कांवड़-यात्रा
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काँवड़ की तीर्थयात्रा पिछले तीन दशकों के दौरान उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली-एनसीआर में वार्षिक परिघटना बन चुकी है. नवें दशक के आरंभ तक कांवड़ लगभग एक अल्पज्ञात यात्रा थी. उस समय यह यात्रा मुख्यत: एक व्यक्तिगत प्रयास हुआ करती थी. तब न कांवड-यात्रियों के ठहरने और भोजन के लिए कोई सामूहिक-संगठित व्यवस्था थी, न ही शासन-प्रशासन इसका कोई नोटिस लेता था. चाक्षुष अर्थ में कहें तो उस समय तक यह यात्रा कोई दृश्य निर्मित नहीं करती थी. लेकिन इन वर्षों में वह उत्तरोत्तर एक विशाल जन-परिघटना बनती गयी है. अब यह यात्रा व्यक्ति-केंद्रित आस्था से बढ़कर उसका सामुदायिक प्रदर्शन बन चुकी है. इस दौरान न केवल श्रद्धालुओं की संख्या में कई गुणा वृद्धि हुई है, बल्कि यात्रा को राज्य की तरफ़ से प्रोत्साहन और सुविधाएं भी मिलने लगी हैं. (1)
मसलन, एक अनुमान के अनुसार सन् 2004 में लगभग 60 लाख लोग काँवड़ यात्रा पर गए थे. (2)
2011 तथा 2012 में यह संख्या बढ़कर एक करोड़ बीस लाख पहुंच गयी. ताज़ा सूचनाओं से पता चलता है कि 2018 में लगभग साढ़े तीन करोड़ कांवडि़यां हरिद्वार पहुंचे थे. 2019 में यह आंकड़ा चार करोड़ के आसपास बताया गया है.(3)
कांवड़ यात्रा के अधिकतर अध्येता उसके एथनॉग्राफिक विवरणों, उसमें विन्यस्त लोकधार्मिकता व शास्त्रोक्त धार्मिकता के द्वंद्व, शहरी नागरिकता की परिधि पर रहने वाले समूहों के सामाजिक-आर्थिक प्रोफ़ाइल (4)
तथा कांवड़-यात्रियों के ‘नैतिक प्रतिरोध’ आदि जैसे पहलुओं पर केंद्रित रहे हैं. (5)
यात्रा के शुरुआती दौर पर नज़र रखने वाले कुछ टिप्पणीकार कांवड़ यात्रा में श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या और उनके अराजक-आक्रामक व्यवहार को एक विकृति की तरह देख रहे थे. उनका मानना था कि कांवडि़यों का यह व्यवहार ‘हिंदू धर्म या जीवन-पद्धति के बुनियादी मूल्यों और समाज के व्यवहार के साथ’ मेल नहीं खाता था. उन्हें कांवड़ के ज़रिये ‘धार्मिक ताकत दिखाने और खम ठोंकने’ की प्रवृत्ति हिंदू समाज में चल रही किसी प्रतिक्रिया की परिचायक लगती थी. (6)
हाल के एक समाजशास्त्रीय अध्ययन में कांवड़ यात्रा को ग्रामीण क्षेत्र में पैठ करती एक ऐसी नव-धामिर्कता के संदर्भ में समझने का प्रयास किया गया है जिसमें गांव-देहात ‘आध्यात्मिकता, व्यक्तिवाद, उपभोगवाद तथा मनोरंजकता का एक विकट घालमेल’ बन गया है तथा जिसके चलते ‘खेती से जुड़े कर्मकाण्डों तथा त्योहारों’ की संख्या घटने लगी है और धर्म ‘ सड़कों तथा सार्वजनिक स्थानों’ पर पहुंच गया है. (7)
लेकिन जनमानस और रोज़मर्रा के मुहावरे में कांवड़ को पौराणिक या प्राचीन यात्रा कहने पर ज़ोर रहता है. इस मामले में जेम्स जी. लोक्टफ़ेल्ड एकमात्र अध्येता हैं जिन्होंने कांवड की कथित प्राचीनता को प्रश्नांकित करने का प्रयास किया है. यह महज़ कांवड़ की ऐतिहासिकता को सही ढंग से प्रस्तुत करने या उसके कालक्रम को दुरुस्त करने का प्रश्न नहीं है. अक्सर होता यह है कि किसी विचार या परिघटना को प्राचीन सिद्ध करने की प्रवृत्ति उसके समकालीन और दृश्यमान चिह्नों, संकेतकों व स्रोतों को चर्चा से बाहर कर देती है. ऐसे में, कांवड़ की प्राचीनता के दावे पर लोक्टफ़ेल्ड की बारीक नज़र और इस यात्रा के उदय और विस्तार की परिस्थितियों से संबंधित उनका विश्लेषण एक नयी व्याख्या प्रस्तुत करता है. ग़ौरतलब है कि अपनी इस व्याख्या में ‘स्थानिक प्रतिस्थापन’ (ट्रांसपोजिशन ऑफ़ प्लेस) की अवधारणा का उपयोग किया है.
प्रस्तुत लेख में हमने लोक्टफ़ेल्ड के मत को तीर्थयात्रा संबंधी साहित्य के कतिपय अन्य स्रोतों तथा पिछले कुछ वर्षों में सामने आए दृष्टांतों के आलोक में देखने का प्रयास किया है. इस विवेचन में हमने पवित्र स्थान के प्रतिस्थापन को एक बीज-प्रस्थापना के तौर पर देखने की कोशिश की है. ग़ौरतलब है कि विभिन्न अध्येताओं द्वारा उल्लेख किए जाने के बावजूद एक अवधारणा के रूप में इस पर अभी तक समन्वित ढंग से विचार नहीं किया गया है. लिहाज़़ा, इस लेख में हम लोक्टफ़ेल्ड की तर्क-योजना का जायज़ा लेते हुए स्थानिक प्रतिस्थापन (ट्रांसपोजिशन ऑफ़ प्लेस) की अवधारणा और उसके समकालीन साक्ष्यों पर भी विचार करेंगे.
(एक)
लेकिन, सबसे पहले देखें कि कावंड़ की प्राचीनता के दावे में लोक्टफ़ेल्ड को क्या विसंगतियां नज़र आती हैं और जिनके मद्देनज़र अंतत: वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हरिद्वार की कांवड़ यात्रा को दरअसल देवघर की कांवड़ यात्रा के क्षेत्रीय प्रतिस्थापन के तौर पर देखा जाना चाहिए.
प्राचीनता का मिथक और समकालीनता का नोटिस बोर्ड
हालांकि लोक्टफ़ेल्ड की किताब गॉड्स गेटवे: आइडेंटिटी ऐंड मीनिंग इन अ हिंदू पिलग्रिमेज प्लेस मुख्यत: हरिद्वार की धार्मिकता पर केंद्रित है जिसमें उन्होंने इस तीर्थस्थल के आश्रमों, सामान्य नागरिकों, धार्मिक संगठनों, श्रद्धालुओं, स्थानीय राजनीति और उसके आधुनिक इतिहास का एक अंतग्रर्थित विश्लेषण किया है. इस पुस्तक में कांवड़ यात्रा एक अवांतर प्रसंग की तरह आती है, परंतु यात्रा की इस सीमित विवेचना में उन्होंने यह विलक्षण मत प्रतिपादित किया है कि हरिद्वार की कांवड़ यात्रा देवघर (वैद्यनाथ धाम) की कांवड़ यात्रा का प्रतिस्थापन है. लोक्टफ़ेल्ड कहते हैं कि कांवड़ की परिघटना पर उनका ध्यान अचानक गया था. यह सन् नब्बे की बात है जब लोक्टफ़ेल्ड हरिद्वार में फ़ील्डवर्क कर रहे थे. लोक्टफ़ेल्ड ने जब स्थानीय लोगों से इस तीर्थयात्रा के इतिहास आदि के बारे में पूछताछ की तो अधिकतर लोगों ने इसे अनादि काल से चली आ रही परम्परा बताया. एक बाबा ने रामचरितमानस से संदिग्ध चौपाई उद्धत करके इसे पुरातन सिद्ध करने की कोशिश की.
