चनाब की धार में सोबती का लोकतन्त्र सन्तोष अर्श |
लेखक का लोकतन्त्र राजनीतिक लोकतन्त्र से अधिक विस्तृत, अमूर्त, सूक्ष्म व यथार्थ पर आधारित होता है. निःसंदेह वह समष्टि में कल्पना, प्रत्यय, वैयक्तिक सत्य, कला की नरमी और औदार्य के साथ उपस्थित होता है, किन्तु अपने चोले में वह किसी शल्य-उपकरण की भाँति तर्क को भी छिपाये रखता है, उसकी रूखी निरंकुशता को जानते-बूझते हुए. पुराने लेखकीय लोकतान्त्रिक प्रयत्नों और सामाजिक लोकतन्त्र का आधुनिक धरातलीय स्वरूप कहीं-न-कहीं इन धारणाओं को उचित ठहराता है. विगत एकाधिक शताब्दियों में मालूम हो चुका है कि व्यावहारिक स्तर पर राजनीतिक लोकतन्त्र में कई ख़ामियाँ और कमज़ोरियाँ हैं, जिनमें से प्रमुख है कि पूर्णता की चाह में यह राष्ट्र-राज्य का निर्माण करता है.
राज्य की प्रवृत्ति है शक्ति-संचय और प्रदर्शन. इसकी असंयमित शक्ति ही लोकतन्त्र के लिए संकट बनती है. साहित्यकार से राज्य का संघर्ष इस बात को लेकर है कि वह उसकी स्वायत्तता पर नियन्त्रण चाहता है. इसलिए यह संघर्ष एक स्वायत्त और स्वतन्त्र लेखक का संघर्ष है. क्षयग्रस्त लोकतन्त्र में आज हम जिन विद्रूपताओं से घिरे हुए हैं, उनमें हमें उन लेखकों के रचनात्मक साहस, भाषिक विवेक और उनके द्वारा सृजित मूल्यपरक निष्ठा की ओर देखना चाहिए, जिन्होंने किसी भी परिस्थिति में मूढ़, क्रूर, जनविरोधी, दमनकारी राजनीतिक प्रभुताओं के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं किया. वे, जो द्वंद्वपूर्ण लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के विकास में अवाँगार्द रहे हैं. जिनके द्वारा रचित साहित्य में सामूहिक-चेतना के क्षितिजवृत्त पर व्यक्तिगत सत्य और व्यक्ति-स्वातंत्र्य का समन्वय स्थापित किया गया; और जो लेखक के सम्मान, उसके अहं, श्रम और जीवट के मुहाफ़िज़ रहे हैं.
कृष्णा सोबती की साहित्यिक चेष्टाएँ निर्भय, क़द्दावर, जुझारू हैं और संकल्पधर्मा चेतना के उच्च स्वर की साधक भी. वे लोकतन्त्र में सर्जक की अवस्थिति को असाधारण और विशिष्ट मानती हैं, बल्कि उनका स्वयं का रचना-कर्म, मर्म और जीवन-दर्शन इस सत्य की पुष्टि है. साहित्य उनके लिए विशेष है और उसमें वे लोकतन्त्र के साथ उसकी स्वायत्तता भी देखती हैं. लेखक के बौद्धिक अस्तित्व और विचार संवेदन को प्रवाहमान मानती हैं. साहित्य लोकतन्त्र नहीं है, मगर ऐसा आभास होता है कि आधुनिक साहित्य से अधिक लोकतन्त्र और कहीं नहीं है. इस तर्क पर कि साहित्य सबकी सुनता है. इसमें ख़लील जिब्रान पागलों की सुनता-सुनाता है. इसी में ‘सभ्यता और पागलपन’ की जिरह है. ‘टोबा टेक सिंह’ है. फिर सत्य कितना भी ‘संदिग्ध’ क्यों न हो और लेखक किसी दूसरे के सत्य को स्वीकार करे-न-करे, मगर साहित्य सबके सत्य को स्वीकार करता है. ‘गल्प’ की तरह.
जनसमूह (भीड़) की नादानियों से निर्मित लोकतन्त्र व्यक्ति-अहं का प्रतिनिधित्व करता है, जोकि उसकी (व्यक्ति की) नागरिक स्वतन्त्रता का ही अनुषंग है, जबकि निस्संग होकर लेखक अपने नागरिक बोध से वर्चस्वशाली प्रभुसत्ताओं के लिए तर्क और यथार्थ के बने अवरोध खड़े करता है. टकराव उसके लिए अपरिहार्य नहीं है, किन्तु चिड़ियों और पेड़ों के बारे में लिखकर भी वह राजनीति से निरापद नहीं रह सकता. अपने सम्यक रूप में कोई लेखक लोकतान्त्रिक ही होता है, क्योंकि वह ऐतिहासिक सचाई की निरन्तरता से रौंदी गयी मानवीय मूल्यों की नर्म मिट्टी का बना होता है. दूसरी ओर उसकी (राज) नीति, जो वस्तुतः साहित्य की ही राजनीति है, मूल्यपरक होती है. चूँकि आधुनिक राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना मनुष्य-मनुष्य की समानता, सहभागिता के तर्क से हुई है इसलिए इसकी सत्ता को लेखकीय मूल्यों से विलग नहीं किया जा सकता.
आज के हमारे लोकतन्त्र पर छाये संकट का अनुमान अब से बहुत समय पूर्व प्लेटो ने किया, जब उसने कहा कि, लोकतन्त्र जो कि कुलीनतंत्र का ही अनुसरण करता है, उसमें अधिनायकों के उत्पन्न हो जाने की आशंकाएँ व्याप्त हैं. इसीलिए उसने इसे तीसरे दर्जे की राज-व्यवस्था भी माना था. अब पूँजी निर्मित कुलीनतंत्र की सेवा करते लोकतन्त्र के मध्यस्थों ने इसे भ्रष्टतन्त्र (Kleptocracy) बना दिया है.
