स्फटिककुमार अम्बुज |
मुझ पर, कई दूसरे लोगों की तरह फ़िल्मों का काफ़ी प्रभाव पड़ता है. बल्कि कहूँ कि अन्य लोगों की तुलना में कहीं ज़्यादा. और अलग क़िस्म का. और भी स्पष्ट कर दूँ कि मुझ पर दरअसल दुष्प्रभाव पड़ता है. यह किसी भूत की तरह मुझे अपने क़ब्ज़े में ले लेता है. फिर जो कुछ मैं सोचता हूँ या जैसा व्यवहार करता हूँ वह उस फ़िल्म की आसमानी-सुलतानी हवा के असर में होता है. मेरा अपना कोई वश नहीं रह जाता. मैं भूत-प्रेत में यक़ीन नहीं करता लेकिन आपको यह रूपक, समझाने की नीयत से बता रहा हूँ ताकि आप बात की गंभीरता को समझने की वाक़ई कोशिश कर सकें. यह दुष्प्रभाव नए काट के कपड़े ख़रीदने, अजीब तरह के बाल बनवाने या अभिनेताओं जैसे लटके-झटके सीखने से संबंधित नहीं है. और न ही इसका किसी से कोई बदला लेने, एंग्रीमैन बन जाने, नशे की लत में पड़ने, बलात्कारी या भ्रष्टाचारी वग़ैरह हो जाने की आकांक्षा से कोई संबंध है. ये सारे प्रभाव या प्रेरणाएँ तो अब यों भी समाज में सहज स्वीकार्य हैं. अनेक स्रोतों से उपलब्ध हैं. इनको लेकर तमाम बहसें समाप्त हो चुकी हैं. जिसको जो करना हो करे. जैसा सामर्थ्य है, वैसा अपराध करो. कोई रोकटोक नहीं है.
लेकिन मेरे ऊपर होनेवाला असर कुछ मारक क़िस्म का है. जो मेरी सोचने-देखने-समझने की ताक़त को संशयग्रस्त और लकवाग्रस्त कर देता है. और दुविधाओं से भर देता है. इससे मेरा सामान्य जीवन नष्ट होने की कगार पर आ गया है. मेरी सामाजिकता दाँव पर लग गई है. मनुष्य-मनुष्य के बीच मेरे सभी सहज रिश्ते खटाई में पड़ गए हैं और मैं हद दर्जे का अवसाद-पीड़ित व्यक्ति होता चला जा रहा हूँ. हालाँकि, फ़िल्मों की शुरुआत में ही घोषित कर दिया जाता है कि इसका किसी यथार्थ, वास्तविक जीवन या चरित्र से कोई संबंध नहीं है और यदि किसी को ऐसा प्रतीत हो तो यह केवल संयोग होगा. लेकिन इस स्पष्टीकरण का भी मुझ पर कोई असर नहीं होता. बल्कि यहीं से शायद उन चीज़ों की शुरुआत हो जाती है जो मुझे परेशानी और अज़ाब के दायरों तक ले जाती हैं.
मैं मुख्य चरित्र, या किसी अभिनेता, अभिनेत्री से ही नहीं, फ़िल्म में दो-चार सैकंड के लिए उपस्थित वस्तुओं या चरित्रों तक के असर में आ जाता हूँ. नेपथ्य के दृश्य, पार्श्व संगीत, दीवार का गिरता प्लास्टर, चमचमाता चौराहा, कोई मूर्ति, सब्ज़ी काटने का चाकू, जूड़े का फूल, सड़क, खँडहर, नाली में पड़ा सूअर, अस्पताल के अहाते या बाज़ार की भीड़ में उपस्थित आऊट ऑव फ़ोकस कोई चेहरा भी मुझे अजीब ढंग से परेशान करना शुरू कर देता है. यह सब मैं अपने आसपास किसी को बता भी नहीं सकता क्योंकि बता कर अनेक बार हास्यास्पद हो चुका हूँ. झिड़कियाँ खा चुका हूँ. तरह-तरह से अपमानित हुआ हूँ. लेकिन यह कहानी यों ही अनावश्यक बातचीत में बिखर न जाए इसलिए आगे कुछ व्यवस्थित रूप से बताने की कोशिश करता हूँ. इस तरह शायद कुछ आसानी हो और बातचीत में हो सकनेवाले भटकाव से बचाव हो सके.
(दो)
उदाहरण के लिए मैं आपको पिछले दिनों देखी गई एक फ़िल्म के बारे में बताता हूँ. पिछली फरवरी में एक दोस्त ने मुझे अपनी अनुशंसा के साथ वह फ़िल्म भेजी. मैंने पहली फ़ुर्सत में उसे देखा. और तत्काल उसका शिकार हो गया. उस फ़िल्म के दुष्प्रभाव ने दरअसल मुझे शक्की बना दिया है, इतना भ्रम में डाल दिया है कि मैं शानदार चीज़ों को, अच्छे भले और सम्मानित मनुष्यों को भी संदेह की निगाह से देखने लगा हूँ. उम्मीद है कि यहाँ यह सब लिख देने से मुझे कुछ आराम या मुक्ति मिले क्योंकि यह ख़ुद के आरोग्य का भी एक मुमकिन तरीक़ा हो सकता है. या फिर पढ़कर आप ही कोई सुझाव दें कि इसका निवारण कैसे हो. कुछ घरेलू नुस्ख़े भी सुझा सकते हैं. अन्यथा दूसरों का क्या कहूँ, मुझे स्वयं लगने लगा है कि उस फ़िल्म के बुरे प्रभाव की वजह से धीरे-धीरे मैं अवांछित क़िस्म का मनोरोगी होता जा रहा हूँ. आसन्न ख़तरा यह है कि अंततः मुझे किसी नामी-गिरामी काऊंसलर और डॉक्टर की ज़रूरत पड़ सकती है. ख़ैर.
तीन
फ़िल्म कथासार
और विवरण का क्षेपक
(क)
एक दशक पुरानी वह एक गंभीर सोशियो-पॉलिटिकल फ़िल्म थी. उसे देखते हुए हालाँकि मैं दहशत से भर गया लेकिन उसने मुझे कुछ क़ब्ज़े में ले लिया. जैसे कोई अवश करनेवाला, अपकारी सम्मोहन. इस क़दर कि मैंने उसे अगले दिन दुबारा देखा. उसमें एक ऐसे महान देश की कहानी थी जिसकी जनता ने लोकतंत्र की स्थापना के लिए पचासेक साल पहले बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं, लगभग क्रांति ही कर डाली. देश में राजशाही ख़त्म हो गई और जनतंत्र स्थापित हो गया.