लेकिन, लोक्टफ़ेल्ड का कहना है कि हरिद्वार की कांवड़ के माहात्म्य से संबंधित कोई ख़ास सामग्री नहीं मिलती जबकि किसी भी प्राचीन धार्मिक अनुष्ठान का यह एक सामान्य लक्षण होता है. दूसरे, कांवड़ यात्रा का डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में भी कोई उल्लेख नहीं मिलता. तीसरे, कांवड़ यात्रा से संबंधित दोनों पुस्तिकाएं केवल एक वर्ष पहले छपी थीं. यात्रा की उत्पत्ति के पीछे दोनों पुस्तिकाओं में समुद्र-मंथन की कथा है जिसका उपसंहार यह है सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए शिव ने हलाहल नामक विष अपने गले में धारण कर लिया. लेकिन इस विष का प्रभाव इतना कष्टकारी था कि अंतत: शिव की इस पीड़ा का शमन करने के लिए उनका जल से अभिषेक करना पड़ा. विचित्र यह है कि दोनों पुस्तिकाओं में मिथक तो वही है परंतु शिव के जलाभिषेक का स्थल अलग-अलग बताया गया है. एक पुस्तिका में यह स्थल ऋषिकेश के पास नीलकंठ बताया गया है तो दूसरे में पुरा महादेव का उल्लेख है. लोक्टफ़ेल्ड का मानना है कि इन दोनों स्थानों का उल्लेख इसलिए किया गया है ताकि श्रद्धालुओं की भीड़ को इच्छित स्थान पर जाने के लिए प्रेरित की जा सके. (8)
लोक्टफ़ेल्ड यह भी कहते हैं कि पुरा महादेव के मंदिर का श्रावण मास के व्रत या तीज-त्योहार के संबंध में कोई विशेष महत्व नहीं रहा है. वह स्थानीय ज्ञात इतिहास अथवा जनश्रुतियों में तीर्थयात्रा का केंद्र नहीं रहा है. लेकिन कांवड की बढ़ती लोकप्रियता और व्यापकता के कारण वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस यात्रा का प्रमुख केंद्र बन गया है.
कांवड़ की कथित प्राचीनता में लोक्टफेल्ड को एक अन्य विसंगति यह दिखाई देती है कि उसमें कर्मकांड या नियमों के पालन का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है. नवें दशक तक कांवड के नियमों में केवल यह नियम स्थिर हुआ था कि कांवड़ को ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए. बाक़ी मामलों में श्रद्धालुओं का यह मानना था कि जिसे जैसा सही लगे, वैसा कर सकता है. जबकि वास्तविक रूप से प्राचीन तीर्थयात्रा की एक निश्चित आचार-संहिता नियत हो जाती है.
इस क्रम में लोक्टफ़ेल्ड की आखि़री आपत्ति यह है कि 1990 तक कांवड़ के श्रद्धालुओं को यात्रा के दौरान भोजन, आश्रय तथा चिकित्सा की सुविधा प्रदान करने वाले कांवड़ सेवा संघ जैसे संगठनों का अपना इतिहास सात वर्ष से ज़्यादा नहीं था. (9)
लोक्टफ़ेल्ड का यह संशय मध्यकाल के तीर्थयात्रा संबंधी साहित्य से भी पुष्ट होता है. अगर कांवड वास्तव में प्राचीन काल से चली आ रही यात्रा है तो फिर उसका इस साहित्य में प्रत्यक्ष न सही, अप्रत्यक्ष या अवांतर उल्लेख अपेक्षित है. मसलन, पुराणों में वर्णित धार्मिक आस्था और तीर्थयात्राओं के संबंध में बारहवीं शताब्दी के विद्वान लक्ष्मीधर की कृति कृत्यकल्पतरु सर्वाधिक प्रामाणिक और विशद् मानी जाती है. इस रचना का तत्तविवेचनाकांड नामक खण्ड तत्कालीन तीर्थों और तीर्थयात्राओं पर केंद्रित है. उल्लेखनीय है कि तीर्थयात्रा के महात्म्य-साहित्य की दृष्टि से लक्ष्मीधर का यह ग्रंथ एक नया प्रस्थान-बिंदू माना जाता है. इस खण्ड में काशी, प्रयाग, गया और मथुरा आदि जैसे अनेक तीर्थों की स्थानीय धार्मिक परम्पराओं का विवरण मिलता है. लेकिन, इस खण्ड में कांवड़ जैसी किसी तीर्थयात्रा का कोई उल्लेख नहीं मिलता.
इसी प्रकार, तीर्थ और तीर्थयात्राओं से संबंधित परवर्ती स्रोतों जैसे पंद्रहवी शताब्दी में वाचस्पति मिश्र द्वारा संकलित तीर्थ चिंतामणि, सोलहवीं सदी की नारायण भट्ट द्वारा रचित त्रिस्थलीसेतु (जिसमें तीर्थयात्राओं पर एक भाग- ‘सामान्य प्रघटक’ में स्वतंत्र रूप से विचार किया गया है) तथा मित्र मिश्र की सत्रहवीं शताब्दी की रचना तीर्थ प्रकाश आदि से भी पुष्ट नहीं होता कि उस काल में कांवड़ नामक कोई तीर्थयात्रा अस्तित्व में थी. (10)
ख़ुद लोक्टफ़ेल्ड की किताब के तीसरे और चौथे अध्यायों— क्रमश: ‘द हिस्ट्री ऐंड डिवेलपमेंट ऑफ़ अ पिलग्रिम सेंटर’ तथा ‘द लाइफ़ ऐंड टाइम्स ऑफ़ अ पिलग्रिम सिटी’ में कांवड़ जैसी किसी यात्रा का कोई उल्लेख नहीं मिलता. यह एक असामान्य बात लगती है क्योंकि इन दोनों अध्यायों में एक तरह से हरिद्वार का प्राचीन से लेकर अद्यतन इतिहास उपस्थित है.
लोक्टफेल्ड के अध्ययन में उल्लिखित हरिद्वारमाहात्म्य और मायापुरीमाहात्म्य में ऐसी किसी यात्रा का संकेत नहीं मिलता. इसके अलावा उन्नीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में आए अंग्रेज यात्रियों ने हरिद्वार और आसपास के भू-दृश्य का विवरण अंकित किया है. जैसे नियोजन की दृष्टि से बैकन कनखल को हरिद्वार से बेहतर बताता है. हार्डविक ने यह दर्ज किया है कि हरिद्वार में इमारतों की संख्या सीमित है. रैपर ने 1808 के कुंभ मेले में सैनिकों की तैनाती का जिक्र किया है. बैकन ने 1820 की उस दुर्घटना का उल्लेख भी किया है जिसमें हर की पैड़ी पर भगदड़ मचने से पांच सौ लोगों की मौत हो गयी थी. उनके विवरण यह भी पता चलता है कि इस हादसे के बाद कंपनी ने घाट का विस्तार कराया था.
