नौलखा गद्य का अनूठापन
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“मेरा लिखने का कोई निश्चित समय नहीं है. बिना सोचे समझे कहानी शुरू कर देती हूं, मानो शून्य आसमान में सितारा चिपका रही हूं. पहले तो एकांत ही नहीं मिलता. अगर मिल भी गया तो बजाय लिखने के टीवी चैनलों के ऊट-पटांग उत्पात में समय नष्ट करती हूं. न लिखा जाए तो रसोई की ओर कूच कर जाती हूं और रसोई में कोई काम बिगड़ जाए तो पाँव पटकती कमरे में आ जाती हूं, जहां हरदम मेरे काग़ज़ फैले रहते हैं. कई बार दो चार काग़ज़ उड़कर गायब भी हो जाते हैं. लोग जीवन में अराजक होते हैं, मैं लेखन में अराजक हूं.”
(ममता कालिया, मेरी प्रिय कहानियां)
उपरोक्त कथन दिलचस्प है; यह तब और दिलचस्प हो जाता है जब हम आजकल देखते हैं कि बहुत सारे लेखक अपने लिखने को लेकर बड़े-बड़े दावे करते हुए पाए जाते हैं. वे अपने शब्दों को रहस्य, विचार, औदात्य, संजीदगी आदि से जन्मा बताते हैं और लगभग वैसी ही धज के साथ अपनी तस्वीरों की फेसबुक पर नुमाइश करते हैं.
ममता कालिया यहां अपनी लेखन प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए बहुत साधारण और रोजमर्रा की गतिविधि के रूप में उसकी चर्चा कर रही हैं. कह सकते हैं कि उसका थोड़ा मज़ाक़ सा बना रही हैं. लेकिन दरअसल वह रचना कर्म को लेकर परंपरागत, रूढ़िगत रूप से चली आ रही उसके दैवीय, असाधारण और आध्यात्मिक होने की अवधारणा का विखंडन कर रही हैं. पूरी बात को समझने में संभवतः यह कथन मदद करे जो उपरोक्त कथन के एकदम साथ, करीब-करीब बगल में ही दर्ज है–
“मैं अपनी हर कहानी में यह शपथ पत्र लगा सकती हूं कि यह मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस करते हुए लिखी. हर कहानी को अपने कलेजे की गरमी से सेंका और पकाया. कितना यथार्थ अपनी नसों पर झेला और कितना कुछ औरों को झेलते देखा. जिस वक्त लिखा उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी.”
पहली नजर में पाठक को एक विरोधाभास सा लग सकता है कि कहां एक तरफ अपने रचनाकर्म को लेकर हल्कीफुल्की बतकही और कहां ‘अपनी पूरी ऊर्जा लगा’ देने का कथन. इसी बिंदु पर ममता कालिया की रचनात्मकता का स्वभाव समझ में आने लगता है. दरअसल वह उन कथाकारों में हैं जिनके यहां मनुष्यता, साधारणता, रोजमर्रापन को सबसे आला दर्जा हासिल है. इसीलिये उनका लेखन महानताओं, देवत्व और हीरोशिप को जमीन पर उतारने के संघर्ष का प्राप्य है.
जब वह कह रही हैं कि ‘कितना यथार्थ अपनी नसों पर झेला और कितना कुछ औरों को झेलते हुए देखा’ तो जाहिर है उनके रचनाकार की मुख्य प्रतिज्ञा सत्य को उसकी जटिलता, संश्लिष्टता, हर बारीकी के साथ उद्घाटित करने में है लेकिन उसे प्रस्तुत करना है अत्यंत सहज, आमफहम तरीके से.
वस्तुतः उनकी रचनाएं महानताओं के समानांतर मामूली का बखान हैं. यह उनके कथा साहित्य के बारे में जितना सच है उतना ही उनके कथेतर गद्य के बारे में.
ममता कालिया ने जो लिखा है वह परिमाण और गुणात्मकता दोनों कसौटियों पर इतना उल्लेखनीय है कि उनको न केवल अपनी पीढ़ी बल्कि स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान हासिल हुआ. पीढ़ी से ध्यान आया कि हिंदी साहित्य में त्रयी बनाने का चलन दिखता है.
छायावाद में प्रसाद, पंत, निराला की त्रयी प्रसिद्ध है; नयी कहानी की मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर की त्रयी से कौन नहीं वाकिफ है.
इसी प्रकार बाद की पीढ़ी की कहानी ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह की त्रयी से मशहूर हुयी जिसमें काशीनाथ सिंह का भी जिक्र होता है किन्तु बाद में अधिक क्योंकि वह अलहदा ढंग के और उस भावभूमि से भिन्न लेखक थे जिसकी वजह से उस दौर की कहानी चर्चा में आयी थी.
बहरहाल यह दीगर चर्चा का विषय है; अभी जो त्रयी की बात हो रही थी उस प्रसंग में एक बड़ा अप्रिय तथ्य है कि उक्त हर त्रयी के दौर में एक स्त्री रचनाकार को परिसर से बाहर रहना पड़ा जो प्रतिभा और अवदान की दृष्टि से किसी मायने में कमतर न थी. छायावाद में महादेवी वर्मा हों या नयी कहानी आन्दोलन में मन्नू भंडारी हों अथवा साठ के दशक में ममता कालिया, तीनों में स्त्री होने और ‘म’ अक्षर से नाम शुरू होने के अलावा एक समानता यह रही कि उन्हें अपने समय में वह प्रतिनिधित्व न मिला जिसकी वे सही अर्थ में हकदार थीं.
हालाँकि बाद में तीनों हमारी भाषा की पांक्तेय रचनाकार के रूप में स्वीकार की गयीं बल्कि कुछ अर्थों में अधिक स्वीकृत और समादृत. क्या पूर्वोक्त अन्याय हिंदी आलोचना और शक्ति संरचना पर पुरुष वर्चस्ववाद का प्रतिफल है ?
(२) |
ममता जी से पहली बार मिला तो वास्तव में मैं उनसे मिलने नहीं गया था. ऐसा उनके घर पर प्रायः होता था कि कोई ममता जी से मुलाकात के लिए जाता तो रवींद्र कालिया जी से भी मिलना हो जाता और रवीन्द्र कालिया जी से मिलता तो ममता जी से भी बातचीत होने लगती. दोनों ही प्रसिद्ध लेखक थे, वक्तृता के धनी थे और दोनों ही आने वालों पर आत्मीयता लुटाने वाले.
