कावालम नारायण पणिक्कर
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महात्मा गाँधी ने जब उस्ताद अब्दुल करीम खान का गाना सुना, वे बोले कि भारत के गाँव-गाँव में ले जाकर उनका गाना सुनवाया जाना चाहिए. गाँधी जी ने ऐसा क्यूँ कहा होगा, क्योंकि उन्हें भारत के साधारण नागरिकों के विवेक और सौंदर्यबोध पर भरोसा था. वे उसके अभिव्यक्त हो सकने के लिए केवल अनुकूल अवसर उपस्थित करना चाह रहे थे. मेरा पक्का भरोसा है कि यदि गाँधी जी ने कावालाम नारायण पणिक्कर के नाटक देखे होते वे यही कहते कि इन नाटकों को भारत के गाँव-गाँव में दिखाया जाना चाहिए.
सभ्यताएँ अपने परिष्कारों को किन्ही व्यक्तियों के माध्यम से (भी) प्रकट किया करती हैं, यदि यह सच तो कावालम नारायण पणिक्कर हमारी सभ्यता की ऐसी ही महान विभूति थे. वे श्रेष्ठ रंगनिर्देशक, कवि, केरल की थुल्लल और थैय्यम जैसी लोक एवं कुड़ियाट्टम जैसी शास्त्रीय नृत्य-नाट्य विधाओं के ज्ञाता और मोहिनीअट्टम् नृत्य के लिए कमला देवी चट्टोपाध्याय की प्रेरणा से ‘सोपानम्’ संगीत का पुनर्सृजन करने वाले विलक्षण संगीतकार थे.
कावालम नारायण पणिक्कर पिछले लगभग पाँच-छ: दशकों से भारतीय रंगकर्म की केन्द्रीय उपस्थिति थे. पणिक्कर का जन्म केरल के कुट्टनाड अंचल के खूबसूरत गाँव कावालम् में 28 अप्रैल 1928 को हुआ था. वहाँ रहते हुए उनका गहरा लगाव कृषि समुदाय और उसकी सांस्कृतिक परम्पराओं से हुआ. पावन नदी पम्पा के किनारे बसे कावालम् में रहते हुए सामुदायिक सांस्कृतिक बोध ने पणिक्कर की कलात्मक दृष्टि को समृद्ध किया. उनके पिता श्री गोद वर्मा पणिक्कर ने उनका परिचय साहित्य-संसार और रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों से कराया. कावालम् के उनके घर में इन महाकाव्यों को नियमित रूप से पढ़ने की परिपाटी थी, जिसमें उनकी माँ कुंजु लक्ष्मी, नानी और पड़ोस की स्त्रियाँ भागीदार होती थीं.
पणिक्कर ने एलप्पी से पहले अर्थशास्त्र की और फिर कानून की बी.एल. उपाधि मद्रास लॉ कॉलेज से हासिल की. उन्होंने 1955 से शुरू कर अगले 06 वर्षों तक एलप्पी में ही वकालत की. वकालत के साथ-साथ वे कविताएँ लिखते रहे और अन्य कलाओं पर गहन विचार-विमर्श करते रहे. वर्ष 1961 में उन्हें केरल संगीत नाटक अकादमी का सचिव मनोनीत किया गया और इस तरह वे केरल की सांस्कृतिक राजधानी त्रिचूर आ गये. वहाँ रहते हुए उन्होंने केरल के विभिन्न अंचलों के व्यापक दौरे किये और वहाँ की लोक एवं शास्त्रीय कलाओं को घूम-घूम कर सीखा. इन कलाओं को समझने के अपने प्रयास के फलस्वरूप ही वे रंगकर्म की ओर प्रवृत्त हुए. नाटककार और रंगकर्मी के रूप में उनकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति ‘देवतार’ थी. उनके लिखे इस नाटक को कुमार वर्मा ने उनकी मदद से निर्देशित किया था. 1974 में वे तिरुवनन्तपुरम् आ गये. वहाँ उन्होंने अपना प्रसिद्ध नाटक ‘अवन वन कडम्बा’ लिखा, जिसे जाने-माने फ़िल्मकार जी. अरविन्दन ने उनकी मदद से निर्देशित किया. ‘अवन वन कडम्बा’ की प्रस्तुति भारतीय रंगमंच के लिए एक नया प्रस्थान बिन्दु कहा जा सकता है. नाटक की बुनावट और प्रस्तुति विलक्षण थी; इसे प्रोसिनियम थियेटर के स्थान पर खुले रंगमंच पर वृक्षों की पृष्ठभूमि में किया गया था.
कावालम् नारायण पणिक्कर के रंगजीवन की महत्त्वपूर्ण घटना थी; उज्जैन के कालिदास समारोह में मूर्धन्य हिन्दी लेखक श्री अशोक वाजपेयी के आमंत्रण पर भास के संस्कृत नाटक ‘मध्यमव्यायोग’ का मंचन. 02 नवम्बर 1978 को पणिक्कर के निर्देशन में ‘मध्यमव्यायोग’ का प्रदर्शन उज्जैन में हुआ. दर्शकों ने तहेदिल से इस प्रस्तुति की प्रशंसा की और साथ ही एक बार फिर संस्कृत रंगकर्म की शक्ति को पहचाना.