यह भी ग़ौरतलब है कि एक तरह से हर की पैड़ी हरिद्वार की धार्मिकता का केंद्रस्थल है. यहां स्किनर जैसे यात्री का गंगा पर बने नव-निर्मित मंदिरों पर ध्यान जाता है और 1828-1834 की अवधि में आने वाले अन्य विदेशी यात्री इस क्षेत्र में हो रहे निर्माण का उल्लेख करते हैं. लेकिन इन वृत्तांतों में कांवड़ जैसी किसी तीर्थयात्रा का उल्लेख नहीं मिलता. (11)
कतिपय अध्येता कांवड-यात्रा के संदर्भ में दो अंग्रेज यात्रियों रेजिनाल्ड हेबेर (1828) तथा बयार्ड टेलर (1855) के संस्मरणों के आधार पर इसके उन्नीसवीं सदी में प्रचलित होने का साक्ष्य देते हैं. परंतु इस प्रकार के साक्ष्यों से कोई बड़ी तस्वीर नहीं उभरती. मसलन, इस संबंध में औपनिवेशिक दस्तावेज़ों के हवाले से उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में स्थित पुरामहादेव में फागुन तथा श्रावण मास में दो वार्षिक मेलों का उदाहरण दिया जाता है. (12) लेकिन, ग़ौरतलब है कि इन मेलों से यात्रा का बोध नहीं होता. हरिद्वार में बैशाखी मेले का उल्लेख किया जाता है. परंतु इस मेले की चर्चा में भी यात्रा संबंधी दृष्टांत अनुपस्थित है. उल्लेखनीय है कि ये मेले शिव की आराधना से जुड़े हैं. लेकिन दिलचस्प है कि इसके बाद 1980 के दशक तक सार्वजनिक स्पेस में कांवड़ का कोई ख़ास जिक्र नहीं मिलता.
इस संदर्भ में कांवड़ के मौखिक इतिहास से संबंधित हमारे अध्ययन का एक अंश भी इस यात्रा की प्राचीनता को ख़ारिज करता जान पड़ता है. मसलन, साठ से सत्तर आयुवर्ग के बीस लोगों से औचक बातचीत करने पर उनकी स्मृति में आठवे दशक से पहले कांवड़ जैसी कोई तीर्थयात्रा नहीं उभरती. अधिकतर लोगों ने कांवड़ के विषय में सुना था. वे कांवड़ लाने जैसी गतिविधि से परिचित थे, लेकिन उनमें कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो स्वयं कांवड़ लाया हो. ऐसा प्रतीत होता है कि जनस्मृति में कांवड़ लाना एक धार्मिक कृत्य के रूप में तो दर्ज है परंतु हमारे सूचनादाताओं में किसी भी व्यक्ति को कांवड़ लाने का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था.(13) दूसरे शब्दों में, आठवें दशक से पहले इस यात्रा के सार्वजनिक साक्ष्य खोज पाना मुश्किल काम है. उल्लेखनीय है कि तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में देवघर की कांवड़ यात्रा से संबंधित लेख व रिपोर्ताज मिल जाते हैं (14)परंतु दिल्ली और एनसीआर के क्षेत्र में ऐसी कोई परिघटना दिखाई नहीं देती.
(दो)
उपरोक्त विवरण से कांवड़ की प्राचीनता का दावा तो संदिग्ध हो जाता है. लेकिन इससे लोक्टफ़ेल्ड की यह निष्पत्ति सिद्ध नहीं होती कि हरिद्वार की कांवड़ बाबा वैद्यनाथ मंदिर, देवघर की प्रतिकृति है. जैसा कि हमने आरंभ में कहा था, हरिद्वार की कांवड़-यात्रा के औचक उभार को समझने के लिए लोक्टफ़ेल्ड डायना ऐक्क द्वारा प्रस्तुत स्थानिक प्रतिस्थान (ट्रांसपोजिशन ऑफ़ प्लेस) के विचार का प्रयोग करते हैं. इसलिए उनके तर्क की पड़ताल करने के लिए पहले इस अवधारणा के औचित्य पर विचार करना आवश्यक होगा. इस संबंध में लेख के अगले भाग में हम यह देखने की कोशिश भी करेंगे कि क्या स्थानिक प्रतिस्थापन के पक्ष में और इस बहाने लोक्टफ़ेल्ड की व्याख्या का औचित्य -स्थापन करने के लिए कुछ नये साक्ष्य जुटाए जा सकते हैं?
तीर्थों का प्रतिस्थापन : सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य
भारत में तीर्थ स्थल एवं धार्मिक आस्था के विशिष्ट प्रतीक अपनी प्रसिद्धि और महात्म्य के कारण अक्सर अपनी भौगोलिक सीमाओं के बाहर भी मौजूद रहे हैं. मसलन, प्रयाग के नाम पर उत्तराखंड में विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, देवप्रयाग तथा तमिलनाडु में दक्षिण-प्रयाग (संगमेश्वर का मंदिर) जैसे नाम लंबे समय से प्रचलित रहे हैं. इस प्रवृत्ति के अन्य उदाहरणों पर ग़ौर करें तो काशी के नाम पर उत्तरकाशी तथा गुप्तकाशी जैसे क्षेत्रीय धार्मिक केंद्रों का नामकरण किया गया है. मूल स्थल के आधार पर नामकरण करने की यह प्रवृत्ति नदियों पर भी लागू होती है. अत: इसी मुहावरे में गोदावरी को ‘दक्षिण गंगा’ कहा जाता है.
तीर्थ तथा तीर्थयात्राओं के इस स्थानांतरण, प्रतिस्थापन और मूल स्थान के अलावा किसी अन्य स्थान पर पुनर्स्थापन की परिघटना पर विचार करते हुए अगेहानंद भारती इंगित करते हैं कि हिंदू धर्म के प्रतिष्ठित रूपों के अन्य क्षेत्रों में प्रसार की यह परिघटना काफ़ी दृश्यमान रही है. इस प्रसंग में अगेहानंद कई उदाहरण देते हैं. मसलन, कांजीवरम के एकाम्बरेश्वर मंदिर में एक बेहद नीची छत वाला रास्ता है जिसमें श्रद्धालु कुहनियों के बल ही चल सकता है. इस रास्ते के बारे में यह विश्वास प्रचलित है कि वह नीचे ही नीचे काशी (बनारस) से जुड़ा है. अगेहानंद एक ऐसा ही संदर्भ देवी-पूजा के संबंध में देते हैं. शैव, शाक्त तथा तांत्रिक परम्पराओं में एक ही देवी की पूजा तीन रूपों में की जाती है. इनमें मीनाक्षी मंदिर (मदुरै), कामाक्षी मंदिर (कांची) तथा विशालाक्षी का मंदिर, बनारस में स्थित है. दिलचस्प है कि दक्षिण के इन दोनों मंदिर की दूरी बनारस से पंद्रह सौ मील बैठती है परंतु दक्षिण भारत के श्रद्धालु इन तीनों स्थलों को संयुक्त संरचना के रूप में देखते हैं. ज़ाहिर है कि उनके लिए इन स्थलों की भौगोलिक दूरी कोई मायने नहीं रखती. इस संबंध में तीसरा उदाहरण रामेश्वरम के मंदिर में स्थित शिवलिंग का दिया जाता है जिसके बारे में यह धारणा प्रचलित है कि अगर कोई व्यक्ति बनारस के मणिकर्णिका घाट से एकत्रित किए गए जल से पहले विश्वनाथ मंदिर के लिंग का अभिषेक करे और फिर उसी जल को रामेश्वरम के लिंग पर चढ़ाए तो रामेश्वरम के लिंग का आकार बढ़ने लगता है. (15)
ज़ाहिर है कि यहां मुद्दा इन धारणाओं की यथातथ्यता का नहीं बल्कि उस धार्मिक विश्वास और भावना का है जो दो तीर्थों या धार्मिक स्थलों के बीच हज़ारों किलोमीटर की दूरी होने के बावजूद उन्हें एक दूसरे का अनुपूरक या सहोदर या प्रतिरूप मान लेती है.