मगर समय गुज़रने के साथ, धीरे-धीरे सत्ता के लिए होनेवाले चुनावों में गड़बड़ियाँ होने लगीं. तब जैसा कि होता ही है कि बेईमानी, भ्रष्टाचार और घूसखोरी बढ़ने लगी. फिर एक राजनीतिक दल, जो कुछ बरस पहले बहुत थोड़े बहुमत से सत्ता में आ गया था, ने तय किया कि वह उसके विरोधी विचार के लोगों को ख़त्म कर देगा. राष्ट्र सर्वोपरि है और रहेगा. हर बार चुनाव में यह जो विपक्ष का और राष्ट्रविरोधियों का खटराग बना रहता है, इस झंझट को जड़-मूल से उखाड़ फेंका जाएगा. विपक्षी और बुद्धिवादी लोग ही हैं जो देश की प्रगति में आड़े आते हैं. इन्हें समूल नष्ट करना होगा अन्यथा कोई भी पार्टी चुनाव जीतने के बावजूद कभी सुशासन दे ही नहीं पाएगी. न ही देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा सकेगी. ये विरोधी हर जगह अडंगे डालते हैं. इससे गंभीर अवरोध राष्ट्र के सामने पैदा हो जाता है. यही बात तार्किकता के साथ, अनेक जीवंत उदाहरणों से, प्रभावशील दृश्यों के साथ फ़िल्म में दिखाई गई थी.
फ़िल्म के दूसरे हिस्से में बताया गया था कि इन विरोधी और राजनीतिक-विधर्मी लोगों को मार डालने के लिए, जनता में से ही देशभक्तों का एक समूह बनाया गया जो दरअसल एन जी ओ की तरह, सांस्कृतिक संघ की तरह शुरू हुआ और दो साल के भीतर ही ऐसे लोगों के संगठन में तबदील हो गया जो देश के सम्मान के लिए हत्याएँ तक करने में प्रवीण हो गए थे. उनका बीज मंत्र था- ‘जो उनकी तरह नहीं, उसे जीने का हक़ नहीं’. इसके लिए उनकी प्रतिबद्धता और समर्पण आत्मघाती होने की हद तक जुझारूपन से लबरेज़ था. कोई भी आदमी हत्या के नये तरीक़े बताकर, उन तरीक़ों को आज़माकर, अपने वीरतापूर्ण कृत्य का वीडियो बनाकर उस संगठन का सदस्य बन सकता था. फिर उन तरीक़ों को कुछ समय तक अमल में लाते रहने से वह संगठन में विशिष्ट दर्जा पा सकता था. इस तरह जल्दी ही उसमें तमाम अपराधियों, ज़रायमपेशा और आवारा युवकों की भर्ती होती चली गई. हालाँकि वे सब अधिकतर, कम पढ़े-लिखे और बेरोज़गार लोग थे लेकिन अब सम्मानित संगठन के सक्रिय साथी हो चुके थे. फिर उसमें कुछ पढ़े-लिखे और बौद्धिक रूप से संपन्न समझे जानेवाले लोग भी शामिल हुए. अनेक डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील, सेवानिवृत्त अधिकारी, न्यायाधीश और लेखक. उन्हें हर तरह से सरकारी समर्थन प्राप्त था. दरअसल, वे सरकार के ऐसे पेचीदा काम करते थे, जो सरकार सीधे ख़ुद नहीं कर सकती थी.
उस संगठन के भीतर अपनी एक समानांतर सेना थी. वर्दी थी, आधुनिक हथियार और रैंकवार पद थे. उसे ‘संस्कृति सुरक्षा संघ’ नाम दिया गया था. ट्रिपल एस. देश के तमाम शहरों में ‘ट्रिपल एस’ के कार्यालय थे. प्रशिक्षण केंद्र थे. उनका जाल बिछा हुआ था. राजधानी में एक सौ बीस एकड़ में उनका प्रधान कार्यालय था. अनेक शहरों में अभ्यास के लिए बड़े मैदान आरक्षित थे. रिक्रिएशन हाउस और गेस्ट हाउस थे. जनता में सरकार की लोकप्रियता असंदिग्ध थी. विरोध का कोई भी स्वर देश में कहीं से उठता नहीं दिखता था. सरकारी अध्यादेश में जीडीपी रिकॉर्ड बारह प्रतिशत तक दर्ज की जा चुकी थी.
फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफ़ी अद्भुत थी. बीच-बीच में विकास की दृश्यावलियाँ भरी पड़ी थीं. ख़ुशहाल लोगों के इंटरव्यू थे. सड़कों पर, गलियों में, बाज़ार और मॉलों में, समुद्र किनारे, पहाड़ों पर, सब्जी मंडी और वैश्यालयों तक में जनता आशान्वित और ख़ुश दिखती थी.
(ख)
फ़िल्म के तीसरे हिस्से में बूढ़े हो चले, लगभग साठ-सत्तर वर्षीय तीन लोग थे. वे ‘ट्रिपल एस’ के वरिष्ठ, सम्मानित सदस्य थे. उनमें से एक बेहद दुबला-पतला आदमी, जो अब भी फुर्तीला दिखता था, उन तीनों के प्रवक्ता की तरह बोलना शुरू करता है. अचानक वह बेहद जोश से बताने लगता है कि अपनी जवानी में उन्होंने लोगों को कैसे मारा. किस तरह उन्होंने, दस-बारह दोस्तों के साथ, अपने शहर के सभी मोहल्लों में, विरोधी लोगों की पहचान करके, नायाब तरीक़ों से मारा. रिवॉल्वर से, मशीनगन से, चाकू से, एक तीखे तार से गला काटकर और कभी-कभी तो बच्चों की गरदन मरोड़कर. क्रिकेट और बेसबॉल के बैट से भी. सामूहिक अग्नि-स्नान भी कराया. उसका कहना था कि पच्चीस सालों के शुरुआती दो-तीन सालों में ही उनके छोटे-से समूह ने कम से कम तीस हज़ार लोगों को मार दिया था. कई बार वह अकेला ही मिशन की तरह काम पर निकलता था, मेहनती था और औसतन रोज़ पचास-साठ लोगों को मार डालता था. सरकार का समर्थन था. मुस्कराकर कहता है कि यही आदेश था. पुलिस और नगरपालिका मिलकर उन लाशों को ठिकाने लगाती रहती थी.