बहरहाल मैं तब बीए का विद्यार्थी हुआ ही हुआ था और सुलतानपुर से अपने अध्यापक और ‘निष्कर्ष’ पत्रिका के संपादक गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव के साथ रवींद्र कालिया जी के पास आया था. प्रयोजन था पत्रिका को कालिया जी के प्रेस से छपाना. रवींद्र कालिया जी सामने थे और इस तरह मैं पहली बार किसी बड़े रचनाकार से मिल रहा था. उनकी कुछ कहानियां मैं उस मुलाकात के पहले पढ़ चुका था, अब उनके व्यक्तित्व का जादू अपनी गिरफ्त में ले रहा था. दूसरी बड़ी रचनाकार करीब एक घंटे बाद ऊपर से सीढ़ियां उतरकर आईं. यह ममता जी थीं. फर्क यह था कि कालिया जी गिरीश जी से दुआ सलाम के बाद लगातार मुझसे बातें करते रहे, ममता जी सामान्य परिचय के बाद अनवरत गिरीश जी से बातचीत करती रहीं. यह महज शुरू की स्थिति थी. बाद में तो वह घर मेरा अपना था और मुझ पर उन दोनों का स्नेह बरसता रहा. यहां तक कि तब के इलाहाबाद में कोई-कोई टिप्पणी करता, दो के अलावा कालिया दम्पति का एक तीसरा बेटा भी है, अखिलेश.
कालिया जी और ममता जी दोनों में गहरा प्यार था, यह कोई कहने की बात नहीं है, जानते ही हैं सब. कहते हैं, जब दाम्पत्य में प्यार अधिक होता है तो दोनों में समानताएं ज्यादा हो जाती हैं. मुझे तो उनकी लिपि भी मिलती जुलती लगती पर मैं यहां उनकी भिन्नताओं की चर्चा करना चाहता हूं. ममता जी तेज गति से लिखने वाली हैं, एक साथ एकाधिक रचनाओं पर काम कर लेने वाली रही हैं जबकि कालिया जी दीर्घसूत्री थे और एक वक्त में एक ही रचना पर काम करना पसंद करते थे और पर्याप्त समय लगाते. वह अपनी शैली में अति लेखन को दुर्गुण मानते थे. ममता जी अधिक लिखकर और कामयाब होकर उनके कथन को चुनौती देतीं.
कालिया जी लापरवाह लगते थे मगर अपनी रॉयल्टी, पारिश्रमिक, बैंक आदि को लेकर सजग थे; ममता जी अपनी प्रस्तुति में काफी व्यवस्थित हैं लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि अपने लिखे हुए पृष्ठों को प्रायः भूल जातीं कि कहाँ रख छोड़ा ? कभी-कभी वह उसे छोड़कर नयी कहानी प्रारंभ कर देतीं तभी पुरानी के पन्ने बरामद हो जाते; उसे लिखने बैठ जातीं. ममता जी को पारिश्रमिक स्वरूप पत्र पत्रिकाओं से अक्सर चेक मिलते जिनमें से कुछ वैलिडिटी बीत जाने के बाद किताबों के बीच, सोफे की गद्दी के नीचे, किचन में किसी डिब्बे के पीछे झांकते हुए बरामद होते.
कालिया जी की यारबाशी मशहूर थी मगर वह खाने पीने या अन्य मसले पर इसरार नहीं करते; साथ वाला अपनी जरूरत और इच्छा के अनुसार खाए पीये रहे जाए. वह खुद काफी कम खाते थे. एक डेढ़ रोटी से आगे नहीं, साथ में चावल बिल्कुल नहीं. अब अगर खाने वाले दो ही हुए जिसमें से आप संकोची ठहरे तो आप अपना संकोच त्यागें या अधभूखा रह जाने के लिए तैयार रहें. संक्षेप में कहें उनको प्यार जताना आता था पर उसे दिखाना नहीं आता था. मगर ममता जी ममता की मूरत. एक की भूख है तो चार खिलाये बिना मानेंगी नहीं. ये खाओ, वो खाओ, और लो न.
कालिया जी और ममता जी में एक अंतर यह भी था कि कालिया जी व्यावहारिक बनना चाहते थे, लोगों को अपने अनुकूल बनाना चाहते और इस प्रक्रिया में अधिकतर को अपने प्रतिकूल बना लेते. जबकि ममता जी को जब जैसा लगता वैसा व्यवहार करतीं; कई बार वह इतना तुर्श बोल देतीं कि सामने वाला निश्चित रूप से उनका विरोधी हो जाये किन्तु ऐसा घटित नहीं होता था. कालिया जी के मित्र बहुत थे मगर शत्रु उससे भी अधिक थे; ममता जी के पास मित्र ही मित्र और प्रशंसक भी. अजातशत्रु.
कालिया जी अक्सर ममता जी के पाठकों के बीच बेशुमार लोकप्रिय होने की चर्चा करते थे और अपनी विशिष्ट शैली में कहा करते थे कि बाजदफा उनको लोग ममता कालिया के पति के रूप में पहचानते हैं. इतनी शोहरत के बावजूद ममता जी की विशिष्टता हमेशा रही है कि वह अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में घर गृहस्थी में सुख पाने वाली और उसकी मुश्किलों से परेशान भी रहने वाली स्त्री रहीं. जब उनके बच्चे अनिरुद्ध और प्रबुद्ध छोटे थे तो मैं देखता था कि ममता जी कैसे उनको खाना खाने, दूध पीने के लिए मनाती रहती थीं. नौकरी करती थीं, लिखने के साथ वह पढ़ाकू भी कम नहीं.
शॉपिंग और सिनेमा से कालिया जी को विरक्ति थी अतः ममता जी को अधिकतर ये काम भी अपने हिसाब से करने होते. जब वह कॉलेज की नौकरी से घर लौटतीं, उनके दोनों हाथ थैलों से भरे रहते जिनमें घर के लिए जरूरी गैरजरूरी सामान भरे होते थे. एक बार तो उनके हाथ ऐसे फंसे थे कि उन थैलों के बीच कोई सांप चला आया था जो ममता जी की साड़ी के बीच आराम से बैठा हुआ था और हमारी ममता जी थीं कि उन्हें इसका अहसास काफी बाद में हुआ.