तीर्थों के इन प्रतिरूपों को अभिहित करने के लिए डायना ऐक्क स्थान का प्रतिस्थापन (ट्रांसपॉजिशन ऑफ़ प्लेस) जैसे पंदबंध का इस्तेमाल करती हैं. (16)
अंग्रेजी-हिंदी के शब्दकोशों में ट्रांसपॉजिशन के हमारे संदर्भानुकूल अर्थों में ‘स्थानांतरण’ तथा ‘प्रतिस्थापन’ जैसे शब्द दिए गए हैं. प्रस्तुत संदर्भ में हमने ‘प्रतिस्थापन’ शब्द का इस्तेमाल भी किया है. हम इनका प्रयोग एक प्रसिद्ध और पवित्र स्थान को किसी अन्य स्थान पर स्थापित किए जाने के संदर्भ में कर रहे हैं. बहरहाल, काशी की धार्मिक-दैवीय महत्ता की अखिल भारतीय उपस्थिति के बारे में डायना ऐक्क कहती हैं कि जैसे प्रत्येक तीर्थ काशी में वास करता है वैसे ही काशी भी प्रत्येक स्थान में व्याप्त है. इस संबंध में वे उत्तरकाशी का उदाहरण देती हैं जहां मूल काशी के प्रारूप पर न केवल विश्वनाथ मंदिर का निर्माण किया गया है, बल्कि पंचक्रोशी की तर्ज़ पर एक प्रदक्षिणा पथ भी मौजूद है. उनके मुताबिक़ यह प्रवृत्ति इस भावना का आधार मजबूत करती है कि दैवीय सत्ता का प्रभाव-क्षेत्र अनेक स्थानों पर हो सकता है. इस तरह, काशी का प्रतिरूप केवल उत्तरकाशी में ही नहीं बल्कि दक्षिण काशी तथा शिवकाशी जैसी संज्ञाओं में भी दृष्टव्य है. देश में अनेक स्थानों पर काशी विश्वनाथ के छोटे-बड़े प्रतिरूप पाए जाते हैं और पुण्यार्जन की दृष्टि से उन्हें भी समान रूप से प्रभावशाली माना जाता है. इस क्रम में काशी में स्थित कई लिंगों का मूल-स्थान अन्यत्र बताया जाता है. उदाहरण के लिए दशाश्वमेध घाट पर स्थित शुलतंकेश्वर लिंग का मूल स्थान प्रयाग में बताया जाता है. काशी के दैवीय संकुल में ऐसे पैंसठ लिंगों का उल्लेख है जिनकी उत्पत्ति बाहर मानी जाती है. (17)इस संबंध में डायना हिंदू धर्म की संरचना के एक और मौलिक तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि हिंदू धर्म में समग्र को अंश में संक्षिप्त करने की प्रवृत्ति बहुत आम है. इसके अंतर्गत तमाम वेदों को एक मंत्र में और दैविकता की अनंत भिन्नताओं या जटिलताओं को किसी बहुअंगी प्रतिमा में विन्यस्त किया जा सकता है. (18)इस सूत्र के आसन्न अर्थ को खोलकर देखें तो फिर यह समझने में कठिनाई नहीं होती कि उत्तर प्रदेश की काशी तमिलनाडु की शिवकाशी या उत्तराखंड की उत्तरकाशी में कैसे उपस्थित हो जाती है अथवा उत्तर भारत का तीर्थ प्रयाग उत्तराखंड में विष्णुप्रयाग या कर्णप्रयाग जैसे प्रतिरूपों में कैसे अंतरित हो जाता है.
तीर्थों के स्थानांतरण तथा प्रतिरूपण की इस परिघटना पर ऐनी फ़ेल्डहोस का चिंतन और भी विशद है. महाराष्ट्र के तीर्थस्थलों और यात्राओं पर केंद्रित उनके अध्ययन से इस परिघटना के बहुस्तरीय आयाम खुलते हैं. और यह पता चलता है कि महाराष्ट्र के तीर्थस्थलों से संबंधित माहात्म्य-साहित्य में उत्तर भारतीय तीर्थस्थलों और नदियों का प्रतिरूपण एक स्थायी तत्व है. उत्तर भारत के तीर्थस्थलों के साथ महाराष्ट्र के स्थलों की यह तुलनात्मक सहसंबद्धता शायद इतनी व्यापक है कि इसका जायज़ा लेने के लिए फेल्डहोस को अपने ब्योरे उपशीर्षकों में वर्गीकृत करने पड़े हैं. फेल्डहोस का यह वर्गीकरण कुछ इस प्रकार है :
- प्रतिरूपण
- तुलना
- उत्तर भारतीय स्थलों की स्थानीय स्थलों में निविष्टि
- अन्य स्थानों से भौतिक सह-संबंध (4)
फेल्डहोस बताती हैं कि पहली श्रेणी के अंतर्गत स्थानीय पवित्र स्थलों की महत्ता सिद्ध करने के लिए सामान्यत: इस युक्ति का प्रयोग किया जाता है : अ (स्थानीय तीर्थ स्थान) ब (मूल तीर्थ स्थान) है.
उदाहरण के लिए, पयोष्यिणी माहात्म्य में कहा गया है कि पूर्णा नदी के तट पर स्थित प्रत्येक तीर्थ कुरुक्षेत्र है तथा नदी का हरेक संगम-स्थल प्रयाग है.
दो, इसके अंतर्गत स्थानीय स्थल के किसी ख़ास लक्षण पर ज़ोर देते हुए उसे ब की दूसरी प्रतिकृति या दूसरा सादृश्य बताया जाता है. मसलन, सप्तश्रृंगी देवी का मूल मंदिर नासिक के उत्तर में चालीस किलोमीटर आगे पड़ता है, लेकिन जो श्रद्धालु इतनी दूर नहीं जाना चाहते उनके लिए वहीं एक मंदिर बनाया गया है जिसे सप्श्रृंगी का दूसरा मंदिर कहा जाता है.
तीन, कई दफ़ा प्रतिकृति के लक्षण विशेष के आधार पर उसे मूल स्थान का उप-स्थान सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है. उदाहरण के लिए, कोल्हापुर के पर्वत पर स्थित ज्योतिबा को केदारनाथ का उप-लिंग बताया जाता है.
चार, तुलना के इस क्रम में प्रतिकृति को मूल स्थान का अदृश्य रूप घोषित किया जाता है. इस प्रसंग में आमतौर पर प्रयाग का मूल स्थान के रूप में उल्लेख किया जाता है. उल्लेखनीय है कि यह युक्ति उत्तर-पश्चिम के रेगिस्तान में लुप्त हो जाने वाली सरस्वती नदी के मिथक पर आधारित है जिसके बारे में यह विश्वास प्रचलित है कि प्रयाग के संगम-स्थल पर वह गंगा और यमुना के साथ आकर मिल जाती है. फेल्डहोस बताती हैं कि दक्षिण एशिया में नदियों के ऐसे कई अल्पचर्चित संगम मौजूद हैं जहां इस अदृश्य नदी की उपस्थिति दृश्यमान मानी जाती है.
पांच, कभी-कभी इस युक्ति का प्रयोग किया जाता है कि एक निश्चित समय अथवा स्थान पर तुलनीय स्थल मूल स्थान बन जाता है. इस संदर्भ में कृष्णा माहात्म्य में कहा गया है कि कलियुग में कृष्णा तथा वेण्णा का संगम प्रयाग के संगम की महत्ता रखता है. दक्कन के पठारी क्षेत्र में स्थानीय स्थल की मूल स्थान से तुलना का एक अधिक प्रचलित रूप वह भी है जिसमें स्थानीय को मूल का दक्षिण संस्करण बताया जाता है. उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी पर स्थित अलमपुर; वाई स्थित धोम; कराड़, कोल्हापुर; बदामी के पूर्व में स्थित नंदीकेश्वर, नेवासे और पैठण जैसे स्थलों को दक्षिण काशी कहा जाता है. इसी तरह, नासिक को दक्षिण काशी के साथ कभी-कभी पश्चिमी काशी से भी इंगित किया जाता है.
तुलना के इस जटिल स्थापत्य में एक दिलचस्प युक्ति वह है जिसके अंतर्गत स्थानीय स्थल के के बारे में यह धारणा विद्यमान रहती है कि अगर अमुक परिस्थितियां बीच में न घटती तो यह स्थल भी मूल स्थान के समकक्ष महत्वपूर्ण होता. फेल्डहोस बताती हैं कि कोयना और कृष्णा नदी के संगम पर स्थित कराड़ नामक तीर्थस्थल इसलिए काशी नहीं बन पाया क्योंकि देवी रेणुका कृष्णा नदी को उचित समय पर पार नहीं कर पाईं. ऐसा ही एक आख्यान का उल्लेख तापी माहात्म्य में किया गया है जिसके अनुसार तापी नदी की तुलना गंगा में इसलिए ज्यादा प्रसिद्ध हो गयी क्योंकि गंगा के उकसावे में आकर नारद ने तापी के माहात्म्य का हरण कर लिया. स्थानीय स्थल को मूल स्थान की तुलना में प्राचीन बताने के साथ कर्मकांड, स्नान तथा अभिषेक इत्यादि से प्राप्त पुण्य की अधिकता के आधार पर मूल स्थान से श्रेष्ठ सिद्ध करने के उदाहरण भी मिलते हैं.
