भयग्रस्त विवेक की आज्ञाकारिता
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यदि हम साहस खो देते हैं तो आशा भी खो देते हैं.
एक बेहतर समाज की आशा, न्याय और जीवनाधिकार की आशा.
आशा जिसे विवेकपूर्ण साहस चाहिए. आशा, जिसका क्रियान्वयन करना पड़ता है.
राजनीतिक हत्यारों का भी एक झण्डा होता है. एक प्रार्थना गीत. हथियारबंद परेड. एक ख़ास धुन जो उन्हें जाग्रत, प्रेरित और अग्रसर करती है. एक संगठन. उसका एक उद्देश्य स्पष्ट होता है. जिसे हर हाल में, अच्छे या बुरे तरीक़े से, किसी भी क़ीमत पर पूरा करने का संकल्प. चूंकि अच्छा तरीक़ा काम नहीं आता है इसलिए साम, दाम, दण्ड, भेद की शरण में जाना पड़ता है. ये चार आक्रामक और सफल मित्र हैं. डाली काटना है लेकिन डाल पर ही बैठकर. राजनीतिक हत्याएँ क्यों होती हैं और कोई भी दोषी क्यों नहीं होता? इसका एक ही जवाब है कि संसार में कोई भी दलप्रमुख, कोई राजाध्यक्ष, कोई तानाशाह ख़ुद हत्या नहीं करता. वह तो बस ऐसे मारक तंत्र विकसित कर देता है. फिर ये तंत्र हत्या करते हैं. उनकी यही दिनचर्या और यही कर्त्तव्य निर्धारित हो जाता है. कई बार तो बिना इस अहसास के कि वे दरअसल हत्यारों की योजना का हिस्सा हो गए हैं. एक बुलडौज़र का, एक टैंक का और एक मशीनगन का पुर्ज़ा. लेकिन न्याय तंत्र यदि इसका शिकार हो जाए तब स्थिति शोचनीय और जटिल हो जाती है. लोगों की आशा सन्निपात में चली जाती है.
मैं ख़ुद एक न्यायाधीश हूँ.
न्यायकर्ताओं पर मुक़दमा चलाना मुश्किल काम है. दुविधा और तकलीफ़ का काम है. मुझसे वरिष्ठ और योग्य अनेक न्यायाधीशों ने यहाँ न्यूरमबर्ग की अदालत में आने से मना ही कर दिया. वे दूसरे न्यायमूर्तियों पर निर्णय नहीं देना चाहते. जबकि यह पिछली शताब्दी के सबसे भयानक प्रकरणों में से एक है. शताब्दी की शर्म है. शताब्दी की नृशंसता. सभ्यता के बरअक्स बर्बरता. और यह अपराध कई देशों, कई नागरिकताओं के साथ किया गया है. एक नस्ल को नष्ट करने के लिए. एक प्रजाति के ख़िलाफ़. आख़िर कोई तो न्याय की प्रक्रिया के रास्ते पर आगे आएगा. इसलिए मैंने इस काम के लिए हामी भर दी है. कोई तो होगा जो बमबारी के बाद आबादियों के खंडहर देखेगा. और मनुष्यों के विध्वंसावशेष. संबंधों के, सामाजिकता के, भरोसे और क़ानून के, नैतिकताओं और उम्मीदों के खंडहर. मनुष्यता के भग्नावशेष. किसी को तो हटाना होगा यह मलबा. सारी वास्तुकलाओं पर बम गिर चुके हैं. शहर के घरों की छतें ग़ायब हैं और दीवारें ध्वस्त. कोई साबुत चीज़ खोजना मुश्किल है. जब तक क़रीब जाकर ख़ुद नहीं देखते तो पता नहीं लगता कि कितना ध्वंस हुआ है. महज़ तस्वीरों से तो क़तई नहीं.
(दो)
मुझे रहने के लिए यह विशाल घर दिया गया है. इसमें पहले एक नाज़ी जनरल रहा करता था. मुझे इसी घर में रहकर नाज़ियों के ख़िलाफ़ मुक़दमे का निर्णय करना है. यह सुविधा है या विडंबना. हिटलर, गोएबल्स और गोरिंग, प्रथम पंक्ति के लोग, जो हत्यारों के मुखिया थे, सब मृत्यु का वरण कर चुके हैं. दूसरी, तीसरी, चौथी सीढ़ियों पर खड़े लोग अभी शेष हैं- व्यापारी, डॉक्टर, सैन्य अधिकारी, प्रशासक. और न्यायाधीश. लेकिन कोई भी जजों को जज नहीं करना चाहता. यह सबसे कठिन है. शायद अवांछित. शायद अनपेक्षित. मानो यह न्याय विरुद्ध है. लेकिन अपराध हुआ है तो कोई अपराधी भी होगा. अभियोग होगा तो अभियोगी भी. इसलिए मैं यहाँ हूँ.
इनका कोई तो फ़ैसला करेगा.
यहाँ क़ानून के नाम पर अपराध किया गया है. अन्याय न्यायसम्मत कर दिए गए हैं. चालाक सत्ताएँ अपराध करने के लिए क़ानून बनाती हैं. इसलिए न्यायाधीशों के सामने दिक़्क़त है. वे क़ानून के दायरे में विवश हैं. इसमें न्यायमूर्तियों का क्या दोष. तब यक्ष प्रश्न उठते हैं: क्या नृशंस तानाशाह के राज्य में नौकरी करना, उसके आदेशों, नियमों का पालन करना अपराध है? क्या न्यायाधीश भी हत्यारों के साझीदार हुए? फिर न्यायमूर्तियों के विवेक का क्या होगा? क्या कोर्ट-रूम सिर्फ़ एक भौतिक कक्ष है या उसमें बैठे प्रज्ञावान न्यायमूर्ति की वजह से वह एक न्याय कक्ष भी है??
विवेक, औचित्य, तार्किकता और परिस्थितियों की संलग्न मीमांसा ही बैंच को, फर्नीचर की शाब्दिकता से ऊपर उठाकर न्यायिक बैंच की अर्थवत्ता देती है. बहस, उपकरण, संज्ञान, धाराएँ, साक्ष्य, पीनल कोड अपने आप में न्याय नहीं करते. न्याय को संवेदनशीलता, मानवीयता, सामाजिकता, दार्शनिकता की ज़रूरत भी होती है. समुचित न्याय में यांत्रिकता की नहीं, विद्वानों की ज़रूरत पड़ती है. असंदिग्ध विवेक की. और मनुष्यता की. इनके अभाव में हर निर्णय ग़लत होने को अभिशप्त है. ‘विवेकहीन आज्ञाकारिता’ सभ्य समाज को नष्ट करने का अंतिम चरण है. विवेक का आज्ञाकारी हो जाना सबसे खतरनाक है.
ग़लत फ़ैसला अन्याय का बीज और फिर वटवृक्ष हो जाता है.
यह न्यायघर है. ये प्रतिवादी जो सामने बैठे हैं, कभी ये न्यायकर्ता थे. आरोप है कि इन्होंने न्याय नहीं किया. न्यायाधीश की पोशाक पहनकर अन्याय किया. न्याय की भूषा को, न्याय के सिंहासन को दूषित किया. न्याय को भ्रष्ट किया और न्याय की प्रकिया का रास्ता बदल दिया. इस क़दर कि इन पर वही आरोप हैं जो हत्यारे तानाशाहों पर, राजनेताओं पर, गुप्तचरों पर और वर्दियों पर आयद हैं. ये सुनियोजित, विषैली योजना के हिस्सेदार हैं. मानवता के प्रति किए गए अत्याचारों के सहभागी.
ये विचारवान न्यााधीश यदि चाहते तो तानाशाह के ताक़तवर होने के पहले, उसके सर्वोच्च पद तक पहुँचने से पहले ही उसे रोक सकते थे. उसके अश्वमेध का अश्व थाम सकते थे. नरमेध को असंभव कर सकते थे. लेकिन ये उसके विभाजनकारी, अमानवीय, बहुसंख्यकवादी विचारों को रोकने की जगह उसके साथी हो गए. भूल गए कि ये न्यायाधीश हैं और इनकी हैसियत सत्ताओं से कहीं ज़्यादा है. ये नागरिक अस्मिता के, न्याय के सर्वोच्च पहरेदार थे. इनका कृत्य वैसा ही है जैसे ख़तरे की घंटी आपत्तिकाल में भी न बजाई जाए, जबकि इसी काम के लिए ये तैनात थे.