कमला देवी चट्टोपाध्याय ने ‘मध्यमव्यायोग’ प्रस्तुति की प्रशंसा सुनकर उन्हें इस नाटक का मंचन करने दिल्ली आमन्त्रित किया था. और तब से वे अपने अन्यान्य नाटकों की प्रस्तुतियाँ देश-विदेश में करते रहे. उन्होंने महेन्द्रविक्रम बर्मन् का ‘मत्तविलासम्’, भास के ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ समेत सात नाटकों का निर्देशन भी किया था. इन सारे संस्कृत नाटकों को गैर यथार्थवादी और कल्पनाशील रंगयुक्तियों के साथ करते हुए पणिक्कर ने अनेक मलयालम् नाटक लिखे और निर्देशित भी किये, जिनमें ‘साक्षी’, ‘कलिवेशम्’ ‘छायायान’ आदि प्रमुख थे.उन्होंने यूनानी रंगमंच पर ‘रामायण’ और यूनानी महाकाव्य ‘इलियड’ को मिलाकर ‘इलियायन’ नाम से प्रस्तुत किया था. यह एक यादगार प्रस्तुति मानी जाती है.
फरवरी 2014 में भोपाल में आयोजित ‘रंग सोपान-2’ के लिए पणिक्कर ने सात नाटकों का मंचन किया था. . जिनमें उनका लिखा ‘कल्लुरूट्टी’ और बोधायन का लिखा ‘भगवदज्जुकीयम्’ मलयालम में, भासकृत ‘प्रतिमानाटक’ और ‘उरूभंगम्’ संस्कृत में और हिन्दी लेखक उदयन वाजपेयी के साथ कालिदास के तीनों नाटकों को आधार बनाकर लिखे ‘संगमणियम्,’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों के लिए तैयार किया ‘छाया शाकुन्तल’ और भवभूति के उत्तररामचरितम् (पुनर्रचना उदयन वाजपेयी) का मंचन हिन्दी में किया था. उन्होंने सात में से तीन नाटकों का प्रदर्शन हिन्दी में किया था. हिन्दी रंगमंच के लिए यह अविस्मरणीय घटना रही है.
पणिक्कर जी का देहावसान छह वर्ष पूर्व 26 जून, 2016 को तिरुवनंतपुरम में किडनी और कैंसर की बीमारी से हुआ था.
तिरुवनंतपुरम के टागुर (टैगोर) रोड़ पर स्थित पणिक्कर जी के घर से जुड़ी उनकी कर्मस्थली ‘सोपानम्’ रंगशाला में उनका पार्थिव शरीर रखा गया था. उनके शिष्यों अनिल, गिरीशन, मोहिनी और अन्य कलाकारों ने पणिक्कर जी के लिखे और संगीतबद्ध किये गीत सुनाकर उन्हे श्रद्दांजलि दी थी. पणिक्कर जी ने अम्मा (श्रीमती शारदामणि पणिक्कर) और अपने छोटे भाई (वेलायुध पणिक्कर) से कहा भी था, ‘मेरे मरने पर शोक नहीं करना, उत्सव मनाना.’
तिरुवनंतपुरम में पणिक्कर जी के अंतिम दर्शन करने बहुत बड़ी संख्या में स्कूल के बच्चे, उनके शिक्षक, साधारण लोग और सैकड़ों लेखक-कलाकार पहुँचे थे. बच्चों ने पणिक्कर जी की लिखी वह कविता गायी थी, जो उनकी स्कूल की किताब का हिस्सा है. पणिक्कर जी का दाह संस्कार उनके पैतृक गाँव कावालम में किया गया था. अपने प्रिय लोगों को यह गाँव दिखाने वे स्वयं कार चलाकर ले जाया करते थे, और यदि वे आमों के पकने के दिन हों तो आप पणिक्कर जी का आमों के प्रति अगाध लगाव भी लक्ष्य कर सकते थे. इसी गाँव में उनका पैतृक अन्न भण्डार भी है. वे यहाँ आकर हर वर्ष कावालम और उसके आसपास के बच्चों के साथ नाटक की कार्यशाला किया करते थे. जब पणिक्कर जी को अंतिम संस्कार के लिए एक बड़ी-सी बस में तिरुवनंतपुरम से कावालम् ले जाया गया था, उस स्थान पर इतनी भीड़ थी कि कई लोगों ने ताड़ी और नारियल के वृक्षों पर चढ़कर उनके अन्तिम दर्शन किये. धन्य हैं केरल के लोग जो अपने कलाकारों के प्रति हृदय में ऐसा प्रेम और ऐसी आस्था रखते हैं.
मृत्यु से पहले कई महीनों तक पणिक्कर जी बहुत अस्वस्थ रहे. अपनी इस गम्भीर अस्वस्थता के बावजूद वे सुप्रसिद्ध मलयालम अभिनेत्री मंजू वारियर और सोपानम के कलाकारों को संस्कृत में ‘शाकुन्तल’ नाटक की रिहर्सल करवा रहे थे . कई पुस्तकों पर काम कर रहे थे, जिनमें श्रीमद्भागवत का उनका किया मलयालम भाषा में अनुवाद, उनकी लिखी पुस्तक ‘सोपानतत्वम्’ का अँग्रेज़ी में अनुवाद और उनकी अपनी ऑटोबायोग्राफ़ी शामिल थे.
