप तीनों मिले और यह मौका आया.”
यह कहानी मृत्यु की अनिश्चितता की कहानी है. सब अपनी मृत्यु की ओर अनजाने ही जा रहे हैं. उसके लिए किसी तरह का कारण ढूँढ़ना मनुष्य की कमजोरी का ही प्रमाण है. मनुष्य मृत्यु की भयावहता, जो है नहीं, से भयभीत हो उससे अपना किसी तरह का अस्थाई सम्बन्ध बनाने के लिए उसका कारण ढूँढ़ता रहता है. जन्म की तरह मृत्यु भी अनिश्चित है. जन्म के अनिश्चित होने की तरफ ध्यान इसलिए नहीं जाता होगा कि कुछ हासिल हुआ है. मृत्यु में वह कुछ खोता है इसलिए वह अपने को सांत्वना देता है और यही उसकी कमजोरी है कि वह सांत्वना की तलाश में है. इस कहानी को सुन अनिश्चय से भरे पत्रकार हमेशा चुपचाप चले जाते थे.
(तीन)
मृत्यु के ग्यारहवें दिन उसका शरीर आ गया था, जिसे मिस्टर हासेगावा ने एक बड़ी राशि उधार लेकर अपने खर्चे से भेजा था. इसी के साथ उसके चित्र और उसका सामान भी लौटा जिसमें सबसे ज़्यादा संख्या में चित्र थे और उसके बाद जिस चीज़ की संख्या ज़्यादा थी, वह दवाइयाँ थीं. ग्यारह दवाइयाँ, जिसमें से नौ दवाई ‘विशाद’ (depression) की थीं. नौ में से पाँच ‘गहरे विशाद’ (Acute depression) की. मिस्टर हासेगावा को इसके बारे में कुछ पता नहीं था कि वह ‘गहरे विशाद’ का मरीज था और उन्हें यह भी आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर ने जनगढ़ को इसके बावजूद आने की अनुमति कैसे दी. इतने गम्भीर हालात में जनगढ़ उस जगह गया, जो दुनिया में एक ऐसा इलाका है, जहाँ आत्महत्या का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है. गाँव का एकान्त, रुकने की लम्बी अवधि, साथी कलाकार की अनुपलब्धता, गहरा विषाद और शहरी लोगों पर अकाट्य अविश्वास- यह सब उसके साथ थे. इन सबके साथ वह रच रहा था अपना अन्तिम चित्र.
भारत में शहरी लोगों का आदिवासियों के प्रति जो व्यवहार है, उसका एक उदाहरण यहाँ रखना बहुत ज़रूरी है. इससे साफ पता चलता है कि सिर्फ़ स्वामीनाथन ही थे जिनके साथ इन कलाकारों का सीधा संवाद सिर्फ़ इसलिए हो सका कि स्वामी जी ने वैसा भेद नहीं रखा. वे उनके साथ खाते-पीते थे. उनके घर चले जाया करते थे. उन झोपड़ियों में सो जाया करते थे. उनके बीच उन्हीं की तरह रहा करते थे. भोपाल में विधान भवन बनकर तैयार हो चुका था और उसके वास्तुशास्त्री ने तीन कलाकारों को काम करने के लिए चुना, जिनमें से दो शहरी कलाकार थे और तीसरा जनगढ़. चार्ल्स कोरिया ने, जो देश के जाने-माने, दुनिया भर में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री थे (भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे), दोनों शहरी कलाकारों को पूरी छूट दी कि वे जो चाहे कर सकते हैं. उन्हें इन कलाकारों पर विश्वास था, जिन्हें वे उतना ही जानते थे जितना जनगढ़ को, कि वे जो भी करेंगे, कमाल करेंगे. जनगढ़, एक आदिवासी, एक अनपढ़, एक गँवार, गाँव में रहने वाला क्या करेगा, इसलिए चार्ल्स कोरिया ने जनगढ़ के कैटलाग, पुस्तकों में छपे चित्रों को काट-काट कर एक निहायत ही भद्दा और बेढब कोलाज़ बनाया और जनगढ़ को भेज दिया कि इसकी नकल करो. मैं चूँकि विधान भवन की भीतरी साज-सज्जा के लिए जिम्मेदार था और अन्य कामकाज देख रहा था, उसी बीच जनगढ़ यह कोलाज़ लेकर आया. उसकी आँखों में आँसू भरे थे, भर्राये गले से बोला, ‘ये भेजा है और इसकी नकल करने को बोला है. क्या मैं नकल करूँगा? मैं यह नहीं करना चाहता हूँ.’ मैंने उसे कहा, मना कर दो तुम्हें यह काम नहीं करना है. उसकी दूसरी दिक्कत थी उसने इस काम के लिए अग्रिम धनराशि लेकर अपने घर में ठहरे भाँजों की फौज पर खर्च कर दी थी.