ये सेफ्टी वॉल्व थे.
अब इनका न्याय होना है क्योंकि इन्होंने मुसीबतज़दा लोगों को न्याय देने से इनकार कर दिया. ये न्याय की उदात्त अवधारणाओं से नहीं, निजी मान्यताओं, निजी विचारों, निजी लोभ और भय से संचालित हुए. इनका अजीब ढंग से निजीकरण और पराभव हुआ.
इसलिए ये अन्यायी हुए.
(तीन)
लेकिन बचाव पक्ष भी है.
उसकी विचारणीय दलीलें हैं कि अपराध की जवाबदारी एक बड़ा प्रश्न है. परंतु न्यायकर्ताओं को ही इस तरह कटघरे में लिया जाएगा तो फिर न्याय की प्रक्रिया और स्वायत्ता ख़तरे में आ जाएगी. न्यायाधीश निर्णय करते समय ख़ुद को स्वतंत्र अनुभव न कर सकेंगे. किसी भी देश-काल में, तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को विचार में लाए बिना, कोई जवाबदारी तय नहीं की जा सकती. और जो आरोपी न्यायकर्ता हैं, न्यायाधीश हैं, उनकी चारित्रिक, ज्ञानात्मक और अकादेमिक विशेषताओं को ध्यान में रखना होगा. यह कोई काग़ज़ी बात नहीं है अपितु एक मनुष्य की विशेषज्ञता में निवास करती है.
आप ज़रा इन न्यायाधीशों की प्रतिभा, योग्यता पर एक निगाह तो डालिए. ये संविधान के निर्माताओं में हैं, इनकी लिखी किताबें संसार भर के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं, इनके संदर्भ कक्षाओं में, निर्णयों में दिए जाते हैं. लेकिन समझना होगा कि ये क़ानून नहीं बनाते हैं, बने हुए क़ानूनों के अनुसार, उसकी चौहद्दी में न्याय करते हैं. इनके हाथ क़ानून के बंधक हैं. ये जर्मनी में बैठकर अमेरिका या रशिया की संहिताओं से न्याय नहीं कर सकते. ये अपने देश के क़ानून से निर्णय करेंगे. यही मूल तत्व है. यही आधार है. यही आलंब है. इसी के अनुपालन में इन्होंने निर्णय दिए हैं. यदि ये दोषी हैं तो फिर संसार भर की न्याय प्रणाली दोषी है. समस्त नागरिक और यह पूरा देश दोषी है.
जवाबदेही यदि घटनाओं की एक लंबी शृंखला का परिणाम है तो वह दो टूक नहीं हो सकती. जंजीर की किसी एक कड़ी को दंडित नहीं किया जा सकता. तमाम कड़ियों में से कुछ को छाँटकर मनमाने ढंग से जवाबदार नहीं ठहराया जा सकता. यह अन्याय होगा. दंगों में, आगज़नी में, अराजकता में, ऐनकाउंटर्स में और शासकीय आदेशों के अनुपालन में कुछ अनचाहा हो सकता है. लोग मारे भी जा सकते हैं, मारे जाते रहे हैं. यह इतिहास सम्मत है, धर्मसम्मत है, राजसम्मत है. इसलिए न्यायसम्मत है. यह सहज है जैसे प्राकृतिक है. लेकिन इस तरह किसी एक व्यक्ति को हत्यारा नहीं ठहराया जा सकता. यह केवल कुछ लोगों पर मुक़दमा नहीं है, यह एक कोर्ट-रूम के आयतन का फ़ैसला नहीं होगा, यह पूरी दुनिया के सामने मिसाल बनेगा. प्रशासन, राज्य, संस्थाएँ, न्याय, ये सब जटिल संरचनाएँ हैं. एक-दूसरे पर निर्भर हैं. मगर हम न्यायालय की दया पर नहीं बल्कि तथ्यों, तर्कों और न्याय-दर्शन की नींव पर अपना पक्ष रखते हैं और इन न्यायाधीशों के लिए न्याय माँगते हैं.
ध्यान रखना होगा कि तानाशाही में न्यायाधीशों पर भी संकट होता है. उस समय जो हालात थे, जो भ्रम फैलाए गए थे, जिन चीज़ों को अँधेरे में रखा गया था, संसद ने जिस तरह के नये क़ानून बनाए, उनसे राष्ट्रहित की अवधारणाएँ ही बदल गईं थीं. यदि ये तदनुसार निर्णय न करते तो राष्ट्रद्रोही हो सकते थे. राज्य इन्हें दंडित कर सकता था. स्थिति तो यहाँ तक आ गई थी कि जनता कई निर्णय समानांतर रूप से करने लगी थी. ये सामाजिक घृणा को कैसे रोक सकते थे? जब राष्ट्रभक्ति के पैमाने न केवल बदल दिए गए बल्कि बदली हुई कसौटियाँ अनिवार्य कर दी गईं, यहाँ तक कि न्यायाधीशों को अपने ड्रेस कोड में स्वस्तिक का निशान पहनना भी. और प्रजाति का विरोध एक क़ानूनी अवधारणा बन चुकी थी. वह संवैधानिक हो गई थी. उसकी सामाजिक स्वीकृति थी. पुलिस, जनता और राज्य साक्ष्य देते थे. इस वातावरण में आप किसी न्यायाधीश से क्या अपेक्षा कर सकते हैं. बल्कि इतने ख़राब माहौल में भी इन्होंने यथासंभव न्याय किया.
यदि आप सोचते हैं कि इन्होंने सारे ग़लत क़ानूनों का निषेध करते हुए न्याय क्यों नहीं किया तो हमारा कहना है कि ये तो अपने देश के क़ानूनों से बँधे थे, अपने देश के तानाशाही भरे वातावरण में साँस ले रहे थे लेकिन पूरा यूरोप, शेष पूरा संसार उस समय कहाँ था? वे सब कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर रहे थे. बल्कि उनमें से अधिकांश तो हिटलर से संधियाँ कर रहे थे. मिलकर पड़ोसी देशों को हड़प रहे थे, या उसके साथ खड़े हुए थे. हर देश अपने यहूदी, जर्मनी को सौंप रहा था और हर जगह के यहूदियों को सताया जा रहा था, तब यह अंतर्राष्ट्रीय अदालत, जो आज बैठाई गई है, उस समय क्यों नहीं बैठाई जा सकी? दरअसल, पूरा विश्व दोषी है, आप सब भी दोषी हैं, केवल ये न्यायाधीश नहीं.
(चार)
मी लॉर्ड, फिर न्यायिक विवेक का क्या होगा?
न्यायाधीश भले क़ानून नहीं बनाते हैं लेकिन वे क़ानूनों का सही भावना में लागू होना सुनिश्चित करते हैं. जो शब्दों में नहीं लिखा होता है, उस उदात्त आशय को ग्रहण करते हैं. यदि चीज़ें केवल काग़ज़ों, नियमों, धाराओं और साक्ष्यों से सहज स्पष्ट होती हों तो फिर न्यायाधीशों की ज़रूरत क्या है. तब तो कोई यंत्र भी न्याय कर सकता है. लेकिन हर कोई समझ सकता है कि वह न्याय नहीं होगा. जब तक पीड़ित पक्ष पर ग़ौर नहीं किया जाएगा, जब तक उसके प्रति संवेदनात्मक दृष्टि न होगी, करुणा न होगी, जब तक उसकी परिस्थितियों और तकलीफ़ों पर विवेकपूर्ण विचार नहीं किया जाएगा, वह कभी न्याय प्राप्त नहीं कर सकेगा. हो सकता है पीड़ित के पास अकाट्य प्रमाण न हों, उसके गवाह कमज़ोर हों, भयग्रस्त हों या वह ख़ुद शक्तिहीन हो. यों भी राज्य और उसके उपकरणों की क्रूर संरचनाएँ इतनी ताक़तवर, मदांध होती हैं कि बिना न्यायाधीशों की सजगता के, बौद्धिक तार्किक विश्लेषणात्मक क्षमता के कोई न्याय संभव नहीं. और जब न्यायाधीश ही सत्ता के पक्षधर हो जाएँ, लोभ और भय से पस्त हों तो फिर महज़ अन्याय ही हासिल होगा.