घटनाओं की आकस्मिकता पर आधारित उपरोक्त आख्यान-कथाओं के अलावा कुछ युक्तियां सपाट ढंग से बयान करती हैं कि स्थानीय स्थल मूल स्थान जैसा ही है. मसलन, गोदावरी और फेना के संगम का महत्व सिद्ध करने के लिए उसे गंगा और यमुना के संगम की भांति समान रूप से पापविनाशिनी बताया गया है. इसका एक अन्य रूप इस तरह भी प्रचारित किया जाता है कि काशी के पांच प्रमुख देवता अमुक स्थल पर भी विराजमान हैं. समानता ज्ञापित करने वाला वक्तव्य इस तरह भी प्रस्तुत किया जाता है कि मूल स्थान का एक गुण स्थानीय स्थल में भी पाया जाता है. तुलना की इस परियोजना में कतिपय माहात्म्य स्थानीय को मूल स्थान से श्रेष्ठतर सिद्ध करने से भी नहीं चूकते. उदाहरण के लिए, कृष्ण माहात्म्य में कहा गया है जिस तरह काशी में पांच लिंगों का अस्तित्व है, उसी तरह कृष्णा तथा घाटप्रभा के संगम पर आठ लिंग पाए जाते हैं. श्रेष्ठता का यह दावा कुछ इस तरह पेश किया जाता है कि स्थानीय पवित्र स्थल में मूल और ज्यादा प्रसिद्ध स्थान की तुलना में कहीं ज़्यादा गुण विद्यमान हैं. मिसाल के तौर पर, गोदावरी माहात्म्य में कहा गया है कि गोदावरी और प्रणीता नदी के संगम पर स्थित कुशतपर्णा, शुक्ल एवं शार्दूल तथा अन्य चार तीर्थ वाराणसी से श्रेष्ठ हैं. इसी तरह, तापी माहात्म्य में स्थानीय पवित्र स्थल पद्मकाशी की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि द्वारका, उज्जैन, काशी या गया भी इसके समकक्ष नहीं ठहरते.
कभी-कभार स्थानीय स्थल की श्रेष्ठता के बखान में इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि स्थानीय स्थल अमुक मूल स्थान से कितना गुणा श्रेष्ठ है. मसलन, गोदावरी माहात्म्य में दावा किया गया है कि गंगा की तुलना में गोदावरी सौ गुणा श्रेष्ठ है. दिलचस्प है कि तुलना की मात्रा इंगित करने के लिए कभी-कभी जौ के दाने का संदर्भ दिया जाता है. उदाहरण के लिए कृष्णा माहात्म्य का संस्कृत संस्करण कृष्णा पर स्थित भैरव तीर्थ को काशी से एक जौ अधिक घोषित करता है. इसी प्रकार, कुछ अन्य माहात्म्य पयोष्णिनी और तापी तथा महाबलेश्वर और कदरू के संगम को काशी से एक जौ श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं.
तीर्थ के स्थानीय और मूल स्थान की इस विवेचना में नदियों का प्रसंग भी ध्यातव्य है. अपने अध्ययन में फेल्डहोस ने कन्यागत नामक एक धार्मिक अवधि का उल्लेख किया है. तेरह महीनों की यह अवधि विशेष रूप से मांगलिक मानी जाती है. लोगों का विश्वास है कि कन्यागत काल में भागीरथी गंगा कृष्णा से मिलने आती है. और इस अवधि में वह कृष्णा में सतत् उपस्थित रहती है. संभवत: यह विश्वास उस बृहत्तर मान्यता का अंग है जिसमें दो पवित्र स्थानों अथवा नदियों के बीच एक भूमिगत मार्ग होता है. उल्लेखनीय है कि दो तीर्थों के बीच ऐसे अदृश्य मार्ग की ओर अगेहानंद भारती ने भी संकेत किया है. तीर्थों के बीच सादृश्य, समतुल्यता या श्रेष्ठता के इस सर्वेक्षण में यह तथ्य लगभग चौंका देता है कि महाराष्ट्र के देहात, ख़ास तौर पर नदियों के आसपास बसे कस्बों में ‘गंगा’ का प्रयोग नदी के पर्याय के रूप में किया जाता है. (19)
कुल मिलाकर कहें तो फेल्डहोस के इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि महाराष्ट्र में नदी की आदर्शतम अभिव्यक्ति के रूप में गंगा तथा स्थानीय तीर्थों की तुलना का मूल संदर्भ अधिकांशत: काशी, कुरुक्षेत्र और प्रयाग में ढूंढा जाता है. मौखिक परम्पराओं तथा उन पर आधारित आधुनिक ग्रंथों में गंगा और काशी का नाम अन्य नदिया या तीर्थों की तुलना में ज्यादा प्रमुखता से लिया जाता है. इस संदर्भ में अयोध्या और सरस्वती का उल्लेख भी बहुतायत से किया जाता है.
(तीन)
कांवड़ यात्रा : प्रतिस्थापन के तर्क
लोक्टफ़ेल्ड हरिद्वार की कांवड़ यात्रा को बाबा वैद्यनाथ, देवघर की कांवड़ यात्रा का एक ऐसा चतुराईपूर्ण प्रतिस्थापन मानते हैं जिसमें मूल उसका मूल प्रारूप ग़ायब कर दिया गया है. उनका कहना है कि देवघर की कांवड़ के पीछे एक स्पष्ट और सुस्थापित मिथक है जिसका वैद्यनाथ के ज्योतिर्लिंग की कथा के साथ विनियोग हो चुका है. इस मिथक का उल्लेख शिव पुराण में भी आता है, जबकि हरिद्वार की कांवड़ का मिथक जलाभिषेक के मूल घटना-स्थल नीलकंठ के विषय में निश्चित नहीं है. जैसा कि हमने पीछे उल्लेख किया था, उसका एक मिथक इस घटना का स्थल नीलकंठ में निर्धारित करता है, जबकि दूसरा मिथक इस स्थान को पुरा महादेव के नाम से चिह्नित करता है. लोक्टफ़ेल्ड के अनुसार स्पष्ट और निश्चित मिथक की अनुपस्थिति ही वह कारण है जिसके चलते हमें हरिद्वार की कांवड़ के संदर्भ में संस्कृत या हिंदी का कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं मिलता. लेखक के मुताबिक़ यह नियोजन इसलिए किया गया है ताकि हरिद्वार-केंद्रित कांवड़ को स्वतंत्र और प्राचीन सिद्ध किया जा सके. हरिद्वार और देवघर की कांवड़ यात्रा के अंतर्संबंध की ओर संकेत करते हुए लोक्टफ़ेल्ड 1990 मे अपने फ़ील्डवर्क के दौरान हरिद्वार में मिली एक ऑडियो कैसेट का भी ज़िक्र करते हैं. लोक्टफ़ेल्ड का कहना है कि उस समय कांवड़ के गीतों से संबंधित यह एकमात्र कैसेट थी जिसके सारे गीत हरिद्वार के बजाय देवघर की कांवड़ का बखान करते थे. (20)
लोक्टफ़ेल्ड ने इस संदर्भ में उन्होंने कास्कारो एवं एवं जि़मरमैन के हवाले से मारीशस तथा ई. एलन मोरिनिस को उद्धृत करते हुए पश्चिम बंगाल के तारकेश्वर मंदिर से संबद्ध कांवड़ यात्राओं का उल्लेख किया है. उनका तर्क स्पष्ट है कि ये दोनों यात्राएं देवघर के मॉडल पर आधारित हैं. (21)
लेकिन, हरिद्वार की कांवड़-यात्रा का उत्स देवघर की यात्रा में निर्धारित करने के बावजूद लोक्टफ़ेल्ड के समक्ष यह बुनियादी सवाल अभी तक खड़ा है : आखि़र इस यात्रा को मूल स्थान से लाकर दूसरे स्थान पर स्थापित करने का औचित्य क्या था? लोक्टफेल्ड इसका जवाब हिंदू राष्ट्रवाद के उभार में ढूंढते हैं. उनका कहना है कि 1980 के दशक में कांवड़़ यात्रा का प्रसार तथा हिंदुत्व का सांगठनिक फैलाव सहवर्ती घटनाएं हैं. उनके अनुसार हिंदू राष्ट्रवाद विशालकाय कर्मकांडों का उपयोग करके सार्वजनिक जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता था. इस संदर्भ में विश्व हिंदू परिषद् की एकाधिक ऐसी गतिविधियों का उल्लेख करते हैं जिनमें सहज आस्था के साथ शामिल होने वाले लोगों को आसानी से अपना समर्थक घोषित किया जा सकता था. लोक्टफ़ेल्ड का मत है कांवड़ यात्रा जैसे अनुष्ठानों का उदृदेश्य एक समर्थक भीड़ पैदा करना था. इस प्रसंग में लोक्टफ़ेल्ड एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह प्रस्तुत करते हैं कि हरिद्वार में पहले गणपति मेले का आयोजन भी 1990 में हुआ था.[1] (22) लेकिन, कुल मिला कर लोक्टफ़ेल्ड की यह व्याख्या एक स्वतंत्र लेख की मांग करती है.
