कंचन सिंह की कविताएँ |
स्थगित परीक्षा तिथि
मेरी नींद में सूरज की तरह जलता है
लाइब्रेरी का रीडिंग लैंप
किताबें पढ़ी जा चुकी हैं
हर पन्ने
हर पंक्ति को हाईलाइट किया जा चुका है
फिर भी फड़फड़ा रहे हैं कुछ पन्ने
यह कैसा स्वप्न-दृश्य है
कि पाँच साल बाद आई है कोई वैकंसी
और लोग
लूटने निकल पड़े हैं
बायोडेटा की जगह
बड़े सूटकेस और हथियार लिए
मेरे पैर धँस गए हैं दलदल में
न आगे बढ़ रहे
न पीछे लौट पा रही
मैं पुकारती हूँ
लेकिन मेरी आवाज़ कंठ में अटक गई है
किसी स्थगित परीक्षा तिथि की तरह.
छूटना
कुछ धागे हमसे उलझते हैं
तो कुछ टूट जाते हैं
हमसे हाथ ही नहीं छूटता कुछ आवाजें भी
छूट जाती हैं
बस, ट्रेन, जहाज तो छूट ही जाते हैं
समय से न कहो तो कुछ अर्थ भी
शब्दों से छूट जाते हैं
आदत छूट जाती है
प्यार छूट जाता है
सपने छूट जाते हैं
अपने छूट जाते हैं
लेकिन
छूट जाने का जो डर है
हर बार छूटने पर भी नहीं छूटता
एक नया चेहरा लेकर हम पर टूटता है.

उस लड़की को सोने दो
गौरैया
उसके सिरहाने न फुदको
सारा तामझाम रखकर थककर
वर्षों बाद ऐसे सोयी है
वह तुम्हारी आवाज़ को भी ओढ़कर
सो जाएगी
हो सके तो
अपनी छोटी चोंच से
उसके बुरे सपने आहिस्ते-आहिस्ते चुग लो
उसे आज दिन भर कुछ नहीं चाहिए
न चाय न अख़बार
न ही किसी सवाल का कोई उत्तर
आज के दिन
वह कुछ भी साबित नहीं करना चाहती
उसने अपना फ़ोन स्विचऑफ़ कर दिया है
और उसे बस एक नींद चाहिए
एक ऐसी नींद
जिसमें कोई उसे पुकार न सके
जहाँ सपनों की तलाश में उसे भटकना न पड़े
सुनो गौरैया!
फ़िलहाल यह पृथ्वी भी
उसके स्वप्न के अनंत में तैरती एक गेंद है
जिसे एक लंबी उछाल के लिए
किसी और पृथ्वी का सहारा चाहिए.
चार लोग क्या कहेंगे
चार लोग क्या कहेंगे
यह वाक्य
वैताल की तरह सदियों से हमारे कंधों पर रहा
सपनों और आजादी के बीच दीवार चिनते रहे
यही चार लोग
इनका काम हम पर नजर रखना और राय बनाना है
ये धरती-आकाश-पाताल हर जगह हैं
ये सड़क किनारे गुमटी में बैठे हुए हैं
और चमगादड़ की तरह
पेड़ से उलटे लटके हुए हैं
ये अपनी कब्र से उठकर भी
हमारे बारे में अपनी राय देने चले आते हैं
बिटिया जवान हो गई ब्याह कर दो जल्दी से
घर वालों को कुछ लड़कियों के उदाहरण से
समझाते हैं
मोबाइल में वीडियो रील्स
और न्यूज दिखाते हैं
यही चार लोग देह को लरियाई नजर से देखते हैं
और यही चरित्र की कुर्सी पर बैठकर
अदालत लगाते हैं
जब तक चुप रहो या उनके मन की करो
तो ‘अच्छी’ कहलाते रहो
जवाब दे दो
‘ज़्यादा पढ़ लिख गई हो’ का ताना पाओ
बदज़ुबान, बदचलन और फेमिनिस्ट समझी जाओ.

