‘हमारे प्रकाशक लेखकों को स्टार नहीं स्टार को लेखक बनाने पर ध्यान दे रहे हैं.’ |
१.
‘क़िस्साग्राम’ को आपने उपन्यास कहा है. क्या इसे एक लम्बी कहानी (Novella) का दर्जा नहीं दिया जा सकता? इस कृति को उपन्यास विधा के रूप में अभिहित करने के पीछे क्या सोच व कारण रहे?
अगर पृष्ठ संख्या के दृष्टिकोण से देखें तो आपकी बात सही हो सकती है कि यह एक नॉवेला है, लेकिन लंबी कहानी तो कतई नहीं है. लेकिन उपन्यास का कोई संबंध उसके आकार-प्रकार से नहीं होता है- इस बात को आप बेहतर जानते हैं. मनोहर श्याम जोशी ने अपने एक साक्षात्कार में यह कहा था कि कोई कविता चार सौ पन्नों की क्यों नहीं हो सकती?
कोई कहानी दो सौ पन्ने की क्यों नहीं हो सकती? कोई उपन्यास पचास पन्नों का क्यों नहीं हो सकता? मैं तुलना के लिहाज़ से नहीं कह रहा लेकिन आप याद कर सकते हैं कि हिन्दी में अनेक यादगार उपन्यास अपने कलेवर में छोटे हैं लेकिन विजन में बड़े हैं, जैसे जैनेंद्र कुमार का उपन्यास ‘त्यागपत्र’ हो धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’. ‘अज्ञेय का उपन्यास ‘अपने अपने अजनबी’ भी बहुत छोटा उपन्यास है. मेरे गुरु मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘हरिया हरक्यूलिज की हैरानी’ और ‘हमजाद’ भी छोटे उपन्यास हैं लेकिन अपने कथ्य-शिल्प में बेजोड़ हैं.
क़िस्साग्राम’ में मैंने जिस तरह का विषय उठाया है उसमें विस्तार की पूरी संभावना थी लेकिन मैं इसको इस तरह से लिखना चाहता था कि बिना लाउड हुए समकालीन राजनीति पर अपनी कहानी लिख जाऊँ. वही मैंने किया भी.
२.
‘क़िस्साग्राम’ पर लिखते हुए अनामिकाजी ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि इस उपन्यास में न नायक है न नायिका न खलनायक. अनामिकाजी का यह अवलोकन मुझे दिलचस्प लगा. आम तौर पर उपन्यास विधा से जो अपेक्षाएं होती हैं- आरम्भ, मध्य, अन्त, कथानक आदि की- आपने उन्हें तोड़ा है और इस अभिप्राय में कह सकते हैं कि एक नई ज़मीन तोड़ी है. बल्कि कृष्ण बलदेव वैद द्वारा सुझाया गया शब्द “अनुपन्यास” ध्यान आ रहा है. अपनी संरचनात्मक तोड़फोड़, प्रयोगात्मक मिज़ाज आदि के चलते आपके उपन्यास को शायद “अनुपन्यास” भी कहा जा सकता है. हमारे समय में अब विधाओं ने अपनी सीमाओं को तज-सा दिया है और अनेक विधाएं मानो आपस में घुल-मिल गई हैं. एक विधा के तौर पर उपन्यास, अनुपन्यास, लम्बी कहानी और स्वयं अपने उपन्यास पर आप किस तरह से मनन करते हैं?
वैद साहब जिस अनुपन्यास की बात करते थे उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात होती थी प्रचलित अर्थ में जिसको कहानी कहा जाता था और जिस तरह से कहा जाता था उसका अभाव. तो यह अनुपन्यास तो नहीं है. अनामिका जी की बात के संदर्भ में मैं यही कहना चाहता हूँ कि यह उस तरह से प्रचलित अर्थ में कुछ किरदारों की कहानी नहीं है. यद्यपि इसमें बहुत से किरदार हैं. यह कहानी कुछ किरदारों की कथाओं के माध्यम से ही आगे बढ़ रही है लेकिन इसका उद्देश्य उनकी कहानी कहने से अधिक उस परिस्थिति का बखान करना है जिसमें हमारे देश की राजनीति को अंदर ही अंदर रूपांतरित कर दिया, जिसके कारण समाज का ताना-बाना बिगड़ गया. लेकिन मैं इस बात को बिना मुखर हुए बहुत सारे क़िस्सों के माध्यम से कहना चाहता था. यह एक तरह से मौखिक परंपरा की कथा है जिसको लिखित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है.