खैर! ये सब अलग बात हैं. महत्त्वपूर्ण यह है कि चार्ल्स कोरिया, जो स्वयं एक अच्छे कला संग्राहक और कला पारखी थे, जिन्होंने कई कलाकारों को प्रोत्साहन दिया और उनकी कलाकृतियों को अपनी रचनात्मकता में शामिल किया है. उसी चार्ल्स कोरिया ने अनजाने नहीं, ये जानते हुए कि जनगढ़ विश्वप्रसिद्ध कलाकार है, किन्तु सिर्फ़ इसलिए कि वो आदिवासी है अतः उसे काम करने की स्वतंत्रता नहीं दी. ये व्यवहार सामाजिक रूप से मान्य है. सभी लोग, बल्कि संवेदनशील कलाकार भी ये दूरी, ये अविश्वास ये अछूत व्यवहार बनाये रखते हैं. इन आदिवासी कलाकारों के मन में यह भेदभाव निश्चित ही अपनी जगह बनाता है और बरसों में इसने स्थायी जगह बना ली है.
इसका बड़ा उदाहरण ये है कि जब किसी आदिवासी से आप बात कर रहे हैं तो पहली बार में वो सुनता ही नहीं. सुनता है, किन्तु उसे दर्ज नहीं होने देता. दर्ज नहीं होता है तो वह समझता नहीं है. उसे अपने पीढ़ियों के अनुभव से यह पता है कि हर शहरी आदमी यदि उससे बात करने के लिए आया है तो उसे लूटने ही आया है. चार्ल्स को ये अन्दाज़ा भी नहीं था कि वो किस व्यक्ति से बात कर रहे हैं. इसीलिये चार्ल्स अपने रचने में वो सब नहीं कर पाये जबकि जनगढ़ की रचनात्मकता में अनेकों रास्ते खुलते हैं. जनगढ़ का सृजन इस तरह की छोटी-मोटी व्याधियों से परे कल्पना की उस ऊँची उड़ान का प्रमाण है, जहाँ अचम्भा पैदा होता है. जनगढ़ हर अर्थ में चार्ल्स कोरिया से ज़्यादा मौलिक, ज़्यादा रचनात्मक और कुछ अधिक ही योगदान देकर गया है. उसमें सिर्फ़ एक कमी थी, वो आदिवासी था.
यही आदिवासी जापान में अपना अन्तिम चित्र अधूरा छोड़ जीवन से मुक्त होता है. अपने घर से दूर, अपने परिजनों से दूर, अपने परिवेश से दूर एक अपरिचित देश में अन्जान संस्कृति में. जापान जनगढ़ तीसरी बार गया था. जाना नहीं चाहता था. उसने दो बार अपने जाने की तारीख बदली. तीसरी बार चला गया वापस न आने के लिए. जनगढ़ को भी शायद पता न था कि वो अपनी मृत्यु की ओर जा रहा है. किसी को भी आकस्मिकता का अन्दाज़ा नहीं था. वह वहाँ गया. रहा तीन महीने और खूब काम किया. अन्तिम दो काम किये, जो जनगढ़ के कामों की तरह नहीं हैं. मैं यहाँ जाना चाहता था और उसके अन्तिम चित्र को (मुखपृष्ठ पर छपा है) देखना चाहता था.
मिस्टर हासेगावा ने बहुत ही उदारतापूर्वक, अत्यन्त आत्मीय और निहायत ही जीवन्त शालीनता से आवभगत की. उनके लिए भी यह नया था. वे भी पिछले चैदह सालों से अख़बारों में छेड़े गये भर्त्सनीय और निन्दनीय अभियान से आहत इस विषय पर किसी से बात नहीं करते थे. उन्होंने जनगढ़ के चित्र सम्भाल कर, अच्छे से बाँधकर रख दिया था. वे तैयार हुए इस विषय पर बात करने के लिए और वो चित्र भी खोलकर दिखलाया. जनगढ़ का अन्तिम चित्र सामने था. बेहद सन्तुलित और सुविचारित, जनगढ़ जैसा करता था, उससे थोड़ा अलग था. इसमें मछलियाँ हैं और वे पानी में हैं. जनगढ़ ने पानी भी चित्रित किया. यह पहली बार किया. जनगढ़ के चित्र, जो अक्सर सफ़ेद पार्श्व में ही होते हैं, उससे अलग यह चित्र था. इसमें अवसाद का लक्षण ढूँढ़ना बेवकूफी ही होगी. जनगढ़ को भी खुद पता नहीं था कि वो क्या करने वाला है. तीन दिन पहले ही चिट्ठी में पत्नी को लिखा कि मेरे बारे में अम्मा से, ठाकुर साहेब से विचार करवाना. मैं इक्कीस तारीख को लौट रहा हूँ. चित्र तो जनगढ़ के चित्र की तरह ही है. सात मछलियाँ हैं. कुछ वनस्पति यहाँ-वहाँ धब्बे की तरह और हरे रंग का पानी, जिसमें वे तैर रही हैं.