विधर्मियों के साथ किसी भी संपर्क को, स्पर्श मात्र को अश्लील साबित कर दिया गया. एक चुंबन, हार्दिक आलिंगन और प्रेमिल छुअन को भी अपराध बना दिया गया. यहूदी होने या फासिज़्म विरोधी होने के कारण देश के लाखों लोगों का बंध्यकरण किया गया. उन्हें मानवीय अधिकारों से ही नहीं, सहज मानवीय गरिमा से भी वंचित किया गया. झूठे आरोपों की बारिश की गई. उन्हें बिना सबूत सज़ाएँ दी गईं. घेट्टों में, यातना शिविरों में, फिर गैस-चैम्बर्स में भेजा गया और यह सब इन न्यायाधीशों के आदेशों से हुआ. उन फ़रमानों पर दस्तख़त किए गए जो इन्हें पता था कि ये मौत के परवाने हैं. मानो ये न्यायाधीश नहीं रह गए थे, नाज़ी-दल के न्यायिक प्रतिनिधियों की तरह काम कर रहे थे. इन्होंने आत्मसमर्पण करते हुए अपनी पोशाक पर स्वस्तिक निशान धारण किया. ये हिटलर और उनके साथियों की तरह ही दोषी हैं. यदि ये न्याय-विवेक रखते, निर्दोष लोगों की जान बख़्शते तो वह एक मिसाल होती. पूरा देश ग़लत राह पर चलने से बच सकता था.
इनका क़ानूनी ज्ञान, विशेषज्ञता और उपाधियाँ किस काम की अगर वे इन्हें न्याय करते समय साहसी और विवेकसम्मत नहीं रख पाईं. यदि ये भी भीरुता और लालच का शिकार हुए तो इनकी अकादेमिकता का, इनकी नैतिकता क्या अर्थ? जो अपराध राज्य या शासन द्वारा और राजनीतिक स्वार्थ प्रेरित होते हैं, उन्हें तो केवल न्यायालय दुरुस्त कर सकता है. वह उनकी चूकों, इरादों या अपराधों को अपनी ओट नहीं बना सकता. जबकि ऐसे उदाहरण भी हैं कि कई न्यायाधीशों ने अपना प्रतिवाद सार्वजनिक रूप से रखा. अनेक त्यागपत्र देकर चले गए लेकिन अन्याय करने में शामिल नहीं हुए. स्पष्ट है इन जैसे बाक़ी लोगों ने नयी परिस्थितियों से, नए शासन से, नयी राजनीति से समायोजन कर लिया. मुमकिन है कि इन्हें शुरू में उतनी भयावहता का अनुमान न रहा हो लेकिन ये इसके न केवल अभ्यस्त हो गए बल्कि तंत्र के भागीदार बनकर लाभान्वित भी हुए. जबकि ये चाहते तो अपना प्रतिवाद दर्ज कर सकते थे. अन्यायपूर्ण आदेशों पर हस्ताक्षर करने से मना कर सकते थे.
यदि चारों तरफ़ भय का, घृणा का वातावरण था तब भी ये न्यायाधीश अपने निर्णयों से माहौल को बेहतरी की तरफ़ ले जा सकते थे. क्या विद्वान न्यायाधीश यह नहीं समझ सके कि उनका उपयोग औज़ार की तरह किया जा रहा है. उनका जीवन कितना संकट में आता, यह प्रश्न ही उचित नहीं. एक सैनिक अपना जीवन जोख़िम में डालकर भी देश को बचाता है, उसी तरह न्यायाधीशों से भी अपने जीवन या सुख की चिंता किए बिना, देशहित में काम करना अपेक्षित है. तब लोगों को कहीं से तो उम्मीद दिखती. अकसर वह उम्मीद न्यायालय से होती है. इन्होंने उस आशा को ही खंडित कर दिया. इससे बड़ा अन्याय ये क्या कर सकते थे कि न्याय की आशा ही ख़त्म हो जाए.
(पाँच)
आदरणीय बैंच, मैं आपको वे परिस्थितियाँ फिर बताता हूँ जिनसे तय होता है कि ये न्यायाधीश तो महज़ क़ानून के, नियमों के, आदेश के पालनहार थे. इनका कोई दूसरा इरादा नहीं था. उस समय जर्मनी के सामने संकट था. भूख थी, बेरोज़गारी थी, बहुसंख्यक लोग मुश्किल में थे, उनकी एकता खंडित थी और तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में कम्युनिस्ट थे. सोचिए, पूरा यूरोप कम्युनिज़्म से थर-थर काँपता रहा है. अमेरिका तो सबसे ज़्यादा, जहाँ से आप आए हैं मी लॉर्ड. इन संकटों के ख़िलाफ़ हिटलर की राष्ट्रवादी पार्टी ने जंग छेड़ी. देश की बेहतरी के लिए. विकास के लिए. अन्यथा पूरा यूरोप कम्युनिज़्म का शिकार हो सकता था.
और स्वस्तिक धारण करने से कोई जनविरोधी नहीं हो जाता. किसी को गणवेश से नहीं, उसके कार्यों से ही परखा जा सकता है. पहले भी संसार के अनेक देशों में, मंदबुद्धियों, राजनीतिक विरोधियों, अपराधियों का बंध्यकरण किया जाता रहा है, ये फ़ैसले देखिए. अमेरिका में भी ऐसा हुआ. हिटलर ने या जर्मनी के इन न्यायाधीशों ने कोई इसकी ईजाद नहीं की है. ये न्यायाधीश तो क़ानूनी शपथ से बँधे थे कि वे देश के सर्वोच्च नेता की आज्ञा मानेंगे. राजाज्ञा पालन दोष नहीं. इसलिए इन्हें अपराधी कहना ठीक नहीं. ये तो इस मुक़दमे के कारण व्यर्थ ही ग्लानि का शिकार हो रहे हैं.
जबकि जनता में भी अनेक बुद्धिजीवी थे जिन्होंने विरोध किया लेकिन क्या हुआ? उन्हें डराकर आख़िर ख़ामोश कर दिया गया. जो जानते थे, जो नहीं जानते थे, जो पक्ष में थे, जो विपक्ष में थे, जो चुप रहे, जो बोले, जो आँसू रोक लेते थे, जो आँसू बह जाने देते थे, क्या आप उन सब पर मुक़दमा करेंगे. देश के प्रत्येक नागरिक पर? ये न्यायाधीश भी इसी देश के थे. उतने ही शक्तिमान और उतने ही विवश. ये सक्षम थे लेकिन असहाय भी थे.
ये भी तानाशाही के छाया तले मजबूर थे.
नहीं, नहीं. जज साहब, बचाव पक्ष के ये तर्क ठीक नहीं.