३.
कृष्ण बलदेव वैद के अलावा शायद आप हिन्दी के दूसरे ऐसे कथाकार हैं जिनकी रचनाओं में आते पात्र और परिवेश परस्पर आपस में लगातार आवाजाही करते रहते हैं- उपन्यास के पात्र कहानियों में हैं और इसके उलट भी. उदाहरण के लिए, वैद सा’ब के यहां “बिमल” उनकी कहानी में है, तो उपन्यास में भी. ठीक ऐसे ही आपके रचना-संसार में भी है. क्या ऐसा सायास है और आपकी तकनीक व शिल्प का ढंग है अथवा कुछ और मूलगामी स्तर पर ऐसा घटित हुआ है?
मेरी कथाभूमि बिहार का एक पिछड़ा क़स्बा रहा है जिसकी सबसे बड़ी प्रसिद्धि इस कारण से है कि वहाँ सीता जी का जन्म हुआ था. हम उस देवी की जन्मभूमि के वासी होने पर गर्व करते हुए अपने जीवन के दुख-तकलीफ़ों को भुलाए जीते रहते हैं. मैं उनके ही क़िस्सों को कहता हूँ. यह अलग बात है कि वहाँ से दूर हुए मुझे तीन दशक से अधिक समय हो गया लेकिन वहाँ के समाज, वहाँ के जीवन का असर मेरे ऊपर से कभी नहीं गया. मुझे आज भी सीतामढ़ी में पूरा देश दिखाई देता है. ऊपर ऊपर बदलाव तो बहुत दिखाई देता है, बड़े-बड़े मॉल्स, रेस्तराँ दिखाई देते हैं, लेकिन जरा सा समाज में घुलिए-मिलिए तो आपको समाज के बुनियादी स्वरूप में अधिक बदलाव नहीं दिखाई देगा. वही जाति, वही राजनीति, लगभग वही सामाजिकता.
मैं शुरू में कृष्ण बलदेव वैद और मनोहर श्याम जोशी दो समकालीन अनूठे लेखकों के गहरे प्रभाव में रहा. लेकिन दोनों की शैली नितांत मौलिक थी जिनकी नकल नहीं की जा सकती थी. लेकिन जोशी जी से एक बात मैंने सीखी थी गंभीर से गंभीर बात को भी पठनीय शैली में लिखने का प्रयास करना चाहिये. वही मेरे लेखन में सहज रूप से आ जाता है. लेकिन इन दोनों लेखकों का विजन बहुत बड़ा था. मैं एक साधारण लेखक हूँ.
४.
उपर्युक्त सन्दर्भ को एक दूसरे कोण से देखें: आपके कथा-संसार (उपन्यास और कहानियों) में १९९० का दशक केन्द्रीय है, अपनी बहुस्तरीय परतों में लिपटा और अपने संश्लिष्ट चरित्र को साकार करता. और सीतामढ़ी भी. जैसे कि उपन्यास में सीतापुरी. एक बड़े रूपक में बदलता.
क्या आप इसके बारे में सविस्तार बता सकेंगे कि आपने इस दशक को इतनी केन्द्रीयता क्यों दी है?
शायद हर इनसान के जीवन में एक ऐसा दौर होता है जिसे वह जीवन भर याद करता है और आह या वाह करता रहता है. मेरे जीवन का वह काल शायद 1990 का दशक ही रहा. जिस दशक में मैंने सिवाय पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने के कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे कम से कम मुझे भी यह लगा होता कि मैं आगे चलकर लेखक बनूँगा या कुछ भी बनूँगा. लेकिन इस दशक को मैंने हर रूप में जिया, भरपूर जिया. बहुत तरह के काम किए, बहुत अलग-अलग क्षेत्रों के अनुभव हासिल किए, बहुत किताबें पढ़ी. यात्राएँ भी बहुत की और समाज के अलग-अलग स्तर के लोगों की संगत में भी पर्याप्त समय बिताया. उनमें से कुछ लोग ऐसे थे जिनके बारे में मैं किसी से बात भी नहीं करता क्योंकि सुनने वालों को झूठ लग सकता है.