यह तन्त्र पूर्व से अधिक जटिल, मायावी और छद्म है, जो नागरिक को सत्य, न्याय और यथार्थ से दूर रखता है. प्लेटो ने रिपब्लिक-८ में लोकतन्त्र को लेकर जो बहस पेश की है उसका लब्बोलुआबी मतलब यूँ है कि कुलीनतन्त्र का अनुसरण करने वाले लोकतन्त्र में तानाशाही कभी भी जन्म ले सकती है. अचानक कोई देश ज़ुल्मत-कदा बन सकता है. दो-दशक पूर्व की कथित लोकतन्त्र प्रणाली में कम-अज़-कम इतनी शर्मो-हया थी कि 2003 में अमेरिका का विदेश मंत्री जब इराक़ के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर रहा था तो पिकासो की ‘गुआर्निका’ को चित्रित करने वाली टेपेस्ट्री को ढक दिया गया था. अब तो उतनी भी लाज नहीं रही. साहित्य और अन्य कलाओं को ठिकाने लगाने के अनेक इन्तज़ाम कर दिये गये हैं.
मुक्त अभिव्यक्ति लोकतन्त्र के उसूलों में ख़ास है, किन्तु लेखक को जितनी भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है, उतना ही उसके लिए जोख़िम भी है. सत्ताएँ कभी नयी अभिव्यक्ति का स्वागत करती नहीं पायी गयीं, अपितु उससे आहत ज़रूर हुयीं. आदि से लेकर अन्त तक प्रत्येक खरे लेखक ने अपने समय की प्रभुताओं को आहत किया है. उसकी अभिव्यक्ति की स्वीकृति विलम्बित रही है. अपने प्रारम्भिक लेखन में ही सोबती ने वर्जित का अतिक्रमण किया. उनके साहित्य की असुविधाजनक अभिव्यक्तियों से व्यवस्था के कान खड़े हो गये. स्त्री-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर लगे पहरों और सियासत से इसके मुख़ालिफ़ी अंतर्संबंधों के ज़रिये ही सोबती ने लेखक और लोकतन्त्र की संपृक्ति को जाना-समझा होगा. सोबती की लोकोन्मुख, कुलीन लेखकीय अन्तः प्रज्ञा ने मौज़ूदा परिदृश्य को पहचानकर उस पर अपनी गहरी चिंताएँ व्यक्त की हैं. लेखक के जोख़िम का उन्हें अनुमान है, क्योंकि उन्होंने स्वयं अभिव्यक्ति के बड़े ख़तरे मोल लिये. तभी वे कह सकी हैं कि:
“जिन जोख़िम, ख़तरों और चुनौतियों से आज का लेखक और लेखन दोनों घिरे हैं, उनमें हर क़लम को अपने को याद दिलाते चले जाना बहुत ज़रूरी है कि लेखक से बड़ा लेखन है और लेखन से भी बड़े वे मूल्य हैं, जिन्हें ज़िंदा रखने के लिए इंसान बराबर संघर्ष करता आया है, बड़ी-से-बड़ी क़ीमत चुकाता आया है.”1
इस ढब में चार फुट, ग्यारह इंच की काठी वाली कृष्णा सोबती का रचनाकार क़द ऊँचा है, इस तरह कि वे इस महान देश और विराट् लोकतन्त्र के फ़लक़ पर पुरखिन-सी आविर्भूत होती हैं. लेखकीय चेष्टाओं, मौलिकताओं, भाषिक-विवेक, वैचारिक-साहस, अभिव्यक्ति के जोख़िम आदि की दृष्टि से सोबती की साहित्यिक व्याप्ति सशक्त, प्रगाढ़ और प्रतिरोधी है. उनकी आख्यानपरक रचनात्मकता का इतिहास-दर्शन जिसे अकादमिक लोग साहित्य का इतिहास दर्शन कहते हैं, इस देश के वर्तमान और आगामी लोकतन्त्र लिए एक जड़ी है, अपितु इसकी भौगोलिक और सांस्कृतिक जड़ों के लिए ऐसी खाद है जो इस महावृक्ष की हरेरी चमक में वृद्धि करने वाली है. सोबती साहित्य के इतिहास दर्शन को अलग से पहचानती हैं. इतिहास से बाहर के इतिहास को वे लोगों की सामूहिक चेतना में देखती हैं. इतिहास और साहित्य के मध्य क्रियाशील राजनीति को भी वे लक्षित करती हैं.
विभाजन सोबती-आख्यान और जीवन का ऐसा सानेहा है कि उसका वृत्तांत कह सुनाने की उनकी कोशिश रचनात्मकता के लिए तवील नज़र आती है. इसमें यातना है, पीड़क स्मृति है, मुराद है, बिछोह है, तड़प है. यह पिछली शताब्दी के भारतीय और विश्व इतिहास की भी एक बड़ी राजनीतिक घटना थी. अनेक लेखकों ने अनेक शैलियों में मनुष्यता की छाती पर लगे इस गहरे घाव की पीड़ा बताने-जताने और इसकी अनुभूति कराने के जतन किये. सोबती के आख्यान और ग़ैर-आख्यानिक पाठ में भी यह क़िस्सा सुनाने से तमाम नहीं होता. वे धार्मिक-जातीय घृणा से बहाये गये लहू के दरिया में डूबती-उतराती हैं. इस दास्तान की ख़ुसूसी और मूल्यपरक बात है कि ऐसा विघटनकारी विभाजन, उसमें समाविष्ट रक्तपात, मारकाट, बलवा, दंगा-दुराचार, घर-द्वार से बिछड़ने और शरणार्थी बनने की यातनापूर्ण त्रासदी को देखकर भी उन्होंने क़ौमी यकज़हती और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से अपना मुँह नहीं मोड़ा, बल्कि उनका कहना हुआ कि :
“विभाजन एक ऐसे ऐतिहासिक विघटन की मानवीय स्मृति है जिसे भूलना नामुमकिन है और याद रखना ख़तरनाक.”2
मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ को वे विभाजन पर लिखे गये साहित्य का अधिचिह्न मानती हैं. पागलपन का वह एकमात्र रूपक है, जो ऐसी त्रासद ऐतिहासिक घटना को अभिव्यक्त कर सका.
