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Home » खेला: वैश्विक पृष्ठभूमि में सत्ता का खेल: प्रीति चौधरी

खेला: वैश्विक पृष्ठभूमि में सत्ता का खेल: प्रीति चौधरी

‘खेला’ कथाकार नीलाक्षी सिंह का दूसरा उपन्यास है जिसे सेतु प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. कच्चे तेल की राजनीति से आतंक और हथियारों के वैश्विक खेल तक पसरे इस उपन्यास के कथानक में स्त्री की मौजूदगी और उसका अपना संघर्ष इसे ख़ास बनाता है. इसकी चर्चा कर रहीं हैं लेखिका प्रीति चौधरी.

by arun dev
October 21, 2021
in समीक्षा
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खेला: वैश्विक पृष्ठभूमि में सत्ता का खेल:  प्रीति चौधरी
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खेला: वैश्विक पृष्ठभूमि में सत्ता का खेल

प्रीति चौधरी

खेला की कथा वस्तु और उसके पात्र बिलकुल आज के दौर के हैं. कारपोरेट जगत में काम करते भिन्न सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमियों के युवा. ऑफिस की तिकड़म और उससे जूझने, पार पाने की उनकी अपनी प्रविधियाँ. ये किसी बड़े सपने से संचालित होने वाले युवा नहीं है ना ही उनके अंदर देश और दुनिया की राजनीति को लेकर कोई महसूस की जाने लायक़ छटपटाहट है. ये सब अपना वर्तमान जी रहे हैं या फिर यूँ कहें कि रोज़ी रोटी और थोड़े से स्वाभिमान को बचा लेने की जद्दोजहद करते ज़िंदगी की पैंतरेबाज़ी सीख रहे हैं. वरा कुलकर्णी, दिलशाद, दीप्ति सकलानी, किस्सागो की माँ,  अफ़रोज़, अमिय रस्तोगी सब किसी भी कारपोरेट ऑफिस में नज़र आ जाने वाले युवाओं की टोली है. ये भी कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण की चाल से चाल मिला लेने वाले भारत का ये वो उपभोक्तावादी दौर है जब मनुष्य की आंतरिक संवेदनाओं को भी किसी अनाम और अज्ञात सी दौड़ के पीछे छीजते जाना है. प्रेम जीवन में आने को ही है कि पलटी मार कर रास्ता बदल देने की नियति को स्वीकार कर आगे बढ़ जाने वाली है मुख्य पात्र वरा कुलकर्णी. वो प्रेम में हैं पर सामने वाले पर अपनी अच्छाई से अधिक अपनी बुराइयों को ज़ाहिर करने का कड़ा इरादा कर अपनी हरकतों को अंजाम देती है. अपने अंधेरे पक्ष को बजाने वाली सिग्नेचर ट्युन माफ़िक़ मुलाक़ातों के बीच पनपने वाली दोस्ती, पर ऐसे ही मटमैले नीरस से दोस्ताना संवादों के बीच, पैरों के दो जोड़ी खुरदुरे तलुओं के बीच से निकलती है एकदम खरी और ईमानदारी पोषित चाहत, मैत्री या फिर प्रेम कहलाये जा सकने की अर्हता वाली भावना जिसे दो चिनिया बादामों के दानों को फोड़ने के समय के बीच में प्रकट होना है. साथ की सरगर्मी जो अपनी थाली सामने वाले के लिए सरका देने या फिर एक ही रोटी को आधा आधा खा लेने के बीच मौजूद मिलती है. एक पुर सुकून प्यार को ना जी पाने वाली विडंबनाएं.

प्रेम जो इमोजी की शक्ल में प्रकट हो, स्माइली फेंक अपना रास्ता बदल अलविदा कह एक दूसरे ख़तरनाक रास्ते पर निकल पड़ता है. यही है वो दुर्धष जिजीविषा वरा कुलकर्णी की, बचपन में जिसके तलुओं के नीच से एक पूरा सांप सरक गया और वह अंगूठों के बल तनी, बोरों के पर्दों की झिर्रीयों से उस पार देखती रही थी. इस युवती वरा ने अब परदों के पार वाले संसार में गोता लगा दिया हैं. वैश्विक राजनीति के बड़े-बड़े खिलाड़ियों के द्वारा तय किए जा रहे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जाल में इरादतन फंस, अपने पंख फड़फड़ा कर लहूलुहान होती वरा का काम तो बस कच्चे तेल की क़ीमतों के उतार चढ़ाव पर नज़र रखना था. कच्चे तेल की कीमतों की राजनीति मध्य पूर्व के देशों समेत पूरी दुनिया को प्रभावित करने का माद्दा रखने वाला मसला है. कच्चे तेल की कीमतों में आये अप्रत्याशित उछाल या गिराव की तह में छिपी रणनीति को भेदने का प्रयास करतीं कम्प्यूटर स्क्रीन पर जमीं वरा की निगाहें देश की सीमा पार कर जब वुडापेस्ट पहुँचती हैं तो मिसेज गोम्स के रूप में एक दूसरी जीवट शख़्सियत से रूबरू होती हैं.