दूसरे अनेक मामलों में भी वह कालिया जी के उलट थीं. कालिया जी घर से निकलना ही नहीं चाहते थे जबकि ममता जी को सैर सपाटे का शौक था. कालिया जी भोजन के मामले में एक सब्जी एक चपाती के कायल थे; ममता जी को सजी हुयी थाली पसंद थी. वह एक सामान्य मनुष्य की तरह छोटी-छोटी चीजों में खुशियां पातीं और तलाशती थीं. उनकी कहानियों का संसार ऐसी ही खुशियों के तानेबाने से तैयार होता रहा है. हालांकि वहां वह इनको एक वृहत् संदर्भ प्रदान करती हैं; कई बार विमर्श का तेवर भी. इस मोड़ पर उनकी वे कहानियां इन छोटी-छोटी सी खुशियों को पाने में विफल रह जाने की त्रासदी की कथाओं में बदल जाती हैं.
उदाहरण के लिए उनकी काली साड़ी कहानी का संदर्भ लें. कहानी में मुख्य पात्र कल्पना एक दिन बाजार में शो केस में खूबसूरत काली शिफान साड़ी देखती है. उसकी अपनी जिंदगी में तमाम आर्थिक संघर्ष हैं, अतः वह इस कीमती साड़ी के अपने लिए उपयोगी न होने के पक्ष में तमाम तर्क गढ़ती है. लेकिन साड़ी इतनी सुन्दर कि दिमाग से उतर नहीं रही. अंततः वह तय करती है कि उसका रंग ताम्बई है तो यह काली साड़ी उस पर फबेगी नहीं किन्तु उसकी दोस्त उज्ज्वला पर खूब जँचेगी; आखिर वह बहुत गोरे रंग की जो ठहरी. इसके बाद कल्पना उस ख़ुशी में डूबने उतराने लगती है कि वह एक दोस्त को मंहगा तोहफा देने की दिलेरी दिखा रही है.
इस छोटी सी ख़ुशी को हासिल करने के लिए वह अपने पति के साथ मिलकर काफी आर्थिक जोड़ तोड़ करती है तब कहीं जाकर साड़ी खरीद पाती है. किन्तु आखिरकार वह उसी के इस्तेमाल के लिए रख ली जाती है. इस मोड़ पर कहानी में ऐसी विडम्बना पैदा होती है जो कारुणिक भी है और सुखांत भी.
ममता कालिया के कथा जगत में भी साठ के दशक के अपने साथी रचनाकारों की तरह आधुनिकता के प्रति एक विशेष आकर्षण है. इस आधुनिकता के परिसर में महानगर, एकल परिवार, कामकाजी स्वतंत्र स्त्री, प्रेम और प्रेमविवाह आदि प्रमुख मूल्य हैं. त्रासदियाँ तब जन्म लेती हैं जब उक्त मूल्यों के सम्मुख विचलन या विलोम उपस्थित होता है. बेघर उपन्यास में परमजीत संजीवनी के जीवन में आता है प्रेमी के रूप में लेकिन जब दोनों के बीच दैहिक संसर्ग होता है तो स्त्री के कौमार्य को लेकर चली आ रही रूढ़ धारणा के तहत परमजीत को लगता है कि उसकी प्रेमिका असूर्यपश्या नहीं है; उसका कौमार्य पहले ही भंग हो चुका है. वह संजीवनी के बजाय रमा को अपना जीवनसाथी चुनता है जो कुंआरी तो है ही साथ ही कथित ‘सुन्दर, सुशील और गृहकार्य में दक्ष गृहिणी’ है.
यह मोड़ एक तरफ संजीवनी को भावनात्मक आघात और रिक्ति पहुंचाता है तो दूसरी ओर परमजीत की जिन्दगी भी रमा के संग नष्ट होती रहती है. बेघर में भारतीय पुरुष की यौनशुचिता सम्बन्धी सामंती सोच पर चोट है और इस पसंद पर तंज भी है कि पुरुषों को प्रेमिका आधुनिक चाहिए किन्तु पत्नी पारंपरिक. आज दुनिया बदल रही है मगर ध्यान दें कि बेघर का रचनाकाल 1971 है यानी आज से आधी सदी पहले. तब निश्चय ही बेघर समाज के स्त्री पुरुष संबंध की स्वीकृत समझ का निर्मम विखंडन प्रस्तुत करने वाली कृति थी.
ममता जी की एक कहानी है ‘लगभग प्रेमिका’ जिसकी नायिका का पति दूसरे शहर में काम करने जाता है; नतीजतन नायिका अकेले लड़कियों के हॉस्टल में रह रही है. कहानी इसे वियोग के रूप में नहीं प्रस्तुत करती बल्कि नायिका को तो ‘फ़िलहाल यह अकेलापन और आत्मनिर्भरता अच्छी लग रही थी. बड़ी मुश्किल से ये नियामतें हासिल हुयी थीं.’ लेकिन दूसरी तरफ पति के जाने से जीवन में खालीपन भी था जिसे वह ‘एक छोटे से प्रेम प्रसंग से सार्थक और आकर्षक’ बनाना चाहती है मगर वह नहीं चाहती कि ‘कोई शोहदे किस्म का प्रेमी पल्ले पड़ जाए और’ उसका ‘पारिवारिक जीवन मुसीबत में पड़ जाए.’
वह ‘चाहती थी एक सीधा सादा, संक्षिप्त, सुरक्षित सा प्रेम प्रसंग.’ आप देख सकते हैं कि यहां पर ‘नयी कहानी’ आन्दोलन की तुलना में यथार्थ अधिक निष्कवच और सहज रूप में जगह ले रहा है. ममता कालिया की इस तरह की कहानियां अधिकतर महानगरों की पृष्ठभूमि में घटित होती है और तब ज्यादा विश्वसनीय लगती हैं.
आधुनिकता की वह जो परियोजना थी उसमें संयुक्त परिवार आधुनिक जीवन के रास्ते में बाधा की भांति था. वस्तुतः संयुक्त परिवार सामंती सामाजिक ढांचे की निर्मिति है जिसमें सबसे ज्यादा तबाही और सांसत स्त्री, विशेष रूप से बहू अथवा नयी स्त्री की होती है.