पता नहीं क्यूँ उनसे मिलकर, उनसे बातचीत करके, ऐसी विराटता का अनुभव होता था मानो वे भारतीय सभ्यता की चलती-फिरती धरोहर हों. समय-समय पर उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं –
सं वा द
आपकी दृष्टि में क्या नाट्यशास्त्र किन्हीं मूलभूत मानवीय गतियों, भंगिमाओं आदि को नाट्य के सन्दर्भ में रेखांकित कर सकता है, जिसका सम्बन्ध किसी विशेष देशकाल के अभिनेता से न होकर अभिनेता मात्र से हो?
मैं सोचता हूँ कि नाट्यशास्त्र हमेशा प्रासंगिक बना रहेगा क्योंकि ऋषियों ने नाट्य की तमाम सम्भावनाओं के बारे में गहनतम चिन्तन किया है. अब हम यदि आंगिक अभिनय को लें तो नाट्यशास्त्र में मानवीय शरीर की सभी सम्भव गतियों को सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्तर तक लिख दिया गया है, लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि उसके आगे कुछ और कहा ही नहीं जा सकता. मसलन करण और चारी को ही लें, भरत ने चारियों की गणना की है, मण्डलों की गणना की है. उसमें भरत के समय से लेकर आज तक कोई फ़र्क़ नहीं आया है.
भुजंग-त्रास मुद्रा कैसे की जाती है? भुजंग त्रास नाम ही कुछ बताता है, भुजंग यानी साँप और त्रास यानी उससे होने वाला भय. यह आपके शरीर की एक भंगिमा है, एक गति है, जिसके सहारे एक विचार सम्प्रेषित हो सके बल्कि उससे कई विचार सम्प्रेषित किये जा सकते हैं.
नृतत्व शास्त्रीय दृष्टि से मनुष्य इस तरह ही प्रतिक्रियाएँ करता है. फिर वह जिस किसी भी देश का हो, इस प्रतिक्रिया के विवरणों में एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में और एक देश से दूसरे देश में फ़र्क़ भले ही हो लेकिन आकर्षण और विकर्षण की स्थिति में मानवीय शरीर की सहज भंगिमा लगभग समान होती है.
‘मैं तुम्हें पसन्द नहीं करता हूँ’ की भंगिमा वैसी ही नहीं हो सकती, जैसी ‘मैं तुम्हें पसन्द करता हूँ’ की होती है. अगर कोई व्यक्ति किसी को पसन्द नहीं करता तो उसके शरीर की प्रतिक्रिया कैसी होगी? वह अनिवार्यतः ‘भुजंग त्रास’ की तरह होगी लेकिन ‘भुजंग त्रास’ को प्रयोग करने के ढंग में अवसर का दबाव, रंगस्थिति, मनोमय अभिनय आदि अलग-अलग हो सकते हैं.
किन्हीं भी विचारों से कुछ भंगिमाएँ जुड़ी होती हैं. इसका सम्बन्ध एक ख़ास सांस्कृतिक परिवेश से होता है. ये भंगिमाएँ एक देश से दूसरे देश में अलग-अलग हो सकती हैं, यह मैं मानता हूँ. ऋषियों ने भंगिमाओं की एक ऐसी व्यवस्था तैयार की है, जो आज भी कारगर है. यह सच है कि इनका उपयोग बदलावों के साथ किया जाता है, इनमें सुधार की भी गुंज़ाइश है.
मैं यह नहीं मानता कि ये पत्थर पर लिखे अक्षरों की तरह हैं, जिन्हें न बदला जा सकता हो. रस संकल्प के अनुरूप इस व्यवस्था में बदलाव लाये जा सकते हैं. मैं यह नहीं कह रहा कि भंगिमाओं की यह व्यवस्था हरेक समय में एक-सी बनी रहने वाली है.
मैं ‘थैयथय्यम्’ की रिहर्सल देख रही थी, उसे देखते हुए मुझे भरतमुनि की यह बात याद हो आयी कि रंगमंच पर सचमुच की चीजें नहीं होनी चाहिए, उन्हें अभिनय के रास्ते ही उपस्थित होना चाहिए. थैयथय्यम् में अभिनेता आंगिक अभिनय के सहारे बहुत सी चीज़ों और समुद्र की लहरों आदि को रंगमंच पर उपस्थित कर रहे थे…
मैंने एक लोकनाटक चिम्मानमकली देखा था. ये ‘पुलया’ लोग थे, जिन्होंने यह नाटक किया था. ये लोग समाज में दबे-कुचले माने जाते थे. ये लोग ज़मीदारों से ज़मीन लेकर उस पर काश्तकारी किया करते थे. वे यह मानते हैं कि वे एक-दूसरे देश के वासी हैं और समुद्र मार्ग से आते हुए उनकी नाव टूट गयी थी और वे किसी तरह किनारे लगे, तब उन्होंने ज़मीदारों से ज़मीन किराये पर ली और उस पर खेती करना शुरू किया आदि. ज़मींदार के लोग उनकी लड़कियों को तंग किया करते हैं, वगैरह. यह सब आपको थैयथय्यम् में नज़र आया होगा.