कई बार वरा और मिसेज़ गोम्स के व्यक्तित्व एक दूसरे के अतीत और भविष्य से जुड़े नज़र आते हैं. मिसेज गोम्स जिनका बच्चा घर से निकला और गायब हो गया. बाद में पता चला कि वह सीरिया पहुँच आतंकवादी बन चुका है. वरा जिसे मिसेज गोम्स की अपने बच्चे के लिए होने वाली माँ वाली तड़प भेदती है, जिसने तय कर लिया है कि मिसेज गोम्स के बेटे को ढूँढ कर उन्हें लौटा कर ही दम लेगी. पतली दुबली काया वाली वरा का नया प्रेमी या फिर प्रेम का नाटक जैसा कुछ. नाटक ही सही पर उसमें घटती प्रेम जैसी छिटपुट घटनाएँ मसलन कोई सच्चा चुंबन. पुलिस अफ़सर का भेस धरे आतंकवादी से प्रेम करती वरा कुलकर्णी. मिसेज गोम्स के आतंकवादी बेटे से प्रेम करती वरा कुलकर्णी. इसी प्रेम के चलते बलात्कार झेल अपहरणकर्ताओं के चंगुल में फंसी वरा पर अफ़सोस या दुख के किसी भी चिन्ह से परे हो चुका उसका अपना शरीर. शरीर नगण्य हो चुका है क्योंकि मामला पूरा जमीर और आत्मा का है. आह! क्या ज़िंदगी और क्या ज़िंदगी के खेल !भारत में ऑफिस के सहकर्मी उस भले से लड़के को जब वरा छोड़ती है तो दूसरी सहकर्मी दिलशाद उसे टोकती है …वो मुसलमान है इसीलिए ना ….पर वरा मुसलमान क्या एक कट्टरपंथी आतंकी के हाथों अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाने से बाज़ नहीं आती.

इस दांव में वरा को एहसास होता है कि वह जाने अनजाने किसी दलदल में फंस चुकी है जिससे बाहर निकलना मुमकिन नहीं. सबकुछ तो ठीक चल रहा था उसके प्रेम में तो क्या यह सबकुछ ठीक होना ही समस्या थी. उसे अपने प्रेम में किसी और को कमजोर नहीं करना था जिसे वह दुपट्टे से ढाँकने जैसे मुहावरे में देख रही है या कि यह कम वफा कुछ बेवफ़ा होने की सनक है कि कुछ और चाहिए की तलाश में कोई अनिश्चित सा बीहड़ रास्ता थाम ले. वरा और मिसेज गोम्स के बीच एक और रिश्ता जुड़ता है वो है यौन हिंसा झेलने का. मिसेज गोम्स जब मिसेज नहीं थी, इस कुंवारी के कौमार्य को हंगरी पर क़ब्ज़ा जमाये सोवियत सेना के रूसी सिपाही ने जबरन तोड़ा था और आनन फानन में उनका ब्याह रचा उन्हें पति के घर रूखसत कर दिया गया. ससुराल में ये सिर्फ़ मिसेज गोम्स जानती हैं कि उनके गर्भ में पल रही उनकी संतान उनके पति की नहीं उस ज़बरदस्ती कर चुके रूसी जवान की है. इस ज़बरदस्ती वाली पूरी प्रक्रिया में जब किसी ने रूसी जवान की गलती को गलती नहीं माना और पूरे प्रकरण में जमाने की रिवायत वाली सहमति ही नज़र आयी कि यह अमिसेज गोम्स की ही गलती थी कि वे खुद को बचा कर नहीं रख सकीं तो उन्नीस साल की लड़की की हैसियत इतनी भर थी कि वह भी ऊपर से अपने ज़ख़्मों को भरने के प्रयास में लग जाय. समाज कोई भी रहा हो औरत के प्रति होने वाली जघन्य क्रूरता को एक मामूली घटना के रूप में भूला देना सार्वभौमिक स्वभाव रहा है. लेखिका ने मिसेज गोम्स के हवाले से जो लिखा है वह स्त्री आंदोलनों के एक बड़े मुद्दे को बहुत आहिस्ता किंतु पूरी दृढ़ता से दर्ज करता है