समकालीन साक्ष्य : ‘छोटा हरिद्वार’ और दिल्ली में ‘लालबाग का बागुचा’
पवित्र स्थान की धारणा एक सचेत निर्मिति होती है. उसका प्रचार-तंत्र भले ही औपचारिक ढंग से काम न करता हो या उसकी गतिविधियां सतह पर न दिखाई देती हों, लेकिन इस स्थान का लोगों की चेतना में प्रसार होता रहता है. इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि किसी स्थान के पवित्र या विशेष होने का अर्थ उसमें अंतनिर्हित न होकर लोगों के ज़रिये अभिव्यक्त होता है. इस प्रक्रिया में अक्सर मौजूदा समय के सांस्कृतिक व्यवहार की भूमिका निर्णायक होती है. तीर्थयात्राओं के अध्येताओं की यह एक औसत राय है कि यातायात के नए साधनों— रेल, मोटर वाहन और कुछ स्थानों पर हेलिकॉप्टर आदि की सुविधाएं बढ़ने के बाद तीर्थ और तीर्थयात्राओं का पारम्परिक अर्थ काफ़ी हद तक बदल गया है. अधिकतर अध्येताओं का मानना है कि तीर्थयात्रा में पर्यटन के तत्त्व को पूरी तरह दरकिनार नहीं किया जा सकता.
दिल्ली-मेरठ सड़क मार्ग पर स्थित मुरादनगर कस्बे का ‘छोटा हरिद्वार’ तीर्थ के प्रतिस्थापन, सैर-सपाटे और खान-पान के आनंद के इर्दगिर्द उभरा एक ऐसा ही दृष्टांत है. कस्बे की बाहरी सीमा से गुज़रती गंगा-नहर के तट पर स्थित एक मंदिर को ‘छोटा हरिद्वार’ कहने की मुहिम 2013 में शुरू हुई. विचित्र यह है कि छोटा हरिद्वार के नाम पर वहां केवल यही एक मंदिर है. नहर के तट के पास पाइपों की बैरिकेडिंग लगा कर श्रद्धालुओं के स्नान का प्रबंध किया गया है. इन पंक्तियों के लेखक को याद है कि इसी समय के आसपास एक बार गढ़ मुक्तेश्वर की ओर जाते हुए उसे दीवारों पर कई जगह गेरू से लिखे घसीट हर्फों में ‘छोटा हरिद्वार’ लिखा मिला था. कई जगह इस शब्द के नीचे यह इबारत भी लिखी हुई थी: जब पास में है छोटा हरिद्वार तो इतनी दूर क्यों जाएं. ज़ाहिर है कि यह हरिद्वार के ज़्यादा प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित तीर्थ का इस्तेमाल करने की कोशिश थी. विगत सात वर्षों में छोटा हरिद्वार का यह प्रयोग एक सीमित अर्थ में सफल रहा. धीरे-धीरे बाहर से आने वाले लोगों की संख्या के साथ मंदिर में चढ़ावे की राशि भी बढ़ने लगी. कुछ सहज विश्वासी लोग यहां अपने बच्चों का मुण्डन और मृतकों का तर्पण तक कराने लगे. (23)
हरिद्वार के नाम पर एक उप-तीर्थ स्थापित करने के इस प्रयास का स्थानीय भू-दृश्य में रखकर आकलन करें तो यह धार्मिक आस्था और पर्यटन का मिश्रित नियोजन लगता है. उल्लेखनीय है पुल के दायीं तरफ़ रेस्त्रां और खान-पान की अच्छी-ख़ासी दुकानें हैं. यहां नहर का पाट भी ख़ास चौड़ा है. एक बेहद सघन आबादी और भारी ट्रैफिक के क्षेत्र में यह जगह भी मनोरम दिखाई देती है. दिल्ली से हरिद्वार-ऋषिकेश जाने वाले यात्रियों के लिए यह स्थान बहुत पहले से स्टॉप-ओवर रही है. ज़ाहिर है कि इस पूरे प्रक्रम में मंदिर और गंगा-नहर की भूमिका केंद्रीय थी. गंगा-नहर को गंगा की अविरल धारा के रूप में प्रचारित किया गया. हमने जब कुछ लोगों से पूछा कि क्या गंगा-नहर को वाक़ई गंगा माना जा सकता है तो कई लोगों ने तत्काल स्वीकार किया कि ‘जल तो गंगा जी का ही है’. इन वर्षों में यह स्थान आसपास के देहात और पूर्वी दिल्ली के निम्न-मध्यवर्गीय लोगों के लिए आस्था और पिकनिक की ‘टू-इन-वन’ (दुहैरे) जगह के रूप में उभरने लगा था. हालांकि फिलहाल, मंदिर के प्रबंधन, स्थानीय राजनीति और प्रशासनिक विवाद में फंसकर छोटे हरिद्वार की यह परियोजना रुक-सी गयी है. प्रशासन ने ‘छोटा हरिद्वार’ शब्द के प्रयोग पर भी रोक लगा दी है. लेकिन, इस विवादास्पद प्रयोग से कम से कम यह बात रेखांकित होती है कि एक प्रसिद्ध तीर्थ के प्रतिरूप को अन्यत्र स्थापित करने की संभावना अनधिकार या अनैतिक चेष्टा नहीं मानी जाती.
जैसा कि हमने महाराष्ट्र के संबंध में देखा, वहां के स्थानीय तीर्थ अपना महत्ता और वैधता का संदर्भ उत्तर भारत के तीर्थों में ढूंढते रहे हैं. लेकिन, विगत दो दशकों में आस्था के क्षेत्र में एक नयी प्रवृत्ति का उभार हुआ है जिसमें उत्तर भारत आस्था के प्रतिरूपण का स्रोत न बन कर उसका ग्रहणकर्ता बनता गया है. यहां हमारा आशय उत्तर भारत में महाराष्ट्र के गणेशोत्सव की बढ़ती लोकप्रियता से है. अभी कोई दो दशक पहले तक उत्तर भारत के पंचाग में गणेश-चतुर्थी महज़ एक तिथि के रूप में दर्ज रहती थी. धर्म के सामाजिक लोक में उसका कोई ख़ास मुकाम नहीं था. लेकिन, इस दौरान कांवड़ यात्रा की तरह वह भी एक जन-परिघटना के स्तर पर पहुंच गयी है. ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों में गणपति पूजा का चलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों तक फैल गया है. (24)
दिल्ली और आसपास के उप-नगरों में उसका चलन इतना व्यापक हुआ है कि मूर्ति-विसर्जन के लिए जाने वाले वाहनों की संख्या को देखते हुए स्थानीय प्रशासन को अक्सर यातायात के मार्गों में बदलाव करना पड़ता है.