(चार)
यह हरे रंग का पानी जनगढ़ की चित्रण शैली में बाहर से आया है. यह कुछ यथार्थवादी ढंग है विषय को चित्रित करने का. इसके पहले जो मछलियाँ चित्रित की हैं, उसमें पानी नहीं चित्रित किया कभी. विषय का चित्रण ही जनगढ़ की विशेषता रही. ये सात मछलियाँ जनगढ़ की चिर-परिचित ‘कलम’ में चित्रित की जा रही थीं. उनका अलंकरण भी चल रहा था. इस अधूरे चित्रमें भी पूरापन है. बस आँख में खटकती हैं मछलियों की आँखें जिन्हें चित्रित किया जाना बाकी था. काम तो बहुत-सा बाकी है और ‘जनगढ़ शायद एक हफ्ते और रुकता’ तो यह चित्र पूरा होता और आज जनगढ़ भी हमारे बीच होता. किन्तु ऐसा नहीं होना था. व्यथित, भरमाया और गहरे विशाद से ग्रस्त उस एकान्त में, उन पहाड़ों के बीच, उस अकेले गाँव में अकेला था और अकेलेपन में उसका मन विचलित और भ्रमित अनेकों कल्पनाओं से भर चुका होगा, जो उसकी प्रखर कल्पनाशक्ति से लगातार उत्तेजित और संचारित हो रहा होगा. फिर भी मैं कोई कारण नहीं बता सकता कि क्यों ऐसा किया?
उस दिन जनगढ़ दस बजे तक चित्रित कर रहा था, फिर खाना खाने अपने घर गया तो लौटा नहीं. मिस्टर हासेगावा ने शाम पाँच बजे के करीब किसी को भेजा कि देखो जनगढ़ अभी तक लौटा नहीं, उसे बुला लाओ. और जो बुलाने गया वो अब अकेला सोना भूल चुका है. उसे पहले तो कई हफ़्तों नींद नहीं आई. अब आती है तो किसी के साथ. इस अधूरे छूटे चित्र में ये मछलियाँ अंधी हैं. आँखें खाली हैं. यह संयोग है कि बस्तर की कुटुम्बसर नामक एक जगह, जहाँ पहाड़ों की चट्टानों के बीच बनी दरारों में से नीचे उतरना शुरू करते हैं तो करीब तीन सौ मीटर तक नीचे उतरते जाते हैं. नीचे जाकर बहुत बड़ी-बड़ी जगह है, खुली है और बीच दरारों की झिर्री से निकलता पानी का जमा छोटा-सा पोखर भी है.
जब पोखर बन ही गया है तो उसमें मछलियाँ भी हैं. यहाँ सूरज की रोशनी नहीं पहुँचती है, बल्कि कभी नहीं पहुँची है. यहाँ ये मछलियाँ अंधी हैं, इनकी आँखें नहीं हैं, जिसकी उन्हें ज़रूरत नहीं है, क्योंकि कोई रोशनी नहीं है. ये मछलियाँ बिना देखे मर जाती हैं, जबकि बाहर की मछलियाँ, जो सूरज की रोशनी में हैं, कभी सोती नहीं, उनकी आँखें बंद नहीं होतीं. जनगढ़ ने अन्तिम चित्र के पहले का चित्र भी मछलियों का ही बनाया और वे आँखों वाली मछलियाँ हैं और हाँ, जनगढ़ ने इन मछलियों के होठों पर लिपस्टिक भी लगाई है. सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक.
अपना आखिरी चित्र, जो वह पूरा किये बगैर चला गया, कई मायनों में पूरा ही है. सिर्फ़ अलंकरण बाकी है. मछलियों की आँखें और होंठ चित्रित करना बाकी है. पानी में तैरती वनस्पति बाकी है, शायद वे छोटे जीव भी हो सकते हैं. ये मछलियाँ मसवासी देव के जाल और शिकार से बाहर हैं. जनगढ़ पहली बार कुछ ऐसा चित्रित कर रहा है, जो उसके परधान समुदाय की स्मृति का अंश नहीं है. यह एक यथार्थवादी चित्रण है, जो परधानों की परम्परा में शहरी दरार है. न जाने क्यों जनगढ़ इस विषय पर पहुँचा. क्या जनगढ़ अपनी पारम्परिक सोच से बाहर इन मछलियों तक पहुँचा, जो लिपस्टिक लगाये हैं? जनगढ़ के पास विषय चुक गये थे? वह क्यों आकर्षित हुआ इस तरह के ग़ैर पारम्परिक विषय की ओर? क्या जनगढ़ अब अपना आदिवासी होना भूल रहा था या शहरी सभ्यता का आतंक उसके सर पर चढ़कर बोलने लगा था? घर में अनेक भान्जों को पालना उसकी सामुदायिक मजबूरी थी. वह इस बोझ को उठाने भोपाल नहीं आया था और न ही जापान. एक मजबूरी में वह इसका निर्वाह भी कर रहा था और अपने गहरे विशाद में गहराई भी. इससे बचने का एक रास्ता उसे नज़र आ रहा था और वो अक्सर अपनी पत्नी से कहता रहता था, ‘अब वापस गाँव चलें’. जहाँ वो वापस जा न सका.