इस व्यथा कथा को ममता जी की कई कहानियां और उनका उपन्यास ‘दुक्खम सुक्खम’ अभिव्यक्ति देते हैं. ‘रायेवाली’ कहानी में कालिंदी ससुराल में ‘बर्तन रगड़ते-रगड़ते अपनी हथेलियों पर राख का धुंधलापन देखती और चुप रह जाती.’ बावजूद इसके जेठानी और सास के ताने सहती और पति की शारीरिक, भाषिक हिंसा भी. कहानी का समापन एक त्रासदी के रूप में ममता जी ने अद्भुत निपुणता से किया है. ससुराल में शादी पड़ी है जबकि मायके से कालिंदी की मां की मृत्यु की सूचना आती है. किन्तु उसे मायके नहीं जाने दिया जाता है. बल्कि दुखी होने के बावजूद उसको संगीत कार्यक्रम में ढोलक बजाना पड़ता है. मां की मृत्यु के शोक से भरी कालिंदी ने ढोलक बजाते-बजाते अंततः ‘वह चक्करदार लहरिया नाच नाचा कि सारी महफ़िल दंग रह गयी.’ वह ‘तब तक नाचती रही’ ‘जब तक नाचने वालों के बीचोबीच गिरकर चारों खाने चित्त न हो गयी.’
‘बोलने वाली औरत’ में सास ससुर, पति और बच्चों बीच शिखा के अपने व्यक्तित्व की कोई अहमियत नहीं. उसकी इच्छाएं, उसके विचार और उसके होने के कोई मायने नहीं. यहां तक कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार तथा अन्याय की जिम्मेदार वह स्वयं ही ठहराई जाती है. ‘दुक्खम सुक्खम’ की इंदु की यातना भी कमोबेश शिखा और कालिंदी जैसी ही है. ये सभी स्त्रियां संयुक्त परिवार में अपनी आजादी और अस्मिता को विलोपित करने के लिए अभिशप्त हैं. वैसे ऐसा भी नहीं कि इस नरक में प्रतिरोध की चेतना न हो.
एक लेखक की दुनिया में अन्याय का प्रतिरोध दो तरीके से होता है. एक रास्ता यह होता है कि वह अन्याय जो दुःख पैदा कर रहा है वह पाठक को इतना मथे कि उसके भीतर प्रतिरोध जन्म ले. दूसरा ढंग है इस तरह के चरित्रों की रचना जिनके कार्य व्यापार से प्रतिकार की स्थितियां तैयार हों. ममता जी के यहां यह दूसरा तरीका भी मिलता है.
‘बोलने वाली औरत’ की शिखा पिटने से सूजा चेहरा लिए सोचती है, ‘उसके फेफड़ों से, गले की नली से, अंतड़ियों से चिपके हुए ये शब्द बाहर आकर तीखे, नुकीले, कटीले, जहरीले असहमति के अग्रलेख बनकर छा जायेंगे घर भर पर.’ ‘बाथरूम’ कहानी की कांता भी संयुक्त परिवार के ढाँचे में दमन और गलत को होते देखकर चुप नहीं बैठती. इस मुद्दे की समझ की एक झलक ‘निर्मोही’ कहानी में दिखती है. दादी से पोती शिकायत करती है, “ये क्या दादी, तुम्हारी कहानी में औरत हमेशा हारती है. ऐसे थोड़ी होती है कहानी.”
दादी ने कहा, “अरे जे कहानी हम तुम नईं बना रहे, जे तो सुनी भई सच्ची कहानी है.”
कह सकते हैं कि ममता कालिया में स्त्री चेतना अपने सहज रूप में उपस्थित रहती है और वह तब से है जब आज की तरह वह बहुत लोकप्रिय नहीं थी. उल्लेखनीय यह है कि उनके यहां स्त्री का दमन और उसका प्रतिरोध यथार्थ और कला का अतिक्रमण करके नहीं अभिव्यक्त होते हैं; कह सकते हैं कि वे इल्मी नहीं नैसर्गिक हैं.
(3) |
ममता कालिया की कथा भूमि मुख्य रूप से परिवार है. ज्यादातर परिवार के बीच ही उनके किस्सों की चहल पहल रहती है. परिवार का स्वरूप एकल, संयुक्त दोनों में से कोई भी हो सकता है. कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जिनकी धुरी भले ही परिवार नहीं है किन्तु दाम्पत्य अथवा दाम्पत्य की आकांक्षा है. ममता जी तर्ज पर कहा जाए तो लगभग दाम्पत्य. वह प्रायः परिवार के स्वप्न और यथार्थ के तनाव से रचना तैयार करती हैं मगर उनके पास कुछ ऐसी कथा संरचनाएं हैं जो घटित परिवार के मध्य हुयी हैं लेकिन अपने निहितार्थ में वे ज्यादा बृहत आकाश घेरती हैं.
कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ ऐसी ही एक कहानी है जो आज से करीब तीन दशक पहले ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में प्रकाशित होकर चर्चित और प्रशंसित हुयी थी. कहानी में एक कलाप्रेमी सुसंस्कृत परिवार में दो बेटियां हैं, टुनिया और उसकी दीदी. इनमें संभावनाएं तथा योग्यताएं बड़ी बेटी में देखी जाती हैं. बड़ी बेटी सुन्दर है, गुणी है, स्कूल घर हर जगह उसकी कला प्रतिभा का स्वीकार है; उसके आभामंडल में छोटी बेटी टुनिया की कोई कद्र नहीं. इस दायरे में बुनी गयी यह कहानी आंतरिक और प्रच्छन्न सुन्दरता बखान प्रस्तुत करती है.
ममता कालिया ने छोटे-छोटे साधारण विवरणों को आपस में गूंथकर, जिसमें वह सिद्धहस्त कथाकार हैं, टुनिया के माध्यम से करुणा, विडम्बना और सच्चे सौन्दर्य का मार्मिक वृत्तांत रचा है इस कहानी में. उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘दौड़’ परिवार के अन्दर रचा जाकर अपने वक्त का एक राष्ट्रीय आख्यान बन जाता है. सन 1999 में प्रकाशित यह उपन्यास युवा वर्ग की करियर और सफलता की उस अंधाधुंध दौड़ का प्रत्याख्यान करता है जो मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों को रौंद रहा था. उस समूची प्रक्रिया में घर के भीतर संबंधों के बीच पनपने वाले तनाव, अकेलापन, विचारों का टकराव और भावनात्मक क्षरण को जिस तटस्थता, कौशल और जटिलता के साथ प्रस्तुत किया गया है वह विरल है. इस विषयवस्तु पर दौड़ को कम से कम हिन्दी का पहला उपन्यास माना जा सकता है.