बाद के वर्षों में उसे बहुत कम हत्याएँ करना पड़ीं. क्योंकि एक तो विरोधी धीरे-धीरे कम होते जा रहे थे. दूसरे, उसे सरकार की ओर से निराश्रित लोगों के विभाग का प्रमुख बना दिया गया था. उसका दर्जा कैबिनेट मंत्री का था. इस नई जवाबदारी की वजह से उसकी भूमिका कुछ अलग हो गई थी. लेकिन बीच-बीच में ‘ट्रिपल एस’ के लोगों को लगातार प्रशिक्षित करना पड़ता है. बतौर इंसट्रक्टर. इस प्रशिक्षण की प्रक्रिया में ज़रूरत पड़ने पर कभी-कभार लोगों की हत्याएँ करके भी बताना पड़ता था. लेकिन वह मंत्री स्तर का महत्वपूर्ण व्यक्ति था इसलिए धीरे-धीरे एक संभ्रात और लोकप्रिय व्यक्ति के जीवन की तरफ़ अग्रसर होता रहा. ख़ैर, अब तो वह हर तरह से सम्मानित व्यक्ति है.
और यह मरियल सा लेकिन फुर्तीला, चपल पात्र शुरू में ही कह देता हैं कि इन हत्याओं के बारे में इतना ज़ाहिराना तौर पर बताना कोई अपराध नहीं है. उस काल को निरपराध घोषित किया जा चुका है. और अब यह कोई रहस्य भी नहीं रह गया है. मिशन कब का पूरा हो चुका है. यह तो दरअसल समूचे देश की उपलब्धि है. यों भी संसार की सारी सत्ताएँ अपने देश के भीतर छिपे आतंकवादियों और देशद्रोहियों को मारते हैं. यह सरकार के काम का हिस्सा है. वरना सरकार को ही कोई मार देगा. और हमेशा यह हर देश का आंतरिक मामला है. चूंकि पुलिस और सेना इतना काम नहीं कर सकती इसलिए एनजीओ, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं और ‘ट्रिपल एस’ को सामने आना पड़ा. इसमें न तो अपराध है और न ही अपराध-बोध. बल्कि एक गर्व है कि हम देश सेवा कर सके. आपने ध्यान दिया होगा कि अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, रूस, क्यूबा, इंडोनेशिया, श्रीलंका, स्पेन, जर्मनी, नाईजीरिया, बोस्निया, इज़रायल सहित तमाम महाद्वीपों में सभी आत्मसम्मानी देश यही सब करते हैं. भले सबके अपने-अपने अलग तरीक़े हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं रही. यह किसी भी देश का अपना पचड़ा है, देश ही निबट लेता है.
(ग)
मारने के तरीक़ों के बारे में बोलते हुए, वह बीच-बीच में अपने विशाल ड्राइंग रूम का चक्कर लगाता रहता है. इसी बीच वह एक पत्रकार को कलाओं के प्रति विकसित हो चुकी अपनी गहरी रुचि का परिचय देता है. इससे फ़िल्म में एक अजीब तनाव, द्वैत और घालमेल पैदा होने लगता है. यानी पाँच-छह वाक्यों में वह बताता है कि लोगों को मारने के लिए उसने किस तरह से नये तरीक़े ईजाद किए थे. क्योंकि काम ज़्यादा था और मारने में सही रफ़्तार क़ायम रखना था. ज़्यादा चीख़ो-पुकार भी किसी को पसंद नहीं आती इसलिए यह काम यथाशक्ति शांतिपूर्वक किया जाना था. तरह-तरह के तरीक़े खोजना पड़ते थे. फिर उन वाक्यों के बाद वह अपने ड्राइंग रूम में रखी काँच की विशाल अलमारियों, शो-केसेज में रखी असंख्य कलाकृतियों के बारे में कुछ सूचनाएँ देता था. जिसमें एक टेक बार-बार आती थीः ‘मेरा ऐस्थैटिक सेंस बहुत अच्छा है.’ यह कहते हुए उसके चेहरे और आँखों की दीप्ति देखते ही बनती थी. वह दृढ़ता और विनम्रता से अपनी बात बोलता था.