उसके लिए चित्र बनाना और उसमें रहना ही जीवन था. जनगढ़ के लिये बीस लोगों का पालना, जो युवा और बेरोजगार हैं, मुश्किल काम था. वह अपने लिए नहीं गया था, वह इन लोगों के भोजन प्रबन्ध के लिए कुछ धन कमाने, जुटाने जापान गया था, वह अपने साथ बहुत से चित्र लेकर गया था जिसे मिस्टर हासेगावा खरीद लेते और उसे कुछ अतिरिक्त धन भी मिल जाता. वह जाना नहीं चाहता था. उसके पास छुट्टियाँ नहीं थीं. उसने भारत भवन में छुट्टी की अर्जी नहीं दी थी. वह बिना बताये जापान गया और बिना बताये इस दुनिया से गया.
वह अपने संसार में खुश था, जहाँ उसकी बीबी, तीन बच्चे और चित्र थे. वह ‘उसके संसार में’अवसाद में था, विशाद में था जहाँ बहुत से लोगों को पालना, नौकरी करना, छुट्टी लेना, यात्रा करना, ठगा जाना, अपमानित होना और अविश्वास से देखा जाना बहुतायत से था.
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जनगढ़…सच कहूँ तो यह नाम ही पहली बार सुना।महसूस होता रहा कि कितना कम जानती हूँ।धन्यवाद ,समालोचन !इन महान,संवेदनशील कलाकर से परिचय करवाने के लिये।
अखिलेश जी ने इस सुचिंतित आलेख के ज़रिए एक महान कलाकार की असमय विदाई के कारण देने का सद्प्रयास किया है,जिसे सोचते हुए उदासी-निराशा ने घेर लिया।
अंधी मछलियों के बारे में भी पहली बार सुना..
एक कलाकार सिर्फ़ इसलिए ही उपेक्षित किया जाता रहे..क्योंकि वह ”आदिवासी” है,तो कला की संवेदनशील दुनिया के लोगों के लिए यह अत्यंत गम्भीर विषय होना चाहिए…हम सबके लिए भी।काश!जनगढ़ जी जापान नहीं जाते..लेक़िन घरेलू जिम्मेदारियों ने जीवन दयनीय बना दिया..
विख्यात चित्रकार अखिलेश ने जिस संवेदनशीलता और दायित्व-बोध के साथ विरलतम आदिवासी चित्रकार जनगढ़ सिंह श्याम के व्यक्तित्व और कला की विलक्षणता को उद्घाटित किया है, पढ़कर अपनी अज्ञानता पर खेद स्वाभाविक है। उम्मीदों भरा यह कलाकार जापान के मिथिला संग्रहालय में आत्महत्या कर लेता है। लेखक ने आत्महत्या को सनसनीखेज न बनाकर कला-संसार की बेरहमी और पूर्वाग्रह को अत्यंत दुख और क्षोभ से रेखांकित किया है। जनगढ़ के अलावा अपना सबकुछ कला को होम करने वाले जे. स्वामीनाथन और निगाता, जापान में अवस्थित मिथिला संग्रहालय के कर्तधर्ता टोक्यो निवासी हासेगावा से परिचय कराने के लिए आभार।
मैथिल होने के कारण जापान में मिथिला संग्रहालय ने आकर्षित किया। मिथिला पेंटिंग के प्रति हासेगावा की दीवानगी रोमांचित कर गया। मिथिला पेंटिंग के मशहूर कलाकार गंगादेवी के चित्रों ने हासेगावा को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने किसी हिप्पी से उनका सारा पेंटिंग खरीदकर जापान में मिथिला संग्रहालय की नींव रखी। यह आलेख एक साथ भारतीय चित्रकला की बारीकियों से साक्षात्कार कराता है। बहुत बहुत बधाई।
जनगढ़ जैसे एक कलाकार और एक व्यक्ति को अखिलेश जी के माध्यम से जाना। आत्महत्या कोई तभी करता है जब जीने से कम तकलीफ मरने में हो। किसी व्यक्ति का संवेदनशील होना उसके जीवन के लिए चुनौती ही है।