सड़क पर बारिश में भीगती स्त्री
बारिश में भीगती हुई पैदल चल रही है एक स्त्री
सड़क के किनारे पर उसके कदमों के साथ
छपाक-छपाक कर रही है दुनिया
कंधे पर झुका बैग और हथेली में भीगा टिफ़िन
भीगे बालों से टपकती बूंदें
उसके चेहरे से फिसलते समय की तरह
धीरे-धीरे ढल रही हैं, घुल रही हैं भीतर
ऑफिस से लौटी है वह थकी हुई
पर उसके कदम थकान को धोते हुए
चलते जाते हैं
छप-छप करते हुए
लोग देख रहे हैं आँखों से इरादों से
छाते के नीचे से
मोबाइल कैमरे के पीछे से
कुछ छज्जों से
कुछ बाइक की रफ्तार थामकर
कुछ बस की खिड़की से
कुछ सिर्फ आँखों से नहीं अपने भीतर के अंधेरे से भी
कुछ की आँखों में सवाल हैं और कुछ में सिर्फ़
गीली देह की कल्पनाएँ
लेकिन वह स्त्री
इस सब से बेख़बर
जानती है नज़र और निगाह में फर्क
सुन लेती है छींटों के पीछे की फुसफुसाहटें
फिर भी उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता है
वह हवा में दोनों हाथ फैलाए तेज़ करती है कदम
बारिश की लय में कोई गीत गुनगुनाते हुए भीगती चली जा रही है
वह चलती चली जाती है इस कविता की नायिका बनकर
बस अपने आप में भीगती सिहरती और हँसती हुई
उसे घर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं है
उसका आत्मविश्वास उस पर
एक अदृश्य छाते की तरह तना हुआ है.
इस कविता में थकी हुई स्त्री अकेली नहीं है
दिन भर के काम से घर लौटी स्त्री
जब आते ही
रसोई की ओर जाती है
देखती है उसका पति पहले ही वहाँ है
और एक ग्लास पानी देते हुए कहता है-
“लो पानी पियो, और बैठो जरा चाय बना रहा हूँ”
बच्चों ने बिखेर रखी हैं घर की चीजें
लेकिन एक मुस्कान के साथ आते ही लिपट जाते हैं
एक दूसरे की शिकायतें कहने लगते है
स्कूल की बाते बताते हैं
फिर दादा-दादी के पास खेलने चले जाते हैं
जब रात में वह रोटियाँ बनाती हैं
पति बगल में ही खड़ा आटे को थोड़ा-थोड़ा
अपनी हँसी से बीच-बीच में गीला करता है
यहाँ-वहाँ प्यार भरे स्पर्श करता है
स्त्री ‘अरे!’ कहते हुए सब्जी के नमक को चखकर बताने को कहती है
वह सलाद काटता है
जब उसे सर्दी, जुकाम, बुखार होता है कभी देर रात
तो वह अपनी माँ के नुस्खे वाला काढ़ा बनाता है
जो कसैला नहीं प्रेम से भरा होता है
और देह नहीं आत्मा को गर्म करता है
बच्चे तकिए के नीचे उसके लिए चिट्ठियाँ छुपाते हैं
माँ, तुम सबसे सुंदर हो और बहुत प्यारी
सुपर वुमन हो
पाठको!
आप सोच रहे हैं यह किस ग्रह की कविता है ?
तो आपको बता दूँ यह हमारे ही आस-पास की
और हमारी ही कविता है
और मुझे ख़ुशी है कि मेरी कविता में थकी हुई स्त्री
अब अकेली नहीं है
उसके सपने और संघर्ष उसके परिवार का गीत हैं
जिसे सब मिलकर गाते हैं धीरे-धीरे
और पूरे विश्वास से.
हम हर सुबह फिर से जीना शुरू करते हैं
नाखून
रोज़ घिसते हैं
और यह देह भी घिसती है
प्रतिदिन समय की खुरदरी सतह पर
नाखूनों के कोरों में
फँसी रहती है ज़िन्दगी जैसे फाँस
चाहे जितना भी जतन करो कसक बची रहती है
हमारे नाखूनों पर लगा रंग फैशन नहीं है
यह हमारे घिसे हुए सपनों की
एक पतली-सी परत है
हर पॉलिश के नीचे एक अधूरी चीख़ होती है
हर चमक के पीछे एक घुप्प अँधेरा
हर मुस्कराहट के पीछे
किसी देह से रगड़ खाई थकान होती है
हम अपने नाखून काटते हैं
जैसे अपने भीतर उग आए क्रोध
प्रतिकार और दुख को सभ्यता में ढाल रहे हों
लेकिन ये नाखून फिर उग आते हैं
चुपचाप बिना पूछे
ठीक उसी तरह
जैसे हम हर सुबह फिर से जीना शुरू करते हैं.