ये न्यायाधीश यदि ख़ुद को किसी विचारधारा या सर्वोच्च सत्तासंपन्न व्यक्ति का ग़ुलाम बनानेवाली उस शपथ को बनने ही नहीं देते, लागू ही नहीं होने देते तो तानाशाह कभी निरंकुश सम्राट न हो पाता. लेकिन इन्होंने देश की जनता से कहीं अधिक अपनी तनख़्वाह की, पैंशन और सेवानिवृत्ति उपरांत सुविधाओं की परवाह की. ये भूल गए कि न्यायिक फ़ैसलों में अपने समय, अपने युग की आशाओं, इच्छाओं और नैतिकताओं को भी दर्ज करना होता है. ताकि एक आम नागरिक ठीक तरह जीवित रह सके, मार न दिया जाए. ये माननीय न्यायाधीश जिनके विचार किताबों में अलग हैं और कर्मक्षेत्र में कुछ अलग. ये व्यक्तिगत पुनरुत्थानवादी विचारों से या फिर आज्ञाकारिता से ही संचालित होते रहे. ये सब जानते थे. इन्हें अंदाज़ा था कि इनके आदेश से लोग क़त्लगाह की तरफ हाँक दिए जाएंगे. ये वीडियो देखिए. इतनी लाशें कि क़ब्रों में क्रेन से धकेली जा रही हैं. लाश होने से पहले वे कंकालों में बदल चुकी थीं. इनका तरीक़ा ही था कि विरोधियों की देह तोड़ दो. हृदय मसल दो. उनकी जिजीविषा नष्ट कर दो. लाशें जलाने के लिए ये भट्टियाँ देखिए. ये पहाड़ देखिए जो मार दिए गए लोगों के छूटे सामानों से बने हैं, टूथब्रश, चश्मे, जूते-चप्पल, दाँतों में लगे सोने के टुकड़े. मारने की रफ्तार– बीस हज़ार यहूदी प्रति घंटे. और इस नाज़ी जनरल के पास मानव-त्वचा से निर्मित यह लैम्पशेड.
मनुष्य की खाल के कैनवस पर ये पेंटिंग्स.
ये सब कटघरे में हैं क्योंकि बिना मुक़दमे के, बिना उनका पक्ष ठीक से सुने इन्होंने लोगों को मारने के आदेश दिए. इनके निर्णय हत्यारे हैं. ये आरोप लगानेवाली संस्थाओं पर, राज्य सत्ता पर विश्वास जताते रहे और आम आदमी की गुहार को, उनकी सच्चाई को नकारते रहे. जैसे करुणा, प्रज्ञा और प्रत्युन्नमति सिरे से ग़ायब हो गई हो. इन्हें संदेह का लाभ देना, न्याय के लिए ख़तरा है.
(छह)
नहीं साहब, हमें कोई गवाही नहीं देना.
हम उस हादसे से बचकर आ गए हैं, उस क्रूर समय के चंगुल से निकल आए हैं, अब हमें चैन से जीने दें. इस अदालत में जर्मनवासी किसी दूसरे जर्मन के ख़िलाफ़ गवाही नहीं देना चाहता. पीड़ित भी गवाही नहीं देगा. यहाँ कोई अपने परिजन, मित्रों के हत्यारों को नहीं पहचानेगा. गवाही देने के बाद हमारा मरण निश्चित है. हत्यारों के विरुद्ध भला कौन गवाही दे सकता है? हम कहाँ जाएंगे, हमें उनके बीच में ही रहना है. हत्यारों के बग़ल में वकील खड़े हैं, साक्षियों के पार्श्व में अकाल मृत्यु. तुम चाहते हो कि हम किसी तरह गैस चैम्बर्स से बच गए तो अब गवाही देकर मारे जाएँ. हम बहुत छोटे आदमी हैं, हम भला क्या बता सकते हैं. हमारे पास बताने लायक़ कुछ नहीं. हमारा तो बेटा सेना में था. वह लड़ते हुए मर गया और हमारी बेटी यहाँ शहर में बम गिरने से. भुखमरी की कगार पर अब हमारे पास केवल हम बचे हैं.
हमारी गवाही तो केवल इसलिए प्रश्नांकित हो जाएगी कि वह प्रकरण गरिमापूर्ण नहीं है. वे भूल जाएंगे कि वह समय ही गरिमापूर्ण नहीं था. कि जब बहुसंख्यक आर्यों से अल्पसंख्यक यहूदी को साधारण सामाजिक संपर्क रखने तक की इजाज़त नहीं थी तो फिर आत्मीय मुलाकात को अवैध-संबंध ही ठहराया जाएगा. इसलिए नहीं कि वह कोई ग़लत संबंध था बल्कि इसलिए कि पुलिस ने यह कहा, वकील ने यही कहा, पड़ोसी ने भी कहा तो फिर वह ग़लत था. तब कोर्ट भी निर्णय दे देता है कि हाँ, आर्य से अनार्य का प्रेम अश्लील है. स्नेह भी ग़ैरक़ानूनी है. राजद्रोह है. दण्डीय है. आपकी बात ठीक हो सकती है लेकिन हम बहुत छोटे, साधारणजन हैं. हमें इस पचड़े में मत डालिए. और हिटलर ने कुछ अच्छे काम भी तो किए- राजपथ बनवाए, कई लोगों को सेना में रोज़गार दिया. देश का ग़ौरव बढ़ाया. ओलंपिक आयोजित किया. बाक़ी जो किया हम नहीं जानते, हमें माफ़ करो, हम तुच्छ लोग हैं, एकदम साधारण. उस समय कुछ जान भी लेते तो हम क्या कर सकते थे. हम आज भी असमर्थ, असहाय हैं, उस समय भी हम ऐसे ही थे. हम कुछ नहीं जानते. हम कुछ नहीं बता सकते. गवाही तो दे ही नहीं सकते.
तुम हमें यह कहकर मत बरगलाओ कि हमारी गवाही से अब उन्हें सज़ा मिलेगी. समरथ को नहीं दोस गुसाईं. वकील साहब, क्या आप इतना भी इतिहास नहीं जानते कि आज तक कोई भी सक्षम राजनीतिक, सरकारी या प्रशासनिक हत्यारे दण्डित नहीं हुए हैं. वे भाग गए, उन्होंने आत्महत्या कर ली, स्वाभाविक मौत मर गए या उन्हें बख़्श दिया गया लेकिन वे कभी दण्डित नहीं हुए. जो जितना बड़ा हत्यारा, उतना ही ज़्यादा सुरक्षित. जो सच बोलता है, वही तत्काल गिरफ़्तार होता आया है. सच बोलनेवाले को कोई ज़मानत तक नहीं देता.
न न्यायालय, न समाज.
लेकिन इस सबके बाद भी लोग गवाही देने जाते हैं.
क्योंकि उनके आँखों के आगे मार डाले गए आत्मीयजन के चेहरे घूमते हैं. उनके प्रियों की क़ब्रें जीवितों के आँसुओं से हमेशा गीली रहती हैं. हत्यारे उनके सपनों को रोज़ दुस्वप्नों में बदलते हैं. वे अपने मृतकों के लिए, किसी अजनबी की दारुण मृत्यु के दृश्य को दिल में बसाये, जान की भीख माँगतीं भीड़ में घिरी याचक आँखों के लिए, पुलिस द्वारा घसीटे जाते अनजान चेहरों के लिए गवाही देने जाते हैं. यह जानते हुए भी कि मुमकिन है उन्हें वापसी के रास्ते में ही मार दिया जाए, वे अदालत जाते हैं. इधर वे गवाही दे रहे होते हैं, ठीक उसी समय उनके घर तोड़े जा रहे होते हैं, उनका बचा-खुचा जीवन स्वाहा किया जा रहा होता है. इधर न्यायाधीश टेबल पर हथौड़ा बजा रहे होते हैं और देखते हैं कि न्याय संभव नहीं हो पा रहा है. फिर भी गवाहियाँ जारी रहती हैं. आशा है कि मरती नहीं. ढीठ और धृष्ट. अन्याय जारी रहता है. न्याय की दुराशा भी जारी रहती है.
समय साक्षी है कि वह समय ऐसा था कि सरकारी स्वप्न के ख़िलाफ़ हर गवाही झूठी ठहरा दी जाएगी. सफ़ाई देनेवाले आरोपी पर अदालत में हँसी का फव्वारा छूटेगा. जैसे सच बोलना कोई चुटकुला है. मैं निर्दोष हूँ: यह सुनकर वकील हँस देंगे, पूरा न्यायालय हँस देगा. पूरा सदन, पूरा देश हँसेगा. तुम यहूदी हो, तुम कैसे निर्दोष हो सकते हो. हँसो, हँसो, जल्दी हँसो. किसी निर्दोष को पकड़कर हँसो. उसे अकेला करके हँसो. उस पर मुक़दमा करके हँसो. हँसो कि तुम्हारी नौकरी बची रहे. हँसो कि तुम्हारा वैभव, तुम्हारी सुविधाएँ बची रहें. हँसो कि हँसने पर ही पुरस्कार है. हँसो कि अन्याय बचा रहे. हँसो कि तुम्हारी यह दो कौड़ी की जान बची रहे.