दूसरी तरफ़ सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने वाली सोबती ने आर्यसमाज को पंजाब में खलरत देखा:
“मुझे संदेह है कि पंजाब के आर्य समाज के प्रभाव में आने के बाद ही सामाजिक तनाव बढ़ा.”3
वे विभाजन के कारक तत्त्वों, जो राजनीति के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील भी हैं, की मुखर विवेचना करती हैं और तर्क का साथ नहीं छोड़तीं. विभाजन में वे घृणा की राजनीति को प्रमुख और धर्म को गौण वजह मानती हैं, इसके लिए बांग्लादेश की मिसाल देती हैं. मुल्क़ को बँटते हुए देखने में हिंसा, निःसहायता, लाचारगी, मायूसी के बड़े दृश्य सामने खड़े हैं. यह कोई छोटी-सी फाँक, मामूली-सी बाँट नहीं थी. क्योंकि ‘तब तक किसी ने देखा नहीं था मुल्क को बँटते.‘ घृणा की उसी पुरानी सुलगती भट्ठी में दिन-रात फूँक मारती आज की राजनीति को विभाजन पर रचे गये साहित्य की गहरी अर्थध्वनियों पर कान देना चाहिए, जहाँ इस घटित के वीभत्स के प्रति गहरा रोष ज़रूर है, किन्तु मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था शेष है:
“भारत और पाकिस्तान में विभाजन पर लिखे गए साहित्य में वीभत्सता के वर्णन तो हैं मगर उसमें मानवीय मूल्यों के संरक्षण के प्रयास किये गए हैं. यह प्रयास उल्लेखनीय है, क्योंकि संप्रदायों के बीच घृणा पक्के तौर पर मौज़ूद थी.”4
वर्तमान जातीय घृणा के स्तर का अंदाज़ा करती सोबती अपने संवादों में कई स्थान पर दूसरे विभाजन के भय और आतंक को छिपा नहीं पातीं. विभाजन को आज के सन्दर्भों से जोड़कर देखें तो लगता है कि अभी उससे बहुत दूर निकल कर नहीं आये हैं. अतीत में की जा चुकी घृणा की वह खेती अहमक़ाना सियासी महत्वाकांक्षाओं का उदर भरने के लिए थी. आज की घृणा कार्पोरेटी पूँजी को बहुगुणित करने और नागरिक-अन्धकार क़ायम रखने के लिए है. राजनीति बस उनकी चेरी मात्र है, जिन्हें स्वतन्त्रता, बन्धुत्व, सहभागिता, शान्ति, उन्नति जैसे मूल्यों से कुछ निस्बत नहीं. आज भी घृणा की इस खेती में पढ़े-लिखे कुलीन और पूँजीपति ही शामिल हैं. आम लोगों को इससे कुछ विशेष लेना-देना नहीं है.
उपनिवेशवाद के पतन में राजनीतिक संभावनाओं की तलाश ने अंततः वह किया जो अमानवीय था. समाज, धर्म और सियासी गुटों ने मिलकर उसे अंजाम दिया, जो चरम था. सब दुर्घटित हो चुकने के बाद आख़िर में बुझे चेहरों और पीड़ित मनुष्यता से बोझिल, झुके कन्धों वाले शब्द लिये लेखक आते हैं. उन्होंने ही युद्धों के बाद मलबा बटोरा है. लाशें गिनी हैं. जलायी गयी बस्तियों को एकटक निहारा है. क़त्ल कर दिये गये सुन्दर जीवन की खोज की है. नष्ट कर दी गयी औरतों, अनाथ हो गये बच्चों की सुध ली है, वह सब कहा है, जो अकथ रहा:
“फिर भी अधिकांश लेखक इंसान की मूलभूत मानवीयता पर ज़ोर देना भूले नहीं. उन्होंने यह बात विस्तार से कही की विभाजन एक राजनीतिक फ़ैसला था.”5
विभाजन की त्रासदी पर सोबती-विचार अधिक मानवीय हैं. ये भावी राजनीतिक निर्णयों के लिए उजाले का एक गवाक्ष बनाते हैं. घृणा की काली-मोटी दीवार में वे एक लेखकीय खिड़की जड़ देती हैं, जिसमें से अम्न का नूर इस पार आ कर झरता है.