मैंने इन लोगों को देखा है, लहरों का अभिनय करते, इन्हें समुद्र बनाते और अभिनीत समुद्र में डूबते-उतराते मैंने इन्हें देखा है. वे यह सब कैसे कर पाते हैं, नाट्यशास्त्र को बिल्कुल भी जाने बग़ैर. इससे यह साबित होता है कि नाट्यशास्त्र महज़ पहले से लिखी हुई कोई चीज़ नहीं जिसके आधार पर आप नाटक करते हों. नहीं. यह इस तरह नहीं है. जिस क़िस्म का रंगकर्मी मैं हूँ उसके लिए अपनी रंगावश्यकताओं के अनुरूप, सिद्धान्तों द्वारा प्रदत्त ख़ाकों के आधार पर मैं सृजन करता हूँ. अपनी सृजन करने की तीव्र आकांक्षा के इंगित हम सृजन करते हैं.
लिखित पाठ आपको ऐसी रंगस्थितियाँ प्रदान करता है जिसके आधार पर आप वह रंगकर्म खोजने निकलते हैं जो तब रहा होगा, जब यह नाटक लिखा गया होगा. नाटक के लिखे जाने के समय कैसा रंगमंच था, यह हम नहीं जानते. उदाहरण के लिए, भास का कोई लिखित पाठ लें, उसमें कहानी, अभिनय की सम्भावनाएँ सभी कुछ मौजूद हैं, लिखित पाठ में छुपी हुई. लिखित पाठ में जो छुपा है, हम उसे ढूँढते हैं. इस तलाश को हम एक ख़ास तरह से करते हैं. हमारी तलाश की एक शैली होती है इस शैली के कई स्रोत हैं.
पहला लिखित पाठ द्वारा दिये गये इशारे, दूसरा हमारा अपना पारम्परिक नाट्यकर्म का अनुभव, तीसरा हमारी अपनी संवेदना. इसमें हमारी रुचि, हमारा संगीत, हमारा नृत्य ये सब मिलकर सृजन करते हैं. सृजन के बाद हम अपनी इस सृजनात्मकता को नाट्यशास्त्र से मिलाकर देखते हैं और यहीं आश्चर्यचकित हो जाते हैं, क्योंकि हमें पहले से पता नहीं था लेकिन अपनी रंगावश्यकता के अनुसार एक ख़ास स्थिति में मेरा शरीर अपने अन्तःकरण की आवाज़ पर उसी तरह की मुद्रा बना लेता है, जो नाट्यशास्त्र में ‘भुजंग त्रास’ के नाम से वर्णित है.
इस तरह देखें तो अन्ततः यह एक मिलान करना है. कई बार मिलान करने पर आपको वह भंगिमा नाट्यशास्त्र में नहीं मिलेगी तब आप सोचेंगे कि यह मेरा सृजन है. शास्त्र इसलिए है कि आप सृजन के बाद उससे मिलान कर सकें जबकि सृजनात्मकता नाट्यशास्त्र की बतायी लकीर पर चलने भर से सम्भव नहीं है. शास्त्र बाद में आता है, मुमकिन है अपनी सृजनात्मकता में आप खुद ही शास्त्र रच रहे हों.
क्या आप अपनी इस बात का कुछ और विस्तार करना चाहेंगे ?
मैंने उरूभंगम् में ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम दो दुर्योधनों की रचना की है. इनमें से एक दुर्योधन है और दूसरा उसका थय्यम्. क्या इस थय्यम् का नाट्यशास्त्र में कोई वर्णन है?
नहीं…
क्या यह नाट्यशास्त्र के विरुद्ध है ?
नहीं…
कुडियाट्टम् में किन्हीं विचारों को व्यक्त करने की ढेरों रंगयुक्तियाँ हैं. सुभद्राधनंजयम् में सुभद्रा को दानव हर कर आकाश में ले जाता है. अर्जुन नीचे ज़मीन पर खड़ा है, वह अपने धनुष बाण से धीमी-सी आवाज़ निकालता है, दानव भाग खड़ा होता है और सुभद्रा आकाश से नीचे आती है, नीचे आती सुभद्रा को अर्जुन अपने दोनों हाथों से सम्भाल लेता है. इस दृश्य का मंचन कैसे किया जा सकता है ?
यह कैसे किया जाता है, मैं आपको बताता हूँ कि नाट्यसिद्धान्त कैसे प्रयोग में आता है और कैसे रंगप्रयोगों का विकास होता है. कोई भी रंगप्रयोग प्रदत्त नहीं होता लेकिन हरेक क्षेत्रीय परम्परा हो चुके रंगप्रयोगों को अपने भीतर संजोकर रखती है. यह अभिनय का नाट्यधर्मी प्रकार है.
भरत ने नाट्यधर्मी या लोकधर्मी अभिनयों की सारी सम्भावनाओं को सूत्रबद्ध नहीं किया है. अब हम सुभद्राधनंजयम् पर आते हैं, वहाँ एक प्रस्ताव है, जो चुनौतीपूर्ण है, चाक्यार इस चुनौती को स्वीकार करते हैं. अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर वे कुछ ऐसा रचते हैं जिससे यह विचार सुन्दरता से सम्प्रेषित हो जाए कि सुभद्रा ऊपर से गिरी है और अर्जुन ने उसे थाम लिया है.
यह कार्य कुडियाट्टम् में बहुत सरलता से सम्पन्न किया जाता हैः अर्जुन एक आधे पर्दे के सामने खड़ा होता है, सुभद्रा परदे के पीछे स्टूल के ऊपर अपने पंजों पर बैठी रहती है और अर्जुन अपने हाथ आगे बढ़ाता है और उसके हाथों को पकड़कर उसे थाम लेता है. आपसे यह अपेक्षा है कि आप इस पर भरोसा करें. अगर आप यह कहते हैं कि नहीं, मैं इस पर भरोसा नहीं करता तो वे कहेंगे कि तब आप कुत्तम्पलम् से बाहर हो जाइए.