सुबह
सुबह
वह स्त्री है
जो हर दिन
सबसे पहले उठती है
दिन भर खटती है
और अपनी ही धूप में जलती
…ढलती है!
पंक्ति जो कभी नदी की तरह बहती थी हमारे भीतर
(यौन हिंसा से पीड़ित युवा कवयित्री के लिए)
कविताओं में खिले सारे फूल उदास हैं
तितलियों के पंख बोझिल हैं
चिड़िया कराह रही हैं
कम हो रही है चहचहाहट
जैसे कंठ से छीन रहा हो कोई कविता
लड़की जो शब्दों से संसार रचने आई थी
फ़िलहाल चुप है सबकुछ देखते हुए
उसकी हथेलियाँ काँपती हैं
हर बार कलम थामते हुए
अभी भी उल्टे उसे ही सवाल घेरते हैं
महान साहित्यिक गालियों की सच्चाइयों ने
हम सबको भीतर तक झकझोर दिया है
लेकिन प्रतिरोध में तनी हुई हैं कुछ मुट्ठियाँ
जो आश्वस्ति की तरह उम्मीद की पंखुड़ियों से
इंद्रधनुष को झरने नहीं दे रही हैं
उसकी जगह ख़ुद के होने की कल्पना करती हूँ
तो मेरे भीतर अंधेरे उतरने लगते हैं
और चुप्पियाँ घेर लेती हैं
ऐसा लगता है जैसे किसी ने कविता के गर्भ में ही
चुभा दिया हो विष बुझा तीर
उपमाओं को चीर दिया गया हो बिना किसी विराम चिन्ह के
एक पंक्ति जो कभी नदी की तरह बहती थी हमारे भीतर
अविश्वास, संदेह और आक्रोश से लथपथ है
उसमें जल नहीं बल्कि महान समाज के लिए लज्जा बह रही है.

मकान मालिक हैं या सीसीटीवी कैमरे
कमरा किराए पर देते हुए कहते हैं
“यहाँ कोई दिक्कत नहीं होगी
बेटी की तरह रहो”
उनकी बेटियाँ जो कहीं बाहर पढ़ रही हैं
उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते
जैसे हर लड़की को
उसी साँचे में ढालना हो
मकान मालिक कहते हैं-
“हमें कोई मतलब नहीं है आराम से रहो’
पर आते-जाते अपनी नज़रें हम पर ही
टिकाए रखते हैं
लड़कियाँ आती हैं
कॉलेज, कोचिंग और नौकरी की थकन लेकर
जब दरवाज़ा बंद करती हैं तो मकान मालिक की दीवारें
जासूस बन जाती हैं
हर हँसी, हर फ़ोन कॉल से
वे हमारे बारे में अनुमान लगाते हैं
मकान के बाहर
दोस्त की मोटरसाइकिल की आवाज़
उन्हें असहज कर देती है
सीढ़ियाँ चढ़ते कदमों की आहट से
वे अंदाज़ा लगाते हैं
कौन, कितनी देर बाहर रही
कब लाईट बंद हुई
किसकी आँखें लाल थीं सुबह
रात नौ बजे के बाद “अच्छी लड़कियाँ” बाहर नहीं घूमतीं
“अच्छी लड़कियाँ” कपड़े बालकनी में नहीं सुखातीं
छत पर टहलते हुए बात नहीं करतीं
लड़कों से दोस्ती नहीं रखतीं
ऐसी ही बातों से
मकान मालिक हर लड़की के लिए
चरित्र-पत्र तैयार करते रहते हैं
उनके अहं को चोट लगती है
जब कोई लड़की कह देती है —
“आपको बस किराए से मतलब होना चाहिए”
तब वे टेढ़े मुँह कहते हैं —“यहाँ तो ऐसे ही रहना पड़ेगा”
पर लड़कियाँ
धीरे-धीरे समझ जाती हैं
कि यहाँ सिर्फ किराया नहीं चुकाना पड़ता
बल्कि अपने हिस्से की आज़ादी भी
हर महीने गिरवी रखनी पड़ती है
सच है कई बार हम कमरा किराए पर नहीं लेतीं
एक डर और एक जासूस भी किराए पर ले लेती हैं.