उनकी वतनपरस्ती भी निर्मल और निश्छल है, किन्तु कुलीन भी. ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकारी सेवारत परिवार में जन्म होने के बावज़ूद उनके मिज़ाज में, लेखन में स्वराज्यवादी भाव जागृत हैं और वे देर तक जगे रहते हैं. देश में छिड़े स्वाधीनता संघर्ष, उससे जुड़े नेताओं और सेनानियों के उन्होंने चित्र खींचे हैं. स्वाधीनता, विभाजन और गाँधी की हत्या उनकी राजनीतिक स्मृति का अभिन्न हिस्सा हैं. इससे वे एक इतिहास बोध भी निर्मित करती हैं :
अप अप है गाँधी सच्चा
डाउन डाउन है टोडी बच्चा6
गाँधी की अपूर्व सत्याग्रही संयम-शक्ति और अपार अभय-महिमा का सोबती पर बचपन में ही प्रभाव पड़ा था. उनके चिन्तन पर भी इसका पानी चढ़ा हुआ है. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध गाँधी के व्यापक, ज़मीनी संघर्ष से ही भारतीय जनमानस में स्वाधीन-चेतना का उदय हुआ था. उन्हीं मूल्यों से सोबती की विकासशील रचना-प्रज्ञा सिंचित थी. स्वाधीनता प्राप्ति के ऐन वक़्त पर विभाजन व गाँधी हत्या पर उनका मर्मभेदी चिन्तन इस संघर्ष की परिणति व स्वराज्य प्राप्ति की चुकायी गयी बड़ी क़ीमत की ओर संकेत करते हैं:
“आज़ादी एक पवित्र शब्द. एक पाक अहसास. एक इंसानी जज़्बा. हाँड़-माँस का, हर नागरिक, हर देश का शहरी, अपनी रूह-आत्मा में इस जज़्बे को महसूस करता है. यह ख़ून की तरह उसकी शिराओं और धमनियों में दिन-रात बहता है. बहता रहा है.”7
वास्तव में सोबती की लोकतान्त्रिक-चेतना का निर्माण भारत में औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के अन्त और आधुनिक लोकतन्त्र के साकार होने की आँखिन-देखी से हुआ है. नयी सुबह की उस मधुरिमा में विभाजन और महान गाँधी की हत्या का विषाक्त कसैलापन भी मिश्रित है:
“महात्मा गाँधी को गोली मारने वाला न शरणार्थी था, न मुसलमान, वह हिंदू था. हिंदू-”8
ऐसी नितान्त आनुभविक इतिहास-दृष्टि और राजनीतिक विवेक से किसी निरपेक्ष, निथरी अवधारणा को लेखन के तौर पर प्रस्तुत करने वाला लेखक देश की माटी में देर तक विद्यमान रहता है. विभाजन पर सोबती-विचार द्विपक्षीय हैं. वे हिन्दू-मुस्लिम दोनों पक्षों की साम्प्रदायिकता को लक्षित करती हैं. तत्कालीन संगीन राजनीतिक और आर्थिक साज़िशों की भी निशानदेही कर पायीं. विभाजन से उपजे दुःख, दैन्य, लाचारी को वे स्त्री की करुणामयी आँखों से देख सकीं.
सोबती का लोकतन्त्र समावेशी है. उसमें अधिकाधिक विषमता-विभेद ग्रस्त मनुष्यों, विचारों, आदर्शों के लिए स्थान है. सामाजिक लोकतान्त्रिकीकरण के प्रति सजगता न रखते हुए भी उनकी लेखकीय अन्तर्दृष्टि इन जटिलताओं और अंतर्विरोधों को देख सकी है. उनका यह उदार, सहिष्णु लोकतन्त्र अन्तरिक्ष की भाँति लचीला है. इसमें मुक्ति का फैलाव है. यह कोई नूह की क़श्ती-सा है. क़यामत के रोज़ भी इसमें दूसरों के लिए स्थान है. यदि हम सोबती-भाषा पर ध्यान दें, तो पायेंगे कि वह एक प्रकार की विशिष्ट समावेशिता से बनी है. जैसे कई रंगों के धागों से बुनी हुयी एक चादर है. झीनी नहीं, कसी हुयी. उर्दू, पंजाबी, तुर्की, फ़ारसी, पश्तो, सिन्धी तथा अन्य प्रकार की कृषक-बोली के शब्दों से निर्मित भाषा, एक लोकतान्त्रिक भाषा ठहरती है. विविधताओं से बनी अदबी सांस्कृतिक भाषा, जो भूखण्डों को जोड़ती है, उन्हें बाँधती है.
सोबती-लेखन की सांस्कृतिक भाव-वस्तु को पहचानने के लिये उनके भाषाई जामे की कलफ़ को नज़र-अन्दाज़ नहीं किया जा सकता. वे अमृतलाल नागर और ‘अज्ञेय’ को भी खेतिहर लोगों के भाषा संस्कार को जानने-समझने की हिदायत देती हैं. उनके लिए यह ‘जीवन-भाषा’ है. उनकी भाषा में व्यंग्य, मर्म, शर्म, तहज़ीब आदि तो हैं ही; देसीपन भी है. गाली-गुफ़्तारी भी है. गालियाँ तो जनभाषा का ही एक अंग हैं. लोकतन्त्र में गालियाँ बुर्जुआ लोग भी देते हैं और अतिवंचित, अशक्त, अनागरिक जन भी. गाली दुर्बल की हाय भी है, समरथ का ज़ुल्म भी है. सोबती के विचार से :
“गालियाँ भी भाषायी संस्कृति और सभ्याचार का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं.”9
‘यारों के यार’ में ‘(चु)दक्कड़’ शब्द-प्रयोग का केवल इतना सा फ़साना है कि वह एक स्त्री-लेखक द्वारा प्रयुक्त किया गया है. ऐसी गालियाँ अपने ध्वन्यार्थ में जो जुगुप्सा उत्पन्न करती हैं, वह भाव-क्षेत्र में अविच्छिन्न है. मुआशरे के घेरे में कतिपय तमीज़दार गालियाँ भी हैं, मगर ज़बान की बरहनगी से बनी गालियाँ समाज के मलिन-भ्रष्ट हिस्से के असभ्य मनोविज्ञान का सुराग़ देती हैं. गालियों के संदर्भ में विचित्र बात यह है कि ये यथार्थ के अधिक निकट हैं. उक्त के स्थान पर अन्य शब्द प्रयोग किये जा सकते थे, परन्तु इसकी व्यंजना के जोड़ वाला कोई शब्द उस प्रसंग में कारगर नहीं होता. अँग्रेज़ी का फ़कर (Fucker) भी नहीं. आपत्ति केवल इतनी सी बात की होती है कि कोई स्त्री अपने साहित्य में मर्दाना गालियों को क्यों प्रयुक्त करती है? जिन मर्दों का काम गालियों के बिना एक रोज़ नहीं चलता वे सोबती की गालियों पर प्रश्न करके सामाजिक लोकतान्त्रिकीकरण की प्रक्रिया में बाधा खड़ी करेंगे. भाषा की सामाजिकी में गालियाँ भी अन्तर्व्याप्त हैं. बाह्य-दुनिया में सभ्य-सुभाषित लोग अपनी सुविधाजनक खोहों में गालीबाज़ और वल्गर पाये जाते हैं.