“लेकिन त्वचा के जख्म भर जाने के आगे भी ज़िंदगी थी. जिस श्रेणी से वे बाबस्ता थीं, उस श्रेणी के प्राणियों के भीतरी ज़ख़्मों के भरने न भरने से समाज का पहिया रुकता न था.” (पृष्ठ 184,खेला)

इस पूरी पंक्ति को पढ़ते ही मैं ठहर जाती हूँ. समाज, देश, राज्य बड़ी-बड़ी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएँ, सच में सब चलता रहा है. औरतों ने बोलना और कहना ना शुरू किया होता तो किसे फ़िक्र थी कि ज़ख़्मी आत्मा कैसे ज़िंदगी निबाहती है. वैचारिकी के स्तर पर भी खेला, हाशिये के दर्द को केंद्र में लेकर चलती है. चार विवाहों वाली मिसेज गोम्स के बरक्स, भारत में रह रही, मुख्य पात्र वरा की सहकर्मी और दोस्त दिलशाद, जिसकी पहली शादी टूटने के कगार पर है, जो कई बार मरने की कोशिश करने मुंबई लोकल की पटरियों के बीच गयी है और ऐन वक्त पर आये किसी फोन से बच जाती है. जब वह वरा के साथ होती है तो उसके साथी अफ़रोज़ की तरफ खिंचाव महसूस करती है. वरा के बुडापेस्ट चले जाने और अफ़रोज़ के साथ हुए वरा के ब्रेकअप के बाद वह खुद अफ़रोज़ के साथ रहने लगती है. अफ़रोज़ भी खुद से ही उसके साथ रहने लगा है. यहाँ अफ़रोज़ छोड़ा गया नहीं है और शायद वरा ने उसे धोखा भी नहीं दिया है बस रास्ते अलग हो गये हैं बगैर किसी मलाल के.

वरा के शब्दों में शायद उसका प्रेम परफेक्शन की कगार पर था इसलिए उसने पाँव वापस खींच लिए. पूर्णता, दिव्यता शायद ईश्वरीय शब्दों वाले भाव हैं इसीलिए उन्हें अप्राप्य ही रहने दिया जाये. मुकम्मल इंसानियत अपूर्णता, अधूरेपन में ही है. वरा आज की किसी भी आत्मनिर्भर प्रतिभाशाली युवा की तरह शायद प्रेम के चुक जाने या फिर खो जाने के भय से भी सशंकित है. वह कई बार दूसरों के दांपत्य में प्रेम के स्वास्थ्य की मौजूदगी की वय भी तलाशती है. उसे लगता है प्रेम अगर कुछ है भी तो उसे प्रेम बने रहने के लिए किसी औपचारिक बंधन मसलन दांपत्य की ज़रूरत नहीं. दांपत्य में कुछ समय बाद प्रेम को बनाये रखने के जो तामझाम हैं वे प्रेम जैसे लग सकते हैं पर मुमकिन है कि वहाँ प्रेम बचता ही ना हो. बिना शादी के भी प्रेम कितना टिकाऊ हो सकता है इस पर भी वरा कुलकर्णी का कोई ठोस मत नहीं है. कयास और संभावना की लहर को पढ़ने का जतन करती, वो ज़िंदगी की धार में पांव दिए बैठी है,  जो सोच रही वही उसका सच है. कोई मलाल नहीं कि वो क्या खो देती है.

खेला में बहुत सारे पात्र ऐसे ही हैं अपने मामूलीपन में खालिस विशिष्टता लिए हुए. कितने अकुंठ संबंध. जीने का सहारा ढूँढते लोग, अपने अंदर के खो चुके प्रेम को फिर से रोपते गोड़ते नीरते लोग.

मैंने खेला अप्रैल में पढ़ी थी, अब जब कई महीने गुजर चुके हैं, कुछ बातें हमेशा के लिए याद रह गयी हैं. लेखक ज़िंदगी और समाज के लिए आख़िर ज़रूरी क्यों होते हैं? हर वक्त अपने साथ कुछ सवालों और चुनौतियों के साथ गुजरता है. त्रासदियों के समय वक्त ठहरा सा महसूस होता है पर वह भी अपने दर्ज किए जाने का इंतज़ार करता कट ही जाता है. हम जिस समय में जी रहे हैं वहाँ अराजनीतिक होने के पीछे की सबसे बड़ी राजनीतिक कसौटी यही है कि आप इंसानी हसरतों, उसकी कमज़ोरियों उसके सामर्थ्य और उसकी सीमा के साथ उसे इंसानी गरिमा से बेदख़ल करने की कोशिशों, साज़िशों के ख़िलाफ़ अपने तईं क्या कर पा रहे हैं. शक्तियों की साज़िशों और सत्ता केंद्रों से जूझते हुए, इंसानियत के सौंदर्य को बचाये रखने का जतन ही साहित्य है.