कंचन सिंह सीएमपी डिग्री कॉलेज, प्रयागराज पत्र-पत्रिकाओं में कुछ कविताएँ प्रकाशित |
आचार्य शुक्ल के कथन कि, ‘भौतिक सभ्यता के विकास के साथ कविता कठिन होती जाएगी’ को कंचन सिंह ने सरल किया है। खासतौर से पहली कविता अपने विषय, कहन और शब्द चयन में इसका अच्छा उदाहरण है। स्त्री को लेकर लगभग हर कोई हर जगह लिख रहा है तो उनकी कविताएं भी उसी तरह लगीं हालांकि अच्छी कविताएं हैं। कामकाजी स्त्री के लिए परिवार का प्रेम और सहयोग इस कविता की तरह विरल जरूर है पर असंभव नहीं है। यह प्रेरित करती है। अंतिम कविता भी प्रभावी है स्त्री स्वतंत्रता के पक्ष में उसे किरायेदार जो कि कविता में लगभग नहीं आई है, के रूप में प्रस्तुत करके।
भाषा और उद्देश्य कंचन का स्पष्ट है। अपने विवरणात्मक और दृश्य प्रधान कहन में उनकी कविताएं याद रह जाती हैं। बहुत शुभकामनाएं उन्हें। अच्छी कविताओं से मिलवाने आपका भी शुक्रिया अरुण जी। 🌷
कविताओं में कंचन की संवेदनशील दृष्टि , सरल, सहज भाषा भाव विभोर कर गयी। आज ही सुबह-सुबह जैसे ही “समालोचन” में पढ़ने लगा तो एक एक करके हर कविता को पढ़ता ही चला गया। आंखे नम भी हो रहीं थीं…. और सभी कविताओं को दोबारा फिर पढ़ गया। अरूण जी आपको धन्यवाद, इतनी अच्छी कविताओं को पढ़ाने के लिए। और कंचन जी को बहुत बहुत बधाई।
कंचन सिंह जी की कविताओं ने झकझोर दिया है । सशक्त शब्दों में सच का वीभत्स चित्रण किया ।
समालोचन के प्रस्तुतीकरण पर बधाई शब्द कम है । कविताओं को प्रिंट करा लेता हूँ ।
बहुत अच्छी कवितायें है। विचार, वास्तविकता और जीवंतता के साथ।
अद्भुत अद्वितीय और सराहनीय
कविता में ‘कहन’ की बहुत अहमियत है। विषय तो पुराने हैं, पुराने इस अर्थ में कि इन विषयों को कविताओं में बरता जाता रहा है। बावजूद इसके इन कविताओं में एक फ्रेशनेस है, जो कवि की उपलब्धि है।
कहन में जिस लय की ज़रूरत होती है, जिससे कविता, कविता बनती है, वह यहाँ मौजूद है। कविता और पाठक को बाँधे रखने के लिए इसी लय की ज़रूरत होती है ।
कुछ कविताएँ उनके फ़ेसबुक वाल पर पढ़ी थीं मैंने, यहाँ प्रस्तुत कविताएँ निश्चित रूप से उससे आगे की कविताएँ हैं । कुछ कविताएँ (कुछ ही) यहाँ भी अभी प्रॉसेस में ही दिखीं। लिखना भी एक प्रॉसेस ही तो है। यह निरंतर चलता रहे।
कवि को बधाई और समालोचन को धन्यवाद। समालोचन पर प्रकाशित होने से नए कवि को जो आत्मविश्वास मिलता है, उसका अहसास है मुझे।
कुछ पँक्तियाँ जिन्होंने मोह लिया-
“समय से न कहो तो कुछ अर्थ भी
शब्दों से छूट जाते हैं”
“हो सके तो
अपनी छोटी चोंच से
उसके बुरे सपने आहिस्ते-आहिस्ते चुग लो”
“यही चार लोग देह को लरियाई नजर से देखते हैं
और यही चरित्र की कुर्सी पर बैठकर
अदालत लगाते हैं”
“लोग देख रहे हैं आँखों से इरादों से”(यह पूरा पैरा ही प्रभावी है।)
बहुत अच्छी कविताएं हैं। कहिन में ताजगी है।