वहाँ शीशे के दरवाज़ों से सज्जित अलमारियों में लकड़ी, शीशे, चीनी मिट्टी, हाथीदाँत, चाँदी, सोने और अन्य क़ीमती धातुओं से बने अनेक शिल्प थे. अनगिन पशु-पक्षी थे. हत्याओं का विवरण देते-देते वह बीच में बताता था कि यह शेर क्रिस्टल का है और संसार में ये शेर केवल तीन सौ हैं. यह बेल्जियम से लाया था, जब मैं सरकार के प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर एक सम्मेलन में गया था. फिर इत्मीनान से वह अपनी मूल बात पर लौट आता था कि कैसे उसने तीन मिनट में चार विद्यार्थियों को मारा. और यह घोड़ा देखिए. लिमिटेड ऐडिशन. दुनिया में ये कुल चौरासी घोड़े ही बनाए गए हैं. हाथीदाँत के. ये मलेशिया के हाथियों के दाँत हैं. अमेरिका में जो सबसे बड़ी कंप्यूटर कंपनी है, उसके मालिक के पिता की मृत्यु चौरासी साल की उम्र में हुई तो उसने पिता की स्मृति में ये सफ़ेद झक्क, कलात्मक घोड़े बनवाए. ये हर तरह से कला के उत्कृष्ट नमूने हैं. तो ये संसार में कुल चौरासी हैं. हमारे देश से एक व्यापार-संधि की बैठक में मुझे सरकार की तरफ़ से जाना पड़ा. तब उसने कलाकृतियों के प्रति मेरा प्रेम जानकर, मेरी सौंदर्याभिरुचि समझकर यह घोड़ा उपहार में दिया. हमारे उससे पारिवारिक रिश्ते हो गए हैं. फिर वह बच्चों की हत्याओं के बारे में बताने लगा कि क्यों वे ज़रूरी थीं. यह बताते हुए वह पोर्सलिन की नृत्यांगना की मूर्ति के सामने चला गया. तब भी उसने कहा कि यह लिमिटेड ऐडीशन है. तो यह सब बहुत देर तक फ़िल्म में चलता रहा. हत्याएँ, सौंदर्याभिरुचि, कलाकृतियाँ और लिमिटेड ऐडिशन. फिर वह अपने लिविंग रूम में बने बार की तरफ़ चलते हुए, एक से बढ़कर एक चुनिंदा शराब की बोतलों की तरफ़ इशारा करके कहता है, ये बस कुछ ही बोतलें तैयार की गईं थीं. इटली, फ्रांस और पुर्तगाल से ख़ास संग्रह किया गया है. सीमित संस्करण. फिर बुज़ुर्गों की हत्या का विवरण देते हुए उसने बताया कि एक बूढ़े की शक्ल तो हू-ब-हू उसके पिता की तरह थी. लेकिन उसके पिता तो बचपन में ही गुज़र चुके थे. यों भी उसके काम में भावुकता की जगह नहीं थी. इस तरह तो कोई काम ही नहीं हो सकता था. फिर वह विन्टेज कारों का ज़ख़ीरा दिखाता है. यदि नीलामी करें तो उनकी क़ीमत आज करोड़ों रुपयों की है लेकिन वह ऐन्टीक और विन्टेज का महत्व समझता है. रोज़मर्रा के परिवहन के लिए उसके पास अलग से कुछ आधुनिक कारें हैं. फिर वह लड़कियों की, महिलाओं की कुछ हत्याओं के बारे में बताने लगा. एक से एक सुंदर, विचलित कर देनेवाली स्त्रियाँ मिलती थीं. उन्हें देखकर कोई क्रूर हत्यारा भी अपने मार्ग से भटक सकता था. मगर उनकी पार्टी और संगठन के कठोर सिद्धांत थे, उनके प्रति सभी की प्रतिबद्धता अंसदिग्ध थी इसलिए उन्होंने किसी एक का भी बलात्कार नहीं किया. हालाँकि कुछ सदस्यों से भूल-चूक हुई मगर उनके समूह में ज़्यादातर ने अपना संयम बनाये रखा. भले ही बाद में उन्होंने किसी स्वावलंबी ढंग या परस्परता से अपनी वासनाओं का शमन किया. एक घर में तो सारे पुरुष भाग गए, सिर्फ़ स्त्रियाँ थीं, जिनमें कुछ एकदम युवा और ग़ज़ब की सुंदर थीं. वे अपनी जान के बदले सब कुछ समर्पित करने को तैयार थीं. दो तो एकदम नग्न हो गईं. वे संगमरमर की रोमन मूर्तिशिल्पों की तरह थीं. परंतु यह तो रिश्वतखोरी जैसा होता. वह अपने काम के साथ बेईमानी नहीं कर सकता था. उसने सबको मार दिया. अब कभी-कभी अफ़सोस होता है. मारने का नहीं. उसकी मुस्कराहट शेष वाक्य पूरा करती है.
(घ)
नहीं, इसमें उसे कुछ बुरा, अमानवीय या घृणित होने जैसा अनुभव कभी नहीं हुआ. यह उसका काम रहा आया. देश की प्रगति और गौरव के लिए ज़रूरी. जैसे सीमाओं पर, दुश्मनों को सेना मारती है तो इसमें कुछ घृणित नहीं होता. गर्व होता है. इसी तरह देश के भीतर काफ़िरों को, राष्ट्रद्रोहियों को मारने में भी उसी तरह अभिमान का अनुभव होता है. उसे सरकार की तरफ़ से कई मैडल भी मिले हैं. फिर उसने कुत्तों का बाड़ा दिखाया. दुर्लभ और अत्यंत महँगी नस्लों के कुत्ते. और अपनी कमर की तरफ़ इशारा करते हुए उसने कहा कि यह बेल्ट मगरमच्छ की खाल का है. इसी बीच उसे याद आया कि अपने कुछ साथियों के साथ घेराबंदी करके कितनी कठिनाई से एक पूरे गाँव के लोगों को मारा था. वह एक कठिन टॉस्क था लेकिन योजनाबद्धता और दूरदर्शिता से वे सफल हुए. आख़िर में वह कहने लगा कि हम अब लोगों को नहीं मारते. वे प्राकृतिक मृत्यु से मर जाते हैं. जैसे अभी हमने जो एक राष्ट्रद्रोही चिन्हित किया है, वह एक सरकारी कंपनी में नौकरी करता है. वहाँ ट्रेड यूनियन पहले ही ख़त्म हो चुकी है. अब कंपनी किसी आरोप में चार्जशीट देकर उसे निलंबित कर देगी. फिर इनक्वाइरी बैठाकर बर्ख़ास्त करेगी. तब वह नौकरी के लिए जगह-जगह भटकेगा. जो उसे कहीं नहीं मिलेगी. उसका बर्ख़ास्तगी आदेश ऐसा ही होगा कि उसे नौकरी कहीं नहीं मिले. उसके पास पूँजी नहीं है और बैंक ऋण न दें, इसकी व्यवस्था हम ऑनलाइन कर ही देते हैं. पी एफ और ग्रैचुइटी का पैसा अटकेगा. पैंशन है नहीं. बीबी अधेड़ और बदसूरत है. एक बेटी है जो तीसरी कक्षा में पढ़ती है. वह कोर्ट केस लड़ नहीं सकता. न्याय महँगा है. सुदूर है. नामुमकिन है. पैसा उसके पास रहेगा नहीं. वह सपरिवार भीख माँगेगा या आत्महत्या करेगा. या फिर विद्रोही हो जाएगा. आप जानते ही हैं कि भिखारियों की धरपकड़ करके उन्हें जेल भेज दिया जाता है और विद्रोहियों का पुलिस ऐनकाउंटर कर देती है. इतना बड़ा देश है, यह सब होता रहता है. जैसे पटाक्षेप करते हुए उसने हँसकर कहा- ‘कहाँ-कहाँ सिर खपाया जाए.’