इस प्रकरण में उनके उपन्यास ‘दुक्खम सुक्खम’ की चर्चा जरूरी है. उस उपन्यास का एक हिस्सा निश्चय ही संयुक्त परिवार के सामंती ढांचे में एक स्त्री के पीड़ित होने की कथा है लेकिन इस कृति में तीन पीढ़ियों के चरित्रों के बीच की अंत:क्रियाएं, अंतर्संघर्ष और अपनापे की कथा जब स्वतंत्रता आन्दोलन और लैंगिक असमानता के यथार्थ में प्रवेश करती है तो एक नयी ऊंचाई को छू लेती है. उपन्यास में एक पीढ़ी सेठ नत्थीमल और उनकी पत्नी विद्यावती की है, दूसरी पीढ़ी में उनका बेटा कविमोहन और उसकी पत्नी इंदु है. लीला और भागो हैं. तीसरी पीढ़ी विद्यावती की पोतियों प्रतिभा और मनीषा की है. इन किरदारों और इनके परस्पर संबंधों की पड़ताल के मार्फ़त ममता कालिया ने न केवल एक बीते हुए दौर को जीवंत किया है बल्कि यह भी बताया है कि कोई किरदार एकरैखिक नहीं होता है; उसको जानना है अथवा उसके युग को जानना है तो उसे महावृत्तांतों से बाहर निकालकर रचना होगा. उसको उसके व्यक्तित्वांतरण की गुंजाइश के मध्य प्रस्तुत करना होगा. विद्यावती की कथा यही साबित करती है.
सामाजिक यथार्थ के अंकन के सिलसिले में ममता कालिया घर परिवार से आगे भी कई बार निकलती हैं. उनका उपन्यास ‘कल्चर वल्चर’ साहित्य संस्कृति की दुनिया के अँधेरे तलघर की कारगुजारियों की कथा है. उक्त कारगुजारियों के विवरण, जो सांस्कृतिक ह्रास की दुखद तस्वीर हैं, हैरान करते हैं और सोचने के लिए बेचैन भी.
कई कहानियां भी हैं जो समाज की विकृतियों पर अपने को केंद्रित करती हैं. ‘जांच अभी जारी है’, ‘लड़के’ सरीखी कहानियों को इस प्रसंग में पढ़ा जा सकता है.
(4) |
ममता कालिया के कथा साहित्य में तीन तरह के लोकेल हैं. उनकी कई रचनाएँ महानगर के जीवन से विषयवस्तु चुनती हैं. ‘बेघर’, ‘कल्चर वल्चर’ उपन्यास हों या ‘छुटकारा’, ‘लगभग प्रेमिका’ जैसी कहानियां, बड़े शहर में घटित होती हैं.
‘दौड़’ उपन्यास और ‘लड़के’, ‘सुलेमान’, ‘वसंत सिर्फ एक तारीख’ जैसी कहानियां अपेक्षाकृत छोटे शहर को अपना ठिकाना बनाती हैं.
इन रचनाओं से गुजरो तो लगता है कि हमारी इस प्रिय कथाकार की दक्षता नागरी जीवन के चित्रण में है. जब उनसे मिलो तब भी यही लगता है, उनका व्यक्तित्व मुम्बई दिल्ली कोलकाता इलाहाबाद से बना है और उनकी अपनी कोई निश्चित स्थानीयता नहीं है. लेकिन ‘दुक्खम सुक्खम’ हमें बताता है, सिर्फ वही क्यों ‘रायेवाली’, ‘बाथरूम’ जैसी कहानियां भी सुराग देती हैं कि ममता जी की स्थानीयता ब्रज अंचल की है, खास तौर पर मथुरा के आसपास की. वह अपनी उपरोक्त रचनाओं में वहां की बोली बानी, खानपान, रिवाज, आस्थाओं और वातावरण को शिद्दत के साथ सजीव करती हैं. शायद हर लेखक की वास्तविक स्थानीयता उसके शुरुआती परिवेश से निर्मित होती है.
लेखक की स्थानीयता के निर्धारण में इस तथ्य से उतना फर्क नहीं पड़ता है कि वह कहां अधिक साल से रह रहा है, कौन सी नौकरी या कौन सा व्यवसाय कर रहा है, उसके बच्चों ने कहां जन्म लिया या किस स्थान पर रहते हुए कहां उसने आखिरी सांस ली. अगर सर्जक की स्थानीयता में कुछ निर्णायक तत्व है तो वह है उसके बचपन, कैशोर्य का स्थान.
लगता है जैसे आधुनिकता के दबावों ने ममता कालिया को अपनी स्थानीयता से थोड़ा दूर किया लेकिन जब एक मूल्य के रूप में आधुनिकता स्वयं समस्याग्रस्त होने लगी है और उसके लिए लोगों में साठ सत्तर के दौर वाला सम्मोहन नहीं बचा तो ममता कालिया ने पूरे उत्साह से अपनी बिछुड़ी हुयी ब्रज की पृथ्वी को याद किया, गले लगाया. नतीजा निकला ‘दुक्खम सुक्खम’ जैसे उपन्यास का सृजन.
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एक प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उभरता है कि ममता कालिया की स्त्री-दृष्टि का स्वरूप क्या है ? इस सवाल की प्रासंगिकता इसलिए अधिक हो जाती है क्योंकि ममता कालिया खुद एक स्त्री रचनाकार हैं. जिस समय उन्होंने लिखना प्रारंभ किया था, यानी साठ का दशक, तब हिन्दी साहित्य में एक सैद्धांतिकी और मूल्यांकन की कसौटी के रूप में स्त्री विमर्श प्रभावी न था. वैचारिकी के रूप में आधुनिकता एक वृहत् कसौटी थी, उसी के अपने-अपने वर्ग उपवर्ग थे. इसलिए ममता कालिया के शुरू के लेखन में एक आधुनिक स्त्री उपस्थित होती है जिसके पास अपने विचारों, चाहतों को प्रकट करने की हिम्मत और आजादी है. वह अपने प्रेम, कामेच्छाओं, अरुचियों को व्यक्त करती है. जाहिर है यह तत्कालीन भारतीय समाज में स्त्री के प्रति प्रचलित रवैये और सलूक को देखते हुए काफी अग्रगामी था.