गणेश-चतुर्थी के इस प्रतिरूपण को लालबाग का राजा ट्रस्ट, दिल्ली की गतिविधियों के रूप में देखा जा सकता है. लालबाग का राजा या मराठी में लालबागुचा राजा मुंबई के लालबाग में हर वर्ष स्थापित की जाने वाली गणेश की मूर्ति को कहा जाता है. हाल फिलहाल तक दिल्ली के लिए यह अपरिचित शब्द था. अधिकतर लोग अभी भी इसके बारे में ज़्यादा नहीं जानते, लेकिन पिछले छह वर्षों से यह ट्रस्ट गणेश चतुर्थी के अवसर पर लगातार पूजा का आयोजन करता आ रहा है. इस अवसर पर ट्रस्ट दिल्ली के पीतमपुरा और पंजाबी बाग आदि क्षेत्रों में भव्य पंडाल लगाता है. ग्यारह दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में धार्मिक संस्कृति के स्थायी कार्यक्रमों — भागवत कथा, कृष्ण लीला के मंचन आदि के साथ कवि-सम्मेलन, म्युजिक नाइट जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. लोकप्रिय और धार्मिक संस्कृति का यह युगल-प्रदर्शन वस्तुत: एक स्वतंत्र अध्ययन की मांग करता है.
बहरहाल, गणेशोत्सव जैसी लगभग अपरिचित परम्परा का धीरे-धीरे उत्तर भारत की धार्मिक-ग्रिड में शामिल होकर सामान्य दृश्य बन जाना इस तथ्य की पुष्टि करता है कि धार्मिक अनुष्ठान, रीति और कर्मकांड सांस्कृतिक नियोजन अथवा एक सहज प्रक्रिया के तहत अपने मुख्य मूल स्थान से चलकर नये इलाक़ों में पहुंचते रहे हैं.
निष्कर्ष:
आस्था के एक अल्पज्ञात बिंदू से उठकर पिछले तीन दशकों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब के व्यापक भू-भाग में विशाल परिघटना का रूप ले चुकी कांवड़ यात्रा अपने अध्येताओं के सामने विकट चुनौती पेश करती है. यात्रा का प्रबंधन-तंत्र और श्रद्धालु-गण इसे आस्था की प्राचीन परम्परा का प्रवाह मानते हैं . लेकिन, यह मान्यता न केवल तीर्थयात्रा संबंधी साहित्य के उपलब्ध साक्ष्यों से पुष्ट नहीं होती, बल्कि यात्रा के समकालीन साक्ष्य भी इसकी प्राचीनता पर पुनर्विचार की मांग करते हैं. इस संबंध में शायद यह स्पष्टीकरण ज़रूरी है कि धार्मिक परम्परा का उत्स भले ही मिथकों में स्थित हो, परंतु उसका प्रदर्शन और विस्तार समकालीनता के कतिपय निश्चित संयोगों तथा आकस्मिकताओं पर निर्भर करता है. इस दृष्टि से देखें तो लोकधामिर्कता की एक अभिव्यक्ति के रूप में कांवड़ हमारे अध्ययन-क्षेत्र के जनमानस में पहले से मौजूद रही है, किंतु उसका विस्तार आठवें दशक के बाद की घटना है. दरअसल, लोक्टफ़ेल्ड का तर्क मूलत: कांवड़ के विस्तार की प्रक्रिया पर केंद्रित है.
हमारी निगाह में कांवड़ की प्राचीनता के दावे पर लोक्टफ़ेल्ड की आपत्ति इस तथ्य से तय होती है कि यह दावा इस यात्रा के विस्तार और प्रसार से जुड़े अन्य संभावित कारणों तथा अन्यान्य प्रक्रियाओं के संधान को बाधित करता है. इसलिए यात्रा की प्राचीनता का खण्डन करने के बाद लोक्टफ़ेल्ड की तर्क-योजना उसके विस्तार की व्याख्या करने में व्यस्त हो जाती है. यहां अलग से कहना ज़रूरी है कि उनके द्वारा तीर्थों के प्रतिस्थापन की अवधारणा का उपयोग इस यात्रा के विस्तार की प्रक्रिया को चिह्नित करने का एक युक्तियुक्त प्रयत्न है जिसे कांवड़ यात्रा के शोध-अध्ययन में एक महत्त्वपूर्ण योगदान कहा जा सकता है.
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सम्प्रति:
सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान’ में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com
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पाद-टिप्पणी :
1 दिल्ली में कांवड़ यात्रियों के खानपान और विश्राम की सुविधा के लिए सरकार की तरफ़ से शिविर लगाने की शुरुआत 1995 में हुई थी. उल्लेखनीय है कांवड़ यात्रियों को सुविधाएं प्रदान करने की मांग इस नज़ीर से प्रेरित थी कि हज यात्रियों के लिए ऐसी ही सुविधाओं की व्यवस्था की जाती है. देखें, नरेश गोस्वामी (2013). यात्रियों को राज्य सरकार द्वारा प्रोत्साहन दिए जाने का एक स्पष्ट उदाहरण 2019 की यात्रा के दौरान सामने आया जब उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ यात्रियों का पुष्प-वर्षा से स्वागत किया. देखें, ‘इन यूपी, टॉप ऑफि़शियल्स टेक चॉपर राइड टू शॉवर पेटल्स ऑन कांवरियाज’, हिंदुस्तान टाइम्स, 30 जुलाई, 2019.
2 पूर्णिमा एस. त्रिपाठी (2004)
3 एस. राजू (2019).
4 देखें, नरेश गोस्वामी (2005) तथा (2013).
5 विकास सिंह (2018) अपने अध्ययन में कांवड़ यात्रा को वैश्विक पूंजीवाद की सर्वग्रासी सामाजिक व्यवस्था में साधारण लोगों द्वारा एक अर्थपूर्ण जीवन जीने की ज़द्दोजहद और इस व्यवस्था के प्रति उनके नैतिक प्रतिरोध के रूप में देखने का आग्रह करते हैं.
6 प्रभाष जोशी ( 2003) : 196-200. उल्लेखनीय है पुस्तक में संकलित यह लेख मूलत: 1994 में प्रकाशित हुआ था. हालांकि यह कांवड़ के विस्तार का शुरुआती दौर था लेकिन प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी (1936-2009) ने हरिद्वार-दिल्ली मार्ग तथा दिल्ली की सड़कों पर कांवडि़यों की जिस बढ़ती भीड़ की ओर संकेत किया है उससे पता चलता है कि इस समय तक यह यात्रा एक व्यापक सामाजिक परिघटना बन चुकी थी.
7 देखें, सतेंद्र कुमार (2018) : 100-119.
[1] जेम्स जी: लोक्टफ़ेलड ( 2011) : 193.
8 वही.
9 अगेहानंद भारती (1961) : 165.; डायना ऐक्क (1998) : 395-96. यहां संदर्भित सामग्री में एक ही तीर्थस्थान की अन्यत्र मौजूदगी का सबसे पहला उल्लेख अगेहानंद के यहां मिलता है जिसे उन्होंने हिंदू धर्म की क्षेत्रीय भिन्नता के तौर पर चिह्नित किया है. जबकि डायना ऐक्क इसके लिए एक ज़्यादा स्पष्ट पदबंध— तीर्थ का अन्यत्र प्रतिस्थापन (ट्रांसपोजिशन ऑफ़ तीर्थ) का प्रयोग करती हैं.