भारत की राजनीति और समाज के लिए भी 1990 का दशक बहुत महत्वपूर्ण है. इसने राजनीति को निर्णायक रूप से बदल दिया. इसी दशक की शुरुआत में मंडल कमीशन की रपट लागू हुई, भूमण्डलीकरण शुरू हुआ, मंदिर आंदोलन अपने चरम पर पहुँचा. हम सब न केवल इसके गवाह थे दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र नेता होने के कारण कुछ आंदोलनों में भागीदारी भी की. राजनीति को क़रीब से देखा तो यह समझ में आया कि यह मूल रूप से सत्ता के अलावा किसी की नहीं होती. समाज के आम जनों का हित उसके केंद्र में है ही नहीं.
मेरी कहानियों में यही सब आता रहा है. उपन्यास में भी आया है. मैंने ‘क़िस्साग्राम’ में यह दिखाने की कोशिश की है कि 2014 के बाद जिस तरह भारत की राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ उसके बीज 1990 के दशक में ही पड़ गये थे. यह बदलाव सतह के नीचे नीचे हो रहा था. उसके एक झलक इस उपन्यास की कथा में दिखाई देती है.
आप सही कह रहे हैं कि 1990 का दशक और उसके बाद के दशकों के बदलाव मेरी कहानियों में आते रहे हैं. उपन्यास में भी आया है.
५.
‘क़िस्साग्राम’ के कहन का ढंग आपने पारम्परिक कथा-शिल्पों से सींचा है. कहन का यह ढंग अपनाने के पीछे क्या वजह सक्रिय रही? क्या आपको लग रहा था कि इस उपन्यास में आप जो व्यक्त करना चाह रहे हैं वह इसी ढंग से व्यक्त हो सकेगा अथवा लिखने की प्रक्रिया में यह शैली स्वयमेव उभरती चली गई?
बल्कि आपकी अधिकांश कहानियों में भी यही शैली है. कह सकते हैं कि यह शैली आपकी निजी आवाज़ और चारित्रिक वैशिष्ट्य है. अपनी इस गल्पात्मक आवाज़ व शैली तक पहुंचने के सफर के बारे में कुछ बताएं. दूसरे शब्दों में, अपने लेखक की कर्मशाला के बारे में.
मेरी प्रेम कहानियों की भाषा, उनके लोकेल अलग हैं. उसके अलावा मेरे लगभग समस्त लेखन में कहन की यही शैली है. यह शैली असल में मेरे दादाजी की क़िस्सा सुनाने की शैली थी. वे इतने बड़े क़िस्सागो थे कि कई बार हम उनके क़िस्सों के आकर्षण में आधी-आधी रात तक जगे रहते थे. वे बहुत साधारण सी घटना को भी बहुत असाधारण ढंग से सुनाते थे. हमारे इलाक़े में बाढ़ लगभग हर साल आती थी लेकिन वे जब किसी साल बाढ़ से हुई तबाही के बारे में सुनाते तो ऐसा लगता जैसे सब कुछ हम लोगों को दिखाई दे रहा हो. वे काल्पनिक किरदारों के क़िस्से ऐसे सुनाते कि हम लोगों को यह विश्वास ही नहीं होता था कि वे सचमुच के किसी आदमी के बारे में नहीं बता रहे. बहुत बाद में जब मैंने लिखना शुरू किया तो धीरे धीरे दादाजी की वही शैली मेरे लेखन में आती गई. विशेष रूप से ‘क़िस्साग्राम’ तो पूरी तरह से वाचिक शैली की कथा है.
यह उनकी ही सीख थी कि एकदम काल्पनिक किरदार की कहानी बहुत विश्वसनीय शैली में सुनाई जाये. मेरी अधिकतर कहानियाँ इसी शैली में हैं और मैं शैली के बिना कहानी नहीं सोच पाता. कहने का मतलब यह है कि पहले मेरे दिमाग यह आता है कि इस कहानी को किस तरह सुनाना है. उसके बाद कहानी उतरती चली जाती है.
वैसे मैं जिस लोक का था, जहां से मुझे पहले पढ़ाई और बाद में रोज़ी रोटी के लिये निकलना पड़ा, मेरे समस्त लेखन पर वही भाषा, वही समाज, वहीं की शैली हावी है. क्या पता कभी उस लोक के आलोक से कभी मुक्त भी हो पाऊँगा या नहीं. शायद लेखक इसी तरह से अपनी मिट्टी का ऋण चुकाता हो. मैं मूलतः जिस समाज का था मेरी शिक्षा ने उस समाज के लिए मुझे अपरिचित बना दिया.