(सात)
आख़िर इस मुक़दमे के आरोपी न्यायाधीशों में सबसे प्रखर, प्रमुख प्रतिवादी जो अब तक ख़ामोश था, वह कुछ कहना चाहता है. उसका बयान, उसका पश्चाताप सुनिए- मी लॉर्ड, यदि आप इस मामले को समझना चाहते हैं तो आपको उस वक़्त को समझना ही पड़ेगा. वह नाज़ियों का वक़्त था. फ़्यूहहर का वक़्त था. जर्मनी में प्रथम विश्व-युद्धजन्य अपमान और असम्मान का बुख़ार फैला हुआ था. भूख और बेरोज़गारी थी. लोकतंत्र के सारे तत्व, सारे अवयव नष्ट कर दिए गए थे. सब तरफ़ सिर्फ़ भय ही भय था. आज का डर, कल का डर, पड़ोसियों का डर, यहाँ तक कि ख़ुद का भी डर. कि ‘न डरो तो डरो कि हुकुम होगा कि डर’! जब तक उस समय में भय की इस व्याप्ति को न समझा जाएगा तब तक आप नहीं समझ सकेंगे कि एक तानाशाह क्या होता है. तानाशाही में रहना क्या होता है. इसके अलावा हमें गौरव दिया गया. वह गर्व जो अंधा बना सकता है. सिर उठाकर जियो, अपने देश पर अभिमान करो. एक जर्मन होने पर असीम गर्व करो. और समझाया गया कि इस गौरव के रास्ते में, देश की प्रगति में कुछ चीज़ें, कुछ लोग बाधा हैं, राक्षस की तरह हैं, जैसे- कम्युनिस्ट, उदारवादी, अल्पसंख्यक यहूदी, बंजारे, आदिवासी. यदि ये नष्ट होंगे तो सभी देशवासी संपन्न हो जाएंगे. हम न्यायाधीश और बुद्धिजीवी होने के नाते समझ सकते थे कि तानाशाह के ये शब्द झूठे हैं. ख़तरनाक हैं. फिर हम चुप क्यों रहे? हमने कुछ किया क्यों नहीं? क्योंकि हमारे भीतर उस तथाकथित देशप्रेम की ज्वाला धधका दी गई थी. हम भी सोचने लगे थे कि यदि कुछ राजनीतिक विरोधियों, प्रतिवादियों के अधिकार ख़त्म हो जाएँ तो क्या? यदि कुछ अल्पसंख्यक नष्ट हो जाएँ तो क्या? राष्ट्रीय विकास के रास्ते में यह होता है. दूसरा हमें लगा कि यह सब देर तक और दूर तक नहीं चलेगा. हिटलर ने हमें जो समझाया गया, वही हमने मान लिया. कि देश ख़तरे में है, कुछ सख़्त क़दम उठाने होंगे. कठोर उपाय करना होंगे. संदेश दिया गया- ‘आगे बढ़ो.’ जैसे यही चाबी थी.
यही कूट संकेत था, यही पासवर्ड: ‘गो फॉरवर्ड.’
कुचलते हुए भी आगे बढ़ो.
नतीज़ा यह हुआ कि हम इस गर्वीली आकांक्षा में जंगली हो गए.
घृणा और ताक़त ने हिटलर को विस्मयकारी नेता बना दिया. जर्मनी का ही नहीं, संसार का बड़ा नेता. कई देश जर्मनी के मित्र बने, उन्होंने हिटलर की साम्राज्यवादी, हड़प नीति में साथ दिया. जब तक हमें अहसास होता कि हम कितने ख़तरे में हैं, पानी नाक तक आ चुका था. फिर हमें लगा कि यह एक छोटा-सा दौर है, जल्दी ही गुज़र जाएगा. लेकिन यह छोटा-सा दौर जीवन जीने के तरीक़े में बदल गया. यह समझने में देर लगी कि घृणा कुछ समय की बात नहीं होती, वह प्रवेश कर ले तो फिर जीवन-प्रणाली हो जाती है. इसलिए अब मैं यहाँ, अपने ही वकील की, मेरे बचाव पक्ष के ऐडवोकेट की यह जिरह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हूँ जो मुझे बचाने के लिए कह रहा है कि थर्ड राईख- नाज़ी शासन ने यह सब जनता की भलाई के लिए किया था. मानो बंध्यकरण का अभियान देश के भले के लिए था, जैसे कोई यूहदी यदि आर्यन लड़की को स्नहेवश भी छुएगा तो बलात्कारी माना जाएगा. कि यहूदी होना भर मुसीबत की जड़ मान लिया जाएगा. हम भी उन अपराधों में शामिल रहे. हमें यह शर्मिंदगी स्वीकार करना चाहिए. चाहे इस बात में कितनी भी तकलीफ़ क्यों न हो.
आज यह कहना कि हमें चीज़ों का संज्ञान या अंदाज़ा नहीं था, झूठ है. कई प्रकरणों में हम पहले से मन बना चुके होते थे कि तथाकथित राष्ट्रहित में क्या निर्णय करना है. विधर्मी को, अल्पसंख्यक को अपराधी ठहराना है. यही देशसेवा है. हमें अच्छी तरह पता था कि हमारा नेता घृणा का प्रचारक है, हम देख रहे थे कि ‘ख़ास’ पड़ोसियों की, लोगों की सरेबाज़ार हत्याएँ हो रही हैं. लोगों को ट्रेनों में ठूँसकर, जानवरों से भी बदतर और अधिक क्रूर तरीक़ों से विस्थापित किया जा रहा है. उन दिशाओं में भेजा जा रहा है जहाँ से आगे यम की दिशा है. जहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं, सिर्फ़ मृत्यु है. उनकी चीख़ें सुनकर भी अगर आज हम कहते हैं कि हमें कुछ अंदाज़ा नहीं था, कि अरे, इतना ग़लत हो रहा था, तो क्या हम सब मूक-बधिर और अंधे थे? दरअसल, कई बार हम चीज़ों को इसलिए भी नहीं जानते थे क्योंकि हम जानना नहीं चाहते थे. क्योंकि इसी में हमारी व्यक्तिगत भलाई थी, इसी में हमारा निजी जीवन सुरक्षित था. हो सकता है हमें अंदाज़ा न रहा हो कि लाखों लोगों को गैस चैम्बर्स में मारा जा रहा है लेकिन हज़ारों लोगों का अनुमान तो था ही. मगर इस कम-ज़्यादा संख्या से हमारा अपराध क़तई कम नहीं होता है.
अब न्याय मंत्रालय को, देश को, संसार को सत्य बताने का वक़्त आ गया है. मैं एक न्यायाधीश, अपने सह-न्यायाधीशों के बारे में, जो यहाँ सह-अभियुक्तों की तरह बैठे हैं, मेरी जानकारी अनुसार कहना चाहता हूँ कि इन्होंने सत्ता के अनुकूल निर्णय देकर अकूत संपत्तियाँ बनाईं. ये नफ़रत और विद्वेष से भरे हुए थे. ये भ्रष्टाचार के ख़तरनाक उदाहरण थे. इन्होंने अपने को ‘सत्ता की मरज़ी’ के हवाले कर दिया था. और मैं!! मैं ख़ुद सब जान-समझकर भी इनके साथ बना रहा. इस क़दर कि आख़िर मैं एक अपवित्रता में, विष्ठा में तबदील हो गया, क्योंकि मैं इनका साझीदार हुआ.
मेरी यही स्वीकारोक्ति है.
(आठ)
बचाव पक्ष के वकील ने माथा पकड़ लिया है.