लंबी श्वास भरकर उसने अपना मुख्य बाथरूम दिखाया. जो आठ सौ वर्गफ़ुट का था. उसमें तरह-तरह की आधुनिक सुविधाएँ थीं. फिर घर की बाक़ी चीज़ें दिखाईं. बग़ीचा, पेंटिग, स्वीमिंग पूल, जिम, संगीत-कक्ष, थियेटर, बारबैक्यू लॉन, विशाल डाइनिंग टेबल, पुस्तकालय, स्टडी, पार्किंग सब कुछ अप्रत्याशित सुंदर और अभिनव. उसने अनगिन कलापूर्ण और दुर्लभतम चीज़ें दिखाईं और नाना प्रकार से संपन्न की गईं हत्याओं के बारे में इस तरह बताया कि सब कुछ एक-दूसरे में उलझ गया. दृश्य एक-दूसरे में घुल गए. संवाद और पार्श्वसंगीत आपस में गड्ड-मड्ड हो गए. लेकिन फ़िल्म देखते हुए मानना पड़ता था कि उसकी अभिरुचि उच्च स्तरीय थी. और यह भी कि वह अपने काम के प्रति हमेशा निष्ठावान, समर्पित और ईमानदार रहा. वह ख़ुद भी मनुष्य की ‘लिमिटेड ऐडीशन’ जैसी किसी दुर्लभ प्रजाति का व्यक्ति दिखता था.
इसी निष्कर्ष के साथ फ़िल्म ख़त्म हो जाती है.
(चार)
यहाँ तक आते-आते समझ नहीं आता था कि आप फ़िल्म देख रहे हैं या डौक्युमैंटरी. या बायोपिक. मैंने गूगल पर जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि यह डौक्युमैंटरी है जिसे फ़िल्म की तरह बनाया गया है. एक जगह यह भी कहा गया कि यह फ़िल्म ही है जिसमें एकाध सच्ची घटना को विस्तृत करके, कल्पना का मसाला भरते हुए डौक्युमैंटरी का लबादा पहनाया गया है. अनेक समीक्षकों ने यह भी लिखा है कि यह एक फ़ालतू और बोरियत से लबालब गल्प फ़िल्म है जिसका वास्तविक जीवन में किसी से कोई संबंध नहीं है. सामान्य आदमी के लिए इसे पूरी देख पाना एक वाहियात चुनौती है. इसलिए यह सुपर फ़्लाप भी हुई. यदि सरकार का पैसा नहीं लगा होता तो निर्माता बरबाद हो जाता.
यह फ़िल्म मैंने तीन बार देखी. तीनों बार फ़िल्म ख़त्म हुई. बाक़ायदा अंत में परदे पर लिखा आया- ‘समाप्त’. मगर मेरे जीवन में वह फ़िल्म ख़त्म होने में नहीं आ रही थी. ऐसा कुछ नकारात्मक असर हुआ कि मुझे अपनी पॉश कॉलोनी का ही नहीं, दूर-दराज का भी, हर कोई मिलने-जुलनेवाला लगभग प्रत्येक आदमी हत्यारा लगने लगा. मेरे अनेक दोस्त जो कुछ अमीर हैं, बड़े अधिकारी हैं, डॉक्टर हैं, सीईओ तक हैं या इक्का-दुक्का राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं, उन सबके प्रति मेरा नज़रिया बदलने लगा. यदि फ़िल्म विश्वास दिलाने की कला है तो यह सफल फ़िल्म कही जाएगी. क्योंकि मुझे विश्वास होने लगा कि जिनके घर आकार में बड़े हैं और जिनके घर में दुर्लभ क़िस्म के शो-पीसेज हैं, जिम है, थियेटर रूम है, विन्टेज कारें हैं, क़ीमती पेंटिग हैं, बारबैक्यू सहित लॉन है, दो हज़ार वर्गफ़ुट का टैरेस है, विशाल डाइनिंग टेबल और आरामदेह सोफ़ा सेट हैं, बँगलों में आलीशान कुत्ते हैं या स्वीमिंग पूल है, वे सब हत्या की कला में माहिर हैं. यदि इन लोगों को रिमाण्ड पर लेकर या बहला-फुसलाकर या ख़ूब सारी शराब पिलाकर, भरोसे में लेकर पूछताछ की जाए तो ज़रूर ही इनके पास मारने की कला के बारे में कुछ अजाने, अज्ञात क़िस्से होंगे. जिनके पास चीज़ों की ‘लिमिटेड ऐडीशंस’ की वेराइटी है, वे तो निश्चित ही हत्यारे हैं. उनके बारे में दूसरी कोई तफ़तीश भी ज़रूरी नहीं. फिर मुझे ध्यान आया कि मेरे घर में भी दो-चार महँगी कलाकृतियाँ और पेंटिग हैं. मुझे अब अपने बच्चों पर शक होने लगा है. लेकिन यह न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर भी हो सकता है.
हालाँकि मैं जानता हूँ मेरा देश अपनी परंपरा में महान सभ्यता, सहनशीलता और गौरवपूर्ण संस्कृति से जुड़ा है इसलिए मेरे देश और समाज में इस तरह के हत्यारे शायद हो नहीं सकते. इसके अलावा यहाँ क़ानून भी हत्या के सख़्त ख़िलाफ़ हैं. स्पष्ट धाराएँ हैं. यहाँ तक कि पुलिस या सेना किसी नागरिक को मार सके, ऐसी सरकारी इजाज़त तो कम से कम नहीं है. यदि कोई ऐसा करेगा तो सख़्त सज़ाओं के प्रावधान हैं. फाँसी तक दी जा सकती है. क़ानून अपना काम करता है. कुछ अपवाद हो सकते हैं, जैसे जब पुलिस या सरकारी वकील ने लेतलाली दिखाई हो या गवाहियाँ पलट गईं हों. या मुक़दमा ही वापस ले लिया गया हो. लेकिन वक़्त भले कितना ही लग जाए, न्याय न मिलने तक न्याय की प्रक्रिया चलती रहती है. यह तो उस फ़िल्म का असर है कि मैं सम्माननीय और भले लोगों के लिए, जिन्होंने अपनी प्रतिभा, योग्यता और श्रम से संपत्ति कमाकर समाज में जगह बनाई है, उनके बारे में अनर्गल सोचने लगा हूँ. कई फि़ल्में ऐसा बुरा प्रभाव डाल सकती हैं, जैसा कुसंग भी नहीं डालता.