मेरे लेखन की कर्मशाला कोई निश्चित नहीं है. मैं बहुत पढ़ता हूँ. हिन्दी अंग्रेज़ी की किताबों के अलावा फ़ेसबुक पोस्ट से लेकर ईबुक तक. जो भी समय बचता है उसमें मैं यही करता रहता हूँ. पढ़ते-पढ़ते अचानक किसी दिन कुछ कौंध जाता है और मैं लिखने लगता हूँ. कभी किसी का कहा कोई वाक्य, कभी देखा गया कोई दृश्य, अपने या किसी अपने के जीवन की कोई घटना कुछ भी कौंध सकता है. जैसे ‘क़िस्साग्राम’ को लिखने के पहले मुझे अपने गाँव की एक घटना अचानक याद आ गई जब वहाँ के एक पहलवान ने दंगल हारने के बाद हनुमान जी के मंदिर की मूर्ति तोड़ दी थी. लेकिन वह घटना बस इतनी ही थी. इसके आगे कुछ नहीं हुआ था.
लेकिन जब अचानक वह घटना मेरे दिमाग में कौंधी तो मैं उसके बारे में बार-बार सोचने लगा और फिर इस उपन्यास का वह गाँव रूपाकार लेने लगा जिसमें सारी घटनाएँ घटित हो रही हैं.
६.
‘क़िस्साग्राम’ एक गांव और ज़िले का ज़मीनी दृश्यालेख होने के साथ ही समकालीन भारतीय राजनीतिक दृश्य को भी व्यंजित करता चलता है. शुरू में कथा का ताना-बाना सिर्फ़ “बदलते राजनीतिक नैरेटिव” पर ही केन्द्रित नहीं है, लेकिन उत्तरार्द्ध तक आते-आते राजनीतिक नैरेटिव में बदल जाता है. क्या आपको नहीं लगता कि इससे उपन्यास किंचित एकांगी स्वर ग्रहण कर लेता है जबकि शुरुआत में संभावनाएं बहुस्वर युक्त हैं?
पीयूष जी हम जिस समय में जी रहे हैं वह पूरी तरह से राजनीतिक आच्छादित समय में है. अभिव्यक्ति के जीतने माध्यम हैं उनके ऊपर राजनीति की बातें होती हैं. 2014 के बाद समाज में राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ा है. लेकिन एक बात और है देश-समाज में बदलाव की ज़िम्मेदारी राजनीति से ही आती है. इस उपन्यास में 1990 के दशक की बात है जो राजनीतिक रूप से बहुत बड़े बदलावों का दशक था. इसलिए इसमें स्वाभाविक रूप से राजनीति का प्रवेश हुआ है. यह एक राजनीतिक उपन्यास ही है. इसको लिखते हुए मैं और कुछ नहीं सोच रहा था. मैं यही सोच रहा था कि राजनीति जनता से कितनी दूर हो गई है, राजनीतिक दलों के लिए जनता वोट से अधिक कुछ भी नहीं है. चाहे किसी भी धारा या विचारधारा की राजनीति हो उसका लक्ष्य सत्ता हासिल करना होता है.
७.
इसी से जुड़ा एक और पक्ष :
उपन्यास में आते विभिन्न घटनाओं, प्रसंगों के परिप्रेक्ष्य को और उभारने के सन्दर्भ में सहज ही ऐसी व्याख्याएं जैसी भी आप रखते चलते हैं, जिन्हें दरअसल, सुन्दर सुभाषितों के रूप में भी देखा जा सकता है. ये सुभाषित पूरे उपन्यास के अंतर्विन्यास में छितरे हुए हैं, संदर्भित प्रसंग को भी मानो खोलते हुए. जबकि आपकी कहानियों में ऐसा बहुत कम है. उपन्यास में इन सुभाषितनुमा गद्य का होना दर्ज प्रसंगों को पाठक के लिए वृहत्तर करना व स्पष्ट करने का अतिरिक्त मोह है अथवा इसे कथात्मक संरचना के आन्तरिक तर्क के तौर पर आप देखते हैं?
असल में ये सुभाषित नहीं हैं परिस्थितियों के सार रूप की तरह आये वाक्य हैं. यह भी क़िस्सा सुनाने की शैली का ही हिस्सा है. मैं असल में उत्तर बिहार के अनेक समाजवादी नेताओं के आसपास रहा. दिल्ली आने के पहले तो मैं राजनीति के बारे में जाने के बारे में गंभीरता से सोच रहा था. उन दिनों हमारे यहाँ समाजवादी राजनीति का ज़ोर था. 1974 के आंदोलन से जुड़े अनेक नेता थे जिनके मैं नियमित संपर्क में था. इस तरह के सुभाषित वही सुनाया करते थे. ये सुभाषित एक तरह से उस दौर के समाजवादी नेताओं को समर्पित हैं जिनका हमारे इलाक़े में बहुत गहरा असर था.