इस स्वीकारोक्ति ने उसके काम को कठिन बना दिया है. लेकिन वह निष्कंप खड़ा होकर कहता है- मी लॉर्ड, इस बयान के बाद भी मेरा पक्षकार अपराधी नहीं है. वह अनावश्यक अपराध-बोध में उलझ गया है. यदि अपराध-बोध ही अपराधी होना है तो मैं फिर कहता हूँ कि यह पूरा जर्मनी दोषी है. बार-बार कहूँगा कि संसार के वे सारे देश अपराधी हैं जो हिटलर के साथ खड़े हुए, क्योंकि यह बोध सबको, इस पूरे विश्व को था कि हिटलर की हरकतें और मंशाएँ क्या थीं. जिन्होंने अपने-अपने यहूदियों को सौंप दिया कि लो, इनका जो करना हो करो. जबकि हिटलर की किताब ‘मेरा संघर्ष’ पूरी दुनिया के सामने थी. हिटलर का ऐजेंडा संसार भर के समक्ष था. सबको पता था, सबको अनुमान था कि हिटलर यहूदियों का, अपने विरोधियों, कम्युनिस्टों, बुद्धिजीवियों का क्या करने जा रहा है. इसलिए संसार के बाक़ी देश भी इस जवाबदारी से नहीं बच सकते. वे सब भी समतुल्य अपराधी हैं. सोवियत संघ ने संधि की. यूरोप के अनेक देशों ने हिटलर से मित्रता की या आत्मसमर्पण कर दिया. इंग्लैंड में चर्चिल आकांक्षा कर रहा था कि काश, उसके देश में भी एक हिटलर होता. उच्च धर्म संस्थाएँ हिटलर का सम्मान कर रही थीं. उसे वैधता दे रही थीं. वेटिकन सिटी भी.
सर्वोच्च धर्म संसद ने उसे प्रतिष्ठा दी.
तो फिर आप इन सबको अपराधी ठहराइए.
और अमेरिकन उद्योगपति, जो अपने कारख़ानों में अस्त्र-शस्त्र बनाकर हिटलर को भेज रहे थे, विपुल मुनाफ़ा कमा रहे थे. यदि किसी एक देश में तानाशाह आता है, अत्याचार करता है और संसार के बाक़ी सक्षमजन चुपचाप देखते हैं, उसे सहयोग देते हैं तो वे सब एक साथ दोषी हो जाते हैं. उनके अपराधों का व्यास इस पृथ्वी के व्यास के बराबर हो जाता है, उसका क्षेत्रफल पृथ्वी के रक़बे के बराबर और उसका भार धरणि के भार के बराबर. तो फिर आप इस पूरी वसुंधरा को दोषी ठहराइए. उस नाज़ी जर्मनी में सेना सबसे प्रमुख थी. जो सेना के लिए ठीक होगा, वही देश के लिए इसलिए वही न्यायाधीशों को भी करना पड़ा. सेना और सत्ता के ख़िलाफ़ कौन जा सकता है? केवल देशद्रोही. ये न्यायाधीश तो क़ानून देखते थे. यदि क़ानून ऐसे थे कि उनसे न्याय संभव नहीं था तो न्यायाधीश कैसे दोषी हो सकते हैं??
आप कहते हैं कि यह मानवता के प्रति अपराध हुआ है. बिल्कुल हुआ है लेकिन वह तो युद्ध में भी होता है. सेनाएँ अपने देश की नेतृत्वकारी राजनीतिक इच्छाओं का और उनके आदेशों का पालन करती हैं तो क्या उन पर भी मुक़दमे चलाए जाएँगे? सबका कोर्ट-मार्शल कर दोगे? नहीं. तो फिर न्यायाधीशों पर क्यों? यहाँ जो हुआ वह यहाँ, इस देश के क़ानून से हुआ, उसका फ़ैसला आज आप अंतर्राष्ट्रीय क़ानून से नहीं कर सकते. इन न्यायाधीश महोदय का अपराध-बोध दरअसल पूरे संसार के अपराध-बोध का संस्करण है. यदि यह अंतर्राष्ट्रीय अदालत है तो इस अपराध-बोध के आधार पर पूरे संसार को सज़ा सुनाइए.
आप केवल यहाँ बैठे न्यायाधीशों को अपराधी नहीं ठहरा सकते.
(नौ)
फ़ैसले की घड़ी आ गई है. यह कठिन फ़ैसला है.
ये साधारण अपराध नहीं थे. ये साधारण यातनाएँ नहीं थीं. ये साधारण हत्याएँ नहीं थीं. ये सरकार द्वारा संयोजित, सरकारी तंत्र की क्रूरता और अन्याय से संभव हुईं. न्यायाधीशों की साझेदारी से हुईं. नैतिकता और क़ानून के आधारभूत सिद्धांतों के उल्लंघन से हुईं. यदि मूलभूत न्यायिक नीतियों का, मर्यादाओं का ध्यान रखा जाता तो मनुष्यता की हत्या न होती. बचाव पक्ष कहता है कि दूसरे लोग भी अपराधी हैं. कि यह पूरी सभ्यता प्रतिवादी है. आरोपों के घेरे में है. लेकिन इससे यहाँ बैठे न्यायाधीश, जिन पर यह मुक़दमा चल रहा है, वे निर्दोष नहीं हो जाते. दूसरों के अपराध गिनाने से आप निरपराध साबित नहीं हो सकते.
इन न्यायाधीशों ने न्याय के आसन पर बैठकर, अमानवीय, घातक क़ानूनों का क्रियान्वयन किया, आदेश दिए कि लोगों को निष्कासित किया जा सके, उन्हें मारा जा सके, यह तो जर्मनी के क़ानून के अनुसार भी उचित नहीं था. यह ‘विवेकहीन आज्ञाकारिता’ थी. सभ्य समाज में, फ़ौजदारी क़ानून का सिद्धांत है कि जो अपराध करता है, अपराध होने में सहायक होता है, उसका औचित्य बनाता है, उसे प्रेरित करता है, उसे अभय करता है, वे सब अपराधी होते हैं. हम इसी सुभाषित को आधार बनाते हैं. कुछ न्यायाधीश यदि सत्ता द्वारा की जानेवाली हत्याओं को रोक नहीं सके तो वे उस शृंखला का हिस्सा हुए. जब देश को बचाने के लिए एक अधिक नैतिक, जवाबदार कार्रवाई की अपेक्षा सभी लोकतांत्रिक निकायों से, उनके कार्यपालकों से, संस्थानों से, न्यायालयों से थी तो वे अपने वास्तविक कर्त्तव्य और नैतिक मूल्यों को भुलाकर, इरादतन इन अपराधों के भागीदार हो गए.
और ये लोग आमजन नहीं, विद्वान, क़ानून-संविधान के ज्ञाता थे. राजनीतिक कारणों से लोगों को सताया जा रहा था, समाज में आपसी मित्रताओं और विश्वास को नष्ट किया जा रहा था, मासूम बच्चों तक की हत्याएँ की जा रही थीं, यह सब केवल तब होता है जब संस्थाएँ और जवाबदार लोग देश को किसी एक व्यक्ति का पर्याय मान लेते हैं. और मुसीबत को गले-गले तक आने देते हैं. तब ही यह संभव होता है कि सत्ता अपने ही देश के चयनित निवासियों से शत्रुवत व्यवहार करने लगती है. जनता को भी बरगलाने में सफल हो जाती है, यह कहते हुए कि यह हमारे बहुसंख्यक जीवन के लिए ज़रूरी है. दृढ़, मानवीय निर्णय लेकर न्यायाधीश इसमें हस्तक्षेप कर सकते थे. उनके पास इसके लिए पर्याप्त क़ानून और विवेक था. ‘एक आदमी का जीवन भी बहुमूल्य है’- अफ़सोस कि इस मूल्य को ताक़ पर रख दिया गया. अब इसे राष्ट्रहित में बताना एक मज़ाक़ है.