एक खास बात यह थी कि इस तरह की रचनाओं में महानगर का परिवेश था, जहाँ एक कामकाजी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर स्त्री के लिए उपर्युक्त लक्ष्य असंभव न थे. अतः आधुनिक और अग्रगामी होने के साथ-साथ ये रचनाएँ यथार्थ को बरक़रार रखती हैं. लेकिन कस्बों और छोटे मझोले शहरों और उसमें बसने वाली स्त्रियों का जीवन जब ममता कालिया के लेखन में जगह पाता है तब वह प्रायः घुटता हुआ एक धुंआया संसार होता है. वहां प्रायः सहन करती स्त्री होती है, अपनी ख्वाहिशों को दफन करती हुई. कहना है कि ये मध्यवर्ग की स्त्रियाँ हैं जिनकी स्वायत्तता के हनन की दास्तान ममता कालिया अत्यंत प्रभावशाली तरीके से कहती हैं. निश्चय ही इनमें प्रतिरोध और मुक्ति की तेज आवाजें नहीं हैं किन्तु इनमें पसरा हुआ दुःख और यातना का संसार पाठक को इनकी मुक्ति के पक्ष में सक्रिय करता है. दरअसल ममता कालिया का स्त्रीवाद स्वतःस्फूर्त और आभ्यंतरिक है.
हां एक मुद्दा जरूर गौरतलब है; ममता कालिया की परिवार की चक्की में पिसती, तबाह होती हुयी कुछ नायिकाएं कई बार करीब-करीब विद्रोह के कगार पर पहुंच जाती हैं लेकिन वे परिवार के छोटे से सुख के सामने, पति के प्यार भरे किसी भावुक लम्हे के सम्मुख अपनी शिकायत को तज देती हैं; समर्पण कर देती हैं.
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2016 में अपने पति, प्रख्यात लेखक रवींद्र कालिया जी के निधन के बाद ममता जी टूट गयी थीं और अकेली पड़ गयी थीं. उनके दुःख में आंसू कम थे; अन्दर की तड़प और विकलता अधिक. हमेशा मुस्कराकर हंसकर मिलने वाली ममता जी खामोश रहने लगीं. किसी भी चीज में उनकी रुचि, ख़ुशी और उत्सुकता बहुत क्षीण हो गयी.
मैं लखनऊ से फोन पर उनसे बात करता तो उनकी आवाज़ में बड़ा सूनापन महसूस होता.
जल्द ही दिल्ली गया तो उनसे मिलने उनके घर पहुंचा. मैं जब उनके घर की कालबेल बजा रहा था तो मेरा दिल ज्यादा गति से धड़कने लगा; मुझे इसका का एहसास हो रहा था कि यह घर पहली बार कालिया जी के बगैर दिखेगा. किन्तु मुझे अधिक हतप्रभ होना था. ममता जी ने दरवाजा खोला. मुझे बैठने के लिए कहकर वह सामने बैठ गयीं. उनके बगल में सोफे पर कालिया जी की तस्वीर थी. इसी जगह प्रायः कालिया जी बैठकर अपनी महफ़िल जमाते थे. आज उनके स्थान पर उनकी तस्वीर थी; बाद के दिनों के बीमारी से कमजोर हो गए कालिया जी नहीं, चमकते हुए दीप्ति से भरे, तस्वीर में बोलते हुए से थे वह. मैं एकटक तस्वीर को देखने लगा. ममता जी की आवाज़ आई,
“यह पहले की फोटो है. रवि इसी रूप में, सुन्दर, जिंदादिल और खुशमिजाज रवि, मुझे पसंद रहे. वह खुद भी कभी अपने को कमजोर असहाय नहीं दिखने देना चाहते थे. यही सोचकर मैंने यह फोटो चुनी.”
मन में आया, पूछूं कि इसे दीवार पर या किसी स्टैंड पर क्यों नहीं लगाया ? लेकिन चुप रहा; लगा शायद इस तरह ममता जी को अनुभूति होती हो कि रवि उनके पास, एकदम बगल में हैं. वैसे ही जैसे पहले.
ममता जी बात करती जा रही थीं. बीच-बीच में, अपने स्वभाव और नाम के अनुरूप मेरे खाने पीने का ध्यान भी दे रहीं थीं. वह सहज दिखने का जतन कर रही थीं. मगर बार-बार बातचीत कालिया जी पर ही केंद्रित हो जाती.
मैंने विषयांतर के उद्देश्य से सवाल किया, “इधर कुछ लिखने का सोच रही हैं ?”
“कोशिश कई बार की लेकिन जैसे ही लिखना या कोई काम शुरू करती हूं रवि की सूरत और उनकी यादें सजीव होने लगती हैं. लिखना धरा रह जाता है.”
“तब आप कालिया जी पर ही लिखना शुरू करिए. उनके बारे में अपनी सारी यादों को लिख डालिए. तभी आप मुक्त हो पाएंगी और आगे कुछ कर सकेंगी.”
इस तरह ममता जी की प्रसिद्ध कथेतर कृति ‘रविकथा’ के लिखे जाने की बुनियाद पड़ी.
‘तद्भव’ में ‘रविकथा’ धारावाहिक रूप से छपने लगी. जैसे ही नया अंक आता, लोग सबसे पहले ‘रविकथा’ को पढ़ना शुरू कर देते और उसकी तारीफों के पुल बंधने शुरू हो जाते. यह ‘तद्भव’ के लिए ममता जी की रचनाशीलता को लेकर कोई इकलौती और नयी स्थिति नहीं थी. पहले भी ऐसा हुआ था और कालांतर में भी ऐसा होना था.
मुझे समरण हो रहा है. ‘तद्भव’ का पहला अंक छप गया था जो विशेषांक था और भारतीय साहित्य की मूर्धन्य विभूति श्रीलाल शुक्ल पर एकाग्र था. दूसरे अंक को सामान्य अंक होना था. योजना थी, प्रत्येक सामान्य अंक में एक लघु उपन्यास दिया जाए. ममता जी से इस प्रकरण में बात हुयी. उन्होंने बताया कि वह दो उपन्यासों पर काम कर रही हैं, तद्भव की दिलचस्पी जिसमें हो उसे वह पहले पूरा कर देंगी. इस प्रकार ‘दौड़’ उपन्यास मिला जो ‘तद्भव’ के दूसरे अंक में प्रकाशित हुआ था और अपनी उत्कृष्टता के कारण वह छपते ही हिन्दी के एक अविस्मरणीय उपन्यास के रूप में स्थापित हो गया था.