दर्शकों की इस मौन स्वीकृति से ही नाट्यधर्मी रंगयुक्तियाँ व्यवहार में आ पाती हैं वरना उन्हें करने का कोई और रास्ता नहीं है क्योंकि यथार्थवादी ढंग में तो सुभद्रा को गिरना पड़ेगा और रंगमंच पर यह सम्भव नहीं है. नाट्यधर्मी की एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि उसके सहारे आप ऐसा कुछ दिखा सकते हैं जो भौतिक रूप से सम्भव नहीं है और जिसे कल्पनाशील ढंग से रंगमंच पर सम्भव कर दिया जाता है.?
आपने नाटक के क्षेत्र में निश्चय ही अनेक नवाचार किये हैं, लेकिन एक विशेष अर्थ में आप पारम्परिक नाट्यकर्मी हैं महाकवि भास, कालिदास आदि के नाटकों के प्रदर्शन के लिए आपने पारम्परिक नाट्यशैली का ही चुनाव क्यों किया? आपने इसके लिए मसलन यथार्थवादी शैली को क्यों नहीं चुना?
यह बेहद महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक प्रश्न है क्योंकि आखिरकार कोई भी अपनी परम्परा से कैसे भाग सकता है, न सिर्फ भास या कालिदस जैसे नाट्यकारों के नाटकों को करने के सन्दर्भ में बल्कि रोजमर्रा के जीवन में भी. जैसे ही आप अपने आप से या अपने परिवेश, अपनी अन्तश्चेतना से पराये हो जाते हैं, आप अपने साथ न्याय नहीं कर पाते, आप अपने को समझा नहीं पाते, अपनी व्याख्या नहीं कर पाते.
भास या कालिदास जैसे महान् नाट्यकार आपको अपनी परम्परा समझने व अपने समय के अनुरूप उसकी पुर्नव्याख्या करने का अवसर देते हैं. हमें यह साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि हम परम्परा को जड़ वस्तु या अचल नहीं कह सकते. आज परम्परा वही नहीं है जो दो हजार साल पहले या सौ बरस पहले न सिर्फ थी बल्कि उपयुक्त थी.
आप परम्परा को इस तरह सीमित नहीं कर सकते इसीलिए वह परम्परा है. परम्परा शब्द में ही एक नैरन्तर्य का आशय है. बीते हुए कल की विरासत को हम आज परम्परा नैरन्तर्य के रूप में पाते हैं क्योंकि काल एक निरन्तर प्रवाह है. आप बता रही थीं कि आधुनिक नृत्यकार सुश्री चन्द्रलेखा ने ‘आदिशेष’ नृत्य संयोजन तैयार किया है, उस अवधारणा में ही एक किस्म के नैरन्तर्य का आशय है. संस्कृति इसके अलावा हो ही नहीं सकती, आप समूची संस्कृति की किसी एक जगह पर इतिश्री कर बिल्कुल नयी शुरूआत करने की सोच भी नहीं सकते. कोई देश या कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है ? यह एक अलग बात है कि यथार्थवादी शैली हमारी अपनी नहीं है. हमारा यथार्थवाद भी पश्चिम के यथार्थवाद से भिन्न है, जीवन अलग है, जीवन के प्रति हमारा रूख अलग है इसलिए हर जगह हमें यह फर्क दर्शाना ही होगा.
यही नहीं व्यापक भारतीय परिवेश के भीतर भी केरलीय परिवेश या मालवी परिवेश में अन्तर है, एक ही सांस्कृतिक इकाई के अन्दर भी अलग-अलग जगहों में अन्तर मौजूद है. जैसे भाषा में फर्क है और यही नहीं जीवन के लगभग सभी पहलुओं में यह फ़र्क मौजूद है. आप उस तरह से हिन्दी नहीं बोलती जैसे मसलन कोई लखनवी व्यक्ति बोलेगा. यह फर्क दरअसल जीवन का वैविध्य है.
आपको पश्चिमी यथार्थवाद किन्हीं मायनों में सीमित नज़र आता है ?
पश्चिमी यथार्थवाद और प्रकृतिवाद के बीच अन्तःसम्बन्ध है. हमें प्रकृति की नकल करने की हद तक नहीं जाना चहिए, पश्चिम की नकल का तो सवाल ही नहीं उठता, भले ही वह यथार्थवाद या प्रकृतिवाद के नाम पर क्यूँ नहीं की जाये.
हमारी सृजनात्मकता में ईश्वर तक की नकल नहीं की जाती. ईश्वर की सृष्टि पहले से ही हमारी आँखों के सामने है, हमें उसकी नकल करने की ज़रूरत नहीं है. आप पर्वत की नकल कर भी कैसे सकते हैं ? अपनी सम्पूर्णता में और अपने सारे गुणों के साथ एक पर्वत आप बना ही कैसे सकते हैं ? इसलिए अगर एक कलाकार पर्वत का सृजन करना भी चाहे तो वह कैसे करेगा ? क्या यह यथार्थवाद के सहारे मुमकिन है ?