आप समझ रहे होंगे कि फ़िल्मों का अपना एक वशीकरण होता है. कुछ संवेदनशील और चिंतित रहनेवाले लोग ज़्यादा ही प्रभावित हो जाते होंगे. शायद ऐसा ही मेरे साथ इस फ़िल्म को लेकर हो गया है. लेकिन मेरी यह ख़ब्त बढ़ती ही जाती थी. दोस्तों, पड़ोसियों, घरवालों, सबको लगने लगा था कि मैं कुछ वाहियात ढंग से सोचने-विचारने लगा हूँ. आख़िर एक रात मैंने गंभीरता से सोचा कि मुझे किसी तरह इसके असर से मुक्त होना होगा. मैंने संकल्प किया कि मैं इस फ़िल्म के प्रभाव से मुक्त होकर रहूँगा. एक फ़िल्म के चक्कर में अपने आपको, तमाम संबंधों, अपनी पूरी सामाजिकता को बरबाद नहीं होने दे सकता. यह तो विक्षिप्त होना हुआ.
आख़िर मेरी संकल्पशक्ति काम आई. धीरे-धीरे मैंने उन विचारों पर क़ाबू पा लिया जो उस फ़िल्म से पैदा हो रहे थे. फिर मैंने दस-बारह रोमांटिक और हास्य फि़ल्में देखीं. शहर के मनोरम स्थानों में घूमा-फिरा. आइसक्रीम खाई, रेस्त्राओं में गया, कान में ढप्पे लगाकर संगीत सुनना शुरू कर दिया और सुबह उठकर दौड़ लगाने लगा. चुटकुलों की किताब ले आया. मित्रों को जोक्स एसएमएस करने लगा. व्हाट्सऐप कॉमेडी वीडियोज से भर गया. पत्नी से नई-नई डिशें बनवाने लगा. आख़िर डॉक्टर दोस्त ने कहा, हाँ, यही तरीक़ा है. हमें अपने अवसाद से, बुरे ख़यालों से लड़ना पड़ता है. उनके सींग पकड़कर. और हम उबर जाते हैं. इसमें दवाइयाँ बहुत काम नहीं आतीं. देखो, अब तुम एकदम ठीक हो गए हो. जाओ, घूमो-फिरो. हिल स्टेशन जाओ, समुद्र तट के मज़े लो. ख़ूब खाओ, ख़ूब पियो, जनाब.
नाऊ लिव द लाइफ़, किंगसाइज़.
(पाँच)
इस ख़ुशहाली में छह महीने बीत गए. उस फ़िल्म का स्मरण भी नहीं होता था. जीवन पटरी पर आ चुका था. अभी नवम्बर में क़रीब दस दिन पहले, प्रसन्नचित्त मैं और पत्नी माधुरी, सुदूर दक्षिणी प्रदेश में पर्यटन के लिए चले गए. वहाँ हमने शानदार समुद्री किनारे देखे. बीच पर छपाछप की. माधुरी की इजाज़त लेकर वाइन भी पी. चाय के बाग़ानों की ख़ूबसूरती देखी और झील में बोटिंग की. खाना-पीना किया. बीस मैगा पिक्सल के मोबाइल से तस्वीरें खींची. कई मील पैदल चले. ख़ूब मज़ा आया. प्रवास के अंतिम दिन, यों ही बातचीत के दौरान हमारे होटल के मैनेजर ने पूछा कि यहाँ चाय-बाग़ानों के एक बहुत पुराने रईस, भगवान अयप्पा उनकी आत्मा को शांति दें, की स्मृति में बनवाया गया संग्रहालय देखा या नहीं. हमने कहा कि नहीं भाई, हमें ऐसे किसी संग्रहालय की जानकारी नहीं. तो उसने सुझाव दिया कि तीन-चार घंटे में उसे देखा जा सकता है. पास में ही है और देखने लायक है. उत्साहित माधुरी ने कहा कि आज फ़ुर्सत है और देर रात की ट्रेन है. दिन भर होटल में पड़े रहने से बेहतर है कि चलकर देख लेते हैं.
वह वाक़ई बहुत बड़ा संग्रहालय निकला. जो चाय-बाग़ानों के मालिक की व्यक्तिगत चीज़ों को संग्रहीत करके, उनके बच्चों ने बनाया था. उसमें पचास विशाल कक्ष थे, जिनमें दुनिया भर की तरह-तरह की चीज़ें इकट्ठा थीं. प्राचीन सोने-चाँदी-काँसे के बर्तनों, घड़ियों, पांडुलिपियों, बंदूक़ों-रिवॉल्वरों, मोटर कारों, छड़ियों, चाकुओं, मोटरसाइकिलों, मलमल और रेशम के वस्त्रों, फूलदानों, क्रॉकरी, तालों-तिजोरियों, पूरे परिवार के तेलचित्रों, चौकियों, फ़र्नीचर, शिकार किए गए हिरणों, शेरों, भैंसों के मसाले भरे चेहरों के अनेक कक्ष थे. फिर तमाम सारी पेंटिग, मूर्ति-शिल्पों, बिल्लौरी काँच की कृतियों, हाथीदाँत एवं पोर्सलिन के काम और तमाम तरह की कलाकृतियों के भी अलग कक्ष. शिल्प और स्फटिक की मूर्तियाँ, पशु-पक्षियों की अनुकृतियाँ देखकर अचानक और अनचाहे ही मुझे उस फ़िल्म की याद आ गई. मेरा जी ख़राब होने लगा. उसके बाद हर क़दम पर मुझे लगने लगा कि मैं किसी हत्यारे के संग्रहालय में हूँ. जितना मैं इस ख़याल को दूर करता, उतना ही ज़्यादा वह मेरा पीछा करने लगा. मुझे बदन में कुछ कँपकँपी का अहसास हुआ.