8.
आपके लेखकीय स्वभाव में विट, ह्यूमर और आयरनी का ख़ास महत्त्व है. यह आधुनिक समय का एक प्रमुख स्वर भी रहा है- विट और आयरनी को, अपनी रचनाओं के सन्दर्भ में, आप किन तरहों से बरतना पसन्द करते हैं?
यह स्वाभाविक रूप से आ जाता है. यह शायद मेरे लेखन पर मनोहर श्याम जोशी का एकमात्र प्रभाव है. उनके उपन्यास हँसते-हँसाते हमारे अस्तित्व को लेकर बहुत गहरी बात कहने वाले थे. चाहे कुरु कुरु स्वाहा हो, कसप हो, हमज़ाद हो, हरिया हरक्यूलिज की हैरानी हो, उनके उपन्यासों में विट और आयरनी का बहुत पुट है. गुरु से कुछ न कुछ शिष्य में आ ही जाता है. लेकिन यह मेरी रचनाओं का भी अन्तर्निहित हिस्सा रहा है. मैं गंभीर से गंभीर बात भी बिना हँसी मजाक के नहीं कह सकता. मेरी कहानियाँ, मेरा उपन्यास भी नहीं कह सकता.
९.
आपका उपन्यास पढ़ते हुए यह खयाल कर मुझे गहरा विस्मय हुआ कि आपके उपन्यास में, यहां-वहां के दो-तीन स्थलों को छोड़ दें, तो पूरा उपन्यास प्रकृतिविहीन है. आप शायद हिन्दी के पहले ऐसे उपन्यासकार हैं जिनके उपन्यास में प्रकृति अनुपस्थित है. बल्कि आपकी कहानियों में भी प्रकृति इतनी कम उपस्थित है कि हैरानी होती है. इसे भी एक बड़े रूपक की तरह देखा जा सकता है. यह एक बड़ा सवाल है. क्या आपको भी ऐसा लगता है; आप क्या कहना चाहेंगे?
यह बात आपने कही तो मैं भी चौंक उठा. क्योंकि मेरे जीवन का शुरुआती हिस्सा प्रकृति की गोद में ही बीता है. मेरे घर के आसपास बहुत बड़े-बड़े बगीचे थे, किशोर जीवन में मैंने खेती भी की. मेरी शुरुआती कुछ कहानियों में प्रकृति के उपादान आते भी हैं लेकिन वे धीरे-धीरे ग़ायब होते जाते हैं. शायद मेरे किरदार उस परिवेश से नहीं आते हों जिनका प्रकृति से जुड़ाव रहा हो. वैसे यह उपन्यास गाँव के जीवन को लेकर ही है. लेकिन अब गाँव ‘अहा ग्राम जीवन भी क्या है’ कहाँ रह गया है? गाँव भी प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं. जंगल कटते जा रहे कंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे. ऐसे में प्रकृति के लिये जगह है कहाँ?
१०.
आपके उपन्यास और कहानियों में एक और बात भी मुझे मूलगामी लगती है : आप दूसरे बहुतेरे कथाकारों की तरह अपनी रचनाओं में कभी भी मूल्य निर्णय देने की मुद्रा में नहीं आते. हमेशा पाठकों के लिए सब कुछ खुला छोड़ देते हैं : इसके पीछे किस तरह की रचनात्मक दृष्टि काम कर रही है?
यह तो उत्तर आधुनिकता की शैली रही है. बहुत से लेखकों ने इस शैली को अपनाया है. मैं जब कहानी लिख रहा होता हूँ तो उसमें लेखक को हावी नहीं होने देता. लेखक का स्वर पार्श्व में होना चाहिये. मुझे पढ़ने में भी ऐसा साहित्य पसंद है जिसमें लेखक मितकथन की शैली में लिखता है. लिखने में भी वही बात आ जाती है. बिना लाउड हुए, बिना नारा लगाये अपनी बात मजबूती से कहना.
११.
आपने २५ से भी अधिक किताबों का अंग्रेजी से अनुवाद किया है, लेकिन आपके इस काम का कोई प्रत्यक्ष असर आपके उपन्यास या कहानियों पर नज़र नहीं आता. आपके अनुवाद-कर्म का आपके लेखन-कर्म पर किस तरह का प्रभाव पड़ा है?