कुछ अंकों के बाद ‘तद्भव’ में उनके कथेतर गद्य की पहली कृति ‘कितने शहरों में कितनी बार’ का प्रकाशन शुरू हुआ. संभवतः वह पहली बार कथेतर गद्य की एक मुकम्मल पुस्तक की योजना के साथ लिख रही थीं; उसे पहले ‘तद्भव’ के कई अंकों में लगातार छपना था; बाद में पुस्तक रूप में पाठकों के बीच जाना था. ममता जी की तरह मुझको भी उत्सुकता थी कि हिंदी समाज किस ढंग से इसका स्वागत करेगा. अद्भुत था, पहली ही क़िस्त जैसे छपी तारीफ भरी प्रतिक्रियाओं की आमद शुरू हो गयी. याद है कि तब ‘तद्भव’ में पीछे के अंक के विषय में पत्र भी ‘मत’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित होते थे. कहना होगा कि ममता जी के ‘दौड़’ उपन्यास की तरह ही ‘कितने शहरों में कितनी बार’ पर आई प्रतिक्रियाओं से भी ‘मत’ स्तंभ जगमगाता रहता था.
खैर बात ‘रविकथा’ से शुरू हुयी थी. ‘रविकथा’ हर कृति की तरह एक दिन पूरी हो गयी. ममता जी से मैंने पुनः अनुरोध किया, “देखिये अभी रुकना नहीं है, आपको इलाहाबाद पर विस्तार से लिखना है. इतना कि एक किताब बन जाए.” ममता जी चुप. जैसे अपने भीतर उतर गयी हों; सोच रही हों. मुझे अंदाजा था, उनके मन में क्या चल रहा है ? क्योंकि मेरे मन में भी कुछ था तभी मैंने ममता जी से गुजारिश की थी. अपनी बात मैंने यूं रखी,
“आप जानती हैं, कालिया जी इलाहाबाद पर लिखने को लेकर काफी उत्साहित थे. उनकी उस दीर्घ योजना की पहली क़िस्त ‘तद्भव’ में छपी भी थी. वह आगे लिखते, इसके दो रोज पहले ही उनका निधन हो गया था. अब उस काम को आप करें; इसलिए कि आप बहुत अच्छे ढंग से इसे कर सकती है. यदि ऐसा हुआ तो एक बेहतरीन रचना आकार ले सकेगी और कालिया जी का छूट गया काम पूरा हो जाएगा.”
ममता जी ने जिम्मेदारी ली. इस तरह ‘तद्भव’ के छह अंकों में इलाहाबाद पर ‘गुजरे ज़माने का शहर’ शाया हुआ जो ‘जीते जी इलाहाबाद’ नाम से जब राजकमल प्रकाशन से आया तो उसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महीने भर में संस्करण समाप्त हो गया.
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यदि ऐसी कोई शर्त हो कि ममता जी के बारे में एक वाक्य में कुछ कहना है तो यही कहना चाहूंगा- ममता जी अप्रतिम गद्यकार हैं.
ममता जी की लेखन सम्पदा में सबसे बेशकीमती तत्व है उनका गद्य. प्रचलित शब्दावली में कहूं तो नौलखा है उनका गद्य. ध्यान से देखें तो उनके कथा साहित्य और कथेतर साहित्य दोनों में उनके गद्य के अनूठेपन का ठाठ दिखता है. विशेष यह है कि दोनों विधाओं में उनके गद्य की सूरत समानधर्मी है. यहां तक कि अपने सामाजिक व्यवहार में लोगों से संवाद करते, व्याख्यान देते, साक्षात्कार देते हुए भी उनकी भाषा में वह रंग रहता है. उनके गद्य में आपको गहन आत्मीयता की ऊष्मा महसूस होगी लेकिन उतना ही तीव्र तंज के कड़वापन का जायका भी साथ में मिलेगा. यह सलीका अपनी रचना चरित्रों के प्रति आवश्यक लेखकीय लगाव और तटस्थता बरतने से हासिल होता है.
अगली बात, उनकी भाषा दृश्य रचने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध दिखती है. उस दृश्य में वास्तविकता तथा लोगबाग का सूक्ष्म पर्यवेक्षण मिलेगा; माहौल के माकूल संवाद मिलेगा. इन सबके संग लेखक की खुशमिजाजी, हाजिर जवाबी और थोड़ी सी नाराजगी का रसायन रचना के वर्णन को पाठक के भीतर उतारकर एक ऐसी पुख्तगी प्रदान करता है कि वह मिटाए भी नहीं मिटता है. यही ममता जी के गद्य का अंदाज है. उनका अपना हस्ताक्षर.
जीवन में वह जरूर ज्यादातर ममतामयी हैं किन्तु लेखन में वह पूर्णतया वैसी नहीं हैं. एक गद्यकार को वैसा होना भी नहीं चाहिए. वह अपनी रचनाओं के मैदान में तेज प्रहार भी करती हैं. कथा में और कथेतर में भी. हालाँकि फेसबुक पर या पत्र-पत्रिकाओं में जब वह किसी लेखक की पुस्तक पर समीक्षा, आलोचना जैसा कुछ लिखती हैं तो अपने सारे तीर तरकश में धर लेती हैं और तब उनका ममतामयी पक्ष ही काम करता है.
ममता जी के गद्य की एक अन्य विशिष्टता है, उसमें नगर और देशज की भाषा रंगतों का सहमेल. वैसे भी ब्रज की संस्कृति में उनका बचपन बीता है, दिल्ली में रहीं, बाम्बे में भी और फिर इलाहाबाद में. बीच-बीच में बहुत शहरों में रहीं जिनका जिक्र ‘कितने शहरों में कितनी बार’ में हुआ है. सभी जानते हैं, भाषा भूगोल के अनुसार बनती, बढ़ती और बदलती है; तो कई भाषिक रंगों के मिलने से ममता जी की भाषा का रंग निर्मित हुआ है. यह अलग है कि वहां मथुरा और इलाहाबाद के रंग जरा चटख हैं.
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कुछ दिनों पहले प्रतिभाशाली आलोचक राहुल सिंह से फोन पर बात हो रही थी. वह भुवनेश्वर में हुए कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल से लौटे हुए थे. कुछ बताने के पूर्व उन्होंने मुझे मेरी एक बात का स्मरण कराया. हुआ यह था कि रवींद्र कालिया जी के न रहने पर अचानक मेरे मन में एक बात आई थी कि जब वह थे तो उनके व्यक्तित्व में ऐसा जबरदस्त आकर्षण था कि हर पीढ़ी के लोगों का मेला था उनके जीवन में. वह जहां रहें वहीं महफ़िल लग जाती और ठहाके गूंजने लगते. निश्चय ही ममता जी तो उनके साथ रहती ही थीं, अतः सारी चहल-पहल उनके हिस्से में भी थी. कालिया जी के चले जाने पर मुझे फिक्र हुयी कि वह सारा गुलजार जो कालिया जी के चलते था अब नहीं रहेगा और ममता जी अकेली पड़ जाएंगी.