हालाँकि, संग्रहालय के प्रवेशद्वार पर ही, उस आदमी की दानवीरता और समाजसेवा के बारे में प्रभावशाली ढंग से लिखी हुई ग्रैनाईट की पट्टिका थी. उस पर अंकित था कि उसे समाजसेवा के लिए सर्वोच्च श्रीसम्मान भी मिला था. उसके नाम से अनेक परोपकारी संस्थाएँ चल रहीं थीं. दो स्कूल और तीन अस्पताल थे. राष्ट्राध्यक्ष ने ख़ुद उसे पुरस्कृत किया था. वहीं उस अवसर की विशाल तस्वीर टँगी थी. इतने सम्मानित और उज्ज्वल आदमी पर किसी प्रकार संदेह का कारण नहीं बनता था. मगर उस फ़िल्म के प्रभाव की कुछ कोशिकाएँ शायद कैंसर कोशिकाओं की तरह मेरे मन मस्तिष्क में बची रह गई थीं. वे यकायक गुणित होते हुए विकराल हो गईं. मुझे पूरे शरीर में ऐंठन-सी होने लगी. माधुरी ने कुछ चिंतित होकर पूछा कि तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या? मुझसे बोलते भी नहीं बना कि हाँ तबीयत एकदम ठीक नहीं है. जबड़े जैसे जम गए. नाभि में से कोई लहर उठती थी और गले तक आती थी. उस समय मैं स्फटिक से बने, ख़ूबसूरत घोड़े के सामने खड़ा था. उसके नीचे लिखा था-‘लिमिटेड ऐडीशन’. इस बार लहर गले से निकलकर ऊपर मुँह तक आ गई. मैंने वमन कर दिया. वह सुंदर, मूल्यवान और गर्वीला घोड़ा मेरे वमन से पूरी तरह लिथड़ गया. नीचे इटैलियन संगमरमर का फ़र्श भी क़ै से सन गया. जब तक कोने में खड़े दो गॉर्ड मुझ पर झपटते, दो उलटियाँ और हुईं और आसपास की कलाकृतियाँ भी चपेट में आ गईं. उसके बाद तमाम झिकझिक हुई.
मैं कक्ष के बाहर, बरामदे की एक बैंच पर छाती पकड़कर लेट गया. मैंने धीरे से रूमाल से अपने ओंठ और मुँह पोंछा. वहाँ मौज़ूद दर्शकों में से दो-चार ने मेरी हालत पर तरस खाकर तरफ़दारी भी की. हालाँकि कलाकृतियों को वमनसिक्त देखकर उनके मुँह से चिच्च्च्च! जैसी आवाज़ें निकली. वमन हो जाने की वजह से मेरे पेट और मन की ऐंठन ग़ायब हो गई. उधर माधुरी ने कुछ दयनीय बनकर, कुछ लड़-झगड़कर मामला सुलटाया. लेकिन हत्यारे के वशंजों ने साफ़-सफ़ाई के नाम पर तीस हज़ार रुपये माँगे. उन्होंने फिरौती के किसी प्रतिभूति सामान की तरह मेरी बाँह पकड़ ली. झंझट ख़त्म करने के लिए माधुरी ने उसके और मेरे पर्स में से इकट्ठे करके तेरह हज़ार रुपये दिए. कहा कि इतने ही हैं. तिरस्कारपूर्वक और असंतोषपूर्वक नगदी लेते हुए उन्होंने कहा कि वे भले आदमी हैं इसलिए पुलिस नहीं बुला रहे हैं. फिर घुड़कते हुए हमें बाहर का रास्ता दिखाया. माधुरी से बदतमीज़ी करते हुए कहा कि जाइए, ज़रा इनका ठीक से इलाज कराइए. उन्होंने, उस हत्यारे का नाम लेकर, कहा कि हम उनकी दयालुता के उत्तराधिकारी हैं इसलिए आपको छोड़ रहे हैं. आपको अंदाज़ा नहीं है कि आपने कितना बड़ा नुकसान किया है. यह भीषण अपराध है. बल्कि पाप है. मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि इसमें मेरा कोई वश नहीं था. मेरी तबीयत अचानक ही ख़राब हो गई. यह सुनकर उन्होंने मुझे ऐसी हिक़ारत से देखा कि वह निगाह भूलती नहीं है. हालाँकि मेरी अपनी समझ यह थी कि उन्होंने पुलिस को इसलिए नहीं बुलाया कि वे इस घटना का प्रचार नहीं चाहते थे. कितना भी बड़ा आदमी क्यों न हो, चाहे वह अत्यंत सम्मानित, सुसंस्कृत और संपन्न हत्यारा या उनका वंशज ही क्यों न हो, कभी नहीं चाहेगा कि लोगों को भनक भी लगे कि उसके सुंदर संग्रहालय की बेशक़ीमती चीज़ों पर, भले ही भूल-चूक में, वमन कर दिया गया है. आजकल मीडियावाले भी बात को किस करवट बैठा दें, कुछ कहा नहीं जा सकता. माधुरी के उखड़े मूड, धनहानि और उसे अपमान की ज्वाला में जलते देखकर, मैं अपना यह विचार उसे बता नहीं सका. शायद यह भी ठीक ही हुआ कि लोगों के मोबाइल संग्रहालय के प्रवेश द्वार पर ही रख लिए जाते हैं वरना कोई न कोई वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल सकता था. तब इस संग्रहालय की कितनी किरकिरी होती, सोचकर मैं मन ही मन मुस्कराया.
शेष यात्रा में माधुरी एकदम अवसन्न अवस्था में बनी रही.
मैं जान गया हूँ कि मेरी ज़िंदगी से वह फ़िल्म अभी ख़त्म नहीं हुई है.
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(लेतलाली: किसी भी काम में जानबूझकर टालने की प्रवृत्ति या ढिलाई बरतना.)