न्यूरम्बर्ग की यह अदालत 3-1 से अपना निर्णय दे रही है:
सभी न्यायाधीशों को आजीवन कठोर कारावास दिया जाता है. जो लाखों लोग मारे गए, वे किसी प्राकृतिक आपदा में नहीं, न्यायालय में किए गए दस्तख़तों से मारे गए. अन्याय से मारे गए. हो सकता है कि राजनीतिक कारणों से ये सज़ायाफ़्ता चार-पाँच बरस में ही बाहर आ जाएँ. यह समय ही ऐसा है. राजनीतिक दृश्य ही ऐसा है. तमाम दबावों और विकर्षणों के बीच भी इस अदालत ने अपना निर्णय, क़ानून सम्मत और उच्च नैतिकताओं, उच्च आदर्शों को ध्यान में रखकर दिया है. हो सकता है इसकी आलोचना हो. संभव है यह एक अलोकप्रिय फ़ैसला हो. मुमकिन है इस पर विवाद किया जाए. इसमें भले ही बैंच का संख्या-बल पूरा नहीं है लेकिन न्याय-बल संपूर्ण है. यही फ़ैसला है.
इसी में न्याय की विजय है.
यथास्थान प्रयुक्त पंक्तियों हेतु क्रमश: विस्वावा शिम्बोर्स्का, तुलसीदास, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे और ‘विवेकहीन आज्ञाकारिता’ पद के लिए हाना अरेंट का आभार.
Judgement at Nuremberg, 1961/Stanley Kramer.
कुमार अंबुज (जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’, ‘उपशीर्षक’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित. कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.kumarambujbpl@gmail.com
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मूल्यवान आलोचना-समीक्षा, स्मृतिखंड और कविताएँ दृश्य पर लाने में ‘समालोचन’ निरंतर रूप से सक्रीय है। एक के बाद एक ऐसी रचनाएँ सामने लाते हुए, जो न केवल महत्त्वपूर्ण हैं बल्कि जिनसे गुजरना अपरिहार्य है। वेबसाइट एक सार्थक – और आवश्यक – भूमिका निभा रही है।
बहुत ही शानदार और दृष्टि-सम्पन्न आलेख।
हिटलर के ज़माने में वहाँ के फ़ौजियों द्वारा यहूदियों पर किये गये अत्याचार और क़त्ल युगों तक याद किये जाते रहेंगे । यह अनंत कथा है । समालोचन की आरंभिक पंक्तियों में प्रार्थना, पूजा, एक क़ौम के लिये घृणा को देशभक्ति ठहराया गया है । आज भी ऐसे संगठन और हैं जो किसी व्यक्ति की अगुआई में सेवा के कार्य करते हैं । वे सड़कों को साफ़ करते हैं । नगर पालिकाओं के सफ़ाई कर्मचारियों द्वारा बनाये गये मिट्टी के ढेरों को बनाकर भी नहीं उठाते तो सेवा करने वाले तानाशाह के अनुयायी उन जमी हुई मिट्टी के ढेरों को हटा देते हैं । राम रहीम सिंह बन जाते हैं । ऐसे अनेक राम रहीम हैं । ये बलात्कारी हैं । न थकने वाले बलात्कारी ।
हिटलर के जर्मनी का न्यायाधीश अपने विवेक से काम ले सकते थे । अपने विवेक से काम न लेना उन्हें भी अपराधी बनाता है । आज भी अपराधी के खिलाफ़ गवाही न देने वाले हर गाँव, क़स्बे, नगर और महानगर में मिल जाएँगे । हमारे नगर की आबादी 1.25 लाख है । यहाँ भी डकैत, अवैध रूप से क़ब्ज़े (अकसर क़ब्ज़े अवैध होते हैं) हटाये जाने के बदले रक़म उगाते हैं । पार्षद बन गये हैं । जेल गये थे तो पत्नी पार्षद बन गयी ।
हिटलर के ज़माने में क़रीब क़रीब सभी फ़ौजी भी तानाशाह की तरह काम करते थे । मेरी आँखों के समक्ष फ़िल्म तैर रही है । जिन्होंने देखी होगी वे अपना तजुर्बा बतायें । मैंने Shindler’s List देखी थी । उस फ़िल्म में गैस चेंबर थे । भागते हुए यहूदियों के जूते और चप्पलें थीं । बच्चों को भी नहीं बख़्शा गया । एक नस्ल बर्बाद कर दी गयी । दृश्य भयावह था । जैसे हिटलर की जर्मनी में एक वकील निष्कम्प होकर अपने मुवक्किल का बचाव कर रहा था ।
यहूदियों के नरसंहार पर हॉलिवुड में कई अच्छी फिल्में बनीं।
यह फिल्म उस खौफ़नाक दौर के न्यायतंत्र की असफलताओं को उजागर करती है। न्यायाधीशों को दंडित किया जाना उचित था।इसके पक्ष-विपक्ष में दी गई दलीलें तार्किक लगीं।निस्संदेह इन यक्ष-प्रश्नों पर अंम्बुज जी का वैचारिक मंथन पठनीय है। उन्हें साधुवाद !
यह एक शानदार लेख है । अवश्य पढ़ा जाने वाला । इस लेख में हमारा आज भी है । —– ——– ———- ‘इन न्यायाधीशों ने न्याय के आसन पर बैठकर, अमानवीय, घातक क़ानूनों का क्रियान्वयन किया, आदेश दिए कि लोगों को निष्कासित किया जा सके, उन्हें मारा जा सके, यह तो जर्मनी के क़ानून के अनुसार भी उचित नहीं था. यह ‘विवेकहीन आज्ञाकारिता’ थी. सभ्य समाज में, फ़ौजदारी क़ानून का सिद्धांत है कि जो अपराध करता है, अपराध होने में सहायक होता है, उसका औचित्य बनाता है, उसे प्रेरित करता है, उसे अभय करता है, वे सब अपराधी होते हैं. हम इसी सुभाषित को आधार बनाते हैं. कुछ न्यायाधीश यदि सत्ता द्वारा की जानेवाली हत्याओं को रोक नहीं सके तो वे उस शृंखला का हिस्सा हुए. जब देश को बचाने के लिए एक अधिक नैतिक, जवाबदार कार्रवाई की अपेक्षा सभी लोकतांत्रिक निकायों से, उनके कार्यपालकों से, संस्थानों से, न्यायालयों से थी तो वे अपने वास्तविक कर्त्तव्य और नैतिक मूल्यों को भुलाकर, इरादतन इन अपराधों के भागीदार हो गए.’
ये कहें तो अकल्पनीय आश्चर्यजनक अद्भुत लेखन है कुमार अम्बुज जी का । सदैव की भांति मैं अभिभूत हूं ।।
कुमार अम्बुज का का यह आलेख इस लेखमाला में प्रकाशित अन्य लेखों की तरह हिंदी पाठकों के लिए एक नयी दृष्टि लेकर आया है. हिंदी के पढ़े-लिखे समाज की यह पहचान-सी बन गई है कि वह खास तरह के लोगों को ही पढ़ता है और अगर कोई हिंदी लेखक पश्चिमी साहित्य का ज़िक्र करता है तो उसे लगता है कि इसे पढ़ने से बेहतर है, वह मूल को क्यों न पढ़े या देखे; और वह अपने निजी चश्मे से सारे विश्लेषण को देखने लगता है. अनेक मामलों में मेरी कुछ मित्रों से बातें हुईं. उनका कहना था कि फलां किताब या फिल्म मैंने देखी या पढ़ी है, मगर मैं उनकी बातों से सहमत नहीं हूँ. वो दो-चार और अंग्रेजी किताबों का नाम सुझाएंगे और कहेंगे, उनसे कहिये, पहले इन रचनाओं से गुजरें. अब इस आपत्ति का तो कोई जवाब नहीं है न. हम घोड़े की बात कर रहे थे, वो खच्चर की जेनेटिक्स लेकर आ धमके.