सोबती के लोकतन्त्र में स्त्री-चित्तवृत्तियों का मौलिक समावेशन हुआ है. गद्य में उसकी जैविक और मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के भेद सुलझाने में जैसी कामयाबी उन्हें हासिल हुयी, वह हिन्दी साहित्य के उनके काल में अभूतपूर्व है. ‘मित्रो’ की यौनिक आनन्द प्राप्ति की बहिर्मुखी आकांक्षा और बलत्कृत ‘रत्ती’ की अंतर्वेदना को भाषिक अभिव्यक्ति में फलीभूत करना सृजनात्मक स्तर पर बड़ी लेखकीय-चेष्टाओं की माँग करता है.
एक कृति के रूप में ‘मित्रो मरजानी’ हिन्दी इदारे में उस वक़्त आयी जब इन विषयों पर मुखरता से कुछ कहना निषिद्ध था. इससे पूर्व इन स्त्री-वृत्तियों की व्याप्ति लोक-साहित्य में अन्यापदेशिक रूपों में थी. उसे वैयक्तिक सत्य के रूप में न मान्यता प्राप्त थी और न अभिव्यक्त करने की अनुमति. हिन्दी-इदारे में सम्मिलित वे अँग्रेज़ीदाँ लेखक जो हिन्दी लेखकों को कम आँकते हैं उनके लिए यह तथ्य ख़ास हो सकता है कि केट मिलेट की प्रसिद्ध पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स‘ प्रकाशित होने से पूर्व हिन्दी में ‘मित्रो मरजानी’ यौनिक राजनीति के प्रतिरोधात्मक भेद प्रस्तुत कर चुकी थी.
केट मिलेट की पुस्तक यौन-सम्बन्धों में शक्ति-संरचना की व्याप्ति को सूक्ष्म आलोचकीय विवेक से सामने लाती है. मिलेट ने इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को रेखांकित करने के साथ ही डी.एच. लॉरेंस, हेनरी मिलर आदि लेखकों के पाठ में चित्रित स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की स्त्री-दृष्टि से मीमांसा की है. इस बुनियाद पर हम सोबती को हिन्दी में प्रतिरोधात्मक यौनिक राजनीति का प्रस्तोता कह सकते हैं, जिस पर उत्तर-आधुनिक नारीवाद का वैचारिक स्तम्भ खड़ा है.
‘मित्रो’ उन्नीसवीं सदी के आख्यानों की कोई दब्बू स्त्री पात्र नहीं है, मर्द जिसे मनमाने ढंग से सब्मिसिव चित्रित करके, नर बल को मण्डित करते, बल्कि यह मर्दानगी पर ही तगड़ा प्रहार है. ऐसे में आदर्शवाद की पुरानी छतरी के नीचे खड़े लेखकों द्वारा उनके साहित्य को ‘सेक्स का जश्न’ (जैनेन्द्र कुमार) कहना वास्तव में तत्कालीन मर्दई नासमझी या समझ-बूझकर निरुत्साहित करने की राजनीति प्रतीत होती है. सेक्स मनोविज्ञान अवश्य है, आदर्श नहीं है, इसलिए यथार्थ है. ‘सेक्स’ को लेकर के.बी. वैद से किये गये संवाद में भी सोबती का कहा विशेष है:
“सेक्स साहित्य की रचनात्मक गूँथ का प्रमुख अंग है. जीवन के यथार्थ का भाव और अर्थ, सभी इसकी सृजनात्मक धूरी पर घूमते रहते हैं. इन दोनों का रिश्ता इतना ही पुराना है जितना प्राचीन शब्द संस्कृति और साहित्य का.”10
सेक्स पर स्त्री की मुखर अभिव्यक्ति को प्रायः श्लील-अश्लील से जोड़ दिया जाता है. इसे समाज और संस्कृति के लिए अहितकारी जानकर अनैतिक कह दिया जाता है. अस्ल में यह एक सामन्ती प्रवृत्ति है, एक तरह की दुर्नीति जिसके अन्तर्गत स्त्री को सेक्स पर मुक्त रूप से कुछ कहने की सहूलियत नहीं दी जाती. भारतीय समाज में स्त्री इस मामले में बेबाक होती है, तो यह विध्वंसक हो जाता है. अलग़रज़ साहित्य की इस यौनिक राजनीति में यह देखना दिलचस्प है कि यौनिक मामलों में ‘पुरुष अहं’ के बर-अक्स सोबती ने ‘स्त्री-अहं’ को प्रतिस्थापित किया.
‘मित्रो’ की यौनानन्द-प्राप्ति की आकांक्षा जो कि जैविक न्याय से जुड़ी हुयी है, यौनिक राजनीति की दृष्टि से उसमें स्त्री-अहं भी पिन्हा है. हम निर्द्वन्द्व होकर कह सकते हैं कि एक स्त्री पात्र के रूप में रचित ‘मित्रो’ हिन्दी की ही नहीं विश्व-साहित्य की बड़ी परिघटना है. स्त्री के सामाजिक लोकतन्त्र की प्रतीक वह एक आधुनिक पात्र है, उत्तर-आधुनिक नहीं. उसकी उत्तर-आधुनिक व्याख्याएँ उसके चरित्र और उससे जुड़े आख्यान दोनों ही को नष्ट कर देंगे.
अपनी जेठानी से अपनी छातियों के बारे में पूछती हुयी ‘मित्रो’ अमृता शेरगिल के सेल्फ़ प्रोट्रेट के मानिन्द चित्रित होती है. कहना होगा कि स्त्री का लोकतन्त्र उसके देह-तन्त्र से बनी हुयी कारा को तोड़ने के पश्चात् ही बहाल होता है. ऐसे में सोबती पर सेक्सवादी, देहवादी होने का आरोपण तर्कहीन और अविलंबितापूर्ण है.