नीलाक्षी सिंह के लेखन में साधारण मनुष्यों की ज़िंदगी के मामूलीपन को उसके रोज़मर्रा के संघर्षों को, लेखकीय संवेदना का वैशिष्ट्य प्राप्त कर जो आभा प्राप्त होती है, वही उनके साहित्य की उपलब्धि है. नीलाक्षी के रचनात्मक संसार में स्त्री विमर्श बहुत शांत, मंथर पर पूरी दृढ़ता से मौजूद है. औरत का अपना नज़रिया, उसका अपना विश्लेषण और हर अच्छी बुरी परिस्थिति में अपने वजूद की ध्वजा को खुद थामे रहने की ज़िद्द के साथ खड़ी रहती हैं नीलाक्षी की महिला किरदार. ‘खेला’ में भी औरतों की अस्मिता का संघर्ष प्रच्छन्न और प्रकट दोनों तरीक़ों से अभिव्यक्त हुआ है. सीमा पार करती शरणार्थी महिला भी इस एहसास से महरूम नहीं है.

‘खेला’ उपन्यास, लेखिका की रचना यात्रा के मद्देनज़र इसलिए भी ध्यान आकर्षित करता है कि यह कथानक की दृष्टि से नीलाक्षी सिंह के कथा साहित्य में एक नया प्रस्थान बिंदु है. ’परिंदों का इंतज़ार सा कुछ’ कहानी से शुरू लेखिका की कथा यात्रा जिसकी कथावस्तु में विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले युवाओं की टोली है जो सहसा शहर में फैले सांप्रदायिक तनाव व फलस्वरूप लगे कर्फ़्यू की चपेट में आ जाती है,  उसमें अपनी सामाजिक लोकेशन के कारण कहानी की प्रमुख पात्र पर इसका क्या असर पड़ता है की शिनाख्त करती है तो प्रतियोगी कहानी एक क़स्बे की चौमुहानी पर कचरी पकौड़ी बेचती दुलारी की अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष को बयान करती है. उपरोक्त दोनों ही कहानियों की पृष्ठभूमि में देश के अंदर हो रहे राजनीतिक बदलाव व नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद की हलचल है तो ‘साया कोई.’ जैसी कहानी लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण की कवायद के तहत हुए ग्राम पंचायत के चुनावों में महिला आरक्षण को लेकर लिखी गयी है. इन कहानियों का ज़िक्र इसलिए की वे लेखिका की अपने समय को पकड़ने और समझने की क्षमता का मुख़्तसर इज़हार करती हैं.

नीलाक्षी सिंह का पहला उपन्यास ‘शुद्धिपत्र’ जहाँ युवा पीढ़ी के संघर्ष, कैरियर को लेकर उनकी चाहतें, उनकी उलझनों और अन्तर्द्वन्द्वों का आख्यान पेश करते हुए उनके मूल्यबोध और जीवन स्पंदन को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है तो ‘खेला’ नौकरी कर रहे युवाओं की दुविधाओं की तह तक जाता है. ये युवा जो युद्ध, राष्ट्रों की आर्थिक प्रतिद्वंद्विता, धर्म और राजनीति के पारस्परिक अंतरसंबंधों से उपजे तनावों के बीच बड़ी शक्ति संरचनाओं के समक्ष निहत्थे खड़े हैं. बकौल वरिष्ठ कथाकार अखिलेश

“देश- विदेश के छोरों तक फैले इस आख्यान को नफरत और प्यार के विपर्ययों से रचा गया है. इसीलिए यहाँ भावनात्मक रूप से टूटे-बिखरे लोग हैं और उसके बावजूद जीवन को स्वीकार करके उठ खड़े होने वाले चरित्र भी हैं.”

उपन्यास के पन्नों पर आईएसआईएस, सीरिया,  हंगरी में हुए बम विस्फोट जैसे घटनाक्रम के पीछे अमरीका और रूस की भूमिका और रणनीतिक समीकरण के ताने बाने को उजागर करते हुए शक्ति और हिंसा के पारस्परिक संबंधों की भी बख़ूबी पड़ताल की गयी है. धर्म और राजनीति का हिंसा से कितना गहरा नाता है लेखिका ने इसकी बख़ूबी पड़ताल की है.…….”