जिस फिल्म को लेकर यह लेख लिखा गया उसे प्रदर्शित हुए साठ साल बीत चुके हैं. जाहिर है कि इस बीच दुनिया भर में उसे लेकर हजारों लोगों ने लिखा होगा और उसकी खूब चर्चा हुई होगी. लेकिन मुझ जैसे हिंदी पाठक के लिए, जिसकी गति सिर्फ हिंदी में है, उसकी नज़र में तो यह आलेख पहली बार सामने आया है. मैंने उस फिल्म के मर्म को इस आलेख के जरिए पहली बार समझा और पढ़ने के बाद अन्दर तक हिल गया. मुझे तो वे न्यायाधीश, जिनके ख़िलाफ यह मुकदमा है वे सब हिंदी के तथाकथित मठाधीश दिखाई दिए जो कोलोनियल भाषा और संस्कृति के अलावा सभ्यता का पैमाना किसी और को मानते ही नहीं. हिंदी के वे तथाकथित विद्वान पंडित बात भी उनकी भाषा में करते हैं, मज़बूरी हुई तो हिंदी में बात कर तो देते हैं लेकिन सारे उदाहरण और चर्चाएँ उन लोगों की करते हैं जिनसे हिंदी समाज का आम पढ़ा-लिखा आदमी कतई अनभिज्ञ है. ऐसे लोगों ने हिंदी समाज का दिमाग ऐसा गढ़ दिया है कि उसे यह जाहिर करने में शर्म लगती है कि उसने उन पश्चिमी लेखकों को नहीं पढ़ा है या उसमें उनकी भाषा का पाठकीय संस्कार नहीं है. ऐसा कहने वाले को निरीह नज़र से देखा जाता है हिंदी समाज में. बाकी जगह ऐसा नहीं है, न भारत में, न विदेशों में. जितनी जगह मैं रहा हूँ, उनके हवाले से तो कह ही सकता हूँ.
मुझे लगता है कि भारत के वर्तमान राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल को समझने के लिए कुमार अम्बुज के इस विश्लेषण से बेहतर और कोई मिसाल आज के दिन हमारे पास नहीं है. बिना किसी व्यक्ति या घटना का नाम लिए वह हमारे बीच का दर्दनाक परिदृश्य उघाड़ कर रख देते हैं. कहाँ तो इसके लिए हमें उनका ऋणी होना चाहिए, मजेदार बात यह है कि हिंदी के लोगों के दिमाग में ईर्ष्या की चिंगारियाँ उठने लगी हैं. शायद यही कारण है कि हम आज तक सांस्कृतिक रूप में गुलाम हैं, शायद पहले से ज्यादा. शुद्धतावादियों ने तो अपने हथियारों से हजारों सालों तक हमारी ज़बान और मूल निवासियों की नस्ल ही कुचल डाली थी, अब दबे-कुचले लोग सिर उठाकर अपनी बात कहने की जुर्रत कर रहे हें तो भाषा और संस्कृति का यह आतंक सामने आ गया है.
मगर आम जन-भावनाओं की जो नयी आँधी आ रही है, उसके सामने सब-कुछ उलट-पुलट हो रहा है और नयी भाषा, नया समाज, नए सरोकार उभर रहे हैं. इस आंधी को रोकना किसी के वश में नहीं है.
मुझे कुमार अम्बुज की यह लेखमाला इसी दृष्टि से एक बड़ी लगती पहल है और हिंदी के पंडितों के लिए ऐसी चुनती है जिसे पार कर पाना कठिन है.
बहुत त्रासद फिल्म की सार्थक स्तरीय समीक्षा। कुमार अंबुज अपने पूरे फाॅर्म में हैं इसमें। कुमार अंबुज और समालोचन दोनों को बधाई 🙏
‘Judgement at Nuremberg फिल्म पर आधारित कुमार अम्बुज का यह आलेख कई अर्थों में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह फिल्म की बारीकियों से ऊपर उठकर हमें एक ऐसे सामयिक बौद्धिक विमर्श के लिए प्रेरित करता है जिसमें फिल्म देखना या न देखना बहुत मायने नहीं रह जाता। न्यायिक फासीवाद के जिस स्वरूप को यह आलेख छूता है,उसमें हमारे आज के समय के लगभग सभी ज़रूरी सवाल शामिल हैं। देखा जाए तो ‘डर उगाने वाले’ जिस समय में हम खड़े हैं उसमें अपनी विवशताओं, समझौतों और ‘सुनहरी खामोशी’ के बीच यह सवाल हर साधारण व्यक्ति से लेकर न्याय बांटने वालों तक हरेक की अंतरात्मा को परेशान करना चाहिए कि इसमें हम कहाँ हैं और क्या कर रहे (या नहीं कर रहे) हैं! कुमार अम्बुज और समालोचन को इतने सार्थक आलेख के लिए बहुत बधाई! सवाल है कि अपने जीते जी क्या हम ‘न्यायमेव’ जयते का वह दृश्य भी कभी देख पाएंगे जिसे न्यूरेमबर्ग की विद्वान जूरी ने बरसों पहले इस फिल्म में हमें दिखाया था?
जजमेंट एट न्यूरम्बर्ग फिल्म पर कवि कुमार अम्बुज की इस लंबी टिप्पणी को मैं उनकी एक लंबी कविता की तरह पढ़ता गया। एक तरफ देश में निर्मित होता तानाशाह वर्तमान है तो दूसरी तरफ वह अतीत जिसकी तानाशाही के लिए खूब भर्त्सना की जाती है । जिसे हर दृष्टि से अनुचित और अन्यायकारी माना गया है।
मेरी आंखों के सामने दो समानांतर कहानियां चलती रहीं । एक कहानी जो लिखी जा चुकी है, दूसरी जो लिखी जा रही है। Staniey kramer की 1961 में बनी फिल्म Judhgement at Nuremberg पर
कवि कुमार अम्बुज की यह लंबी टिप्पणी एक जरूरी हसतक्षेप है।
यहूदियों की नृशंश हत्याओं में हिटलर का हाथ है, शायद इसलिए हत्यारों को बरी कर दिया जाता है। ‘ असंदिग्ध विवेक और मनुष्यता के अभाव में हर निर्णंय गलत होने को अभिशप्त है।’
‘न्यायाधीश चाहते तो तानाशाह के ताकतवर होने से पहले, उसके सर्वोच्च पद पर पहुंचने सै पहले ही रोक सकते थे।’ आदि वाक्यांश बहुत देर तक हमारा पीछा करते हैं और देश के वर्तमान हालात पर सोचने पर विवश कर देते हैं।
यह फिल्म की ताकत है कि वह तानाशाह होते जा रहे किसी भी देश की व्यवस्था की बैंच पर हथौड़ा चलाती है और उसे सावधानी करती है।
फिल्म में जजों के दोषी होने और उन्हें दोषमुक्त मानने की न्याय प्रक्रिया के दौरान फिल्मकार ने जो दलीलें दीं हैं, वे मानवीय और विवेक सम्मत हैं।
जजों के न्याय करने के लिए
उनके शपथ पत्र की शब्दावली ही एक गाइडलाइन है, मगर इसका वे पालन नहीं करते। जिसमें लिखा है-अपने देश के बने कानून के अनुसार निर्ण़य करेंगे। यही मूलतत्व है, यही आधार है। यही आलंब है।’
बिलकिस बानो कांड के अपराधियों को रिहा कर दिया गया है। देश की पूरी न्याय प्रक्रिया सत्ता पक्ष में खड़ी हो गई है कि वे देश के सर्वोच्च नेता की आज्ञा मानेंगे। राजाज्ञा पालन दोष नहीं।’
फिल्म में तानाशाही के नृशंश और अमानवीय कृत्यों को बचाया जा सकता था, यदि जनता में अनेक बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया होता।
इसमें अनेक सामयिक पहलू हैं, जो वर्तमान व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं।
न्यायाधीश अपने निर्णय को लेकर बचाव करते नज़र आते हैं, जब वे कहते हैं, ‘हम न्यायालय की दया पर नहीं, तर्कों, और न्याय दर्शन की नींव पर अपना पक्ष रखते हैं।’
यह फिल्म न्याय प्रक्रिया में आड़े आनेवाली और उसका मार्ग प्रशस्त करनेवाली सभी तरह की स्थितियों-परिस्थतियों का जिक्र किया गया है फिल्मकार ने। कुमार अम्बुज ने उन सबका उल्लेख असाधारण तरीके से किया है।
फिल्म पर कुमार अम्बुज की का आलेख एक शिलालेख है-अतीत और वर्तमान की पूरी न्याय प्रक्रिया पर।
उन्हें बहुत धन्यवाद।