पोर्नोग्राफिक निरूपण क्या होता है, वह मिलर के ‘सेक्सस’ के केट मिलेट द्वारा उद्धृत पाठ में देखा जा सकता है:
‘मैंने बैथरोब उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया. जुराबों को यथावत रहने दिया- इससे वह अत्यधिक कामुक दिखने लगी, और अधिक क्राना (क्राना लुकास की नग्न पेन्टिंग) जैसी. मैं पीठ के बल लेट गया और उसे अपने ऊपर खींच लिया. वह बिल्कुल एक गर्म कुतिया की तरह थी, मुझे प्रत्येक जगह काटती, काँटे पर लगे हुये किसी कृमि की तरह काँपती, कुलबुलाती हुयी हाँफ रही थी. जब हम स्वयं को सुखा रहे थे, वह झुक गयी; फिर मैंने उसे पीछे से लेने दिया. उसके पास एक छोटी सी रसीली योनि थी, जो मुझे एक दस्ताने की तरह फिट बैठती थी.‘11
सोबती का सेक्स को लेकर दृष्टिकोण स्पष्ट और कुण्ठाहीन है:
“प्रेम, सेक्स और मृत्यु इस ग्रह की पारिभाषिक सच्चाइयाँ हैं.”12
सोबती ख़ुद को ‘नागरिक-लेखक’ कहती हैं. नागरिक लेखक का अर्थ है नागरिकता और उसके अधिकार के प्रति सतर्क रहने वाला और वक़्त-ज़रूरत पड़ने पर अपने नागरिक बोध के साथ व्यवस्था में हस्तक्षेप करने वाला लेखक. औपनिवेशिक भारत में वे विदेशी हुक़ूमत का रौब-दाब समझती थीं. इस विषय में पर्याप्त लिखा-बताया भी है. सदियों के संघर्ष के पश्चात् हासिल लोकतन्त्र की नयी भोर को उन्होंने सजल स्त्री आँखों से देखा. उनकी ख़ातिर भारत में संविधान सम्मत लोकतन्त्र की स्थापना एक भव्य, भावपूर्ण महादृश्य है. यह उनके लिए बड़ा भारी मूल्य है :
“आज़ादी के बाद राष्ट्र की बंदिश से नई संभावनाएँ और नए मूल्य प्रवाहित हुए हैं. हमारे विशाल लोकतन्त्र में जो सबसे क़ीमती एहसास जाग्रत हुआ है- वह है नागरिकों की बराबरी का. संविधान द्वारा दिया गया बराबरी का अधिकार बेशक़ीमती है. मूल्यवान!”13
लोकतन्त्र के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मूल्य लेखकीय अभिव्यक्ति को गतिशीलता प्रदान करते हैं, यद्यपि वे उसकी सृजनात्मक क्षमताओं का सीमन भी करते हैं. लेखक की अभिव्यक्ति पर नियन्त्रण हासिल करने को आतुर प्रभुसत्ताएँ और अन्य संस्थान सदैव षड्यंत्ररत रहते हैं और कभी जब लेखक पर संकट गहराता है, तब संविधान प्रदत्त मूल्य ही उसकी अभिव्यक्ति की सुरक्षा करते हैं. सोबती का विचार है कि साहित्य को नियन्त्रित नहीं किया जा सकता, ऐसे में सर्जक की स्वायत्तता आतुर राजनीतिक संस्थानों के लिए ईर्ष्याकारी बन जाती है. अब के समय में साहित्यकार की अरक्षितता पर उनका कहना है :
“यह महत्त्वपूर्ण इसलिए कि साहित्यकार के लिए अब कठिन और संकटपूर्ण समय है.”14
लोकतन्त्र लेखक की अभिव्यक्ति की इयत्ता से सम्बद्ध है. सोबती लोकतन्त्र को ऐतिहासिक प्रक्रिया के विकास के रूप में कम समझती हैं. वे इस बात पर ज़ोर देती हैं कि लोकतन्त्र में निहित मूल्य मानवीय मूल्यों से कुछ अलग न होकर उन्हीं का परिष्कृत संस्करण हैं जो संवैधानिक नियमन के अनुसार नागरिक-अवधारणा को सार्थक करते हैं. मौज़ूदा राजनीतिक परिदृश्य को वे लोकतन्त्र के लिए ख़तरा मानती हैं, क्योंकि इसमें दलगत राजनीति को लोकतन्त्र से अधिक महत्त्व देते हुए, नागरिक की सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट कर उसे एक राजनीतिक अस्मिता में तब्दील किया जा रहा है.
लोकतन्त्र इस बात पर निर्भर करता है कि वह किन मूल्यों को साथ लेकर चलना चाहता है. जैसे मूल्य होते हैं, वैसा ही लोकतन्त्र होता है. सोबती लोकमन की निष्ठा तथा जन के मनोविज्ञान से राजनीतिक छेड़खानी को अक्षम्य कहती हैं. निर्मित धार्मिक कट्टरता और प्रसारित उग्रता पर वे हमलावर हैं. जातीय विभेद और गुप्त, अदृश्य जातिगत असमानता को भी सोबती ने एक राजनीतिक प्रक्रिया के अन्तर्गत ही देखा है. भारतीयता की व्यापक भावना में जाति सर्वव्यापी है. साहित्य-संसार जो सुजन लोगों का इदारा कहा जाता है, उसमें व्याप्त जातिगत राजनीति की पेचीदगी पर उनका टीप है:
“साहित्य में ‘जातिवाद‘ की राजनीति दूसरी किसी भी राजनीति से जटिल और पेचीदा रही है. ‘लोक‘ ने अपनी सामर्थ्य से उसका अतिक्रमण किया है.”15
सोबती लेखकीय सम्मान और अहं को तरजीह देती हैं. उन्होंने अपने अनेक आम वक्तव्यों में लेखकीय अस्मिता और उसकी सुविज्ञ असाधारणता को किसी अलंकार की भाँति प्रस्तुत किया. उसमें दर्प भी है और दम्भ भी. जलवा भी है और रुतबा भी. अलमबरदारी है, तो लम्बरदारी भी. साथ ही वे ये भी कहती रहीं कि ‘इसे कोई हमारा अहंकार समझे तो समझे.’