उल्टा मुझे लगता है कि अनुवादों का असर मेरे ऊपर बहुत पड़ा. मैं भाषा में अलग अलग तरह की शैलियों में सफलतापूर्वक लिख पाता हूँ तो यह अनुवाद का ही प्रभाव है. भाषा की रेंज का पता मुझे अनुवाद से ही चला. कथ्य के स्तर पर हो सकता है कि यह प्रभाव लक्षित न होता हो लेकिन भाषा के स्तर पर तो यह प्रभाव बहुत अधिक है.
१२.
उपन्यास में एक भी स्त्री पात्र का न होना क्या कुल कथ्य के अनुरूप लगा या कुछ और गहरे कारण रहे कि उपन्यास में स्त्री मात्र अनुपस्थित है? हाल में पढ़े गए उपन्यासों में “क़िस्साग्राम” इस वजह से भी उल्लेखनीय है.
क़िस्साग्राम की कथा में स्त्री के लिये जगह कहाँ है? उसमें कुश्ती की दुनिया है, राजनीति की दुनिया है. आज भी राजनीति में स्त्री को सम्मानित स्थान कहाँ मिला है. इसलिए स्त्री पात्रों का न होना सायास है. वैसे मेरी कहानियों में स्त्रियाँ प्रमुखता से रही हैं. मेरी किताब ‘कोठागोई’ तो स्त्रियों के ऊपर ही केंद्रित रही है.
13.
हिन्दी में अमूमन एक लेखक की एक या दो प्रकाशकों से ही किताबें छपा करती हैं. आपकी किताबें अनेक प्रकाशकों के यहां से आई हैं. प्रकाशकों के साथ अपने सम्बन्ध और हिन्दी प्रकाशन जगत के बदलते हुए दृश्य पर आपके विचार क्या हैं?
सभी प्रकाशकों से कई कारणों से मेरे अच्छे संबंध रहे हैं. मैं संपादक रहा और किताबों को लेकर जानकी पुल वेब पत्रिका चलाता हूँ. इसलिए इस दुनिया को बहुत अच्छे से समझता भी हूँ. हिन्दी प्रकाशन की दुनिया बहुत बदल गई है. प्रकाशन पूरी तरह से व्यवसाय होता जा रहा है. इसमें धीरे-धीरे उस साहित्य की जगह कम होती जा रही है जिसको हम अभी तक साहित्य मानते आए हैं.
यह दुनिया पूरी तरह से मुनाफ़ा केंद्रित होती जा रही है. बिक्री को ध्यान में रखकर किताबों का प्रकाशन किया जा रहा है. मनोरंजन के माध्यमों की तरह इसमें भी सेलिब्रिटीज़ हावी होते जा रहे हैं. आने वाले समय में यह और बढ़ेगा. हमारे प्रकाशक लेखकों को स्टार बनाने पर ध्यान नहीं देते, उसके लिए कोशिश नहीं करते. वे बने बनाये स्टार को लेखक बना रहे हैं. यही सब अंग्रेज़ी प्रकाशन जगत में भी हो रहा है लेकिन उसमें फिर भी साहित्य की अपनी जगह बरकरार है.
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें.
प्रभात रंजन
जन्म 3 नवम्बर, 1970 को बिहार के सीतामढ़ी जिले में. तीन कहानी संग्रह और एक उपन्यास ‘कोठागोई प्रकाशित. अंग्रेज़ी से हिन्दी में 25 से अधिक पुस्तकों का अनुवाद. ‘सहारा समय कथा सम्मान’, ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’, ‘कृष्ण बलदेव फेलोशिप’, ‘द्वारका प्रसाद अग्रवाल उदीयमान लेखक पुरस्कार’ से सम्मानित. |
पीयूष दईया
जन्म अगस्त 1972, बीकानेर (राज़) तीन कविता-संग्रह और अनुवाद की दो पुस्तकें. चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद. और एक लम्बी कहानी ‘कार्तिक की कहानी‘ प्रकाशित. साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन. |
बहुत समृद्ध बातचीत.प्रभात जी और पीयूष जी को साधुवाद.
अभी, अभी, पुस्तक मेले से किस्साग्राम खरीदी। पढूंगी, जल्दी ही। तभी कुछ कह सकूंगी। लेकिन साक्षात्कार इस मामले में बढ़िया है कि पढ़ने की उत्सुकता इसने बढ़ा दी।