वरा कुलकर्णी ‘मुसलमान’ लफ़्ज़ से ‘हिंदू’ को बदल कर अपने देश के बारे में सोचने लगी. अब जाकर उसे मज़ा आने लगा. दुनिया में एक सी सोच उतनी भी दुर्लभ बात नहीं थी. वह नाहक ही समझती थी कि सबसे बड़ा खेल तेल को लेकर खेला जा सकता था. दरअसल दुनिया में सबसे मज़बूत बाज़ार हिंसा का था. इसे जब तक बचाये रखा जाता, तब तक दुनिया में पैसों की कमी नहीं पड़ती.…”

नीलाक्षी ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के शक्ति संबंधों को जो मूलतः सत्ता और उसमें समाहित हिंसा पर आधारित हैं के सूत्र को पकड़ते हुए जिस कथानक का ताना बाना बुना है वह अपनी बात या यूँ कहें अपने मूल मंतव्य को पाठकों तक पहुँचाने में कामयाब होता है कि आतंकवाद, धर्म, युद्ध, व्यापारिक प्रतिस्पर्धाओं के बड़े-बड़े समीकरणों के बनने बिगड़ने में अगर कोई नि:शस्त्र और बेबसी का शिकार होता है तो वह है मनुष्य जिसे कहीं नागरिक, कहीं शरणार्थी तो कहीं विस्थापित या पीड़ित या फिर सर्वाइवर के नाम से जाना जाता है.

नीलाक्षी का पहला उपन्यास ‘शुद्धिपत्र’ 2006 में आया. कहा जा सकता है कि अपने दूसरे उपन्यास के लिए लेखिका ने पर्याप्त समय लेकर अपनी आख्यान कला को और सिद्धि प्रदान करते हुए नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया है. पूरे उपन्यास में गहन दुखों, निराशा और संताप के बीच भी नीलाक्षी भाषा और वाक्य विन्यास को सिरजने का आनंद लेती नज़र आती हैं.

लेखिका को इस बात की बधाई दी जा सकती है कि उन्होंने ने एक बहुत कठिन इलाक़ा चुना और उसे कुशलता से निबाह ले गयीं. वरा कुलकर्णी समेत अन्य स्त्री पात्रों की गढ़न में हममें से कई स्त्रियाँ खुद को कुछ-कुछ पा सकती हैं. साधारण या फिर कम सुंदर होने के नाज़ के साथ वाला गर्वीला तेवर भी मन को भाता है. बेवफ़ा या कमवफा वाला पक्ष भी कुछ कम मारक नहीं है. ‘खेला’ उपन्यास में भाषा की कलात्मकता अपने उरूज पर है. कई जगह वाक्यों का स्वाद जबान पर बैठ जाता है. अक्सरहां किस्सागोई जादू की रस्सी फेंक अपनी तरफ खींच लेती है पर कहीं-कहीं थोड़ा उलझा भी देती है. जैसे सलाई पर बुनाई और फंदे के बीच कहीं-कहीं का झोल जैसा कुछ, उपन्यास का अंत बहुत दिलचस्प और शानदार है. ताज़गी से भरे इस लंबे उपन्यास को साध लेने की बधाई.

प्रीति चौधरी ने उच्च शिक्षा जेएनयू से प्राप्त की है, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, राजनय, भारतीय विदेश नीति, लोक नीति और महिला अध्ययन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. लोकसभा की फेलोशिप के तहत विदेश नीति पर काम कर चुकी हैं. साहित्य में गहरी रुचि और गति है. कविताएँ और कुछ आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.बुंदेलखंड में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार की महिलाओं को राहत पहुँचाने के उनके कार्यों की प्रशंसा हुई है.बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में राजनीति विज्ञान पढ़ाती हैं.

preetychoudhari2009@gmail.com

Tags: खेलानीलाक्षी सिंहप्रीति चौधरी
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Comments 1

  1. पंकज मित्र says:
    4 years ago

    वैश्विक परिदृश्य पर चल रहे “खेला” को डूबकर देखने – समझने की चाहत लिए और प्रेम – नफरत के चिरंतन खेल के बरक्स जीवन की चाहना को रूपाकार दिया है नीलाक्षी जी ने। प्रीति जी के पाठ ने निश्चित ही एक अलग दृष्टि दी है। उपन्यासकार और समीक्षक दोनों को बधाई

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