साहित्य अकादमी के एक अध्यक्ष से उन्होंने अकादमी परिसर में लेखकों के मिलने-जुलने और उठने-बैठने के लिए एक ‘बार’ की माँग की थी. उनकी इस माँग पर जब विभिन्न कोटि के फूटे नैतिक ढोल पीटे गये तो उनका तर्क था कि, ‘कोई लेखक दूध पी कर नहीं लिखता, सभी शराब पी कर ही लिखते हैं.’
प्रतिरोधी लेखकों को दारूखोर, चरित्रहीन, देशविरोधी इत्यादि कहे जाने पर उन्होंने कड़ी आपत्ति दर्ज की थी. लेखकीय प्रतिकार की उन्होंने बड़ी मिसालें पेश की. अपनी पुस्तक के शीर्षक की ख़ातिर दो दशकों से अधिक समय तक मुक़दमा लड़ा. 2010 में जब यूपीए-दो सरकार थी, पद्मभूषण अलंकरण को अस्वीकार कर दिया. कन्नड़ भाषा के लेखक और वचन काव्य के मूर्धन्य विद्वान एम.एम. कलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष के क्लीव रवैये के विरोधस्वरूप उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार और उसकी महत्तर सदस्यता भी त्याग दी थी.
शुरू से आख़िर तक उनका जीवन एक स्वाभिमानी, बहादुर लेखक का आख्यान है, जो अडिग, निर्द्वन्द्व, अनभै और निर्लिप्त रहा.
सोबती के लेखकीय अहं और आत्मसम्मान को उनके जीवन में घटित कतिपय प्रसंगों के माध्यम से भी अनुभव किया जा सकता है, जिनमें लेखक के अहं को सियासी, सांस्थानिक उपेक्षा और असंवेदनशीलता के दुर्मुट से कुचलने की दुष्प्रवृत्ति दिखायी देती है. चाहे वह उच्च अध्ययन संस्थान के अध्यक्ष द्वारा उनके नाम की उपेक्षा करना हो, अमृता प्रीतम के साथ छिड़े मुक़दमे में न्यायधीश द्वारा यह कहना कि उसने अमृता प्रीतम का नाम सुना है, किन्तु कृष्णा सोबती नाम की लेखक उसके लिए नामालूम है; जहाँ भी कुछ ऐसा हुआ, सोबती ने एक सशक्त, आत्मसम्मान से लबरेज रचनाकार की भाँति इसका सामना किया और पूरे एतमाद के साथ प्रतिकार किया.
सम्मान और अलंकरण भी उनके लेखकीय स्वाभिमान के सामने कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखते थे. सोबती ने उनको यूँ ठुकराया गोया वे अर्थहीन और बेकार हों. ‘हशमत’ नाम का चुनाव भी यदि हम देखें तो हिन्दी के मर्दाना माहौल में एक प्रतिरोध ही था कि एक स्त्री लेखक भी पुरुषोचित् शैली में लिख सकती है. ‘हशमत’ की शैली और बयानात की उत्कृष्टता पर कोई क्या प्रश्नचिह्न लगायेगा ?
अब जब भारतीय लोकतन्त्र की सांस्थानिकता पूर्ण रूप से सत्तासुखी और एकपक्षीय हो चुकी है. प्रतिरोधी स्वरों को क़ानून और एजेंसियों के दुरुपयोग से या तो कुचला जा रहा है अथवा धनबल से क्रय किया जा रहा है, संस्थाओं के शीर्ष पद पर अयोग्य प्रोपेगेन्डिस्ट बिठाये जा रहे हैं, शिक्षा, साहित्य, कला के सभी प्रतिष्ठानों को नष्ट कर दलगत विचारधारा का प्रचारक-प्रसारक बना दिया गया है; ऐसे अबूझ अँधेरे में सोबती हमारे लिए रौशनी का इमाम हैं. वे जूझने, संघर्ष करने को प्रेरित करती हैं. प्रलोभन, वैचारिक भटकन से अछूते रहकर लेखकीय स्वायत्तता को बरकरार रखने की हिदायत देती हैं :
“आज की पेचीदा राजनीति के इस तेवर, ऐसी आहटों और नज़रों को हम अच्छे से पहचानते हैं. उनके सामने हथियार डाल दें, यह कब मुमकिन है. हमें मालूम है, हमें संघर्ष करना होगा. दकियानूसी कट्टरपंथियों के आगे हथियार डालने से काम नहीं चलेगा. उनकी मानसिकता को बदलना होगा.”16
लोकतन्त्र कितना शेष है और आगे कितना बचेगा? इस प्रश्न के साये-साये ही हम आगे बढ़ रहे हैं. पिछले दो-तीन दशकों के दौरान दुनिया भर में लोकतन्त्र के नाम पर सत्ताओं द्वारा जो जन-विरोधी खेल खेले गये हैं, उन्हें देखकर लगता है कि उदार लोकतन्त्र कोई बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है, किन्तु अब तक यह निर्विकल्प है.
बन्धुत्व, समानता और स्वतन्त्रता का स्थान भयानक आर्थिक असमानता, घृणा, नागरिक अधिकारों के संकुचन ने ग्रहण किया है. लोकतन्त्र की आड़ में दमन, उत्पीड़न, अन्याय, विस्थापन, नरसंहार, युद्ध सभी स्वीकृत हैं. इस बिना पर यह कहना होगा कि यह प्रणाली लिजलिजे, अप्रतिबद्ध, मौक़ापरस्त और विचारधाराहीन लोगों के लिए नहीं है. ऐसे लोग वर्ग-चेतनाहीन पथभ्रष्ट जनता की शक्ति से खड़े हुये तानाशाह के उपासक बन जाएंगे और वह स्वयं को लोकतन्त्र का अप्रतिरोध्य प्राधिकारी सिद्ध कर देगा.