उन्हीं दिनों की बात है राहुल से बात हुयी थी और मैंने उनसे कहा था कि ममता जी से बीच-बीच में आप लोग बात कर लिया करो ताकि कालिया जी के न रहने के बावजूद वह अकेले पड़ जाना न महसूस करें. उसी बात को राहुल याद दिला रहे थे, फिर कहा, “आपने एक समय यह कहा था लेकिन अब सब अद्भुत रूप से बदल चुका है.”
“क्यों, क्या हुआ ?”
“मैं भुवनेश्वर केएलएफ में गया था वहां ममता जी भी थीं. आप यकीन मानें उनका वहां पर जैसा सम्मान, आकर्षण, रुतबा था वैसा मेरी समझ से आज किसी भी स्त्री पुरुष कथाकार को प्राप्त नहीं है. चारों तरफ ममता जी छाई हुयी थीं.”
मुझको दोतरफा ख़ुशी मिली. एक इसलिए कि यह सब ममता जी के हिस्से में था. दूसरी वजह खुश होने की यह थी कि भरोसा बढ़ा कि आज के मार्केटिंग, आत्मप्रचार, शक्ति का इस्तेमाल करके आदर, सफलता पाने वाले वक्त में एक सादा, निष्कपट, संकोची और शालीन शख्सियत को भी प्यार, इज्जत और शिखर मिल सकता है. और किसी से कम नहीं बल्कि ज्यादा.
अखिलेश 1960; सुल्तानपुर (उ.प्र.). प्रकाशन:आदमी नहीं टूटता, मुक्ति, शापग्रस्त, अँधेरा (कहानी-संग्रह); अन्वेषण, निर्वासन (उपन्यास); वह जो यथार्थ था (सृजनात्मक गद्य); श्रीलाल शुक्ल की दुनिया (सं.) (आलोचना). आजकल प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका `तद्भव` के सम्पादक.`शापग्रस्त` कहानी पर फ़ीचर फ़िल्म. अनेक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद प्रकाशित. सम्मान : श्रीकान्त वर्मा सम्मान`, `इन्दु शर्मा कथा सम्मान`, `परिमल सम्मान`, `वनमाली सम्मान`, अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान`, स्पन्दन पुरस्कार`, `बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार`, `कथा अवार्ड`, `कथाक्रम सम्मान`, `कसप` मनोहरश्याम जोशी राजकमल प्रकाशन कृति सम्मान आदि |
Thank you,Arun Deb ji,for presenting this brilliant and exhaustive piece on Mamta Kalia by Akhilesh ji.
Undoubtedly Mamta ji is a living legend and her writings are significant and epoch-making mementos of our times. Full of her indomitable and unstoppable spiritedness.
I can only admire and adore her.
Deepak Sharma
सुंदर, तृप्तिदायक गद्य।
आत्मीय, संपन्नतादायक संस्मरण।
अहा! ममता जी की पुरानी छवियों के साथ उनके लेखन को विस्तार और आत्मीयता और आलोचनात्मकता से दर्ज करता आलेख. मैं पढ़ते पढ़ते दृश्य बुनता गया और उनकी कहानियों और पात्रों की स्थितियों और द्वंद्व पर उँगली रखता गया. हिन्दी संसार कितना समृद्ध है, ऐसे आलेख बार बार आने चाहिए. ममता जी की कितनी तो छवियाँ हैं और इन्हीं सबके बीच से उनका लेखक कैसे रचता है .. वाह! अद्भुत प्रस्तुति.
शुरू से अंत तक रोचक तथा सहज। यह बस संस्मरण ही नहीं, अखिलेश जी का लिखा हुआ संस्मरण है।
शुक्रिया
अखिलेश जी अभिवादन ! डूब कर लिख गए ! ममता कालिया जी और रविन्द्र कालिया जी दोनों के चित्र साथ – साथ चल रहा है। आप भी जब मिलने गए ! रवि जी की फोटो वाला प्रोज़ तो जीवंत बन पड़ा है। आपको सलाम !
ममता जी मेरी भी बहुत प्रिय कथाकार हैं,और कवि भी—ख़ास कर एक खाँटी घरेलू औरत वाली कविताए् और दौड़ नामक मार्मिक कथा।उनका अभिनंदन ।और प्रणाम ।
दोस्तो आपके दम पर ही ये कदम चल रहे हैं।भरोसा बनाए रखिए।
सहज, आत्मीय, संस्मरण-समीक्षा। ममता जी जैसी महत्वपूर्ण और वरिष्ठ कथाकार को इस दौर में समग्रता से जानने में इस संस्मरणात्मक आलेख की अत्यधिक उपादेयता सिद्ध होगी। निःसंदेह अखिलेश जी का इस विधा में किया गया लेखन अनूठा है। ‘अक्स’ पढ़ते हुए यह ख़्याल कई बार आया था कि इसमें ममता जी पर भी कुछ अधिक विस्तार से बातें होतीं और देखिए कि आज यह आलेख प्रकाशित हो गया। ममता जी को मेरा प्रणाम है। अखिलेश जी को साधुवाद। इसे हम पाठकों तक पहुँचाने के लिए अरुण जी को भी बहुत धन्यवाद।
नौलखा गद्य का अनूठापन ‘आलोचनात्मक संस्मरण’ है अर्थात, संस्मरण सह आलोचना। इसकी खासियत यह है कि इसमें आलोचना वाली वजन (बोझिलता/नीरसता) समाप्त हो जाती है, समाप्त नहीं तो कम तो हो ही जाती है। यह शैली आलोचना को सरस ही नहीं सहज भी बनाती है। अखिलेश जी ने इस आलेख में ममता कालिया के कथा साहित्य पर कुछ सार्थक अनौपचारिक आलोचना के संकेत दिए हैं। यह संकेत वही कर सकता है जो ममताजी को बहुत नजदीक से जानता है। इसी अर्थ में मुझे लगता है कि ‘संस्मरणात्मक आलोचना’ भी आलोचना की एक महत्त्वपूर्ण कोटि हो सकती है, अपनी कुछ सीमाओं के साथ। इसी तरह ममता कालिया की स्त्री-दृष्टि पर भी अखिलेश ने संकेत-सूत्र में जो बातें कहीं हैं, उसका विस्तार आगे शोधार्थी/आलोचक कर सकते हैं।