10 लोक्टफ़ेल्ड (2011) : 49-102. यह एक लंबा अध्याय है जिसमें इस क्षेत्र पर उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभुत्व की शुरुआत से लेकर हरिद्वार के अद्यतन इतिहास का सघन विवरण मिलता है. इसमें कंपनी की विभिन्न परियोजनाओं में समय-समय पर काम करने आए अनेक अंग्रेज यात्रियों के वृत्तांतों का विस्तार से उल्लेख किया गया है. इसे निपट संयोग भी माना जा सकता है कि इनमें कोई भी मुलाजि़म या यात्री कांवड़ का जिक्र नहीं करता. लेकिन, जैसा कि साधारण श्रद्धालु और कांवड़ यात्रा के प्रबंध-तंत्र से जुड़े लोग दावा करते हैं, अगर कांवड़ सुपरिचित और स्थापित तीर्थयात्रा थी तो इन यात्रियों के हरिद्वार संबंधी विवरणों में कांवड़ के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उल्लेख की अपेक्षा करना अनुचित नहीं है.
11 विकास सिंह ( 2013) : 287.
12 यह बातचीत दिल्ली के एक नज़दीकी कस्बे खेकड़ा में 2018 में की गयी थी.
13 सत्यदेव नारायण सिन्हा (1974). वैद्यनाथ, देवघर की कांवड़ यात्रा पर केंद्रित यह लेख रिपोर्ताज और सहभागी प्रेक्षण का प्रखर उदाहरण है. यह हिंदी भाषी क्षेत्र में आठवें दशक के आखि़र तक संस्कृति और साहित्य की सिरमौर रही पत्रिका धर्मयुग में छपा था.
14 अगेहानंद भारती (1961) : वही.
15 डायना ऐक्क (1998) : 283-84.
16 वही : 144-145.
17 वही : 41-42.
18 ऐनी फ़ेल्डहोस (2003) : पांचवां अध्याय : 157- 184. यह पूरा अवतरण इस अध्याय की सामग्री के आधार पर तैयार किया गया है.
19 लोक्टफ़ेल्ड (2011) : 194.
20 वही : 218-219.
21 वही.
22 लोगों से बातचीत करने पर यह भी पता चला कि इस स्थान को स्थानीय तीर्थ का रूप देने की मुहिम में शिकंजी की एक लोकप्रिय ब्रांड के मालिक की भी सक्रिय भूमिका रही थी.
23 वही.
24 सतेंद्र कुमार : वही. गांव में गणपति महोत्सव समिति की गतिविधियों के दिलचस्प विवरण के लिए ख़ास तौर पर देखें : 112-115.
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संदर्भ:
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‘प्रतिमान के नए अंक में भी प्रकाशित’
काँवड़ -यात्रा ने हिंदू मानस के arrogance को कैसे सड़कों पर ला खड़ा किया, और इसका मुहर्रमीकरण कैसे होता चला गया, इसके रोडमैप का अध्ययन करें और इसके राजनीतिक निहितार्थ जो हम देख रहे हैं, वह भगवा लंपटीकरण की ओर ले जाता है. यह लेख मुझे उस ओर सोचने को बाध्य करता है.
Bahut suvichaarit aur aavashyak adhyayan!
Itihas, dharm, vaanijya aur unmad ka yah ghalmel araajak hota chala gaya hai….
Kitaab kee utsukta se prateeksha hai.
Samalochan aur Goswami jee ka dhanyawad aur badhai bhee.
कांवड़ यात्रा से आरम्भ करते हुए यह लेख एक विशाल पाट की नदी का रूप ले रहा है । देवघर (बैजनाथ) की कांवड़ यात्रा से मुझ सहित असंख्य मनुष्य परिचित हैं । नब्बे के दशक से हिन्दुत्व के उभार की बात कुछ अंशों में सही है । आपके लेख में ग़लती से यह उल्लेख करना रह गया है कि ख़ाली युवकों (हमारी पंजाबी बोली में वेहले) को कांवड़ में हिस्सा लेने का काम मिल गया है । जितने दिनों में यह यात्रा पूरी होती है इस दौरान यात्रियों को ख़ूब भोजन और पकवान खाने को मिलते हैं । मेरे पड़ौसी स्व सुरेश चंद जी पनवाड़ी ने हाँसी में इस आयोजन को आरम्भ किया था । अब उसके पुत्र और हमउम्र युवक इस आयोजन को सँभालते हैं । पूरे मनोयोग, शारीरिक पीड़ा सहन करते हुए नीलकण्ठ में भण्डारा चलाते हैं । उत्तर भारत को दक्षिण भारत के स्थापत्यों से जोड़ना भारत की अखण्ड धारणा की अवधारणा को पुष्ट करना है । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी आपने इस शोधपूर्ण लेख से पाठकों को परिचित करवाया । परमात्मा आपको दैहिक और धन-धान्य से समृद्ध करे । मेरी शुभकामनाएँ और स्नेह सहित आशीष ।
बहुत ही उच्चकोटि का शोध है। हिंदूजाति जो हर चीज़ को प्राचीन बताकर ही उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करती है, उसके विपरीत ऐसे गम्भीर शोधों की आज के ज़माने में तो और भी ज़्यादा ज़रूरत है जब मुट्ठीभर मूर्ख हिंदू चाहे जहाँ मारपीट करने को तैयार है, कामसूत्र जला रहे है और भी तमाम घटिया कामों को अंजाम दे रहे है और हिन्दू धर्म का नाम ख़राब कर रहे है।
देश की विविधता में एकता और एकता में विविधता की अवधारणा को इस लेख से समझने में सहायता मिलती है। कावड़ यात्रा के बहाने इस शोधपूर्ण आलेख में अपने देश की पूरी सांस्कृतिक अंतर्कथा की झलक है। अपने मिथकीय प्रतीकों में धर्म किस तरह एक राष्ट्र को जोड़ने का काम करता रहा है,इसे पढ़कर बखूबी समझा जा सकता है। नरेश जी को इस आलेख के लिए बधाई
हिंदी में इस तरह का लेखन नहीं के बराबर है। सामान्यत: किसी भी अंग्रेजी लेखक या ग्रंथ से हम प्रभावित होकर उससे टकराने की और विमर्श के नए आयामों की खोज से बचते हैं । नरेश गोस्वामी लोकट फेल्ड के विमर्षों से न केवल टकराते हैं, वरन प्रतिस्थापन के नए केंद्र बिंदुओं की पड़ताल भी करते हैं।नरेश गोस्वामी और समालोचन दोनों बधाई के पात्र हैं । बधाई
बेहद सार्थक लेख, जिसे अब पूरा पढ़ पाया हूँ। किसी भी भाषा, त्यौहार व सांस्कृतिक गतिविधि की भी गति होती है। और उनका परिवर्तनशील आयतन भी। हित और अनुराग जैसे अनेक तत्व त्योराहों की सीमा का निर्धारण करते हैं। धन्यवाद नरेश जी इस अध्ययन के लिए। समालोचन को धन्यवाद ख़ासतौर पर इस विश्लेषण को प्रकाशित करने के लिए।
मैं बचपन मे काँवड़ यात्रा के समूहिक रूप से अपरिचित था परंतु ब्रज क्षेत्र में शिव संबंधी त्योहारों पर गंगा से जल लाकर अपने गाँव या उस मंडित मे अभिषेक की परंपरा थी जहां मांगी गई मन्नत पूरी हुई हो| 1990 में यह समूहिक सहायक आयोजन हुआ और यात्रियों के लिए भंडारों आदि का विशाल आयोजन हुआ|
इन क्षेत्रों में नवरात्रों में जात्रा/ जातें की परंपरा अधिक पुरानी है परंतु इसका समूहिक सहायक आयोजन नहीं रहा| वैसे भी जातों से लौटा व्यक्ति/परिवार खुद से भंडारे का प्रबंध करता था और प्रायः उस समय का मध्य वर्ग था| इसके विपरीत कांवर यात्री प्रायः निम्न या निम्न मध्य वर्ग से अधिक थे|