लोकतन्त्र तो प्रतिबद्ध लोगों से ही निरापद रहेगा. इस प्रतिबद्धता में रचनात्मक वैचारिक निष्ठा मुख्य है. उदारता, सहिष्णुता, सहभागिता तो ख़ैर बड़े मानवीय मूल्य हैं. सोबती की लोकतान्त्रिक अवधारणा में कुलीन स्त्री की ममता, करुणा और उसकी निरीहता भी घुली हुयी है. निरीहता इसलिए कि संविधान उनके लिए अमोघ अस्त्र है, किन्तु काग़ज़ के एक टुकड़े से क्या लोकतन्त्र की रक्षा की जा सकती है?
इस अभिजनीय और बुर्जुआ लोकतान्त्रिक अवधारणा में सूक्ष्म राजनीतिक चेतना का अभाव भी है. इसे उनकी वर्गीय विवशता के रूप में देखा जा सकता है. पूँजी को वो कहीं एड्रेस करती नहीं दीखतीं. पिछली सदी के राजनीतिक संस्कारों से वर्तमान सामाजिकी और आर्थिकी को समझना जटिल है. इसे समझे बग़ैर लोकतन्त्र की चिन्ता एक विभ्रम है. अशोक वाजपेयी यदि यह कहते हैं कि ‘भारतीय साहित्य में उनका योगदान अनमैच्ड है और वे ‘ट्रस्टी ऑफ़ डिमॉक्रैसी एंड कांस्टीट्यूशन’ हैं तो यह औचित्यपूर्ण है, किन्तु अभिजनीय विभ्रम भी है.
(रज़ा के कृष्णा सोबती पर एकाग्र आयोजन 2025 में इसके कुछ अंश पढ़े गए हैं.)
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सन्दर्भ:
- सोबती कृष्णा, रचना का गर्भगृह, संपादक, आर. चेतन क्रांति, राजकमल प्रकाशन, 2023 संस्करण, पृष्ठ- 28
- सोबती-वैद संवाद, राजकमल प्रकाशन, 2015 संस्करण, पृष्ठ- 33
- सोबती कृष्णा, लेखक का जनतंत्र, राजकमल प्रकाशन, 2018 संस्करण,पृष्ठ- 37
- वही, पृष्ठ- 30
- वही, पृष्ठ- 47
- सोबती कृष्णा, मार्फ़त दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, 2018 संस्करण
- वही, पृष्ठ- 53
- वही,पृष्ठ- 62
- सोबती कृष्णा, लेखक का जनतंत्र, राजकमल प्रकाशन, 2018 संस्करण, पृष्ठ- 109
- सोबती-वैद संवाद, राजकमल प्रकाशन, 2015 संस्करण पृष्ठ- 114
- उद्धृत, Millete Kate, sexual politics, University of Illinois press, 2000 edition, Page- 3
- सोबती कृष्णा, लेखक का जनतंत्र, राजकमल प्रकाशन, 2018 संस्करण, पृष्ठ- 199
- वही, पृष्ठ- 68
- वही, पृष्ठ- 24
- वही, पृष्ठ- 89
- वही, पृष्ठ- 189
![]() कविताएँ, संपादन, आलोचना . रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से तथा ‘आलोचना की दूसरी किताब’अक्षर से प्रकाशित. poetarshbbk@gmail.com |
सोबती के लेखन में लोकतांत्रिक मूल्यों और निष्ठाओं की गहरी तफ़्तीश। संतोष का यह कहना कि सोबती पूंजी को कहीं ‘एड्रेस’ करती नहीं दीखतीं, इस लेख को और ऊंचा कर देता है। यह अपने प्रिय से प्रिय लेखक की विसंगति को देख पाने का दायित्वपूर्ण विवेक है।
कृष्णा जी की भाषा के सांस्कृतिक स्रोतों और वैविध्य के बारे में संतोष का यह अवलोकन क़ाबिले ग़ौर है : “… वह एक प्रकार की विशिष्ट समावेशिता से बनी है. जैसे कई रंगों के धागों से बुनी हुयी एक चादर है. झीनी नहीं, कसी हुयी. उर्दू, पंजाबी, तुर्की, फ़ारसी, पश्तो, सिन्धी तथा अन्य प्रकार की कृषक-बोली के शब्दों से निर्मित भाषा… एक लोकतान्त्रिक भाषा… विविधताओं से बनी अदबी सांस्कृतिक भाषा, जो भूखण्डों को जोड़ती है, उन्हें बाँधती है.”
इसे राजनीतिक अंतर्वस्तु की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण अवलोकन कहा जाएगा क्योंकि हिंदी में लेखकों और पाठकों की एक ऐसी जमात हमेशा सक्रिय रहती है जो हिंदी को संस्कृत बना देना चाहती है। कभी वह सोबती की भाषा को पंचमेल बताती है तो कभी खिचड़ी!
इसके कुछ हिस्सों को सामने से लेखक के वक्तव्य में सुना था। सुखद था वह। निश्चय ही कृष्णा सोबती का विपुल साहित्य एक श्रेष्ठ लोकतंत्र की संकल्पना रचता है। यह विस्तृत आलेख उसकी बेहतर तस्दीक करता है। खूब खूब मुबारकबाद लेखक को।
कृष्णा सोबती के लेखन और व्यक्तित्व पर यह एक सुचिंतित लेख है ।उनके विचारों और लेखन को उजागर करता हुआ ।किसी भी लेखक के लेखन को हम एक नज़रिए से नहीं देख सकते ,यहाँ राजनीति के सन्दर्भ में सोबती के स्टैनड एकदम स्पष्ट हैं ।जो आजकल देखने को नहीं मिलता ।बहुत अच्छा आलेख संतोष को इसके लिए बधाई ।