यहाँ मुझे महान् कुडियाट्टम् नर्तक चाचू चाक्यार के जीवन की एक घटना याद आ रही है. वे एक सुबह घूमने निकले. सामने से एक अंग्रेज़ अफ़सर अपना कुत्ता लिए चला आ रहा था. चाचू चाक्यार को देखते ही वह कुत्ता जोर-ज़ोर से भौंकने लगा, इस पर उन्होंने उसकी ओर एक पत्थर फेंका जिससे कुत्ता गिर पड़ा. जब अंग्रेज़ ने इस पर नाराजगी जाहिर की, चाचू चाक्यार बोले कि उन्होंने पत्थर नहीं मारा, पत्थर मारने का अभिनय भर किया था. फिर उन्होंने वैसा ही एक पत्थर अंग्रेज़ की ओर फेंका और उसे चौंकता देख बोले कि मैं पहाड़ भी उठा सकता हूँ और उन्होंने पहाड़ उठाने का ऐसा अभिनय किया कि अंग्रेज़ को लगा यह पहाड़ कहीं उस पर न गिर पड़े और वह भाग गया.
यह अच्छा दृष्टान्त है और मेरी समझ में यह यथार्थ के प्रति हम भारतीयों के दृष्टिकोण की अच्छी व्याख्या है. यह कुडियाट्टम् के लिए ही नहीं किसी भी ऐसे भारतीय कलारूप के लिए सही है जो नाट्यधर्मी है. और जहाँ तक लोकधर्मी और नाट्यधर्मी का प्रश्न है , उनमें डिग्री का फ़र्क है, लोकधर्मी में भी नाट्यधर्मी के गुण होते हैं और नाट्यधर्मी में लोकधर्मी के मैं आपको बता रहा था कि यथार्थवाद भ्रम पैदा करता है.
यथार्थवाद में आप कला को यथार्थ की तरह निर्मित करने की कोशिश करते हैं. यह करने के अपने प्रयास में आपको ठीक- ठीक पता होता है कि आप जिस यथार्थ की नकल करने की कोशिश में लगे हैं वैसा कुछ आप कर ही नहीं सकते इसलिए आप जिन लोगों को यह भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आपने यथार्थ जैसा कुछ निर्मित कर दिया है, उनके सामने आप भ्रम खड़ा करते हैं. आप यथार्थ की नकल करते हुए यह जानते हैं कि यह कोशिश अनिवार्यतः विफल होने वाली है. यथार्थवाद में यह मुश्किल या विडम्बना अन्तर्भूत है. लेकिन अगर आप इस परम्परा में यथार्थ को ज्यूँ का त्यूँ नहीं दर्शाना चाहते तो आपके पास एक ही रास्ता बचता है, आप अतियथार्थवादी हो जाएँ. इसलिए वे टेलीफ़ोन दिखाने के लिए एक सामान्य आकार के टेलिफोन को दिखाने की जगह एक बहुत बड़ा टेलिफोन रख देंगे.
इसके बरक्स भारतीय नाट्यदृष्टि को स्पष्ट करने मैं एक बार फिर पहाड़ का उदाहरण दूँगा. अगर आप पश्चिम की यथार्थवादी शैली में पहाड़ का एक चित्र बनाना चाहते हैं तो आप ऐसा कुछ बनाएंगे जो बिल्कुल पहाड़ जैसा लगता हो, भले ही वह उसका लघु रूप हो और यह प्रयास निश्चय ही विफल होने वाला है क्योंकि यथार्थवादी ढंग से एक पहाड़ की पुर्नरचना करने की कोशिश करते हुए आप उस पहाड़ के कुछ तत्वों को जैसे वे हैं ठीक वैसा ही बनाने की कोशिश करेंगे, भले ही संक्षिप्त रूप में. यानी आप ठीक उन्हीं अवयवों का उपयोग अपनी इस पुर्नरचना के लिए करेंगे जो पहाड़ में पहले से मौजूद हैं. लेकिन यदि आप गैर-यथार्थवादी ढंग से यह करने की कोशिश कर रहे हैं तब पहाड़ दर्शाने के लिए आप किन्हीं दूसरे ही तत्वों का उपयोग करेंगे, आप अपने शरीर का पहाड़ की तरह उपयोग करेंगे. आप पहाड़ की ओर देखते हुए से दर्शकों को यह बता देंगे कि यह रहा पहाड़, आप पहाड़ के बारे में बताते हुए उसके आन्तरिक लक्षणों को व्यक्त कर पहाड़ को दर्शकों के सामने साकार कर देंगे. बल्कि इन आन्तरिक लक्षणों को दर्शाते हुए आप स्वयं उन्हें धारण कर लेंगे और खुद पहाड़ हो जाएंगे, क्योंकि आन्तरिक लक्षण ही अधिक महत्व के होते हैं.
हर व्यक्ति बल्कि हर विचार का एक आन्तरिक आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है, यह निर्जीव वस्तुओं तक के लिए सही है. इसलिए पहाड़ का अनुकरण करते समय आप पहाड़ के बाहरी गुणों का अनुकरण नहीं करते, आप पहाड़ के आन्तरिक यथार्थ को जानने की कोशिश करते हैं.
यह प्रक्रिया विशेषकर नृत्य और नाट्य में आपके शरीर के माध्यम से ही सम्पन्न होती है. यहाँ आपके शरीर के अलावा और कोई माध्यम हो ही नहीं सकता. इसी के सहारे आप सबसे अधिक शिद्दत से पहाड़ के पहाड़पन को सम्प्रेषित कर सकते हैं, समुद्र के समुद्रपन को, किसी विचार के विचारपन को, इसे ही अवस्था कहते हैं.