नये कहानी संग्रह ‘मज़ाक़’ की पांडुलिपि से
कुमार अंबुज (जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश) कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’, ‘उपशीर्षक’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.kumarambujbpl@gmail.com |
बड़ी डिस्टोपियन कहानी है। प्रयोगशील, नवाचारी, साहसी और बेधक।
इस कहानी का सामयिक महत्त्व तो है ही, यह दस्तावेज़ी महत्त्व की कहानी है। न दुःस्वप्न से छुटकारा है और न कहानी के दुर्निवार विन्यास से।
अरुण देव जी की टिप्पणी सार्थक और सराहनीय है
इस कहानी से यह भी सिद्ध होता है कि हमारी कर्मेंद्रिय हैं जो कुछ भी देख कर या सुनकर या पढ़कर ग्रहण करती हैं उसका असर हमारे सोचने की प्रक्रिया पर होता है क्योंकि यह भी बुद्धि का भोजन है और जैसा अन्न वैसा मन यह कहावत भी सत्य है इसलिए कुछ देख सुनकर वैसा ही सोचने लगना यह वर्तमान समय में अति गंभीर मुद्दा है क्योंकि आज की युवा पीढ़ी भी दिनभर मोबाइल और सोशल मीडिया से इस तरह ग्रसित है कि उनके मस्तिष्क में वैसा ही परिवर्तन आ जाता है जैसा नशा करने वालों के मस्तिष्क में परिवर्तन होता है यह बात अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा प्रमाणित की जा चुकी है गीता में एक बात बताई है वह है साक्षी दृष्टा की स्थिति केवल यही एक ऐसी स्थिति है जो हमें किसी भी बाहर प्रभाव से बचा सकती है और यही एक योगी आत्मा की स्थिति होती है साक्षी दृष्टा
2019 में दीपा मेहता द्वारा निर्देशित नेटफ्लिक्स पर एक वेब सीरीज आई थी ‘लैला’ जो 2047 के भारत के भयावह तस्वीर प्रस्तुत कर रही है। वातावरण प्रदूषित हो गया है, ना केवल पर्यावरण की दृष्टि से, अपितु राजनीतिक, सामाजिक ,धार्मिक माहौल भी। संवेदनशील व्यक्ति के मन इस परिदृश्य को देखकर खिन्न है, लेकिन इस कहानी में वर्णित फिल्म का परिदृश्य 2047 का इंतजार नहीं करता। जबकि फिल्म के आरंभ में कह दिया गया है ,कि इस फिल्म का यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं, कहानी बिल्कुल आज के माहौल को फिल्म का आश्रय लेकर बता रहा है , जैसे फिल्म देख कर व्यक्ति को लगा यह फिल्म है या डॉक्यूमेंट्री उसी प्रकार कहानी पढ़कर एक बार को लगता है कि यह कहानी है !लेख है !या एक संवेदनशील व्यक्ति का मोनोलॉग !हम बेचैन होने लगतें है जैसे भयभीत होने पर पेट में उमड़ घुमड़ होती हैं और वमन होता है,वैसा ही कुछ महसूस करने लगते हैं।
कहानी एक वीभत्स अनुभव लोक का सफर कराती है।स्तब्ध एवं स्तंभित हूँ।नाजियों का इतिहास याद आ गया।एक भयावह असरदार कहानी।
ओह… ऐसा भयावह कथानक ! काश कि ऐसी कहानियों का यथार्थ हमारी दुनिया से नष्ट हो पाता।
👍अद्भुत है यह कहानी,,बेहद विचलित कर देने वाली,,हम कहानी से किसी जकड़ लेने वाली फिल्म और फ़िल्म से किसी स्तब्ध कर देने वाली कहानी में भटकते रहते हैं,,कहानी के नायक के फ़िल्म देखने का अनुभव हमे कहानी के शब्दों में किसी फिल्म की तरह मिलता है,,हमारे समय के निरन्तर अमानवीय और क्रूर होते कटु सर्वसत्तावादी, एकाधिकारवादी यथार्थ में निरन्तर अकेले होते हुए निर्दोष मनुष्य का ऐसा संत्रासपूर्ण छटपटाता दृश्यात्मक सामना मुझे पुराने दास्तोयवस्की और काफ्का के नायकों की याद दिला गया,,,,दम साध कर पढ़नेवाली बेहद लम्बे समय तक विचलित रखने वाली कहानी है यह,,,गहन चाक्षुष इंद्रियबोध,बिम्बात्मक श्रंखलाओंऔर सन्तप्त कर देने वाले आवेगपूर्ण कटु यथार्थ में डूबी हुई और हमे डुबाती हुई,,,,,,,,!
इस कहानी को निर्विवाद रूप से कुमार अंबुज ही लिख सकते हैं| सिनेमा और उसके असर की लंबी समझ, भूत और वर्तमान के घटनाक्रम पर पैनी नज़र, भावना व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता सभी कुछ इस कहानी में सरलता से दिखाई देता है|
कथा का सामयिक पैनापन बहुत तीक्ष्ण है और गहरा असर करता है|
हमें मालूम है अब कहानियाँ क्रांति नहीं करतीं, निश्चित रूप से यह पाठक के मन को अपना विचलन समझने पर विवश करेगी|
‘स्फटिक’ को पढ़ना नये अनुभवों से गुजरने जैसा है। फिल्म दृश्यों का
मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी इतना गहरा कि दृश्य के नये स्रोत खुलने लगते हैं। भविष्य तो दूर है यह वर्तमान का सच है जो निरंतर अपना आकार गढ़ता जा रहा है। उसके भयावह दृश्यों का खुलासा हो रहा है। अवचेतन की चीजें जो दृश्य क्रिएट कर रही थीं, वो अब वास्तविक हो रही हैं। जिस देश को इस भयावहता से बचाने की कोशिश होनी चाहिए थी, वह बेकार हो चुकी है। बल्कि अब उसका विकट रूप सामने आ रहा है, और देश को उस ओर ढकेला जा रहा।
‘स्फटिक’ की चमक दूर तक दिखाई दे रही है। आदरणीय भाई कुमार अम्बुज की यह कहानी सम्प्रेषण में बहुत मारक है । यह एक लंबी कविता की तरह है, जिसका प्रभाव आने वाले समय में बना रहेगा।
किस तरह असलियत को झूठ के चमकीले आवरण से अदृश्य किया जाता है । जैसे कुछ तो मेरे सामने ही घट रहा हो अरे ये अभी कल ही तो देखा ।
ये काव्य गद्य भी उस फिल्म की तर्ज पर चलता रहेगा ।
इस अनुभव से मैं गुज़र चुका हूँ जो मुझे अभी कहानी पढ़ कर समझ में आया है. भयावह है.
Superbly crafted article which conveys a sense of claustrophobia, helplessness,dejection,resignation and when there is absolutely nothing to fall back upon- perhaps a feeling of liberation.