शायद इसी अर्थ में शरीर अपने आप में समूचा ब्रह्माण्ड है ?
हाँ और इसी अर्थ में ‘अवस्थानुकृतिर्नाट्यम्’ (अवस्था का अनुकरण नाट्य है) एक गहन और विशिष्ट सूत्र है. यहाँ वस्तु की अनुकृति आशय नहीं है, वस्तु की अवस्था की अनुकृति आशय है.
अनुकृति या अनुकीर्तन ?
अवस्थानुकृति विकसित होकर अवस्थानुकीर्तन को प्राप्त होती है. अनुकीर्तन अनुकृति के बाद होता है. अनुकृति महज अवस्था को दर्शाती है जिसमें आप वस्तु के आन्तरिक सत्त्व को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, लोकधर्मी स्तर पर अवस्था का सृजन करने का. लेकिन जब आप इसका विस्तार करते हैं, जब आप अवस्था के विचार का उत्सव मनाते हैं, पहाड़ के सत्त्व को जानने की प्रक्रिया में डूबते है, उसका आनन्द लेते हैं, तब वहाँ एक नया नाट्यधर्मी आयाम प्रकट होता है, जिसे अनुकीर्तन के नाम से जाना जाता है.
संगीता गुन्देचा
हिन्दी कवि, कथाकार, निबन्धकार, अनुवादक और सम्पादक संगीता गुन्देचा भारतीय रंगमंच की गम्भीर अध्येता हैं.
संगीता गुन्देचा की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें कविता एवं कहानी का संयुक्त संग्रह ‘एकान्त का मानचित्र’ का द्वितीय संस्करण शीघ्र प्रकाश्य है. साथ ही नया काव्य संग्रह ‘पडिक्कमा’ भी शीघ्र प्रकाश्य है. समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र की उपस्थिति को रेखांकित करते हुए आपने अपने समय के तीन सर्वश्रेष्ठ रंगनिर्देशकों सर्वश्री कावालम नारायण पणिक्कर, हबीब तनवीर और रतन थियाम से महत्वपूर्ण संवाद किया है, जिसकी पुस्तक राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी से ‘नाट्यदर्शन’ नाम से प्रकाशित हुई है . आपकी अन्य पुस्तकें हैं, भास का रंगमंच, कावालम नारायण पणिक्कर: परम्परा एवं समकालीनता, समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र की उपस्थिति.
संगीता गुंदेचा ने बहुतेरे अनुवाद भी किये हैं, जिनमें ‘उदाहरण काव्य’ प्राकृत-संस्कृत कविताओं के हिन्दी अनुवाद और ‘मटमैली स्मृति में प्रशान्त समुद्र’ जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा की कविताओं के हिन्दी अनुवाद की पुस्तकें सम्मिलित हैं. आपने उर्दू लेखक सूफ़ी तबस्सुम की नज़्मों का सम्पादन ‘टोट-बटोट’ नाम से किया है.
आपकी कविता-कहानियों और पुस्तकों के अनुवाद उर्दू, बांग्ला, मलयालम, अंग्रेज़ी और इतालवी भाषाओं में हुए हैं.
संगीता गुंदेचा को कृष्ण बलदेव वैद अध्येतावृत्ति, भारत सरकार के संस्कृति मन्त्रालय की साहित्य की अध्येतावृत्ति और उच्च अध्ययन केन्द्र नान्त (फ्राँस) की अध्येतावृत्तियाँ मिली हैं.
कई पुरस्कार मिले हैं, जिनमें भोज पुरस्कार, भास सम्मान, प्रथम कावालाम नारायण पणिक्कर कला-साधना सम्मान, संस्कृतभूषण, कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप सम्मान, विशिष्ट महिला सम्मान आदि शामिल हैं.
इन दिनों कला, साहित्य और सभ्यता पर केन्द्रित पत्रिका ‘समास’ (सम्पादक- उदयन वाजपेयी) की सम्पादन सहयोगी हैं. केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक आचार्या हैं, जहाँ आप नाट्यशास्त्र अनुसंधान केन्द्र की संस्थापक संयोजक रही हैं.
ई-मेल: sangeeta.g74@gmail.com
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नाट्यशास्त्र के सिद्धान्तों की ऐसी अद्भुत समकालीन व्याख्या पणिक्कर जी जैसे मनीषी ही कर सकते हैं। अद्भुत आलेख और संवाद। धन्यवाद संगीता गुंदेचा मेम।
अवस्थानुकृति विकसित होकर अवस्थानुकीर्तन को प्राप्त होती है. अनुकीर्तन अनुकृति के बाद होता है. अनुकृति महज अवस्था को दर्शाती है जिसमें आप वस्तु के आन्तरिक सत्त्व को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, लोकधर्मी स्तर पर अवस्था का सृजन करने का. लेकिन जब आप इसका विस्तार करते हैं, जब आप अवस्था के विचार का उत्सव मनाते हैं, पहाड़ के सत्त्व को जानने की प्रक्रिया में डूबते है, उसका आनन्द लेते हैं, तब वहाँ एक नया नाट्यधर्मी आयाम प्रकट होता है, जिसे अनुकीर्तन के नाम से जाना जाता है.
( वाह पूरा संवाद कितना अन्तर्दृष्टि पूर्ण है। धन्यवाद विदुषी संगीता गुंदेचा जी, धन्यवाद समालोचन। )
लेख बहुत अच्छा है और बातचीत अत्यंत विचारोत्तेजक। नाट्य प्रस्तुति की परंपरा और यथार्थ के द्वंद्व पर बहुत सधे हुए प्रश्न हैं और उनके लाजवाब अनुभवसिद्ध उत्तर। यह मेरे लिए आज की शाम का हासिल है। साधुवाद संगीता जी।
संगीता जी आपके पणिक्कर जी के साक्षात्कार का प्रारंभ शरीर की भंगिमाओं से होता है और शरीर मे ब्रह्माण्ड पर आकर ख़त्म होता है मैने उनके नाटक तो देखे नहीं है पर लगता है कि वो भी किसी छोटे विषय से प्रारंभ होकर ब्रह्माण्डीय स्वरूप ले लेते होंगे।
परंपरा और नवाचार के बारे में कह सकते है कि यदि परंपरा प्रवाहमान सर्जन की जड़े आत्मा से जुड़ी होती है तो नवाचार इस परंपराजनित सर्जन में कुछ नया अंतरभुक्तीकरण कर कुछ नए फल फुल उगाने की उपासना है पणिक्कर जी की सर्जनाओ में आत्मा की जड़ों की सुगंध ज़रूर मौजूद होगी जिसका आपने अनुभव किया है। ऐसे अमर्त्य कलाकारों के स्मरण के लिए आपको साधुवाद । एक और बात आपकी लोकिक लेखनी की सीमा अलोकिकता को स्पर्श करती है , आपको दिल से सलाम👏🏻💐
भारतीय रंग परम्परा में पणिक्कर जी का काम शीर्ष पर शुमार है। मैं भी उन खुशक़िस्मतों में हूँ जिन्हें पणिक्कर जी से मिलने उनके नाटक देखने और समूह से मिलने बतियाने का सौभाग्य मिला है। संगीता जी ने रंगमंचीय परंपराओं पर अद्भुत काम किया है और अक्सर उनसे इस विषय पर बहुत बातें होती हैं। पणिक्कर जी की स्मृति को नमन। समालोचन का शुक्रिया इस समृद्ध आलेख के लिए.
बहुत सुंदर ज्ञान पूर्ण बातें जो हम सभी के लिए दुर्लभ है संगीता मैडम के कारण हमें आज अच्छी चीज पढ़ने को मिले इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद उनका आशीर्वाद हम लोगों पर बना रहे।
‘हर व्यक्ति बल्कि हर विचार का एक आन्तरिक आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है, यह निर्जीव वस्तुओं तक के लिए सही है. इसलिए पहाड़ का अनुकरण करते समय आप पहाड़ के बाहरी गुणों का अनुकरण नहीं करते, आप पहाड़ के आन्तरिक यथार्थ को जानने की कोशिश करते हैं.’
हमारी सदी के इस महापुरुष को सादर श्रद्धांजलि l विदुषी डॉ. संगीता गुंदेचा को सादर प्रणाम ।
संगीता जी आपके पणिक्कर जी के साक्षात्कार का प्रारंभ शरीर की भंगिमाओं से होता है और शरीर मे ब्रह्माण्ड पर आकर ख़त्म होता है मैने उनके नाटक तो देखे नहीं है पर लगता है कि वो भी किसी छोटे विषय से प्रारंभ होकर ब्रह्माण्डीय स्वरूप ले लेते होंगे।
परंपरा और नवाचार के बारे में कह सकते है कि यदि परंपरा प्रवाहमान सर्जन की जड़े आत्मा से जुड़ी होती है तो नवाचार इस परंपराजनित सर्जन में कुछ नया अंतरभुक्तीकरण कर कुछ नए फल फुल उगाने की उपासना है पणिक्कर जी की सर्जनाओ में आत्मा की जड़ों की सुगंध ज़रूर मौजूद होगी जिसका आपने अनुभव किया है। ऐसे अमर्त्य कलाकारों के स्मरण के लिए आपको साधुवाद । एक और बात आपकी लोकिक लेखनी की सीमा अलोकिकता को स्पर्श करती है , आपको दिल से सलाम👏🏻💐
Reply1m
इस साक्षात्कार में अद्भुत गति है। मैं समृद्ध हुई यह पढ़कर। गम्भीर चिन्तन तो है ही इस बातचीत में साथ ही सौम्यता की रोशनी भी इस साक्षात्कार में घुली है। अद्भुत ♥️♥️
नाटक और नाट्य दर्शन को हम हल्के में लेते हैं।जो नहीं लेते वे समृद्ध हैं-लेखन से, विचार से और विषय के परिरम्भण से।
मलयालम के अद्वितीय लेखक और नाट्यकार व संसकृतिकर्मी कावालम पणिक्कर को गंभीरता से समझने का यही एक तरीका था कि वे नाट्यशास्त्र के अर्थगर्भित आशयों के साथ उनके भीतर के नाटकार को बाहर लाते। संगीता गुंदेचा ने इसमें सफलता भी हासिल की है।
संगीता गुंदेचा जी बधाई की पात्र हैं।
क्या वे हमें समास मुहैया करा सकती हैं। मैं उदयन वाजपेयी जी का बहुत शुक्रगुजार रहूंगा।
हीरालाल नागर
9582623368